लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते त्‍वतलोरधिकारः भवनाद्यर्थकाश्च)

अथ त्‍वतलोरधिकारः (भाव-कर्मार्थाः)

अब ‘त्व' और 'तल्' का अधिकार प्रारंभ होता है। 
११५४ तेन तुल्‍यं क्रिया चेद्वतिः
ब्राह्‍मणेन तुल्‍यं ब्राह्‍मणवत् अधीते । क्रिया चेदिति किम् ? गुणतुल्‍ये मा भूत् । पुत्रेण तुल्‍यः स्‍थूलः ।।
जो तुल्य है यदि वह क्रिया हो तो तृतीयान्त से तुल्य अर्थ में 'वति' प्रत्यय होता है। 
ब्राह्मणवत् अधीते- ब्राह्मणेन तुल्यम् अधीते (ब्राह्मण के तुल्य पढ़ता है)-इस विग्रह में 'ब्राह्मण' शब्द से 'तेन तुल्यं क्रिया चेद् वतिः' से 'वति' प्रत्यय होता है। इकार की इत्संज्ञा तथा लोप ब्राह्मण + वत् = ब्राह्मणवत्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर उक्त रूप बनता है। 
विशेष- 'वत' प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होते हैं। इनका प्रयोग क्रियाविशेषण के रूप में होता है। 

क्रिया चेदिति-यदि तुल्य क्रिया हो, ऐसा क्यों कहा? यह इसलिए कहा कि गुण यहाँ स्थूलता का समानता होने पर 'वति' प्रत्यय नहीं होता है। जैसे-'पुत्रण तुल्यः स्थूलः' यहाँ, रूप गुण की समानता है। इसलिए 'वति' प्रत्यय नहीं होगा। 

११५५ तत्र तस्‍येव
मथुरायामिव मथुरावत् स्रुग्‍ध्‍ने प्रकारः । चैत्रस्‍येव चैत्रवन्‍मैत्रस्‍य गावः ।।
सप्तम्यन्त और पष्ठ्यन्त से 'इव' (तुल्य, सदृश) अथ में कम होता है। 
मथुरावत्-सुघ्ने प्राकारः- मथुरायामिव (मथुरा के सामान सुघ्न में प्राकार है। विग्रह में मथुरा शब्द से 'तत्र तस्येव' से 'वति' प्रत्यय, 'इ' की इत्संज्ञा तथा लोप म + वत् = मथरावत, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मथरावत् रूप बनता 

चैत्रवत् मैत्रस्य गावः- चैत्रस्य इव (चैत्र के समान मैत्र की गाय है)-इस विग्रह में 'चैत्र' शब्द से 'तत्र तस्येव' से 'वति' प्रत्यय, इकार की इत्संज्ञा तथा लोप, चैत्र = चैत्रवत्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर उक्त रूप बनता है। 
११५६ तस्‍य भावस्‍त्‍वतलौ
प्रकृतिजन्‍यबोधे प्रकारो भावः । गोर्भावो गोत्‍वम् । गोता । त्‍वान्‍तं क्‍लीबम् ।।
 षष्ठ्यन्त में भाव अर्थ में 'त्व' और 'तल्' प्रत्यय होते हैं। 
अर्थात् प्रकृति के द्वारा उत्पन्न होने वाले ज्ञान में जो विशेषण होता है, उसे भाव कहते हैं। आशय यह है कि जिससे प्रत्यय किया जाता है, उसे प्रकृति कहते हैं। जैसे-'गो' आदि शब्द प्रकृति हैं। 'गो' शब्द से 'गो' व्यक्ति का बोध होता है जिसे दूसरे शब्दों में गोत्व विशिष्ट 'गो' व्यक्ति कह सकते हैं। यहाँ 'गो' व्यक्ति विशेष्य है और गोत्व धर्म विशेषण है, इसी को भाव कहा जाता है। 
गोत्वम्- गोर्भावः (गाय का भाव या गायपना)-इस विग्रह में 'गो' शब्द से ‘तस्य । भावस्त्वतलौ' से 'त्व' प्रत्यय होता है। गो + त्व = गोत्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकाय, 'त्वान्तं क्लीबम्' के विधान से यहाँ नपुंसकलिङ्ग होकर 'गोत्वम' रूप बनता है। । 
गोता- गोविः (गाय का भाव या गायपना)-इस विग्रह में गौ शब्द स तत्व भावस्त्वतलौ' से 'तल्' प्रत्यय, 'ल' की इत्संज्ञा तथा लोप, गो + त इस स्थिति में तलन्त स्त्रियाम्' के विधान से स्त्रीत्व होता है 'अजाद्यतष्टाप्' से 'टाप्' प्रत्यय, सवर्णदीर्घ होकर 'गोता' रूप बनता है। 
त्वान्तमिति-यह लिङ्गानुशासन का सूत्र है। 'त्व' प्रत्ययान्त शब्द नपुंसकाला । 
तलन्तमिति-यह भी लिङ्गानुशासन का सत्र है। इसके अनुसार त सक अनुसार तलन्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। 
११५७ आ च त्‍वात्
ब्रह्‍मणस्‍त्‍व इत्‍यतः प्राक् त्‍वतलावधिक्रियेते । अपवादैः सह समावेशार्थमिदम् । चकारो नञ्स्‍नञ्भ्‍यामपि समावेशार्थः । स्‍त्रिया भावः – स्‍त्रैणम् । स्‍त्रीत्‍वम् । स्‍त्रीता । पौस्‍नम् । पुंस्‍त्‍वम् । पुंस्‍ता ।।
ब्राह्मणस्त्वः -51 ।। 136 ।। से पहले 'त्व' और 'तल्' प्रत्यय का - अधिकार है। 
अपवादैरिति- इमनिच्, ष्यञ् आदि अपवादों के साथ त्व और तल् प्रत्यय का समावेश करने के लिए यह अधिकार किया गया है। इसका फल यह है कि इमनिच् आदि प्रत्यय 'त्व' और 'तल्' के बाधक नहीं होते हैं। 
चकार इति-सूत्र में चकार का प्रयोग 'नञ्' और 'स्नञ्' के साथ भी त्व और तल का समावेश करने के लिए है। 
स्त्रैणम्- स्त्रियाः भावः (स्त्री जाति)-इस विग्रह में 'स्त्री' शब्द से 'आ च त्वात्' के विधान से 'नञ्' प्रत्यय होता है। 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, स्त्री + न इस स्थति में 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'नकार' को ‘णकार' प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्त्रैणम्' रूप बनता है। 
स्त्रीत्वम्, स्त्रीता-स्त्रियां भावः इस विग्रह में 'स्त्री' शब्द से क्रमशः 'त्व' और 'तल्' प्रत्यय होकर स्त्रीत्वम्, स्त्रीता रूप बनते हैं। 
पौंस्नम्- पुंसः भावः (पुरुषत्व)-इस विग्रह में 'पुंस्' शब्द से 'आ च त्वात्' के विधान से 'स्नञ्' प्रत्यय, ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, पंस् + स्न, इस स्थिति में 'संयोगान्तस्य लोपः'। से पुंस् के सकार का लोप हो जाता है, आदिवृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पौंस्नम्' रूप बनता है। 

पुंस्त्वम् पुस्ता-पुंसः भावः इस विग्रह में पुंस् शब्द से क्रमशः 'त्व' और 'तल्' प्रत्यय होकर 'पुंस्त्वम्' तथा 'पुंस्ता' रूप बनते हैं। 
११५८ पृथ्‍वादिभ्‍य इमनिज्‍वा
वावचनमणादिसमावेशार्थम् ।।
सूत्र में वा का ग्रहण अण आदि प्रत्यव क समावेश के लिये के लिए किया गया। 
'इमनिच' में 'इमन्' शेष रहता है। पृथु आदि शब्दों को गणपाठ में इस प्रकार रखा गया है-पृथु मृदु महत् पटु तनु लघु बहु साधु आशु उरु गुरु बहुल खण्ड दण्ड चण्ड अकिंचन बाल होड पाक वत्स मन्द स्वादु ह्रस्व दीर्घ प्रिय ऋजु क्षिप्र क्षुद्र अणु ।। इति पृथ्वादिः ।।
११५९ र ऋतो हलादेर्लघोः
हलादेर्लघोर्ऋकारस्‍य रः स्‍यादिष्‍ठेयस्‍सु परतः । पृथुमृदुभृशकृशदृढपरिवृढा नामेव रत्‍वम् ।।
हलादि (व्यञ्जन से प्रारम्भ होने वाला) ह्रस्व 'ऋ' को रेफ 'र' आदेश हो जाता है, यदि बाद में इष्ठन, और ईयसन प्रत्यय परे हों तो। 
११६० टेः
भस्‍य टेर्लोप इष्‍ठेमेयस्‍सु । पृथोर्भावः प्रथिमा –
भसंज्ञक टि (अंतिम स्वर या अंतिम स्वर सहित व्यञ्जन) को बाद में इष्ठन्, इमनिच् और ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर लोप हो जाता है। 
भसंज्ञा-सु, औ, जस्, अम् और औट इन सर्वनामस्थान संज्ञक प्रत्ययों को छोड़कर सु से लेकर कप् प्रत्यय पर्यन्त वकारादि और अजादि प्रत्यय परे होने पर पूर्व की भसंज्ञा होती है। 
पृथु इति- पृथु मृदु भृश कृश दृढ और परिवृढ शब्दों के 'ऋ' को ही '' होता है। 

प्रथिमा- पृथोः भावः (विशालता)-इस विग्रह में पृथु शब्द से 'पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा' से विकल्प से 'इमनिच्' प्रत्यय होता है। इ तथा च की इत्संज्ञा तथा लोप पृथु + इमन् इस स्थिति में 'पृथमृदुभृशकशदृढपरिवृढानामेव रत्वम्' के विधान से ‘र ऋतो हलादेलघोः'। से 'ऋ' को '' आदेश, 'टेः' से 'उ' टि का लोप प्रथ् + इमन् = प्रथिमन्, प्रातिपदिसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्रथिमा' रूप बनता है। 
११६१ इगन्‍ताच्‍च लघुपूर्वात्
इगन्‍ताल्‍लघुपूर्वात् प्रातिपदिकाद्भावेऽण् प्रत्‍ययः । पार्थवम् । म्रदिमामार्दवम् ।।
जिस प्रातिपदिक के अन्त में इक् (इ उ ऋ) है और उससे पूर्व लघु स्वर है, उससे भाव अर्थ में अण् प्रत्यय होता है। 

पार्थवम्-पृथोः भावः (विशालता)-इस विग्रह में पृथु शब्द से 'इगन्ताच्च लघुपूर्वात्' से अण् प्रत्यय होता है। ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, पृथु + अ, इस स्थिति में तद्धितेष्वचामादः' से आदिवृद्धि, 'ओर्गुणः' से 'उ' को गुण 'ओ' तथा 'एचोऽयवायावः' से 'ओ' को अव् आदेश पार्च् + अव् + अ = पार्थव, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पार्थवम्' रूप बनता है।
म्रदिमा- मृदोः भावः (मृदुता)-इस विग्रह में मृद शब्द से 'पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा' से विकल्प से इमनिच प्रत्यय होता है। इ और च की इत्संज्ञा तथा लोप, मृदु • इमन्, 'पृथ मृदुभृश.' इस वातिक के विधान से ‘र ऋता हलादेलघोः' से 'ऋ' को 'र' आदेश, टेः' से 'उ' का लोप, प्रद् + इमन् = म्रदिमन्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मदिमा' रूप बनता है। 

मार्दवम्- मृदोः भावः (मृदुता)-इसे विग्रह में मृदु शब्द से इमनिच् के अभावपक्ष में 'इगन्ताच्च लघुपूर्वात्' से अण् प्रत्यय होता है 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, मृदु + अ, आदिवृद्धि, ओर्गुणः' से उ को गुण ओ तथा ओ को 'अव्' आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मार्दवम' रूप बनता है। 
११६२ वर्णदृढादिभ्‍यः ष्‍यञ्च
चादिमनिच् । शौक्‍ल्‍यम् । शुक्‍लिमा । दार्ढ्यम् । द्रढिमा ।।
षष्ठ्यन्त वर्णवाचक तथा दृढ आदि शब्दों से भाव अर्थ में ष्याञ् प्रत्यय तथा चकार कहने से इमनिच भी होता है।

शौक्ल्यम्- शुक्लस्य भावः (सफेदी)-इस विग्रह में 'शुक्ल' शब्द से 'वर्णदृढादिभ्यः । ष्यञ्च' से 'व्यञ्' प्रत्यय होता है। और ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, शुक्ल • य, इस स्थिति में तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप शौक्ल् + य = शौक्ल्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शौक्ल्यम्' रूप बनता है। शक्लिमा-'शक्लस्य भावः' इस विग्रह में 'शुक्ल' शब्द से ष्यञ् के अभाव पक्ष में इमनिच प्रत्यय होता है। इ और च की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, शुक्ल + इमन् = शुक्लिमन्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शुक्लिमा' रूप बनता है। 
दार्यम्- दृढस्य भावः (दृढता)-इस विग्रह में 'दृट्' शब्द से 'वर्णदृढादिभ्यः ष्यञ्च' से प्यत्र प्रत्यय, प तथा ज की इत्संज्ञा तथा लोप, दृढ • य, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप. प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दाढ्यम्' रूप बनता है। 
टिमा-'ढस्य भावः' इस विग्रह में 'दृढ' शब्द से ष्य के अभाव पक्ष में इमनिच प्रत्यय होता है। इ तथा च की इत्संज्ञा तथा लोप र ऋतो हलादेलघोः' से 'क' को आदेश, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'द्रढिमा' रूप बनता है।
दृढ आदि शब्दों को गणपाठ में इस प्रकार रखा गया है-दृढ वृढ परिवृढ भृश कृश वक्र शुक्र आम्र कष्ट लवण ताम्र शीत उष्ण जड बधिर पण्डित मधुर मूर्ख मूक स्थिर। वेर्यातलावमतिर्मनः शारदानाम्। समो मतिमनसोः । जवन ।। इति दृढादिः।।
११६३ गुणवचनब्राह्‍मणादिभ्‍यः कर्मणि च
चाद्भावे । जडस्‍य भावः कर्म वा जाड्यम् । मूढस्‍य भावः कर्म वा मौढ्यम् । ब्राह्‍मण्‍यम् । आकृतिगणोऽयम् ।।
षष्ठ्यन्त गणवाचक और ब्राह्मण आदि शब्दों से भाव और कर्म अर्थ में ष्यञ् प्रत्यय होता है। 
व्याख्या-ष्य में य शेष रहता है। 
जाडूयम्-जडस्य भावः कर्म वा (मूर्खता या मूर्ख का कार्य)-इस विग्रह में 'जड' शब्द से 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' से ष्यञ् प्रत्यय होता है। ए तथा ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, जड + य, इस स्थिति में तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'जाड्यम्' रूप बनता है। मौढ्यम्-मूढस्य भावः कर्म वा (मूर्खता या मूर्ख का कार्य)-इस विग्रह में 'मूट' शब्द से 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' से ष्यञ् प्रत्यय, ष् तथा ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मौढ्यम्' रूप बनता है। 

ब्राह्मण्यम्-ब्राह्मणस्य भावः कर्म वा (ब्राह्मणत्व या ब्राह्मण का काय)-इस विग्रह में 'ब्राह्मण' शब्द से 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' से ष्यञ् प्रत्यय, ष, तथा की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ब्राह्मण्यम्' रूप बनता है। आकृतीति-ब्राह्मण आदि शब्द आकृतिगण हैं। 
११६४ सख्‍युर्यः
सख्‍युर्भावः कर्म वा सख्‍यम् ।।
षष्ठ्यन्त सखि शब्द से भाव और कर्म अर्थ में 'य' प्रत्यय होता है। 

सख्यम्-सख्युः भावः कर्म वा (मित्रता या मित्र का काय)-इस विग्रह में सखि शब्द से 'सख्यर्यः' से 'य' प्रत्यय होता है। सखि + य इस स्थिति में 'यस्येति च' से अन्त्य 'इ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सख्यम्' रूप बनता है। 
११६५ कपिज्ञात्‍योर्ढक्
कापेयम् । ज्ञातेयम् ।

षष्ठ्यन्त कपि और ज्ञाति शब्द से भाव और कर्म अर्थ में ढक् प्रत्यय होता है।
कापेयम्- कपेः भावः कर्म वा (बंदर का भाव या बंदर का काय)-इस विग्रह में 'कपि' शब्द से 'कपिज्ञात्योर्टक' से ढक् प्रत्यय होता है। क को इत्संज्ञा तथा लोप, 'किति च से आदिवृद्धि, 'यस्यति च' से अन्त्य 'इ' का लोप, 'आयनेयीनीयियः फटखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'ट' को 'एय' आदेश, काप् + एय = कापय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कापेयम्' रूप बनता है। 
ज्ञातेयम्- ज्ञातेः भावः कर्म वा (सम्बन्धी का भाव या सम्बन्धी का काय)-इस विग्रह में 'ज्ञाति' शब्द से 'कपिज्ञात्योर्डक' से ढक प्रत्यय होता है। 'क' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'इ' का लोप, 'आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'ढ' को 'एय' आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ज्ञातेयम्' रूप बनता है। 
११६६ पत्‍यन्‍तपुरोहितादिभ्‍यो यक्
सैनापत्‍यम् । पौरोहित्‍यम् ।।
षष्ठ्यन्त पति अन्त वाले शब्दों और प्रोहित आदि शब्दों से भाव और कर्म अर्थ में ‘यक्' प्रत्यय होता है। 
व्याख्या-यक् में य शेष रहता है। 
सैनापत्यम्- सेनापतेः भावः कर्म वा (सेनापति का भाव या सेनापति का कार्य)-इस विग्रह में सेनापति शब्द से 'पत्यन्तपुरोहितादिभ्यो यक्' से यक् प्रत्यय होता है। क् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'इ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सैनापत्यम्' रूप बनता है। 

पौरोहित्यम्- पुरोहितस्य भावः कर्म वा (पुरोहित का भाव या पुरोहित का काय)-इस विग्रह में पुरोहित शब्द से ‘पत्यन्तपुरोहितादिभ्यो यक्' से 'यक्' प्रत्यय होता है। 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पौरोहित्यम्' रूप बनता है। 
इति त्‍वतलोरधिकारः ।। ११ ।।

अथ भवनाद्यर्थकाः


अब भवन (होने का स्थान) आदि अर्थ वाले प्रत्यय प्रारंभ होते हैं।
११६७ धान्‍यानां भवने क्षेत्रे खञ्
भवत्‍यस्‍मिन्निति भवनम् । मुद्गानां भवनं क्षेत्रं मौद्गीनम् ।।
षष्ठ्यन्त धान्य विशेषवाचक शब्दों से 'भवनं क्षेत्रम्' (उत्पत्ति-स्थान, खेत)। अर्थ में खञ् पत्यय होता है।
भवतीति- जिसमें होता है उस भवन कहते हैं। 

मौद्गीनम्- मुद्गानां भवन क्षेत्रम् (जिसमें मूंग होती है ऐसा खेत)-इस विग्रह में 'मुद्ग' शब्द से 'धान्यानां भवन क्षेत्रे खज' से खञ् प्रत्यय होता है। ञ् की इत्संज्ञा तथा लाप, 'आयनेयीनीयियः.' से 'ख' को 'ईन' आदेश, 'तद्धितेष्वचामादः' से आदिवृद्धि 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘मौदगीनमः रूप बनता है।
११६८ व्रीहिशाल्‍योर्ढक्
व्रैहेयम् । शालेयम् ।।
षष्ठ्यन्त व्रीहि और शालि शब्दों से भवनं क्षेत्रम्' अर्थ में ढक प्रत्यय होता है। 
त्रैहेयम्-वीहीणां भवनं क्षेत्रम। (जिस खेत में धान होते हैं)-इस विग्रह में व्रीहि शब्द से 'ब्रीहिशाल्योर्डक' से ढक प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'आयनेयीनीयियः', से 'ढ' को 'एय' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'इ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'बेहेयम्' रूप बनता है। 

शालेयम्-शालीनां भवनं क्षेत्रम् (जिस खेत में शालि धान होते हैं)-इस विग्रह में 'शालि' शब्द से 'व्रीहिशाल्योर्डक्' से ढक् प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'आयनेयीनीयियः.' से 'ढ' को 'एय' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य इ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शालेयम्' रूप बना।
११६९ हैयङ्गवीनं संज्ञायाम्
ह्‍योगोदोहशब्‍दस्‍य हियङ्गुरादेशः विकारार्थे खञ्च निपात्‍यते । दुह्‍यत इति दोहः क्षीरम् । ह्‍योगोदोहस्‍य विकारः – हैयङ्गवीनं नवनीतम् ।।
षष्ठ्यन्त ह्योगोदोह शब्द को हियङ्ग आदेश होता है और विकार अथ। में खञ् प्रत्यय संज्ञा में निपातन से होता है। हैयङ्गवीनम्- ह्योगोदोहस्य विकारः (कल के दुहे हुए दूध से निकला हुआ, मक्खन)-इस विग्रह में ‘ह्योगोदोह' शब्द से 'हैयङ्गवीनं संज्ञायाम' सूत्र से खञ् प्रत्यय तथा ह्योगोदोह शब्द को हियङ्गु आदेश होता है। ञ की इत्संज्ञा तथा लोप, हियङ्गु + ख, 'आयनेयीनीयियः.' से 'ख' को 'ईन' आदेश, तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवाखा 'ओर्गणः' से उस को गुण ओ, ओ को अव् आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वाादक होकर 'हैयङ्गवीनम्' रूप बनता है। 
११७० तदस्‍य संजातं तारकादिभ्‍य इतच्
तारकाः संजाता अस्‍य तारकितं नभः । पण्‍डितः । आकृतिगणोऽयम् ।।
प्रथमान्त तारका आदि शब्दों से अस्य सजातम् (ये इसके हो गये हैं, इसमें प्रादुर्भूत हो गये हैं) अर्थ में इतच् प्रत्यय होता है। 
तारकितं नभः- तारकाः सञ्जाता अस्य (जिसमें तार निकल आये हैं ऐसा आकाश)-इस विग्रह में तारका शब्द से 'तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतन्' से इतचू प्रत्यय होता है। 'च' की इत्संज्ञा तथा लोप, तारका + इत, इस स्थिति में 'यस्येति च' से अन्त्य 'आ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'तारकितम्' रूप बनता है। पण्डितः-पण्डा सजाता अस्य (सद्असद् विवेकिनी बुद्धि को पण्डा बुद्धि कहते हैं, जिसमें विवेक बुद्धि आ गई है, विद्वान्)-इस विग्रह में 'पण्डा' शब्द से 'तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतच्' से इतच् प्रत्यय, 'च्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्येति च से अन्त्य 'आ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पण्डितः' रूप बनता 

आकृतीति- तारकादि आकृतिगण हैं। 
११७१ प्रमाणे द्वयसज्‍दघ्‍नञ्मात्रचः
तदस्‍येत्‍यनुवर्तते । ऊरू प्रमाणमस्‍य – ऊरुद्वयसम् । ऊरुदघ्‍नम् । ऊरुमात्रम् ।।
यह इसका प्रमाण है इस अर्थ में प्रथमान्त पद से द्वयसच, दघ्नच और मात्रच् प्रत्यय होते हैं। व्याख्या-उक्त तीनों प्रत्ययों के 'च्' इत्संज्ञक हैं। 
ऊरुद्वयसम्- ऊरू प्रमाणम् अस्य (जाँघ तक जल आदि)-इस विग्रह में ऊरु शब्द से 'प्रमाणे द्वयसज्दघ्नञ् मात्रचः' से 'द्वयसच्' प्रत्यय, 'च' की इत्संज्ञा तथा लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ऊरुद्वयसम्' रूप बनता है। 
ऊरुदघ्नम-ऊरू प्रमाणम् अस्य-इस विग्रह में ऊरू शब्द से 'प्रमाणे द्वय-सजदघ्ना मात्रचः' से दघ्नच प्रत्यय होता है, 'च' की इत्संज्ञा तथा लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ऊरुदघ्नम्' रूप बनता है। 

ऊरुमात्रम्- 'ऊरू प्रमाणम् अस्य'-इस विग्रह में ऊरु शब्द से 'प्रमाणे द्वयसज्दघ्नमात्रचः' से मात्रच् प्रत्यय होता है। 'च' की इत्संज्ञा तथा लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ऊरुद्वयसम्' रूप बनता है। 
११७२ यत्तदेतेभ्‍यः परिमाणे वतुप्
यत्‍परिमाणमस्‍य यावान् । तावान् । एतावान् ।।
प्रथमान्त यत्, तत् और एतत् शब्दों से परिमाण (नाप, तौल) अर्थ में वतुप् प्रत्यय होता है।
यावान्- यत् परिमाणम् अस्य (जितना)-इस विग्रह में यत् शब्द से 'यत्तदेतेभ्यः परिमाण वतुप्' से वतुप होता है। उ और प की इत्संज्ञा तथा लोप 'आ सर्वनाम्नः' से 'यत्' शब्द को आकार अन्तादेश होकर यावत् रूप बना, तत्पश्चात् प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘यावान्' रूप बनता है। 
तावान्- तत् परिमाणम् अस्य (उतना)-इस विग्रह में तत् शब्द से 'वत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुप्' से वतुप् प्रत्यय, उ तथा ' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'आ सर्वनाम्नः'। से तत् शब्द को आकार अन्तादेश होकर तावत् रूप बना, तत्पश्चात् प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'तावान्' रूप बनता है। 

एतावान् एतत् परिमाणम् अस्य (इतना)-इस विग्रह में एतत् शब्द से 'यत्तदेतेभ्यः परिमाणे 'वतुप्' से वतुप् प्रत्यय, उ तथा की इत्संज्ञा तथा लोप, 'आ सर्वनाम्नः' से 'एतत्' को आकर अन्तादेश होकर एतावत् रूप बना, तत्पश्चात् प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘एतावान्' रूप बनता है। 
११७३ किमिदंभ्‍यां वो घः
आभ्‍यां वतुप् स्‍याद् वकारस्‍य घश्‍च ।।
प्रथमान्त किम् और इदम् शब्दों से परिमाण अर्थों में ‘वतुप्' प्रत्यय होता है और वतुप् के 'व्' को 'घ' आदेश हो जाता है। व्याख्या-वतुप् के उ और प् की इत्संज्ञा तथा लोप होकर वत् शेष रहता है।
११७४ इदंकिमोरीश्‍की
दृग्‍दृशवतुषु इदम ईश् किमः किः । कियान् । इयान् ।।
 दृग, दृश् और वतुप् प्रत्यय परे होने पर 'इदम्' को 'ईश' और 'किम' को 'की' आदेश होते हैं। 
कियान्- किं परिमाणम् अस्य (कितना)-इस विग्रह में किम् शब्द से 'किमिदंभ्यां वो घः' से वतुप् प्रत्यय तथा 'वतुप्' के 'व' को 'घ' आदेश, उ और प की इत्संज्ञा तथा लोप, किम + घ + अत्, इस स्थिति में 'आयनेयीनीयिय.' से 'घ' को 'इय' आदेश, किम् + इय् + अत्, ‘इदंकिमोरीश् की' से किम् को की आदेश की । इय + अत, 'यस्येति च' से 'ई' का लोप, क् + इयत् = कियत, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कियान्' रूप बनता है। 

इयान्- इदं परिमाणम् अस्य (इतना)-इस विग्रह में इदम् शब्द से 'किमिदंभ्यां वो घः' से वतप प्रत्यय, 'व' को 'घ' आदेश उ और पू की इत्संज्ञा तथा लोप, इदम - घ । अत. 'आयनेयीनीयिय.' से 'घ्' को 'इय्' आदेश, इदम् + इय् + अत्,  'इदंकिमोरीश् की' से 'इदम्' को ईश् आदेश, 'श्' की इत्संज्ञा तथा लोप ई - इयत् इस स्थिति में 'यस्येति च' स ई' का लोप होकर 'इयत्'' शेष रहता है। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'इयान्' रूप बनता है। 
११७५ संख्‍याया अवयवे तयप्
पञ्च अवयवा अस्‍य पञ्चतयम् ।।
प्रथमान्त संख्या वाचक शब्द से इतने अवयव हैं इस अर्थ में तयप प्रत्यय होता है। 
पञ्चतयम्-पञ्च अवयवा अस्य (पाँच अवयव हैं इसके, पाँच अवयवों वाला)-इस विग्रह में 'पञ्चन्' शब्द से 'सङ्ख्याया अवयवे तया' से 'तयप्' प्रत्यय होता है, 'प्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'न्' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पञ्चतयम्' रूप बनता है। 
११७६ द्वित्रिभ्‍यां तयस्‍यायज्‍वा
द्वयम् । द्वितयम् । त्रयम् । त्रितयम् ।।
 द्वि और त्रि शब्द से परे 'तयप्' को विकल्प से 'अयच्' आदेश होता है। 
द्वयम्, द्वितयम्- द्वौ अवयवौ अस्य (दो अवयव वाला, दुहरा)-इस विग्रह में 'द्वि' शब्द से 'सङ्ख्याया अवयवे तयप्' से तयप् प्रत्यय होता है। 'द्वित्रिभ्यां तयस्याज्चा' से विकल्प से तयप् को 'अयच्' आदेश होता है। '' की इत्संज्ञा तथा लोप, द्वि + अय, 'यस्येति च' से 'इ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'द्वयम्' रूप बनता 
पक्ष में जहाँ अयच् आदेश नहीं होता है वहाँ 'तयप्' प्रत्यय रहता है। प् की इत्संज्ञा तथा लोप, द्वि + तय = द्वितय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'द्वितयम्' रूप बनता है। 
त्रयम्, त्रितयम्- त्रयः अवयवा अस्य (तीन अवयव वाला, तिहरा)-इस विग्रह में 'त्रि' शब्द से 'सङ्ख्याया अवयवे तयप्' से तयप् होता है। 'द्वित्रिभ्यां तयस्यायज्वा' से तयप को विकल्प से अवच् आदेश, 'च' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्येति च' से 'इ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'त्रयम्' रूप बनता है। 
पक्ष में जहाँ अयच् आदेश नहीं होता है, वहाँ 'तयप्' ही रहता है। प् की इत्संज्ञा तथा लोप, त्रि + तय = त्रितय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'त्रितयम्' रूप बनता है।


११७७ उभादुदात्तो नित्‍यम्
उभशब्‍दात्तयपोऽयच् स्‍यात् स चाद्युदात्तः । उभयम् ।।
उभ शब्द से परे तयप को नित्य अयच् आदेश होता है और वह आधुदात्त होता है। 

उभयम्- उभी अवयवौ अस्य (दो अवयव हैं इसके, दोनों)-इस विग्रह में 'उभ' शब्द । से 'सङ्ख्याया अवयवे तयप्' से तयप् प्रत्यय होता है। ‘उभादुदात्तो नित्यम्' से तयप् को 'अयच्' आदेश, 'च' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'उभयम्' रूप बनता है। 
११७८ तस्‍य पूरणे डट्
एकादशानां पूरणः एकादशः ।।
पष्ठ्यन्त संख्यावाचक शब्द से पूरण (पूरा करना) अर्थ में 'डट्' प्रत्यय होता है। 
डट् में 'ड्र' और 'ट्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'अ' शेष रहता है। 
पूर्यतेऽनेनेति- पूरणः अवयवः अर्थात् पूरण अवयव को कहते हैं। पूरण प्रत्ययान्त शब्दों को पूरणी संख्या कहते हैं। ये शब्द प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि क्रमवाचक संख्याबोधक विशेषण होते हैं। 

एकादशः- एकादशानां पूरणः (ग्यारह को पूरा करने वाला, ग्यारहवाँ)-इस विग्रह में 'एकादशन्' शब्द से 'तस्य पूरणे डट्' से 'डट्' प्रत्यय होता है। ड् और ट् की इत्संज्ञा तथा लोप, डित् होने से 'अन्' टि का लोप, एकादश् + अ = एकादश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'एकादशः' रूप बनता है। 
११७९ नान्‍तादसंख्‍यादेर्मट्
डटो मडागमः । पञ्चानां पूरणः पञ्चमः । नान्‍तात्‍किम् ?
यदि नकारान्त शब्द से पहले कोई संख्यावाची शब्द न हो तो 'न' अन्त वाले संख्यावाचक शब्द से 'डट्' को 'मट' का आगम होता है। 
व्याख्या-मट में 'म्' शेष रहता है। इस प्रकार 'इट' और 'मट्' होकर 'म' बनता 

पञ्चमः-पञ्चानां पूरणः (पाँचवाँ)-इस विग्रह में 'तस्य पूरणे डट' से डट् प्रत्यय होता है। 'डट' में 'अ' शेष रहता है। 'नान्तादसङ्ख्यादेमंट' से 'मट' का आगम होता है। मट में 'म' शेष रहता है। पञ्चन् । म + अ इस स्थिति में 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य से 'न्' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पञ्चमः' रूप बनता है। 
नान्तादिति-नकारान्त से परे डट् को मट का आगम होता है ऐसा क्यों कहा? यह इसलिए कहा कि विंशति आदि अनकारान्त से परे मट का आगम नहीं होता है। 
११८० ति विंशतेर्डिति
विंशतेर्भस्‍य तिशब्‍दस्‍य लोपो डिति परे । विंशः । असंख्‍यादेः किम् ? एकादशः ।।
डित् प्रत्यय परे होने पर विंशति शब्द के भसंज्ञक ति शब्द का लोप होता है। 

विंशः- विंशतेः पूरणः (बीस की संख्या को पूरा करने वाला, बीसवाँ)-इस विग्रह में विंशति शब्द से 'तस्य पूरणे डट्' से डट् प्रत्यय होता है। 'डट्' में 'अ', शेष रहता है। 'ति विंशतेर्डिति' से ति का लोप होता है। विश + अ इस स्थिति में 'अतो गुणे' से पररूप' होकर विंश शब्द बनता है। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विंशः' रूप बनता है। असङ्ख्यादेः किमिति-जिसके आदि में संख्या न हो सूत्र में ऐसा किसलिए कहा? यह इसलिए कहा कि एकादशः में 'मट्' का आगम नहीं होता, क्योंकि यहाँ दशन् शब्द से पूर्व एक शब्द संख्यावाचक है। 
११८१ षट्कतिकतिपयचतुरां थुक्
एषां थुगागमः स्‍याड्डिट। षण्‍णां षष्‍ठः। कतिथः। कतिपयशब्‍दस्‍यासंख्‍यात्‍वेऽप्‍यत एव ज्ञापकाड्डट्। कतिपयथः। चतुर्थः ।।
डट् प्रत्यय परे होने पर पष्, कति, कतिपय और चतुर् शब्दों को थुक् का आगम होता है। 
व्याख्या-थक में उ और क् की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'थ्' शेष रहता है। 
षष्ठः- षण्णां पूरणः (छः संख्या को पूरा करने वाला, छठा)-इस विग्रह में षष शब्द से 'तस्य परणे डट' से डट् प्रत्यय, डट् में अ शेष रहता है। 'षट्कतिकतिपयचतुरां थक' से थक का आगम, उ तथा क् की इत्संज्ञा तथा लोप, षष् + + अ इस स्थिति में 'प्टनाष्टः' से 'थ' को ष्टत्व 'ठ' होकर 'षष्ठ' रूप बना। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'षष्ठः' रूप सिद्ध होता है। 
कतिथः- कतीनां पुरणः (कितनी संख्या वाला)-इस विग्रह में कति शब्द से 'तस्य पुरणे डट' से डट प्रत्यय, डट में 'अ' शेष रहता है। 'षट्कतिकतिपयचतरां थुक' से थुक् का आगम उ, क् की इत्संज्ञा तथा लोप, कति + थ् + अ = कतिथ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कतिथः' रूप बनता है। 
कतिपयेति-यद्यपि कतिपय शब्द संख्यावाची नहीं है फिर भी उससे डट् प्रत्यय होता है। प्रस्तुत सूत्र से कतिपय के बाद ड्ट को थुक का आगम विहित है। इसी ज्ञापक से डट् प्रत्यय होता है। 
कतिपयथः-कतिपयानां पूरणः (कितनी संख्या वाला)-इस विग्रह में 'कतिपय' शब्द से 'षट्कति.' इत्यादि सूत्र के ज्ञापक से डट् प्रत्यय होता है। 'षट्कतिकतिपयचतुरां थुक्' से थुक् का आगम उ, क् की इत्संज्ञा तथा लोप, कतिपय + थ् + अ = कतिपयथ, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कतिपयथः' रूप बनता है। 
चतुर्थः- चतुण्णां पूरणः (चार संख्या को पूरा करने वाला, चौथा)-इस विग्रह में चतुर शब्द से 'तस्य पूरणे डट्' से डट् (अ) प्रत्यय, 'षट्कतिकतिपयचतुरां थुक्' से थुक् का आगम, उ, क् की इत्संज्ञा तथा लोप, चतुर + थ् + अ = चतुर्थ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'चतुर्थः' रूप बनता है।  


११८२ द्वेस्‍तीयः
डटोऽपवादः । द्वयोः पूरणो द्वितीयः ।।
द्वि शब्द से पूरण अर्थ में तीय प्रत्यय होता है। व्याख्या-यह डट् प्रत्यय का अपवाद है। 

द्वितीयः- द्वयोः पूरणः (दो संख्या को पूरा करने वाला, दूसरा)-इस विग्रह में द्वि शब्द से 'तस्य पूरणे डट्' से प्राप्त ‘डट्' को बाधकर 'वस्तीयः' से 'तीय' प्रत्यय होता है। 'द्वि + तीय = द्वितीय', प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'द्वितीयः' रूप बनता है। 
११८३ त्रेः संप्रसारणं च
तृतीयः ।।
त्रि शब्द से पूरण अर्थ में 'तीय' प्रत्यय होता है और त्रि को सम्प्रसारण (त) होता है। 

तृतीयः- त्रयाणां पूरणः (तीन संख्याओं को पूरा करने वाला, तीसरा) इस विग्रह में त्रि शब्द से 'तस्य तूरणे डट्' से प्राप्त ‘डट्' को बाधकर 'त्रेः सम्प्रसारणं च' से तीय प्रत्यय तथा 'र' को सम्प्रसारण 'ऋ' होता है। त् + ऋ + इ + तीय इस स्थिति में 'सम्प्रसारणाच्च' से पर्वरूप (ऋ + इ = ऋ), तृ + तीय = ततीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'तृतीयः' रूप बनता है। 
११८४ श्रोत्रियंश्‍छन्‍दोऽधीते
श्रोत्रियः । वेत्‍यनुवृत्तेश्‍छान्‍दसः ।।
छन्दोऽधीत (वेद पढ़ता है) इस अर्थ में विकल्प से श्रोत्रिय' यह घन प्रत्यवान्त निपातन से होता है। 
श्रोत्रियः- छन्दाऽधीत (वद पढ़ता है)-इस विग्रह में छन्दस् शब्द से 'श्रोत्रियंश्छन्दोऽधीते' इस सूत्र से निपातनात् घन् प्रत्यय और छन्दस् को श्रोत्र आदेश होता है। नकारलोप, 'घ' का 'इय' आदेश, अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'श्रोत्रियः' रूप बनता है। 

विशेष-श्रोत्रियन् शब्द में नकार स्वर के लिए है। वेति- इस सूत्र में 'आवतिथं ग्रहणमिति लुग्वा' 5।।। 77। इस सूत्र से वा की अनुवृत्ति होती है। इसलिए घन् प्रत्यय के अभाव पक्ष में छन्दस् से 'अण्' प्रत्यय होता 
११८५ पूर्वादिनिः
पूर्वं कृतमनेन पूर्वी ।।
द्वितीयान्त पूर्व शब्द से अनेन कृतम् (इसने किया) इस अर्थ में 'इनि' प्रत्यय होता है। 

पूर्वी- पूर्वं कृतम् अनेन (इसने पहले किया है)-इस विग्रह में पूर्व शब्द से 'पूर्वादिनिः' से इनि प्रत्यय, 'इ' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, पूर्व + इन् = पूर्विन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पूर्वी' रूप बनता है। 
११८६ सपूर्वाच्‍च
कृतपूर्वा ।।
यदि पूर्व शब्द से पहले कोई दूसरा शब्द होगा तो भी इसने किया इस अर्थ में इनि प्रत्यय होता है। 

कृतपूर्वी- पूर्वं कृतम् अनेन (इसने पहले किया है)-इस विग्रह में कृतपूर्व शब्द से 'सपर्वाच्च' से इनि प्रत्यय, 'इ' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, कृतपूर्व + इन = कृतपूर्विन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कृतपूर्वी' रूप बना।
११८७ इष्‍टादिभ्‍यश्‍च
इष्‍टमनेन इष्‍टी । अधीती ।।
इष्ट आदि शब्दों से 'अनेन इष्टम्' आदि अर्थ में इनि प्रत्यय होता है। 

इष्टी-इष्टम अनेन (इसने यज्ञ किया है)-इस विग्रह में इष्ट शब्द से 'इष्टादिभ्यश्च । से इनि प्रत्यय 'इ' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्यति च' स अन्त्य 'अ' का लोप, इष्ट्र इन् = इष्टिन्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'इष्टी' रूप बनता है। 
अधीती- अधीतमनेन (इसने पढ़ लिया है)-इस विग्रह में 'अधीत' शब्द से "इष्टादिभ्यश्च' से इनि, (इन्) प्रत्यय, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अधीती' रूप बनता है। 
इति भवनाद्यर्थकाः ।। १२ ।।
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