लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते शैषिकाः)


                     अथ शैषिकाः

१०७१ शेषे
अपत्‍यादिचतुरर्थ्‍यन्‍तादन्‍योऽर्थः शेषस्‍तत्राणादयः स्‍युः । चक्षुषा गृह्‍यते चाक्षुषं रूपम् । श्रावणः शब्‍दः । औपनिषदः पुरुषः । दृषदि पिष्‍टा दार्षदाः सक्तवः । चतुर्भिरुह्‍यं चातुरं शकटम् । चतुर्दश्‍यां दृश्‍यते चातुर्दशं रक्षः । ‘तस्‍य विकारः’ इत्‍यतः प्राक् शेषाधिकारः ।।
सूत्रार्थ - अपत्य अर्थ से लेकर चातुरर्थिक तक के अर्थों से अन्य (भिन्न) अर्थ, शेष है। उस शेष अर्थ में अण् आदि प्रत्यय होते हैं। 
चाक्षुषं (रूपम्) - चक्षुषा गृह्यते (जिसका ग्रहण चक्षु के द्वारा ग्रहण किया जाता इस अर्थ में चक्षष् शब्द से 'शेषे' सूत्र के द्वारा अण् प्रत्यय होता है। अण् में 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप होने पर चक्षुष् + अ हुआ। इस स्थिति में 'तद्धितेष्चामादेः' से चक्षुष् के आदि अच् की वृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर चाक्षुषम् रूप बना।  
श्रावणः (शब्दः)- श्रवणेन गृह्यते (कान से जिसका ग्रहण किया जाता है)-इस अर्थ में 'शेषे' से अण् प्रत्यय होता है। अण् में ण् की इत्संज्ञा तथा लोप हुआ। श्रवण + अ इस स्थिति में आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'श्रावणः' रूप बना। 
औपनिषदः (पुरुषः)- उपनिषद्भिः प्रतिपादितः (उपनिषदों के द्वारा प्रतिपादित)-इस अर्थ में 'शेषे' से अण् प्रत्यय, ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, उपनिषद् के आदि स्वर उ की आदिवृद्धि औ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर औपनिषदः रूप बना। 
दार्षदाः सक्तवः- दृषदि पिष्टाः (पत्थर पर पिसे हुए)-इस अर्थ में दृषद् शब्द से 'शेषे' से अण् प्रत्यय, ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दार्षदाः' रूप बनता है। 
चातुरं शकटम्- चतुर्भिरुह्यते (चार बैलों या घोड़ों के द्वारा ले जाने के योग्य, गाड़ी या बग्घी)- इस अर्थ में चतुर् शब्द से 'शेषे' से अण् प्रत्यय, ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'चातुरम्' रूप बना। 
चातुर्दशं रक्षः- चतुर्दश्यां दृश्यते (चतुर्दशी को दिखाई देने वाला, राक्षस)- इस अर्थ में 'चतुर्दशी' शब्द से 'शेषे' से अण् प्रत्यय, ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य ई का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'चातुर्दशम्' रूप बनता है। 
तस्य इति तस्य विकारः 4। 3। 134 ।। इस सूत्र से पूर्व तक (पहले) शेष का अधिकार है। 

१०७२ राष्‍ट्रावारपाराद्घखौ
आभ्‍यां क्रमाद् घखौ स्‍तः शेषे । राष्‍ट्रे जातादिः राष्‍ट्रियः। अवारपारीणः। 
सूत्रार्थ - शेष अर्थ में राष्ट्र और अवारपार शब्दों से क्रमशः घ और ख प्रत्यय होते हैं। 
राष्ट्रियः- राष्ट्रे जातः अथवा राष्ट्रे भवः (राष्ट्र में उत्पन्न या होने वाला)- इस अर्थ में राष्ट्र शब्द से राष्ट्राऽवारपाराघखौ'. सूत्र से घ प्रत्यय होता है। राष्ट्र + घ में 'आयनयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' इस सूत्र से 'घ' को इय आदेश होकर राष्ट्र + इय बना। राष्ट्र में 'यस्यति च' से अन्त्य अ का लोप, वर्ण सम्मेलन होने पर राष्ट्रिय हुआ।  राष्ट्रिय की प्रातिपदिकसंज्ञा तथा सु विभक्ति, सु को रुत्व,विसर्ग होकर 'राष्ट्रियः' रूप बनता है। 
अवारपारीणः- अवारपारं गतः (आर पार गया हुआ)- इस अर्थ में अवार-पार शब्द से 'राष्ट्राऽवारपाराद्घखौ' से ख प्रत्यय होता है। 'आयनेयीनीवियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से ख को ईन आदेश होकर अवारपार + ईन हुआ। अवारपार के अन्त्य अकार का लोप, णत्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अवारपारीणः' रूप बनता है। 
(अवारपाराद्विगृहीतादपि विपरीताच्‍चेति वक्तव्‍यम्) । अवारीणः। पारीणः। पारावारीणः। इह प्रकृतिविशेषाद् घादयष्‍ट्युट्युलन्‍ताः प्रत्‍यया उच्‍यन्‍ते तेषां जातादयोऽर्थविशेषाः समर्थ विभक्तयश्‍च वक्ष्यन्‍ते ।।
अवारेति- अवारपार शब्द को पृथक् - पृथक् करने (अर्थात् अवार और पार स्वतंत्र रूप में) तथा उलट देने पर भी (अर्थात् पारावार से) भी ख प्रत्यय होता है। 
अवारीणः- अवारं गतः (इस ओर को प्राप्त) इस अर्थ में अवार शब्द से 'अवारपाराद्विगृहीतादपि विपरीताच्चेति वक्तव्यम्' से ख प्रत्यय होता है। 'आयनेयीनीयियः' सूत्र से ख को ईन आदेश, अवार के अन्त्य अ का लोप होने पर अवार् + ईन हुआ। वर्णसम्मेलन करने पर अवारीन् हुआ। अब अवारीन् के नकार को णत्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अवारीणः' रूप बना। 
पारीणः- पारं गतः (पार को गया हुआ) इस अर्थ में पार शब्द से 'अवारपाराद्विगृहीतादपि विपरीताच्चेति वक्तव्यम्' से ख प्रत्यय, ख को ईन आदेश, अन्त्य अ का लोप, णत्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पारीणः' रूप बना। 
पारावारीणः- पारावारं गतः (पारंगत)- इस अर्थ में पारावार शब्द से 'अवारपाराद्विगृहीतादपि विपरीताच्चेति वक्तव्यम्' से ख प्रत्यय, 'आयनेयीनीयियः.' इत्यादि सूत्र से ख को ईन आदेश, अन्त्य अ का लोप, णत्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पारावारीणः' रूप बनता है। 
इहेति- यहाँ प्रकृति विशेष से (राष्ट्रादि विशेष शब्दों से) घ आदि से लेकर  सायंचिरम्प्राह्णेप्रगेऽव्ययेभ्यष्ट्युट्युलौ तुट् च 4. 3. 23 तक ट्यु, ट्युल् आदि प्रत्यय कहे गए हैं। इनके जातः आदि अर्थ तथा समर्थ विभक्तियाँ (सप्तमी आदि) आगे कही जाएंगी। 
१०७३ ग्रामाद्यखञौ
ग्राम्‍यः । ग्रामीणः ।।
सूत्रार्थ - ग्राम शब्द से जात आदि अर्थो में य और खञ् प्रत्यय होते हैं। 
ग्राम्यः- ग्रामे जातः ग्रामे भवः वा (गाँव में उत्पन्न)-इस अर्थ में ग्राम शब्द से  'ग्रामाद्यखञौ ' से य प्रत्यय होता है। 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ग्राम्यः' रूप बनता है। 
ग्रामीणः- ग्रामे जातः भवः वा (ग्राम में उत्पन्न)-इस अर्थ में ग्राम शब्द से 'ग्रामाद्यखञौ' से खञ् प्रत्यय होता है। खञ् में 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप होने पर ख शेष रहता है । ग्राम + ख में 'आयनेयीनीयियः.' सूत्र से ख को ईन आदेश, तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि होने पर ग्राम + ईन हुआ। ग्राम के अन्त्य अकार का लोप, ईन् के नकार को णत्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ग्रामीणः रूप बनता है। 

१०७४ नद्यादिभ्‍यो ढक्
नादेयम् । माहेयम् । वाराणसेयम् ।।
सूत्रार्थ - नदी आदि शब्दों से जात आदि अर्थों में ढक् प्रत्यय होता है। 
नादेयम्- नद्यां जातम् (नदी में होने वाला)-इस अर्थ में नदी शब्द से 'नद्यादिभ्यो ढक्' से ढक् प्रत्यय होता है। 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप। नदी + ढ इस स्थिति में 'आयनेयीनीयियः.' इत्यादि सूत्र से ढ को एय आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य ई का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'नादेयम्' रूप बनता है। 
माहेयम्- मह्यां जातम् (पृथ्वी पर होने वाला) इस अर्थ में मही शब्द से 'नद्यादिभ्यो ढक्' से ढक् प्रत्यय होता है। ढक् के 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, ढ को एय आदेश, आदिवृद्धि, माही + एय हुआ। माही के अन्त्य 'ई' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'माहेयम्' रूप बना। 
वाराणसेयम्- वाराणस्यां भवम् अथवा वाराणस्यां जातम् (वाराणसी में होने वाला या उत्पन्न) इस अर्थ में वाराणसी शब्द से 'नद्यादिभ्यो ढक्' से ढक् प्रत्यय हुआ । ढक् के 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाता है। 'ढ' को 'एय' आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य 'ई' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वाराणसेयम्' रूप बनता है। 
विशेष - ढक् में 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'ढ' शेष रहता है। नद्यादिगण इस प्रकार है-'नदी, मही, वाराणसी, कौशाम्बी, वनकौशाम्बी, काशपरी, कशफारी (काशफरी), खादिरी, पूर्वनगरी, पाठा, मावा, शाल्वदावी, सेतकी, वाडवाया वृषे। 
१०७५ दक्षिणापश्‍चात्‍पुरसस्‍त्‍यक्
दाक्षिणात्‍यः । पाश्‍चात्‍यः । पौरस्‍त्‍यः ।।
सूत्रार्थ - दक्षिणा, पश्चात् और पुरस् इन शब्दों से जातादि अर्थों में त्यक प्रत्यय होता है। 
दाक्षिणात्यः- दक्षिणा जातः भवो वा (दक्षिण में उत्पन्न या होने वाला) इस अर्थ में दक्षिणा शब्द से 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यक्' से त्यक् प्रत्यय हुआ। त्यक् में 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप हुआ। त्यक् के ककार का लोप होने के कारण यह कित् है अतः 'किति च' से दक्षिणा के आदि वर्ण की वृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दाक्षिणात्यः' रूप बना। 
पाश्चात्त्यः- पश्चाद् भवः जातो वा (पश्चिम में होने वाला या उत्पन्न) इस विग्रह में पश्चात् शब्द से 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यक्' से त्यक् प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'किति च' से आदिवृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पाश्चात्त्यः' रूप बना। 

पौरस्त्यः- पुरो भवः जातो वा (पूर्व में होने वाला या उत्पन्न) इस विग्रह में पुरस् शब्द से 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यक्' से त्यक् प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'किति च' से आदिवृद्धि, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पौरस्त्यः' रूप सिद्ध हुआ। 
१०७६ द्युप्रागपागुदक्‍प्रतीचो यत्
दिव्‍यम् । प्राच्‍यम् । अपाच्‍यम् । उदीच्‍यम् । प्रतीच्‍यम् ।।
सूत्रार्थ - दिव्, प्राच्, अपाच्, उदच् और प्रतीच् इन शब्दों से जातः आदि अर्थों में यत् प्रत्यय होता है। 
दिव्यम्- दिवि भवं जातं वा (स्वर्ग में होने वाला) इस विग्रह में दिव् शब्द से 'द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत्' से यत् प्रत्यय होता है। यत् में 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप होने पर दिव् + य हुआ। दिव्य की प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दिव्यम्' रूप सिद्ध हुआ। 
प्राच्यम्- प्राच्यां भवं जातं वा (पूर्व दिशा में उत्पन्न या होने वाला)- इस अर्थ में प्राच् शब्द से 'द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत्' से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्राच्यम्' रूप बनता है। 
अपाच्यम् - अपाच्यां भवं जातं वा (दक्षिण दिशा में उत्पन्न या होने वाला) इस विग्रह में अपाच् शब्द से 'द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत्' से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अपाच्यम्' रूप बनता है। 

उदीच्यम्- उदीच्यां भवं जातं वा (उत्तर दिशा में उत्पन्न या होने वाला) इस विग्रह में उदीच् शब्द से 'द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत्' से यत् प्रत्यय, 'त् की इत्संज्ञा तथा लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'उदीच्यम्' रूप बनता है।
प्रतीच्यम्- प्रतीच्यां भवं जातं वा (पश्चिम दिशा में उत्पन्न या होने वाला) इस विग्रह में प्रतीच् शब्द से 'द्युप्रागपागुदप्रतीचो यत्' से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्रतीच्यम्' रूप बनता है। 
१०७७ अव्‍ययात्त्यप्
सूत्रार्थ - अव्यय शब्दों से जातादि अर्थों में त्यप् प्रत्यय होता है।
(अमेहक्‍वतसित्रेभ्‍य एव) । अमात्‍यः । इहत्‍यः । क्‍वत्‍यः । ततस्‍त्‍यः । तत्रत्‍यः ।
अमा, इह, क्व, तस् और त्र प्रत्ययान्त अव्ययों से ही त्यप् प्रत्यय होता है। 
अमात्यः- अमा भवः (साथ रहने वाला) इस विग्रह में अमा शब्द से 'अव्ययात्त्यप्' इस सूत्र के द्वारा 'त्यप्' प्रत्यय प्राप्त हुआ, जिसे 'अमेहक्वतसित्रेभ्य एव' वार्तिक से अव्ययों में अमा, इह, क्व, तस् औ त्र प्रत्ययान्त अव्ययों से ही त्यप् प्रत्यय का विधान किया। त्यप् में  'प्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अमा + त्य = अमात्य हुआ। इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अमात्यः' रूप बना।
इहत्यः- इह भवः (यहाँ रहने वाला) इस विग्रह में 'इह' शब्द से 'अमेहक्वतसित्रेभ्य एव' के विधान से 'अव्ययात्त्यप्' इस सूत्र के द्वारा 'त्यप्' प्रत्यय हुआ। त्यप् में 'प्' की इत्संज्ञा तथा लोप, इह + त्य = इहत्य हुआ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'इहत्यः' रूप बना । 
क्वत्यः- क्व भवः (कहाँ रहने वाला) इस विग्रह में 'क्व' शब्द से 'अमेहक्वतसित्रेभ्य एव' के विधान से 'अव्ययात्त्यप्' इस सूत्र के द्वारा 'त्यप्' प्रत्यय हुआ। 'प्' की इत्संज्ञा तथा लोप, क्व + त्य = क्वत्य, प्रातिपदिकसंजा तथा स्वादिकार्य होकर 'क्वत्यः' रूप बना। 
ततस्त्यः- ततः आगतः (वहाँ से आया हुआ) इस विग्रह में 'ततः' शब्द से 'अमेहक्वतसित्रेभ्य एव' के विधान से "अव्ययात्त्यप्” इस सूत्र के द्वारा त्यप् प्रत्यय हुआ। 'प्' की इत्संज्ञा तथा लोप, ततः + त्य इस स्थिति में त्य का तकार (खर्) परे होने के कारण विसर्जनीयस्य सः से विसर्ग को सकार होकर 'ततस्त्य' बना। इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ततस्त्यः' रूप सिद्ध हुआ । 
तत्रत्यः- तत्र भवः (वहाँ होने वाला) इस विग्रह में 'तत्र' शब्द से 'अमेहक्वतसित्रेभ्य एव' के विधान से 'अव्ययात्त्वप्'  से 'त्यप्' प्रत्यय हुआ। 'प्' की इत्संज्ञा तथा लोप, तत्र + त्य = तत्रत्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'तत्रत्यः' रूप सिद्ध होता है। 

(त्‍यब्‍नेर्ध्रुव इति वक्तव्यम् ) । नित्‍यः ।।
त्यनेरिति- नि उपसर्ग से ध्रुव (स्थिर) अर्थ में 'त्यप्' प्रत्यय होता है। 
नित्यः- नितरां भवः (स्थिर) इस विग्रह में 'नि' उपसर्ग से ध्रुव अर्थ में 'त्यब्नेर्ध्रुव इति वक्तव्यम्” इस वार्तिक के द्वारा 'त्यप्' प्रत्यय होता है। 'त्यप्' में 'प्' की इत्संज्ञा तथा लोप, नि + त्य = नित्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'नित्यः" रूप बना। 
१०७८ वृद्धिर्यस्‍याचामादिस्‍तद्वृद्धम्
यस्‍य समुदायस्‍याचां मध्‍ये आदिर्वृद्धिस्‍तद्वृद्धसंज्ञं स्‍यात् ।।
सूत्रार्थ - जिस समुदाय से अचों (स्वरों) में आदि स्वर वृद्धिसंज्ञक (आ, ऐ, औ) होता है, उस समुदाय की वृद्ध संज्ञा होती है। 

व्याख्या-आ, ऐ, औ वृद्धि संज्ञक हैं (वृद्धिरादैच्)। अ4थात् जिस शब्द के स्वरसमूह में प्रथम स्वर वृद्धिसंज्ञक (आ, ऐ, औ) रहता है, उसे वृद्ध कहते हैं। 
१०७९ त्‍यदादीनि च
वृद्धसंज्ञानि स्‍युः ।।
सूत्रार्थ - 'त्यद्' आदि शब्दों (त्यद्, तद्, यद्, एतद्, इदम्, अदस्, एक, द्वि, युष्मद्, अस्मद्, भवतु, किम्) की भी वृद्धसंज्ञा होती है। 
१०८० वृद्धाच्‍छः
शालीयः । मालीयः । तदीयः ।
सूत्रार्थ - वृद्ध संज्ञक शब्दों से जातादि अर्थो में 'छ' प्रत्यय होता है। 
शालीयः- शालायां भवः (शाला में होने वाला) इस विग्रह में शाला शब्द की  'वृद्धिर्यस्याचामादिस्तवृद्धम् से वृद्ध संज्ञा हुई। 'वृद्धाच्छः' इस सूत्र से वृद्धसंज्ञक शाला शब्द से छ' प्रत्यय होकर शाला + छ बना। यहाँ 'आयनेयनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'छ' को 'ईय' आदेश हुआ। शाला + ईय बना। 'यस्यति च' से शाला के अन्त्य आ का लोप, शाल् + ईय = शालीय बना। शालीय की प्रातिपदिकसंज्ञा तथा सु विभक्ति, सु को रुत्व,विसर्ग होकर 'शालीयः' रूप सिद्ध हुआ। 
मालीयः- मालायां भवः (माला में होने वाला)-इस विग्रह में 'माला' शब्द की 'वृद्धिर्यस्याचामादिस्तवृद्धम्' से वृद्धसंज्ञा होकर 'वृद्धाच्छः' इस सूत्र के द्वारा वृद्धसंज्ञक माला शब्द से “छ' प्रत्यय होता है। माला + छ इस दशा में 'आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'छ' की 'ईय' आदेश, माला + ईय, 'यस्येति च' से अन्त्य 'आ' का लोप होकर माल् + ईय = मालीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मालीयः' रूप सिद्ध हुआ। 
तदीयः- तस्य अयम् (उसका) इस विग्रह में 'त्यदादीनि च' इस सूत्र के द्वारा 'तद्' की वृद्धसंज्ञा होती है। वृद्धसंज्ञा होने के कारण तद् शब्द से 'वृद्धाच्छः' से 'छ' प्रत्यय, तद् + छ, इस स्थिति में 'आयनेयीनीयियः.' सूत्र से 'छ' को ईय आदेश, तद् + ईय = तदीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'तदीयः' रूप सिद्ध हुआ। 
(वा नामधेयस्‍य वृद्धसंज्ञा वक्तव्‍या) । देवदत्तीयःदैवदत्तः ।।
वा नामधेयस्येति- किसी व्यक्ति के नाम की विकल्प से वृद्धसंज्ञा होती है। । 
देवदत्तीयः, देवदत्तः- देवदत्तस्य अयम् (देवदत्त का) इस विग्रह में देवदत्त शब्द की 'वा नामधेयस्य वृद्धसंज्ञा वक्तव्या' इस वार्तिक के द्वारा विकल्प से वृद्धसंज्ञा होती है। वृद्धसंज्ञक देवदत्त शब्द से 'वृद्धाच्छः' से 'छ' प्रत्यय 'आयनेयीनीयियः.' से 'छ' को 'ईय' आदेश, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, देवदत्त् + ईय = देवदत्तीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'देवदत्तीयः' रूप बनता है। 

वृद्धसंज्ञा के अभावपक्ष में 'देवदत्त' शब्द से 'शेषे' से 'अण्' प्रत्यय, 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, दैवदत्त, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'देवदत्तः' रूप सिद्ध हुआ
१०८१ गहादिभ्‍यश्‍च
गहीयः ।।
 सूत्रार्थ - 'गह' आदि प्रातिपदिक शब्दों से 'जात' आदि शैषिक अर्थों में 'छ' प्रत्यय होता है। 
गहीयः- गहे जातः (गुफा आदि में उत्पन्न) इस विग्रह में 'गह' शब्द से 'गहादिभ्यश्च' से 'छ' प्रत्यय होता है 'आयनेयीनीयियः.' से 'छ' को 'ईय' आदेश, 'यस्येति च' से भसंज्ञक अन्त्य अ का लोप, स्वादिकार्य व्भक्ति कार्य होकर 'गहीयः' रूप सिद्ध होता है।
१०८२ युष्‍मदस्‍मदोरन्‍यतरस्‍यां खञ् च
चाच्‍छः । पक्षेऽण् । युवयोर्युष्‍माकं युष्‍मदीयःअस्‍मदीयः ।।
सूत्रार्थ - युष्मद् और अस्मद शब्दों से 'जात' आदि अर्थो में विकल्प से 'खञ्' और छ' प्रत्यय होते हैं। 
सूत्र में 'च' कहने से 'छ' प्रत्यय का भी विधान होता है।' विकल्प से 'छ' और 'खञ्' प्रत्ययों का विधान होने से पक्ष में अण् प्रत्यय भी होता है। 
सूत्र में युष्मद् और अस्मद् दो प्रकृतियां तथा खञ्, छ और अण् तीन प्रत्यय हैं अतः यथासंख्य आदेश नहीं होकर प्रत्येक प्रकृति से प्रत्यय होगा । जैसे- 
युष्मदीयः- युवयोयुष्माकं वाऽयं युष्मदीयः (तुम दोनों का अथवा तुम सब का यह)। यहां 'युष्मद् ओस्' या 'युष्मद् आम्' से तस्येदम् (११०६) इस शैषिक अर्थ में 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् च' से 'छ' प्रत्यय सुब्लुक् तथा 'आयनेयीनीयियः.' से 'छ' को 'ईय' आदेश, युष्मद् + ईय = युष्मदीय, प्रातिपदिकसंज्ञा विभक्ति लाने से 'युष्मदीयः' प्रयोग सिद्ध हुआ। 
अस्मदीयः- आवयोः अस्माकं वा अयम् (हम दोनों का या हमारा यह) इस विग्रह में 'अस्मद्' शब्द से 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् च' से 'छ' प्रत्यय, 'आयनेयीनीयियः.' से 'छ' को 'ईय' आदेश, अस्मद् + ईय = अस्मदीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अस्मदीयः' रूप बना। 
विशेष -
यहाँ द्वित्व और बहुत्व में वर्तमान युष्मद् अस्मद् शब्दों के ही यहां छप्रत्यय में उदाहरण दिये गये हैं । एकत्व में वर्तमान युष्मद् अस्मद् के उदाहरण आगे प्रत्ययोत्तरपदयोश्च  सूत्र पर दिये जायेंगे। 
१०८३ तस्‍मिन्नणि च युष्‍माकास्‍माकौ
युष्‍मदस्‍मदोरेतावादेशौ स्‍तः खञ्यणि च । यौष्‍माकीणः । आस्‍माकीनः । यौष्‍माकः । आस्‍माकः ।।
सूत्रार्थ - खञ् और अण् प्रत्यय के परे होने पर युष्मद् और अस्मद् को क्रमशः 'युष्माक' और 'अस्माक' आदेश होते हैं।
'युष्माक' और 'अस्माक' अनेक अल् वाला आदेश है अतः यह सम्पूर्ण युष्मद् और अस्मद् के स्थान पर होगा।
यौष्माकीणः- युवयोः युष्माकं वा अयम् (तुम दोनों का या तुम्हारा यह) इस विग्रह में तस्येदम् के अर्थ में युष्मद् शब्द से 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् च' से खञ् प्रत्यय होता है। खञ् में 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, युष्मद् + ख, ऐसी स्थिति में 'आयनेयीनीयियः.' से 'ख' को 'ईन' आदेश, युष्मद् को 'तस्मिन्नणि च युष्माकास्माकौ' से 'युष्माक' आदेश, युष्माक + ईन, इस स्थिति में तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अ' का लोप, 'अट्कुप्वानुम्व्यवायेऽपि' से 'न' को 'ण' यौष्माक् + ईण = यौष्माकीण, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'यौष्माकीणः' रूप बनता है। 
आस्माकीनः- आवयोः अस्माकं वा अयम् (हम दोनों का या हमारा यह) अलौकिक विग्रह में अस्मद् शब्द से 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् च' से खञ् प्रत्यय, ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'आयनेयीनीवियः.' से 'ख' को 'ईन' आदेश, 'तस्मिन्नणि च युष्माकास्माकौ' से 'अस्मद् को 'अस्माक' आदेश, अस्माक + ईन, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, आस्माक् + ईन = आस्माकीन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आस्माकीनः' रूप बना। 
यौष्माकः- युवयोः युष्माकं वा अयम् (तुम दोनों का या तुम्हारा)-इस विग्रह में युष्मद् शब्द से 'अण्' प्रत्यय के पक्ष में अण् के 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, युष्मद् को 'तस्मिन्नणि च युष्माकास्माकौ' से युष्माक आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, यौष्माक् + अ = यौष्माक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'यौष्माकः' रूप बनता है। 
आस्माकः- आवयोः अस्माकं वा अयम् (हम दोनों का या हमारा) इस विग्रह में 'अस्मद्' शब्द से  'अण्' प्रत्यय के पक्ष में अण् प्रत्यय के 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, अस्मद् + अ, अस्मद् को 'अस्माक' आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, आस्माक् + अ = आस्माक,प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आस्माकः' रूप बनता है।  
विशेष-
'त्यदादीनि च' इस सूत्र के द्वारा युष्मद् और अस्मद् शब्द की वृद्धसंज्ञा विहित है। वृद्धसंज्ञा होने से 'वृद्धाच्छः' से छ प्रत्यय हो जाएगा। इस प्रकार 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् च' के द्वारा विकल्प से खञ् प्रत्यय होता है और पक्ष में अण् प्रत्यय होता है।।


१०८४ तवकममकावेकवचने
एकार्थवाचिनोर्युष्‍मदस्‍मदोस्‍तवकममकौ स्‍तः खञि अणि च । तावकीनः । तावकः । मामकीनः । मामकः । छे तु –
सूत्रार्थ - खञ् और अण् प्रत्यय परे होने पर एक (एकवचन) अर्थ के वाचक युष्मद् और अस्मद् को क्रमशः तवक और ममक आदेश होते हैं। 

तावकीनः, तावकः- तव अयम् (तेरा यह) इस विग्रह में 'युष्मद्' शब्द से 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् च' इस सूत्र से विकल्प से खञ् प्रत्यय होता है। 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, एकार्थवाचक होने से युष्मद् शब्द के स्थान पर 'तवकममकावेकवचने' से 'तवक' आदेश हो जाता है। तवक + ख इस स्थिति में 'आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'ख' को 'ईन' आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप तावक + ईन = तावकीन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'तावकीनः' रूप बनता है। पक्ष में 'अण्' प्रत्यय, ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'तवकममकावेकवचने' से 'यष्मद्' को 'तवक' आदेश, आदिवृद्धि अन्त्य 'अ' का लोप, तावक् + अ = तावक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर तावकः' रूप बनता है।
मामकीनः, मामकः- मम अयम् (मेरा यह)-इस विग्रह में अस्मद् शब्द से 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ्च ' से खञ् प्रत्यय, 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, एकार्थवाचक होने से अस्मद् को तवकममकावेकवचने' से 'ममक' आदेश, ममक + ख इस स्थिति में 'आयनेयीनीयियः.' से 'ख' को ईन आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप मामक् + ईन = मामकीन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मामकीनः' रूप सिद्ध होता है। 
खञ् के अभाव पक्ष में 'अण्' प्रत्यय होता है। अण् के 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप अस्मद् को ‘ममक' आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य अ का लोप, मामक् + अ = मामक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मामकः' रूप बनता है। 
छे तु- छ प्रत्यय परे होने पर तो एकवचन में आगे बतलाए जाने वाले कार्य होंगे। 
१०८५ प्रत्‍ययोत्तरपदयोश्‍च
मपर्यन्‍तयोरेतयोरेकार्थवाचिनोस्‍त्‍वमौ स्‍तः प्रत्‍यये उत्तरपदे च परतः । त्‍वदीयः । मदीयः । त्‍वत्‍पुत्रः । मत्‍पुत्रः ।।
सूत्रार्थ - एकार्थवाचक युष्मद् और अस्मद् के 'म' पर्यन्त भाग को 'त्व' और 'म' आदेश होते हैं, प्रत्यय और उत्तरपद परे होने पर।
अर्थात् युष्मद् और अस्मद् के 'युष्म' और 'अस्म' भाग को 'त्व' और 'म' आदेश हो जाते हैं। इस प्रकार 'युष्मद्' को 'त्वद्' तथा 'अस्मद्' को 'मद्' होता है।। 
त्वदीयः- तव अयम् (तेरा)-इस विग्रह में एकार्थवाची 'युष्मद्' शब्द से 'त्यदादीनि च' से वृद्धसंज्ञा तथा 'छ' प्रत्यय, युष्मद् + छ, 'प्रत्ययोत्तरपदयोश्च' से 'युष्म' भाग को 'त्व' आदेश, त्वद् + छ, 'आयनेयीनीयियः.' से 'छ' को 'ईय' आदेश, त्वद् + ईय = त्वदीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर त्वदीयः' रूप बनता है। 
मदीयः- मम अयम् (मेरा)-इस विग्रह में एकार्थवाची अस्मद् शब्द से 'त्यदादीनि च' से वृद्धसंज्ञा तथा वृद्धाच्छ:' से 'छ' प्रत्यय, अस्मद् + छ । 'प्रत्ययोत्तरपदयोश्च' से 'अस्म' को 'मद्' आदेश, मद् + छ, 'छ' को 'आयनेयीनीयियः.' से ईय आदेश, मद् + ईय = मदीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मदीयः' रूप सिद्ध होता है। 

त्वत्पुत्रः- तव पुत्रः (तेरा पुत्र)-इस लौकिक विग्रह तथा युष्मद् डस् पुत्र सु इस अलौकिक विग्रह में षष्ठी तत्पुरुष समास होता है। प्रातिपदिकसंज्ञा, विभक्तियों का लोप यष्मद + पुत्र, इस स्थिति में 'प्रत्ययोत्तरपदयोश्च' से उत्तरपद पत्र शब्द के परे रहते 'युष्मद्' के 'युष्म' भाग को त्व' आदेश हुआ। त्वद् + पुत्र = त्वत्पुत्र, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'त्वत्पुत्रः' बनता है। 
मत्पुत्रः- मम पुत्रः (मेरा पुत्र)-इस लौकिक विग्रह तथा अस्मद् सु पुत्र सु इस अलोकिक विग्रह में षष्ठी तत्पुरुष समास होता है। प्रातिपदिकसंज्ञा, विभक्तिया का। लाप, अस्मद् + पुत्र इस स्थिति में प्रत्ययोत्तरपदयोश्च' से उत्तरपद पुत्र शब्द के पर रहते अस्मद् के 'अस्म' भाग को 'म' आदेश मद् + पुत्र = मत्पुत्र, प्रातिपदिकसज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘मत्पुत्रः' रूप बनता है। 

१०८६ मध्‍यान्‍मः
मध्‍यमः ।।
सूत्रार्थ - मध्य शब्द से 'भव' आदि अर्थो में 'म' प्रत्यय होता है। 

मध्यमः- मध्ये भवः (मध्य में होने वाला)-इस विग्रह में मध्य शब्द से 'मध्यान्मः' से 'म' प्रत्यय होता है। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मध्यमः' रूप बनता है। 
१०८७ कालाट्ठञ्
कालवाचिभ्‍यष्‍ठञ् स्‍यात् । कालिकम् । मासिकम् । सांवत्‍सरिकम् । 
सूत्रार्थ - काल शब्द तथा कालवाची शब्दों से ‘भव' आदि अर्थो में 'ठञ्' प्रत्यय होता है। 
यहाँ काल शब्द से काल सामान्य तथा काल विशेष ग्रहीत होता है। अतएव काल शब्द से तथा कालवाची शब्दों से ठञ् प्रत्यय होता है। ठञ् में 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'ठ' शेष रहता है। 
कालिकम्- काले भवम् (समय पर होने वाला)-इस विग्रह में काल शब्द से 'कालाट्ठञ्' से 'ठञ् प्रत्यय होता है। 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, काल + ठ इस स्थिति में 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, काल् + इक = कालिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य 'कालिकम्' रूप बनता है। 

मासिकम्- मासे भवम् (मासिक)-इस विग्रह में मास शब्द से 'कालाट्ठञ्' से 'ठञ्' प्रत्यय, ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, मास + ठ, 'ठस्येकः' से 'ठ' को इक आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, मास् + इक = मासिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मासिकम्' रूप बनता है।
सांवत्सरिकम्- संवत्सरे भवम् (वार्षिक)-इस विग्रह में संवत्सर शब्द से 'कालाट्ठञ्' से ठञ् प्रत्यय, ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, संवत्सर + ठ, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, सांवत्सर + इक् = सांवत्सरिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सांवत्सरिकम्' रूप बनता है। 
(अव्‍ययानां भमात्रे टिलोपः) । सायम्‍प्रातिकः । पौनः पुनिकः ।।
भसंज्ञा होने पर सर्वत्र अव्यवों की 'टि' (अन्त्य अच् सहित अग्रिम भाग) का लोप होता है। 
सायंप्रातिकः- सायंप्रातः भवः (प्रातः और सायं होने वाला) इस विग्रह में ‘सायम्प्रातर्' शब्द से 'कालाट्ठञ्' से ठञ् प्रत्यय होता है। ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, सायंप्रातर् + ठ, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'अव्ययानां भमात्रे टिलोपः' से 'अर्' टि का लोप, आदिवृद्धि, सायंप्रात् + इक = सायंप्रातिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सायंप्रातिकः' रूप बनता है। 
पौनः पुनिकः- (बार-बार होने वाला)-इस विग्रह में पुनः पुनर् शब्द से 'कालाट्ठञ्' से ठञ् प्रत्यय, ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'अव्ययानां भमात्रे टिलोपः' से अर् टि का लोप, आदिवृद्धि, पौनः पुन् + इक = पौनःपुनिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पौनः पुनिकः' शब्द बनता 
१०८८ प्रावृष एण्‍यः
प्रावृषेण्‍यः ।।
सूत्रार्थ - प्रावृष् शब्द से भव आदि अर्थों में 'एण्य' प्रत्यय होता है। । 

प्रावृषेण्यः- प्रावृषि भवः (वषां ऋतु में होने वाला)-इस विग्रह में प्रावृष् शब्द से 'प्रावृष एण्यः' इस सूत्र के द्वारा एण्य प्रत्यय होता है। प्रावृष् + एण्य = प्रावृषेण्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्रावृषेण्यः' रूप बनता है। 
१०८९ सायञ्चिरम्‍प्राह्‍णेप्रगेऽव्‍ययेभ्‍यष्‍ट्युट्युलौ तुट् च
सायमित्‍यादिभ्‍यश्‍चतुर्भ्‍योऽव्‍ययेभ्‍यश्‍च कालवाचिभ्‍यष्‍ट्युट्युलौ स्‍तस्‍तयोस्‍तुट् च । सायन्‍तनम् । चिरन्‍तनम् । प्राह्‍णे प्रगे अनयोरेदन्‍तत्‍वं निपात्‍यते । प्राह्‍णेतनम् । प्रगेतनम् । दोषातनम् ।।
सूत्रार्थ - सायम्, चिरम्, प्राणे और प्रगे तथा कालवाची अव्ययों से ट्यु और ट्युल् प्रत्यय होते हैं और उनको तुट् का आगम होता है। 

ट्यु और ट्युल् में 'यु' शेष रहता हैं 'यु' को 'अन' आदेश हो जाता है। ट्यु करने पर शब्द आद्युदात्त होता है और ट्युल् करने पर 'तन्' से पूर्व स्वर उदात्त होता है। 
सायन्तनम् - सायं भवम् (सायंकाल का होने वाला) इस विग्रह में सायम् शब्द से 'सायं चिरप्राणेप्रगेऽव्ययेभ्यष्ट्युट्युलाौ तुट् च' से 'ट्यु' प्रत्यय तथा तुट्' का आगम हाता है, 'ट्यु' के 'ट्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'यु' शेष रहता है। 'तुट्' में 'उ' तथा 'ट्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर त्' शेष रहता है। सायम् + त् + यु इस स्थिति में 'युवारनाकौ' से 'यु' को 'अन' आदेश, सायम् + त् + अन = सायतन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सायंतनम्' रूप बनता है। 
चिरन्तनम्- चिरं भवम् (देर से होने वाला)-इस विग्रह में 'चिरम्' शब्द से 'सायं चिरप्राणेप्रगेऽव्ययेभ्यष्ट्युट्युलाौ तुट् च' से 'ट्यु' प्रत्यय तथा तुट् का आगम होता है। ट्यु के 'ट्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर यु शेष रहता है। 'तुट्' में 'उ' तथा 'ट्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'त्' शेष रहता है। चिरम् + त् + यु इस स्थिति में 'युवोरनाको' से 'यु' को 'अन' आदेश होकर चिरम् + त् + अन = चिरन्तन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'चिरन्तनम्' रूप बनता है। 
प्राणे इति- प्राणे और प्रगे निपातन से एकारान्त होते हैं। । 
प्राणेतनम्- प्राणे भवम् (पूर्वाण में उत्पन्न)-इस विग्रह में प्राणे शब्द से 'सायं चिरंप्राणेप्रगेऽव्ययेभ्यष्ट्युट्युलौ तुट् च' से ट्यु प्रत्यय तथा 'तुट्' का आगम, ट्य में 'ट' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर यु शेष रहता है और 'तुट्' में 'उ' तथा 'ट्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'त्' शेष रहता है प्राणे + त् + यु 'युवोरनाको' से 'यु' को 'अन' आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्राणेतनम्' रूप सिद्ध होता है। 
प्रगेतनम्- प्रगे भवम् (प्रातःकाल में होने वाला)-इस विग्रह में प्रगे शब्द से 'सायं चिरप्राणेप्रगेऽव्ययेभ्यष्ट्युट्युला तुट् च' से ट्यु प्रत्यय तथा तुटू का आगम, ट्यु और तुटू में क्रमशः 'यु' और 'त्' शेष रहते हैं। 'युवोरनाको' से 'यु' को 'अन' आदेश, प्रगे + त् + अन = प्रगेतन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्रगेतनम्' रूप बनता है। 
दोषातनम्- दोषा भवम् (रात्रि में होने वाला)-इस विग्रह में 'दोषा' शब्द से ‘सायंचिरंप्राणेप्रगेऽव्ययेभ्यष्ट्युट्युलौ तुट् च' से ट्यु प्रत्यय तथा तुट् का आगम, ट्यु तथा तुट में क्रमशः यु और त् शेष रहते हैं। 'युवोरनाको' से 'यु' को 'अन' आदेश, दोषा + त् + अन = दोषातन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘दोषातनम्' रूप बनता है। 

१०९० तत्र जातः
सप्‍तमीसमर्थाज्‍जात इत्‍यर्थेऽणादयो घादयश्‍च स्‍युः । स्रुग्‍घ्‍ने जातः स्रौग्‍घ्‍नः । उत्‍से जात औत्‍सः । राष्‍ट्रे जातो राष्‍टि्रयः । अवारपारे जातः अवारपारीणःइत्‍यादि।।
सूत्रार्थ - सप्तम्यन्त समर्थ से जातः (हुआ) अर्थ में 'अण्' आदि और 'घ' आदि प्रत्यय होते हैं। 
स्रौग्घ्नः- स्रुग्घ्ने जातः (स्रुघ्न में उत्पन्न)-इस अर्थ में सन शब्द से 'तत्र जातः' में 'अण्' प्रत्यय, 'ण्' का इत्संज्ञा तथा लोप, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्रौग्घ्ने' रूप बनता है। 
औत्सः- उत्स जातः (उत्स या स्रोत में उत्पन्न)-इस विग्रह में उत्स शब्द से । जात अथं में 'उत्सादिभ्योऽञ्' से 'अञ्' प्रत्यय, जू की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'औत्सः' रूप बनता है।। 
राष्ट्रियः- राष्ट्रे जातः (राष्ट्र में उत्पन्न)-इस विग्रह में राष्ट्र शब्द से जात अथं । में 'राष्ट्रावारपाराद् घखी' से 'घ' प्रत्यय 'आयनेयीनीयिमः' से 'घ' को 'इय' आदेश। अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'राष्ट्रियः' रूप बनता है। 

अवारपारीणः- अवारपारे जातः (अवारपार में उत्पन्न होने वाला)-इस विग्रह में अवारपार शब्द से जात अर्थ में 'राष्ट्रावारपाराद् घखी' से ख प्रत्यय 'आयनेयीनीयियः'-से ख को ईन आदेश, अन्त्य अ का लोप, नकार को णकार होकर अवारपारीण बना। प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर अवारपारीणः शब्द बनता है। 
१०९१ प्रावृषष्‍ठप्
एण्‍यापवादः । प्रावृषिकः ।।
सूत्रार्थ - प्रावृष् शब्द से जात अर्थ में ठप् प्रत्यय होता है।  यह ठप् प्रत्यय एण्य का अपवाद है। 

प्रावृषिकः- प्रावृषि जातः (वर्षा ऋतु में उत्पन्न)-इस विग्रह में प्रावृष् शब्द से जात अर्थ में 'प्रावृषष्ठप्' से ठप् प्रत्यय होता है। 'प्' को इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' स 'ठ' को 'इक' आदेश, प्रावृष + इक = प्रावृषिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्रावृषिकः' रूप बनता है। 
१०९२ प्रायभवः
तत्रेत्‍येव । स्रुग्‍घ्‍ने प्रायेण बाहुल्‍येन भवति स्रौग्‍घ्‍नः ।।
सूत्रार्थ - सप्तम्यन्त समर्थ शब्द से 'प्रायभवः' (अधिकतर होने वाला) अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होते है। 

स्रौग्‍घ्‍नः - स्रुग्घ्ने प्रायेण बाहुल्येन भवति (स्रुग्घ्न में अधिकतर होने वाला) इस  विग्रह में स्रुग्घ्न शब्द से 'प्रायभवः' से 'अण्' प्रत्यय, 'ण् का इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्रौग्‍घ्‍नः' रूप बनता है। 
१०९३ सम्‍भूते
स्रुग्‍घ्‍ने संभवति स्रौग्‍घ्‍नः ।।
सूत्रार्थ - सप्तम्यन्त शब्द से सम्भूत (होने की सम्भावना है) अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होता है। 
स्रौग्‍घ्‍नः - सुघ्ने सम्भवति (जिसकी स्रुग्घ्न में होने की सम्भावना है) इस विग्रह में 'स्रुघ्न' शब्द से 'अण्' प्रत्यय, 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘स्रौग्‍घ्‍नः' रूप सिद्ध होता है।
१०९४ कोशाड्ढञ्
कौशेयम् वस्‍त्रम् ।।
सूत्रार्थ - कोश शब्द से सम्भूत (उत्पन्न) अर्थ में ढञ् प्रत्यय होता है। । 
कौशेयं (वस्त्रम्)- कोशे सम्भूतम् (रेशमी वस्त्र)-इस विग्रह में कोश शब्द से 'कोशाड्ढञ्' से ढञ् प्रत्यय होता है। ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, कोश + ढ, इस स्थिति में 'आयनेयीनीयियः' से 'ढ' को “एय' आदेश, 'तद्धितेष्वचामादेः' से  आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘कौशेयम्' रूप बनता है। 
१०९५ तत्र भवः
स्रुग्‍घ्‍ने भवः स्रौग्‍घ्‍नः । औत्‍सः । राष्‍ट्रियः ।।
सूत्रार्थ - सप्तम्यन्त से भव (विद्यमान, होने वाला) अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं। 
स्रौग्घ्नः- स्रुग्घ्ने भवः (स्रोघ्न में होनेवाला)- इस अर्थ में 'तत्र भवः' से 'अण्' प्रत्यय हुआ। ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्रौघ्नः' रूप बनता है। 

औत्सः- उत्से भवः (उत्स = झरना में होने वाला) इस अर्थ में 'अञ्' प्रत्यय अञ् के ञ'' की इत्सज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तवा स्वादिकार्य होकर ‘औत्सः' रूप बनता है।
राष्ट्रियः- राष्ट्रे भवः (राष्ट्र में होने वाला) इस अर्थ में 'तत्र भवः' से 'घ' प्रत्यय, 'घ' को 'इय' आदेश, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'राष्ट्रियः' रूप बनता है। 
१०९६ दिगादिभ्‍यो यत्
दिश्‍यम् । वर्ग्‍यम् ।।
सूत्रार्थ - दिश् आदि सप्तम्यन्त शब्दों से 'भव' अर्थ में 'यत्' प्रत्यय होता है।
दिश्यम्- दिशि भवम् (दिशा में होने वाला) इस विग्रह में दिश् शब्द से 'दिगादिभ्यो यत्' से यत् प्रत्यय होता है। 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, दिश् + य = दिश्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दिश्यम्' रूप बनता है। । 

वर्ग्यम्- वर्गे भवम् (वर्ग या समूह में होने वाला) इस विग्रह में वर्ग शब्द से 'दिगादिभ्यो यत्' से 'यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, वर्ग + य इस स्थिति में 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वर्ग्यम्' रूप बनता है।
दिगादि गण में ये शब्द आते हैं- दिश् वर्ग पूग गण पक्ष घाटय मित्र मेघा अन्तर् पथिन् रहस अलीक उखा साक्षिन् देश आदि अन्त मुख जघन मेघ यूथ। . उदकात्संज्ञायाम्। ज्ञाय (न्याय) वंश वेश काल आकाश ।। दिगादिः ।। 
१०९७ शरीरावयवाच्‍च
दन्‍त्‍यम् । कण्‍ठ्यम् । 
दन्त्यम्-दन्तेषु भवम् (दांतों में होने वाला)-इस विग्रह में 'दन्त' शब्द से 'शरीरावयवाच्च' से यत् प्रत्यय, त् को इत्संज्ञा तथा लोप, दन्त् + य 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दन्त्यम्' रूप बनता है। 
कण्ठ्यम्- कण्ठे भवम् (कण्ठ में होने वाला) इस विग्रह में कण्ठ शब्द से 'शरीरावयवाच्च' से यत् प्रत्यय, त् का इत्संज्ञा तथा लोप, कण्ठ + य 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कण्ठ्यम्' रूप बनता है।। 
(अध्‍यात्‍मादेष्‍ठञिष्‍यते) अध्‍यात्‍मं भवमाध्‍यात्‍मिकम् ।।
अध्यात्मादेरिति- अध्यात्म आदि शब्दों से भव अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है।। 

आध्यात्मिकम्- अध्यात्मे भवम् (आत्मा में होने वाला) इस विग्रह में अध्यात्म शब्द से 'अध्यात्मादेष्ठञिष्यते' इस वार्तिक के द्वारा ठञ् प्रत्यय होता है। ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'अध्यात्म + ठ', इस स्थिति में 'ठस्येकः' से ठ को इक आदेश,  'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, आध्यात्म् + इक = आध्यात्मिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आध्यात्मिकम्' रूप सिद्ध होता है। 
१०९८ अनुशतिकादीनां च
एषामुभयपदवृद्धिर्ञिति णिति किति च। आधिदैविकम्। आधिभौतिकम्। ऐहलौकिकम्। पारलोकिकम्। आकृतिगणोऽयम् ।।
सूत्रार्थ - ञित्, णित् और कित् तद्धित प्रत्यय परे होने पर अनुशतिक आदि समस्त पदों के दोनों पदों (पूर्व पद और उत्तर पद) को वृद्धि होती है। 
आधिदैविकम्- अधिदेवे भवम् (देवों में होने वाला) इस विग्रह में 'अधिदेव' शब्द से 'अध्यात्मादेष्ठञिष्यते' इस वार्तिक के द्वारा ठञ् प्रत्यय, 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, अधिदेव + इक इस स्थिति में 'अनुशतिकादीनां च' इस सूत्र के द्वारा उभयपद वृद्धि हुई। ज्ञातव्य है कि अधिदेव में अधि तथा देव ये दो पद हैं। इसमें अधि के 'अ' को 'आ' तथा 'देव' के 'ए' को 'ऐ' वृद्धि होती है। उभयपदवृद्धि होने पर आधिदैव + इक हुआ। 'यस्येति च' से आधिदैव के अन्त्य' 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आधिदैविकम्' रूप बनता है। 
आधिभौतिकम्- अधिभूतं भवम् (पञ्चभूतों में होनेवाला)-इस विग्रह में 'अधिभूत' शब्द से 'अध्यात्मादेष्ठजिष्यते' से 'ठञ्' प्रत्यय, ‘ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'अनुशतिकादीनां च' से उभयपद वृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, आधिभौत् + इक = आधिभौतिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आधिभौतिकम्' रूप बनता है। 
ऐहलोकिकम्- इहलोके भवम् (इस लोक में होने वाला)-इस विग्रह में इहलोक शब्द से 'अध्यात्मादेष्ठञिष्यते से ठञ् प्रत्यय, ञ् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'अनुशतिकादीनां च' से उभयपद वृद्धि 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, एहलोक् + इक = ऐहलौकिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ऐहलौकिकम्' रूप बनता है। 
पारलौकिकम्- परलोके भवम् (परलोक में होने वाला)-इस विग्रह में परलोक शब्द से 'अध्यात्मादेष्ठञिष्यते' से 'ठञ् प्रत्यय, 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' । से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'अनुशतिकादीनां च' से उभयपदवृद्धि, 'यस्येति च' अन्त्य 'अ' का लोप, पारलौक् + इक पारलौकिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर । 'पारलौकिकम्' रूप सिद्ध होता है। 
आकृतिगण इति-यह अनुशतिकादि गण आकृतिगण है। उभयपद वृद्धि वाले प्रयोग अनुशतिकादि गण का उदाहरण समझना चाहिए। 
१०९९ जिह्‍वामूलाङ्गुलेश्‍छः
जिह्‍वामूलीयम् । अङ्गुलीयम् ।।
सूत्रार्थ - जिह्वामूल और अङ्गुलि शब्द से 'तत्र भवः' अर्थ में 'छ' प्रत्यय होता है।
जिह्वामूलीयम्- जिह्वामूले भवम् (जिह्वामूल में होने वाला) इस विग्रह में जिह्वामूल शब्द से 'जिह्वामूलाङ्गुलेश्छः' से 'छ' प्रत्यय, आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'छ' को ईय आदेश, जिह्वामूल + ईय इस स्थिति में 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'जिह्वामूलीयम्' रूप बनता है। 

अङ्गगुलीयम्- अङ्गुल्या भवम् (अङ्गुलि में रहने वाली अङ्गुठी) इस विग्रह में अङ्गुलि शब्द से 'जिह्वामूलाङ्गुलेश्छः से 'छ' प्रत्यय, 'छ' को ईय आदेश, 'यस्येति च' से अन्त्य 'इ' का लोप, अङ्गुल् + ईय = अङ्गुलीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकायं होकर 'अङ्गुलीयम्' रूप बनता है। 

११०० वर्गान्‍ताच्‍च
कवर्गीयम् ।।
सूत्रार्थ - जिस शब्द के अन्त में ‘वर्ग' शब्द रहता है उससे भी ‘छ' प्रत्यय होता है। 

कवर्गीयम्- कवर्गे भवम् (कवर्ग में होने वाला)- इस विग्रह में कवर्ग शब्द से 'वर्गान्ताच्च' सूत्र के विधान से 'छ' प्रत्यय होता है। 'छ' को 'आयनेयीनीयियः.' से 'ईय' आदेश, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, कवर्ग + ईय = कवर्गीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कवर्गीयम्' रूप बना।
११०१ तत आगतः
स्रुग्‍घ्‍नादागतः स्रौग्‍घ्‍नः ।।
सूत्रार्थ - पञ्चम्यन्त समर्थ पद से 'आगतः' (आया हुआ) अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं। 

स्रौघ्नः- सुघ्नाद् आगतः (मुन्न स आया हुआ)-इस विग्रह में मुघ्न शब्द से र आगतः' से 'अण्' प्रत्यय, 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्रौघ्नः' रूप बनता है।।
११०२ ठगायस्‍थानेभ्‍यः
शुल्‍कशालाया आगतः शौल्‍कशालिकः ।।
सूत्रार्थ - पञ्चम्यन्त आवस्थान वाचक शब्दों से 'तत आगतः' अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है।
शौल्‍कशालिकः - शुल्कशालाया आगतः (कर ग्रहण के स्थान से आया हुआ)-इस विग्रह में 'शुल्कशाला' शब्द से 'ठगायस्थानेभ्यः' से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'आ' का लोप, शौल्कशाल् + इक = शौल्कशालिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शौल्कशालिकः' रूप बना। 
११०३ विद्यायोनिसंबन्‍धेभ्‍यो वुञ्
औपाध्‍यायकः । पैतामहकः ।।
सूत्रार्थ - विद्या और योनि (रक्त) के सम्बन्धवाची शब्दों से 'तत आगतः' अर्थ में 'वुञ्' प्रत्यय होता है। 
औपाध्यायकः- उपाध्यायाद् आगतः (उपाध्याय से आया हुआ) -इस अर्थ में उपाध्याय शब्द से 'विद्यायोनिसम्बन्धेभ्यो वुञ्' से वुञ् प्रत्यय होता है। 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'युवोरनाकौ' से 'वु' को 'अक' आदेश, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, औपाध्याय् + अक = औपाध्यायक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'औपाध्यायकः' रूप बनता है। 

पैतामहकः- पितामहाद् आगतः (पितामह से आया हुआ)- इस विग्रह में 'पितामह' शब्द से 'विद्यायोनिसम्बन्धेभ्यो वुञ्' से वुञ् प्रत्यय होता है। वुञ्' में '' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'युवोरनाकौ' से 'वु' को 'अक' आदेश, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, पैतामह् + अक = पैतामहक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पैतामहकः' रूप बनता है। । 
११०४ हेतुमनुष्‍येभ्‍योऽन्‍यतरस्‍यां रूप्‍यः
समादागतं समरूप्‍यम् । पक्षे – गहादित्‍वाच्‍छः । समीयम् । विषमीयम् । देवदत्तरूप्‍यम् । दैवदत्तम् ।।

सूत्रार्थ - हेतुवाचक और मनुष्यनामवाचक शब्दों से 'तत आगतः' अर्थ में विकल्प से रूप्य प्रत्यय होता है। 
समरूप्यम्- समाद् आगतम् (समहेतुः = सरल उपाय से आया हुआ)- इस । विग्रह में 'सम' शब्द से हेतुमनुष्येभ्योऽन्यतरस्यां रूप्यः' से विकल्प से 'रुप्य' प्रत्यय, सम + रूप्य = समरूप्य, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'समरूप्यम्' रूप बनता है। 
पक्षे इति-पक्ष में जहाँ ‘रूप्य' प्रत्यय नहीं होता है, वहाँ 'गहादिभ्यश्च' से 'छ', प्रत्यय होता है। 
समीयम्- रूप्य प्रत्यय के अभाव पक्ष में 'सम' शब्द से 'गहादिभ्यश्च' से 'छ' प्रत्यय, 'छ' को ईय आदेश, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'समीयम्' रूप बनता है। 
विषमीयम्- विषमाद् आगतम् (कठिन उपाय से प्राप्त)-इस विग्रह में विषम शब्द से 'गहादिभ्यश्च' से छ प्रत्यय, छ को ईय आदेश, अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विषमीयम्' रूप बनता है। 
देवदत्तरूप्यम्, देवदत्तम्- देवदत्ताद् आगतम् (देवदत्त से प्राप्त)-इस विग्रह में देवदत्त शब्द से 'हेतुमनुष्येभ्योऽन्यतरस्यां रूप्यः से विकल्प से रूप्य प्रत्यय होता है। देवदत्त + रूप्य = देवदत्तरूप्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'देवदत्तरूप्यम्' रूप बनता है। 
रूप्य प्रत्यय के अभाव पक्ष में देवदत्त शब्द से 'तत आगतः' से अण् प्रत्यय, ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'देवदत्तम्' रूप बनता है। 
११०५ मयट् च
सममयम् । देवदत्तमयम् ।।
सूत्रार्थ - हेतुवाचक और मनुष्य नामवाचक शब्दों से 'तत आगतः' अर्थ में मयट् प्रत्यय भी होता है। मयट में ट् की इत्संज्ञा तथा लोप होकर मय शेष रहता है। 
सममयम्- समाद् आगतम् (सरल उपाय से प्राप्त)-इस विग्रह में सम शब्द से 'मयट् च' से मयट् प्रत्यय, ट् की इत्संज्ञा तथा लोप, सम + मय = सममय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सममयम्' रूप बनता है। 

देवदत्तमयम्- देवदत्ताद् आगतम् (देवदत्त से प्राप्त)-इस विग्रह में देवदत्त शब्द से 'मयट् च' सूत्र के विधान से मयट् प्रत्यय, ट् की इत्संज्ञा तथा लोप, देवदत्त + मय = देवदत्तमय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'देवदत्तमयम्' रूप बना।
११०६ प्रभवति
हिमवतः प्रभवति हैमवती गङ्गा ।।
सूत्रार्थ - पञ्चम्यन्त समर्थ शब्द से 'प्रभवति' (प्रकट होती है, निकलती है)। अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं। 
हेमवती (गंगा)- हिमवतः प्रभवति (हिमालय से निकलती है, गंगा)-इस विग्रह में 'हिमवत्' शब्द से 'प्रभवति' से 'अण्' प्रत्यय, ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, हैमवत् + अ = हैमवत्, 'टिड्ढाणञ्.' से ङीप् (इ), अन्त्य 'अ' का लोप तथा स्वादिकार्य होकर 'हैमवती' रूप बनता है। 
११०७ तद्गच्‍छति पथिदूतयोः
स्रुग्‍घ्‍नं गच्‍छति स्रौग्‍ध्‍नः पन्‍था दूतो वा ।।
सूत्रार्थ - यदि जाने वाला मार्ग या दूत हो तो द्वितीयान्त समर्थ शब्द से गच्छति (जाता है) अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं। 

स्रौग्‍ध्‍नः (पन्था दूतो वा)- सुघ्नं गच्छति (सुघ्न को जाने वाला मार्ग या दूत)-इस विग्रह से 'सुघ्न' शब्द से 'तद्गच्छति पथिदूतयोः' से 'अण्' प्रत्यय, 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘स्रौघ्नः' रूप बनता है। 
११०८ अभिनिष्‍क्रामति द्वारम्
स्रुग्‍घ्‍नमभिनिष्‍क्रामति स्रौग्‍घ्‍नं कान्‍यकुब्‍जद्वारम् ।।
सूत्रार्थ - द्वितीयान्त समर्थ पद से अभिनिष्क्रामति (उस ओर निकलता है) अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं; यदि निकलने वाला द्वार हो। 

स्रौग्‍घ्‍नं (कान्यकुब्जद्वारम्)-सुघ्नम् अभिनिष्क्रामति (सुघ्न की ओर निकलनेवाला, कन्नौज का दरवाजा)- इस विग्रह में 'सुघ्न' शब्द से 'अभिनिष्कामति द्वारम्' सूत्र से 'अण्प्रत्यय, सुघ्न + अण्, 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सौघ्नम्' रूप बनता है। 
११०९ अधिकृत्‍य कृते ग्रन्‍थे
शारीरकमधिकृत्‍य कृतो ग्रन्‍थः शारीरकीयः ।।
सूत्रार्थ - उस विषय को लेकर बनाया हुआ ग्रन्थ इस अर्थ में द्वितीयान्त समर्थ पद से 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं। 

शारीरकीयः-शारीरकम् अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः (जीवात्मा को विषय करके बनाया गया ग्रन्थ)-इस विग्रह में शारीरक शब्द से 'वृद्धाच्छः' से 'छ'प्रत्यय, ‘आयनेयीनीयियः.' से 'छ' को 'ईय' आदेश, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शारीरकीयः' रूप बनता है। शरीरम् एव शारीरकम्, तत्रभवः, शरीरक + अण् = शारीरकः । 
१११० सोऽस्‍य निवासः
स्रुग्‍घ्‍नो निवासोऽस्‍य स्रौग्‍घ्‍नः ।।
सूत्रार्थ - वह इसका निवास स्थान है, इस अर्थ में प्रथमान्त समर्थ पद से अण् आदि प्रत्यय होते हैं। 
सौघ्नः- सुघ्नो निवासोऽस्य (सुघ्न इसका निवास स्थान है)-इस विग्रह में स्रुघ्न शब्द से ‘सोऽस्य निवासः' से 'अण्' प्रत्यय, ‘ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रादिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘स्रौघ्नः' रूप बनता 
११११ तेन प्रोक्तम्
पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम् ।।
सूत्रार्थ - उसके द्वारा 'प्रोक्त' (प्रवचन किया हुआ) अर्थ में प्रथमान्त समर्थ शब्द से 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं। 

पाणिनीयम्- पाणिनिना प्रोक्तम् (पाणिनि के द्वारा प्रवचन किया हुआ, व्याकरण)- इस अर्थ में पाणिनि' शब्द से 'वृद्धाच्छः' से 'छ' प्रत्यय, 'आयनेयीनीयियः. से 'छ' को ईय आदेश, 'यस्येति च' से अन्त्य 'इ' का लोप,.. पाणिन् + ईय = पाणिनीय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पाणिनीयम्' रूप बनता है। 
१११२ तस्‍येदम्
उपगोरिदम् औपगवम् ।।
सूत्रार्थ - 'उसका यह' इस अर्थ में षष्ठ्न्त समर्थ शब्द से अण् आदि प्रत्यय होते हैं। 

औपगवम्- उपगोरिदम् (उपगु का यह है)-इस अर्थ में उपगु शब्द से ‘तस्येदम्' से 'अण्' प्रत्यय, 'ण्' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, औपगु + अ ‘ओर्गुणः' से उ को गुण 'ओ' ‘एचोऽयवायावः' से ओ को 'अव्' आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'औपगवम्' रूप बनता है।" 
इति शैषिकाः ।। ५ ।।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. sir I have following terms for pratyaya sutra which I m not able to find...
    वरिष्ठः कनिष्ठः दयनीयः गुरुत्वम्
    sir though I know praryaya of all these...bt can't find sutra related to that...sir plz help

    जवाब देंहटाएं
  2. वरिष्ठः का सूत्र- प्रियस्थिरस्फिरोरुबहुलगुरुवृद्धतृप्रदीर्घवृन्दारकाणां प्रस्थस्फवर्बंहिगर्वर्षित्रब्द्राघिवृन्दाः (6-4-157) प्रयादीनां क्रमात्प्रादयः स्युरिष्ठादिषु । प्रेष्ठादिषु । प्रेष्ठः । स्थेष्ठः । स्फेष्ठः । वरिष्ठः । बंहिष्ठः । गरिष्ठः । वर्षिष्ठः । त्रपिष्ठः । द्राघिष्ठः । वृन्दिष्ठः । एवमीयसुन् । प्रेयान् । प्रियोरुबहुलगुरुदीर्घाणां पृत्वादित्वादिमनिच् । प्रेमेत्यादि ॥ यह सूत्र सिद्धान्तकौमुदी में आया है। इसी प्रकार कनिष्ठः बनेगा। दयनीयः में अनीयर् प्रत्यय तथा गुरुत्वमें में त्व प्रत्यय है। ये सभी तद्धित प्रत्यय हैं। तद्धित के प्रमुख प्रत्यय तथा सूत्र को जानने के लिए इस ब्लॉग में संस्कृत के तद्धित प्रत्यय नाम से एक पेज है। उस पेज पर जायें।

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