लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते स्‍वार्थिकाः)


अथ स्‍वार्थिकाः


१२४१ इवे प्रतिकृतौ

कन् स्‍यात् । अश्व इव प्रतिकृतिरश्वकः । 
सूत्रार्थ - इव (सदृश) अर्थ में विद्यमान (उपमानवाची) शब्द से कन् प्रत्यय होता है यदि वह इव प्रतिकृति (मूर्ति या चित्र) उपमेय हो
यहाँ उपमानवाची शब्द से कन् प्रत्यय विहित है और प्रत्ययान्त शब्द उपमेय के लिए आता है परन्तु यह उपमेय मिट्टी, काष्ठ आदि से निर्मित प्रतिमा होनी चाहिए। 
अश्वकः-अश्व इव प्रतिकृतिः (घोड़े के समान मूर्ति)- इस विग्रह में अश्व शब्द से 'इवे प्रतिकृतौ' से कन् (क) प्रत्यय हुआ, अश्व + क = अश्वक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अश्वकः' रूप बनता है। 
(सर्वप्रातिपदिकेभ्‍यः स्‍वार्थे कन्) । अश्वकः ।।
सूत्रार्थ -  सभी प्रातिपदिकों से स्वार्थ में कन् प्रत्यय होता है। 
अश्वकः-अश्व एव (घोड़ा)-इस विग्रह में अश्व शब्द से 'सर्वप्रातिपदिकेभ्यः स्वार्थे कन्' से कन् (क) प्रत्यय, अश्व + क = अश्वक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अश्वकः' रूप बनता है। 

१२४२ तत्‍प्रकृतवचने मयट्

प्राचुर्येण प्रस्‍तुतं प्रकृतम्तस्‍य वचनं प्रतिपादनम् । भावे अधिकरणे वा ल्‍युट् । आद्ये प्रकृतमन्नमन्नमयम् । अपूपमयम् । द्वितीये तु अन्नमयो यज्ञः । अपूपमयं पर्व ।।
सूत्रार्थ - प्रथमान्त शब्द से प्रचुरता (आधिक्य) अर्थ बताने में स्वार्थ में मयट् प्रत्यय होता है। 
मयट् में 'मय' शेष रहता है। 
प्राचुर्येणेति- सूत्र में प्रकृति का अर्थ है- अधिकता से प्रस्तुत और वचन का अर्थ है प्रतिपादन या कथन (अधिकता अर्थ को बतलाना)। वचन शब्द से भाव और अधिकरण में ल्युट् प्रत्यय होता है। जब वचन शब्द को भाववाचक मानते हैं तो मयट् प्रत्ययान्त शब्द उसी वस्तु की प्रचुरता को प्रकट करता है जिसके वाचक शब्द से मयट् प्रत्यय होता है। जब इसे अधिकरण वाचक मानते हैं तो जिसमें वस्तु की प्रचुरता है, उसे प्रकट करता है। जैसे - 
प्रथम अर्थ में (भाव ल्युट् के पक्ष में) 
अन्नमयम्- प्रकृतमन्नम् (अन्न की अधिकता)- इस विग्रह में अन्न शब्द से 'तत्प्रकृतवचने मयट्' से मयट् (मय) प्रत्यय, अन्न + मय = अन्नमय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अन्नमयम्' रूप बनता है। 
अपूपमयम्- प्रकृतमपूपम् (पुओं की अधिकता) इस विग्रह में अपूप शब्द से 'तत्प्रकृतवचने मयट्' से मयट् (मय) प्रत्यय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अपूपमयम्' रूप बनता है। 

द्वितीय अर्थ में (अधिकरण ल्युट पक्ष में) 
अन्नमयः यज्ञः- प्रचुरम् अन्नं यस्मिन् यज्ञे सः (जिसमें अन्न की अधिकता है ऐसा यज्ञ) इस विग्रह में अन्न शब्द से 'तत्प्रकृतवचने मयट्' से मयट् (मय) प्रत्यय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अन्नमयः' रूप बनता है।
अपूपमयं पर्व- प्रचुराः अपूपाः यस्मिन् तत् (जिसमें पुओं की अधिकता है ऐसा पर्व) इस विग्रह में 'अपूप' शब्द से 'तत्प्रकृतवचने मयट्' से मयट् प्रत्यय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अपूपमयम्' रूप बनता है।

१२४३ प्रज्ञादिभ्‍यश्‍च

अण् स्‍यात् । प्रज्ञ एव प्राज्ञः । प्राज्ञी स्‍त्री । दैवतः । बान्‍धवः ।।
सूत्रार्थ - प्रज्ञादि गणपठित प्रकृति प्रथमान्त शब्दों से स्वार्थ में अण् प्रत्यय होता है। 
अण् में 'अ' शेष रहता है। 
प्राज्ञः- प्रज्ञ एव (विद्वान्) इस विग्रह में प्रज्ञ शब्द से 'प्रज्ञादिभ्यश्च' से अण् (अ) प्रत्यय, 'तद्धितेप्वचामादेः से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्राज्ञः' रूप बनता है। 
प्राज्ञी- स्त्रीलिङ्ग में प्राज्ञ शब्द से 'टिड्ढाणञ्.' से ङीप् (ई) प्रत्यय, अन्त्य 'अ' का लोप, सु प्रत्यय तथा सु का लोप होकर 'प्राज्ञी' रूप बनता है। । 
दैवतः- देवता एव (देव) इस विग्रह में 'देवता' शब्द से 'प्रज्ञादिभ्यश्च' से अण् (अ) प्रत्यय 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, अन्त्य 'आ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दैवतः' रूप बनता है। 

वान्धवः- बन्धुः एव (बन्धु) इस विग्रह में बन्धु शब्द से 'प्रज्ञादिभ्यश्च' से अण् (अ) प्रत्यय, आदिवृद्धि, ओर्गुणः' से उ को गुण ओ, ओ को एचोयवायावः से अव् आदेश बान्धव, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'बान्धवः' रूप बनता है। 

१२४४ बह्‍वल्‍पार्थाच्‍छस्‍कारकादन्‍यतरस्‍याम्

बहूनि ददाति बहुशः । अल्‍पशः । 
सूत्रार्थ - बहु और अल्प अर्थ वाले कारक शब्दों से स्वार्थ में शस् प्रत्यय विकल्प से होता है। 

बहुशः। बहूनि ददाति (बहुत देता है) इस विग्रह में बहु शब्द से 'बह्वल्पाच्छस्कारकादन्यतरस्याम्' से शस् (शः) प्रत्यय, सकार को रुत्व विसर्ग, 'बहु + शः = बहुशः' रूप बनता है। 

अल्पशः- अल्पानि ददाति (थोड़ा देता है) इस विग्रह में अल्प शब्द से 'बह्वल्पार्थाच्छस्कारकादन्यतरस्याम्' से शस् (शः) प्रत्यय, 'अल्प + शः = अल्पशः' रूप बनता है।

(आद्यादिभ्‍यस्‍तसेरुपसंख्‍यानम्) । आदौ आदितः । मध्‍यतः । अन्‍ततः । पृष्‍ठतः । पार्श्वतः । आकृतिगणोऽयम् । स्‍वरेणस्‍वरतः । वर्णतः ।।
सूत्रार्थ - आद्यादि गणपठित शब्दों से सभी विभक्तियों के अर्थ में तसि प्रत्यय होता है। 
तसि के इ की इत्संज्ञा तथा लोप तथा स् को रुत्व-विसर्ग होकर 'तः' शेष रहता है। 
आदितः- आदी (आदि में) इस विग्रह में आदि शब्द से 'आद्यादिभ्यस्तसेरुपसंख्यानम्' से तसि (तः) प्रत्यय, आदि + तः = आदितः रूप बनता है। 
इसी प्रकार मध्य शब्द से तसि प्रत्यय होकर मध्यतः (मध्य से), अन्त शब्द से तसि प्रत्यय होकर अन्ततः (अन्त से), पृष्ठ शब्द से तसि प्रत्यय होकर पृष्ठतः (पीछे से) पार्श्व शब्द से तसि प्रत्यय होकर 'पार्श्वतः' (पास से) रूप बनते हैं। 
आकृतीति- आकृति आदि शब्द आकृतिगण हैं। अतएव स्वर शब्द से तसि प्रत्यय होकर स्वरतः (स्वर से) वर्ण शब्द से तसि प्रत्यय होकर वर्णतः (वर्ण से) रूप बनते हैं। 

१२४५ कृभ्‍वस्‍तियोगे संपद्यकर्तरि च्‍विः
(अभूततद्भाव इति वक्तव्‍यम्) विकारात्‍मतां प्राप्‍नुवत्‍यां प्रकृतौ वर्तमानाद्विकारशब्‍दात् स्‍वार्थे च्‍विर्वा स्‍यात्‍करोत्‍यादिभिर्योगे।।
सूत्रार्थ - कृ, भू और अस् धातु के योग में विकार को प्राप्त होने वाली प्रकृति (कारण) के अर्थ में वर्तमान विकारवाची (कार्यबोधक) शब्द से स्वार्थ में विकल्प से च्वि प्रत्यय होता है ।

अभूतेति- जो वैसा नहीं था (अभूत), उसके वैसा होने में 'च्वि' प्रत्यय होता है। 

व्याख्या-च्वि प्रत्यय का सर्वापहार (पूर्णरूप से) लोप हो जाता है अर्थात् च्वि प्रत्यय का कुछ भी शेष नहीं रहता है। 

१२४६ अस्‍य च्‍वौ

अवर्णस्‍य ईत्‍स्‍यात् च्‍वौ । वेर्लोपे च्‍व्‍यन्‍तत्‍वादव्‍ययत्‍वम् । अकृष्‍णः कृष्‍णः संपद्यते तं करोति कृष्‍णीकरोति । ब्रह्‍मीभवति । गङ्गीस्‍यात् । 
सूत्रार्थ - अवर्ण को 'ई' हो जाता है च्वि प्रत्यय परे होने पर । 

वेर्लोप इति- च्वि के 'च्' को 'चुटू' से तथा 'इ' का उपदेशे से लोप हो जाता है। 'वेरपृक्तस्य' से 'व्' का लोप हो जाता है। इस प्रकार इस प्रत्यय में कुछ भी शेष नहीं बचता है। इसे सर्वापहार लोप कहते हैं। 
च्यन्तत्वादिति- च्चि प्रत्यय अन्त में होने से अव्यय संज्ञा होती है। तद्धितश्चासर्वविभक्तिः से च्वि प्रत्ययान्त शब्द की अव्यय संज्ञा हो जाती है। विशेष विवरण के लिए अव्यय प्रकरण देखें। 
कृष्णीकरोति- अकृष्णः कृष्णः संपद्यते तं करोति (जो काला नहीं है उसे काला बनाता है)-इस विग्रह में 'कृष्ण' शब्द से अभूततद्भाव में 'कृ' धातु के योग में 'अभूततद्भाव इति वक्तव्यम्' के सहयोग से 'कृभ्वस्तियोगे संपद्यकर्तरि च्विः' से च्वि प्रत्यय, कृष्ण + च्वि + करोति, च्वि का सर्वापहार लोप, 'अस्य च्वौ' से 'अ' को 'ई' होकर 'कृष्णीकरोति' रूप बनता है। 
ब्रह्मीभवति- अब्रह्म ब्रह्म भवति (जो ब्रह्म नहीं है, वह ब्रह्म होता है)-इस विग्रह में ब्रह्मन् शब्द से अभूततद्भाव में भू धातु के योग में 'अभूततद्भाव इति वक्तव्यम्' के सहयोग से 'कृभ्वस्तियोगे संपद्यकर्तरि च्विः' से च्वि प्रत्यय, ब्रह्मन् + च्वि + भवति, च्वि करोति-अकृष्णः जल से अभूततद्भाव  का सर्वापहार लोप नलोप प्रातिपदिकान्तस्य' से 'न्' का लोप, 'अस्व च्चो' से अ को महारचात अगहा गा स्यात् (जो गहा नहीं है यह गड़ा हो जाय)-इस विग्रह में गाणसे अभूततदभाव में अस धातु के योग में अभूततद्भाव इति वक्तव्यम्' के सहयोग से मस्तिसंपचकतरि चिः' से चि प्रत्यय, च्चि का सर्वापहारलोप, गङ्गा । स्वात् इस स्थिति में अस्प खो' से अको ई होकर गङ्गीस्यात्' रूप बनता है। 
(अव्‍ययस्‍य च्‍वावीत्‍वं नेति वाच्‍यम्) । दोषाभूतमहः । दिवाभूता रात्रिः ।।
अव्ययस्यति चि पत्यय परे होने पर अव्यय के 'अ' और 'आ' को 'ई' नहीं होता है। 
दोषाभूतमहः - अदोषा दोषा अभुत (जो रात नहीं था वह रात बन गया, बरसा ऋतु में बादलों के कारण दिन रात जैसा हो रहा है।)-इस विग्रह में दोषा शब्द से अभूत तद्भाव में भूधात के योग में स्वस्तियोगे संपधकर्तरि चिः से चि' प्रत्यय, दोषा + च्चि + भूतम् चिका सबापहारी लोप, अस्य च्चो' से 'आ' को ईत्व प्राप्त होता है। अव्ययस्य च्वावीत्वं नेति वाच्यम्' से इत्व का निषेध होकर दोषाभूतम्' रूप बनता है। 
विद्याभूता रात्रि:- अदिवा दिवा अभूत् (जो दिन नहीं थी वह दिन हो गयी अधिक चाँदनी के कारण रात दिन जैसी हो गयी है)-इस विग्रह में दिवा शब्द से अभूततद्भाव में भूधातु के योग में कृभ्वस्तियोगे संपधकर्तरि च्चिः' से च्चि प्रत्यय दिवा + च्चि + भूता, चिका सापहारी लोप, 'अस्य च्यौ' से 'आ' को ईत्व प्राप्त होता है 'अव्ययस्य च्चावीत्वं नेति वाच्यम्' से ईत्व का निषेध होकर 'दिवाभूता' रूप बनता है। 

१२४७ विभाषा साति कार्त्‍स्‍न्‍ये

च्‍विविषये सातिर्वा स्‍यात्‍साकल्‍ये ।।
सूत्रार्थ - च्वि प्रत्यय के विषय में साकल्य (सम्पूर्णता) के अर्थ में विकल्प से साति प्रत्यय होता है। 

१२४८ सात्‍पदाद्योः

सस्‍य षत्‍वं न स्‍यात् । कृत्‍स्‍नं शस्‍त्रमग्‍निः संपद्यतेऽग्‍निसाद्भवति । दधि सिञ्चति ।।
सूत्रार्थ - सात् प्रत्यय के 'स्' तथा पदादि के 'स्' को '' नहीं होता है। 

अग्निसाद् भवति- कृत्स्नं शस्त्रम् अग्निः सम्पद्यते (सम्पूर्ण शस्त्र जलकर अग्नि हो रहा है)-इस विग्रह में अग्नि शब्द से भू धातु के योग में च्चि के विषय में विभाषा साति कास्न्ये' से साति (सात) प्रत्यय होता है। अग्नि + सात् + भवति. इस स्थिति में 'आदेशप्रत्यययोः' से स को ष प्राप्त होता है किन्तु 'सात्पदाद्योः' से निषेध हो जाता है। इस प्रकार अग्निसाद् भवति' रूप बनता है। 

दधि सिञ्चति- दधि सिञ्चति यहाँ 'सात्पदाधोः' से पदादि होने के कारण स को ए नहीं होता है।

१२४९ च्‍वौ च

च्‍वौ परे पूर्वस्‍य दीर्घः स्‍यात् । अग्‍नीभवति ।।
सूत्रार्थ - च्चि प्रत्यय के परे होने पर पूर्ववर्तीह्रस्व स्वर को दीर्घ हो जाता है। 

अग्नीभवति- अनग्निः अग्नि: भवति (जो अग्नि नहीं है वह अग्नि बन रहा है)-इस विग्रह में अग्नि शब्द से अभूततदभाव में भ धात कं योग में कभ्वस्तियोगे संपद्यकर्तरि चिः' से च्चि प्रत्यय, च्चि का सांपहार लोप, अग्नि - भवति, 'च्यौ च' से अग्नि की 'इ' को दीर्घ 'ई' होकर 'अग्नीभवति' रूप बनता है। 

१२५० अव्‍यक्तानुकरणाद्द्व्‍यजवरार्धादनितौ डाच्

द्व्‍यजेवावरं न्‍यूनं न तु ततो न्‍यूनमनेकाजिति यावत् । तादृशमर्धं यस्‍य तस्‍माड्डाच् स्‍यात् कृभ्‍वस्‍तिभिर्योगे । 
सूत्रार्थ - जिसके अर्ध भाग में अनेक अच् (स्वर हों) और जिससे परे इति शब्द न हो ऐसे अव्यक्त (अस्पष्ट) ध्वनि के अनुकरण शब्द से कृ, भू और अस् धातु के योग में डाच् प्रत्यय होता है। (डाच् में आ शेष रहता है।) 


(डाचि विविक्षते द्वे बहुलम्)  इति डाचि विविक्षते द्वित्‍वम् ।

(नित्‍यमाम्रेडिते डाचीति वक्तव्‍यम्)  डाच्‍परं यदाम्रेडितं तस्‍मिन्‍परे पूर्वपरयोर्वर्णयोः पररूपं स्‍यात् । इति तकारपकारयोः पकारः । पटपटाकरोति । अव्‍यक्तानुकरणात्‍किम् ? ईषत्‍करोति । द्व्‍यजवरार्धात्‍किम् ? श्रत्‍करोति । अवरेति किम् ? खरटखरटाकरोति । अनितौ किम् ? पटिति करोति ।।
डाचीति- डाच प्रत्यय की विवक्षा में अव्यक्तानुकरण को विकल्प से द्वित्व होता है। 
नित्यमिति-डाच परक आमेडित द्वित्व का अगला भाग परे होने पर पूर्व और पर वर्ण को पररूप एकादेश होता है। 
पटपटाकरोति- पटत् करोति (पटपट करता है)-इस विग्रह में डाच् प्रत्यय करने की इच्छा होते ही 'डाचि विवक्षिते द्वे बहुलम्' से पटत् को द्वित्व हो जाता है-पटत् पटत करोति, 'अव्यक्तानकरणादद्वयजवरार्धदनिती डाच्' से डाच् (आ) प्रत्यय, पटत् पटत् आ करोति, इस स्थिति में 'तस्य परमानेडितम्' से अगले पटत् को आमेडित संज्ञा तथा 'नित्यमामेडित डाचिति वक्तव्यम्' से पूर्व आकार तथा अगले पकार को पररूप अर्थात पकार हो जाता है। पट . पटत् + आ + करोति, डित होने से 'टेः' से पटत के अत का लोप, 'पट , पट + आ + करोति = पटपटाकरोति' रूप बनता है। 
अव्यक्तानुकरणादिति- सूत्र में अव्यक्त ध्वनि के अनुकरण से डान् प्रत्यय होता है ऐसा क्यों कहा? यह इसलिए कहा कि इंपत्कराति (थाड़ा करता है) में 'डाच प्रत्यय नहीं। होगा क्योंकि ईपद अव्यक्त ध्वनि का अनुकरण नहीं है।' 
दयजवराधांदिति- सूत्र में दयच ही न्यून हा एसा क्या कहा गया है? यह इसलिए कहा गया है कि श्रुत करोति (श्रुत ध्वनि करता है) में डाच् प्रत्यय नहीं होता है क्योंकि इसमें अनेक 'अच्' नहीं हैं। 

अवरेति- सूत्र में अवर शब्द क्यों रखा गया है। इसलिए कि खरटखरटाकरोति। (खरटत् शब्द करता है) में डाच् प्रत्यय होता है क्योंकि इसमें दो से अधिक अच् हैं। अवर शब्द के ग्रहण से यह आशय है कि आधा भाग कम से कम दो अच् वाला हो और यदि अधिक अच हों तो कोई बात नहीं है। खरटखरटाकराति रूप पटपटाकरोति की तरह सिद्ध होता है। 

अनितौ किमिति-सूत्र में इति परे होने पर डाच् प्रत्यय नहीं होता है। यह किसलिए कहा गया है? इसलिए कि पटत् इति करोति = पटिति करोति यहाँ डाच् प्रत्यय नहीं होगा, क्योंकि पटत् के आगे इति है। 

इति स्‍वार्थिकाः ।। १६ ।।

।। इति तद्धिताः ।।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. अश्वकः यहां पर क्या प्रत्यय है?

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    उत्तर
    1. इस स्वार्थिक प्रकरण का प्रथम सूत्र इवे प्रतिकृतौ का सूत्रार्थ उदाहरण पूर्वक अश्वकः को समझाया गया है। यहाँ सदृश अर्थ में कन् प्रत्यय होता है।

      हटाएं
  2. आदितः इत्यत्र कस्मिन्नर्थे कः प्रत्ययः?

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदितः में विभक्ति के अर्थ में तसि (तः) प्रत्यय होता है।

      हटाएं

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