अथ समासान्ताः
ऋच्, पुर्, अप्, धुर्, और पथिन् ये शब्द जिसके अन्त में हों, ऐसे समास से समासान्त अ प्रत्यय हो परन्तु अन्तिम अक्ष शब्द वाले को नहीं हो।
अ अनक्ष इतिच्छेदः- सूत्र में स्थित आनक्षे इस पद में अ + अनक्षे ऐसा परच्छेद है। अनक्षे का निषेध केवल धुर्, शब्द के लिए है, क्योंकि उसी में योग्यता है, औरों में नहीं। अक्ष (रथ के चक्के का मध्यमभाग) में जो धुर्(धुरा), उसको बताने वाला धुर् शब्द अन्तिम हो तो अ प्रत्यय नहीं होगा।
अर्धर्चः। ऋचः अर्धम् लौकिकविग्रह और ऋच् ङस् + अर्ध सु अलौकिक विग्रह है। यहाँ अर्धं नपुंसकम् से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करने पर ऋच + अर्ध बना। प्रथमानिर्दिष्ट अर्ध की उपसर्जनसंज्ञा, उसका पूर्वनिपात करके अर्ध + ऋच् बना। आद्गुणः से गुण होकर अर्धर्च् बना। अब ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे से समासान्त अच् होकर अर्धर्च बना। सु, रुत्वविसर्ग करने पर अर्धर्चः सिद्ध हुआ।
विष्णुपुरम्। विष्णोः पूः लौकिकविग्रह और विष्णु ङस् + पुर् सु अलौकिक विग्रह है। षष्ठी से तत्पुरूषसमास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके विष्णुपुर् बना। प्रथमानिर्दिष्ट विष्णु की उपसर्जनसंज्ञा, उसका पूर्वनिपात। अब ऋक्पूरब्धूः- पथामानक्षे से समासान्त अच् होकर विष्णुपुर् + अ बना। वर्णसम्मलेन, प्रातिपदिकत्वेन सु, नपुंसक होने के कारण सु के स्थान पर अम् आदेश एवं पूर्वरूप करके पर विष्णुपुरम् सिद्ध हुआ।
विमलापं सरः। विमला आपो यस्य लौकिकविग्रह और विमला जस् + अप् जस् अलौकिक विग्रह है। अनेकमन्यपदार्थे से बहुव्रीहिसमास करके प्रातिपदिकसंज्ञा, सुप् का लुक् करके विमला-अप् बना। सवर्णदीर्घ होकर विमलाप् बना। अब ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे से समासान्त अच् होकर विमलाप् + अ बना। वर्णसम्मलेन, प्रातिपदिकत्वेन सु, सरः नपुंसक होने के कारण इसका विशेषण विमलाप भी नपुंसक ही हुआ। सु के स्थान पर अम् आदेश एवं पूर्वरूपक रने पर विमलापं सरः सिद्ध हुआ।
अक्षे तु अक्षक्षूः। सूत्र में अनक्षे का विग्रह करके अ अनक्षे इस प्रकार पढ़ कर
अक्ष शब्द के साथ सम्बद्ध जो धुर्, तदन्त से अच् प्रत्यय का निषेध किया है। अतः अक्षस्य धूः
षष्ठी करने के बाद अच् से रहित अक्षधूः ही बनेगा। इसी तरह दृढधूरक्षः में दृढा धूः
यस्य में बहुव्रीहि समास करने के बाद समासान्त अच् प्रत्यय नहीं हुआ। अतः दृढधूः
ही बनेगा।
जो अक्षि शब्द नेत्रवाचक न हो उस अक्षिशब्दान्त से समासान्त अच् प्रत्यय होता
है।
गवाक्षः। गवाम् अक्षि इव लौकिक विग्रह और गो आम् अक्षि सु अलौकिक विग्रह है। यहाँ पर
अक्षि शब्द नेत्र का वाचक नहीं है अपितु नेत्र की तरह छिद्र वाली खिड़की का वाचक
है। षष्ठी सूत्र के द्वारा षष्ठीतत्पुरूष समास होने के पश्चात् प्रातिपदिकसंज्ञा,
विभक्ति का लुक् करके गो + अक्षि बना। यहाँ पर अवङ् स्फोटायनस्य से अवङ् आदेश,
सवर्णदीर्घ होकर गवाक्षि + अ बना। अक्ष्णोऽदर्शनात् से समासान्त अच् प्रत्यय होकर
गवाक्ष बना। स्वादिकार्य करके गवाक्षः सिद्ध होता है।
उपसर्ग से परे अध्वन् शब्द को समासान्त अच् प्रत्यय हो।
प्राध्वो रथः। प्रगतः अध्वानम् लौकिक विग्रह और प्र + अध्वन् अम् अलौकिक विग्रह में अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे
द्वितीयया इस वार्तिक से समास हुआ। प्रातिपदिकसंज्ञा,
सुप् का लुक् करने पर प्र + अध्वन् बना है। उपसर्गादध्वनः से अच् प्रत्यय हुआ। प्र + अध्वन् + अ हुआ। नस्तद्धिते से अध्वन् के
अन् इस टिसंज्ञक का लोप होने पर प्र + अध्व् + अ बना। प्र + अध्व् के मध्य सवर्णदीर्घ और अध्व् + अ का
वर्णसम्मलेन करने पर प्राध्व बना। स्वादिकार्य करके प्राध्वः सिद्ध हुआ।
लघुसिद्धान्तकौमुदी में तत्पुरुष,
बहुव्रीहि आदि प्रकरणों में समासान्त प्रत्ययों का उल्लेख कर दिया गया है। वहाँ से
अवशिष्ट समासान्त प्रत्ययों का उल्लेख करने के लिए यह प्रकरण पृथक् से निर्मित है।
अध्येताओं को चाहिए कि समासान्त प्रत्ययों के विचार के समय उन सूत्रों को भी स्मरण
में रखे। वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी में एकशेषसमास, अलुक्समास आदि के लिए भी अलग से प्रकरण निर्मित गये हैं,
किन्तु लघुसिद्धान्तकौमुदी में उन प्रकरणों का निर्माण नही किया गया। प्रतियोगी
परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्रों को समास अध्ययन के समय समास की स्पष्टता के
लिए वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी का भी अवलोकन करना चाहिए।
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