लघुसिद्धान्तकौमुदी (कृत्यप्रक्रिया)

पूर्व पाठावलोकन
कृत्य प्रक्रिया अध्ययन आरम्भ के पूर्व विद्यार्थियों को इत्संज्ञा तथा लोप करने वाले प्रमुख सूत्रों को स्मरण कर लेना चाहिए।  वरदराजाचार्य ने लघुसिद्धान्तकौमुदी में संज्ञा प्रकरण, सन्धि प्रकरण, सुबन्त तथा तिङन्त प्रकरण के बाद कृदन्त प्रकरण को लिखा है। इन प्रकरणों के बाद कृदन्त प्रकरण को अतएव लिखा गया, क्योंकि इस प्रकरण में पूर्ववर्ती सूत्रों तथा प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। अतः कृदन्त प्रकरण पढ़ने के पहले उन प्रकरणों के महत्वपूर्ण सूत्रों को स्मरण कर लेना चाहिए।
आपने भ्वादि गणों में पढ़ा होगा कि धातुओं के कुछ शब्दों का अनुबन्ध लोप किया जाता है। जैसे- डुपचस् पाके में डु तथा ष् का अनुबन्ध लोप करते हैं इसमें पच् शेष रहता है। इसी प्रकार कृञ् करणे में ञकार का अनुबन्ध लोप करते हैं। तिङ् प्रत्ययों की तरह कृत् प्रत्ययों की उत्पत्ति धातुओं से होती है। यहाँ धातोः, प्रत्ययः, परश्च के अधिकार है अतः इसके अधिकार में ही कृत् प्रत्यय होंगें। अर्थात् प्रत्येक सूत्र में धातु से परे प्रत्यय पर में हो, ऐसा अर्थ करना चाहिए।
धातुओं से कृत् प्रत्यय करने के बाद कृत् प्रत्यय यदि शित् हैं तो उनकी तिङ्शित्सार्वधातुकम् से सार्वधातुसंज्ञा होती है और शित् से भिन्न हों तो उनकी आर्धधातुकं शेषः से आर्धधातुकसंज्ञा होती है। इसके कारण अथवा प्रत्यय के ङ्ति, ञित् होने पर गुण या वृद्धि जैसे कार्य होते हैं। 
    धातु रूप सिद्धि के समय आप इस प्रक्रिया से परिचित हो गये होंगें। उसकी आवृत्ति कर लें। धातुओं में इडागम होते हैं। कृत् प्रत्यय जब कित्, ङित् अथवा आर्धधातुक हो तो इडागम होता है। कुल मिलाकर जिस प्रकार धातुओं से तिङ् प्रत्यय लगाकर धातु रूप सिद्ध होते हैं उसी प्रकार की प्रक्रिया का अनुपालन करते हुए कृत् प्रत्ययान्त शब्द सिद्ध किया जाता है। दोनों में केवल यह अन्तर है कि वहाँ धातु से तिङ् प्रत्यय होते हैं और यहाँ कृत् प्रत्यय। 
    धातु तथा कृत् प्रत्यय से निष्पन्न शब्द की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा होती है। इसके बाद सु आदि विभक्ति (प्रत्यय) को लाकर अजन्त, हलन्त आदि शब्द रूप की तरह कृदन्त शब्द का रूप बनता है। उक्त से स्पष्ट है कि यहाँ सुप् प्रत्यय, धातु तथा सन्धि से सम्बद्ध एक साथ तीन तरह की प्रक्रियाओं को पूर्ण कर रूप सिद्ध होते हैं।

सारांशतः कृदन्त प्रकरण अध्ययन करने के इच्छुक विद्यार्थी सर्वप्रथम संज्ञा, सन्धि, सुबन्त तथा तिङ्न्त प्रक्रिया को भली भाँति समझ ले। इसके अनन्तर कृदन्त प्रकरण का अध्ययन आरम्भ करे। कृदन्त प्रकरण में आये प्रत्यय को कृत् प्रत्यय कहा जाता है। इन्हीं कृत् प्रत्ययों में से 7-8 प्रत्ययों की कृत्य संज्ञा भी होती है। इस कृत् प्रकरण के अन्तर्गत कृत्य प्रकरण से सम्बन्धित प्रक्रिया आगे बतायी जा है। 


                                  
                                अथ कृदन्‍ते कृत्‍यप्रक्रिया


७६९ धातोः

आतृतीयाध्‍यायसमाप्‍तेर्ये प्रत्‍ययास्‍ते धातोः परे स्‍युः । कृदतिङिति कृत्‍संज्ञा ।।
सूत्रार्थ - अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के समाप्ति पर्यन्त जो प्रत्यय कहे गये हैं, वे धातु से परे हों।
पाणिनीय अष्टाध्यायी के धातोः सूत्र (3.1.91 तृतीय अध्याय के प्रथम पाद के 91 वें सूत्र) से लेकर तृतीयाध्याय की समाप्ति (तृतीयाध्याय के चतुर्थपाद के अन्तिम सूत्र छन्दस्युभयथा तक) पर्यन्त जो भी प्रत्यय हों, वे धातु के बाद ही हों। यह अधिकार सूत्र है।

कृदतिङ् सूत्र द्वारा धातुओं से होने वाले तिङ् से भिन्न प्रत्ययों की कृत् संज्ञा होती है।


७७० वासरूपोऽस्‍त्रियाम्

अस्‍मिन्‍धात्‍वधिकारेऽसरूपोऽपवादप्रत्‍यय उत्‍सर्गस्‍य बाधको वा स्‍यात् स्‍त्र्यधिकारोक्तं विना ।।
वा इति अव्ययपदं, असरूपः प्रथमान्तम्, अस्त्रियां सप्तम्यन्तं पदम् । इस तरह यह त्रिपद वाला सूत्र है। इस सूत्र में तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् से तत्र की अनुवृत्ति आती है और उत्सर्गस्य अपवादप्रत्ययो बाधकः स्यात् इन पदों का अध्याहार किया जाता है। यह परिभाषा सूत्र है।
विशेष
छात्रों को पाणिनि के सूत्रों के प्रकार, प्रकृति तथा परिभाषाओं को ठीक से समझ लेना चाहिए। सूत्र दो प्रकार के होते हैं। 1. सामान्य और 2. विशेष । किञ्चित् सामान्यविशेषवल्लक्षणप्रवर्त्यम् । किं पुनस्तत् । उत्सर्गापवादौ। (म.भा. पश्प.) सामान्य सूत्र को उत्सर्ग कहा जाता है। इसकी सभी स्थानों पर प्रवृत्ति होती है, जबकि विशेष सूत्र अपवाद होता है। अपवाद सूत्र सामान्य सूत्र के नियमों, विधानों से अलग प्रकार के कार्य करते हैं। समाज में भी सामान्य के विपरीत अपवाद देखे जाते हैं। आपने अन्य प्रकरण में देखा कि उत्सर्ग का अपवाद नित्य बाध करता है, परन्तु कृत् प्रत्यय में असरूप जो अपवाद प्रत्यय हैं, वे विकल्प से उत्सर्ग का बाध करेंगें। 
सूत्रार्थ - असरूप अर्थात् जो समान नहीं हो ऐसा अपवाद प्रत्यय, उत्सर्ग सूत्र का विकल्प से बाधक हो, स्त्रियाम् के अधिकार में कहे गये प्रत्ययों को छोड़कर।
विशेष
यहाँ पर असरूप का अर्थ यह है कि सामान्य सूत्र द्वारा कहे गये कार्य तब तक होते रहेंगें, जहाँ उत्सर्ग तथा अपवाद प्रत्ययों का स्वरूप एक समान नहीं हो। यथा- अचो यत् से होने वाला यत् (य) प्रत्यय तथा ऋहलोर्ण्यत् से होने वाला ण्यत् (य) प्रत्यय का स्वरूप एक जैसा (य जैसा) है । अचो यत् सभी अजन्त धातु से यत् प्रत्यय करता है अतः यह उत्सर्ग अर्थात् सामान्य सूत्र है। ऋहलोर्ण्यत् केवल ऋदन्त तथा हलन्त से ण्यत् प्रत्यय करता है।  अतः ऋदन्त धातु में ण्यत् प्रत्यय यत् प्रत्यय का नित्य बाध करेगा। 
अपवाद प्रत्यय उत्सर्ग प्रत्यय का विकल्प से बाधक हो। जैसे- सभी धातुओं से तव्‍यत्, तव्‍य तथा अनीयर् प्रत्यय  का सामान्य विधान किया गया है। परन्तु अचो यत् से अजन्त धातु से यत् प्रत्यय का विधान किया गया। इस स्थिति में यत् प्रत्यय तव्‍यत्, तव्‍य तथा अनीयर् का अपवाद है। चुंकि यत् असरूप प्रत्यय है अतः यह विकल्प से होता है। विकल्प पक्ष में तव्‍यत्, तव्‍य तथा अनीयर् प्रत्यय भी होते हैं। इसी प्रकार पोरदुपधात्, ऋहलोर्ण्‍यत् आदि सूत्र को अपवाद सूत्र समझना चाहिए।

स्त्रियाम् के अधिकार में यह परिभाषा नहीं लगती। इसीलिए स्त्रियां क्तिन् (3.3.14) इस उत्सर्ग का अ प्रत्ययात् (3.3.102) यह अपवाद नित्य से बाधक होता है। क्तिन् और अ प्रत्ययों में असमानता होने पर भी विकल्प से बाध्यबाधकभाव नहीं होता अपितु नित्य से ही अ प्रत्यय क्तिन् का बाधक होता है जिससे चिकीर्षा, जिहीर्षा ऐसे अप्रत्ययान्त ही रूप बनते हैं, न कि क्तिन्प्रत्ययान्त भी। 


७७१ कृत्‍याः

ण्‍वुल्‍तृचावित्‍यतः प्राक् कृत्‍यसंज्ञाः स्‍युः ।।
सूत्रार्थ - ण्वुलतृचौ से पहले तक कहे जाने वाले प्रत्यय कृत्य संज्ञक हों।

यह सूत्र कृत्य संज्ञा का अधिकार करता हैं। इसका अधिकार ण्वुलतृचौ के पहले तक जाता है। उससे पहले के प्रत्ययों की कृत्संज्ञा तो होती है और कृत्यसंज्ञा भी होती है। यहाँ तक संज्ञा का अधिकार न होने से दो संज्ञाओं का समावेश है। कृत्य प्रत्ययों की संख्या सात है। अर्थात् तव्यत्, तव्य, अनीयर केलिमर, यत्, ण्यत् और क्यप् से सात प्रत्यय कृत्य माने गये हैं।

७७२ कर्तरि कृत्

कृत्‍प्रत्‍ययः कर्तरि स्‍यात् । इति प्राप्‍ते –
सूत्रार्थ - कृत् प्रत्यय कर्ता अर्थ में हो। 

इसकी प्राप्ति होने पर कृदन्त में होने वाले प्रत्यय किसी एक अर्थ विशेष को लेकर होते हैं। अतः यह ध्यान देना चाहिए कि यह प्रत्यय किस अर्थ में हो रहा है। जिस-जिस अर्थ में प्रत्यय होते हैं, उन-उन स्थलों पर उस अर्थ का द्योतन करते हैं। कृत् प्रत्ययों का कर्ता अर्थ में होना सामान्य विधान हैं। अलग- अलग जगहों पर विशेष सूत्रों के द्वारा कर्ता के अतिरिक्त अर्थों में भी प्रत्यय किये जाते हैं। कर्ता अर्थ से भिन्न अर्थ में किये जाने वाले प्रत्यय कर्ता अर्थ में प्रत्यय करने वाले सूत्र के बाधक होंगे। इसका बाधक अग्रिम सूत्र है। 

७७३ तयोरेव कृत्‍यक्तखलर्थाः

एते भावकर्मणोरेव स्‍युः ।।
सूत्रार्थ - कृत्य, क्त और खलर्थ प्रत्यय भाव और कर्म अर्थ में ही हो।
विशेष
कृत्संज्ञक प्रत्यय के अन्तर्गत आने के कारण कृत्यप्रत्यय भी पूर्वसूत्र से कर्ता अर्थ में प्राप्त हो रहे थे, उसको बाधकर इस सूत्र द्वारा कृत्य-प्रत्यय, क्त-प्रत्यय और खलर्थप्रत्यय भाव और कर्म अर्थ में किया गया। क्त प्रत्यय पूर्वकृदन्तप्रकरण में और खलर्थ प्रत्यय उत्तर कृदन्त प्रकरण में आयेंगे। खल् प्रत्यय जिस अर्थ में होता है, उसी अर्थ में होने वाले प्रत्ययों को खलर्थ प्रत्यय कहते हैं। 

७७४ तव्‍यत्तव्‍यानीयरः

धातोरेते प्रत्‍ययाः स्‍युः । एधितव्‍यम्एधनीयं त्‍वया । भावे औत्‍सर्गिकमेकवचनं क्‍लीबत्‍वं च । चेतव्‍यश्‍चयनीयो वा धर्मस्‍त्‍वया ।
सूत्रार्थ - धातु से तव्यत्, तव्य और अनीयर् प्रत्यय होते हैं।
विशेष
तव्यत् में तकार की इत्संज्ञा होती है और लोप होकर तव्य ही शेष रहता है। तव्यत् और तव्य में अन्तर बस इतना ही है कि एक तव्य तित् है और एक नहीं। तित् करने का फल तित्स्वरितम् से स्वरित स्वर का विधान है। अनियर् में रेफ इत्संज्ञक है। ये तीनों प्रत्यय शित् नहीं हैं, अतः इनकी आर्धधातुकसंज्ञा होगी। आर्धधातुक प्रत्यय वलादि हो और धातु अनिट् न हो तो उस वलादि प्रत्यय को आर्धधातुकस्येड् वलादेः से इट् का आगम भी होगा।

तयोरेव कृत्यक्तखलर्थाः के नियम से तव्यत्, तव्य और अनीयर् ये अकर्मक धातु से भाव और कर्म अर्थ में हुए हैं। भाव अर्थ में स्वाभाविक रूप से नपुंसकलिंग और एकवचन ही होता है। धातु के अर्थ क्रिया मात्र को भाव कहते हैं। भाव न तो स्त्रीलिंग होता और न ही पुल्लिंग, अतः स्वाभाविक रूप से नपुंसकलिंग ही होगा। जिस क्रिया में कृत्य प्रत्यय लगा होगा है, उसका कर्ता अनुक्त होने के कारण तृतीया विभक्ति वाला हो जाता है। 

एधितव्यम्। अकर्मक वृद्धि अर्थ वाले एध की धातु संज्ञा, एध के धकारोत्रवर्ती अकार का अनुबन्ध लोप हुआ। एध् शेष बचा। एध् से धातोः, प्रत्ययः, परश्च के अधिकार में तव्यतव्यानीयरः से भाव अर्थ में तव्यत् या तव्य प्रत्यय हुए। तव्यत् में तकार की इत्संज्ञा होकर लोप हुआ, तव्य बचा। ध्यान देने योग्य यह है कि तव्यत् में तकार की इत्संज्ञा लोप होने पर तव्य प्रत्यय के समान ही तव्य शेष बचता है। दोनों प्रत्ययों में एध् + तव्य बना। यहाँ पर तयोरेव कृत्‍यक्तखलर्थाः से भाव में तव्यत् तथा तव्य प्रत्यय हुआ है। तव्य की आर्धधातुकं शेषः से आर्धधातुकसंज्ञा हुई और एध् धातु अनिट् नहीं है, अतः आर्धधातुकस्येड् वलादेः से इट् का आगम हुआ।  एध् + इट् + तव्य हुआ। इट् के टकार की इत्संज्ञा और लोप, टित् होने के कारण तव्य के आदि में बैठा। कृदतिङ् से तव्य की कृत् संज्ञा हुई। एध् + + तव्य बना। वर्ण सम्मलेन हुआ। तव्य कृत् प्रत्यय है, अतः एधितव्य कृदन्त शब्द बना।  कृदन्त होने के कारण इसकी कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा हुई और सुप् प्रत्ययों की उत्पत्ति हुई। प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु विभक्ति आई। तव्यत् तथा तव्य प्रत्यय भाव में हुआ है अतः नपुंसक लिंग होने के कारण सु के स्थान पर अतोऽम् से अम् आदेश हुआ। एधितव्य + अम् हुआ। अमि पूर्वः से पूर्वरूप होकर ज्ञानम् की तरह एधितव्यम् बना।
विशेष-
कृत्य, क्त और खलर्थ प्रत्यय भाव और कर्म अर्थ में ही होते हैं। एध धातु अकर्मक है अतः इससे तव्यत्, तव्य तथा अनीयर् (कृत्य) प्रत्यय कर्म में नहीं होकर केवल भाव में होंगे। भाव अर्थ में प्रत्यय होने के कारण  सामान्यतः नपुंसक लिंग तथा एकवचन होगा। भाव तथा कर्म में होने वाले प्रत्यय में  कर्ता अनुक्त होने से हमेशा तृतीया विभक्ति ही होगी। जैसे मया पठितम्, मया पठनीयम् आदि। कर्ता प्रथमपुरूष वाला मध्यमपुरूष वाला या उत्तमपुरूष वाला कोई भी हो सकता है और एकवचन, द्विवचन या बहुवचन किसी भी वचन का हो सकता है किन्तु क्रियापद एकवचन और नपुंसकलिंग वाला एधितव्यम् ही रहेगा। जैसे- तेन एधितव्यम्, ताभ्याम् एधितव्यम् आदि

एधनीयम्। एध् धातु से तव्यत्तव्यानीयरः से अनीयर् प्रत्यय हुआ। एध् + अनीयर् हुआ। अनीयर् के रकार का लोप करके एध् + अनीय बना। अनीय की आर्धधातुकं शेषः से आर्धधातुकसंज्ञा हुई किन्तु अनीयर् वलादि नहीं है, अतः आर्धधातुकस्येड् वलादेः से इट् का आगम नहीं हुआ। एध् + अनीय में वर्णसम्मलेन होकर एधनीय बना। अनीय कृत प्रत्यय है, अतः कृदन्त के कारण इसकी कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिकसंज्ञा, प्रथमा एकवचन में सु विभक्ति आई। नपुसंक होने के कारण सु के स्थान पर अतोऽम् से अम् आदेश और अमि पूर्वः से पूर्वरूप होकर एधनीयम् बना। तव्यत् की तरह ही अनीयर् का कर्ता अनुक्त होने के कारण तृतीयान्त ही होगा। त्वया एधनीयम्, मया एधनीयम् आदि।
चेतव्यः, चयनीयः। सकर्मक चिञ् (चयने) धातु  (संग्रह करना) में ञकार इत्संज्ञक है, उससे तव्य हुआ, चि + तव्य बना। तव्य की आर्धधातुकसंज्ञा और चि के इकार को सार्वधातुकार्धकयोः से गुण होकर चे बन गया, चेतव्य की प्रातिपदिकसंज्ञा, सु विभक्ति, अनुबन्धलोप और रूत्वविसर्ग करने पर चेतव्यः सिद्ध हुआ। इसी प्रकार अनीयर् करने पर चि + अनीय में चि को गुण चे, अय् आदेश करने पर च् + अय् + अनीय बना। वर्णसम्मलेन होकर चयनीय बना, उसकी प्रातिपदिकसंज्ञा और सु विभक्ति, रूत्वविसर्ग करने पर चयनीयः बना। यहाँ पर कर्म जिस लिंग, जिस विभक्ति और जिस वचन में है, कृत्य प्रत्ययान्त शब्द भी उसी लिंग, विभक्ति वचन के होते हैं। इस लिए इस त्वया धर्मः चेतव्यः में धर्म शब्द कर्म संज्ञक है और वह पुँल्लिंग प्रथमा एकवचनान्त है। अतः चेतव्यः और चयनीयः भी पुल्लिंग प्रथमा एकवचनान्त बन गये। भाव अर्थ में प्रत्यय होगा तो नपुंसकलिंग और एकवचन ही होगा तथा कर्म अर्थ में प्रत्यय होगा तो कर्म जिस लिंग, विभक्ति और वचन का होगा कृत्य प्रत्ययान्त क्रियापद भी उसी लिंग, विभक्ति और वचन को होगा जैसे- तेन धान्यं चेतव्यम्, ताभ्यां धान्यं चेतव्यम्, तैः धान्यं चेतव्यम्, तेन धान्ये चेतव्ये, तेन धान्यानि चेतव्यानि, मया धान्यानि चेतव्यानि, मया ग्रन्थः पठितव्यः, युष्माभिः ग्रन्थः पठितव्यः, त्वया ग्रन्थाः पठितव्याः आदि । कृदन्त होने के बाद प्रातिपदिकसंज्ञा होती है। और सु आदि सभी विभक्तियाँ आती है। अतः कर्म अर्थ में प्रत्यय होने पर सातों विभक्तियों के तीनों वचनों में रूप बनते है।
जैसे- चेतव्यः, चेतव्यौ, चेतव्याः। आदि

 

(वा.) केलिमर उपसंख्‍यानम्। पचेलिमा माषाः । पक्तव्‍या इत्‍यर्थः । भिदेलिमाः सरलाः । भेत्तव्‍या इत्‍यर्थः । कर्मणि प्रत्‍ययः ।।
अर्थ - धातुओं से केलिमर् भी होता है। अर्थात् तव्यत्तव्यानीयरः इस सूत्र में केलिमर् प्रत्यय भी जोड़ देना चाहिए। 
विशेष-
यह प्रत्यय भी सभी धातुओं से होता है। केलिमर् में ककार की लशक्वद्धिते से और रकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा होकर एलिम शेष रहता है। कित् होने के कारण गुणनिषेध हो जाता है।
पचेलिमा माषाः पक्तव्या इत्यर्थः। (पकाने योग्य ऊड़द) पच् (डुपचष् पाके) धातु से केलिमर उपसंख्यानम् इस वार्तिक से केलिमर् प्रत्यय होकर अनुबन्धलोप होने पर पच् + एलिम बना। प्रतिपदिक संज्ञा,सु विभक्ति, रुत्वविसर्ग होकर पचेलिमः बनेगा। पचेलिम के आगे माषाः यह विशेष्य है। माषाः शब्द पुंल्लिंग प्रथमा का बहुवचन का है, अतः विशेषण पचेलिम शब्द से भी पुंल्लिंग में प्रथमा का बहुवचन की जस् विभक्ति में पचेलिमाः बना । पचेलिमास् + माषाः में सकार को रूत्व, रेफ को यत्व और यकार का लोप आदि कार्य होकर पचेलिमा माषा बन जाता है।

 इसी प्रकार भिदेलिमाः सरलाः, भेत्तव्या इत्यर्थः। (सरल, सीधे ( पेड़ आदि) काटने योग्य हैं) भिद् (भिदिर् द्वैधीकरणे) धातु से केलिमर प्रत्यय करके अनुबन्धलोप करन पर भिद् + एलिम बना। पुगन्तलघूपधस्य च से प्राप्त गुण का कित् होने के कारण क्ङिति च से निषेध हुआ। वर्णसम्मलेन होकर भिदेलिम बना। सरलाः इस विशेष्यपद के कारण इसमें भी पुंल्लिंग में प्रथमा का बहुवचन आकर भिदेलिमाः सिद्ध हुआ। भाष्यकार ने इस प्रत्यय को कर्म अर्थ में माना है। अतः ग्रन्थकार भी कर्मणि प्रत्ययः लिखते हैं। यहाँ कर्म में अनीयर् प्रत्यय हुआ है।

७७५ कृत्‍यल्‍युटो बहुलम्

क्‍वचित्‍प्रवृत्तिः क्‍वचिदप्रवृत्तिः क्‍वचिद्विभाषा क्‍वचिदन्‍यदेव ।

विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्‍ति ।। १ ।।

स्‍नात्‍यनेनेति स्‍नानीयं चूर्णम् । दीयतेऽस्‍मै दानीयो विप्रः ।।

सूत्रार्थ - कृत्य प्रत्यय और ल्युट् प्रत्यय बहुल से होते हैं।
विशेष-
बहुल का अर्थ है- जहाँ विधान न हो वहाँ भी प्रवृत्त होना। बहुल परिभाषिक शब्द है। उसकी परिभाषा बताने के लिए वैयाकरण जगत् में क्वचित्प्रवृत्तिः यह श्लोक प्रसिद्ध है। बहुल के चार अर्थ हैं-
पहला- क्वचित्प्रवृत्तिः- जहाँ लगना चाहिए वहाँ लगता है तथा जहाँ लगने की योग्यता नहीं है, वहाँ भी लग जाता है।
दूसरा- क्वचित् अप्रवृत्तिः- कहीं-कहीं लगने योग्य स्थानों पर भी नहीं लगता।
तीसरा- क्वचिद्विभाषा- कहीं कहीं विकल्प से होता है और
चौथा-क्वचिद् अन्यद् एव- कहीं कुछ और ही भी होता है और ही होता है।
बहुल का तात्पर्य- कहीं होना, कहीं न होना, कहीं विकल्प से होना और कहीं कुछ भिन्न ही होना। 
जैसे- स्नानीयम्। स्नान्ति अनेन । कृत्य प्रत्यय भाव या कर्म अर्थ में होते हैं। कृत्यल्युटो बहुलम् के द्वारा कृत्य प्रत्यय अन्य कारकों में भी होते हैं। दीयते अस्मै में सम्प्रदान अर्थ (चतुर्थी) में कृत्य प्रत्यय अनीयर् का विधान हुआ । यही बहुल = क्वचिदन्यदेव है।
स्नानीयम् में बहुल होने के कारण क्वचिदन्यदेव अर्थात् कुछ और ही हुआ। स्नान्ति अनेन इस करण अर्थ में स्ना धातु से अनीयर्, स्ना + अनीय, सवर्ण दीर्घ करके स्नानीय बना। इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, अम्, पूर्वरूप करके स्नानीयम् बना। चूर्ण शब्द नपुंसक लिंग और एकवचनान्त होने के कारण स्नानीयम् भी नपुंसक लिंग और एकवचनान्त हुआ।

दानीयः। दीयते अस्मै इस विग्रह में कृत्यल्युटो बहुलम् से बहुल में अनीयर् प्रत्यय हुआ, दा + अनीय बना। सवर्णदीर्घ करके दानीय बना। सु, रूत्व, विसर्ग होकर दानीयः बना। विप्रः पुंल्लिंग और एकवचन का होने के कारण दानीयः भी पुंल्लिंग और एकवचन का हुआ।

७७६ अचो यत्

अजन्‍ताद्धातोर्यत् स्‍यात् । चेयम् ।।
सूत्रार्थ - अजन्त धातुओं से यत् प्रत्यय हो।
यत् में तकार की इत्संज्ञा होती है। य ही शेष बचता है। यह भी कृत् और कृत्य दोनों ही है। यह भाव और कर्म अर्थ में हुआ है।
चेयम्। चिञ् चयने धातु है। चिञ् की धातु संज्ञा, ञकार की इत्संज्ञा, लोप संज्ञा तथा लोप, धातोः, प्रत्ययः परश्च इन तीनों सूत्रों के अधिकार में चि धातु से अचो यत् से यत् प्रत्यय हुआ, अनुबन्धलोप होकर चि + य बना। य की आर्धधातुकसंज्ञा और चि के इकार की सार्वधातुकार्ध. से गुण करके चेय बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, अम्, पूर्वरूप करके चेयम् सिद्ध हुआ। चेयम् = संग्रह करने योग्य।
जेयम्। जि धातु है। उससे अचो यत् से यत् प्रत्यय हुआ, अनुबन्धलोप होकर जि + य बना। यह की आर्धधातुकसंज्ञा और जि के इकार को सार्वधातुक गुण करके चेय बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, अम्, अमि पूर्वः से पूर्वरूप करके जेयम् सिद्ध हुआ। जेयम् = जीतने योग्य।
इसी प्रकार अधोलिखित इकारान्त तथा ईकारान्त धातुओं से रूप बनाइये।

नी-नेयम् , क्षि-क्षेयम् , आ + श्रि-आश्रेयम् 

७७७ ईद्यति

यति परे आत ईत्‍स्‍यात् । देयम् । ग्‍लेयम् ।।
सूत्रार्थ - यत् प्रत्यय के परे होने पर धातु के अन्त में विद्यमान आकार को ईकार आदेश हो।
देयम्। दा दाने से अचो यत् से यत् प्रत्यय हुआ, यत् में तकार की इत्संज्ञा और लोप करके दा + य बना। ईद्यति से दा के आकार के स्थान पर ईकार आदेश हुआ, दी + य बना। य को आर्धधातुक संज्ञा, ईकार को सार्वधातुकार्धधातुकयोः से गुण, देय बना। देय की प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, अमादेश, पूर्वरूप करके देयम् बना। देयम्- देने योग्य। इसी प्रकार ग्ला से ग्लेयम् रूप बनता है।

पेयम्। पीने के अर्थ में पा पाने धातु है, पा धातु से देयम् की तरह पेयम् बना। इसी प्रकार से ज्ञा से ज्ञेयम्, मा से मेयम्, स्था से स्थेयम्, गा से गेयम्, ध्या से ध्येयम्, घ्रा से घ्रेयम्, धा से धेयम्, हा से हेयम् भी बना सकते है।

७७८ पोरदुपधात्

पवर्गान्‍ताददुपधाद्यत्‍स्‍यात् । ण्‍यतोऽपवादः । शप्‍यम् । लभ्‍यम् ।।
सूत्रार्थ - पवर्ग अन्त में हो जिसके अथवा हृस्व अकार उपधा में हो जिसके, ऐसे धातु से यत् प्रत्यय होता है।
 यह ऋहलोर्ण्यत् से प्राप्त ण्यत् का अपवाद सूत्र है।
शप्यम्। शप् आक्रोशे, शप् धातु पवर्गान्त तथा अदुपध है। यहाँ ऋहलोर्ण्यत् से ण्यत् प्राप्त था, उसे बाधकर पोरदुपधात् से यत् प्रत्यय हुआ, यत् में तकार का अनुबन्धलोप करके वर्णसम्मलेन करने पर शप्य बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, अमादेश, पूर्वरूप होने पर शप्यम्।

लभ्यम्। प्राप्त्यर्थक डुलभष् प्राप्तौ में अनुबन्धलोप होने पर लभ् शेष बचता है। लभ् धातु से यत् प्रत्यय करके शप्यम् की तरह लभ्यम् बना। इसी तरह रम् से रम्यम् आ + रभ् से आरभ्यम्, गम् से गम्यम्, तप् से तप्यम्, जप्, नम् नम्यम् आदि भी बनाता है। 


७७९ एतिस्‍तुशास्‍वृदृजुषः क्‍यप्

एभ्‍यः क्‍यप् स्‍यात् ।।
सूत्रार्थ - इण् , स्तु, शास्, वृ,दृ तथा जुष् धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है।

क्यप् में ककार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा और पकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा और दोनों का तस्य लोपः से लोप होकर केवल य शेष बचता है। पित् करने का फल हृस्वस्य पिति कृति तुक् से तुक् का आगम है और कित् करने का फल क्ङिति च से गुण का निषेध करना है। 

७८० ह्रस्‍वस्‍य पिति कृति तुक्

इत्‍यः । स्‍तुत्‍यः । शासु अनुशिष्‍टौ ।।
सूत्रार्थ - पित् कृत् के परे रहने पर हृस्व वर्ण को तुक् का आगम होता है।
तुक् में उकार और ककार की इत्संज्ञा होती है। त् शेष बचता है। कित् होने के कारण आद्यन्तौ टकितौ के नियम से तुक् इ का अन्तावयव होगा ।
इत्यः। इण् गतौ। गत्यर्थक इ धातु से अचो यत् से यत् प्रत्यय की प्राप्ति थी, उसे बाधकर एतिस्तुशास्वृदृजुषः क्यप् से क्यप् हुआक्यप् में ककार तथा पकार का अनुबन्धलोप होकर  + य बना। अब यहाँ हृस्वस्य पिति कृति तुक् से तुक् का आगम हुआ। तुक् में उकार तथा ककार का अनुबन्धलोप हुआ। तकार शेष बचा। तुक् में ककार की इत्संज्ञा बोने से यह कित् है अतः हृस्व वर्ण इ के (बाद में) अन्तावयव  बना। इत्य रूप बना। इत्य की प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, रूत्वविसर्ग करके इत्यः बना। 
यदि इण् धातु से यत् प्रत्यय होता तो तुक् न हो पाता । यत् प्रत्यय होने से गुण होकर ए  हो जाता, जिसे अय् आदेश होकर अयः ऐसा अनिष्ट रूप बनने लगता।

स्तुत्यः। ष्टुञ् स्तुतौ, स्तु धातु से भी इसी तरह क्यप्, तुक्, सु, रूत्वविसर्ग करके स्तुत्यः रूप बनता है। 

७८१ शास इदङ्हलोः

शास उपधाया इत्‍स्‍यादङि हलादौ क्‍ङिति । शिष्‍यः । वृत्‍यः । आदृत्‍यः । जुष्‍यः ।।
सूत्रार्थ - अङ् या हलादि कित् और ङित् परे रहते शास् धातु की उपधा को हृस्व इकार आदेश हो।
शिष्यः। (शासु अनुशिष्टौ) शास् धातु से ण्यत् प्राप्त था उसे बाधकर एतिस्तुशास्वृदृजुषः क्यप् से क्यप् हुआ। शास् + य में शास इदङ्हलोः से शास् के आकार को इकार आदेश हुआ शिस् + य हुआ। शिस् के इकार से परे सकार को शासिवसिघसीनां च से षत्व होकर शिष्य बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु विभक्ति, रूत्वविसर्ग होकर शिष्यः सिद्ध हुआ।

वृ से क्यप् और तुक् करके वृत्यः, आ पूर्वक दृ से आदृत्यः बना । जुष् से क्यप् होकर जुष्यः बनता है।

७८२ मृजेर्विभाषा

मृजेः क्‍यब्‍वा । मृज्‍यः ।।
सूत्रार्थ - मृज् धातु से क्यप् प्रत्यय विकल्प से हो।

मृज्यः। मृज् से विकल्प से क्यप् हुआ । क्यप् में ककार तथा पकार का अनुबन्ध लोप होने पर य शेष रहा। मृज् + य हुआ। क्यप् का य कित् होने के कारण क्ङिति च से लघूपधगुण नहीं हुआ- मृज्यः। 
क्यप् ने होने के पक्ष में ऋहलोर्ण्यत् से ण्यत् होकर मृजेर्वृद्धिः से वृद्धि और चजोः कु घिण्ण्यतोः से जकार को कुत्व होकर मार्ग्यः बनता है। 

७८३ ऋहलोर्ण्‍यत्

ऋवर्णान्‍ताद्धलन्‍ताच्‍च धातोर्ण्‍यत् । कार्यम् । हार्यम् । धार्यम् ।।

सूत्रार्थ - ऋकारान्त एवं हलन्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय हो।

ण्यत् प्रत्यय में 'णकार' की 'चुटू' से तथा 'तकार' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत् संज्ञा करके तस्य लोपः से लोप हो जाता है। ण्यत् में य शेष रहता है। इस प्रत्यय में णकार की इत्संज्ञा होने के कारण यह णित् प्रत्यय है। णित् का फल अचो ञ्णिति से वृद्धि आदि है।   

कार्यम्। डुकृञ्´ करणे, कृ धातु से ऋहलोर्ण्यत् सूत्र से ण्यत् प्रत्यय हुआ। कृ + ण्यत् में 'ण्' की 'चुटू' से तथा 'त्' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत् संज्ञा करके तस्य लोपः से लोप हो जाता है। कृ + य शेष बचा। णित् होने के कारण अचो ञ्णिति से रपर सहित आर्-वृद्धि, क् + आर् + , वर्णसम्मलेन, कार्य, प्रातिपादिकसंज्ञा, सु विभक्ति, अमादेश, पूर्वरूप करके कार्यम् सिद्ध हुआ। 
हार्यम्। धार्यम्। (हृञ् हरणे) हृ धातु तथा (धृञ् धारणे) धृ धातु से कार्यम् की तरह ण्यत्, वृद्धि, सु, अम्, पूर्वरूप करके हार्यम् और धार्यम् बना। 


७८४ चजोः कु घिण्‍ण्‍यतोः

चजोः कुत्‍वं स्‍यात् घिति ण्‍यति च परे ।।
सूत्रार्थ - घित् या ण्यत् के परे होने पर चकार और जकार के स्थान पर कवर्ग आदेश हो।


७८५ मृजेर्वृद्धिः

मृजेरिको वृद्धिः सार्वधातुकार्धधातुकयोः । मार्ग्‍यः ।।
सूत्रार्थ - सार्वधातुक और आर्धधातुक के परे होने पर मृज् के इक् को वृद्धि हो।
मार्ग्यः । मृज् से क्यप् न होने के पक्ष में ऋहलोर्ण्यत् से ण्यत् हुआ और चजोः कु घिण्ण्यतोः से जकार को कुत्व होकर गकार हुआ और मृजेर्वृद्धिः से उपधाभूत ऋकार को वृद्धि होकर मार्ग्य बना। सु विभक्ति होकर मार्ग्यः सिद्ध हुआ। 

७८६ भोज्‍यं भक्ष्ये
भोग्‍यमन्‍यत् ।।
सूत्रार्थ - भक्ष्य अर्थ में भुज् धातु से भोज्य शब्द का निपातन होता है।
(भुज् पालनाभ्यवहारयोः) भुज् के दो अर्थ हैं, पालन और खाना। दोनों अर्थों में से ण्यत् होकर जकार को कुत्व प्राप्त था। भोज्यं भक्ष्ये से भक्ष्य अर्थ में कुत्व के अभाव का निपातन किया गया।

भोज्यम्। भुज् पालनाभ्यवहारयोः। भुज् से ण्यत् अनुबन्धलोप, भुज् + य हुआ। भुज् के उपधा को पुगन्तलघूपधस्य च से गुण हुआ। भोज् + य बना। यहाँ चजोः कुः से कुत्व प्राप्त था, जिसे प्रकृत सूत्र द्वारा भोज्य को निपातन करने के कारण कुत्व का अभाव हो गया। भोज्य बना और स्वादिकार्य करके भोज्यम् सिद्ध हुआ। भक्ष्य अर्थ से अतिरिक्त अर्थ पालन अर्थ में कुत्व होकर भोग्यम् बनता है।

कृत्यप्रक्रिया एक दृष्टि में

सूत्र

 संज्ञा / प्रत्यय

उदाहरण

कृत्‍याः

कृत् प्रत्ययों में से 7 प्रत्ययों की कृत्य संज्ञा

तव्यत्, तव्य, अनीयर्, केलिमर्, यत्, क्यप् तथा ण्यत् ।

तयोरेव कृत्‍यक्तखलर्थाः

कृत्य संज्ञक प्रत्यय भाव और कर्म में ही होते हैं।

नीचे दिये उदाहरण से स्पष्ट है।

कृत्यल्युटो बहुलम्

कृत्य संज्ञक तथा ल्युट् प्रत्यय बहुलता से होते हैं

दानीयः (दीयते अस्मै), स्नानीयम् (स्नान्ति अनेन)

तव्‍यत्तव्‍यानीयरः

तव्यत्, तव्य और अनीयर्

एधितव्‍यम्, एधनीयम्, (भाव) चेतव्यः, चयनीयः (कर्म)।

केलिमर उपसंख्‍यानम्

केलिमर् (केलिम)

पचेलिमा, भिदेलिमाः (कर्म)

अचो यत्

यत्

चेयम्, जेयम्, देयम्

पोरदुपधात्

यत्

शप्यम्, लभ्यम्

एतिस्‍तुशास्‍वृदृजुषः क्‍यप्

क्यप्

इत्‍यः, स्‍तुत्‍यः, शिष्‍यः, वृत्‍यः, आदृत्‍यः, जुष्‍यः

मृजेर्विभाषा

क्यप् (विकल्प से)

मृज्यः

ऋहलोर्ण्‍यत्

ण्यत्

कार्यम्, हार्यम्, धार्यम्


इति कृत्‍यप्रक्रिया ।।



Share:

1 टिप्पणी:

अनुवाद सुविधा

ब्लॉग की सामग्री यहाँ खोजें।

लोकप्रिय पोस्ट

जगदानन्द झा. Blogger द्वारा संचालित.

मास्तु प्रतिलिपिः

इस ब्लॉग के बारे में

संस्कृतभाषी ब्लॉग में मुख्यतः मेरा
वैचारिक लेख, कर्मकाण्ड,ज्योतिष, आयुर्वेद, विधि, विद्वानों की जीवनी, 15 हजार संस्कृत पुस्तकों, 4 हजार पाण्डुलिपियों के नाम, उ.प्र. के संस्कृत विद्यालयों, महाविद्यालयों आदि के नाम व पता, संस्कृत गीत
आदि विषयों पर सामग्री उपलब्ध हैं। आप लेवल में जाकर इच्छित विषय का चयन करें। ब्लॉग की सामग्री खोजने के लिए खोज सुविधा का उपयोग करें

समर्थक एवं मित्र

सर्वाधिकार सुरक्षित

विषय श्रेणियाँ

ब्लॉग आर्काइव

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 1

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 2

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 3

Sanskritsarjana वर्ष 2 अंक-1

Recent Posts

लेखानुक्रमणी

लेख सूचक पर क्लिक कर सामग्री खोजें

अभिनवगुप्त (1) अलंकार (3) आधुनिक संस्कृत गीत (14) आधुनिक संस्कृत साहित्य (5) उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (1) उत्तराखंड (1) ऋग्वेद (1) ऋषिका (1) कणाद (1) करवा चौथ (1) कर्मकाण्ड (47) कहानी (1) कामशास्त्र (1) कारक (1) काल (2) काव्य (16) काव्यशास्त्र (27) काव्यशास्त्रकार (1) कुमाऊँ (1) कूर्मांचल (1) कृदन्त (3) कोजगरा (1) कोश (12) गंगा (1) गया (1) गाय (1) गीति काव्य (1) गृह कीट (1) गोविन्दराज (1) ग्रह (1) छन्द (6) छात्रवृत्ति (1) जगत् (1) जगदानन्द झा (3) जगन्नाथ (1) जीवनी (6) ज्योतिष (20) तकनीकि शिक्षा (21) तद्धित (10) तिङन्त (11) तिथि (1) तीर्थ (3) दर्शन (19) धन्वन्तरि (1) धर्म (1) धर्मशास्त्र (14) नक्षत्र (2) नाटक (4) नाट्यशास्त्र (2) नायिका (2) नीति (3) पतञ्जलि (3) पत्रकारिता (4) पत्रिका (6) पराङ्कुशाचार्य (2) पर्व (2) पाण्डुलिपि (2) पालि (3) पुरस्कार (13) पुराण (3) पुस्तक (1) पुस्तक संदर्शिका (1) पुस्तक सूची (14) पुस्तकालय (5) पूजा (1) प्रत्यभिज्ञा शास्त्र (1) प्रशस्तपाद (1) प्रहसन (1) प्रौद्योगिकी (1) बिल्हण (1) बौद्ध (6) बौद्ध दर्शन (2) ब्रह्मसूत्र (1) भरत (1) भर्तृहरि (2) भामह (1) भाषा (1) भाष्य (1) भोज प्रबन्ध (1) मगध (3) मनु (1) मनोरोग (1) महाविद्यालय (1) महोत्सव (2) मुहूर्त (1) योग (5) योग दिवस (2) रचनाकार (3) रस (1) रामसेतु (1) रामानुजाचार्य (4) रामायण (3) रोजगार (2) रोमशा (1) लघुसिद्धान्तकौमुदी (45) लिपि (1) वर्गीकरण (1) वल्लभ (1) वाल्मीकि (1) विद्यालय (1) विधि (1) विश्वनाथ (1) विश्वविद्यालय (1) वृष्टि (1) वेद (6) वैचारिक निबन्ध (26) वैशेषिक (1) व्याकरण (46) व्यास (2) व्रत (2) शंकाराचार्य (2) शरद् (1) शैव दर्शन (2) संख्या (1) संचार (1) संस्कार (19) संस्कृत (15) संस्कृत आयोग (1) संस्कृत कथा (11) संस्कृत गीतम्‌ (50) संस्कृत पत्रकारिता (2) संस्कृत प्रचार (1) संस्कृत लेखक (1) संस्कृत वाचन (1) संस्कृत विद्यालय (3) संस्कृत शिक्षा (6) संस्कृत सामान्य ज्ञान (1) संस्कृतसर्जना (5) सन्धि (3) समास (6) सम्मान (1) सामुद्रिक शास्त्र (1) साहित्य (7) साहित्यदर्पण (1) सुबन्त (6) सुभाषित (3) सूक्त (3) सूक्ति (1) सूचना (1) सोलर सिस्टम (1) सोशल मीडिया (2) स्तुति (2) स्तोत्र (11) स्मृति (12) स्वामि रङ्गरामानुजाचार्य (2) हास्य (1) हास्य काव्य (2) हुलासगंज (2) Devnagari script (2) Dharma (1) epic (1) jagdanand jha (1) JRF in Sanskrit (Code- 25) (3) Library (1) magazine (1) Mahabharata (1) Manuscriptology (2) Pustak Sangdarshika (1) Sanskrit (2) Sanskrit language (1) sanskrit saptaha (1) sanskritsarjana (3) sex (1) Student Contest (2) UGC NET/ JRF (4)