अथ उणादयः
कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण् ।। १ ।।
करोतीति कारुः । वातीति वायुः । पायुर्गुदम् । जायुरौषधम् । मायुः पित्तम् । स्वादुः । साध्नोति परकार्यमिति साधुः । आशु शीघ्रम् ।।
८५१ उणादयो बहुलम्
एते वर्तमाने संज्ञायाम् च बहुलं स्युः । केचिदविहिता अप्यूह्याः ।।
संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे ।
कार्याद्विद्यादनूबन्धमेतच्छास्त्रमुणादिषु ।।
इति उणादयः ।।
अथ उत्तरकृदन्तम्
८५२ तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्
क्रियार्थायां क्रियायामुपपदे भविष्यत्यर्थे धातोरेतौ स्तः । मान्तत्वादव्ययत्वम् । कृष्णं द्रष्टुं याति । कृष्णं दर्शको याति ।।
सूत्रार्थ- क्रियार्थक क्रिया उपपद में होने पर भविष्यत् काल में धातु से परे तुमुन् और ण्वुल् प्रत्यय हो।
किसी क्रिया की पूर्णता के लिए जब दूसरी क्रिया की जाती है तो वह दूसरी क्रिया पहली क्रिया की क्रियार्था क्रिया कहलाती है। जैसे भोक्तुं गच्छति= खाने के लिए जाता है। यहाँ खाना इस क्रिया के लिए ही गमनरूपी दूसरी क्रिया हो रही है। यही दूसरी क्रिया ही क्रियार्था क्रिया है। भविष्यत् काल का अर्थ इसलिए है कि अभी खाने के लिए जा रहा है अर्थात् खाया नहीं है।
तुमुन् में नकार ही हलन्त्यम् से और उकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत् से इत्संज्ञा होकर लोप होने पर तुम् शेष रहता है। तुम् मान्त है। कृन्मेऽजन्तः से मान्त कृदन्त शब्द की अव्यय संज्ञा होती है। अव्यय का तीनों लिंगों, वचनों तथा सातों विभक्तियों में एक ही रूप होता है अर्थात् जो अव्यय शब्द होता है उसका अन्य सुबन्त की तरह सातों विभक्तियों के रूप नहीं होते।
तुम् की आर्धधातुकं शेषः से आर्धधातुकसंज्ञा होती है। यदि धातु सेट् होगा तो आर्धधातुकस्येड् वलादेः से इट् का आगम होगा और अनिट् होगा तो इट् नहीं होगा।
कृष्णं द्रष्टुं याति। यहाँ पर देखने के लिए पहली क्रिया तथा गमन करना दूसरी क्रिया है। ऐसी स्थिति में दृश् धातु से तुमुन्, अनुबन्धलोप, दृश् + तुम् बना। तुम् की आर्धधातुकसंज्ञा और उसको इट् का आगम प्राप्त हुआ। उसका एकाच् उपदेशेऽनुदात्तात् से निषेध हुआ। दृश् + तुम् में सृजिदृशोर्झल्यमकिति से अम् का आगम हुआ। दृ + अम् + श् + तुम् हुआ। अम् में मकार की इत्संज्ञा होकर लोप हुआ है अतः यह मित् है। मित् होने के कारण अम् अन्त्य अच् का अवयव बना। दृ + अ + श् + तुम् हुआ। दृ + अश् + तुम् में ऋ का यण् होकर द् + र् + अश् + तुम् हुआ। वर्ण सम्मलेन होने पर द्रश् + तुम् बना। व्रश्चभ्रस्ज से शकार के स्थान पर षकार आदेश, षकार से परे प्रत्यय के तकार को ष्टुत्व करक द्रष्टुम् बना। मान्त होने के कारण कृन्मेजन्तः से अव्ययसंज्ञा करके प्रातिपदिक संज्ञा, सु विभक्ति और अव्यय होने के कारण अव्ययादाप्सुपः से सु का लुक् होकर द्रष्टुम् रूप सिद्ध हुआ। द्रष्टुम् = देखने के लिए ।
कृष्णं दर्शको याति। यहाँ पर देखने के लिए जाना, एक क्रिया के लिए दूसरी क्रिया हो रही है। अतः दृश् धातु से ण्वुल् प्रत्यय हो गया। अनुबन्धलोप होने के बाद वु बचा। उसके स्थान पर अक आदेश हो गया। दृश् + अक बना। पुगन्तलघूपधस्य च से दृ के ऋकार को अर्-गुण हुआ, द् + अर् + श् + अक बना। वर्णसम्मेलन होने पर दर्शक बना, रेफ का ऊध्र्वगमन हुआ, दर्शक बना। इसकी प्रातिपादिकसंज्ञा हुई, सु, रूत्वविसर्ग होकर दर्शकः सिद्ध हुआ। दर्शकः = देखने के लिए। दर्शकः के आगे याति का यकार होने के कारण सु को रू हुआ, रू के रेफ के स्थान पर हशि च से उत्व और गुण होकर दर्शको याति बना है। ण्वुल् प्रत्यय कर्ता अर्थ में होता है।
अन्य उदाहरण-
पठितुं गच्छति। पठ् धातु से तुमुन्, अनुबन्ध लोप, इट् का आगम होने पर पठ् + इ + तुम् बना। वर्ण सम्मलेन होने पर पठितुम् बना। अव्यय संज्ञा, प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु विभक्ति और अव्यय होने के कारण अव्ययादाप्सुपः से सु का लुक् हो पठितुम् बना।
८५३ कालसमयवेलासु तुमुन्
कालार्थेषूपपदेषु तुमुन् । कालः समयो वेला वा भोक्तुम् ।।
सूत्रार्थ- काल, समय और वेला के उपपद रहते धातु से तुमुन् होता है।
कालः/ समयः / वेला भोक्तुम्। भुज् धातु से तुमुन्, अनुबन्ध लोप, भुज् + तुम् में पूगन्तलघु. से उपधागुण होकर भोज् + तुम् बना। चोः कुः से जकार को कुत्व ककार हुआ, वर्ण सम्मेलन स्वादि कार्य होकर भोक्तुम् रूप बना।
८५४ भावे
सिद्धावस्थापन्ने धात्वर्थे वाच्ये धातोर्घञ् । पाकः ।।
सूत्रार्थ- सिद्धावस्था रूप में प्राप्त धातु के अर्थ में घञ् प्रत्यय होता है।
घञ् में घकार की लशक्वद्धिते से और ञकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा होकर केवल अकार ही शेष रहता है। घित् का फल चजोः कु घिण्यतोः से कुत्व और ञित् का फल अत उपधायाः आदि से वृद्धि आदि है।
धात्वर्थ (क्रिया) दो प्रकार की होती है- पहली सिद्धावस्थापन्न और दूसरी साध्यावस्थापन्न। यहाँ क्रिया सिद्धावस्थापन्न तथा तिङन्त क्रिया साध्यावस्थापन्न होती है। जिस क्रिया में अन्य क्रिया की आकांक्षा होती है, वह सिद्ध अवस्था को प्राप्त क्रिया है। जैसे- पाकः, त्यागः आदि और जिस क्रिया में अन्य क्रिया की आकांक्षा नहीं होती है, वह साध्य अवस्था को प्राप्त क्रिया है। जैसे- पचति, त्यजति आदि। यत्र क्रियायाः क्रियान्तराकाङ्क्षा सा सिद्धावस्थापन्ना और यत्र क्रियायाः क्रियान्तरानाकाङ्क्षा सा साक्ष्यावस्थापन्ना। जब क्रिया सिद्ध अवस्थापन्न होती है, तब वह द्रव्य की तरह हो जाती है। अतः ऐसी क्रिया से घञ् आदि प्रत्यय तथा लिंग, वचन होते हैं।
पाकः। पचनं पाकः। डुपचष् पाके। भूवादयो धातवः, हलन्त्यम्, तस्य लोपः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च, भावे इन सूत्रों के सहकार से पच् से घञ्, लशक्वतद्धिते हलन्त्यम् से धकार एवं ञकार की इत्संज्ञा तस्य लोपः से लोप, पच् + अ बना। अलोऽन्त्यात्पूर्व उपधा से पच् के अकार की उपधा संज्ञा, णित्व होने के कारण उपधाभूत पकारोत्तरवर्ती अकार को अत उपधायाः से वृद्धि, पाच् + अ में चकार को चजोः कु घिण्ण्यतोः से कुत्व होकर स्थानेऽन्तरतमः से ककार हुआ, पाक बना। प्रातिपादिक संज्ञा के बाद प्रथमा एकवचन में स्वादि कार्य होकर पाकः सिद्ध हुआ।
८५५ अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्
कर्तृभिन्ने कारके घञ् स्यात् ।।
सूत्रार्थ- कर्ता से भिन्न कारक अर्थ में संज्ञा में धातु से घञ् हो।
सूत्रार्थ- कर्ता से भिन्न कारक अर्थ में संज्ञा में धातु से घञ् हो।
८५६ घञि च भावकरणयोः
रञ्जेर्नलोपः स्यात् । रागः । अनयोः किम्? रज्यत्यस्मिन्निति रङ्गः ।।
सूत्रार्थ- भाव तथा करण कारक में विहित घञ् से परे रञ्ज को नलोप हो।
रञ्जनं रागः। रज्यते अनेन इति रागः। रञ्ज् धातु में ञकार का मूल नकार ही है। जकार के योग में उसका अनुस्वार और परसवर्ण होकर ञकार बना है। उसी नकार का लोप या सूत्र करता है।
रञ्ज् धातु से अकर्तरि च कारके सूत्र से घञ् हुआ। रञ्ज् + घञ् में घञि च भावे से नलोप हुआ। रज् + घञ् घञ् में घकार ञकार का अनुबन्ध लोप अ शेष बचा। रज् + अ हुआ। अत उपधायाः से उपधाभूत अकार की वृद्धि आकार हुआ राज् + अ हुआ। राज् के जकार का चजोः कुः से कुत्व हुआ, वर्णसम्मेलन कर राग बना। प्रथमा एकवचन में स्वादि कार्य होकर रागः सिद्ध हुआ।
अनयोः किमिति। रज्यत्यस्मिन्निति रङ्गः यहाँ अधिकरण में अकर्तरि च कारके सूत्र से घञ् हुआ है अतः यहाँ नलोप नहीं हुआ। घञि च भावकरणयोः सूत्र केवल करण तथा भाव में नलोप करता है।
८५७ निवासचितिशरीरोपसमाधानेष्वादेश्च कः
एषु चिनोतेर्घञ् आदेश्च ककारः । उपसमाधानं राशीकरणम् । निकायः । कायः। गोमयनिकायः ।।
सूत्रार्थ- निवास, चिति, शरीर तथा उपसमाधान अर्थों में चिञ् से घञ् हो तथा आदि वर्ण को ककार आदेश हो।
८५८ एरच्
इवर्णान्तादच् । चयः । जयः ।।
८५९ ॠदोरप्
ॠवर्णान्तादुवर्णान्ताच्चाप् । करः । गरः । यवः । लवः । स्तवः । पवः ।
सूत्रार्थ- पूर्वोक्त अर्थ में ह्रस्व ऋवर्णान्त धातु और उवर्णान्त धातुओं से अप् प्रत्यय होता है। भाव या कर्ता से भिन्न कारक में।
पकार की इत्संज्ञा होकर केवल अ शेष रहता है। उसकी आर्धधातुकसंज्ञा होती है और उसके परे गुण आदि हो जाते हैं।
करः। कृ विक्षेपे। कृ से ऋदोरप् से अप्, अनुबन्धलोप, उसकी आर्धधातुकसंज्ञा, सार्वधातुकार्धधातुकयोः से गुण करके कर् + अ, वर्णसम्मलेन होकर कर यह प्रातिपादिक बना। स्वादिकार्य होकर करः सिद्ध होता है।
गरः। गृ निगरणे से ऋदोरप् से अप्, अनुबन्धलोप, गृ + अ हुआ। गृ की आर्धधातुकसंज्ञा, सार्वधातुकार्धधातुकयोः से गुण करके गर् + अ, वर्णसम्मलेन होकर गर बना। गर की प्रातिपादिक संज्ञा स्वादिकार्य होकर करः सिद्ध होता है।
पवः। पवनं पवः। पूञ्पवने। उवर्णान्त होने के कारण ऋदोरप् से अप् आदि होकर गुण होने पर पो + अ, अवादेश, वर्णसम्मलेन, प्रातिपदिकसंज्ञा करके स्वादिकार्य करने पर पवः बन जाता है।
लवः। लवनं लवः। लूञ्छेदने। उवर्णान्त होने के कारण ऋदोरप् से अप् आदि होकर गुण होने पर लो + अ, अवादेश, वर्णसम्मलेन, प्रातिपदिकसंज्ञा करके स्वादिकार्य करने पर लवः बन जाता है।
(वा.) घञर्थे कविधानम् । प्रस्थः । विघ्नः ।।
वार्तिकार्थ- जिस अर्थ में घञ् का विधान किया गया है, उसी अर्थ में क प्रत्यय का विधान कहना चाहिए।
यह महाभाष्य का वार्तिक है जो कि घञर्थें कविधानं स्थास्नापाव्यधिहनियुध्यर्थम् इस रूप में है। घञ् के अर्थ में स्था, स्ना, पा, व्यध्, हन् और युध् धातुओं से परे क का विधान करना चाहिए। अतः प्रस्थः, विघ्नः में घ जिस अर्थ में होता है, उसी अर्थ में क प्रत्यय हुआ है।
प्रस्थः। प्रतिष्ठतेऽस्मिन् धान्यानि। जिसमें धान्य आदि का मान होता है, एक मान विशेष। प्राचीन काल का यह माप है। ष्ठा गतिनिवृतौ। प्र पूर्वक स्था धातु से घञर्थ अर्थात् भाव और संज्ञाविषयक कर्तृभिन्न कारक अर्थ में घञर्थ अर्थात् भाव और संज्ञाविषयक कर्तृभिन्न कारक अर्थ में घञर्थें कविधानम् वार्तिक से क प्रत्यय हुआ। क प्रत्यय के अनुबन्ध ककार की इत्संज्ञा, लोप करके प्र + स्था + अ बना। आतो लोप इटि च से धातु के आकार लोप करके प्रस्थ बन गया। इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा करके स्वादिकार्य करने पर प्रस्थः सिद्ध हुआ।
विघ्नः। विध्नन्ति मनांसि यस्मिन् । हन् हिंसागत्योः। वि पूर्वक हन् धातु से घञर्थ अर्थात् भाव और संज्ञाविषयक कर्तृभिन्न कारक अर्थ में घञर्थे कविधानम् वार्तिक से क प्रत्यय, अनुबन्ध ककार की इत्संज्ञा, लोप करके वि + हन् + अ बना। अजादि कित् के परे रहते गमहनजनखनघसां लोपः क्ङित्यनङि से धातु के उपधाभूत अकार का लोप करके वि + ह्न् + अ बना। हकार को हो हन्तेर्णिन्नेषु से कुत्व किया। वि + घ्न् + अ वर्णसम्मलेन करन पर विघ्न बना। विघ्न की प्रातिपदिकसंज्ञा करके स्वादिकार्य करने पर विघ्नः सिद्ध हुआ।
८६० ड्वितः क्त्रिः
सूत्रार्थ- डु की इत्संज्ञा हुई हो जिसमें, ऐसी धातु से भाव और कर्तृभिन्न कारक अर्थ में क्त्रि प्रत्यय होता है।
क्त्रि में ककार इत्संज्ञक है, त्रि शेष रहता है। डुपचष् पाके आदि धातुओं में डु की इत्संज्ञा हुई होती है। केवल क्त्रि प्रत्ययान्त शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता है, उसके साथ अग्रिम सूत्र से मप् प्रत्यय भी जोड़ते हे। क्त्रि यह कृत् प्रत्यय है तो मप् यह तद्धित प्रत्यय है।
८६१ क्त्रेर्मम्नित्यम्
क्त्रिप्रत्ययान्तात्मप् निर्वृत्तेऽर्थे । पाकेन निर्वृत्तं पिक्त्रमम् । डुवप् उप्त्रिमम् ।।
सूत्रार्थ-
सूत्रार्थ-
८६२ ट्वितोऽथुच्
टुवेपृ कम्पने, वेपथुः ।।
सूत्रार्थ-
सूत्रार्थ-
८६३ यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ्
यज्ञः । याच्ञा । यत्नः । विश्नः । प्रश्नः । रक्ष्णः ।।
सूत्रार्थ-
सूत्रार्थ-
८६४ स्वपो नन्
स्वप्नः ।।
सूत्रार्थ-
सूत्रार्थ-
८६५ उपसर्गे घोः किः
प्रधिः । उपधिः ।।
सूत्रार्थ- उपसर्ग उपपद होने पर घुसंज्ञक धातुओं से कि प्रत्यय हो, भाव अर्थ में या कर्तृभिन्न कारक में ।
दाधा घ्वदाप् से दा तखा धा इन दो धातुओं की घुसंज्ञा होती है। कि में ककार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप होकर इकार शेष रहता है। कित् होने के कारण धातु के आकार का आतो लोप इटि च से लोप हो जाता है।
प्रधिः। प्रधीयन्ते काष्ठानि अस्मिन्निति प्रधिः। प्र उपसर्ग पूर्वक डुधाञ्धारण –पोषणयोः का धा धातु है। प्र-पूर्वक धा-धातु से उपसर्गे घोः किः से कि प्रत्यय, ककार का लोप, धा में आकार का भी आतो लोप इटि च से लोप करके प्रध् + इ, बना वर्णसम्मलेन करके प्रधि बना। इनकी प्रातिपादिकसंज्ञा और सु विभक्ति करके हरि-शब्द की तरह से प्रधिःरूप बना। इसी प्रकार उप उपसर्गक धा दातु से उपधिः रूप बनेगा।
इसी प्रकार एक और कि प्रत्यय का उदाहरण देखें-
विधिः। विधीयते, विधानम् इति वा विधिः। वि उपसर्ग पूर्वक धा-धातु से उपसर्गे घोः किः से कि प्रत्यय, ककार का लोप, धा में आकार का भी आतो लोप इटि च से लोप करके विध् + इ बना वर्णसम्मलेन करके विधि बना। इनकी प्रातिपादिक संज्ञा और सु विभक्ति करके विधिः रूप बनेगा।
अब इसी तरह से सम् पूर्वक धा धातु से सन्धिः, प्र-पूर्वक दा धातु से प्रदिः, आ पूर्वक धा धातु से आधिः, आ-पूर्वक दा धातु से आदिः, वि + आ उपसर्ग पूर्वक धा धातु से व्याधिः, नि पूर्वक धा धातु से निधिः, प्रति + नि पूर्वक धा धातु से प्रतिनिधिः आदि भी बनाना चाहिए।
८६६ स्त्रियां क्तिन्
स्त्रीलिङ्गे भावे क्तिन् स्यात् । घञोऽपवादः । कृतिः । स्तुतिः ।
सूत्रार्थ- स्त्रीत्वयुक्त भाव की विवक्षा में धातु से क्तिन् प्रत्यय होता है।
क्तिन् में ककार और नकार इत्संज्ञक हैं, ति शेष रहता है। यह क्तिन् भावे से प्राप्त घञ् प्रत्यय का अपवाद है। भाव अर्थ में स्त्रीत्व की विवक्षा होने पर घञ् नहीं होकर क्तिन् ही होगा।
कृतिः। करणं कृतिः। करना। कृ धातु से भाव अर्थ में स्त्रियां क्तिन् से क्तिन् प्रत्यय हुआ, अनुबन्धलोप होकर कृ + ति = कृति बना। स्त्रीत्व की विवक्षा में प्रत्यय हुआ है तो कृति शब्द स्त्रीलिंग वाला बन गया। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु करके कृतिः बनता है। इसके रूप मतिशब्द की तरह चलते हैं। केवल शस् में नत्व नहीं होता है, इसीलिए कृतीः बनता है। ङित् विभक्ति ङे,ङसि में वैकल्पिक नदीसंज्ञा होकर कुछ विशेष रूप बन जाते हैं।
स्तुतिः। स्तवनं स्तुतिः। ष्टुञ्स्तुतौ। षत्व आदि करके स्तु धातु बना है। इससे क्तिन् करके कृतिः की तरह स्तुतिः बन जाता है। इसके रूप भी कृति की तरह ही चलते है।
(वार्तिक) ॠल्वादिभ्यः क्तिन्निष्ठावद्वाच्यः । तेन नत्वम् । कीर्णिः । लूनिः । धूनिः । पूनिः ।
वार्तिकार्थ- ऋकारान्त धातु और लू आदि धातुओं से परे किये गये क्तिन् प्रत्यय निष्ठासंज्ञा की तरह हो। जैसे निष्ठाप्रत्यय में त को नकार आदेश होता है तो क्तिन् के तकार को भी नकार आदेश हो जाय। यही निष्ठावद्धाव है। जैसे – रदाभ्यां निष्ठातः से कीर्णिः । इस वार्तिक के ल्वादि धातु हैं- लूञ्, स्तृञ्,
कीर्णिः। कृ विक्षेपे। कृ धातु से क्तिन् करके कृ + ति बना। ऋत इद्धातोः से रपरसहित इत्व आदेश हुआ। किर् + ति बना। हलि च से दीर्घ होकर कीर् + ति बना। ऋल्वादिभ्यः क्तिन्निष्ठावद्धाच्यः इस वार्तिक से निष्ठावद्धाव करके ति के तकार के स्थान पर ल्वादिभ्यः से नकार आदेश हुआ, कीर् + नि बना। रेफ से परे नकार को अट्कुप्वाङ्. से णत्व हुआ, कीर् + णि बना, वर्णसम्मलेन होकर कीर्णि बना। प्रातिपदिक संज्ञा करके सु विभक्ति आदि कार्य होकर कीर्णिः बना।
ध्यातव्य है कि जिस प्रत्यय के अंत में ति शेष रहता है उसका रूप रूप कृति शब्द की तरह चलता है। स्त्रीत्व में हुए ति प्रत्ययान्त शब्द के कुछ विभक्तियों में परिवर्तन हो जाता है। क्तिन् प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिंग ही होते है।
लूनिः। लवनं लूनिः, काटना। लूञ्छेदने। लू धातु से क्तिन् करके लू + ति बना। निष्ठावद्धाव करके ल्वादिभ्यः से तकार के स्थान पर नत्व करके लूनि बनाकर प्रातिपदिकसंज्ञा करके लूनिः रूप बना। लूनिः, लूनी, लूनयः आदि कृति शब्द की तरह रूप चलेगा।
धूनिः। धूञ्कम्पने, धू धातु से क्तिन् करके धूति बना। निष्ठावद्धाव करके ल्वादिभ्यः से नत्व करके धूनि बना। प्रातिपदिक संज्ञा, स्वादि कार्य होकर धूनिः बना। धूनिः का अर्थ काँपना है।
(वार्तिक) संपदादिभ्यः क्विप् । संपत् । विपत् । आपत् ।
सम्पत् आदि से भाव में क्विप् प्रत्यय हो। क्विप् का सर्वापहार लोप हो जाता है।
सम्पद् + क्विप् ,क्विप् का सर्वापहार लोप हुआ। सम्पद् से सु विभक्ति, सकार का हल्ङयादि से लोप हुआ। दकार को वाऽवसाने से वैकल्पिक चर्त्व करके सम्पत् तथा सम्पद् रूप सिद्ध हुआ। आगे सम्पदौ, सम्पदः, सम्पदम्, सम्पदौ, सम्पदः, सम्पद्भ्याम् आदि रूप बनाये जाते हैं। इसी प्रकार विपत्, आपत् रूप बनेंगें।
(वार्तिक) क्तिन्नपीष्यते । संपत्तिः । विपत्तिः । आपत्तिः ।।
सम्पद् + क्तिन् ,क्तिन् में ककार का लोप हुआ। ति शेष बचा। दकार के स्थान पर खरि च से चर्त्व करके तकार हुआ।सम्पत्ति बना। सम्पत्ति से सु विभक्ति, रुत्व विसर्ग करके सम्पत्तिः रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार विपत्तिः, आपत्तिः आदि रूप बनेंगें।
८६७ ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च
एते निपात्यन्ते ।
सूत्रार्थ- ऊति, यूति, जूति, साति, हेति और कीर्ति ये क्तिन् प्रत्ययान्त शब्दों का निपातन हो, स्त्रीत्व से युक्त भाव एवं कर्ता से भिन्न कारक अर्थ में ।
ऊतिः। अव् रक्षणे धातु से क्तिन् प्रत्यय करके ज्वरत्वरस्रि. से वकार को ऊठ् आदेश करने पर ही ऊति बन सकता है किन्तु ऊतियूति.. से निपातन होने से उन सूत्रों के लगे बिना ही ऊति शब्द सिद्ध मान लिया गया। निपातन करने का फल यह है कि क्तिन् के नित् होने से प्राप्त आद्युदान्त को बाधकर अन्तोदान्त करना है। ऊति की प्रातिपदिक संज्ञा, सु विभक्ति आदि कार्य कर ऊतिः रूप सिद्ध हुआ। इसका रूप मति शब्द की तरह चलेगा। ऊतिः, ऊती, ऊतयः आदि । ऊतिः का अर्थ- रक्षा, क्रीडा, लीला आदि।
यूतिः। यु मिश्रणामिश्रणयोः, यु से स्त्रीत्वविशिष्ट भाव या कर्तृभिन्न कारक अर्थ में स्त्रियां क्तिन् से क्तिन् प्रत्यय करके युति बन सकता है। किन्तु ऊतियूतिजू. से निपातन होने से उन सूत्रों के बिना ही युति शब्द बन गया और निपातनात् ही यु को दीर्घ भी हो गया। निपातनात् यह शब्द अन्तोदात्त मान लिया गया अर्थात् प्रत्यय ति यह उदात्त स्वर वाला हुआ। यूति की प्रातिपादिकसंज्ञा करके सु यूतिःशब्द सिद्ध हुआ। यूतिः का अर्थ- मिलाना, मेलन।
जूतिः। यूतिःशब्द की तरह जुतिः बना । जु गतौ धातु को सौत्र धातु है। धातुपाठ में इसका उल्लेख नहीं है। जूतिः का अर्थ- तेज चलना, गति, वेग।
सातिः। षोऽन्तकर्मणि धातु में धात्वादेः षः, सः से सकार आदेश और आदेच उपदेशेऽशिति से आत्व करके साति बन सकता है । ऊतियूति. के निपातन से द्यतिस्यति. से प्राप्त इकारादेश का निपातन के द्वारा अभाव हो गया।
हेतिः। हन् हिंसागत्योः धातु है। हन् से स्त्रीत्वविशिष्ट भाव या कर्तृभिन्न कारक अर्थ में स्त्रियां क्तिन् से क्तिन् प्रत्यय करके अनुदात्तोपदेश... झलि क्ङिति से अनुनासिक न को लोप हति बन सकता है किन्तु ऊतियूति.. के निपातन से एत्व होकर हेति बनाया गया है। यह शब्द अन्तोदात्त भी मान लिया गया। हेति की प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु आदि विभक्तियाँ आती है और मति-शब्द की तरह हेतिः, हेती, हेतयः आदि रूप बनते है।
कीर्तिः। कृत् संशब्दने चुरादि धातु है। कृत् से चौरादिक णिच् करके ण्यासश्रन्थो युच् से युच् हो सकता था किन्तु ऊतियूतिजूतिसाति. के निपातन से क्तिन् प्रत्यय ही हुआ और णेरनिटि से णि का लोप करके धातु के उपधाभूत ऋकार को इत्व, रपर, दीर्घ आदि होकर कीर्ति बना। इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु आदि करके कीर्तिः रूप बना।
८६८ ज्वर-त्वर-स्रिव्यवि-मवामुपधायाश्च
एषामुपधावकारयोरूठ् अनुनासिके क्वौ झलादौ क्ङिति ।। अतः क्विप् । जूः । तूः । स्रूः । ऊः । मूः ।।
सूत्रार्थ- ज्वर्, त्वर्, स्रिव्, अव् तथा मव् धातुओं की उपधा और वकार को ऊठ् आदेश हो यदि अनुनासिक, क्वि अथवा झलादि कित् ङित् के परे हो तो।
जूः। ज्वरणं जूः। ज्वर रोगे धातु, ज्वर् से सम्पदादिभ्यः क्विप् से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहार लोप होने के बाद प्रत्ययलक्षण से क्वि को परे मानकर के ज्वरत्वरस्रिव्यवि. से ज् + व् + अ + र्= ज्वर् में उपधाभूत अकार और वकार अर्थात् व्अ के स्थान पर ऊठ् आदेश हुआ, ज् + ऊठ् + र् अनुबन्धलोप होने पर ज् + ऊ= जू, जूर्, बना। जूर् की प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु, उसकी हल्ङयादि लोप करके रेफ को विसर्ग करने पर जूः सिद्ध होता है। इसके रूप जूः, जूरौ, जूरः जूरम्, आदि बनते हैं। जूः का अर्थ – ज्वर।
तूः। त्वरणं तूः। ञित्वरा सम्भ्रमे धातुः। त्वर् से सम्पदादिभ्यः क्विप् से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहार लोप होने के बाद प्रत्ययलक्षण से क्वि को परे मानकर ज्वरत्वरस्रिव्यवि. से त् + व् + अ + र्=त्वर् में उपधाभूत अकार और वकार व्अ के स्थान पर ऊठ् आदेश, अनुबन्धलोप होने पर त् + ऊ = तू, तूर, बना। तूर्, की प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु, उसका हल्ङयादि लोप करके रेफ को विसर्ग करने पर तूः सिद्ध होता है। इसके रूप तूः, तूरौ, तूरः, तूरम् आदि बनते है। तूः का अर्थ – शीघ्रता।
स्रूः। स्रवणं स्रूः। स्रिवु गतिशोषणयोः धातुः। स्रिव् से पूर्ववत् सम्पदादिभ्यः क्विप् से क्विप् आदि कार्य कर स् + र्= ऊ, स्रू बना। स्रू की प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु, रूत्वविसर्ग करके सू्रः यह बनता है। आगे अजादि विभक्ति के परे होने पर अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियङुवङौ से उवङ् होकर भ्रू शब्द की तरह सुरवौ, सुरवः आदि बनते है। स्रूः का अर्थ- गमन।
ऊः। अवनम् ऊः। रक्षण। अव रक्षणे धातुः। अव् से सम्पदादिभ्यः क्विप् से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहार लोप होने के बाद प्रत्ययलक्षणेन क्वि को परे मान कर के ज्वरत्वरस्रिव्यवि. से अव् परे के स्थान पर ऊठ् आदेश, अनुबन्धलोप होने पर ऊ बना। ऊ की प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु, उनको रूत्वविसर्ग करके ऊः यह बनता है। आगे अजादि विभक्ति के परे होने पर अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियङुवङौ से उवङ् होकर भ्रू शब्द की तरह उवौ, उवः आदि बनते हैं। ऊः का अर्थ- रक्षण।
मूः। मवनं मूः। मव् बन्धने धातु है। मव् से सम्पदादिभ्यः क्विप् से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहार लोप होने के बाद प्रत्ययलक्षणेन क्वि को परे मान कर के ज्वरत्वरस्रिव्य... से अव् पूरे के स्थान पर ऊठ् आदेश, अनुबन्धलोप होने पर म् + ऊ=मू बना। मू की प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु, उसको रूत्वविसर्ग करके मूः यह बनता है। आगे अजादि विभक्ति के परे होने पर अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियङुवङौ से उवङ् होकर मुवौ, मुवः आदि बनते हैं। मूः का अर्थ- बन्धन।
८६९ इच्छा
इषेर्निपातोऽयम् ।।
सूत्रार्थ- स्त्रीत्व विशिष्ट भाव अर्थ में इष् धातु से ‘इच्छा’ शब्द का निपातन होता है।
इच्छा। इषु इच्छायाम्। इष् धातु से भाव अर्थ में इच्छा का निपातन होने से धातु से श प्रत्यय, षकार के स्थान पर इषुगगियमां छः से छकार आदेश, तुक् आगम आदि सभी कार्य निपातनात् सिद्ध होते हैं। साथ ही स्त्रीलिंग का भी निपातन है, जिससे इच्छा बन जाता है। इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु का हल्ङयादि लोप आदि करके इच्छा, इच्छे, इच्छाः रूप बनते हैं।
८७० अ प्रत्ययात्
प्रत्ययान्तेभ्यो धातुभ्यः स्त्रियामकारः प्रत्ययः स्यात् । चिकीर्षा । पुत्रकाम्या ।।
सूत्रार्थ- स्त्रीलिंग में प्रत्ययान्त धातुओं से अ प्रत्यय होता है।
जब धातुओं से सन्, यङ्, यक्, क्यच्, काम्यच् आदि प्रत्यय किये जाते है। तब धातु प्रत्ययान्त कहलाते है। ऐसे धातुओं से स्त्रीत्वविशिष्ट भाव आदि अर्थ में अ प्रत्यय का विधान इस सूत्र से किया जाता है।
चिकीर्षा। कर्तुमिच्छा चिकीर्षा। डुकृञ् करणे। कृ धातु से सन् प्रत्यय करके चिकीर्ष बना। अतः यह प्रत्ययान्त धातु है। इससे अ प्रत्ययात् से अ प्रत्यय हुआ। अ की आर्धधातुकं शेषः से आर्धधातुकसंज्ञा करके अतो लोपः से चिकीर्ष के अकार के लोप होने पर चिकीर्ष् + अ, वर्णसम्मलेन करके चिकीर्ष ही बना। अ प्रत्यय करने का फल धातु से कृदन्त प्रातिपदिक बनना है। यह प्रत्यय स्त्रीत्व की विवक्षा में हुआ है। अतः अजाद्यतष्टाप् से टाप् होकर चिकीर्षा बना । इसके बाद के सुप् का हल्ङयादिलोप करके चिकीर्षा सिद्ध हुआ। आगे चिकीर्षे, चिकीर्षाः आदि रूप बनते हैं। चिकीर्षा = करने की इच्छा।
सन्, यङ्, यक्, क्यच्, काम्यच् आदि प्रत्यय के बाद यह अ प्रत्यय सभी धातुओं से हो सकता है। जैसे कि पठ् धातु से सन् करके पिपठिष् से पिपठिषा, वच् धातु से सन् करके विवक्ष् से विवक्षा, सन्नन्त गम् से जिगमिषा, सन्नन्त जीव् से जिजीविषा, सन्नन्त भुज् से बुभुक्षा आदि।
पुत्रकाम्या। आत्मनः पुत्रस्यैषणम्। पुत्र शब्द से काम्यच् प्रत्यय करके सनाद्यन्ता धातवः से धातुसंज्ञा होकर पुत्रकाम्य धातु बना है। अतः यह प्रत्ययान्त धातु है। इससे अ प्रत्ययात् से अ प्रत्यय हुआ। अ की आर्धधातुकं शेषः से आर्धधातुकसंज्ञा करके अतो लोपः से पुत्रकाम्य के अन्त्य अकार के लोप होने पर पुत्रकाम्य् + अ, वर्णसम्मलेन करके पुत्रकाम्य बना। यह प्रत्यय स्त्रीत्व की विवक्षा में हुआ है। अतः अजाद्यतष्टाप् से टाप् होकर पुत्रकाम्या बना । पुत्रकाम्या से सु विभक्ति, सुप् का हल्ङयादिलोप करके पुत्रकाम्या बना। इसका रूप आकारान्त स्त्रीलिंग की तरह पुत्रकाम्ये, पुत्रकाम्याः आदि रूप बनेगा। पुत्रकाम्या = अपने लिए पुत्र की इच्छा।
८७१ गुरोश्च हलः
गुरुमतो हलन्तात्स्त्रियामकारः प्रत्ययः स्यात् । ईहा ।।
सूत्रार्थ- भाव और कर्तृभिन्न कारक अर्थ में हलन्त गुरूमान् धातु से स्त्रीत्व की विवक्षा में अ प्रत्यय होता है।
तीन स्थियों में वर्ण की गुरु संज्ञा होती है।
1. संयोगे गुरुः, दीर्घं च से जिनकी गुरूसंज्ञा होती है, ऐसे वर्ण जिस धातु में हों और वह धातु हलन्त भी तो उससे अ प्रत्यय का विधान किया गया है।
2. गुरू अस्यास्तीति गुरूमान् जिसमें गुरूवर्ण हो वह धातु गुरूमान् हुआ।
3. संयोगे गुरुः से संयोग के परे होने पर ह्रस्व वर्ण भी गुरू हो जाता है। जैसे- अर्च्, लज्ज्, शिक्ष् आदि।
ईहा। ईह चेष्टायाम् धातु ईकार दीर्घवर्ण वाला होने से गुरूमान है तथा हलन्त भी। ईह् से गुरोश्च हलः से अ प्रत्यय करके ईह बनता है। स्त्रीत्वविवक्षा में यह प्रत्यय हुआ है, अतः इससे अजाद्यतष्टाप् से टाप् होकर ईहा बन जाता है। प्रातिपदिकसंज्ञा करके स्वादि कार्य हल्ङ्यादि लोप कर ईहा रूप सिद्ध हुआ। ईहा = चेष्टा।
इसी प्रकार शिक्ष् से शिक्षा, रक्ष् से रक्षा, हिंस् से हिंसा, भाष् से भाषा, आ + कांक्ष् से आकांक्षा आदि बनाना चाहिए।
८७२ ण्यासश्रन्थो युच्
अकारस्यापवादः । कारणा । हारणा ।।
सूत्रार्थ- स्त्रीलिंग भाव और अकर्ता कारक की विवक्षा में ण्यन्त धातु, आस् और श्रन्थ् धातुओं से युच् प्रत्यय होता है। यह अ प्रत्यय का अपवाद है।
युच् में चकार की इत्संज्ञा होती है, यु बचता है। उसके स्थान पर युवोरनाकौ से अन आदेश होता है। णि आदि धातोः का विशेषण है। अतः णि से तदन्तविधि करके ण्यन्त अर्थ लिया जाता है।
कारणा। कराना। कृ धातु से णिच् करके कारि बनता है। उसकी धातुसंज्ञा करके अ प्रत्ययात् को बाधकर के ण्यासश्रन्थो युच् से युच् प्रत्यय करके उसके स्थान पर युवोरनाकौ से अन आदेश होकर कारि + अन बना। णेरनिटि से णि वाले इकार का लोप करके कार् + अन बना। वर्णसम्मलेन होकर कारन बना। रेफ से परे नकार को अट्कुप्वाङ्. से णत्व करके कारण बना। यह प्रत्यय स्त्रीत्वविवक्षा में हुआ है, अतः टाप् होकर कारणा बनता है। कारणा से प्रातिपदिकसंज्ञा, स्वादिकार्य करके कारणा, कारणे कारणाः आदि रूप बनते हैं। कराना। = कराना।
हारणा। हराना। हृ धातु से णिच् करके हारि बना। उसकी धातुसंज्ञा करके अः प्रत्ययात् को बाधकर के ण्यासस्रन्थो युच् से युच् प्रत्यय करके उसके स्थान पर युवोरनाकौ से अन आदेश होकर हारि + अन बना। णेरनिटि से णि वाले इकार का लोप करके हार् + अन बना। वर्णसम्मलेन, रेफ से परे नकार को णत्व करके हारण बना। पूर्वोक्त विधि से हारणा रूप सिद्ध हुआ। इसका रूप आकारान्त स्त्रीलिंग की तरह चलेंगे।
८७३ नपुंसके भावे क्तः
सूत्रार्थ- नपुंसक में भाव अर्थ में क्त प्रत्यय होता है।
यह क्त प्रत्यय केवल भाव अर्थ में ही होता है अतः इससे निष्पन्न (क्त) प्रत्ययान्त शब्द नपुंसकलिंग वाला ही होता है। क्त में ककार इत्संज्ञक है, त शेष रहता है। इसके पहले भी निष्ठा से क्त प्रत्यय का विधान हो चुका है। इन दोनों स्थलों की विशेषता यह है कि निष्ठा से विहित क्त प्रत्यय भूतकाल में होता है जबकि यह कालसामान्य में। उस क्त प्रत्ययान्त के तीनों लिंग में रूप होते है। इस क्त प्रत्ययान्त से केवल नपुंसकलिंग में रूप होते है ।
८७४ ल्युट् च
हसितम्, हसनम् ।।
सूत्रार्थ- नपुंसकलिंग में भाव अर्थ में ल्युट् प्रत्यय भी होता है।
ल्युट् में लकार तथा टकार इत्संज्ञक हैं, यु बचता है। उसके स्थान पर युवोरनाकौ से अन आदेश होता है।
हसितम्, हसनम्। हस हसने। यहाँ हस् धातु है। नपुसके भावे क्तः से क्त प्रत्यय, ककार का अनुबन्धलोप, हस् + त बना। प्रत्यय की आर्धधातुकसंज्ञा करके वलादि आर्धधातुकलक्षण इट् आगम होकर वर्णसम्मलेन हुआ- हसित बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, अम् आदेश होकर हसितम् सिद्ध हुआ। ल्युट् च से ल्युट् होने के पक्ष में अनुबन्धलोप होकर यु के स्थान पर युवोरनाकौ से अन आदेश हुआ, हस् + अन = हसन बना। वलादि न होने के कारण आर्धधातुकस्येड्वलादेः से इट् आगम नहीं हुआ। हसन की प्रातिपदिक संज्ञा, सु, अम्, हसनम् बना।
पठ् से पठनम्, गम् से गमनम्, लिख् से लेखनम् रूप बनायें। णिजन्त धातुओं से क्त को ल्युट् करने पर णेरनिटि से णि का लोप किया जाता है। हसितम्, हसनम् = हँसना।
८७५ पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण
सूत्रार्थ- पुँल्लिंग में संज्ञा वाच्य होने पर करण और अधिकरण अर्थ में प्रायः घ प्रत्यय होता हो।
घकार की लशक्वद्धिते से इत्संज्ञा होती है, अ शेष रहता है। घ और घित् होने के अनेक प्रयोजन हैं। घ का निमित मान कर छादेर्घेऽद्वयुपसर्गस्य से ह्रस्व करना आदि प्रयोजन है। घ प्रत्ययान्त शब्द पुँल्लिंग होता है।
८७६ छादेर्घेऽद्व्युपसर्गस्य
द्विप्रभृत्युपसर्गहीनस्य छादेर्ह्रस्वो घे परे । दन्ताश्छाद्यन्तेऽनेनेति दन्तच्छदः । आकुर्वन्त्यस्मिन्नित्याकरः ।।
सूत्रार्थ- यदि दो या दो से अधिक उपसर्गों न हो तो छाद् अङ् की उपधा को हृस्व होता है घ प्रत्यय के परे होने पर।
दन्तच्छदः। दन्ताश्छाद्यन्तेऽनेन। छद् अपवारणे। छद् धातु से णिच्, अत उपधायाः से णित्-प्रत्यय परे रहते उपधा अकार की वृद्धि आकार होकर छादि बनता है। ण्यन्त होने के कारण इसकी सनाद्यन्ता धातवः से धातु संज्ञा होती है । अतः उससे पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण से घ प्रत्यय अनुबन्धलोप होने पर छादि + अ बना। णेरनिटि से णि का लोप होता है। इस तरह छाद् + अ हुआ। वर्णसम्मेलन करने पर छाद बना। छाद के पूर्व में दन्त है। कृत् के योग में कर्तृकर्मणोः कृति से षष्ठी विभक्ति प्राप्त हुई, उसका षष्ठी समास करके लुक् हो जाता है। दन्त + छाद में छे च से तुक् का आगम, तकार को श्चुत्व करे दन्तच्छाद बना है। छादेर्घेऽद्वयुपसर्गस्य से छाद् + अ छकारोत्तरवर्ती आकार को हृस्व होकर दन्तच्छद यह प्रातिपदिक बन जाता है। उससे स्वादिकार्य करके दन्तच्छदः। दन्तच्छदः = जिससे दाँत ढके जाते है।
आकरः। आ कुर्वन्ति अस्मिन्। आ + कृ धातु से पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण से घ प्रत्यय, लशक्वतद्धिते से घकार की इत् संज्ञा, लोप होने पर आ + कृ + अ बना। प्रत्यय की आर्धधातुकसंज्ञा, धातु को सार्वधाकार्धधातुकयोः से गुण, रपर करके आकर बना । आकर की प्रातिपदिक संज्ञा, स्वादिकार्य करके आकरः सिद्ध हुआ। आकरः = जहाँ मनुष्य अनेक प्रकार के खनिज प्राप्त करते है, खादान। इसी तरह नि + ली से निलयः, आ + ली से आलयः आदि भी बनता है।
८७७ अवे तॄस्त्रोर्घञ्
अवतारः कूपादेः । अवस्तारो जवनिका ।।
सूत्रार्थ- पुँल्लिंग में अव उपसर्ग पूर्वक तृ धातु और स्तृ धातुओं से करण और अधिकरण अर्थ में प्रायः घञ् हो।
घकार और ञकार इत्संज्ञक हैं, अ शेष रहता है। ञित् होने के कारण वृद्धि होगी।
अवतारः। अवतरन्त्यनेन। तृ प्लवनसन्तरणयोः। अव + तृ में अवे तृस्त्रोर्घञ् से घञ्, अनुबन्धलोप करके अव + तृ + अ बना। ञित् के परे होने परे तृ के ऋकार की अचो ञ्णिति से वृद्धि तथा रपर होकर अवतार बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, रूत्वविसर्ग करके अवतारः सिद्ध हुआ। अवतारः = जिसके द्वारा स्नान आदि के लिए नीचे उतरते हैं, घाट, नदी, कुँआ आदि।
अवस्तारः। अवस्तीर्यन्तेऽनेन। स्तृञ् आच्छादने। अव + स्तृ में अवे तृस्त्रोर्घञ् से घञ् प्रत्यय हुआ। अनुबन्धलोप करके अव + स्तृ + अ बना। ञित् के परे होने पर स्तृ के ऋकार की अचो ञ्णिति से वृद्धि, रपर होकर अवस्तार बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, रूत्वविसर्ग करके अवस्तारः सिद्ध हुआ। अवस्तारः = जिससे ढकते हैं, परदा आदि।
८७८ हलश्च
हलन्ताद्घञ् । घापवादः । रमन्ते योगिनोऽस्मिन्निति रामः । अपमृज्यतेऽनेन व्याध्यादिरित्यपामार्गः ।।
सूत्रार्थ- हलन्त धातुओं से करण और अधिकरण अर्थ में घञ् हो। यह पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण का अपवाद है।
रामः। रमन्ते योगिनोऽस्मिन्। रमु क्रीडायाम् धातुः, रम् धातु से पुंसि संज्ञाया घः प्रायेण से घ प्रत्यय की प्राप्ति थी, उसे बाधकर के हलश्च से घञ् हुआ। घञ् मे घकार तथा ञकार का अनुबन्धलोप होने के बाद रम् + अ बना। अत उपधायाः से उपधाभूत अकार की वृद्धि होकर राम बना। राम की प्रातिपदिकसंज्ञा, सु आदि करने पर रामः सिद्ध हुआ। रामः = जिसमें योगीजन रमण करते हैं ।
अपामार्गः। अपमृज्यते व्याधिरनेन। अप उपसर्गक मृजू शुद्धौ धातु है। मृज् धातू से पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण से घ प्रत्यय की प्राप्ति भी, उसे बाधकर के हलश्च से घञ् हुआ। अनुबन्धलोप होने के बाद अप + मृज् + अ बना। मृजेर्वृद्धिः से ऋकार की वृद्धि, रपर होकर अप + मार्ज् + अ बना। घित् होने के कारण चजोः कु घिण्ण्यतोः से जकार को कुत्व करके अप + मार्ग् + अ बना। उपसर्गस्य घञ्मनुष्ये बहुलम् से उपसर्ग के अकार को दीर्घ हुआ, अपामार्ग बना। इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा, सु आदि कार्य करने पर अपामार्गः सिद्ध हुआ । अपामार्गः = जिससे रोग आदि दूर किये जाते है, वह औषधविशेष।
८७९ ईषद्दुस्सुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल्
करणाधिकरणयोरिति निवृत्तम् । एषु दुःखसुखार्थेषूपपदेषु खल् तयोरेवेति भावे कर्मणि च । कृच्छ्रे – दुष्करः कटो भवता । अकृच्छ्रे – ईषत्करः । सुकरः ।।
सूत्रार्थ- दुःख और सुख अर्थ वाले ईषत्, दुस् एवं सु उपपद होने पर धातु से खल् प्रत्यय होता है।
अन्त्य लकार इत्संज्ञक है तथा खकार की लशक्वद्धिते से इत्संज्ञा होती है। इस तरह केवल अ मात्र शेष बचता है। सूत्र में इषद्दुस्सुषु ऐसा सप्तमी निर्देश होने के कारण इनकी तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् से उपपदसंज्ञा होती है, अतः उपपद समास भी होगा। तयोरेव कृत्यक्तखलर्थाः के अनुसार खल् प्रत्यय भाव और कर्म अर्थ में होता है।
दुष्करः। ईषत्करः। सुकरः। कृच्छ्र अर्थात् कष्ट/ दुख अर्थ में तथा अकृच्छ्र अर्थात् सुख अर्थ में होता है।
दुस् + कृ + खल् - दुःखेन क्रियते इति दुष्करः
सु + कृ + खल् - सुखेन क्रियते इति सुकरः सुख अर्थ में
ईषत् + कृ + खल् - सुखेन क्रियते इति सुकरः
यहाँ पर दुस्, ईषत् और सु उपपद में है और कृ धातु है। ईषद्दुस्सुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल् से खल् प्रत्यय करके अनुबन्धलोप होने पर कृ को आर्धधातुक गुण, रपर करके क्रमशः दुष्कर, ईषत्कर, सुकर बना। सभी में प्रातिपदिक संज्ञा, सु, रूत्वविसर्ग करने पर दुष्करः, ईषत्करः, सुकरः रूप सिद्ध होते हैं। दुष्करः कटो भवता= आपके द्वारा चटाई का बनना कठिन है। ईषत्करः सुकरो वा कटो भवता= आपके द्वारा चटाई आसानी से बन सकती है। खल् प्रत्यय के कर्म अर्थ में होने से अनुक्त कर्ता में तृतीया होकर भवता का प्रयोग किया गया है। तथा कर्म के उक्त होने से कटः कर्म के अनुसार ईषत्करः, सुकरः, दुष्करः बने।
८८० आतो युच्
खलोऽपवादः । ईषत्पानः सोमो भवता । दुष्पानः । सुपानः ।।
सूत्रार्थ- ईषत्, दुस्, सु उपपद होने पर आकारन्त धातु से युच् प्रत्यय होता है।
यह सूत्र ईषद्दुस्सुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल् का अपवाद है। युच् में चकार की इत्संज्ञा होती है, यु शेष बचता है। यु के स्थान पर युवोरनाकौ से अन आदेश होता है। यह भी खलर्थ प्रत्यय है। अतः तयोरेव कृत्यक्तखलर्थाः के अनुसार भाव और कर्म अर्थ में होगा।
ईषत्पानः सोमो भवता। दुष्पानः। सुपानः। यहाँ पर दुस्, ईषत् और सु उपपद तथा पा पाने धातु है। आतो युच् से खल् के अर्थ में युच् प्रत्यय, युच् में चकार का अनुबन्धलोप होने पर यु शेष बचा। यु के स्थान पर युवोरनाकौ से अन आदेश करके दुष्पान, ईषत्पान, सुपान बनते हैं। इनकी प्रातिपदिकसंज्ञा, सु, रूत्वविसर्ग करने पर ईषत्पानः, दुष्पानः, सुपानः रूप सिद्ध होते है।
दुष्पानः सोमो भवता= आपके द्वारा सोमरस का पान कर पाना कठिन है।
ईषत्पानः सुपानो वा सोमो भवता= आपके द्वारा सोमरस का पान आसानी से हो सकता है।
८८१ अलं-खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा
प्रतिषेधार्थेयोरलंखल्वोरुपपदयोः क्त्वा स्यात् । प्राचां ग्रहणं पूजार्थम् । अमैवाव्ययेनेति नियमान्नोपपदसमासः । दो दद्घोः । अलं दत्त्वा । घुमास्थेतीत्त्वम् । पीत्वा खलु । अलं-खल्वोः किम्? मा कार्षीत् । प्रतिषेधयोः किम्? अलंकारः ।।
सूत्रार्थ- निषेध अर्थ में विद्यमान अलं और खलु शब्दों के उपपद होने पर धातुओं से क्त्वा प्रत्यय हो।
क्त्वा में ककार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा होती है, त्वा शेष रहता है। अलं-खल्वोः का सप्तम्यन्त उपपद का निर्देश करता है। अतः अलं दत्वा और पीत्वा खलु में उपपद समास का किया जाना चाहिए था किन्तु अमैवाव्ययेन अर्थात् अम् (णमुल्) के साथ ही जिस उपपद का तुल्य विधान हो वह उपपद ही अव्यय के साथ समास को प्राप्त होता है, अन्य नहीं। इस नियम सूत्र के अनुसार यहाँ पर उपपदसमास नहीं होगा।
इस सूत्र में प्राचाम् यह पद प्राचीन आचार्यो के सम्मान के लिए है।
क्त्वा प्रत्ययान्त शब्द क्त्वातोसुन्कसुनः से अव्ययसंज्ञक हो जाता है, जिससे आई हुई विभक्ति का अव्ययादाप्सुपः से लोप होता है।
अलं दत्वा। अलं पूर्वक दा धातु से निषेध अर्थ में विद्यमान अलं के योग में अलं-खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा से क्त्वा प्रत्यय, अनुबन्धलोप कर अलं दा + त्वा बना। दो दद्घोः से दा के स्थान पर दद् आदेश हुआ। अलं दद् + त्वा बना। दकार को चर्त्व करके अलं दत् + त्वा, वर्णसम्मलेन करके अलं दत्वा बना। क्त्वा प्रत्ययान्त होने से दत्वा की अव्यय संज्ञा होती है, अतः सु का अव्ययादाप्सुपः से लुक् होकर दत्वा सिद्ध हुआ। अलं दत्वा। अलं दत्वा = मत दो।
पीत्वा खलु। यहाँ पर खलु उपपद पूर्वक पा धातु से निषेध अर्थ में विद्यमान खलु के योग में अलं खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा से क्त्वा प्रत्यय, अनुबन्धलोप करके पा + त्वा बना। शेष पूर्ववत् प्रक्रिया होगी। पीत्वा खलु = मत पीओ।
अलं खल्वोः किम्? मा कार्षीत्। यदि अलं-खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा इस सूत्र में अलं-खल्वोः न पढ़ते तो मा कार्षीत् इस निषेधात्मक मा के योग में भी कार्षीत् के स्थान पर क्त्वा होकर अनिष्ट रूप बनने लगता। एतदर्थ अलं-खल्वोः का पाठ किया गया।
प्रतिषेधयोः किम्? अलङ्कारः। यदि अलं-खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा इस सूत्र में प्रतिषेधयोः (निषेधार्थक) न पढ़ते ता अलङ्कारः में अलं के योग में कृ धातु से क्त्वा होकर अलङ्कृत्वा ऐसा अनिष्ट रूप बनने लगता। अतः इसके निवारण के लिए प्रतिषेधयोः पढ़ा गया।
८८२ समानकर्तृकयोः पूर्वकाले
समानकर्तृकयोर्धात्वर्थयोः पूर्वकाले विद्यमानाद्धातोः क्त्वा स्यात् । भुक्त्वा व्रजति । द्वित्वमतन्त्रम् । भुक्त्वा पीत्वा व्रजति ।।
सूत्रार्थ- समानकर्तृक धात्वर्थों में पूर्वकाल में विद्यमान धातु से क्त्वा प्रत्यय हो।
जहाँ दो या दो से अधिक धातु हों और उन धातुओं का कर्ता एक ही तो वहाँ एक धातु की क्रिया सबसे पहले होगी, उसके बाद दूसरी क्रिया होगी और अन्त में मुख्यक्रिया होगी। यह सूत्र समानकर्तृक धातुओं में पूर्वकालिक क्रिया वाले धातु से क्त्वा प्रत्यय का विधान करता है। क्त्वा में ककार इत्संज्ञक है, त्वा बचता है। क्त्वा प्रत्यय होने के बाद क्त्वातोसुन्कसुनः से क्त्वा प्रत्ययान्त शब्द
की अव्ययसंज्ञा हो जाती है।
भुक्त्वा व्रजति। राम खाकर के जाता है। यहाँ भुज् और व्रज् दो धातु हैं। खाने का काम भी राम कर रहा है। और जाने का काम भी राम ही कर रहा है, दोनों धातुओं का कर्ता एक राम ही है किन्तु यहाँ खाने कार्य पहले और जाने का कार्य बाद में है। इसलिए पूर्वकालिक क्रिया है खाना। अतः भुज् धातु से क्त्वा प्रत्यय हुआ। ककार की इत्संज्ञा हुई, त्वा बचा। भुज् + त्वा बना। चोः कुः से भुज् के जकार को कुत्व, भुग् + त्वा, गकार को खरि च से चर्त्व होकर ककार हुआ, भुक्त्वा बना। अव्यय होने के कारण सु का अव्ययादाप्सुपः से लुक् हुआ। भुक्त्वा व्रजति।
द्वित्वमतन्त्रम् सूत्र में द्वित्व संख्या विवक्षित नहीं है अर्थात् क्त्वा प्रत्यय करने के लिए केवल दो ही क्रियायें हों, ऐसी बात नहीं है, अपितु दो या दो से अधिक अनेक क्रियाएँ हों तो भी उनमें से पूर्वकालिक क्रियाओं में क्त्वा प्रत्यय होता है। इसलिए भुक्त्वा पीत्वा व्रजति में भुज् और पा दोनों धातुओं से क्त्वा हुआ। तात्पर्य यह है कि यहाँ समानकर्तृकयोः ऐसा द्विवचनान्त पद दो धातुओं के लिए प्रधान नहीं है अपितु दो या दो से अधिक इस अर्थ को बताने के लिए मानना चाहिए। जितनी भी पूर्वकालिक क्रियायें होंगी, उन सब से क्त्वा होगा।
धातु सेट् हो तो इट् आदि होकर प्रातिपदिकसंज्ञा करके और अनिट् हो तो इट् के विना विभक्ति को लाकर एवं उसका लोप करके क्त्वान्त रूप सिद्ध होते हैं। भुक्त्वा पीत्वा व्रजति।
विशेष-
ण्यन्त धातु अथवा चुरादि के ण्यन्त धातुओं से भी प्रेरणा आदि अर्थ में णिच् होने के बाद क्त्वा प्रत्यय होता हैं। जैसे- कृ से णिच् होने पर कारि बना है, उससे क्त्वा होने पर कारि + त्वा बना। इट् का आगम होकर कारि + इत्वा बना। कारि के इकार को गुण और अय् आदेश होकर कार् + अय् + इत्वा बना। वर्णसम्मलेन होकर कारयित्वा बन जाता है। इसी तरह धारयित्वा, चोरयित्वा, पाययित्वा, खादयित्वा, पाठयिल्वा आदि बनाये जा सकते हैं।
समास आदि हो जाने के बाद क्त्वा के स्थान पर ल्यप् आदेश होने के बाद ल्यप् का यकार वल् में नहीं आता, अतः वलादिलक्षण इट् का आगम नहीं होता है। फलतः अनिडादि आर्धधातुक को परे मानकर णेरनिटि से णिच् के इकार का लोप हो जाता है, जिससे अवधार्य, प्रधार्य, प्रचोर्य, प्रखाद्य, प्रपाय आदि रूप बनाये जा सकते हैं।
८८३ न क्त्वा सेट्
सेट् क्त्वा किन्न स्यात् । शयित्वा । सेट् किम् ? कृत्वा ।।
सूत्रार्थ- इट् से युक्त क्त्वा को कित् न हो।
क्त्वा में ककार की इत्संज्ञा होने के कारण स्वतः कित् है। विद्यमान कित् को ही यह सूत्र अकित् मानने का अतिदेश करता है। अकित् होने से गुण का निषेध नहीं होगा, यही फल है।
शयित्वा। शीङ् स्वप्ने। शी धातु से क्त्वा, वलादिलक्षण इट् आगम करके शी + इत्वा बना है। न क्त्वा सेट् से त्वा के कित् को अकिद्वद्धाव कर देने से शी के ईकार का क्ङिति च से गुण का निषेध नहीं हो पाता है। फलतः गुण होकर शे + इत्वा अयादेश होकर शयित्वा सिद्ध हो जाता है। शी धातु यदि पूर्ववर्ती क्रिया का हो तो भी उससे समानकर्तृकयोः पूर्वकाले से क्त्वा होगा ही। शयित्वा = सोकर कर।
सेट् किम्? कृत्वा। यदि न क्त्वा सेट् में सेट् नहीं कहते तो अनिट् कृ आदि धातुओं से भी परे क्त्वा को अकित् हो जाता, जिससे गुण आदि होकर अकृत्वा ऐसा अनिष्ट रूप बनने लगता।
८८४ रलो व्युपधाद्धलादेः संश्च
इवर्णोवर्णोपधाद्धलादेः रलन्तात्परौ क्त्वासनौ सेटौ वा कितौ स्तः । द्युतित्वा, द्योतित्वा । लिखित्वा, लेखित्वा । व्युपधात्किम् ? वर्तित्वा । रलः किम् ? एषित्वा । सेट् किम् ? भुक्त्वा ।।
सूत्रार्थ- इवर्ण और उवर्ण उपधा वाली हलादि रलन्त धातुओं से परे इट् सहित क्त्वा और इट् सहित सन् विकल्प से कित् हों।
इस सूत्र के लगने के तीन शर्त है 1. जहाँ धातु के अन्त में रल् प्रत्याहार वाला वर्ण हो। 2. आदि में हल् वर्ण हो और 3. धातु के उपधा में इकार या उकार में से कोई एक वर्ण होना चाहिए। कित् मानने के पक्ष में गुण का निषेध और कित् न मानने के पक्ष में गुण होगा।
द्युतित्वा द्योतित्वा। द्युत दीप्तौ। द्युत् से क्त्वा, इट् होकर द्युत् + इत्वा बना है। द्युत् धातु के आदि वर्ण हलादि है, रल् प्रत्याहार का त् तवर्ण अंत में है और उपधा में उकार भी है। अतः रलो व्युपधाद्धलादेः संश्च से सेट् क्त्वा को वैकल्पिक कित् किया। कित् होने के पक्ष में गुण का निषेध होकर द्युतित्वा और कित् न होने के पक्ष में पुगन्तलघूपधस्य च से गुण होकर द्योतित्वा ये दो रूप बने । इसी प्रकार लिख् धातु से लिखित्वा लेखित्वा रूप बनते हैं। द्युतित्वा, द्योतित्वा = चमककर। लिखितिवा, लेखित्वा = लिखकर।
व्युपधात् किम्? वर्तित्वा। यदि रलो व्युपधाद्धलादेः संश्च में इकार तथा उकार उपधात् न कहते तो जिसमें इकार या उकार उपधा में नहीं है, ऐसे वृत् आदि ऋकारादि उपधा वाले धातुओं से भी वैकल्पिक किद्वद्धाव होकर गुणाभाव और गुण वाले दो रूप बनते। व्युपधात् कहने से वृत् धातु में यह सूत्र नहीं लगा। अतः न क्त्वा सेट् से नित्य से अकित् होने पर गुण होकर वर्तित्वा एक ही रूप बना।
रलः किम्? सेवित्वा। यदि रलो व्युपधाद्धलादेः संश्च से रलः न कहते तो जिसमें रल् अन्त में नहीं है ऐसे सिव् आदि वकारान्त धातुओं से भी वैकल्पिक किद्वद्धाव होकर गुणाभाव और गुण वाले दो रूप बनते। रलः कहने से सिव् धातु में यह सूत्र नहीं लगा। अतः न क्त्वा सेट् से नित्य से अकित् होने पर गुण होकर सेवित्वा एक ही रूप बना।
हलादेः किम्? एषित्वा। यदि रलो व्युपधाद्धलादेः संश्च में हलादेः न कहते तो जिस धातु के आदि में हल् न होकर अच् है, ऐसे इष् आदि इकारादि धातुओं से भी वैकल्पिक किद्वद्धाव होकर गुणाभाव और गुण वाले दो रूप बनते। हलादेः कहने से इष् धातु में यह सूत्र नहीं लगा। अतः न क्त्वा सेट् से नित्य से अकित् होने पर गुण होकर एषित्वा एक ही रूप बना।
८८५ उदितो वा
उदितः परस्य क्तव इड्वा । शमित्वा, शान्त्वा । देवित्वा, द्यूत्वा । दधातेर्हिः । हित्वा ।।
सूत्रार्थ- उदित् (हृस्व उकार की इत्संज्ञा हुई हो जिसमें) धातु से परे क्त्वा को विकल्प से इट् का आगम हो।
शमित्वा, शान्त्वा। शमु उपशमे। शम् धातु से समानकर्तृकयोः पूर्वकाले से क्त्वा प्रत्यय, क्त्वा में अनुबन्धलोप, आर्धधातुकसंज्ञा, नित्य से इट् प्राप्त, उदित होने के कारण उसे बाधकर के उदितो वा से विकल्प से इट् का आगम करके शम् + इत्वा हुआ। वर्णसम्मलेन होकर शमित्वा बना। इट् न होने के पक्ष में शम् + त्वा है। अनुनासिकस्य क्विझलोः क्ङिति से उपधा को दीर्घ हुआ शाम् + त्वा बना। शाम् के मकार को अनुस्वार, उसको परसवर्ण होकर शान्त्वा बन। क्त्वा प्रत्ययान्त शब्द अव्ययसंज्ञक होते है। इससे प्रातिपदिक संज्ञा, स्वादि विभक्ति, विभक्ति का अव्ययादाप्सुपः से लुक् होकर शमित्वा, शान्त्वा ये दो रूप सिद्ध हो जाते है। शमित्वा, शान्त्वा = शान्त होकर।
देवित्वा, द्यूत्वा। दिवु दिवु- क्रीडा-विजिगीषा-व्यवहार-द्युति-मोद-मद-स्वप्न-कान्ति-गतिषु (दिवादि गण)। दिव् धातु से समानकर्तृकयोः पूर्वकाले से क्त्वा, अनुबन्धलोप, आर्धधातुकसंज्ञा, नित्य से इट् प्राप्त, उदित् होने से उसे बाधकर के उदितो वा से विकल्प से इट् का आगम करके दिव् + इत्वा, वर्णसम्मलेन होकर देवित्वा बन जाता है। इट् न होने के पक्ष में दिव् + त्वा बना है। च्छ्वोः शूडनुनासिके च से वकार के स्थान पर ऊठ आदेश दि + ऊ + त्वा बना। यण् करके द्यूत्वा बन गया। शेष प्रक्रिया शमित्वा, शान्त्वा की तरह होगी। देवित्वा, द्यूत्वा = जूआ खेल कर।
दधातेर्हिः- धा धातु से क्त्वा होकर एकाच् उपदेशेऽशिति से इट् का निषेध हो गया। दधातेर्हि से धा को हि आदेश होकर हित्वा रूप बना।
८८६ जहातेश्च क्त्वि
हित्वा । हाङस्तु – हात्वा ।।
सूत्रार्थ- हा (त्यागे) को हि आदेश हो क्त्वा परे रहते।
हित्वा। ओहाक् त्यागे। ओहाक् में अनुबन्धलोप के बाद हा शेष बचता है। इससे क्त्वा होने पर हा + त्वा बना। यहाँ एकाच् उपदेशेऽनुदात्तात् से इट् का निषेध हो गया। जहातेश्च क्त्वि से हा के स्थान पर हि आदेश होकर हित्वा सिद्ध हुआ। ओहाङ् वाले हा के स्थान पर यह आदेश नहीं होगा अतः हात्वा ही रह जाता है। हित्वा = छोड़कर।
हित्वा राज्यं वनं गतः। हित्वा गच्छति। सूत्र में जहातेः इस निर्देश के कारण जुहोत्यादि गण के हा (त्यागे) से ही क्त्वि होता है। जुहोत्यादि गण के ओहाङ् धातु (ओहाङ् गतौ) से हाङ् धातु से नहीं होता। इस धातु से हात्वा बनेगा।
८८७ समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्
अव्ययपूर्वपदेऽनञ्समासे क्त्वो ल्यबादेशः स्यात् । तुक् । प्रकृत्य । अनञ् किम् ? अकृत्वा ।।
सूत्रार्थ- नञ् से भिन्न जिस समास के पूर्वपद में कोई अन्य अव्यय स्थित हो तो उस समास में धातु से परे क्त्वा के स्थान पर ल्यप् आदेश होता है।
नञ् अव्यय है। अनञ् कहने से नञ् समास से भिन्न और नञ् समास के सदृश अव्यय अर्थ लिया गया है। अर्थात् समास के पूर्वपद में नञ् से भिन्न अन्य कोई अव्यय हो धातु से परे क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर ल्यप् आदेश हो जाता है। लकार और पकार इत्संज्ञक हैं, य शेष बचता है। जैसे क्त्वा प्रत्यय कृत्संज्ञक, आर्धधातुक और कित् है, अतः उसके स्थान पर होने वाला ल्यप् भी स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ से स्थानिवद्भाव करके कृत्संज्ञक, आर्धधातुक और कित् माना जायेगा। अल्विधि होने के कारण वलादिलक्षण इट् का अनल्विधौ से निषेध हो जायेगा। अतः इट् की कर्तव्यता में स्थानिवद्धाव ही नहीं होगा, अन्यत्र हो जायेगा। ल्यप् आदेश होने पर धातु से इट् का आगम नहीं होता। नञ् से भिन्न अव्ययों का कृत्संज्ञक क्त्वा प्रत्ययान्त के साथ कुगतिप्रादयः से समास करने के बाद ही इस सूत्र की प्रवृत्ति होती है।
अन्य उदाहरण- प्रहृत्य। पार्श्वतःकृत्य। नानाकृत्य। द्विधाकृत्य।
प्रकृत्य। प्र पूर्वक कृ धातु से समानकर्तृकयोः पूर्वकाले से क्त्वा प्रत्यय, ककार का लोप, प्र + कृ + त्वा बना। अनिट् धातु होने के कारण इट् प्राप्त ही नहीं है। त्वा की आर्धधातुसंज्ञा, गुण प्राप्त, कित् होने के कारण क्ङिति च से गुण का निषेध, प्र + कृत्वा में उपपदसमास करके समासेऽञ् पूर्वे क्त्वो ल्यप् से त्वा के स्थान पर ल्यप् आदेश, अनुबन्धलोप, प्रकृ + य बना। हृस्वस्य पिति कृति तुक् से कृ को तुक् का आगम करके प्रकृत्य बन जाता है। क्त्वातोसुन्कसुनः से अव्ययसंज्ञा होती है। प्रातिपदिकसंज्ञा करके सु आदि विभक्ति, उनका अव्ययादाप्सुपः से लुक् होकर प्रकृत्य सिद्ध हुआ।
अकृत्वा। (नञ्) न + कृत्वा में समास करके अ + कृत्वा बना है। नञ् पूर्व में होने पर सूत्र ने ल्यप् आदेश का निषेध किया है, अतः यहाँ पर ल्यप् आदेश नहीं हुआ, क्त्वा ही रहा गया- अकृत्वा।
८८८ आभीक्ष्ण्ये णमुल् च
आभीक्ष्ण्ये द्योत्ये पूर्वविषये णमुल् स्यात् क्त्वा च ।।
८८९ नित्यवीप्सयोः
आभीक्ष्ण्ये वीप्सायां च द्योत्ये पदस्य द्वित्वं स्यात् । आभीक्ष्ण्यं तिङन्तेष्वव्ययसंज्ञकेषु च कृदन्तेषु च । स्मारंस्मारं नमति शिवम् । स्मृत्वास्मृत्वा । पायम्पायम् । भोजम्भोजम् । श्रावंश्रावम् ।।
सूत्रार्थ- निरन्तरता तथा वीप्सा (बार बार होना) अर्थ द्योतित होने पर पद को द्वित्व होता है।
आभीक्ष्ण्य का अर्थ निरन्तरता है यह तिङन्तों में, अव्यय में और कृदन्त पदों में होता है।
स्मारं स्मारं नमति शिवम्। स्मृ चिन्तायाम् धातु। यहाँ पर दो क्रियाएँ हैं। पूर्वकालिक क्रिया स्मृ और उत्तरकालिक क्रिया नमति। पूर्वकालिक स्मृ धातु से आभीक्ष्ण्ये णमुल् च से आभीक्ष्ण्य = निरन्तरता अर्थ में णमुल् हुआ, णमुल् में णकार, उकार तथा मकार का अनुबन्धलोप होने पर स्मृ + अम् बना। अचो ञ्णिति से स्मृ के ऋ को वृद्धि होकर स्मार् + अम् बना। वर्णसम्मलेन होने पर स्मारम् बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, अव्ययसंज्ञा, विभक्ति और उसके लोप होने पर नित्यवीप्सयोः से पद को द्वित्व होकर स्मारं स्मारम् बना। आभीक्ष्णे णमुल् च सूत्र से क्त्वा के पक्ष में स्मृत्वा स्मृत्वा बनेगा। क्त्वा के पक्ष में भी द्वित्व होगा। स्मारं स्मारं नमति शिवम् = शिव को बार बार स्मरण कर-कर के नमस्कार करता है।
इसी तरह अन्य धातुओं से भी णमुल्, क्त्वा और द्वित्व करके अनेक धातुओं से प्रयोग बना सकते हैं। कुछ उदाहरणों में पायं पायम् (पी पी कर) यहाँ आतो युक् चिण् कृतोः से युक् हुआ। भोजं भोजम् (खा खा कर) । श्रावं श्रावम् (सुन सुन कर) आदि दिये गये हैं।
८९० अन्यथैवंकथमित्थंसु सिद्धाप्रयोगश्चेत्
एषु कृञो णमुल् स्यात् । सिद्धोऽप्रयोगोऽस्य एवम्भूतश्चेत् कृञ् । व्यर्थत्वात्प्रयोगानर्ह इत्यर्थः । अन्यथाकारम् । एवङ्कारम् । कथङ्कारम् । इत्थङ्कारं भुङ्क्ते । सिद्धेति किम् ? शिरोऽन्यथा कृत्वा भुङ्क्ते ।।
सूत्रार्थ- अन्यथा, एवम्, कथम् तथा इत्थम् अव्ययों के पूर्व रहते पर कृञ् धातु से णमुल् हो, कृञ् धातु का अर्थ न प्रतीत हो रहा हो तो।
अन्यथाकारम्, एवङ्कारम्, कथङ्कारम्, इत्थङ्कारं भुङ्क्ते । यहाँ कृ धातु के पूर्व चार अव्यय दिये गये हैं- अन्यथा, एवंम्, कथम्, इत्थम् । ये उपपद हैं। अन्यथाकारं भुङ्ते का वही अर्थ है जो अन्यथा भुङे का है। कृ धातु और उससे णमुल् प्रत्यय करके भी वही अर्थ निकल रहा है, जो पहले से था। इस तरह यहाँ पर कृ धातु सिद्धाप्रयोग सिद्ध हो रहा है। अतः कृ से अन्यथैवं कथमित्थंसु सिद्धाप्रयोगश्चेत् से णमुल् करे अन्यथाकारम् बन जाता है। कृन्मेजन्तः से मकारान्त कृदन्त अव्ययसंज्ञक होता है। अतः सुप् का लुक् करके अन्यथाकारम् सिद्ध होता है। इसी तरह एवङ्कारम्, कथङ्कारम्, इत्थङ्कारं सिद्ध होता है। अन्यथाकारम्, एवङ्कारम्, कथङ्कारम्, इत्थङ्कारं भुङ्क्ते = अन्य प्रकार से खा रहा है, इस प्रकार से खाता है?, किस प्रकार से खाता है? इस तरह से खाता है।
सिद्धेति किम्? शिरोऽन्यथा कृत्वा भुङ्ते। अन्यथैवं-कथमित्थंसु सिद्धाऽप्रयोगश्चेत् इस सूत्र में यदि सिद्धाऽप्रयोगश्चेत् न हो तो शिरोऽन्यथा कृत्वा भुङ्ते- शिर को दूसरी तरफ करके भोजन करता है। इस वाक्य में कृत्वा सिद्धाऽप्रयोग = कृत्वा यह क्किया असिद्ध अर्थात् निष्प्रयोजन नहीं है, यहाँ पर भी णमुल् होकर अनिष्ट रूप बन जाता। ऐसा न हो, इसके लिए सूत्र में सिद्धाऽप्रयोगश्चेत् यह कहा गया।
अभ्यास-
उत्तरकृदन्तप्रकरण के सभी प्रत्ययों तथा धातुओं को संकलित कर लें। उन सभी धातुओं से तुमुन् और क्त्वा प्रत्यय लगाकर रूप बनायें।
इत्युत्तरकृदन्तम् ।।
इति कृदन्तम् ।।
बहुत सरलता से समझाया गया है सराहनीय।
जवाब देंहटाएंअधिगम सरलता से किया जा सकता है। समझाने की सरलतम पद्धति।
जवाब देंहटाएंकृदन्तस्य video न सन्ति वा ???
जवाब देंहटाएंजगदानन्दमहोदयानाम् भूरिशः धन्यवादाः | मम संशोधनकार्ये भवतः blogs अतिशयं महत्वं आवहन्ति |
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