लघुसिद्धान्तकौमुदी (रुधादिप्रकरणम्)


अथ रुधादयः

इस प्रकरण में सर्वप्रथम रुधिर् धातु धातु आया है अतः इस प्रकरण का नाम रुधादि प्रकरण है। जैसे भ्वादि, अदादि, जुहोत्यादि, दिवादि प्रकरणों में होने वाले शप्शप् लुक, श्लु, श्यन् आदि  विकरण होते हैं, वैसे ही रुधादि में शप् को बाधकर श्नम् होता है। श्नम् में मकार की हलन्त्यम् से तथा शकार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप हो जाता है। इसमें केवल न शेष बचता है।

श्नम् विकरण करने का प्रयोजन तथा इसके परिणाम-

 1.श्नम् में मकार की इत्संज्ञा हलन्त्यम् से हुई अतः यह मित् है।

2.श्नम् यह मित्  होने के कारण मिदचोऽन्त्यात्परः परिभाषा के अनुसार रुध् में अन्त्य अच् उ के बाद बैठेगा।

3.श्नम् के शकार की इत्संज्ञा लशक्वतद्धिते से होती है अतः यह शित् है। शित् होने के कारण उसकी तिङ्शित्सार्वधातुकम् से सार्वधातुकसंज्ञा होती है। सार्वधातुक तथा अपित् (श्नम् में पकार की इत् संज्ञा नहीं होती है) होने के कारण सार्वधातुकमपित् से इसको ङिद्वद्भाव हो जाता है।

4.शित् को ङित् के समान हो जाने के कारण क्ङिति च गुण और वृद्धि का निषेध होता है।

5.श्नम् का न परे होने पर पूर्व को गुण और वृद्धि दोनों ही नहीं होते।

6.श्नम् करने के पहले भी गुणवृद्धि नहीं कर सकतेक्योंकि रुधादिभ्यः श्नम् से श्नम् और गुण-वृद्धि एक साथ प्राप्त होते हैं और श्नम् के नित्य होने के कारण पहले नित्यकार्य श्नम् ही होता है।

रुध् धातु में कर्तरि शप् से शप् प्राप्त हुआ उस शप् को बाध करने के लिए अग्रिम सूत्र का कथन कर रहे हैं।

रुधिर् आवरणे ।। १ ।।
६६९ रुधादिभ्‍यः श्‍नम्
शपोऽपवादः । रुणद्धि । श्‍नसोरल्‍लोपः । रुन्‍धः । रुन्‍धन्‍ति । रुणत्‍सि । रुन्‍धः । रुन्‍ध । रुणध्‍मि । रुन्‍ध्‍वः । रुन्‍ध्‍मः । रुन्‍धे । रुन्‍धाते । रुन्‍धते । रुन्‍त्‍से । रुन्‍धाथे । रुन्‍ध्‍वे । रुन्‍धे । रुन्‍ध्‍वहे । रुन्‍ध्‍महे । रुरोधरुरुधे । रोद्धासिरोद्धासे । रोत्‍स्‍यसिरोत्‍स्‍यसे । रोत्‍स्‍यतिरोत्‍स्‍यते । रुणद्धुरुन्‍धात् । रुन्‍धाम् । रुन्‍धन्‍तु । रुन्‍धि । रुणधानि । रुणधाव । रुणधाम । रुन्‍धाम् । रुन्‍धाताम् । रुन्‍धताम् । रुन्‍त्‍स्‍व । रुणधै । रुणधावहै । रुणधामहै । अरुणत्अरुणद् । अरुन्‍धताम् । अरुन्‍धन् । अरुणःअरुणत्अरुणद् । अरुन्‍ध । अरुन्‍धाताम् । अरुन्‍धत । अरुन्‍धाः । रुन्‍ध्‍यात् । रुन्‍धीत । रुध्‍यात्रुत्‍सीष्‍ट । अरुधत्अरौत्‍सीत् । अरुद्ध । अरुत्‍साताम् । अरुत्‍सत । अरोत्‍स्‍यत्अरौत्‍सीत् । अरुद्ध । अरुत्‍साताम् । अरुत्‍सत । अरोत्‍स्‍यत्अरोत्‍स्‍यत ।। भिदिर् विदारणे ।। २ ।। छिदिर् द्वैधीकरणे ।। ३ ।। युजिर् योगे ।। ४ ।। रिचिर् विरेचने ।। ५ ।। रिणक्तिरिङ्क्ते । रिरेच । रेक्ता रेक्ष्यति अरिणक् । अरिचत्अरैक्षीत्अरिक्त ।। विचिर् पृथग्‍भावे ।। ६ ।। विनक्ति विङ्क्ते ।। क्षुदिर् संपेषणे ।। ७ ।। क्षुणत्तिक्षुन्‍ते । क्षोत्ता ।। अक्षुदत्अक्षौत्‍सीत्अक्षुत्त । उच्‍छृदिर् दीप्‍तिदेवनयोः ।। ८ ।। छृणत्ति छृन्‍ते । चच्‍छर्द । सेऽसिचीति वेट् । चच्‍छृदिषेचच्‍छृत्‍से । छर्दिता । छर्दिष्‍यतिछत्‍स्‍र्यति । अच्‍छृदत्अच्‍छर्दीत्अच्‍छर्दिष्‍ट ।। उत्तृदिर् हिंसानादरयोः ।। ९ ।। तृणत्तितृन्‍ते ।। कृती वेष्‍टने ।। १० ।। कृणत्ति ।। तृह हिसि हिंसायाम् ।। ११-१२।।

रुधिर् आवरणे इति। रुधिर् धातु का अर्थ है रोकना । इर इत्संज्ञा वाच्या इस वार्तिक से रुधिर् के इर् भाग की इत्संज्ञा हो जाती है अतः रुध् शेष रहता है। रुधिर् के स्वर वर्ण इ की इत्संज्ञा होने के कारण यह स्वरितेत् धातु है, अतः यह उभयपदी है। यह अनिट् धातु है अर्थात् लिट् को छोड़कर अन्यत्र इट् का आगम नहीं होता है।

सूत्रार्थ-  रुधादिगणपठित धातुओं से कर्तृवाचक सार्वधातुक प्रत्यय के परे होने पर श्नम् प्रत्यय होता है। 

रुणद्धि। रुधिर् धातु में इर इत्संज्ञा वाच्या से इर् की इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप करने पर रुध् शेष बचा। रुध् से लट्, कर्तृवाचक प्रथमपुरुष एकवचन में तिप् प्रत्यय आया। तिप् की सार्वधातुकसंज्ञा, कर्तरि शप् से शप् प्राप्त हुआ उसे बांधकर रुधादिभ्यः श्नम् से श्नम् प्रत्यय हुआ। श्नम् प्रत्यय मित्  होने के कारण मिदचोऽन्त्यात्परः परिभाषा के अनुसार रुध् में अन्त्य अच् उ के बाद होगा। रु + श्नम् ध+ तिप् हुआ। तिप् में पकार तथा श्नम् में शकार तथा मकार का अनुबन्धलोप । अट्कुप्वाङनुम्व्यवायेऽपि से रेफ से परे नकार के स्थान पर णकार होकर रु + णध + ति हुआ। अब झषस्तथोर्धोऽधः से झष् वर्ण ध से परे ति प्रत्यय के तकार के स्थान पर धकार आदेश होकर रुणध्+धि बना। झलां जश् झशि से रुणध्+धि में प्रथम धकार के स्थान पर जश्त्व दकार आदेश होकर रुणद्+धि बना। परस्पर वर्णसम्मेलन होने पर रुणद्धि रूप सिद्ध हुआ। 

रुन्धः। रुध् + तस्, रुध् + श्नम् + तस्, अनुबन्धलोप, रुनध् + तस् बना। सार्वधातुकमपित् से तस् ङित् है, अतः श्नसोरल्लोपः से न के अकार का लोप हुआ, रुन्ध् + तस् बना। झषस्तथोर्धोऽधः से तस् के तकार को धकार आदेश होकर रुन्ध् + धस् बना। प्रथम धकार का झरो झरि सवर्णे से वैकल्पिक लोप होने पर रुन्+धस् बना। वर्णसम्मेलन और सकार को रुत्वविसर्ग करने पर रुन्धः रूप सिद्ध हुआ। झरो झरि सवर्णे विकल्प से लोप करता है, जिस पक्ष में यह धकार के लोप नहीं करेगा, उस पक्ष में प्रथम धकार को जश्त्व दकार होने पर रुन्द्धः सिद्ध होता है।

विशेष-

आपने रुणद्धि में अट्कुप्वाङनुम्व्यवायेऽपि से नकार को णत्व होता देखा है। प्रश्न उठता है कि रुन्धः में न को ण क्यों नहीं हुआ? रुन्ध् + तस् में अट्कुप्वाङनुम्व्यवायेऽपि से णत्व तथा नश्चापदान्तस्य झलि से अनुस्वार दोनों प्राप्त हैं। अट्कुप्वाङनुम्व्यवायेऽपि पर त्रिपादी है। अतः पूर्वं प्रति परं असिद्धं नियम से पूर्वत्रिपादी अनुस्वारविधायक सूत्र के प्रति णत्व विधायक सूत्र असिद्ध हो जाता है। फलतः यहाँ नश्चापदान्तस्य झलि अनुस्वार हुआ तत्पश्चात् अनुस्वारस्य यथि परसवर्णः से अनुस्वार को पर वर्ण धकार का सवर्ण नकार हो गया।

रुन्धन्ति । रुध् + झि, श्नम्, अनुबन्धलोप, झोऽन्तः से झि को अन्त् आदेश हुआ, रुनध् + अन्ति बना। सार्वधातुकमपित् से अन्ति ङित् है, अतः श्नसोरल्लोपः से न के अकार का लोप होने पर रुन्ध् + अन्ति बना । नकार के स्थान पर नश्चापदान्तस्य झलि से अनुस्वार और अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः से परसवर्ण होकर नकार बना। वर्णसम्मेलन होने पर रुन्धन्ति रूप सिद्ध हुआ।

रुणत्सि। रुध् से सिप्, श्नम्, अनुबन्धलोप, रुनध् + सि बना। सिप् में पकार का लोप हुआ है अतः यह पित् है। पित् होने के कारण सार्वधातुकमपित् से सि को ङिद्वद्भाव नहीं हुआ। ङित् नहीं होने से श्नसोरल्लोपः से श्नम् के अकार का लोप भी नहीं हुआ, रुनघ्+ सि यथावत् रहा। अट्कुप्वाङनुम्व्यवायेऽपि से नकार को णत्व और खरि च से धकार को चर्त्व तकार आदेश होने पर रुणत्सि रूप सिद्ध हुआ। 

रुन्धः। रुध् + थस्, रुध् + श्नम् + थस्, अनुबन्धलोप, रुनध् + थस् बना। सार्वधातुकमपित् से थस् ङित् है, अतः श्नसोरल्लोपः से न के अकार का लोप हुआ, रुन्ध् + थस् बना। झषस्तथोर्धोऽधः से थस् के थकार को धकार आदेश होकर रुन्ध् + धस् बना। प्रथम धकार का झरो झरि सवर्णे से वैकल्पिक लोप होने पर रुन्+धस् बना। वर्णसम्मेलन और सकार को रुत्वविसर्ग करने पर रुन्धः रूप सिद्ध हुआ। झरो झरि सवर्णे विकल्प से लोप करता है, जिस पक्ष में यह धकार के लोप नहीं करेगा, उस पक्ष में प्रथम धकार को जश्त्व दकार होने पर रुन्द्धः सिद्ध होता है। 

रुन्ध। रुध् + थ, रुध् + श्नम् + थ, अनुबन्धलोप, रुनध् + थ बना। सार्वधातुकमपित् से थ ङित् है, अतः श्नसोरल्लोपः से न के अकार का लोप हुआ, रुन्ध् + थ बना। झषस्तथोर्धोऽधः से थ के थकार को धकार आदेश होकर रुन्ध् + ध बना। प्रथम धकार का झरो झरि सवर्णे से वैकल्पिक लोप होने पर रुन्+ध बना। वर्णसम्मेलन करने पर रुन्ध रूप सिद्ध हुआ। झरो झरि सवर्णे विकल्प से लोप करता है, जिस पक्ष में यह धकार के लोप नहीं करेगा, उस पक्ष में प्रथम धकार को जश्त्व दकार होने पर रुन्द्ध सिद्ध होता है। 

रुणध्मि। रुध् से मिप्, श्नम्, अनुबन्धलोप, रुनध् + मि बना। मिप् में पकार का लोप हुआ है अतः यह पित् है। पित् होने के कारण सार्वधातुकमपित् से पि को ङिद्वद्भाव नहीं हुआ। ङित् नहीं होने से श्नसोरल्लोपः से श्नम् के अकार का लोप भी नहीं हुआ, रुनघ्+ मि यथावत् रहा। अट्कुप्वाङनुम्व्यवायेऽपि से नकार को णत्व तथा वर्णसम्मेलन होकर रुणध्मि रूप सिद्ध हुआ। 

रुन्ध्वः । रुध् धातु से लट् लकार, लट् के स्थान पर उत्तम पुरुष द्विवचन का वस् आया, शप् को बाधकर श्नम्, अनुबन्धलोप, रुनध् + वस् हुआ। सार्वधातुकमपित् से वस् में पकार की इत्संज्ञा नहीं होने से यह अपित् है फलतः श्नसोरल्लोपः से न के अकार का लोप होकर रुन्ध् + वस् हुआ। नकार के स्थान पर नश्चापदान्तस्य झलि से अनुस्वार, अनुस्वारस्य यथि परसवर्ण: से परसवर्ण होकर वर्णसम्मेलन तथा सकार को रुत्वविसर्ग करने पर रुन्ध्वः रूप सिद्ध हुआ ।

रुन्ध्मः । रुध् धातु से लट् लकार, लट् के स्थान पर उत्तम पुरुष द्विवचन का मस् आया, शप् को बाधकर श्नम्, अनुबन्धलोप, रुनध् + मस् हुआ। सार्वधातुकमपित् से मस् में पकार की इत्संज्ञा नहीं होने से यह अपित् है फलतः श्नसोरल्लोपः से न के अकार का लोप होकर रुन्ध् + मस् हुआ। नकार के स्थान पर नश्चापदान्तस्य झलि से अनुस्वार, अनुस्वारस्य यथि परसवर्ण: से परसवर्ण होकर वर्णसम्मेलन तथा सकार को रुत्वविसर्ग करने पर रुन्ध्मः रूप सिद्ध हुआ । 

रुन्‍धे, रुन्द्धे रुधिर् धातु में इर इत्संज्ञा वाच्या से इर् की इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप करने पर रुध् शेष बचा। कर्ता अर्थ में लट् के स्थान पर प्रथमपुरुष एकवचन में आत्मनेपदसंज्ञक '' प्रत्यय आया। । तिप् की सार्वधातुकसंज्ञा, कर्तरि शप् से शप् प्राप्त हुआ उसे बाधकर रुधादिभ्यः श्नम् से श्नम् प्रत्यय हुआ। श्नम् प्रत्यय मित्  होने के कारण मिदचोऽन्त्यात्परः परिभाषा के अनुसार रुध् में अन्त्य अच् उ के बाद होगा। रु + श्नम् ध+ त हुआ। श्नम् में शकार तथा मकार का अनुबन्धलोप । रु + न + ध+ त  हुआ । आत्मनेपद में सभी नौ प्रत्यय अपित् है अतः सार्वधातुकमपित् से ङित् ते समान हो जाता है। यहाँ श्नसोरल्लोपः से न के अकार का लोप होकर रुन्ध् + त हुआ। नश्चापदान्तस्य झलि नकार को अनुस्वार हुआ तत्पश्चात् अनुस्वारस्य यथि परसवर्णः से अनुस्वार को पर वर्ण धकार का सवर्ण नकार हो गया। अब झषस्तथोर्धोऽधः से झष् वर्ण ध से परे त प्रत्यय के तकार के स्थान पर धकार आदेश होकर रुन्ध् +ध बना। । झरो झरि सवर्णे से पहले वाले धकार का वैकल्पिक लोप होने पर रुन्+ध बना। रुन्ध में तकारोत्तरवर्ती अन्त्य अच् अकार की अचोऽन्त्यादि टि से टिसंज्ञा हुई और टित आत्मनेपदानां टेरे से उसके स्थान पर एकार आदेश होकर रुन्धे रूप सिद्ध हुआ।  झरो झरि सवर्णे विकल्प से लोप करता है, जिस पक्ष में यह धकार के लोप नहीं करेगा, उस पक्ष में प्रथम धकार को जश्त्व दकार होने पर रुन्द्धे रूप सिद्ध होता है।

अध्यापकों के लिए विशेष- यह द्विकर्मक धातु है। उदाहरण- व्रजं गां रुणद्धि। णत्व के सम्बन्ध में माधवीय धातुवृत्ति तथा के अधोलिखित वाक्य को देखना चाहिए।  अल्लोपस्य अनयोर्नस्थानिवत्त्वं, "नपदान्त'' इत्यादिना निषेधात् णत्वे तु कर्तव्ये परसवर्णस्य पूर्वत्रासिद्धत्वान्न तद्भवति न चानुस्वारात्पूर्वं णत्वप्रसङ्गः तस्यासिद्धत्वात्।

इह कुर्वन्ति, वृषन्ति इत्यत्र णत्वस्य असिद्धत्वात् पूर्वं नकारस्य अनुस्वारः क्रियते। तस्य अपि परसवर्णेन पुनर् नकार एव भवति। तस्य अपि असिद्धत्वात् पुनर् णत्वं न भवति। एवम् अनुस्वारीभूतो णत्वम् अतिक्रामति इति।

६७० तृणह इम्
तृहः श्‍नमि कृते इमागमो हलादौ पिति सार्वधातुके । तृणेढि । तृण्‍ढः । ततर्ह । तर्हिता । अतृणेट् ।।
६७१ श्‍नान्नलोपः
श्‍नमः परस्‍य नस्‍य लोपः स्‍यात् । हिनस्‍ति । जिहिंस । हिंसिता ।।
६७२ तिप्‍यनस्‍तेः
पदान्‍तस्‍य सस्‍य दः स्‍यात्तिपि न त्‍वस्‍तेः । ससजुषोरुरित्‍यस्‍यापवादः । अहिनत्अहिनद् । अहिंस्‍ताम् । अहिंसन् ।।
६७३ सिपि धातो रुर्वा
पदान्‍तस्‍य धातोः सस्‍य रुः स्‍याद्वापक्षे दः । अहिनःअहिनत्अहिनद् ।। उन्‍दी क्‍लेदने ।। १३ ।। उनत्ति । उन्‍तः । उन्‍दन्‍ति । उन्‍दाञ्चकार । औनत्औनद् । औन्‍ताम् । औन्‍दन् । औनःऔनत्औनद् । औनदम् ।। अञ्जू व्‍यक्तिम्रक्षणकान्‍तिगतिषु ।। १४ ।। अनक्ति । अङ्क्तः । अञ्जन्‍ति । आनञ्ज । आनञ्जिथआनङ्क्‍थ । अञ्जिताअङ्क्ता । अङि्ग्‍ध । अनजानि । आनक् ।।
६७४ अञ्जेः सिचि
अञ्जेः सिचो नित्‍यमिट् स्‍यात् । आञ्जीत् ।। तञ्चू संकोचने ।। १५ ।। तनक्ति । तञ्चितातङ्क्ता । ओविजी भयचलनयोः ।। १६ ।। विनक्ति ।। विङ्क्तः । विज इडिति ङित्त्वम् । विविजिथ । विजिता । अविनक् । अविजीत् ।। शिष्‍लृ विशेषणे ।। १७ ।। शिनष्‍टि । शिंष्‍टः । शिंषन्‍ति । शिनिक्ष । शिशेष । शिशेषिथ । शेष्‍टा । शेक्ष्यति । हेर्धिः । शिण्‍डि्ढ । शिनषाणि । अशिनट् । शिंष्‍यात् । शिष्‍यात् । अशिषत् ।। एवं पिष्‍लृ संचूर्णने ।। १८ ।। भञ्जो आमर्दने ।। १९ ।। श्‍नान्नलोपः । भनक्ति । बभञ्जिथबभङ्क्‍थ । भङ्क्ता । भङि्ग्‍ध । अभाङ्क्षीत् ।। भुज पालनाभ्‍यवहारयोः ।। २० ।। भुनक्ति । भोक्ता । भोक्ष्यति । अभुनक् ।।
६७५ भुजोऽनवने
तङानौ स्‍तः । ओदनं भुङ्क्ते । अनवने किम्महीं भुनक्ति ।। ञिइन्‍धी दीप्‍तौ ।। २१ ।। इन्‍द्धे । इन्‍धाते । इन्‍धाताम् । इनधै । ऐन्‍ध । ऐन्‍धताम् । ऐन्‍धाः । विद विचारणे ।। २२ ।। विन्‍ते । वेत्ता ।।
इति रुधादयः ।। ७ ।।

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