३६१ नहो धः
नहो हस्य धः
स्याज्झलि पदान्ते च ।।
सूत्रार्थ - पदान्त
में या झल् परे रहते 'नह्' धातु के हकार को धकार हो।
३६२ नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनिषु क्वौ
क्विबन्तेषु
पूर्वपदस्य दीर्घः । उपानत्, उपानद् । उपानहौ । उपानत्सु ।। क्विन्नन्तत्वात् कुत्वेन घः । उष्णिक्, उष्णिग् । उष्णिहौ । उष्णिग्भ्याम् ।। द्यौः । दिवौ । दिवः । द्युभ्याम्
।। गीः । गिरौ । गिरः ।। एवं पूः ।। चतस्रः । चतसृणाम् ।। का । के । काः ।
सर्वावत् ।।
सूत्रार्थ - क्विप्
प्रत्ययान्त नह्, वृत् वृष् व्यध्, रुच् सह् और तन् धातु परे रहने पर पूर्वपद को दीर्घ हो।
हकारान्त
उपानह् (जूता)। उप नह् धातु से क्विप्
करने पर ही 'उपानह् ' शब्द
बनता है। 'उपानह्' से परे सु, भ्याम्, भिस्, भ्यस्
तथा सुप् प्रत्ययों के आदि वर्ण झल् प्रत्याहार में आते हैं अतः यहाँ नहो धः से
हकार को धकार आदेश होता है।
उपानत्, उपानद् । उपानह् + सु इस अवस्था में सु के
अपृक्त सकार का लोप हो गया। 'नहो ध:' के द्वारा उपानह् के हकार को धकार आदेश होने पर उपानध् बना। झलां जशोऽन्ते
से धकार को जश्त्व दकार होने पर उपानद् बना। 'वाऽवसाने' से दकार को विकल्प से तकार हो गया ।
उपानद् तथा उपानत् ये दोनों रूप सिद्ध हुए।
उपानहौ
। उपानह् + औ में केवल वर्ण सम्मेलन कार्य होता है । अजादि
विभक्तियों में वर्ण सम्मेलन कर रूप बनाते जायें।
उपानत्सु
। उपानह् + सुप् में हकार को धकार आदेश, 'खरि च' से तकार होकर 'उपानत्सु' रूप बना।
क्विन्नन्तत्वात्
इति। उष्णिह् (छन्द:विशेष) उद्
पूर्वक स्निह् से क्विन् होकर 'उष्णिह्' शब्द बना अतः यह क्विनन्त है।
उष्णिक्, उष्णिग् । 'उष्णिह् + सु' इस अवस्था में सु के अपृक्त सकार का लोप हुआ।
पदान्त होने से 'क्विन् प्रत्ययस्य कुः' के द्वारा हकार को कुत्व घकार हो गया। उष्णिघ् बना। अब 'झलां जश्०' के द्वारा घकार को जश्त्व गकार होने
पर उष्णिग् बना। वाऽवसाने' के
द्वारा विकल्प से चर्त्व होने पर उष्णिक् बना। वाऽवसाने के विकल्प पक्ष में
उष्णिग् बनता है। इस प्रकार इसके भी दो रूप बनते हैं।
उष्णिहौ
। अजादि विभक्तियों में केवल
वर्ण सम्मेलन कार्य होता है यथा – उष्णिहौ। यह औ का रूप है।
उष्णिग्भ्याम्। 'उष्णिह् + भ्याम्' में हकार को घकार तथा उसको जश् होकर 'उष्णिग्भ्याम्' रूप बना। इसी तरह हलादि विभक्तियों में हकार को घकार तथा उसको जश् कार्य
करके रूप सिद्ध कर लें।
उष्णिक्षु। उष्णिह् + सुप् में गकार को चर् (ककार)
होने पर सकार को मूर्धन्य होकर 'उष्णिक्षु' रूप होता है।
वकारान्त
शब्द दिव् (आकाश)
द्यौः
। 'दिव् + सु'-'दिव औत्' के द्वारा औत् आदेश होकर दि + औ + स्
बना । दि + औ में यणादेश तथा सकार को विसर्गादि कार्य होकर द्यौः रूप सिद्ध हुआ।
दिवौ, दिव: । दिव् + औ और दिव् + जस् में वर्णसम्मेलन सकार को विसर्गादि कार्य होकर रूप बनते हैं।
द्युभ्याम्। दिव् + भ्याम् में 'दिव उत्-' सूत्र से वकार को उकार आदेश होने पर
दि उ भ्याम् बना। दि उ में 'यण्' होकर द्युभ्याम् रूप बना।
द्युभ्याम्। दिव् + भ्याम् में 'दिव उत्-' सूत्र से वकार को उकार आदेश होने पर
दि उ भ्याम् बना। दि उ में 'यण्' होकर द्युभ्याम् रूप बना।
रकारान्त
शब्द गिर् (वाणी)
गिर्
यह शब्द गृ धातु से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहारलोप, इत्व और रपर होकर बना है।
गी:। गिर् + सु
विभक्ति, सु के सकार का लोप, र्वोरुपधाया दीर्घ इकः से पदान्त में उपधादीर्घ होकर गीर् बना। गीर् के
रेफ को विसर्ग होकर गीः रूप सिद्ध हुआ।
गिरौ गिरः। अजादि के परे वर्णसम्मेलन और
हलादिविभक्ति में रेफ का ऊर्ध्वगमन होकर रूप बनते हैं- गिरौ, गिरः, गिरम्, गिरा,
गिरे, गिरः, गिरोः
गिराम्, गिरि। ।
गीर्भ्याम्, गीर्भिः गीर्भ्यः आदि हलादिविभक्ति के परे रहते पदान्त
में होने के कारण र्वोरुपधाया दीर्घ इकः से दीर्घ होता है।
गीर्षु ।
गिर् + सुप् में रकारान्त उपधा में इकार है, अत: 'वोरूपधाया: ' सूत्र के द्वारा इसे दीर्घ होकर गीर् + सु बना।यहाँ रोः सुपि के नियम से विसर्ग नहीं होता । यहाँ आदेशप्रत्ययोः से रेफ
से परे प्रत्यय के अवयव सकार को षत्व होकर गीर्षु रूप सिद्ध हुआ।
गिर्
शब्द की तरह ही नगर का वाचक पुर् शब्द के भी रूप बनते हैं- पू:, पुरौ, पुरः, पुरम्, पुरा, पूर्भ्याम्, पूर्भिः, पुरे, पूर्भ्यः, पुरः, पुरोः, पुराम्, पुरि, पूर्षु, हे
पू:, हे पुरौ, हे पुरः।
चतस्रः। चार। चतुर् शब्द बहुत्व अर्थ का बोधक
है अतः इसका केवल बहुवचन में ही रूप बनते हैं । चतुर् शब्द को स्त्रीलिङ्ग में
त्रिचतुरो: स्त्रियां तिसृचतसृ से चतसृ आदेश हो जाता है ।
अब
चतसृ शब्द से जस् तथा शस् विभक्ति आयी। अनुबन्धलोप होकर चतसृ + अस् बना । यहाँ पूर्वसवर्णदीर्घ प्राप्त था, जिसे बाधकर चतसृ
के ऋकार के स्थान पर अचि र ऋतः से ऋकार को रेफादेश होकर चतस्+र् + अस् हुआ। वर्णसम्मेलन और रुत्वविसर्ग होकर चतस्रः
रूप सिद्ध हुआ। 'तिसृ' शब्द का रूप भी इसी तरह बनेंगे।
विशेष-
चतसृ
+ अस् इस अवस्था में इको यणचि से यण् करने पर भी चतस्रः सिद्ध हो जाता किन्तु ऋतो
ङिसर्वनामस्थानयोः से सर्वनामस्थान संज्ञक जस् में यण् को बाध करके गुण
प्राप्त हो रहा था, जिससे अनिष्ट रूप बनता।
इसके परिहार के लिए यहाँ अचि र ऋतः से रेफादेश हुआ।
चतसृभिः, चतसृभ्यः । चतुर् शब्द को स्त्रीलिङ्ग में
त्रिचतुरो: स्त्रियां तिसृचतसृ से चतसृ आदेश भिस् और भ्यस् के परे क्रमशः चतसृभिः, चतसृभ्यः ये रूप बनते हैं।
चतसृणाम्
। आम् के परे ह्रस्वान्त
होने के कारण ह्रस्वनद्यापो नुट् से आम् को नुट् का
आगम होकर चतसृणाम् तथा सुप् के परे चतसृषु रूप सिद्ध होते हैं। यहाँ पर 'नामि' से दीर्घ प्राप्त है। उसका 'न तिसृचतसृ' से निषेध हो जाता है।
मकारान्त
शब्द किम् (कौन)
का। किम् शब्द से स्त्रीलिङ्ग में विभक्ति
के परे किमः कः से क आदेश होता है। किम् शब्द से सु विभक्ति के परे क आदेश अर्थात्
अदन्त बन जाने के बाद अजाद्यतष्टाप् से टाप् अनुबन्धलोप, सवर्णदीर्घ होकर का बना।यह 'का' शब्द सर्वनाम है। का + स् में का आबन्त होने के
कारण हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल् से स् का लोप होने पर का रूप सिद्ध
हुआ।
सर्वावत्
इति । किम् शब्द को क आदेश तथा टाप् करने पर यह अजन्त शब्द बन जाता है। अत: इसके
रूप का के काः, काम् के काः, कया काभ्याम् काभिः, कस्यै काभ्याम् काभ्यः, कस्याः काभ्याम् काभ्यः, कस्याः कयोः कासाम्,
कस्याम् कयोः कासु अजन्तस्त्रीलिङ्ग सर्वा शब्द की तरह
बनते हैं।
३६३ यः सौ
इदमो दस्य यः
इयम् । त्यदाद्यत्वम् । पररूपत्वम् । टाप् । दश्चेति मः । इमे । इमाः । इमाम्
। अनया । हलि लोपः । आभ्याम् । आभिः । अस्यै । अस्याः । अनयोः । आसाम् । अस्याम्
। आसु ।। त्यदाद्यत्वम् । टाप् । स्या । त्ये । त्याः ।। एवं तद्, एतद् ।। वाक्, वाग् । वाचौ । वाग्भ्याम् । वाक्षु ।। अप्शब्दो नित्यं बहुवचनान्तः
। अप्तृन्निति दीर्घः । आपः । अपः ।।
सूत्रार्थ - सु परे रहते 'इदम्' शब्द के दकार को यकार हो स्त्रीलिङ्ग के विषय में ।
इयम्। इदम् + सु में त्यदादीनामः के द्वारा मकार को अकार आदेश प्राप्त था, परन्तु 'इदमो मः ' से इसका बाध होकर यः सौ से दकार के स्थान पर यकार आदेश हुआ। इयम् + सु बना। सु के सकार का हल्ङ्याभ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल् से लोप होकर इयम् रूप सिद्ध हुआ।
इमे। इदम् + औ इस अवस्था में त्यदादीनामः के द्वारा मकार को अकार आदेश, इद अ + औ हुआ। पररूप अजाद्यतष्टाप् से टाप्, अनुबन्धलोप, सवर्णदीर्घ करने से इदा + औ बना। अब दश्च से इदा के दकार को मकार, औङ आपः से औकार के स्थान पर शी आदेश, अनुबन्धलोप, इमा + ई हुआ। अकार तथा ईकार में गुण करने पर इमे सिद्ध हुआ।
इमाः। इदम् + जस्, अनुबन्धलोप, अत्व, टाप् मत्व, सवर्णदीर्घ, रुत्वविसर्ग- इमाः।
इमाम्। इदम् + अम्, अत्व, टाप्, मत्व, पूर्वरूप- इमाम्।
इमाः। इदम्-शस्, अनुबन्धलोप, अत्व, टाप्, मत्व, पूर्वसवर्णदीर्घ, रुत्वविसर्ग- इमाः।
अनया। इदम् + टा, अनुबन्धलोप, अत्व, टाप्, इदा- आ। अनाप्यकः से इद्-भाग के स्थान पर अन् आदेश, अना + आ, आङि चाप: से आकार के स्थान पर एकार हुआ, अने + आ बना। एचोऽयवायावः से अने के एकार के स्थान पर अय् आदेश होकर अन् + अय् + आ हुआ। वर्णसम्मेलन करने पर अनया रूप सिद्ध हुआ।
आभ्याम्। इदम् + भ्याम्, अत्व, टाप्, सवर्णदीर्घ, इदा + भ्याम् में हलि लोप: से इद् भाग का लोप, आ+भ्याम्-आभ्याम्। इसी प्रकार आभिः और आभ्यः रूप बनेंगें।
अस्यै। इदम् + ङे, अनुबन्धलोप, अत्व, टाप् आदि करके सर्वनाम्नः स्याङ्ढ्रस्वश्च से स्याट् आगम और ह्रस्व, इद्भाग का लोप करके अ + स्या+ए बना। स्या+ ए में वृद्धिरेचि से वृद्धि अस्यै रूप बना।
अस्याः । इदम् + ङसि और ङस् में भी अनुबन्धलोप, अत्व, टाप् आदि करके सर्वनाम्नः स्याड्ढ्रस्वश्च से स्याट् आगम और ह्रस्व, इद + स्या + अस् बना। इद में इद्भाग का लोप करने पर अ + स्या + अस् बना। सवर्णदीर्घ, सकार को रुत्व विसर्ग करने पर अस्याः रूप बनता है।
अनयोः। इदम् + ओस्, अत्व, टाप, इदा + ओस् हुआ, अनाप्यकः से इद् भाग के स्थान पर अन् आदेश, अन् + अ + आ+ओस् हुआ। आङि चाप: से आकार के स्थान पर एकार अन् + अ + ए + ओस् हुआ। एचोऽयवायावः से एकार को अय् आदेश तथा परस्पर वर्णसम्मेलन, रुत्वविसर्ग करने पर अनयोः रूप बनता है।
आसाम्। इदम् + आम्, अत्व, टाप, इदा + आम् हुआ। आमि सर्वनाम्न: सुट् से सुट् का आगम इदा + सुट् + आम् हुआ, सुट् में उट् भाग का अनुबन्ध लोप करने पर इदा + स् + आम् हुआ, हलि लोपः से इद्भाग का लोप होने पर आ + स् + आम् हुआ। परस्पर वर्णसम्मेलन करने पर आसाम् रूप सिद्ध हुआ।
अस्याम्। इदम् + ङि, ङकार का अनुबन्धलोप, इदम् + इ, इदम् के मकार को अत्व होने पर इद + इ हुआ। टाप्, ङेराम्नद्याप्नीम्भ्यः से ङि को आम् हुआ। इदा + आम् बना। सर्वनाम्नः स्याड्ढ्रस्वश्च से स्याट् आगम और इदा के आकार को ह्रस्व अकार हुआ। इद + स्या + आम् बना। इद में इद्-भाग का लोप, सवर्णदीर्घ करने पर अस्याम् रूप सिद्ध हुआ।
आसु। इदम् + सुप् में इदम् के मकार को अत्व, टाप्, हलि लोपः से इद् भाग का लोप आदि प्रक्रिया पूर्व के समान करने पर आसु रूप सिद्ध हुआ।
विशेष-
इदम् शब्द के द्वितीया विभक्ति, टा और ओस् के परे होने पर द्वितीयाटौस्स्वेनः से एन आदेश होता है। इन विभक्तियों में इदम् को एन आदेश होकर इसके रूप बनते हैं ।
त्यदाद्यत्वम् इति।
त्यद् यद्, तद्, एतद् में भी विभक्ति के आने के बाद त्यदादीनामः से अत्व. अतो गुणे पररूप करके अजाद्यतष्टाप् से टाप्, अनुबन्ध लोप और सवर्णदीर्घ, सर्वनामसंज्ञा करके ये शब्द आबन्त सर्वनाम त्या, या, ता, एता बन जाते हैं। त्या, ता और एता में सु के परे रहते तदोः सः सावनन्त्ययोः से सत्व और एसा में सकार को षत्व भी होता है। अतः स्या त्ये त्याः, या ये या, सा ते ताः, एषा एते एताः इत्यादि रूप बनते हैं।
वाच्-शब्द का अर्थ है वाणी।
वाक्, वाग् । 'वाच् + सु' में 'सु' का हल्ड्यादि लोप, वाच् के पदान्त चकार को 'चो: कु:' से कवर्ग ककार होकर वाक् बना।झलां जशोऽन्ते से ककार को जश्त्व से गकार हुआ तथा इस गकार को 'वाऽवसाने' से विकल्प से चर् होने पर वाक् वाग् दो रूप सिद्ध होते हैं।
विशेष-
चकारान्त स्त्रीलिङ्ग वाच् से सु आदि विभक्तियों के आने के बाद अजादिविभक्ति के परे रहने पर तो केवल वर्णसम्मेलन ही होगा किन्तु हलादिविभक्ति के परे वाच् की पदसंज्ञा और चकार के स्थान पर चोः कुः से कुत्व करके स्थानी में प्रथम चकार के स्थान पर आदेश में प्रथम ककार आदेश होता है।
वाग्भ्याम्, वाग्भ्यः । वाच् से चो: कु: से कुत्व होकर वाक् बनने के बाद झलां जशोऽन्ते से जश्त्व करके गकार आदेश हुआ। वाग्भ्याम्, वाग्भ्यः रूप सिद्ध हुआ। हलादि विभक्तियों में इसी प्रकार कुत्व तथा जश्त्व कार्य होंगे। सकार का हल्ड्यादि लोप होने के बाद अवसान के परे रहने पर वाऽवसाने से विकल्प से चत्त्व होकर एक पक्ष में ककारान्त और एक पक्ष में गकारान्त रूप बनेंगे।
वाक्षु। वाच् + सुप् में जश्त्व और कुत्व होने पर गकार को 'खरि च' से चर्त्व होकर वाक् + सु सकार को 'आदेशप्रत्यययो: ' सूत्र से मूर्धन्य षकार हुआ। क् ष का संयोग होने पर वाक्षु रूप सिद्ध हुआ।
अप्शब्दो नित्यं बहुवचनान्तः इति।
अप् शब्द
नित्य बहुवचनान्त है।
आपः। 'अप् + जस्'-यहाँ 'अप्तन्तृच्०' के द्वारा उपधा को दीर्घ हो गया। 'आप् + जस्' बना। जस् में जकार का अनुबन्ध लोप, सकार को विसर्गादि कार्य हो कर आप: बन गया।
अपः। 'अप् + शस्'- में 'अप्तन्तृच्०' के द्वारा उपधा दीर्घ नहीं होगा। शेष प्रक्रिया आपः के समान होगी।
३६४ अपो भि
अपस्तकारो
भादौ प्रत्यये । अिद्भः । अद्भ्यः । अद्भ्यः । अपाम् । अप्सु ।। दिक्, दिश् । दिशौ । दिशः । दिग्भ्याम् ।।
त्यदादिष्विति दृशेः िक्वन्विधानादन्यत्रापि कुत्वम् । दृक्, दृग् । दृशौ । दृग्भ्याम् ।। त्विट्, त्विड्
। त्विषौ । त्विड्भ्याम् ।। ससजुषो रुरिति रुत्वम् । सजूः । सजुषौ । सजूभ्र्याम्
।। आशीः । आशिषौ । आशीभ्र्याम् ।। असौ । उत्वमत्वे । अमू । अमूः । अमुया ।
अमूभ्याम् ३ । अमूभिः । अमुष्यै । अमूभ्यः २ । अमुष्याः । अमुयोः २ । अमूषाम्
। अमुष्याम् । अमूषु ।।
सूत्रार्थ - भकारादि प्रत्यय परे रहते 'अप्' शब्द को तकार (अन्तादेश) हो।
अपः यह षष्ठी का है अतः अलोन्त्य परिभाषा के बल पर अंतिम अल् के स्थान पर तकार (अन्तादेश) होता है।
अद्भि: । 'अप् + भिस्' में अपो भि सूत्र के द्वारा पकार के स्थान पर तकार अन्त आदेश हो गया। अर्थात् पकार के स्थान पर पकार हो गया। अत् + भिस् बना। अब अत् के तकार को झलां जशोऽन्ते से अत् के तकार को जश्त्व होकर दकार होकर अद्भिस् हुआ। सकार को रूत्वविसर्ग करने पर अद्भिः सिद्ध हुआ।
शकारान्त शब्द दिश् (दिशा) यह शब्द क्विन् प्रत्ययान्त है। अतः तादृश् (पूँल्लिङ्ग) की तरह क्रिया होगी।
दिक्, दिग्। अप्तन्तृच्स्वसृनप्तनेष्टृत्वष्टृक्षतृहोतृपोतृप्रशास्तृणाम् से क्विन् प्रत्ययान्त दिश् शब्द का निपातन हुआ है। दिश् शब्द शकारान्त होने के कारण व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजश्छषां षः से शकार को षत्व और षकार के स्थान पर झलां जशोऽन्ते से जश्त्व होकर डकार होकर दिड् बना। दिश् शब्द में क्विन् प्रत्यय होने के कारण सु और हलादिविभक्ति के परे क्विन्प्रत्ययस्य कुः से डकार के स्थान पर कुत्व होकर गकार और वैकल्पिक चर्त्त्व होकर दिक्, दिग् ये दो रूप सिद्ध होते हैं। अजादि विभक्ति के परे होने पर शकार का वर्णसम्मेलन होगा और हलादिविभक्ति के परे षत्व, डत्व, कुत्व होकर दिशौ, दिशः, दिशम्, दिशा, दिग्भ्याम्, दिग्भिः दिशे, दिग्भ्यः, दिश:, दिशो:, दिशाम्, दिशि, दिक्षु आदि रूप बनेंगे।
त्यदिति- त्यद् आदि उपपद रहते दृश् धातु से क्विन् का विधान किया गया है। अत: अन्यत्र (त्यद् आदि उपपद न रहने पर ) भी कुत्व हो जाता है। त्यद् आदि के रूप भी तादृश् (पूँल्लिङ्ग) की तरह होंगे।
षकारान्त त्विष् शब्द (कान्ति)
त्विड्, त्विट्। त्विष् + सु में सु में उकार का अनुबन्ध लोप, 'झलां जशोऽन्ते' से षकार को जश्त्व डकार हुआ।'वाऽवसाने' के द्वारा विकल्प से चर् हुआ। त्विट् + स् में अपृक्त हल् का लोप हो गया। त्विड्, त्विट् रूप सिद्ध हुआ।
सजुष् (मित्र) शब्द
ससजुषोरिति- सजूः। सजुष् + सु विभक्ति, सु के उकार का अनुबन्ध लोप, सकार का हल्ङ्यादि लोप करने पर सजुष् बना। ससजुषो रु: से सजुष् के षकार को रू आदेश, अनुबन्धलोप, सजुर् बना। र्वोरुपधाया दीर्घ इकः से सजुष् के उपधा उकार को दीर्घ होकर सजूर् बना। रेफ का विसर्ग करने पर सजूः रूप सिद्ध हुआ।
अजादि विभक्तियों में वर्णसम्मेलन और हलादिविभक्ति में पूर्ववत् रुत्व और दीर्घ होकर सजुषौ, सजुष:, सजुषम्, सजुषा, सजूर्भ्याम् सजूर्भि:, सजुषे, सजूर्भ्यः, सजुष:, सजुषो:, सजुषाम्, सजुषि आदि रूप सिद्ध होते हैं।सजूष्षु । 'सजुष् + सुप्' इस अवस्था में 'रु' आदेश सजु + रु + सु बना। उपधादीर्घ स जू र् सु तथा विसर्ग होकर 'सजू: + सु' बना। अब सजूः के विसर्ग को विसर्जनीयस्य सः से सकार प्राप्त हुआ। 'वा शरि' के द्वारा विकल्प से विसर्ग हुआ। विसर्गपक्ष में 'सजू: षु' रूप बना। पक्ष में पूर्व सकार को षुत्व होकर 'सजूष्षु' रूप बना।
आशिष् शब्द (आशीर्वाद)
आशी: । आशिष् + सु' में सु का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा के पहले शासिवसिघसीनां च से किये गये षत्व ससजुषो रु: की दृष्टि में असिद्ध होने के कारण ससजुषो रु: से रुत्व करके आशिर् बना। र्वोरुपधाया दीर्घ इकः से दीर्घ तथा रेफ का विसर्ग विसर्गादि कार्य होकर आशी: बना। ।
आशीर्भ्याम्। आशिष् + भ्याम्'-यहाँ पूर्ववत् 'रु' आदेश तथा उपधा दीर्घ होकर 'आशीर्भ्याम्' बना। इसी तरह हलादि विभक्तियों में दीर्घ कार्य होगा।
असौ। अदस् शब्द से पुँल्लिङ्ग की तरह स्त्रीलिङ्ग में 'अदस् + सु'- इस स्थिति में अदस औ सुलोपश्च से 'सु' को 'औ' आदेश तथा सु का लोप हो गया। अद + औ बना। 'तदोः सः साव०' से दकार को सकार और वृद्धि होकर 'असौ' बना।
विशेष- स्त्रीलिङ्ग में 'सु' को छोडकर शेष विभक्तियों में त्यदाद्यत्व तथा पररूप होकर टाप् होता है
अमू। अदस् + औ में त्यदाद्यत्व, पररूप, टाप्, सवर्णदीर्घ करके अदा+औ बना। औङ आपः से औ के स्थान पर शी
आदेश होकर गुण करके अदे बना। अदसोऽसेर्दाद दो मः से ऊकार और मकार आदेश होकर अमू
सिद्ध हुआ।
अमूः। जस् और शस् में अत्व, पररूप, टाप्, पूर्वसवर्णदीर्घ करके अदा अस् बना। पूर्व सवर्णदीर्घ होकर अदास् बना। अदसोऽसेर्दादु दो मः से ऊत्व और मत्व होकर तथा सकार को रुत्व और विसर्ग होकर अमू: सिद्ध हुआ।
अमुया । अदस् + टा'-यहाँ पूर्ववत् कार्य होकर 'अदा आ' ऐसा बन गया । तब 'आङि चाप:' के द्वारा एकार आदेश अथा 'एचोऽय०' के द्वारा अय् आदेश होकर 'अदया' बन गया । इसे मुत्व करने पर 'अमुया' बन गया।
अमूभिः। भिस् में
अदाभिः'
होकर मुत्व भाव हो गया। अमूभिः रूप बना ।
अमुष्यै। 'ङे' में अत्व, पररूप, टाप्, पूर्वसवर्णदीर्घ करके 'अदा + ङे' इस स्थिति में सर्वनाम्न: स्या. से स्याट् आगम तथा ह्रस्व हो गया। अद स्याट् ए। वृद्धिरेचि से वृद्धि , मुत्व भाव तथा मूर्द्धन्य आदेश होकर 'अमुष्यै' रूप बना।
अमूभ्यः । अदा भ्यस्'-यहाँ मुत्व होकर 'अमूभ्यः' बना।
अमुष्या: । ङसि तथा डस्
में स्याट्, ह्रस्व,
सवर्ण दीर्घ तथा मुत्व होकर 'अमुष्या: ' रूप बना।
अमुयोः। अदस् ओस्-अद अ टाप् ओस्-अदा ओस्- आङि चाप: से एत्व अदे ओस् -अदयो:- अमुयोः।
अमूषाम् । 'आम्' में आमि सर्वनाम्न: सुट् से सुट् आगम , मुत्व तथा मूर्धन्य होकर 'अमूषाम्' बन गया।
अमूषु । सुप् में अदा सु'-इस स्थिति में मुत्व तथा मूर्धन्य आदेश होकर 'अमूषु' बना।
इति हलन्तस्त्रीलिङ्गाः ।
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