पत्रकारिता लोकतंत्र का
चतुर्थ स्तम्भ माना जाता है। पत्रकार समसमयिक विषयों पर अपनी बेवाक राय रखते हैं। पत्रकारिता द्वारा जनता की समस्या और जनता की सोच को जनता के समक्ष
रखकर, उन्हें जागरूक किया जाता है। आज की पत्रकारिता में राजनीति,
खेल-कूद, प्राकृतिक आपदा, सामाजिक तथा राजनैतिक समस्याएं,
आध्यात्म, ज्योतिष, मनोरंजन, खान-पान, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से जुड़े मुद्दे समाहित हैं। स्थानीय
पत्रकारिता से लेकर वैश्विक पत्रकारिता तक के लिए अनेक जनसंचार के माध्यम उपयोग
में लाये जा रहे है।
संस्कृत पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन दैनिक,साप्ताहिक,मासिक,द्वैमासिक,त्रैमासिक,षाण्मासिक एवं वार्षिक होते हैं। मैंने अपने इसी ब्लाग पर आवधिकता के क्रम पर आधारित पत्र पत्रिकाओं की सूची प्रकाशित की है,जिसे संस्कृत पत्रिकाओं के नाम एवं पता लिंक पर पढा जा सकता है।
सम्भाषणसंदेश, सत्यानन्दम् जैसे कुछ पत्रिकाओं को छोड अधिकांश पत्रिकायें समय पर प्रकाशित नहीं होती। पत्रिकाओं का संयुक्त अंक प्रकाशित होना आम चलन में है। कई सम्पादक पत्रिकाओं के अग्रिम अंक मुद्रित कराकर रख लेते हैं। वस्तुतः इस प्रकार की पत्रिकायें पुस्तक का ही दूसरा स्वरुप है। अधिकांश सस्कृत पत्रिकाओं में सूचनाओं का अभाव रहता है। यहाँ शोधपत्रिकायें अधिक मात्रा में प्रकाशित होती है। इस प्रकार की पत्रिका के प्रकाशक पुस्तक और पत्रिका में अन्तर नहीं समझते। पत्रिका के प्रकाशन में चार महत्वपूर्ण स्कन्ध हैं। 1. समाचारों का संकलन, विज्ञापन का संकलन 2. पत्रिका का मुद्रण 3. वितरण 4. ग्राहक बनाना। चुंकि संस्कृत पत्रिका के सम्पादकों/ प्रकाशकों के पास टीम नहीं होता और इनके पास पर्याप्त धन नहीं होते अतः दैनिक समाचार पत्रों की भांति समाचार संकलन के लिए पत्रकारों की नियुक्ति नहीं करते। यहाँ व्यावसायिक लेखन भी नहीं होता। यदि मैं यह कहूँ कि संस्कृत समाज प्रतिस्पस्द्धी समाज नहीं है तो कोई हानि नहीं है। प्रतिस्पर्धी न होने से इस क्षेत्र में न तो रोजगार का सृजन हो पाता है और न हीं पत्रिका के ग्राहकों की संख्या बढती है। आज का मिडिया विज्ञापन लाने के लिए एजेन्सियों की स्थापना किये है। कुछ सरकारी पत्रिकायें भी निकलती है परन्तु वह स्वायत्त नहीं है। अतः उनमें पत्रकारिता की धार नहीं होती। संस्कृत का क्षेत्र जज्वे से भरे लोगों के दम पर जिन्दा है। वाक् , संस्कृतवाणी जैसी श्रेष्ठ पत्रिका संस्कृत प्रेम का प्रतीक है। संस्कृत पत्रिका के समक्ष सबसे बडा संकट विज्ञापन जुटाने का है। संस्कृत के लिए काम करने वाली संस्थायें भी इन पत्रिकाओं में विज्ञापन देने में कंजूसी करती है। वितरण डाक के सहारे है। एक चौथायी पत्रिका डाक घरों में ही लुप्त हो जाती है। डाक द्वारा न्यनूतम दर पर पत्रिका को भेजने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि असंगठित समूह इसका लाभ नहीं ले पाता। ग्राहक बनाने के लिए कमीशन एजेंट की नियुक्ति करने से सम्भव है कि पत्रिका हर स्कूल, गाँव, मुहल्ले तक पहुँचे।
संस्कृत पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन दैनिक,साप्ताहिक,मासिक,द्वैमासिक,त्रैमासिक,षाण्मासिक एवं वार्षिक होते हैं। मैंने अपने इसी ब्लाग पर आवधिकता के क्रम पर आधारित पत्र पत्रिकाओं की सूची प्रकाशित की है,जिसे संस्कृत पत्रिकाओं के नाम एवं पता लिंक पर पढा जा सकता है।
सम्भाषणसंदेश, सत्यानन्दम् जैसे कुछ पत्रिकाओं को छोड अधिकांश पत्रिकायें समय पर प्रकाशित नहीं होती। पत्रिकाओं का संयुक्त अंक प्रकाशित होना आम चलन में है। कई सम्पादक पत्रिकाओं के अग्रिम अंक मुद्रित कराकर रख लेते हैं। वस्तुतः इस प्रकार की पत्रिकायें पुस्तक का ही दूसरा स्वरुप है। अधिकांश सस्कृत पत्रिकाओं में सूचनाओं का अभाव रहता है। यहाँ शोधपत्रिकायें अधिक मात्रा में प्रकाशित होती है। इस प्रकार की पत्रिका के प्रकाशक पुस्तक और पत्रिका में अन्तर नहीं समझते। पत्रिका के प्रकाशन में चार महत्वपूर्ण स्कन्ध हैं। 1. समाचारों का संकलन, विज्ञापन का संकलन 2. पत्रिका का मुद्रण 3. वितरण 4. ग्राहक बनाना। चुंकि संस्कृत पत्रिका के सम्पादकों/ प्रकाशकों के पास टीम नहीं होता और इनके पास पर्याप्त धन नहीं होते अतः दैनिक समाचार पत्रों की भांति समाचार संकलन के लिए पत्रकारों की नियुक्ति नहीं करते। यहाँ व्यावसायिक लेखन भी नहीं होता। यदि मैं यह कहूँ कि संस्कृत समाज प्रतिस्पस्द्धी समाज नहीं है तो कोई हानि नहीं है। प्रतिस्पर्धी न होने से इस क्षेत्र में न तो रोजगार का सृजन हो पाता है और न हीं पत्रिका के ग्राहकों की संख्या बढती है। आज का मिडिया विज्ञापन लाने के लिए एजेन्सियों की स्थापना किये है। कुछ सरकारी पत्रिकायें भी निकलती है परन्तु वह स्वायत्त नहीं है। अतः उनमें पत्रकारिता की धार नहीं होती। संस्कृत का क्षेत्र जज्वे से भरे लोगों के दम पर जिन्दा है। वाक् , संस्कृतवाणी जैसी श्रेष्ठ पत्रिका संस्कृत प्रेम का प्रतीक है। संस्कृत पत्रिका के समक्ष सबसे बडा संकट विज्ञापन जुटाने का है। संस्कृत के लिए काम करने वाली संस्थायें भी इन पत्रिकाओं में विज्ञापन देने में कंजूसी करती है। वितरण डाक के सहारे है। एक चौथायी पत्रिका डाक घरों में ही लुप्त हो जाती है। डाक द्वारा न्यनूतम दर पर पत्रिका को भेजने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि असंगठित समूह इसका लाभ नहीं ले पाता। ग्राहक बनाने के लिए कमीशन एजेंट की नियुक्ति करने से सम्भव है कि पत्रिका हर स्कूल, गाँव, मुहल्ले तक पहुँचे।
संस्कृत पत्रकारिता के समझ सबसे बड़ी चुनौती भाषा का ज्ञान,
इच्छा शक्ति, पहुंच, आर्थिक संसाधन तथा संगठित कार्य है।
संस्कृत के दैनिक पत्र जब तक एक स्थान से प्रकाशित होकर
पाठक के सम्मुख पहुंचता है, तब तक समाचार गत वयस्क हो जाता है। कारण यह है कि
संस्कृत के पत्र-पत्रिकाओं के पाठक कम-कम मात्रा में देश के विविध भू-भाग में फैले
हुए हैं। एक ही स्थान पर बहुसंख्यक पाठक मिलने तथा समय से उन तक पत्रिका के
पहुंचने पर इसके ग्राहक संख्या में वृद्धि आ सकती है। पत्र-पत्रिका में भी
स्थायित्व लाया जा सकता है। दूर-दूर तथा कम मात्रा में पाठकों के फैले होने के कारण
संस्कृत में अधिकांशतः साहित्यिक पत्रकारिता होती है। ज्योतिष,
साहित्य आदि विषय आधारित पत्रिका समय सापेक्ष नहीं होते।
इन्टरनेट के आ जाने से संस्कृत के अनेक रेडियो चैनल,
बेवसाइट पर संस्कृत वार्ता दृश्य श्रव्य माध्यम से प्रसारित
होने लगी है। इसकी या तो आम लोगों को जानकारी नहीं होती या जानकारी होने पर भी
अपेक्षित रूचि का अभाव होता है। व्यवहारिक भाषा के रूप में लोग हिन्दी,
पंजाबी, मराठी, बंगला, तमिल, आदि का प्रयोग किया जाता है। संस्कृत केवल पाठ्यक्रम की
पुस्तक तक सीमित होती है। व्यावहारिक भाष श्रम नही करना चाहते। महाविद्यालयों में
भी संस्कृत को अध्ययन तथा बोलचाल में सम्मिलित नहीं किया जाता। परिणामतः आजन्म लोग
संस्कृत से दूर ही रहते हैं। संस्कृत के लिए रूचि उत्पादन करना ही पड़ेगा। तभी
संस्कृत पत्रिका की ओर छात्रों, अध्यापकों एवं संस्कृत जिज्ञासुओं का रूझान बढ़ पाएगा।
एक छात्रा को मैंने संस्कृत पत्रिका की ग्राहकता लेने हेतु आग्रह
किया उसने जबाव दिया, मैं पत्रिका तो खरीदती हूं पर पढ़ती नहीं। संस्कृत के
अध्यापकों के बीच एक बार सर्वे करने पर ज्ञात हुआ कि संस्कृत के कुछ ही नौकरीपेशा लोग पत्रिका खरीदते हैं। यहां कठिन श्रम कर रोजगार उत्पादन का अभ्यास नहीं
है। रेल यात्रा में एक महिला ने मुझसे कहा। मैं शिक्षा के बाद कार्यालय में काम
करने वाले के लिए यात्रा कार्यक्रम का व्यवसाय शुरू की। हर रोज कार्यालय तथा
विद्यालय जाकर पता करती हूं कि कौन पर्यटन करने को उत्सुक हैं। उनके लिए टिकट से
लेकर आवास, गाइड तक का प्रबंध मैं कर उनकी यात्रा का सुलभ प्रबंध करती हूं।
संस्कृत पढ़े कोई भी वेरोजगार संस्कृत पत्रिका की ग्राहकता,
आपूर्ति का रोजगार के लिए संगठित व्यवसाय नहीं किया जाता।
कुछ लोग मिलकर विज्ञापन, प्रकाशन, वितरण, ग्राहकता बढ़ाने जैसे काम नहीं कर रहे। यहां पर्याप्त मात्रा
में पूंजी निवेश नही है।
इक्के-दुक्के असंगठित लोग उत्साह में आकर एक पत्रिका
निकालना आरंभ करते हैं। निश्चित धनागम के अभाव से कुछ दिनों बाद पत्रिका बंद हो
जाती है।
संस्कृत पत्र-पत्रिकारिता का फलक विस्तृत होता जा रहा है।
इसके लिए पाठ्यक्रम भी शुरू कर दिये गये हैं। आवश्यकता है विद्यालय स्तर से
छात्रों में पत्रिका पढ़ने की अभ्यास डालने की। क्या कारण है कि माध्यमिक कक्षाओं
में संस्कृत के लाखों छात्र हैं परन्तु वे पत्रिकाओं का ग्राहक नहीं बन पाते।
मिलकर संगठित रूप से इसे जब तक प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाया नहीं जाएगा। संस्कृत
पत्रिका का भविष्य यथावत् बना रहेंगा।
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आप के लेख पत्रकारिता के छात्रों के लिए रामबाण साबित हो रहे हैं।
जवाब देंहटाएंआपको तहेदिल से धन्यवाद।