‘सिद्धान्तबिन्दु’ आचार्य
मधुसूदन सरस्वती रचित है। आचार्य शंकर विरचित दशश्लोकी की व्याख्या होने पर भी सिद्धान्तबिन्दु
आचार्य मधुसूदन की अतिगंभीर रचना होने से स्वतन्त्र ग्रन्थ की तरह है। आचार्य मधुसूदन
सरस्वती षोडश शताब्दी में विद्यमान थे। इनके आशीर्वाद से सम्राट अकबर को पुत्र की प्राप्ति हुई थी यह प्रसिद्ध घटना है, अतः आचार्य की रचना सिद्धान्तबिन्दु
मुगलकालीन सिद्ध होती है। अद्वैत वेदान्त प्रतिपादित प्रमेय का अत्यन्त सुन्दर विवेचन
आचार्य ने सिद्धान्तबिन्दु में किया है। नव्यन्याय के विकसित युक्तियों से आचार्य के
द्वारा अद्वैत वेदान्त के प्रमेयों का प्रतिपादन किये जाने पर भी इस ग्रन्थ में सरल
भाषा का प्रयोग हुआ है,
साथ ही यह प्रमेय प्रतिपादन में गंभीर भी है।
व्यास के
द्वारा विरचित ब्रह्मसूत्र को
शारीरक मीमांसासूत्र भी कहा जाता है। ‘शरीरे निवसति
(अभिमानं करोति) इति शारीरः,
शारीर एव इति शारीरकः जीवः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जीव
के स्वरूप की मीमांसा करने के लिए ही व्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना की है। ब्रह्मसूत्र
में जीव के स्वरूप की मीमांसा करते हुए उसकी ब्रह्म स्वरूपता या ब्रह्मऽभिन्नता का
प्रतिपादन किया गया है। सिद्धान्तबिन्दु में भी शारीरक जीव के स्वरूप की मीमांसा करते
हुए उसकी ब्रह्माऽभिन्नता का प्रतिपादन किया गया है।
एक जीववाद को
आचार्यों ने अद्वैत वेदान्त के प्रमुख सिद्धान्त के रूप में
स्वीकार किया है। इनके अनुसार अज्ञान अज्ञान से उपहित बिम्बचैतन्य ईश्वर है एवं अज्ञान
में प्रतिबिम्बित चैतन्य जीव है। अथवा अज्ञानोपाधिरहित शुद्धचैतन्य ईश्वर है एवं अज्ञानोपहित
चैतन्य जीव है। आचार्य मधुसूदन सरस्वती के शब्दों में- ‘‘अज्ञानोपहितं
बिम्बचैतन्यमीश्वरः,
अज्ञानप्रतिबिम्बितं चैतन्यं जीवः इति वा; अज्ञानानुपहितं
शुद्धं चैतन्यमीश्वरः,
अज्ञानोपहितं च जीव इति।’’
इस सिद्धान्त
के अनुसार अविद्या रूप उपाधि के एक होने से उसमें अभिव्यक्त चैतन्य (जीव) भी एक है।
यही एक जीववाद है। यह एक ही जीव मुख्य या यथार्थ है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी दृश्यमान
वस्तुएँ जीव कल्पित हैं। एकजीववाद पक्ष में जीव ही अज्ञान से युक्त होकर जगत् का उपादान
और निमित्तकारण है। जिस प्रकार स्वप्नावस्था में प्रतीयमान गज, तुरगादि
वस्तुएँ उस स्वप्नस्थ व्यक्ति के द्वारा कल्पित होती है, उनकी कोई
यथार्थ सत्ता नहीं होती है,
जब तक व्यक्ति स्वप्न देखता है तभी तक उनकी प्रतीति होती है।
वैसे ही यह सम्पूर्ण जगत् जीव के द्वारा कल्पित है, इसकी यथार्थ सत्ता नहीं है, ये सभी
प्रातिभासिक हैं,
जब तक जीव इनका द्रष्टा है तभी तक इनकी प्रतीति होती है। यही
दृष्टिसृष्टिवाद है। दृष्टिसृष्टिवाद के अनुसार- दृष्टि ही सृष्टि है। अर्थात् जीव
देख रहा है यही सृष्टि है। ऐसा नहीं कि जीव अनुभव नहीं कर रहा है फिर भी जगत् अस्तित्व
में है। जीव की अनुभूति के समय ही जगत अस्तित्व में आता है। आचार्य मधुसूदन सरस्वती
के शब्दों में-‘‘इममेव च दृष्टिसृष्टिवादमाचक्षते। अस्मिंश्च पक्ष्¨ जीव एव
स्वाज्ञान- वशाज्जगदुपादानं निमित्तं च। दृश्यं च सर्वं प्रातीतिकम्।’’
यहाँ पर
शंका ह¨ती है कि अविद्योपहित चैतन्य को
जीव मानने पर अविद्या के परिणाम घटादि विषयों का जीव के सदैव ज्ञान होने का प्रस¯
प्राप्त होगा?
इसका समाधान करते हुए एकजीववादी कहते हैं कि जीव की उपाधि अविद्या
का परिणाम होने पर भी घटादि विषय का सदैव प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि मूलाविद्या’ का कार्य
तुलाविद्या’’ से घटादि आवृत्त रहते हैं,
जिससे घटादि का भान सदैव नहीं हेता। इसी शंका को धर्मराज ध्वरीन्द्र में भी उठाया है और समाधान किया है- ‘अविद्योपहितचैतन्यस्य
जीवत्वपक्षे
घटाद्यधिष्ठानं चैतन्यस्य जीवरूपतया जीवस्य सर्वदा घटादि भानप्रसक्तौ घटाद्यवच्छिन्न चैतन्यस्यावरकमज्ञानं मूलाविद्या परतन्त्र्मवस्था- पदवाच्यमभ्युपगन्तव्यम्।
एवं सति घटादेर्न सर्वदा भान प्रसः।
वहीं जब
चक्षुरादीन्द्रियों के माध्यम से अन्तःकरण का घटादि विषयों के आकार में परिणाम होता
है (वृत्ति बनती है) और उसमें चैतन्य प्रतिबिम्बित होता है, जिससे घटादि
विषयक तुलाविद्या (असत्वापादक अज्ञान और अभानापादक अज्ञान) की निवृत्ति होती है फलस्वरूप
घटादि विषयों से अविच्छिन्न चैतन्य के अनावृत होने पर घटादि विषयों का प्रकाश होता
है अतः घटादि के सर्वदा भान की आपत्ति नहीं है।
एक जीववाद
के ऊपर सबसे बड़ी शंका यह उठती है कि यदि एक ही जीव है त¨ एक जीव
के मुक्त ह¨ जाने पर सभी मुक्त ह¨
जायेंगे एवं इस सृष्टि की प्रतीति भी नहीं होगी? परन्तु
शास्त्रों में ‘शुकोमुक्तः,
वामदेव¨मुक्तः’ आदि अनेक ब्रह्मज्ञानियों के मुक्त ह¨ने की बात कही गयी है,
तथा जगत् की प्रतीति ह¨ रही है यह कैसे संभव है? इस शंका
का समाधान करते हुए एक जीववादी कहते हैं कि यथार्थतः जीव एक ही है, और वह स्वयं
अपने द्वारा कल्पित गुरु और शास्त्रों द्वारा श्रवण-मनन की दृढ़ता से आत्मसाक्षात्कार
होने पर मोक्ष प्राप्त करता है,
मुक्त हो
जाता है। एक जीव के मुक्त होने पर सभी मुक्त हो जाएँगे, ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि एक जीव के अतिरिक्त अन्य जीव है ही नहीं।
और जहाँ तक शुकादि ब्रह्मवेत्ताओं की मुक्ति का वर्णन शास्त्रों में प्राप्त होता है
ये सभी अर्थवाद है। आचार्य मधुसूदन सरस्वती के शब्दों में-‘‘देहभेदाच्च जीवभेदभ्रान्तिः। एकस्यैव च स्वकल्पित गुरुशास्त्र्द्युपबृंहितश्रवण-
मननादिदाढ्र्यादात्मसाक्षात्कारे सति मोक्षः। शुकादीनां मोक्षश्रवणं चार्थवादः।’’
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