शिव स्तोत्र

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शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम्


नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय॥१॥

मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै मकाराय नमः शिवाय॥२॥

शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द- सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिकाराय नमः शिवाय॥३॥

वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य- मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै वकाराय नमः शिवाय॥४॥

यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नमः शिवाय॥५॥

पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

शिवताण्डवस्तोत्रम्

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥१॥
                  (श्लोक संख्या १ किसी किसी पाठ में नहीं मिलता है )
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे(क्वचिच्चिदम्बरे) मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥३॥

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि॥४॥

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥५॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदे शिरो जटालमस्तु नः॥६॥

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम॥७॥

नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्-
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः॥८॥

प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा (च्छटा)-
विडम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
(विडम्बिकण्ठकन्धरारुचिप्रबद्धकन्धरम्।)
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे॥९॥

अखर्व- सर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे॥१०॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित- प्रचण्डताण्डवः शिवः॥११॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्-
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम्॥१२॥
(समं प्रवर्तयन्मयः कदा सदाशिवं भजे॥१२॥)

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्॥१३॥

निलिम्प-नाथनागरी-कदम्ब-मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म-धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदङ्गजत्विषां चयः॥१४॥

प्रचण्ड-वाडवानल-प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत-जल्पना।
विमुक्त-वाम-लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्॥१५॥
             (श्लोक संख्या १४ तथा १५  किसी किसी पाठ में नहीं मिलता है )
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम्॥१६॥

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः॥१७॥
इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्

लिङ्गाष्टकम्

ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गं निर्मलभासितशोभितलिङ्गम् ।
जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥१॥

देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गं कामदहं करुणाकरलिङ्गम् ।
रावणदर्पविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥२॥

सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गं बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥३॥

कनकमहामणिभूषितलिङ्गं फणिपतिवेष्टितशोभितलिङ्गम् ।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥४॥

कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गं पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम् ।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥५॥

देवगणार्चितसेवितलिङ्गं भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम् ।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥६॥

अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गं सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम् ।
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥७॥

सुरगुरुसुरवरपूजितलिङ्गं सुरवनपुष्पसदार्चितलिङ्गम् ।
परात्परं परमात्मकलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥८॥

श्रीविश्वनाथाष्टकम्

गङ्गातरङ्ग-रमणीयजटाकलापं गौरीनिरन्तर-विभूषितवामभागं ।
नारायणप्रियमनङ्ग-मदापहारं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥1।।

वाचामगोचरमनेक-गुणस्वरूपं वागीशविष्णु-सुरसेवित-पादपीठम्
वामेन विग्रहवरेण कलत्रवन्तं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥2।।

भूताधिपं भुजगभूषणभूषिताङ्गं व्याघ्राञ्जिनामबरधरं जटिलं त्रिनेत्रं
पाशाङ्कुशाभय-वरप्रद-शूलपाणिं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥3।।

शीतांशु-शोभित-किरीटविराजमानं भालेक्षणालन-विशोषित-पञ्चबाणं
नागाधिपा-रचितभासुर-कर्णपूरं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥4।।

पञ्चाननं दुरितमत्तमतङ्गजानां  नागान्तकं दनुज-पुङ्गव-पन्नागानां
दावानलं मरण-शोक-जराटवीनां वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥5।।

तेजोमयं सगुण-निर्गुणमद्वितीयं आनन्द-कन्दमपराजित-मप्रमेयं
नागात्मकं सकल-निष्कलमात्मरूपं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥6।।

आशां विहाय परिहृत्य परस्य निन्दां पापे रतिं च सुनिवार्य-मनः समाधौ
आदाय हृत्-कमलमध्यगतं परेशं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥7।।

रागादि दोषरहितं स्वजनानुरागं वैराग्यशान्ति-निलयं गिरिजासहायं
माधुर्य-धैर्य-सुभगं गरलाभिरामं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥8।।

वाराणसी पुरपते स्तवनं शिवस्य व्याख्यातमष्टकमिदं पठते मनुष्यः
विद्यां श्रियं विपुल-सौख्यमनन्त-कीर्तिं सम्प्राप्य देवनिलये लभते च मोक्षम् ॥

चन्द्रशेखराष्टकम्

चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम् ।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ १॥

रत्नसानुशरासनं रजतादिशृङ्गनिकेतनं
सिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युताननसायकम् ।
क्षिप्रदग्घपुरत्रयं त्रिदिवालयैरभिवन्दितं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥ २॥

पञ्चपादपपुष्पगन्धपदाम्बुजद्वयशोभितं
भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम् ।
भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशनं भवमव्ययं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ३॥

मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं
पङ्कजासनपद्मलोचनपुजिताङ्घ्रिसरोरुहम् ।
देवसिन्धुतरङ्गसीकर-सिक्तशुभ्रजटाधरं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ४॥

यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्गविभूषणं
शैलराजसुता-परिष्कृत-चारुवामकलेवरम् ।
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ५॥

कुण्डलीकृतकुण्डलेश्वरकुण्डलं वृषवाहनं
नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् ।
अन्धकान्धकामाश्रितामरपादपं शमनान्तकं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ६॥

भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं
दक्षयज्ञविनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम् ।
भुक्तिमुक्तफलप्रदं सकलाघसङ्घनिवर्हनं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ७॥

भक्त-वत्सलमर्चितं निधिमक्षयं हरिदम्बरं
सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनुत्तमम् ।
सोमवारिज-भूहुताशनसोमपानिलखाकृतिं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ८॥

विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं
संहरन्तमपि प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम् ।
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथ-समन्वितं
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम् ॥ ९॥

मृत्युभीतमृकण्डसूनुकृतस्तवं शिवसन्निधौ
यत्र कुत्र च यः पठेन्नहि तस्य मृत्युभयं भवेत् ।
पूर्णमायुररोगितामखिलार्थसम्पदमादरं
चन्द्रशेखर एव तस्य ददाति मुक्तिमयत्नतः ॥ १०॥
॥ इति चन्द्रशेखराष्टकस्तोत्रं पूर्णम् ॥

कालभैरवाष्टकम्

देवराज-सेव्यमान-पावनाङ्घ्रि-पङ्कजं
व्यालयज्ञ-सूत्रमिन्दु-शेखरं कृपाकरम् ।
नारदादि-योगिवृन्द-वन्दितं दिगम्बरं
काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे ॥ 1 ॥

भानुकोटि-भास्वरं भवब्धितारकं परं
नीलकण्ठ-मीप्सितार्थ-दायकं त्रिलोचनम् ।
कालकाल-मम्बुजाक्ष-मक्षशूलमक्षरं
काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे ॥ 2 ॥

शूलटङ्क-पाशदण्ड-पाणिमादि-कारणं
श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्र-ताण्डव-प्रियं
काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे ॥ 3 ॥

भुक्ति-मुक्ति-दायकं प्रशस्तचारु-विग्रहं
भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोक-विग्रहम् ।
निक्वणन्-मनोज्ञ-हेम-किङ्किणी-लसत्कटिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥ 4 ॥

धर्मसेतु-पालकं त्वधर्ममार्ग-नाशकं
कर्मपाश-मोचकं सुशर्म-दायकं विभुम् ।
स्वर्णवर्ण-केशपाश-शोभिताङ्ग-निर्मलं
काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे ॥ 5 ॥

रत्न-पादुका-प्रभाभिराम-पादयुग्मकं
नित्य-मद्वितीय-मिष्ट दैवतं निरञ्जनम् ।
मृत्युदर्प-नाशनं करालदंष्ट्र-भूषणं
काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे ॥ 6 ॥

अट्टहास-भिन्न-पद्मजाण्डकोश-सन्ततिं
दृष्टिपात-नष्टपाप-जालमुग्र-शासनम् ।
अष्टसिद्धि-दायकं कपालमालिकाधरं
काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे ॥ 7 ॥

भूतसङ्घ-नायकं विशालकीर्ति-दायकं
काशिवासि-लोक-पुण्यपाप-शोधकं विभुम् ।
नीतिमार्ग-कोविदं पुरातनं जगत्पतिं
काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे ॥ 8 ॥

कालभैरवाष्टकं पठन्ति ये मनोहरं
ज्ञानमुक्ति-साधकं विचित्र-पुण्य-वर्धनम् ।
शोकमोह-लोभदैन्य-कोपताप-नाशनं
ते प्रयान्ति कालभैरवाङ्घ्रि-सन्निधिं ध्रुवम् ॥
इति श्री शंकराचार्यविरचितं कालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम्।          

द्वादश-ज्योतिर्लिंगानि

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्‌।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्‌ ॥1

परल्यां वैजनाथं च डाकियन्यां भीमशंकरम्‌।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥2

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं धुसृणेशं शिवालये ॥3

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरेण विनश्यति ॥4
इति द्वादशज्योतिर्लिंगानि

दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्

ॐ मौनं व्याख्या प्रकटितपरब्रह्मतत्वं युवानं
वर्शिष्ठान्ते वसदृषिगणैरावृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलित-चिन्मुद्रमानन्दमूर्तिं
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥

वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषण्णं
सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात् ।
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं
जननमरणदुःखच्छेद-दक्षं नमामि ॥
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्नसंशयाः ॥

निधये सर्वविद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् ।
गुरवे सर्वलोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ॥
ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्धज्ञानैकमूर्तये ।
निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणामूर्तये नमः ॥

चिदोघनाय महेशाय वटमूलनिवासिने ।
सच्चिदानन्द-रूपाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्त्तिभेद-विभागिने ।
व्योमवद् व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ॥

विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरी तुल्यं निजान्तर्गतं
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया ।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 1 ॥

बीजस्यान्तरिवाङ्कुरो जगदितं प्राङ् निर्विकल्पं पुनः
मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम् ।
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया 
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 2।।

यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 3।।

नानाच्छिद्र-घटोदर-स्थित-महादीप-प्रभाभास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरण-द्वारा-बहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत्समस्तं जगत्
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 4 ॥

देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्री-बालान्ध-जडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ताभृशं वादिनः ।
मायाशक्ति-विलासकल्पित-महाव्यामोह-संहारिणे
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 5 ॥

राहुग्रस्त-दिवाकरेन्दु-सदृशो माया-समाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोप-संहरणतो यो‌ऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।
प्रागस्वाप्समिति प्रभोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 6 ॥

बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्ता स्वनु-वर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 7 ॥

विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितृ-पुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो माया परिभ्रामितः
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 8 ॥

भूरम्भांस्यनलो‌ऽनिलो‌ऽम्बर-महर्नाथो हिमांशुः पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम् ।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभो
तस्मै गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये ॥ 9 ॥

सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्व-श्रवणात्तदर्थ मननाद्ध्यानाच्च सङ्कीर्तनात् ।
सर्वात्मत्वमहाविभूति-सहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्य-मव्याहतम् ॥ 10 ॥
॥ इति श्री शङ्कराचार्यविरचितं दक्षिणामूर्तिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

शिवमानसपूजा-स्तोत्रम्

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्न-विभूषितं मृगमदा-मोदाङ्कितं चन्दनम् ।
जाती-चम्पक-बिल्वपत्र-रचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥ १॥

सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूर-खण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥ २॥

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं
वीणा-भेरि-मृदङ्ग-काहल-कला गीतं च नृत्यं तथा ।
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया
सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥ ३॥

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥ ४॥

करचरण कृतं वाक्-कायजं कर्मजं वा ।
                  श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व ।
                  जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेवशम्भो ॥ ५॥


॥ इति श्री शङ्कराचार्यविरचितं शिवमानसपूजा स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

शिवनामावल्यष्टकम्

हे चन्द्रचूड मदनान्तक शूलपाणे
स्थाणो गिरीश गिरिजेश महेश शम्भो।
भूतेश भीतभयसूदन मामनाथं
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥1॥

हे पार्वती-हृदय-वल्लभ चन्द्रमौले
भूताधिप प्रथमनाथ गिरीशजाप।
हे वामदेव भव रुद्र पिनाकपाणे
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥॥2॥

हे नीलकण्ठ वृषभध्वज पञ्चवक्त्र
लोकेश शेषवलयं प्रमथेश शर्व
हे धूर्जटे पशुपते गिरिजापते मां
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥॥3॥

हे विश्वनाथ शिव शंकर देवदेव
गङ्गाधर प्रथमनायक नन्दिकेश।
विश्वेश्वरान्धकरिपो हर लोकनाथ
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥॥4॥

वाराणसीपुरपते मणिकर्णिकेश
वीरेश दक्षमखकाल विभो गणेश।
सर्वज्ञ सर्वह्रदयैकनिवास नाथ
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥॥5॥

श्रीमन् महेश्वर कृपामय हे दयालो
हे व्योमकेश शितकण्ठ गणाधिनाथ
भस्मांगराग-नृकपाल-कलापमाल
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥॥6॥

कैलास-शैल-विनिवास वृषाकपे हे
मृत्युञ्जय त्रिनयन त्रिजगन्निवास।
नारायणप्रिय मदापह शक्तिनाथ
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥॥7॥

विश्वेश विश्वभव-नाशक विश्वरूप
विश्वात्मक त्रिभुवनैकगुणाभिवेश
हे विश्वबन्धु करुणामय दीनबन्धो
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥॥8॥

गौरीविलासभुवनाय महेश्वराय
पञ्चाननाय शरणागतरक्षकाय।
शर्वाय सर्वजगतामधिपाय तस्मै
संसार-दु:ख-गहनाज्जगदीश रक्ष॥॥9

॥ इति श्री शङ्कराचार्यविरचितं शिवनामावल्यष्टकं सम्पूर्णम् ॥

रुद्राष्टकम्

नमामीशमीशान-निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ।।१।।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ।।२।।

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटि-प्रभाश्रीशरीरम् ।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा लसद्भालबालेन्दुकण्ठे भुजङ्गा ।।३।।

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ।।४।।

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशमखण्डम् अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ।।५।।

कलातीतकल्याण-कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानंदसंदोह-मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।६।।

न यावदुमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत्सुखं शान्ति-संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ।।७।।

न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ।
जरजन्मदुःखौघ-तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ।।८।।

रुद्रष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ।।

।। इति श्री गोस्वामी-तुलसीदास-कृतं  रुद्राष्टकं संपूर्णम् ।।

बिल्वपत्र उत्पत्ति कैसे हुई?

 बिल्व पत्र लक्ष्मी के स्तन से उत्पन्न हुआ या शरीर से? जी हाँ, यह स्तोत्र लिखते समय मुझे दो पाठ मिले।
लक्ष्म्या: स्तनत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम्।
        तथा
लक्ष्म्या: तनुत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम्।
प्रथम पाठ में लिखे स्तनत मूल रूप से स्तन तः शब्द है जिसका अर्थ होगा- स्तन से। इस श्लोक का पाठ भेद मिला जिसमें स्तन तः के स्थान पर तनुत लिखा मिला। व्याकरण नियम के कारण तनुतः में विसर्ग का लोप हो गया है। तनु तः का अर्थ है शरीर से। आप बोलेंगें शरीर में ही तो स्तन भी है। स्तनत बोलो या तनुत बात एक ही है। मूल पाठ तो स्तनत ही है परन्तु कुछ भक्त मां लक्ष्मी के इस अंग का नाम बोलना अश्लील जनक मानते होंगें, वे गोस्वामी तुलसीदास जैसे सीता चरण चोंच हति भागा वाले होंगें अतः उसे तनुत कर दिया। निर्णय आपको करना है कि आप दोंनो में से किस पाठ को स्वीकर करना चाहेंगें। बिल्ववृक्ष उत्पत्ति की कथा अन्तर्जाल पर उपलब्ध है।

श्रीबिल्वाष्टकम्

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् ।
त्रिजन्मपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१॥

त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः ।
शिवपूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२॥

अखण्ड-बिल्व-पत्रेण पूजिते नन्दिकेश्वरे ।
शुद्ध्यन्ति सर्वपापेभ्यो एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३॥

शालिग्राम-शिलामेकां विप्राणां जातु चार्पयेत् ।
सोमयज्ञ-महापुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४॥

दन्तिकोटिसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
कोटिकन्या-महादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५॥

लक्ष्म्याः स्तनत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम् ।
बिल्ववृक्षं प्रयच्छामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६॥

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७॥

काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् ।
प्रयागमाधवं दृष्ट्वा एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥

मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे ।
अग्रतः शिवरूपाय एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८॥

बिल्वाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ ।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिवलोकमवाप्नुयात् ॥९॥


॥ इति श्रीबिल्वाष्टकम् ॥


॥ महादेवाष्टकम् ॥


शिवं शान्तं शुद्धं प्रकटमकलङ्कं श्रुतिनुतं
     महेशानं शम्भुं सकल-सुर-संसेव्यचरणम् ।
गिरीशं गौरीशं भवभयहरं निष्कलमजं
     महादेवं वन्दे प्रणतजनतापोपशमनम् ॥ १॥

सदा सेव्यं भक्तैर्हृदि वसन्तं गिरिशय-
     मुमाकान्तं क्षान्तं करधृतपिनाकं भ्रमहरम् ।
त्रिनेत्रं पञ्चास्यं दशभुजमनन्तं शशिधरं
     महादेवं वन्दे प्रणतजनतापोपशमनम् ॥ २॥

चिताभस्मालिप्तं भुजग-मुकुटं विश्वसुखदं
     धनाध्यक्षस्याङ्गं त्रिपुरवधकर्तारमनघम् ।
करोटीखट्वाङ्गे ह्यरसि च दधानं सृतिहरं
     महादेवं वन्दे प्रणतजन-तापोपशमनम् ॥ ३॥

सदोत्साहं गङ्गाधरमचलमानन्दकरणं
     पुरारातिं भातं रतिपतिहरं दीप्तवदनम् ।
जटाजूटैर्जुष्टं रसमुख-गणेशानपितरं
     महादेवं वन्दे प्रणतजन-तापोपशमनम् ॥ ४॥

वसन्तं कैलासे सुरमुनिसभायां हि नितरां
     ब्रुवाणं सद्धर्मं निखिलमनुजानन्दजनकम् ।
महेशानी साक्षात्सनकमुनि-देवर्षिसहिता
     महादेवं वन्दे प्रणतजन-तापोपशमनम् ॥ ५॥

शिवां स्वे वामाङ्गे गुहगणपतिं दक्षिणभुजे
     गले कालं व्यालं जलधिगरलं कण्ठविवरे ।
ललाटे श्वेतेन्दुं जगदपि दधानं च जठरे
     महादेवं वन्दे प्रणतजन-तापोपशमनम् ॥ ६॥

सुराणां दैत्यानां बहुलमनुजानां बहुविधं
     तपःकुर्वाणानां झटिति फलदातारमखिलम् ।
सुरेशं विद्येशं जलनिधिसुताकान्तहृदयं
     महादेवं वन्दे प्रणतजनतापोपशमनम् ॥ ७॥

वसानं वैयाघ्रीं मृदुलललितां कृत्तिमजरां
     वृषारूढं सृष्ट्यादिषु कमलजाद्यात्मवपुषम् ।
अतर्क्यं निर्मायं तदपि फलदं भक्तसुखदं
     महादेवं वन्दे प्रणतजनतापोपशमनम् ॥ ८॥

इदं स्तोत्रं शम्भोर्दुरितदलनं धान्यधनदं
     हृदि ध्यात्वा शम्भुं तदनु रघुनाथेन रचितम् ।
नरः सायम्प्रातः पठति नियतं तस्य विपदः
     क्षयं यान्ति स्वर्गं व्रजति सहसा सोऽपि मुदितः ॥ ९॥


इति पण्डितरघुनाथशर्मणा विरचितं श्रीमहादेवाष्टकं समाप्तम् ।

श्रीकाशीविश्वनाथस्तोत्रम्

कण्ठे यस्य लसत्करालगरलं गङ्गाजलं मस्तके
वामाङ्गे गिरिराजराजतनया जाया भवानी सती ।
नन्दि-स्कन्दगणाधिराज-सहिता श्रीविश्वनाथप्रभुः
काशीमन्दिरसंस्थितोऽखिलगुरुर्देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १॥

यो देवैरसुरैर्मुनीन्द्रतनयैर्गन्धर्वयक्षोरगै-
र्नागैर्भूतलवासिभिर्द्विजवरैः संसेवितः सिद्धये ।
या गङ्गोत्तरवाहिनी परिसरे तीर्थेरसङ्ख्यैर्वृता
सा काशी त्रिपुरारिराजनगरी देयात्सदा मङ्गलम् ॥ २॥

तीर्थानां प्रवरा मनोरथकरी संसारपारापरा-
नन्दा नन्दिगणेश्वरैरुपहिता देवैरशेषैः स्तुता ।
या शम्भोर्मणिकुण्डलैककणिका विष्णोस्तपोदीर्घिका
सेयं श्रीमणिकर्णिका भगवती देयात्सदा मङ्गलम् ॥ ३॥

एषा धर्मपताकिनी तटरुहासेवावसन्नाकिनी
पश्यन्पातकिनी भगीरथतपःसाफल्यदेवाकिनी ।
प्रेमारूढपताकिनी गिरिसुता सा केकरास्वाकिनी
काश्यामुत्तरवाहिनी सुरनदी देयात्सदा मङ्गलम् ॥ ४॥

विघ्नावासनिवासकारणमहागण्डस्थलालम्बितः
सिन्दूरारुणपुञ्जचन्द्रकिरणप्रच्छादिनागच्छविः ।
श्रीविश्वेश्वरवल्लभो गिरिजया सानन्दकानन्दितः
स्मेरास्यस्तव ढुण्ढिराजमुदितो देयात्सदा मङ्गलम् ॥। ५॥ ।

केदारः कलशेश्वरः पशुपतिर्धर्मेश्वरो मध्यमो
ज्येष्ठेशो पशुपश्च कन्दुकशिवो विघ्नेश्वरो जम्बुकः ।
चन्द्रेशो ह्यमृतेश्वरो भृगुशिवः श्रीवृद्धकालेश्वरो
मध्येशो मणिकर्णिकेश्वरशिवो देयात्सदा मङ्गलम् ॥ ६॥

गोकर्णस्त्वथ भारभूतनुदनुः श्रीचित्रगुप्तेश्वरो
यक्षेशस्तिलपर्णसङ्गमशिवो शैलेश्वरः कश्यपः ।
नागेशोऽग्निशिवो निधीश्वरशिवोऽगस्तीश्वरस्तारक-
ज्ञानेशोऽपि पितामहेश्वरशिवो देयात्सदा मङ्गलम् ॥ ७॥

ब्रह्माण्डं सकलं मनोषितरसै रत्नैः पयोभिर्हरं
खेलैः पूरयते कुटुम्बनिलयान् शम्भोर्विलासप्रदा ।
नानादिव्यलताविभूषितवपुः काशीपुराधीश्वरी
श्रीविश्वेश्वरसुन्दरी भगवती देयात्सदा मङ्गलम् ॥ ८॥

या देवी महिषासुरप्रमथनी या चण्डमुण्डापहा
या शुम्भासुररक्तबीजदमनी शक्रादिभिः संस्तुता ।
या शूलासिधनुःशराभयकरा दुर्गादिसन्दक्षिणा-
माश्रित्याश्रितविघ्नशंसमयतु देयात्सदा मङ्गलम् ॥ ९॥

आद्या श्रीर्विकटा ततस्तु विरजा श्रीमङ्गला पार्वती
विख्याता कमला विशालनयना ज्येष्ठा विशिष्टानना ।
कामाक्षी च हरिप्रिया भगवती श्रीघण्टघण्टादिका
मौर्या षष्टिसहस्रमातृसहिता देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १०॥

आदौ पञ्चनदं प्रयागमपरं केदारकुण्डं कुरु-
क्षेत्रं मानसकं सरोऽमृतजलं शावस्य तीर्थं परम् ।
मत्स्योदर्यथ दण्डखाण्डसलिलं मन्दाकिनी जम्बुकं
घण्टाकर्णसमुद्रकूपसहितो देयात्सदा मङ्गलम् ॥ ११॥

रेवाकुण्डजलं सरस्वतिजलं दुर्वासकुण्डं ततो
लक्ष्मीतीर्थलवाङ्कुशस्य सलिलं कन्दर्पकुण्डं तथा ।
दुर्गाकुण्डमसीजलं हनुमतः कुण्डप्रतापोर्जितः
प्रज्ञानप्रमुखानि वः प्रतिदिनं देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १२॥

आद्यः कूपवरस्तु कालदमनः श्रीवृद्धकूपोऽपरो
विख्यातस्तु पराशरस्तु विदितः कूपः सरो मानसः ।
जैगीषव्यमुनेः शशाङ्कनृपतेः कूपस्तु धर्मोद्भवः
ख्यातः सप्तसमुद्रकूपसहितो देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १३॥

लक्ष्यीनायकबिन्दुमाधवहरिर्लक्ष्मीनृसिंहस्ततो
गोविन्दस्त्वथ गोपिकाप्रियतमः श्रीनारदः केशवः ।
गङ्गाकेशववामनाख्यतदनु श्वेतो हरिः केशवः
प्रह्लादादिसमस्तकेशवगणो देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १४॥

लोलार्को विमलार्कमायुखरविः संवर्तसंज्ञो रवि-
र्विख्यातो द्रुपदुःखखोल्कमरुणः प्रोक्तोत्तरार्को रविः ।
गङ्गार्कस्त्वथ वृद्धवृद्धिविबुधा काशीपुरीसंस्थिताः
सूर्या द्वादशसंज्ञकाः प्रतिदिनं देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १५॥

आद्यो ढुण्डिविनायको गणपतिश्चिन्तामणिः सिद्धिदः
सेनाविघ्नपतिस्तु वक्त्रवदनः श्रीपाशपाणिः प्रभुः ।
आशापक्षविनायकाप्रषकरो मोदादिकः षड्गुणो
लोलार्कादिविनायकाः प्रतिदिनं देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १६॥।

हेरम्बो नलकूबरो गणपतिः श्रीभीमचण्डीगणो
विख्यातो मणिकर्णिकागणपतिः श्रीसिद्धिदो विघ्नपः ।
मुण्डश्चण्डमुखश्च कष्टहरणः श्रीदण्डहस्तो गणः
श्रीदुर्गाख्यगणाधिपः प्रतिदिनं देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १७॥

आद्यो भैरवभीषणस्तदपरः श्रीकालराजः क्रमा-
च्छ्रीसंहारकभैरवस्त्वथ रुरुश्चोन्मत्तको भैरवः ।
क्रोधश्चण्डकपालभैरववरः श्रीभूतनाथादयो
ह्यष्टौ भैरवमूर्तयः प्रतिदिनं देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १८॥

आधातोऽम्बिकया सह त्रिनयनः सार्धं गणैर्नन्दितां
काशीमाशु विशन् हरः प्रथमतो वार्षध्वजेऽवस्थितः ।
आयाता दश धेनवः सुकपिला दिव्यैः पयोभिर्हरं
ख्यातं तद्वृषभध्वजेन कपिलं देयात्सदा मङ्गलम् ॥ १९॥

आनन्दाख्यवनं हि चम्पकवनं श्रीनैमिषं खाण्डवं
पुण्यं चैत्ररथं त्वशाकविपिनं रम्भावनं पावनम् ।
दुर्गारण्यमथोऽपि कैरववनं वृन्दावनं पावनं
विख्यातानि वनानि वः प्रतिदिनं देयात्सदा मङ्गलम् ॥ २०॥

अलिकुलदलनीलः कालदंष्ट्राकरालः
सजलजलदनीलो व्यालयज्ञोपवीतः ।
अभयवरदहस्तो डामरोद्दामनादः
सकलदुरितभक्षो मङ्गलं वो ददातु ॥ २१॥

अर्धाङ्गे विकटा गिरीन्द्रतनया गौरी सती सुन्दरी
सर्वाङ्गे विलसद्विभूतिधवलो कालो विशालेक्षणः ।
वीरेशः सहनन्दिभृङ्गिसहितः श्रीविश्वनाथः प्रभुः
काशीमन्दिरसंस्थितोऽखिलगुरुर्देयात्सदा मङ्गलम् ॥ २२॥

यः प्रातः प्रयतः प्रसन्नमनसा प्रेमप्रमोदाकुलः
ख्यातं तत्र विशिष्टपादभुवनेशेन्द्रादिभिर्यत्स्तुतम् ।
प्रातः प्राङ्मुखमासनोत्तमगतो ब्रूयाच्छृणोत्यादरात्
काशीवासमुखान्यवाप्य सततं प्रीते शिवे धूर्जटि ॥ २३॥


इति श्री शङ्कराचार्यविरचितं काशीविश्वनाथस्तोत्रम् ॥

अपराध-भञ्जन-स्तोत्रम्

शान्तं पद्मासनस्थं शशिधरमुकुटं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रं
शूलं वज्रं च खड्गं परशुमपि वरं दक्षिणाङ्गे वहन्तम् ।
नागं पाशं च घण्टां डमरुकसहितं चाङ्कुशं वामभागे
नानालङ्कारदीप्तं स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं भजामि ॥१॥

वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं वन्दे जगत्कारणं
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनां पतिम् ।
वन्दे सूर्यशशाङ्कवह्निनयनं वन्दे मुकुन्दप्रियं
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ॥२॥

आदौ कर्मप्रसङ्गात्कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितः सन्-
विण्मूत्रामेध्यमध्ये व्यथयति नितरां जाठरो जातवेदाः ।
यद्यद्वा सांब दुःखं विषयति विषमं शक्यते केन वक्तुं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शंभो ॥३॥

बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा
नो शक्यं चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति ।
नानारोगोत्थदुःखादुदरपरिवशः शङ्करं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ॥४॥

प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पञ्चभिर्मर्मसन्धौ
दषटो नष्टो विवेकः सुतधन युवतिस्वादुसौख्ये निषण्णाः
शैवे चिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ॥५॥

वार्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतनतैराधिदैवादितापैः
पापैर्रोगैर्वियोगैरसदृशवपुषं प्रौढहीनं च दीनम् ।
मिथ्यामोहाभिलाषैर्भ्रमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ॥६॥

नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनमत्यवायाकुलाख्यं
श्रौतं वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गे च सारे ।
नष्टो धर्म्यो विचारः श्रवणमननयोः को निदिध्यासितव्यः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ॥७॥

स्त्नात्वा प्रत्यूषकाले स्नपनविधिविधामाहृतं गाङ्गतोयं
पूजार्थं वा कदाचिद्बहुतरुगहनात खण्डबिल्वैकपत्रम् ।
नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धपुष्पे त्वदर्थं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ॥८॥

दुग्धैर्मध्वाज्ययुक्तैर्घटशतसहितैः स्नापितं नैव लिङ्गं
नो लिप्तं चन्दनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः ।
धूपैः कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतैर्नैव भक्ष्योपहारैः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ॥ ९॥

नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो
नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विहरभवगुणैर्नैव दृष्टं कदाचित् ।
उन्मत्तावस्थया त्वां विगतकलिमलं शङ्करं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ॥१०॥

ध्यानं चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो
हव्यं ते लक्षसंख्यं हुतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रैः ।
नो जप्तं गाङ्गतीरे व्रतपरिचरणै रुद्रजप्यैर्न वेदैः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ॥११॥

स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुंभके सूक्ष्ममार्गे
शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितगहने ज्योतिरूपे पराख्ये ।
लिङ्गं तत्ब्रह्मवाच्यं सकलमभिमतं नैव दृष्टं कदाचित्
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शंभो ॥१२॥

आयुर्नश्यति पश्यतो प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं
प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः ।
लक्षीस्तोयतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं जीवनं
तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ॥१३॥

चन्द्रोद्भासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शङ्करे
सपैर्भूषितकण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थवैश्वानरे
दन्तित्वक्कतिसुन्दरांबरधरे त्रैलोक्यसारे हरे
मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिममलामन्यैस्तु किं कर्मभिः ॥१४॥

किं दानेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं
किं वा पुत्रकळत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम् ।
ज्ञात्वैतत्क्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः
स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज भज श्रीपार्वतीवल्लभम ॥१५॥

करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शंभो ॥१६॥

गात्रं भस्मसितं स्मितं च हसितं हस्ते कपालं सितं
खट्वाङ्गं च सितं सितश्च वृषभः कर्णे सिते कुण्डले।
गङ्गाफेनसितं जटावलयकं चन्द्रः सितो मूर्धनि
सोऽयं सर्वसितो ददातु विभवं पापक्षयं शङ्करः ॥१७॥


इत्यपराधभञ्जनस्तोत्रं समाप्तम् ॥

शिव-स्तुतिः

वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं वन्दे जगत्कारणं
 वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशुनां पतिं ।
वन्दे सूर्यशशांकवह्निनयनं वन्दे मुकुंदप्रियम्
 वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। १

वन्दे सर्वजगद्-विहारमतुलं वन्देऽन्धकध्वंसिनं
            वन्दे देवशिखामणिं शशिनिभं वन्दे हरेर्वल्लभं ।
वन्दे नाग-भुजङ्ग-भूषणधरं वन्दे शिवं चिन्मयं
 वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। २

वन्दे दिव्यमचिन्तयमद्वयमहं वन्देऽकदर्पापहं
            वन्दे निर्मलमादिमूलमनिशं वन्दे मखध्वंसिनम् ।
वन्दे सत्यमनन्तमाद्यमभयं वन्देऽतिशान्ताकृतिं
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। ३

वन्दे भूरथमम्बुजाक्ष-विशिखं वन्दे श्रुतीघोटकं
            वन्दे शैलशरासनं फणिगुणं वन्देऽधितुणीरकम् ।
वन्दे पंकजसारथिं पुरहरं वन्दे महाभैरवं
 वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। ४

वन्दे पञ्चमुखाम्बुजं त्रिनयनं वन्दे ललाटेक्षणं
            वन्दे व्योमगतं जटासुमुकुटं चंद्रार्धगंगाधरम् ।
वन्दे भस्मकृत-त्रिपुण्डजटिलं वन्देष्टमूर्त्यात्मकं
            वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। ५

वन्दे कालहरं हरं विषधरं वन्दे मृडं धूर्जटिं
वन्दे सर्वगतं दयामृतनिधिं वन्दे नृसिंहापहम् ।
वन्दे विप्र-सुरार्चितांघ्रि-कमलं वन्दे भगाक्षापहं
            वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। ६

वन्दे मङ्गलराजताद्रि-निलयं वन्दे सुराधीश्वरं
 वन्दे शंकरमप्रमेयमतुलं वन्दे यमद्वेशिणम् ।
वन्दे कुंडलिराजकुंडलधरं वन्दे सहस्त्राननं
 वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। ७

वन्दे हंसमतीन्द्रियं स्मरहरं वन्दे विरुपेक्षणं
            वन्दे भूतगणेशमव्ययमहं वन्देऽर्थ-राज्य-प्रदम् ।
वन्दे सुन्दर-सौरभेय-गमनं वन्दे त्रिशुलायुधं
            वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। ८

वन्दे सूक्ष्ममनन्तमाद्यमभयं वन्देऽन्धकारापहं
 वन्दे रावण-नन्दि-भृङ्गि-विनतं वन्दे सुपर्णावृतम् ।
वन्दे शैलसुतार्धभागवपुषं वन्देऽभयं त्रयम्बकं
 वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। ९

वन्दे पावनमम्बरात्मविभवं वन्दे महेन्द्रेश्वरम्
            वन्दे भक्तजनाश्रयामरतरुं वन्दे नताभीष्टदम् ।
वन्दे जह्नुसुताम्बिकेशमनिशं वन्दे गणाधीश्वरं
 वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङ्करम् ।। १०


इति शिव-स्तुतिः

वेदसारशिवस्तोत्रम्

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्॥।। १

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्क-वह्नित्रिनेत्रं सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥ २

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्॥ ३

शिवाकान्त शम्भो शशाङ्कार्धमौले महेशान् शूलिन् जटाजूटधारिन्।
त्वमेको जगद्-व्यापको विश्वरूप: प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप॥ ४

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वम् तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥ ५

न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायुर्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न चोष्णं न शीतं न देशो न वेषो न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे॥ ६

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमः पारमाद्यन्तहीनं, प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥ ७

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते।
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य॥ ८

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ महादेव शम्भो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः॥ ९

शम्भो महेश करुणामय शूलपाणे गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।
काशीपते करुणया जगदेतदेकस्त्वं हंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि॥ १०

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश, लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्॥ ११

इति श्री शङ्कराचार्य कृतं वेदसारशिवस्तोत्रं सम्पूर्णम्

।।अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्।।


चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवायै च नमः शिवाय।।1।।

कस्तूरिकाकुङ्कुमचर्चितायै चितारजःपुञ्जविचर्चिताय।
कृतस्मरायै विकृतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय।।2।।

झणत्क्वणत्कङ्कणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणिनूपुराय।
हेमाङ्गदायै भुजगाङ्गदाय नमः शिवायै च नमः शिवाय।।3।।

विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपङ्केरुहलोचनाय।
समेक्षणायै विषमेक्षणाय नमः शिवायै च नमः शिवाय।।4।।

मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालाङ्कितकन्धराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय।।5।।

अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तटित्प्रभाताम्रजटाधराय।
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय।।6।।

प्रपञ्चसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय।
जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे नमः शिवायै च नमः शिवाय।।7।।

प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय।
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नमः शिवायै च नमः शिवाय।।8।।

एतत्पठेदष्ठकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी।
प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात्सदा तस्य समस्तसिद्धिः।।9।।

इति श्री शंकराचार्य विरचितम् अर्धनारीश्वरस्तोत्रं संपूर्णम्।।

शिव संकल्प सूक्त

यज्जाग्रतो दूरमुदैति देवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ||||

 

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।

यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ||||

 

यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।

यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ||||

 

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।

येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ||||

 

यस्मिन्नृचः साम यजूँषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा:।

यस्मिश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ||||

 

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।

हत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥ ||||


श्रीविश्वनाथमङ्गलस्तोत्रम्

 

गङ्गाधरं शशिकिशोरधरं त्रिलोकी-

रक्षाधरं निटिलचन्द्रधरं त्रिधारम् ।

भस्मावधूलनधरं गिरिराजकन्या-

दिव्यावलोकनधरं वरदं प्रपद्ये ॥ १॥

 

काशीश्वरं सकलभक्तजनार्तिहारं

विश्वेश्वरं प्रणतपालनभव्यभारम् ।

रामेश्वरं विजयदानविधानधीरं

गौरीश्वरं वरदहस्तधरं नमामः ॥ २॥

 

गङ्गोत्तमाङ्ककलितं ललितं विशालं

तं मङ्गलं गरलनीलगलं ललामम् ।

श्रीमुण्डमाल्यवलयोज्ज्वलमञ्जुलीलं

लक्ष्मीश्वरार्चितपदाम्बुजमाभजामः ॥ ३॥

 

दारिद्र्यदुःखदहनं कमनं सुराणां

दीनार्तिदावदहनं दमनं रिपूणाम् ।

दानं श्रियां प्रणमनं भुवनाधिपानां

मानं सतां वृषभवाहनमानमामः ॥ ४॥

 

श्रीकृष्णचन्द्रशरणं रमणं भवान्याः

शश्वत्प्रपन्नभरणं धरणं धरायाः  ।

संसारभारहरणं करुणं वरेण्यं

संतापतापकरणं करवै शरण्यम् ॥ ५॥

 

चण्डीपिचण्डिलवितुण्डकृताभिषेकं

श्रीकार्तिकेयकलनृत्यकलावलोकम्  ।

नन्दीश्वरास्यवरवाद्यमहोत्सवाढ्यं

सोल्लासहासगिरिजं गिरिशं तमीडे ॥ ६॥

 

श्रीमोहिनीनिविडरागभरोपगूढं

योगेश्वरेश्वरहृदम्बुजवासरासम्  ।

सम्मोहनं गिरिसुताञ्चितचन्द्रचूडं

श्रीविश्वनाथमधिनाथमुपैमि नित्यम् ॥ ७॥

 

आपद् विनश्यति समृध्यति सर्वसम्पद्

विघ्नाः प्रयान्ति विलयं शुभमभ्युदेति ।

योग्याङ्गनाप्तिरतुलोत्तमपुत्रलाभो

विश्वेश्वरस्तवमिमं पठतो जनस्य ॥ ८॥

 

वन्दी विमुक्तिमधिगच्छति तूर्णमेति

स्वास्थ्यं रुजार्दितमुपैति गृहं प्रवासी ।

विद्यायशोविजय इष्टसमस्तलाभः

सम्पद्यतेऽस्य पठनात् स्तवनस्य सर्वम् ॥ ९॥

 

कन्या वरं सुलभते पठनादमुष्य

स्तोत्रस्य धान्यधनवृद्धिसुखं समिच्छन् ।

किं च प्रसीदति विभुः परमो दयालुः

श्रीविश्वनाथ इह सम्भजतोऽस्य साम्बः ॥ १०॥

 

काशीपीठाधिनाथेन शङ्कराचार्यभिक्षुणा ।

महेश्वरेण ग्रथिता स्तोत्रमाला शिवार्पिता ॥ ११॥

 

॥ इति काशीपीठाधीश्वरशङ्कराचार्यश्रीस्वामिमहेश्वरानन्दसरस्वतीविरचितं श्रीविश्वनाथमङ्गलस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


सूचना- 

फेसबुक 5 अगस्त 2019 

            स्तोत्र परम्परा को अविच्छिन्न, अनवरत बनाये रखना बहुत बड़ा कार्य है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार प्रतिवर्ष जगन्नाथ रथयात्रा की परम्परा को बनाये रखना। आवश्यक नहीं कि परम्परा का वाहक उसमें कुछ और जोड़े। इस प्रकार हमें वाल्मीकि, व्यास, आदि शंकराचार्य, कालिदास आदि द्वारा गीत स्तोत्र की परम्परा, पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हुई मुझतक आ पहुँची। इस मध्य ये स्तोत्र, हजारों कण्ठों के कण्ठाहार बने होंगें।  शिलालेखों, भोजपत्रों और कागजों आदि पर उत्कीर्ण कर, लिख कर, मुद्रित कर जीवन्त बनाये रखा गया होगा। यदि पूर्ववर्ती परम्परा में कहीं भी व्यवधान आ गया होता तो मैं अपने ब्लॉग पर आराध्य की स्तुति करने से सर्वथा वंचित रह गया होता। मैं यामुनाचार्य, जगन्नाथ, रघुनाथ शर्मा जैसा भक्त कवि नहीं हूँ। लेकिन डि़जिटल माध्यम से उसके पुनर्पाठ में संलग्न हूँ, ताकि आने वाली पीढ़ी तक ये आसानी से पहुँच सकें, जन-जन के कण्ठों से मुखरित हो सके। जब कभी स्तोत्र साहित्य के प्रसारकों की गिनती होने लगे, इतिहासकार मेरा भी नाम लिख लें। (प्रिंट माध्यम में लिखी पुस्तकों तथा पत्रिका के सम्पादक से मेरा नाम हटा दिये जाने के कारण डिजिटल में आ गया हूँ )

                आज भी अनेक स्तोत्र ऐसे हैं,जिनका ध्वनि मुद्रण नहीं हुआ है। मेरे सामने से कई सुकोमल स्वर आकर चले गये। उनका उच्चारण शुद्ध था। धनाभाव कहें या संगति का बुरा असर, मैं उनके माध्यम से उन स्तोत्रों का ध्वनि मुद्रण नहीं करा सका। यदि यह कार्य करा पाता तो अनायास ही प्रत्येक घर, दूरभाष, आकाशवाणी से प्रसारित हो रहे होते। इसका व्यवासायिक उपयोग हो सकता है। स्तोत्रों को कागज से बाहर लाकर मैंने डिजिटल रूप दे दिया है। अच्छी आवाज और शुद्ध उच्चारण करने वाले / वाली किसी मित्र की तलाश है।

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