मैं अनेक
बार लखनऊ से नैमिषारण्य जा चुका हूँ। लोग इसे संक्षेप में नैमिष कहते हैं। स्थानीय
बोलचाल में इसका नाम नीमसार है। कल वैशाख कृष्ण त्रयोदशी 2076 तदनुसार 02 मई 2019 को फिर मैं नैमिषारण्य में था। यह उत्तर प्रदेश के
लखनऊ से 85 कि. मी. दूर गोमती नदी के किनारे स्थित है। यह एक वैष्णव तीर्थ है। मेरे दीक्षा गुरु के दादा गुरु राजेन्द्र सूरी परमहंस इसी क्षेत्र से चलकर तरेत, पटना, बिहार तक पहुँचे थे। मैंने ललिता देवी मंदिर से
दर्शन आरम्भ किया। इसकी गणना 108 शक्तिपीठों में होती है। यहाँ सती का हृदय गिरा
था। मंदिर के गर्भगृह में पायजामा और पैंट पहने पंडित मिले। पता चला कि यह मंदिर
सरकार द्वारा अधिग्रहीत है। मैंने वहाँ बैठे अन्य पुजारियों से मंदिर के पुजारियों के पहनावे के निर्धारण के बारे में पूछताछ की। वे संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके। कुल मिलाकर हिन्दुओं का यह मंदिर अब कोई धार्मिक स्थल नहीं होकर पर्यटन स्थल बनकर रह गया है। विगत यात्रा में मैंने पाया था कि यहाँ के पुजारियों को एक भी शुद्ध श्लोक या मंत्र नहीं आता है। मुझे यह जानकर काफी क्षोभ हुआ कि यह तीर्थ कहाँ से कहाँ पहुँच गया। जिस महर्षि व्यास तथा शौनक आदि ऋषियों ने ज्ञान सत्र के आयोजन के लिए इस स्थान का चयन किया, जहाँ सूत जी ने शौनक आदि 88 हजार ऋषियों को 18 पुराणों की कथा सुनायी।
यहाँ हिन्दुओं के देवता, तीर्थ, जीवन पद्धति, संस्कृति आदि में नयी क्रान्ति आयी। जिन ऋषियों ने वेद विरूद्ध विचारधारा को भारत के बाहर खदेड़ने के लिए पुराण रूपी हथियार हमें दिये। वह धरा भोगी तथा स्वार्थी लोगों के चंगुल में कैसे फँस गयी? यदि आप स्मृतियों और पुराणों से ऊपजी वैचारिक क्रान्ति और उसके प्रभाव को ठीक से समझ रहे होंगें तो इस नैमिषारण्य को आप उसी दृष्टि से खोजेंगें। संक्षेप में यहाँ मैं इतना ही कहूँगा कि भगवान् वेद व्यास ने यहाँ रहकर एक ऐसी कथामयी विचारधारा को लिखा, जो वेदों की कथामयी व्याख्या थी। वे कथानक गीत, नाट्य, कथा साहित्य आदि के माध्यम से हर भारतवासी तक पहुँचा। इसे कहने और समझने के लिए लाखों ऋषि यहाँ इकठ्ठे होते थे। उत्तर वैदिक काल में यह स्थान देश में एक नयी तरह की ज्ञान क्रान्ति लाने में सफल हुआ। वैदिक देवता, सैकड़ों वर्षों तक चलने वाले श्रौत याग के स्थान पर पौराणिक देवता, लघुतम व्रतों, त्यौहारों की व्यवस्था दी गयी। ये व्यवस्थायें केवल लिखित रूप में नहीं रह जाये इसके लिए यहाँ व्यूह रचना होती रही। प्रचारकों की टोली खड़ी की गयी। दान पुण्य की अवधारणा को स्पष्ट किया गया। ऐसी व्यवस्था खड़ी की गयी, जिससे हजारों वर्षों तक सनातन परम्परा अक्षुण्ण रह सके। यहीं वृत्र असुर को परास्त करने के लिए महर्षि दधीचि ने इन्द्रादि देवताओं को अस्थि दान किया। यहाँ रहकर ऋषि शस्त्र और शास्त्र दोनों के द्वारा सनातन परम्परा की रक्षा में लगे रहे।
यहाँ हिन्दुओं के देवता, तीर्थ, जीवन पद्धति, संस्कृति आदि में नयी क्रान्ति आयी। जिन ऋषियों ने वेद विरूद्ध विचारधारा को भारत के बाहर खदेड़ने के लिए पुराण रूपी हथियार हमें दिये। वह धरा भोगी तथा स्वार्थी लोगों के चंगुल में कैसे फँस गयी? यदि आप स्मृतियों और पुराणों से ऊपजी वैचारिक क्रान्ति और उसके प्रभाव को ठीक से समझ रहे होंगें तो इस नैमिषारण्य को आप उसी दृष्टि से खोजेंगें। संक्षेप में यहाँ मैं इतना ही कहूँगा कि भगवान् वेद व्यास ने यहाँ रहकर एक ऐसी कथामयी विचारधारा को लिखा, जो वेदों की कथामयी व्याख्या थी। वे कथानक गीत, नाट्य, कथा साहित्य आदि के माध्यम से हर भारतवासी तक पहुँचा। इसे कहने और समझने के लिए लाखों ऋषि यहाँ इकठ्ठे होते थे। उत्तर वैदिक काल में यह स्थान देश में एक नयी तरह की ज्ञान क्रान्ति लाने में सफल हुआ। वैदिक देवता, सैकड़ों वर्षों तक चलने वाले श्रौत याग के स्थान पर पौराणिक देवता, लघुतम व्रतों, त्यौहारों की व्यवस्था दी गयी। ये व्यवस्थायें केवल लिखित रूप में नहीं रह जाये इसके लिए यहाँ व्यूह रचना होती रही। प्रचारकों की टोली खड़ी की गयी। दान पुण्य की अवधारणा को स्पष्ट किया गया। ऐसी व्यवस्था खड़ी की गयी, जिससे हजारों वर्षों तक सनातन परम्परा अक्षुण्ण रह सके। यहीं वृत्र असुर को परास्त करने के लिए महर्षि दधीचि ने इन्द्रादि देवताओं को अस्थि दान किया। यहाँ रहकर ऋषि शस्त्र और शास्त्र दोनों के द्वारा सनातन परम्परा की रक्षा में लगे रहे।
मैं
अपनी नजरिये से नैमिष को देखना और ढ़ूढ़ना चाह रहा था । मैं उस व्यास की खोज में
था, जो मूल रहस्य को हमेशा विस्तार करके समझता है। मैं माता आनन्दमयी पौराणिक एवं
वैदिक अध्ययन तथा अनुसंधान संस्थान की खोज में भी था। मैं इस नैमिष को उस क्रम से
देखने की कोशिश में था, जिस क्रम से हिन्दू जीवन दर्शन का विकास हुआ। मुझे सृष्टि
के आरम्भकर्ता मनु शतरूपा से व्यास और शौनक होते आदि गंगा गोमती का अविरलता,
निर्मलता का स्पर्श करते भावी व्यास को खोजना था।
यहाँ से
आगे चक्रतीर्थ होते हुए मैं व्यास गद्दी तक पहुँचा। यहाँ के युवा पंडित थोड़े बहुत
संस्कृत जानते थे। वे आचार्य की उपाधि ले रखे थे। पास में ही मनु शतरूपा तपस्थली
है। दिन चढ़ने लगा था। चारों ओर सन्नाटा पसरने लगा था। लंगूर और कुत्ते के बीच रह रहकर नोक झोंक हो जा रहा था। बल्लभाचार्य की गद्दी की ओर जाने वाले रास्ते में भी सन्नाटा था।
व्यास
गद्दी के समीप एक संस्कृत विद्यालय का बोर्ड लगा था। मैं नहर के किनारे- किनारे सूनसान पेड़ पौधे से भरे रास्ते से होकर उस
विद्यालय की ओर चल पड़ा। काफी दूर खरंजे के रास्ते चलते हुए एक पुराने हनुमान मंदिर तक पहुँचा। यहाँ पर्यटन विभाग ने आगन्तुकों के लिए बेंच आदि लगा रखा है। नैमिषारण्य से लगभग दूर शांत, एकांत स्थान पर एक संत ने आकर तप किया था। संतों के तीन पीढ़ियों की समाधि बनी है। वहाँ के सेवादार ने बताया कि परिक्रमा का आरंभ यहीं से होता है। इसे किसी दमिंदार ने 25 बीघे जमीन दान में दिया था। नगर पालिका मंदिर की पूजा अर्चना तथा देखरेख के लिए किसी को नियुक्त कर देती है। उन्होंने यहाँ का इतिहास बताया। उन्होंने कहा कि नहर के किनारे - किनारे चलकर संस्कृत विद्यालय पहुँचा जा सकता है। मैं वहाँ से वापस व्यास गद्दी की ओर लौटा।
नहर के किनारे - किनारे चलकर विद्यालय तक पहुँचा, जो गोमती नदी के किनारे अवस्थित है। इतना अच्छा सुरम्य वातावरण मैंने अभी तक नहीं देखा था। सूर्य के आतप से झुलसती गर्मी में भी यहाँ की ठंढ़ी हवा शहरी जीवन को नारकीय जीवन बता रही थी। विशाल वृक्षों के नीचे यज्ञशाला, गोशाला तथा संस्कृत विद्यालय ऋषिकुल का दिव्य दर्शन करा रहा था। इस विद्यालय का नाम श्री सूर्येश्वरनारायण लक्ष्मीनारायण गुरुकुल संस्कृत विद्यापीठ, मौनी कुटीर, मणि पर्वत, नैमिषारण्य, सीतापुर है। इसे आचार्य अनुज कुमार मिश्र संचालित कर रहे हैं। सम्पर्क- 9450902349 । विद्यालय में प्रथमा कक्षा के 10-12 बच्चे अध्ययन करते हुए मिले। अभी इस विद्यालय को मान्यता नहीं मिली है। विद्यालय के छात्रों से पुस्तकें पढ़ाकर देखा । उनका उच्चारण शुद्ध था। सम्बन्धित कक्षा के पाठ्यपुस्तकों के बारे में पूछताछ किया। संस्कृत व्याकरण की पुस्तक लघुसिद्धान्त कौमुदी तथा तर्क संग्रह से प्रश्न पूछा । बच्चों ने समुचित जबाब दिया। छोटे बच्चे अंग्रेजी का अभ्यास करते दिखे। यहाँ का वातावरण अति सुखद तथा शान्त था। शेष बच्चे परीक्षा दे लेने के कारण अपने घर जा चुके थे। इस विद्यालय में संसाधन की भारी कमी थी। आर्थिक परेशानियों से जुझते हुए भी यह विद्यालय संस्कृत के प्रति हमें आश्वस्त करता है। मुझे लगा कि मैं गोमती से दूर हूँ। मैंने वहाँ के आचार्यों से अनुमति मांगी कि चलकर गोमती का दर्शन कर लूँ। परन्तु यह क्या? मैं तो गोमती के तट पर खड़ा था। सामने ही सीढ़ी थी। सीढ़ी के दोनों ओर घने पेड़। इन वृक्षों की छाया में गोमती के किनारे बैठने का आनन्द ही कुछ और था। कहीं कोई शोर नहीं । चिड़ियों की चहचहाहट, ठंढ़ी हवा गोमती के उसपार वनाच्छादित प्रदेश पारलौकिक आनन्द की अनुभूति करा रहा था। मैंने यहीं दोपहर व्यतीत करने का निश्चय किया। लखनऊ में गोमती तो नाला बनकर रह गयी है। यहाँ के गोमती का पानी इतना स्वच्छ कि एक मीटर नीचे की वस्तुएँ साफ दिख जाय। मैंने जल हाथ में लेकर आचमन किया। स्वादिष्ट जल। गर्मी से बचने के लिए सीपी घाट के तटों पर आ गयी थी। मैं कुछ देर यहाँ रुका रहा। हैंडपम्प का जल पीया। RO जल और इसमें बहुत अंतर नहीं था। अब आगे बढ़ने का निश्चय किया।
नहर के किनारे - किनारे चलकर विद्यालय तक पहुँचा, जो गोमती नदी के किनारे अवस्थित है। इतना अच्छा सुरम्य वातावरण मैंने अभी तक नहीं देखा था। सूर्य के आतप से झुलसती गर्मी में भी यहाँ की ठंढ़ी हवा शहरी जीवन को नारकीय जीवन बता रही थी। विशाल वृक्षों के नीचे यज्ञशाला, गोशाला तथा संस्कृत विद्यालय ऋषिकुल का दिव्य दर्शन करा रहा था। इस विद्यालय का नाम श्री सूर्येश्वरनारायण लक्ष्मीनारायण गुरुकुल संस्कृत विद्यापीठ, मौनी कुटीर, मणि पर्वत, नैमिषारण्य, सीतापुर है। इसे आचार्य अनुज कुमार मिश्र संचालित कर रहे हैं। सम्पर्क- 9450902349 । विद्यालय में प्रथमा कक्षा के 10-12 बच्चे अध्ययन करते हुए मिले। अभी इस विद्यालय को मान्यता नहीं मिली है। विद्यालय के छात्रों से पुस्तकें पढ़ाकर देखा । उनका उच्चारण शुद्ध था। सम्बन्धित कक्षा के पाठ्यपुस्तकों के बारे में पूछताछ किया। संस्कृत व्याकरण की पुस्तक लघुसिद्धान्त कौमुदी तथा तर्क संग्रह से प्रश्न पूछा । बच्चों ने समुचित जबाब दिया। छोटे बच्चे अंग्रेजी का अभ्यास करते दिखे। यहाँ का वातावरण अति सुखद तथा शान्त था। शेष बच्चे परीक्षा दे लेने के कारण अपने घर जा चुके थे। इस विद्यालय में संसाधन की भारी कमी थी। आर्थिक परेशानियों से जुझते हुए भी यह विद्यालय संस्कृत के प्रति हमें आश्वस्त करता है। मुझे लगा कि मैं गोमती से दूर हूँ। मैंने वहाँ के आचार्यों से अनुमति मांगी कि चलकर गोमती का दर्शन कर लूँ। परन्तु यह क्या? मैं तो गोमती के तट पर खड़ा था। सामने ही सीढ़ी थी। सीढ़ी के दोनों ओर घने पेड़। इन वृक्षों की छाया में गोमती के किनारे बैठने का आनन्द ही कुछ और था। कहीं कोई शोर नहीं । चिड़ियों की चहचहाहट, ठंढ़ी हवा गोमती के उसपार वनाच्छादित प्रदेश पारलौकिक आनन्द की अनुभूति करा रहा था। मैंने यहीं दोपहर व्यतीत करने का निश्चय किया। लखनऊ में गोमती तो नाला बनकर रह गयी है। यहाँ के गोमती का पानी इतना स्वच्छ कि एक मीटर नीचे की वस्तुएँ साफ दिख जाय। मैंने जल हाथ में लेकर आचमन किया। स्वादिष्ट जल। गर्मी से बचने के लिए सीपी घाट के तटों पर आ गयी थी। मैं कुछ देर यहाँ रुका रहा। हैंडपम्प का जल पीया। RO जल और इसमें बहुत अंतर नहीं था। अब आगे बढ़ने का निश्चय किया।
इसके आगे
हनुमान गढ़ी पहुँचा। कुछ देर यहाँ भी रुका,क्योंकि मध्याह्न का धूप काफी तेज थी। मैं इसके समीप अनन्त श्री वासुदेव
संस्कृत महाविद्यालय कई बार जा चुका हूँ। अतः इस बार वहाँ नहीं गया। हनुमान गढ़ी
के पीछे के रास्ते गोमती के घाट तक पहुँचा। इस बार मछलियों को दाना नहीं दे सका।
प्रचण्ड आतप से हरेक तीर्थयात्रियों को वृक्षों के छांव तले रूकने को विवश कर रखा
था। कहता चलूँ कि नैमिषारण्य तीर्थ सीतापुर जनपद के अन्तर्गत आता है। इस तीर्थ
नगरी के आस- पास कभी संस्कृत के विद्वानों का बोल बाला हुआ करता था। यहाँ के कुछ
विद्यालय अति प्रसिद्ध थे। पवित्र तीर्थ नैमिषारण्य के निकट हरदोई जनपद के संडीला
निवासी पंडित शिव गोविन्द त्रिपाठी तथा इनके पुत्र शिव सागर त्रिपाठी तथा शिव
प्रसाद त्रिपाठी संस्कृत काव्य रचना में प्रवीण तथा हैं। इस क्षेत्र के संस्कृतज्ञ
आयुर्वेद के ज्ञाता भी होते हैं। अस्तु ।
मेरे पास
समय अधिक शेष नहीं था। उसी दिन लखनऊ लौटना भी था अतः देव दर्शन करने के साथ साथ
संस्कृत विद्यालयों की स्थिति भी देखते जाना था। यहाँ से मुझे रुद्रावर्त होते लखनऊ जाना था।
सुना था कि रुद्रावर्त कुण्ड में विल्वपत्र पानी के नीचे चला जाता है तथा चढ़ाया
गया फल ऊपर तैरता रहता है। मैं यहाँ से जल्द निकल लिया। मध्याह्न के 3.30 हो चुके थे।
भाजपा नीत
की सरकार उत्तर प्रदेश में एक नया संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापना करने की घोषणा की
है। पहले अयोध्या में खोले जाने पर विचार हो रहा था। पुनः स्थान परिवर्तन होकर नैमिषारण्य
में खोले जाने पर विचार होने लगा। मुझे लगता है कि इस प्रदेश में एक और संस्कृत
विश्वविद्यालय की आवश्यकता नहीं है। संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से
सम्बद्ध महाविद्यालय तथा उत्तर प्रदेश माध्यमिक संस्कृत शिक्षा बोर्ड से सम्बद्ध
संस्कृत माध्यमिक विद्यालयों की स्थिति बहुत अधिक खराब है। संस्कृत के विद्यालय और
महाविद्यालय शिक्षक विहीन होते जा रहे हैं। शिक्षक विहीन विद्यालयों में दूसरे
विद्यालयों को शिक्षकों को संबद्ध कर किसी तरह विद्यालय को संचालित करने की कोशिश की
जा रही है। विद्यालयों के भवन को देखकर मन भय से काँप उठता है। जिन विद्यालयों ने
एक से बढ़कर एक कीर्तिमान स्थापित किये उसे खंडहर में परिणत होता देख किसी भी संस्कृत
प्रेमी का मन उद्वेलित हो जाएगा। यहाँ पढ़ रहे बच्चों की दुरवस्था देख बस एक ही
इच्छा होती है कि जावन को इनकी सेवा में समर्पित कर दूँ। जब ये विद्यालय और यहाँ
के छात्र इस त्रासदी में जी रहे हों तो एक और विश्वविद्यालय को खोले जाने का
निर्णय अदूरदर्शी ही प्रतीत होता है। अच्छा होता कि पहले माध्यमिक शिक्षा को मजबूत
करने पर ध्यान दिया जाता। जब नीचे की कक्षा में छात्र ही नहीं हो तो उच्च कक्षा
में कौन पढ़ने जाएगा। इसका ज्वलंत उदाहरण माता आनन्दमयी पौराणिक तथा वैदिक अध्ययन एवं अनुसंधान संस्थान मेरे सम्मुख था। इसके भीतर प्रवेश करने पर सूनसान नजारा था।
गेट के आगे दूर दूर तक कहीं कोई दिखाई नहीं दिया। परिसर के अंत में एक सेवक मिला, जिसने जानकारी दी कि यह अनुसंधान संस्थान केवल परीक्षा के समय खुलता है। पुस्तकालय
के बाहरी दीबार पर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के अवकाश की सूची चस्पा
मिली। इस संस्थान की स्थापना उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल एम. चेन्ना रेड्डी तथा अन्य शीर्षस्थ व्यक्तियों द्वारा की गयी। स्वामी नारदानन्द तथा अन्य महानुभावों ने इसके लिए भूमि दान में दिया। इसका शिलापट मुख्य गेट पर लगा है। 40 वर्षों में ही इस संस्थान की यह दुर्गति हो जाएगी किसी ने सोचा तक नहीं होगा। इसके पास में अनन्त श्री वासुदेव संस्कृत माध्यमिक तथा महाविद्यालय है। यहाँ मैं गुरुपूर्णिमा के अवसर पर पहले भी जा चुका था। यहाँ भी एक मात्र शिक्षक नियुक्त हैं तथापि यहाँ अध्ययन- अध्यापन का माहौल है।
माता आनन्दमयी पौराणिक तथा वैदिक अध्ययन एवं अनुसंधान संस्थान से आगे बढ़ते हुए स्वामी नारदानन्द आश्रम है। स्वामी नारदानन्द जी महाराज ने साधकों के लिए एक आश्रम बनवाया था। यह गोमती तट से सटा हुआ है।इस आश्रम के समीप ब्रह्मचारियों को संस्कृत की शिक्षा देने के लिए ब्रह्मचर्याश्रम संस्कृत विद्यालय की स्थापना की थी। इस विद्यालय का विशाल परिसर इसके गौरवपूर्ण अतीत का बोध कराता है। कभी यहाँ सैकड़ों की संख्या में ब्रह्मचारी संस्कृत शिक्षा प्राप्त करते थे। यह नैमिषारण्य का सबसे समृद्ध और भव्य विद्यालय था। पूरे परिसर में प्रथमा कक्षा में अध्ययन करने वाले कुल 4 छात्र मिले। छात्रों से कुशल वार्ता कर शिक्षा की जानकारी ली। देखरेख के अभाव में बच्चे मैले वस्त्र धारण किये मिले। छात्रावास की टूटी हुए खिड़कियाँ, खंडहर बनते भवन शिक्षा के पतन की गाथा कह रहे थे। छात्रावास में रहने वाले छात्रों के सोने के लिए सिमेंट से ढालकर बनाया गया चौकी, बच्चों की पुस्तकें रखने के लिए बनायी गयी आलमारी सबकुछ अवस्था प्राप्त कर लेने के कारण हमसे विदा लेने को व्याकुल दिखा। छात्रों के भोजन, जलपान की भी समुचित व्यवस्था नहीं थी। इन सारी असुविधाओं के बाद भी वहाँ रहकर बटुक विद्या का अभ्यास कर रहे हैं। संस्कृत विद्या और भारतीय संस्कृति से प्रेम करने वाले लोगों को चाहिए कि एऐसे संस्कृत विद्यालयों को गोद लेकर वहाँ शिक्षा और संसाधनों पर कुछ खर्च करें। इससे हमारी हिन्दू संस्कृति जीवन्त रह सके। हर हिन्दू भारतीयों को याद रखना चाहिए, जबतक संस्कृत विद्या जीवित है तभी तक हिन्दू संस्कृति भी जीवित है। अप्रैल से जुलाई के मध्य इन विद्यालयों में जाकर अपने सामर्थ्य के अनुसार पुस्तकें, वस्त्र, खाद्यान्न आदि दान देकर इन विद्यालयों को पोषण करना चाहिए। तीर्थ यात्रा का सच्चा फल तभी मिलेगा। मैंने इस परिसर का चित्र लेना उचित नहीं समझा। सच में इसकी दुरवस्था देखकर मुझे रोने का मन करने लगा था। मैं कुछ पल के लिए अपने अतीत में खो गया था। भवन का जीर्णोद्धार होते भी देखा। शौचालय और स्नानगार पर्याप्त मात्रा में बन चुके हैं।
माता आनन्दमयी पौराणिक तथा वैदिक अध्ययन एवं अनुसंधान संस्थान से आगे बढ़ते हुए स्वामी नारदानन्द आश्रम है। स्वामी नारदानन्द जी महाराज ने साधकों के लिए एक आश्रम बनवाया था। यह गोमती तट से सटा हुआ है।इस आश्रम के समीप ब्रह्मचारियों को संस्कृत की शिक्षा देने के लिए ब्रह्मचर्याश्रम संस्कृत विद्यालय की स्थापना की थी। इस विद्यालय का विशाल परिसर इसके गौरवपूर्ण अतीत का बोध कराता है। कभी यहाँ सैकड़ों की संख्या में ब्रह्मचारी संस्कृत शिक्षा प्राप्त करते थे। यह नैमिषारण्य का सबसे समृद्ध और भव्य विद्यालय था। पूरे परिसर में प्रथमा कक्षा में अध्ययन करने वाले कुल 4 छात्र मिले। छात्रों से कुशल वार्ता कर शिक्षा की जानकारी ली। देखरेख के अभाव में बच्चे मैले वस्त्र धारण किये मिले। छात्रावास की टूटी हुए खिड़कियाँ, खंडहर बनते भवन शिक्षा के पतन की गाथा कह रहे थे। छात्रावास में रहने वाले छात्रों के सोने के लिए सिमेंट से ढालकर बनाया गया चौकी, बच्चों की पुस्तकें रखने के लिए बनायी गयी आलमारी सबकुछ अवस्था प्राप्त कर लेने के कारण हमसे विदा लेने को व्याकुल दिखा। छात्रों के भोजन, जलपान की भी समुचित व्यवस्था नहीं थी। इन सारी असुविधाओं के बाद भी वहाँ रहकर बटुक विद्या का अभ्यास कर रहे हैं। संस्कृत विद्या और भारतीय संस्कृति से प्रेम करने वाले लोगों को चाहिए कि एऐसे संस्कृत विद्यालयों को गोद लेकर वहाँ शिक्षा और संसाधनों पर कुछ खर्च करें। इससे हमारी हिन्दू संस्कृति जीवन्त रह सके। हर हिन्दू भारतीयों को याद रखना चाहिए, जबतक संस्कृत विद्या जीवित है तभी तक हिन्दू संस्कृति भी जीवित है। अप्रैल से जुलाई के मध्य इन विद्यालयों में जाकर अपने सामर्थ्य के अनुसार पुस्तकें, वस्त्र, खाद्यान्न आदि दान देकर इन विद्यालयों को पोषण करना चाहिए। तीर्थ यात्रा का सच्चा फल तभी मिलेगा। मैंने इस परिसर का चित्र लेना उचित नहीं समझा। सच में इसकी दुरवस्था देखकर मुझे रोने का मन करने लगा था। मैं कुछ पल के लिए अपने अतीत में खो गया था। भवन का जीर्णोद्धार होते भी देखा। शौचालय और स्नानगार पर्याप्त मात्रा में बन चुके हैं।
रेलवे स्टेशन पार करते हुए श्री ललितादेवी
ऋषिकुल संस्कृत माध्यमिक विद्यालय, नैमिषारण्य तक पहुँचा। वैशाख कृष्ण त्रयोदशी के
दिन कोई सरकारी अवकाश नहीं होने के बावजूद यह विद्यालय बंद था। आसपास पता करने पर
पता चला कि यह विद्यालय त्रयोदशी के कारण बंद है आगे यह द्वितीया को खुलेगा।
अर्थात् 2 मई 2019 से लेकर 5 मई 2019 तक यह विद्यालय बंद रहेगा। खैर, शिक्षा विभाग
आँखें बंद कर क्यों सो रहा है,यह पूछा जाना चाहिए। जहाँ विना अवकास के स्कूल बंद
रहता हो वहाँ विश्वविद्यालय के बारे में चर्चा का विचार किसी को भी अचरज में डाल
सकता है। एक और बात मैंने यहाँ देखी, वह यह कि जिस विद्यालय को सरकारी मान्यता मिली
है, वह अपनी अवस्था को प्राप्त है। जिसे मान्यता नहीं मिली वह ठीक- ठाक संचालित
है। अब मैं तिराहे पर पहुँच चुका था। इसके आगे रुद्रावर्त के रास्ते में ज्ञान
स्थली देववाणी संस्कृत विद्यापीठ मिला। यह सदा शिव आश्रम तिराहा रोड, निकट पी.
डब्लू. डी. गेस्ट हाउस के निकट संचालित है। विद्यालय मान्यता प्राप्त नहीं है।
यहाँ भी प्रथमा कक्षा के छात्र मिले। इसे तीन वर्ष पूर्व आरम्भ किया गया था।
विद्यालय की व्यवस्था एवं शिक्षा अच्छी है। विद्यालय में नामांकन के लिए पम्पलेट
छपवाया गया है। प्रवेश के लिए 6393623476,9455776101,795136117, 7268905380 पर
सम्पर्क किया जा सकता है। यहाँ
हिन्दी, अंग्रेजी एवं गणित आदि की भी शिक्षा दी जाती है। विद्यालय के आचार्य की
पत्नी तथा पुत्रियाँ बच्चों का देखभाल करती है। यहाँ भोजन, स्वास्थ्य आदि का ध्यान
रखा जाता है। मैंने इनसे संस्कृत विद्यालय को सोशल मीडिया द्वारा प्रचारित करने का सुझाव दिया।
यहाँ के एक अन्य मधुर कृष्ण बाला जी संस्कृत आवासीय
विद्यालय नैमिषारण्य सीतापुर में मैं नहीं जा सका। इस विद्यालय में प्रवेश हेतु सम्पर्क - 9532271168 ,
8090194640, 9532271168
यहाँ पर पता करने पर उस संत का पता चल गया जो संस्कृत में बोलने में प्रगल्भ हैं। आपने श्रीमद्भागवत् पर शोध किया है। दिन के अपराह्ण में भीषण उमस भरा था। आश्रम का मुख्य दरवाजा बंद था। मैंने बगल के दरवाजे से प्रवेश कर संत को खोजने लगा। लोहे की चैनल को खोलकर भीतर जाने पर अध्ययनरत संत का दर्शन हो गया। इस जटाधारी संत के शरीर पर वस्त्र नहीं था। लगभग 1 घंटे तक अध्यात्म के विविध पक्षों पर वार्ता होती रही। एकाकी जीवन और वृद्धावस्था पर मेरे द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि अकेले में स्वाध्याय तथा भगवद्भजन होता है। दो व्यक्ति की उपस्थिति में वार्तालाप अतः श्रीमद्भागवत् के अनुसार मुमुक्षु को एकाकी निवास करना चाहिए। मरणधर्मा जीव मृत्यु को लेकर भयभीत रहता है। जो स्वयं भयभीत है, उससे वृद्धावस्था की क्या आशा की जाय। श्रीकृष्ण सतत रक्षा करने में समर्थ हैं। जीवन के अंत समय में राजा दशरथ के समान जल के तड़पते हुए राम राम कहते हुए प्राण चले जायेंगे। उन्होंने अपना शोध प्रबंध पढ़ने को दिया। काशी के विद्वानों पर चर्चा हुई, जिनसे उन्होंने अध्ययन किया था। चलते समय अपनी एक पुस्तक दी। कुल मिलाकर इनसे मिलना और इनके आश्रम की सादगी मुझे बहुत पसंद आया।
नैमिषारण्य
के विद्यालय में मुझे एक बात दिखी। यहाँ लोक से जुड़े विषयों यथा ज्योतिष,
कर्मकाण्ड, वेद आदि की शिक्षा भी दी जाती है। काशी में शास्त्रों की शिक्षा और यहाँ लोक जीवन से जुड़ी शिक्षा। आधुनिक विषय का एक शिक्षक ने मुझे बताया कि जब भी मैं छात्रों को ज्योतिष कर्मकाण्ड जैसे विषय से दूर रहने की सलाह देता हूँ, छात्र यहाँ से वापस लौट जाते है। तीर्थों के सहारे संस्कृत शिक्षा को जीवित रखने का प्रयास किया जा रहा है, परन्तु यह कितना और कब तक रह सकेगा कहना सम्भव नहीं है। ई- शिक्षा की यहाँ दूर - दूर तक सम्भावना नजर नहीं आती। दूरदर्शन, समाचार पत्र, संस्कृत की पत्रिकायें, सोशल मिडिया आदि के बारे में भी मैंने यथासंबव जानना चाहा। मैं यहाँ यह समझने की भरपूर कोशिश की थी कि संस्कृत के विकास के लिए जो योजनायें शहरों में बैठकर बनती है, उसके लिए कितनी समझ की जरूरत है। उन सरकारी योजनाओं के बारे में यहाँ के लोगों को कितनी जानकारी है? इनतक अपनी बात पहुँचाने के लिए कौन सा माध्यम सही है आदि। आज की तिथि में कक्षा 5 का छात्र सूचना क्रान्ति से परिचित है। सूचना के स्रोत को पहचानने लगता है। ई- शिक्षण से जुड़ा होता है। इनके लिए वह अवसर कब और कैसे आ सकता है? हम ऑनलाइन छात्रवृत्ति का फार्म भरवाने को सोच रहे हैं। यह सबकुछ कितना कारगर हो सकता है?
मैंने अपने फेसबुक पर 2018 में लिखा था- प्रतिभा पलायन, योग्य व्यक्तियों के लिए अवसर का अभाव, आरक्षितों के लिए सुरक्षित पनाह, प्रतिभाशाली बच्चों द्वारा क्षेत्र में भविष्य नहीं देखा जाना, ये सभी तत्व संस्कृत के प्रसार में भारी अवरोध पैदा कर रहा है।
मैंने अपने फेसबुक पर 2018 में लिखा था- प्रतिभा पलायन, योग्य व्यक्तियों के लिए अवसर का अभाव, आरक्षितों के लिए सुरक्षित पनाह, प्रतिभाशाली बच्चों द्वारा क्षेत्र में भविष्य नहीं देखा जाना, ये सभी तत्व संस्कृत के प्रसार में भारी अवरोध पैदा कर रहा है।
दूसरी ओर HCL
जैसी कंपनियां मात्र 12000 मासिक देकर भारी
मानव संसाधन जुटा लेती है, जबकि हम 20
से 30 हजार रुपये प्रतिमाह का ऑफर देकर भी योग्य मानव संसाधन
पाने में विफल रहते हैं। कारण - सही रणनीति तथा समानुपातिक रूप से मानव संसाधन का
अभाव होना। यदि आप बाजार में बीए. बीकॉम. बीएससी पास को खोजने निकलो तो लाखों की
संख्या में योग्य युवा उपलब्ध हो जाते हैं, परंतु यह स्थिति
संस्कृत क्षेत्र में नहीं है। यहां अल्पकालीन कार्यों के लिए भी युवा नहीं मिल
पाते। इसके अनेक कारण है। वाराणसी, प्रयाग, नैमिषारण्य, अयोध्या, वृन्दावन,
चित्रकूट जैसे तीर्थ स्थलों में भी संस्कृत पढ़ने वालों की भारी कमी
है। यहां युवा शास्त्र ज्ञान के लिए नहीं अपितु धार्मिक साहित्य अध्ययन के लिए आते
हैं, ताकि वे कथा, प्रवचन कर सके। इसका
आधार संस्कृत न होकर हिंदी या अन्य साहित्य होता है। संस्कृत शिक्षा बोर्ड तथा
संस्कृत विश्वविद्यालय के परीक्षा परिणाम में यहां के छात्र उच्चतम स्थान नहीं पा
पाते हैं। हमारे यहां कैंपस से प्रतिभाशाली छात्रों के चुनाव की परिपाटी शुरू नहीं
हो पाई। संस्कृत के लिए गठित कोई भी संस्था प्रतिभाशाली की खोजबीन नहीं करती। आज
के दौर में हम काफी पीछे हैं। वर्ष 2018 तथा 2019 का परीक्षा परिणाम देखने से यह बात सटीक लग रही है। प्रथमा, पूर्वमध्यमा तथा उत्तर मध्यमा की कक्षा के परिक्षा परिणाम में शीर्ष 3 स्थानों पर उपर्युक्त तीर्थों के बच्चे स्थान नहीं पा रहे हैं।
रुद्रावर्त की ओर
तिराहे पर
मैंने लोगों से रुद्रावर्त जाने का मार्ग पूछा। उन्होंने सीधे चलते रहने की सलाह
दी। यह खरंजा की सीधी रास्ता थी। बीच- बीच कच्चा मार्ग मिला। संभवतः मैं नदी के
किनारे किनारे जा रहा था, क्योंकि यहाँ की जमीन काफी ऊँची नीची था। लगभग 3.6 कि.
मी. चलकर मैं रुद्रावर्त पहुँच गया। यह गोमती नगी के किनारे है। फल तथा विल्वपत्र लेकर
कुंड पर पहुँचा। जैसा कि हरेक तीर्थ स्थान पर होता है, यहाँ के पुजारी भी संस्कृत
शिक्षा से शून्य मिले। विल्वपत्र जल के नीचे चला गया। इसका मूल कारण विल्वपत्र को
सीधे डालना रहा हो। पंडित ने केले को छिलकर पांच टुकड़े किये साथ में खीरा भी दिया।
इसमें से खीरा तथा केले के चार टुकड़े पानी में तैरने लगा। उसे प्रसाद के रूप में
मैंने लिया। यहाँ से खंरजे के रास्ते मैं वापस करने नहीं चाहता था । लोगों ने एक
दूसरा मार्ग बताया जो गाँव के रास्ते जाता है। इससे मात्र एक कि. मी. की दूरी
बढ़ती है। मं रात्री 10.00 बजे तक अपने घर लखनऊ आ गया।
देवदेवेश्वर मंदिर (दिनांक 10 एवं 11 जुलाई 2021 की यात्रा)
फेसबुक पर एक मित्र ने नैमिष क्षेत्र में स्थित देवदेवेश्वर मंदिर के बारे में बताया। उस मंदिर प्रांगण से सटे निम्बार्क सम्प्रदाय के काठिया बाबा का आश्रम है। वहाँ एक संत एकाकी साधना करते हैं। इस बार मैंने उनका दर्शन करना चाह रहा था। यह स्थान नैमिषारण्य से मात्र 5 किलोमीटर दूरी पर गोमती नदी के किनारे अवस्थित है। नैमिषारण्य से हरदोई रोड पर टचलते हुए इस मुख्य मार्ग से मात्र 1 किलो मीटर दूरी पर देवदेवेश्वर शिव मंदिर पर पहुँच गया।
यहाँ पर पता करने पर उस संत का पता चल गया जो संस्कृत में बोलने में प्रगल्भ हैं। आपने श्रीमद्भागवत् पर शोध किया है। दिन के अपराह्ण में भीषण उमस भरा था। आश्रम का मुख्य दरवाजा बंद था। मैंने बगल के दरवाजे से प्रवेश कर संत को खोजने लगा। लोहे की चैनल को खोलकर भीतर जाने पर अध्ययनरत संत का दर्शन हो गया। इस जटाधारी संत के शरीर पर वस्त्र नहीं था। लगभग 1 घंटे तक अध्यात्म के विविध पक्षों पर वार्ता होती रही। एकाकी जीवन और वृद्धावस्था पर मेरे द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि अकेले में स्वाध्याय तथा भगवद्भजन होता है। दो व्यक्ति की उपस्थिति में वार्तालाप अतः श्रीमद्भागवत् के अनुसार मुमुक्षु को एकाकी निवास करना चाहिए। मरणधर्मा जीव मृत्यु को लेकर भयभीत रहता है। जो स्वयं भयभीत है, उससे वृद्धावस्था की क्या आशा की जाय। श्रीकृष्ण सतत रक्षा करने में समर्थ हैं। जीवन के अंत समय में राजा दशरथ के समान जल के तड़पते हुए राम राम कहते हुए प्राण चले जायेंगे। उन्होंने अपना शोध प्रबंध पढ़ने को दिया। काशी के विद्वानों पर चर्चा हुई, जिनसे उन्होंने अध्ययन किया था। चलते समय अपनी एक पुस्तक दी। कुल मिलाकर इनसे मिलना और इनके आश्रम की सादगी मुझे बहुत पसंद आया।
हंस हंसी मंदिर
स्थानीय लोगों ने इस सुरम्य तथा एकान्त स्थान के बारे में जानकारी दी। यह सिद्ध स्थल गोमती के किनारे है। नारदानन्द आश्रम के भीतर से होते हुए रेलवे लाइन के नीचे से पार कर अजीजपुर होकर जाने पर नैमिष से इसकी दूरी कम हो जाती है, परन्तु इस मार्ग से मात्र पैदल या मोटर साइकिल से ही जाया जा सकता है। यहाँ तक जाने के लिए हरदोई रोड एक सुगम रास्ता है। गोमती नदी पर बने पुल से कुछ पहले से बायीं श्मशान की ओर चलकर यहाँ पहुँचा जा सकता है। यह एक टीलेनुमा जगह पर अवस्थित है।
अद्धभुत
जवाब देंहटाएंकटु एवम सत्य विश्लेषण
पढकर ऐसा लगा जैसे साक्षात् देख रहा हूँ
जवाब देंहटाएंनैमिषारण्य से लौटते ही इसे लिखा था। यह एक अविस्मरणीय यात्रा थी।
हटाएंमेरे लिए भी
जवाब देंहटाएंmahoday ko sadar pranam, Kal hi Naimish ki choti si yatra ki. Llita devi mandir me aur baaki jagah par bhi adhiktar yuva pandit hi mile jo ki shudh ashudh uchcharan ke sath bas dhanoparjan ke liye hi utsuk the. Dhanoparjan bhi avhshyak hai usse main puri tarah se sehmat hu kintu kya aisi divya peetho aur pauranik mahatva ke sthano par gyaani logo ko hi nahi baithna chahiye?
जवाब देंहटाएंMain IT ke kshetra me karya karta hu, June 2021 tak Covid ke karan ghar se hi kam karne ki suvidh prapt hai, Mool roop se Lucknow nivaasi hu par vartman me Noida me nivaas kar rha hu. Kya Naimish me koi sansthan aisa hai jahan par kuch samay reh kar sanskrit ka adhyyan kar saku aur sath me din ke samay apni job ko bhi karta rahu.
Jab office khul jayenge tab aisa sambhaw nahi ho payega. Magar abhi 6 mahine ka samay hai kuch sanskrit seekhna chahta hu. Aage Sanskrit ka prayog AI me voice recognition me karna ka prayas karna chahta hu kripya margdarshan karne.
सुंदर प्रयास के लिए हार्दिक बधाई!
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