करक चतुर्थी / करवा चौथ

कार्तिककृष्णचतुर्थी करकचतुर्थी ।
सा चन्द्रोदय व्यापिनी ग्राह्या।
दिनद्वये तद्व्याप्त्यादौ संकष्टचतुर्थीवन्निर्णयः।
                        --निर्णयसिन्धुः ( कार्तिककृष्णचतुर्थी विचारः)
     हिन्दू काल गणना में 5 प्रकार के वर्ष होते हैं, जिनमें सौर वर्ष और चंद्र वर्ष प्रमुख हैं । सौर वर्ष में 365 दिन और चांद्र वर्ष में 354 दिन होते हैं। सौरवर्ष अब 15 अप्रैल को शुरू होने लगा है।  भारतीय संस्कार, पर्व- त्यौहार तथा व्रत चान्द्र वर्ष की गणना के अनुसार से संपन्न होते हैं। कुछ त्यौहार संक्रांति के अवसर पर भी मनाये जाते हैं
पर्व तथा व्रत में मौलिक अंतर यह है कि पर्व या त्यौहार जहां हर्ष उल्लास और वैभव के साथ मनाया जाता है, वही व्रत में संयम पूर्वक उपवास रखते हुए संकल्प पूर्वक कार्य पूर्ण किए जाते हैं। व्रत नैमित्तिक कार्य होते हैं। इसे सुनिश्चित अवधि के लिए पालन किया जाता है। तत्पश्चात् व्रत का समापन किया जाता है। व्रत नितान्त व्यक्तिगत होता है,  जबकि पर्व- त्यौहार सामुहिक। करवा चौथ एक ऐसा व्रत है, जो सामूहिक रूप से मनाया जाता है। किसी विशिष्ट इच्छा पूर्ति के लिए व्रत किए जाते हैं। व्रत में गंभीरता का भाव अत्यधिक होता है। यह जीवन को अनुशासित रखने का माध्यम है। व्रत एवं त्यौहार में समय के साथ विभिन्न प्रकार की कहानियां, लोकगीत और कलाएं जुड़कर इसे वैभवशाली बनाती गयी। जब इन व्रतों में प्रतीकों को समाविष्ट किया जाता है तब यह और भी उल्लास से भर उठता है। व्रत में व्रती को देवी गीतों, चित्रकारी तथा अन्य क्रियाकलापों के द्वारा व्यस्त रखने की परंपरा जुड़ती चली गई। पर्व- त्यौहार एवं व्रतों का मुख्य आधार पुराण हैं। प्रस्तुत लेख विभिन्न धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुशीलन के पश्चात् लिखा गया, ताकि लेख की प्रामाणिकता असंदिग्ध हो। लेख की प्रामाणिकता  के लिए इसके चित्र भी लगाये गये हैं, जिसमें हिन्दी अनुवाद के साथ भी विधि तथा कथा दी गयी है।




सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला प्रमुख व्रत करवा चौथ है । यह एक सामूहिक व्रत है । यह व्रत सौभाग्य की प्राप्ति, पति के स्वास्थ्य, दीर्घायु तथा मंगल कामना के लिए मनाया जाता है। निर्णय सिन्धु ग्रन्थ में इस व्रत को कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को तथा धर्मसिंधु में इसे आश्विन कृष्ण पक्ष चतुर्थी को करने का निर्देश प्राप्त होता है। दक्षिण देश में यह व्रत आश्विन कृष्ण चतुर्थी को मनाया जाता है। इसे केवल स्त्रियों को ही करने का अधिकार है। उसे ही फल का लाभ भी मिलता है। इसमें सौभाग्यवती स्त्रियां दिन भर निर्जल रहकर रात्रि में चंद्र दर्शन तथा अर्घ्य देने के पश्चात पूजा करती है तथा कथा कहने और सुनने के उपरांत व्रत पूर्ण कर लेती है।

इसकी अनेक विधियां प्राप्त होती है। एक विधि इस प्रकार है--

प्रातः काल उठकर सौभाग्यवती स्त्रियां शौचादि से निवृत होकर मास पक्ष आदि का उल्लेख कर मम सौभाग्यपुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्रीप्राप्तये करकचतुर्थी व्रतं करिष्ये कहकर व्रत का संकल्प लिया जाता है। वट लिखकर गणेश, शिव, कार्तिकेय और गौरी की प्रतिमा का स्थापन कर शास्त्र अथवा कुल परंपरा के अनुसार उनका षोडशोपचार पूजन किया जाता है। यह उपवास निर्जल होता है। चंद्र दर्शन के पश्चात् उसे अर्घ्य दान देकर भोजन ग्रहण करती हैं। तांबे या मिट्टी के साथ कुल्हड़ों में जल भरकर पूजा के पश्चात् उसे दान कर दिया जाता है। इस व्रत के माहात्म्य पर एक कथा महाभारत में मिलती है। एक बार धर्मराज युधिष्ठिर के छोटे भाई अर्जुन कील गिरी पर किसी अनुष्ठान को पूरा करने के लिए से चले गए। उस समय द्रौपदी ने अपने मन में सोचा कि यहां अनेक विघ्न-बाधाएं उपस्थित होती है और अर्जुन अभी यहां नहीं है इसीलिए क्या करना चाहिए ? संयोग से उसी दिन श्री कृष्ण उन लोगों से मिलने आ गए। द्रौपदी ने उनसे पूछा कि गृहस्थ जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए क्या प्रयत्न करना चाहिए ? श्री कृष्ण ने उन्हें करवा चौथ व्रत और पित्त प्रकोप को दमन करने वाले चंद्रदेव के पूजन का विधान बताया। कृष्ण की कही हुई विधि के अनुसार समय आने पर द्रौपदी पूजन की, जिसके फलस्वरूप उसकी विघ्न बाधाएं दूर हो गई और पांडवों को युद्ध में विजय मिली। तब से भारतीय स्त्रियाँ इस व्रत को अपना लिया और बड़ी श्रद्धा के साथ अब तक मनाती आ रही है। 

दूसरी विधि तथा कथा इस प्रकार है-

     इस अवसर पर सौभाग्यवती स्त्रियों द्वारा दीवाल पर करवा बनाया जाता है, जिसमें गणेश, चंद्रमा, सात भाई तथा एक बहन तथा सात भाभी बनाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें पेड़ के पीछे छलनी में दीया रखकर चांद दिखाता हुआ भाई,धोवन और ग्वालिन बनती है। मिट्टी के अथवा पीतल के करवे से पूजा होती है। करवे की टोंटी में चार सींकें डाली जाती है। करवे के ऊपर दीपक जला कर रखा जाता है। भूमि पर एेपन से चौक बनता है। करबे के भित्ति चित्र में शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, हनुमान, चंद्रमा, सूर्य, स्वस्तिक आदि की आकृतियां बनती है। करवा को रंग कर उस पर चित्रकारी कर सजाया जाता है। इसमें चार कथाएं कही जाती है। सभी सामग्रियां चार की संख्या में चढ़ती है। कहीं-कहीं कच्चे चावल की पिन्नी, पूडी, अक्षत आदि से 4 बार करवा बदली जाती है। करवा पूजन के समय सास को पकवान, मेवे, वस्त्र, द्रव्य आदि देकर उसका चरण स्पर्श किया जाता है। धोबन को सौभाग्य देने वाली माना गया है। हर सौभाग्य सूचक मांगलिक कर्म में धोबन को सम्मिलित किया जाता है। करवा पूजन के बाद धोबन को भोजन तथा द्रव्य देकर संतुष्ट किया जाता है, तदनन्तर सौभाग्यवती स्त्रियां धोबन का चरण स्पर्श कर भोजन करतीं हैं।   इसमें करवा चौथ की कथा के साथ गणेश की कथा और पार्वती द्वारा सुहाग बांटे जाने की कथा भी कही जाती है। कुछ लोग करवा में सोना धोवन की कथा भी कहते हैं ।


  कथा इस प्रकार है ----

सात भाइयों की एक बहन थी। विवाह के बाद पहली चौथ आई। बहन ने व्रत रखा। सातों भाइयों की लाडली बहन को निराजल व्रत करता देखकर भाई परेशान थे।  सबसे छोटा भाई उसके साथ के बिना खाना ही नहीं खाता था। वह भी दिन भर दौड़-दौड़ कर आता था और कहता था बहन चल कुछ तो खा ले। बहन ने कहा, मैं तो चांद देखकर पूजा करके ही खा सकती हूं। भाई बार -बार ऊपर देख कर आता था ।चांद का पता नहीं कब निकलेगा। फिर उसने एक तरकीब सोची पेड़ पर चढ़ कर उसने यह दीपक रख दिया और आगे आटा छानने वाली छलनी टांग दी।  घर में जाकर बहन से बोला चल बहन चांद निकल आया। चलकर पूजा कर ले। वह दौडी दौडी भाभियों के पास आई और बोली आओ पूजा करने चलें । भाभियां हंस कर बोली, जाओ अभी तुम्हारा चांद निकला है। हमारा नहीं। बालिका भाई के बताए अनुसार पूजा करके अर्घ्य देकर वापस लौटी और भोजन करने बैठ गई ।पहला कौर मुख में डालते हीं उसके मुख में बाल आ गया। दूसरा कौर मुख में डालते ही छींक हुई। तीसरा कौर जैसे ही मुख में डाला वैसे ही उसकी ससुराल का नाई आ गया और सूचना दी कि उसका पति मर गया। घर में रोना-पीटना कोहराम मच गया। बेटी रोती हुई ससुराल चली। मां ने कहा, बेटी रास्ते में जो भी मिले उसको पैर छूती जाना। वह रोती जा रही थी और सबके पैर छूती जा रही थी। एक वृद्धा स्त्री मिली। उसके पैर छुए तो आशीर्वाद देती हुई बोली- जाओ बेटी सदा सुहागिन रहो। दूधो नहाओ पूतो फलो। वह रोकर बोली- माता मेरा तो सुहाग उजर गया है। वृद्धा बोली- तुम ऐसा करना अपने पति की लाश को जलने ना देना। उसे लेकर जंगल में तपस्या करना। यह  करवा चौथ  दिन तुम्हारा सुहाग उजड़ा है। अगले महीने चौथ माता  आए तो उनके पैर पकड़ लेना और कहना कि मेरा सुहाग लौटा दीजिए। उस दुखियारी ने ऐसा ही किया। सास ससुर से बोली कि मेरे पति की लाश को नहीं जलाइए। मुझे दे दीजिए। जंगल में पति की लाश ले जाकर कुटी बनाकर रहने लगी। अगले महीने चौथा आई तो पैर पकड़ कर बोली। माता मेरा सुहाग दे दो। मेरे पति को जीवित कर दो। चौथ माता बोली- मुझसे बड़ी अगले महीने की चौथ है। वह आए तो उनसे मांगना। यह कह कर वह चली गई। इस प्रकार हर महीने की चौथ आयी। सबने कही कि मुझसे बड़ी अगले महीने की चौथ है। माघ माह की संकट चौथ को सब ने कहा कि वह बड़ी है।  वह आई तो बोली कि सबसे बड़ी करवा चौथ है, जो सौभाग्य देती है। वही तुम्हें सौभाग्य लौटा सकती है। 1 वर्ष बीता। अंत में करवाचौथ आई। बालिका ने रोकर उसके पांव पकड़ लिए और बोली माता मैं आपको बिना सुहाग दिए जाने नहीं दूंगी। करवा माता पैर छुड़ाते हुए बोली। मेरा पांव छोड़ दो बेटी। परन्तु वह अडिग रही। अंत में माता हार कर बोली। अच्छा जा बेटी। आज के दिन तेरे पति के मुख में कोई सुहागिन अपनी कनिष्ठा अंगुली चीरकर रक्त डाल देगी तो तेरा पति जीवित हो उठेगा। यह कहकर माता चली गई। वह दौड़ी- दौड़ी अपने मायके गई। भाभियों से बोली- भाभी मेरे पति के मुख में  अपनी कनिष्ठिका अंगुली चीरकर रक्त डाल दो।  भाभियों ने मना कर दिया और बोली। जा अपनी छोटी भाभी के पास, जिसके पति ने छलनी में दीया दिखाकर तेरा व्रत तोड़ा था और खंडित कर आया था। वह छोटी भाभी के पास चली गई। उसने अपनी अंगुली चीरकर उसका रक्त मृतक के मुख में डाल दिया। वह राम-राम करके बैठ गया। जैसे उसके दिन लौटे वैसे ही माता करवा सबके सौभाग्य की रक्षा करें, जो इस कथा को कहे उसका सौभाग्य अचल हो।
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