पालि के प्रारम्भ काल से लेकर वर्तमान तक के साहित्य की दृष्टि से काल-विभाजन निम्न प्रकार किया जा सकता है-
1. आदि काल: ई0पू0 700-ई0पू0 543 तक
2. मध्य काल: ई0पू0 543-ई0पू0 325 तक
3. स्वर्ण काल: ई0पू0 325-ई0 600 तक
4. वर्तमान काल: ई0 सन् 600 से आज तक
प्रारम्भिक दिनों से लेकर भगवान्
बुद्ध के महापरिनिर्वाण तक का समय आदि काल में आ जाता है। मध्यकाल में पालि
साहित्य के एकीकरण अर्थात् प्रथम संगति के संगायन से लेकर अशोक कालीन तृतीय संगीति
तक का समय, सवर्ण काल में तृतीय संगीति से लेकर लंका में अट्टकथा,
टीका आदि के लिपिबद्ध किये जाने तक का समय और वर्तमान काल
में लंका,
वर्मा, थाईलैण्ड भारत आदि देशों में पालि साहित्य की नवीन सर्जना के साथ आज तक का
समय।
यद्यपि पालि का प्रादुर्भाव बुद्ध से लगभग तीन शताब्दी पूर्व ही हो गया था,
किन्तु हमें तत्कालीन कोई साहित्य नहीं प्राप्त होता है।
प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य कथा, कहानी, गीत एवं पहेली आदि के रूप में लोगों की जिह्वा पर रहता है,
जब तक उसका साहित्य लेखबद्ध नहीं हो जाता हैं। निश्चित ही
प्रारम्भिक पालि काल का साहित्य जन-सामान्य की जिह्वा पर विराजमान रहा होगा, जो आज
हमें प्राप्त नहीं होता।
लगभग तीन सौ वर्ष तक जनसामान्य की बोलचाल की भाषा रहने के पश्चात् इसका समाज
में स्थान बढ़ा, क्योंकि इसी भाषा में बुद्ध ने उपदेश दिया। अनेक गणाचार्यों पूरणकस्सप,
मक्खलिगोसाल, संजय वेलट्ठिपुत्त, निगण्ठ नाटपुत्त (महावीर स्वामी),
अजित केसकम्बलि और पकुधकच्चायन आदि ने इसी भाषा में अपना
धर्मोपदेश दिया और अपने मतों का प्रचार किया। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि बुद्ध
के प्रादुर्भाव के समय पालि ही सम्पूर्ण उत्तर भारत में जनसामान्य की भाषा थी और
भगवान बुद्ध तथा तत्कालीन गणाचार्यों की मातृभाषा थी,
अतः उन्होंने अपनी मातृभाषा को ही अपने मत के प्रचार हेतु
श्रेयस्कर समझा।
भगवान् बुद्ध ने मध्य देश में भ्रमण करते हुए उपदेश दिया था। मध्य देश, उत्तर
में हिमालय की तलहटी में स्थित प्रदेशों से लेकर दक्षिण में विन्ध्य तक और पूरब
में वर्तमान सिलई (= सललवती) नदी (बिहार में स्थित) से लेकर पश्चिम में
दिल्ली-थानेश्वर के आसपास के प्रदेशों तक अर्थात् हरियाणा राज्य तक फैला हुआ था।
भगवान् बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर भारत के विभिन्न प्रान्तों के लोग उनसे
प्रब्रजित होने के लिये आने लगे और उनकी बोलियों का प्रभाव पालि भाषा पर पड़ने
लगा। जिस प्रकार इस समय मराठी, भोजपुरी, अवधी, ब्रज एवं मगही आदि बोलियों के बोलने वाले लोग एकत्र होते
हैं तब वे आपस में हिन्दी में ही बातचीत करते हैं, परन्तु उनकी हिन्दी में उनकी मातृभाषा का पुट अवश्य होता है,
उसी प्रकार उस समय विभिन्न प्रान्तों के भिुक्षुओं के
भिक्षु-संघ में सम्मिलित होने के कारण पालि भाषा पर उनकी बोलियों का प्रभाव पडने
लगा। कय्य = करिय, अय्य = अय्यर= अरिय, अम्हि = अहस्म, अय्यक - अरिय जैसे शब्दों की भिन्नता प्रान्तीय बोलियों
के कारण होने लगी।
उस समय कुछ ब्राह्मण जाति से प्रब्रजित हुए भिक्षुओं को यह बात अच्छी नहीं
लगती थी कि वे बुद्ध-वचन को सङ्कर होने दें। वे उसे ‘छान्दस’ भाषा की भांति परिशुद्ध रखना चाहते थे। एक दिन उनमें से
यमेड़ और तेकुल नामक भिक्षु भगवान् के पास गये और उन्हें प्रणाम करके कहा- ‘भन्ते! इस समय विभिन्न नाम, गोत्र, जाति और कुल से प्रव्रजित भिक्षु हैं। वे अपनी-अपनी भाषा ((सकाय निरुत्ति) में बुद्ध वचन को दूषित करते हैं। अच्छा हो भन्ते! हम बुद्धवचन को
छान्दस् में कर दें। बुद्ध को यह अच्छा नहीं लगा। उन्हांने उन्हें फटकारा और कहा-
यह उचित नहीं कि बुद्ध-वचन छान्दस् में हों। यह न तो श्रद्धा रहित लोगों में
श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए होगा और न श्रद्धावानों की श्रद्धा बढ़ाने के लिए ही।
भिक्षुओं। मैं तुम्हें अनुमति देता हूं, अपनी भाषा (संकाय निरुत्ति) में बुद्ध-वचन सीखने की।’’
उन्होंने पुनः कहा कि ‘बुद्ध-वचन को छान्दस् भाषा में नहीं करना चाहिये,
जो करेगा उसे दुष्कृत (दुक्कट) का दोष लगेगा।’’
बुद्ध यह नहीं चाहते थे कि उनका धर्म मात्र कुछ लोगों तक
सीमित रहे। वे चाहते थे कि सारी जनता उसे जाने, समझे और उसके अनुसार चलकर अपना कल्याण करे।
बुद्ध ने एक अवसर पर भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए भाषा के सम्बन्ध में
बताया- ‘‘भिक्षुओं! जनपद की भाषा का आग्रह नहीं करना चाहिये और न
ही नामों के पीछे ही दौड़ना चाहिये, क्योंकि एक ही वस्तु किसी जनपद में ‘पाती’ नाम से जानी जाती है तो किसी में पत्त,
वित्त सराव, धरोप, पोण, पिसीलव। अतः जैसे- जैसे इन जनपदों मे जानते हैं,
वैसे -वैसे वहां बिना आग्रह शब्दों का व्यवहार करना चाहिये।
(जनपद निरुत्तिं नामिनिवेसेय्य, समञ्ञं नातिधवेय्या’ ति-इति खो पनेतं वुत्तं। किञ्चेतं पटिन्चवुत्तं? कथञ्च, भिक्खवे, जनपदनिरुत्तिया च अभिनिवेसो होति समञ्ञाय च अतिसारो? इध, भिक्खवे, तदेवेकन्येसु जनपदेसु ‘पाती’ ति सञ्जानन्ति, ‘पत्तं’ तिसत्रजानन्ति ‘वित्तं’ ति सञ्जानन्ति, ‘सरावं’ ति सञ्जानन्ति, ‘धारोपं’ ति सञ्जान ‘पोणं’ ति सञ्जानन्ति, ‘सरावं’ ति सञ्जानन्ति, ‘धारोपं’ ति सञ्जान ‘पोणं’ ति सञ्जानन्ति, ‘पिसीलवं’ ति सञ्जानन्ति। इति यथा यथ नं तेसु तेसु निपदेसु सञ्जानन्ति ‘इदं किर मे आयस्मत्तो सन्धाय बोहरनी’ ति तथातथा बोहरति अपरामसं।) मज्झिमनिकाय 3.4.1
(जनपद निरुत्तिं नामिनिवेसेय्य, समञ्ञं नातिधवेय्या’ ति-इति खो पनेतं वुत्तं। किञ्चेतं पटिन्चवुत्तं? कथञ्च, भिक्खवे, जनपदनिरुत्तिया च अभिनिवेसो होति समञ्ञाय च अतिसारो? इध, भिक्खवे, तदेवेकन्येसु जनपदेसु ‘पाती’ ति सञ्जानन्ति, ‘पत्तं’ तिसत्रजानन्ति ‘वित्तं’ ति सञ्जानन्ति, ‘सरावं’ ति सञ्जानन्ति, ‘धारोपं’ ति सञ्जान ‘पोणं’ ति सञ्जानन्ति, ‘सरावं’ ति सञ्जानन्ति, ‘धारोपं’ ति सञ्जान ‘पोणं’ ति सञ्जानन्ति, ‘पिसीलवं’ ति सञ्जानन्ति। इति यथा यथ नं तेसु तेसु निपदेसु सञ्जानन्ति ‘इदं किर मे आयस्मत्तो सन्धाय बोहरनी’ ति तथातथा बोहरति अपरामसं।) मज्झिमनिकाय 3.4.1
इस प्रकार पालि भाषा में अनेक प्रान्तीय बोलियों के अननित शब्दों का समावेश
हैं यही भाषा मगध शासकों की राजभाषा बनी और उसका नाम मागधी पड़ा। वह मागधी
सम्पूर्ण मध्य देश (मज्झिमदेस) की भाषा थी तथापि मगध के राजाओं ने उसे अधिक उपयोगी
देखकर ही राजभाषा बनाया था। इसमें संशय नहीं कि उस पर मगध की तत्कालीन बोली का
पर्याप्त प्रभाव पड़ा होगा।मध्यदेश की तत्कालीन भाषा के अनक नाम प्रचलित हें,
किन्तु त्रिपिटक में एक भी नाम नहीं प्राप्त हैं।
वास्तव में आदिकाल में उस भाषा के लिये पालि, मागधी, तन्ति आदि नामों का प्रयोग नहीं होता था। अट्टकथा ग्रन्थों के अनुसार वह भाषा ‘सकाय निरुत्ति ( अपनी भाषा) कहलाती थी। ‘सकाय निरुत्ति’ ही बाद में मागधी के नाम से व्यवहार में आई। यद्यपि मागधी राजभाषा बन चुकी थी, फिर भी अम्बट्ट, पोक्खरसाति, सोणदण्ड, कूटदन्त, वासेट आदि ब्राह्मण ‘छान्दस्’ के माध्यम से अध्ययन कर रहे थे, किन्तु जनसाधारण के लिये उन्हें भी मागधी का ही प्रयोग करना पड़ता था। कोसल नरेश प्रसेनजित, मगधनरेश बिम्बिसारं आदि राजाओं की राजभाषा में यही भाषा प्रयुक्त होती थी।
वास्तव में आदिकाल में उस भाषा के लिये पालि, मागधी, तन्ति आदि नामों का प्रयोग नहीं होता था। अट्टकथा ग्रन्थों के अनुसार वह भाषा ‘सकाय निरुत्ति ( अपनी भाषा) कहलाती थी। ‘सकाय निरुत्ति’ ही बाद में मागधी के नाम से व्यवहार में आई। यद्यपि मागधी राजभाषा बन चुकी थी, फिर भी अम्बट्ट, पोक्खरसाति, सोणदण्ड, कूटदन्त, वासेट आदि ब्राह्मण ‘छान्दस्’ के माध्यम से अध्ययन कर रहे थे, किन्तु जनसाधारण के लिये उन्हें भी मागधी का ही प्रयोग करना पड़ता था। कोसल नरेश प्रसेनजित, मगधनरेश बिम्बिसारं आदि राजाओं की राजभाषा में यही भाषा प्रयुक्त होती थी।
इस भाषा का क्रमशः इतना प्रभाव बढ़ा कि वह राजभाषा ही नहीं,
देवभाषा समझी जाने लगी। बुद्ध-भक्तों का दृढ़ विश्वास हो
गया कि सभी बुद्ध इसी भाषा में उपदेश देते हैं। यही मूल भाषा है और ब्रह्मलोक से
लेकर नारकीय प्राणी तक इसका प्रयोग करते हैं-
सा मागधी मूलभासा, नरा यायादि कप्पिका।
ब्रह्मानो चतुस्सालापा, सम्बुद्धा चापि भासरे।।
इस प्रकार मागधी का बौद्ध-जगत में इतना महत्त्व बढ़ा कि उसने इसे दृढ़तापूर्वक
अपना लिया। बाद में आचार्य बुद्धघोष ने ‘सकाय निरुति’ की समन्तपासादिका में व्याख्या करते हुए लिखा है- ‘‘भगवान् बुद्ध द्वारा कही गई मागधी भाषा को ही ‘सकाय निरुति’ कहते है। (तत्थ सकाय निरुत्ति नाम सम्मानसम्बुद्धने बुत्तप्पकारो वोहारो। समन्त पासादिका 5.6.1
पालि नाम पड़ने का कारण--
मागधी के पालि नाम पड़ने के विषय में विभिन्न मत हैं। कोई कहता है कि पालि भाषा पाटलिपुत्र की भाषा थी। अतः इसका नाम पाटलि से पाउलि और पुनः पाटलि से पालि हो गया। किसी का कहना है कि पल्लि अर्थात् ग्राम की भाषा से पालि नाम पड़ा। पालि के वैयाकरणों का कहना है कि पालि ‘पा = क्खणे’ धातु से बनी है। इसका अर्थ ‘पात्रपालेति रक्खतीति पालि (त्र पंक्ति हो सकता है; यथा दत्तपालि (दातों की पंक्ति), तकाकपालि (त्र तड़ाक की पंक्ति), खेत्तपालि (= खेत की पंक्ति) आदि। (पन्ति वीथ्यावलि स्सेणी पालि। अभिधानप्पदीपिका 539इस प्रकार हम पालि का अर्थ कर सकते हैं- बुद्ध वचनों की पंक्ति अथवा वह भाषा जो बुद्ध-वचन की रक्षा करती है। डाॅ0 रीज डेविड्स और गायगर के अनुसार पालि शब्द ‘परियाय’ शब्द का अपभ्रंश हैं। भिक्षु जगदीश काश्यप का भी यही अभिमत है। भिक्षु जगदीश काश्यप के अनुसार पालि शब्द का प्राचीनतम रूप हमें ‘परियाय’ शब्द में प्राप्त होता है। ‘परियाय’ शब्द त्रिपिटक में अनेक बार आया है। कहीं-कहीं धम्म शब्द के साथ और कहीं-कहीं अकेले भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। यथा, ‘को नामो अयं भत्ते धम्मपरियायो’, ‘भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो’ आदि। इन स्थलों में परियाय शब्द बुद्धोपदेश अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कालान्तर में परियाय का विकृत रूप पलियाय बना। पुनः ‘पलियाय’ से ‘पालियाय’ शब्द बुद्धोपदेश अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कालान्तर में परियाय का विकृत रूप पलियाय बना। पुनः ‘पलियाय’ से ‘पालियाय’ और अन्त में उसका संक्षिप्त रूप पालि हुआ। यह पालि शब्द बुद्ध-वचन या मूल त्रिपिटक के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।
त्रिपिटक में अनेक स्थल हैं, जहां ‘धम्मपरियाय’ का प्रयोग किया गया है यथा-
1. सब्बधम्ममूलपरियायं वो भिक्खवे! देसिस्सामि। मज्झिमनिकाय (म0नि0), मूलपरियायसुत्त)
2. इति खो चुन्द! देसितो मया सल्लेखपरियायो। म0नि0 सल्लेखसुत्त
3. अपि च में, भन्ते, इयं धम्मपरियायं सुत्वा लोमानि हट्टान्ति। को नादसुत्त
4. तस्मातिह त्वं, आनन्द, इमं धम्मपरियायं अत्थजालं ति पि नं धारेहि,
धम्मजालं तिपि नं धारेहि, ब्रह्मजालं ति पि नं धारेहि, दिट्टिजालं ति पि नं धारेहि, अनुत्तरो सङ्गामविजयोति पि नं धारेहि। दीघनिकाय-ब्रह्मजाल सुत्त।
इन उद्धरणों से स्पष्ट हे कि ‘धम्मपरियाय’ का अर्थ है धर्मोपदेश। हम यह पाते हैं कि यह ‘धम्मपरियाय’ शब्द अशोक के समय तक आते-आते ‘धम्मपलियाय’ हो गया था। हम अशोक के शिलालेखों में इसका (धम्मपलियाय का प्रयोग पाते है। प्रतीत होता है कि बाद में चलकर धम्मपलियाय से पालियाय हो गया और उसी से
धम्मपलियाय का अर्थ लिया जाने लगा। जैसे हम लोग कई बार धर्मोपदेश न कहकर केवल
उपदेश ही कहते हैं। जब त्रिपिटक के साथ पालियाय शब्द लंका पहुंचा तो उसका अर्थ
कालान्तर में धर्मसूत्र और बुद्ध वचन के स्थान पर भाषा में परिवर्तित हो गया एवं ‘पालियाय’ शब्द का केवल ‘पालि’ मात्र ही इस भाषा के लिये व्यवहृत हुआ। श्रीलंका के साथ-साथ
सम्पूर्ण बौद्ध जगत् 19वीं शताब्दी से ‘पालि’ का प्रयोग भाषा के अर्थ में करने लगा।
पालि साहित्य--
भगवान बुद्ध के समय तक पालि साहित्य का प्रत्येक अंग विच्छिन्न
अवस्था में था। उसे सुव्यवस्थित एवं एकबद्ध करने का न तो प्रयत्न किया गया और न तो
उसकी आवश्यकता ही थी। उनके परिनिर्वाण के पश्चात् बुद्धवचन का स्वरूप प्रथम,
द्वितीय एवं तृतीय संगीतियों के माध्य से समय-समय पर भिक्षु संघ को एकबद्ध भी
किया गया।
पालि साहितय का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है। सम्पूर्ण त्रिपिटक अनुपिटक साहित्य,
त्रिपिटक पर लिखी गई अट्टकथायें,
अट्टकथाओं के ऊपर लिखी गई टीकायें,
वंस साहित्य, पालि काव्य, व्याकरण, कोश, छन्दशास्त्र एवं अभिलेख साहित्य एवं वर्तमान समय तक लिखे गये
साहित्य ये सभी पालि साहित्य के अन्तर्गत आते हैं।
त्रिपिटक--
यह भगवान् बुद्ध के कल्याणकारी उपदेशों का संग्रह है। इसमें विश्व के सभी प्राणियों के हित-सुख के लिये मार्ग बताया गया। वर्तमान में सम्पूर्ण संसार में त्रिपिटक जैसा महान् जन-कल्याणकारी कोई दूसरा साहित्य नहीं हैंो. यह मनुष्य के लिये इस लोक और परलोक दोनों दृष्टियां से महान् कल्याणकारी है। इसमें ऊंच-नीच एवं स्पृश्यता के भाव को तिलांजलि देने एवं विश्वबन्धुत्व की शिक्षा दी गई है। त्रिपिटक साहित्य हमें भारत के गौरवमय इतिहास परिचित कराता है। त्रिपिटक का अर्थ है पिटारी अर्थात् पात्र जिसमें कुछ रखा जाय। स्वभाव एवं विषय की दृष्टि तथागत के वचनों को तीन पिटकों में विभक्त किया गया है- सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटक।सुत्तपिटक--
इसमें शास्ता के ऐसे उपदेशों का संग्रह है,
जो जनसाधारण के लिये बोधगम्य हैं। इसमें उन्हीं सुतों एवं
गाथाओं का संग्रह है जिन्हें तथागत अथवा उनके शिष्यों ने भिन्न-भिन्न अवसरों पर
कहा था। कथा, कहानियों, संवादों, तर्क एवं उपमाओं के माध्यम से भाषित बुद्ध-वचनों के संग्रह इस त्रपिटक में
है। इसमें भगवान् बुद्ध और उनके प्रधान भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक एवं उपसिकाओं के जीवन-चरित आये हुए हैं। इनका अध्ययन
करके पवित्रता, सच्चरित्रता, निष्कामता एवं मुक्ति की शिक्षा को ग्रहण किया जा सकता है।
इसमें प्रागैतिहासिक और बुद्धकालीन भारत तथा भारत से सम्बन्धित अन्य देशों की
ऐतिहासिक सामग्री पाई जाती है। इसे हम बुद्धकालीन धर्म,
समाज, सभ्यता, संस्कृति, दर्शन और समाज का इतिहास ग्रन्थ कह सकते हैं।
यह पांच निकायों में विभक्त है- दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय एवं खुद्दकनिकाय।
दीघनिकाय--
बड़े आकार के सुत्तों का संग्रह हैं यह तीन वर्गों- सीलक्खन्धवग्ग,
महावग्ग औरपाथिकवग्ग में विभक्त हैं सीलक्खन्धवग्ग का प्रथम
सुत्त ब्रह्मजालसुत्त है। इसमें आरम्भिक, मध्यम और महा शीलों के साथ 62 प्रकार के दार्शनिक मतों का
भी विवेचन है। दूसरों सामञ्ञफलसुत्त में तत्कालीन छः तीर्थंकरों के मतों के साथ शील,
समाधि एवं प्रज्ञा का विवेचन है। सीलक्खन्धवग्ग के शेष11 सुत्तों में भी शील, समाधि और प्रज्ञा की सुन्दर व्याख्या की गई है। इसका दूसरा
वग महावग्ग है।
इसके प्रथम सुत्त महापदान में गौतम बुद्ध से पूर्व के पांच बुद्धों का विस्तृत परिचय,
द्वितीय सुत्त महापदान में प्रतीत्य समुत्पाद का सम्यक् विश्लेषण,
तीसरे सुत्त महापरिनिब्दानसुत्त में तत्कालीन भारत की सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक अवस्था के वर्णन के साथ-साथ, भारत के इतिहास भगवान् बुद्ध की अन्तिम देशना, उनकी अन्तिम जीवन यात्रा एवं उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी विस्तृत वर्णन है। इसी वग्ग के अन्य सुत्तों में चार स्मृति प्रस्थानों का विवेचन एवं नास्तिकवाद का खण्डन किया गया है। पाथिकवग्ग का पहला सुत्त पाथिक है। इसी के नाम पर वग्ग का नाम है। इसके चैथे सुत्त अग्गञ्ञसुत्त में वर्णव्यवस्था के खण्डन के साथ-साथ प्रलय एवं पुनः सृष्टि का वर्णन है।
आठवां सुत्त सिगालोवाद गृहस्थ जीवन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।
दसवें और ग्यारहवें सुत्त संगीतिपरियाय और दसुत्तर बुद्ध मन्तव्यों की सूची की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
इसके प्रथम सुत्त महापदान में गौतम बुद्ध से पूर्व के पांच बुद्धों का विस्तृत परिचय,
द्वितीय सुत्त महापदान में प्रतीत्य समुत्पाद का सम्यक् विश्लेषण,
तीसरे सुत्त महापरिनिब्दानसुत्त में तत्कालीन भारत की सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक अवस्था के वर्णन के साथ-साथ, भारत के इतिहास भगवान् बुद्ध की अन्तिम देशना, उनकी अन्तिम जीवन यात्रा एवं उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी विस्तृत वर्णन है। इसी वग्ग के अन्य सुत्तों में चार स्मृति प्रस्थानों का विवेचन एवं नास्तिकवाद का खण्डन किया गया है। पाथिकवग्ग का पहला सुत्त पाथिक है। इसी के नाम पर वग्ग का नाम है। इसके चैथे सुत्त अग्गञ्ञसुत्त में वर्णव्यवस्था के खण्डन के साथ-साथ प्रलय एवं पुनः सृष्टि का वर्णन है।
आठवां सुत्त सिगालोवाद गृहस्थ जीवन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है।
दसवें और ग्यारहवें सुत्त संगीतिपरियाय और दसुत्तर बुद्ध मन्तव्यों की सूची की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
मज्झिम निकाय--
मज्झिम निकाय सुत्तपिटक का दूसरा ग्रन्थ है। यह तीन पण्णासकों मूलपण्णासक,
मज्झिम पण्णासक और उपरिपण्णासक में विभक्त है। इनमें 50,
50 और 52 के क्रम से कुल 152 सुत्त हैं। यह सुत्तपिटक का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। यदि
सम्पूर्ण त्रिपिटक और बौद्ध साहित्य नष्ट हो जाय, मात्र मज्झिम निकाय ही रहे तो भी इसकी सहायता से हमें
भगवान् बुद्ध के महान् व्यक्तित्व, उनके दर्शन और अन्य शिक्षाओं के सार को समझने में कोई
कठिनाई नहीं होगी। इसी ग्रन्थ में मूलपरियायसुत्त जैसा गम्भीर बुद्धोपदेश है।
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने इसे बुद्ध वचनामृत कहा है।
संयुत्त निकाय--
संयुत्त निकाय सुत्तपिटक का तीसरा ग्रन्थ है। आकार में दीघ और मज्झिम दोनों
से बड़ा है। इसमें 5 बड़े-बड़े वग्ग हैं--
(1) सगाथवग्ग, (2) निदानवग्ग (3) खन्धवग्ग, (4) सलायतनवग्ग और (5) महावग्ग। इन वग्गों का विभाजन विषयानुसार हुआ है। इस निकाय
में कुल 54 संयुत्त हैं।
इस निकाय में ज्ञान, धर्म, दर्शन और मुक्ति मार्ग कापर्याप्त वर्णन है। इसके सगाथवग्ग
के देवता आदि संयुत्तों में जो प्रश्नोत्तर आये हुए हैं,
वे बड़े काम के हैं। निदानवग्ग में प्रतीत्यसमुत्पाद एवं
भवचक्र की व्याख्या है। खन्धवग्ग में पंचस्कन्धों की व्याख्या है। सलायतनवग्ग में छः आयतनों एवं
पांच स्कन्धों का विवेचन है। महावग्ग में बौद्ध धर्म के विभिन्न तत्वों को समझाया
गया है। इसमें साधना सम्बन्धी सुत्तों की बहुलता है।
अंगुत्तरनिकाय--
यह निपात 11 निपातों एवं 169 वग्गों में विभक्त है। इसमें सभी सुत्त वर्णित विषय की
बढ़ती संख्या के क्रम से रखे गये हैं। एकक निपात में उन्हीं विषयों का वर्णन है जो
एक है,
ऐसे ही दुक निपात में दो, तिक निपात में तीन, चतुक्क निपात में चार आदि का (दुक-दो बल,
प्रतिसंख्यान बल और भावना बल’ तीन मद--यौवन मद, आरोग्य मद और जीवन मद) यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें
भगवान् बुद्ध के धर्मोपदेश के साथ उन 41 भिक्षु, 12 भिक्षुणियों, 11 उपासक तथा 10 उपासिकाओं का उल्लेख है जो विभिन्न क्षेत्रों में श्रेष्ठता
प्राप्त होने के कारण भगवान् द्वारा प्रशंसित थे। इस ग्रन्थ से बुद्धकालीन इतिहास,
दर्शन, भूगोल एवं सामाजिक और राजनैतिक स्थिति की जानकारी होती है।
इसी ग्रन्थ (तिक निपात) में लोक विश्रुत कालाम सुत्त आया है, जिसमें भगवान् ने बुद्धि स्वातन्त्र्य का उपदेश दिया है। इस
सुत्त को मानवीय विवेक की स्वतन्त्रता का सर्वोत्तम घोषणा-पत्र भी कहते हैं। इसमें
बुद्धकालीन 16 जनपदों तथा दस गणतन्त्रों का विशद वर्णन है। यह निकाय विभिन्न ज्ञान से पूर्ण
हैं
खुद्दकनिकाय--
यह सुत्तपिटक का 5वां निकाय है, 15 भागों में विभक्त है, जिनके विषय भी भिन्न-भिन्न हैं। वे हैं- 1.
खुद्दकपाठ, 2. धम्मपद, 3. उदान, 4. इतिवुत्तक, 5. सुत्तनिपात, 6. विमानवत्थु, 7. पेतवत्थु, 8. थेरगाथा, 9. थेरीगाथा, 10. जातक, 11. निद्देस, 12. पटिसम्मिदामग्ग, 13. अपदान, 14. बुद्धवंस, 15. चरियापिटक।
दीघनिकाय की अटुकथ सुमंलविलसिनी में कहा गया है-
ठपेत्वा चतुरोपेते निकाये दीघमादिके।
तदञ्ञं बुद्धवचनं निकायो खुद्दको मतो।।
इस परिभाषा के अनुसार खुद्दकनिकाय के 15 ग्रन्थों के अतिरिक्त सम्पूर्ण विनयपिटक और अभिघम्मपिटक
खुद्दकनिकाय के अन्तर्गत आते हैं। ऐसा ही कथन अट्टसालिनी की निदान कथा में भी आया
ह। खुद्दकनिकाय विविध प्रकार की कथावस्तु, धार्मिक विवेचन, इतिहास, भूगोल, जीवन-चरित्र, धर्म-संग्रह, भाष्य, स्वर्ग-नरक के वर्णन, ज्ञान-प्रभेद, बुद्ध-चर्या, पारमिता आदि धर्मो का अपूर्व संग्रह है। इसमें गद्य,
पद्य, चम्पू एवं कथायें हैं। इसमें गम्भीर उपदेश,
दर्शन, जीवन की अनुभूतियां, उत्तम धर्म और सबसे बढ़कर जीवन की आकांक्षा के प्रति आकर्षण
एवं विमुक्ति रस का आस्वादन है। इस निकाय के प्रत्येक ग्रन्थ का अपना महत्व है और
सभी अपने में पूर्ण हैं। इसके तीन ग्रन्थ धम्मपद, सुत्तनिपात एवं जातक लोक में विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
विनयपिटक--
प्रथम संगीति के समय सर्वप्रथम विनय का संगायन
किया गया था। उपलि महास्थविर इसके प्रधान थे , जिनके विषय में भगवान् ने कहा था- ‘‘भिक्षुओं!
मेरे विनय धारण करने वाले शिष्यों ने यह उपालि श्रेष्ठ है (एतदग्गं, भिक्खवे, मम सावकानं भिक्खूनं विनयधरानं यदिदं
उपालि।) अंगुत्तरनिकाय, भा0 1, ईगत0, पृ0 34)। विनयपिटक
में भिक्षु भिक्षुणियों के आचार सम्बन्धी
नियम है। ऐतिहासिक दृष्टि से हम कह सकते हैं कि यह संघ के क्रमिक विकास का
महत्त्वपूर्ण विवरण है।
विनय
पिटक तीन भागों में विभक्त है- (1) सुत्तविभंग,
(2) खन्धक, (3) परिवार। पुनः
सुत्तविभंग भिक्खु विभंग और भिक्खुनी विभंग में विभक्त है। भिक्खु विभंग में
भिक्षुओं के पातिमोक्ख सम्बन्धी 227 नियम हें और
भिक्खुनी विभंग में भिक्षुणियों के आचार सम्बन्धी 311 नियम है। खन्धक में दो ग्रन्थ हैं- (1) महावग्ग
और चुल्लवग्ग। महावग्ग में 10 अध्याय हैं। यह विनय
पिटक का अत्यधिक महत्वपूर्ण अंश है। इसमें भगवान बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन से
लेकर जीवन के अन्तिम समय का विवरण है। इसके साथ ही ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक वर्णन भी उपलब्ध
हैं।
चुल्लवग्ग भी विनय पिटक का महत्वपूर्ण अंश है।
इसमें 12 अध्याय (खंधक) हैं। यहां पर छोटी-मोटी शिक्षाओं और नियमों के विधान का
वर्णन है। इससे हमें शिक्षापदों के क्रमिक विकास का ज्ञान भली प्रकार होता है।
इसमें संघ भेद और प्रथम तथा द्वितीय संगीतियों के वर्णन उपलब्ध होते है।। इसके साथ
ही ऐतिहासिक, भौगोलिक सामाजिक, नैतिक और आर्थिक तथ्यों से सम्बन्धित सामग्री यहां पर पर्याप्त प्राप्त
होती है।
परिवार विनय पिटक का अन्तिम भाग एवं उसका सार
हैं इसमें 21 परिच्छेद हैं। इन परिच्छेदों में सुत्तविभंग और खन्धक में आये शिक्षापदों
के सम्बअन्ध में प्रश्नोत्तर हैं। इसमें विनय पिटक के विषय की पुनरावृत्ति की गई
हैं। अतः विषय की दृष्टि से इसमें कोई नई बात नहीं है, विनय
के विषय को मात्र समझाने के लिये प्रयत्न है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में उपालि
महास्थविर से लेकर 34 स्थविर पीढि़यों तक की विनय परम्परा का उल्लेख है।
अमिधम्मपिटक--
व्यवहार और परमार्थ की दृष्टि से भगवान् बुद्ध
की शिक्षाओं को दो भागों में विभक्त करते हैं-
1-जन-साधारण को बोधगम्य व्यावहारिक उपदेश
2-पण्डितों के लिये बोधगम्य पारमार्थिक। यह पारमार्थिक उपदेश ही
अभिधम्म है। विशिष्ट धर्म का ही नाम अभिधम्म हैं। यहां अभि उपसर्ग हैं और यह अतिरेक
अर्थ एवं विशिष्ट अर्थ को बतलाता है। सुत्तपिटक आदि की अपेक्षा यह अधिक विशिष्ट
और परमार्थ धर्म का प्रकाशन करता है, अतः अभिधम्म कहा जाता हैं। इसमें दर्शन विषयक बुद्ध के गूढ़ और गम्भीर
उपदेश हैं। इसमें चित्त, चैतसिक आदि धर्मों का विशद
विश्लेषण किया गया हैं। विज्ञान, संस्कार, वेदना, संज्ञा आदि विषयों पर दार्शनिक गवेषणा की गई है और आस्रवरहित निर्वाण
की प्राप्ति का साधन बताया गया है। यह बौद्ध धर्म का दर्शन-ग्रंथ है।
अभिधम्मपिटक में 7 ग्रन्थों का समावेश है। वे हैं- धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, पुगलपञ्ञत्ति, कथावत्थु, यमक और
पट्टान।
धम्मसंगणि-- यह अभिधम्मपिटक का सर्वप्रमुख और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
ग्रन्थ हैं वास्तव में यह सम्पूर्ण अभिधम्मपिटक की प्रतिष्ठा ह। इसमें मानसिक और
भौतिक जगत की अवस्थाओं का संकलन गणनात्मक और परिप्रश्नात्मक शैली के आधार पर किया
गया है। इसमें आन्तरिक और वाह्य संपूर्ण जगत् की नैतिक व्याख्या की गई है। इसका
तात्पर्य है कि कर्म के शुभ (कुशल), अशुभ (अकुशल) और इन
दोनों से भिन्न एवं अव्याख्येय (अव्याकृत) विपाकों के रूप में व्याख्या की गई है।
विभंग--यह अभिधम्मपिटक का दूसरा ग्रन्थ है। विभगी का अर्थ है विस्तृत रूप से विभाजन या
विवरण। इसमें धम्मसंगणि के विस्तृत विश्लेषण को वर्गबद्ध किया गया है। अतः विभग
धम्मसंगणि के पूरक ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। धम्मसंगणि का
प्रधानविषय धर्मो का विश्लेषण मात्र कर देना है। उनका स्कन्ध, आयतन और धातु आदि के रूप में संश्लिष्ट वर्गीकरण करना विभंग का विषय है।
इसकी विषय-वस्तु 18 विभांगों में विभक्त हैं। ये
हैं-- खन्ध विभंग, आयतन विभंग, धातु विभंग, सच्च विभंग, इन्द्रिय विभंग, पच्चयाकार विभंग, सतिपट्ठान विभंग, सम्मप्पधान विभंग, इदि्धपाद विभंग, बोज्झंग विभंग, मग्ग विभंग, झान
विभंग, अप्पमञ्ञ विभंग, सिक्खापद
विभंग, पटिसम्मिदा विभंग, ञाण
विभंग, खुद्दकवत्थु विभंग, धम्म
हृदय विभंग।
धातुकथा--यह अभिधम्मपिटक का तीसरा ग्रन्थ है। इसमें
धम्मसंगणि में आये हुए धर्मों को मत्रिका रूप में रखकर प्रश्नोत्तर द्वारा उनका
विश्लेषण किया गया हैं इसे उद्देश्य और निर्देश दो भागों में विभक्त किया गया है।
उद्देश्य मात्रिकाओं का नाम है और निर्देश व्याख्या का। इसमें पांच स्कन्ध आयतन, धातु, सत्य, इन्द्रिय, प्रतीत्य समुत्पाद, स्मृति-उपस्थान, सम्यक् प्रधान, ऋद्धिपाद ध्यान, अप्रमाण्य (ब्रह्मविहार), पांच इन्द्रिय, पांच बल सात बोध्यंग और आर्य
अष्टांगिक मार्ग का पर्याप्त विवेचन है।
पुग्गलपञ्ञत्ति--यह अमिघम्मपिटक का चौथा ग्रन्थ है। पुग्गल शब्द
का अर्थ है व्यक्ति और पञ्ञत्ति शब्द का अर्थ है पहचान। इसमं व्यक्तियों का नाना
प्रकार से वर्णन किया गया हैं गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर लोक में जितने प्रकार के व्यक्ति हैं, उन सभी का विवेचन यहां पर किया गया है। इसकी वर्णन श्पौली अंगुत्तरनिकाय
और दीघनिकाय के दसुत्तरनिकाय वं संगीतिपरियायसुत्त जैसी हैं एककपुग्गलपञ्ञत्ति, और अन्त में दसक पुग्गलपञ्ञत्ति के क्रम से इसमें दस अध्याय हैं प्रथम
अध्याय में एक-एक प्रकार के, द्वितीय अध्याय में दो-दो
प्रकार के और इसी प्रकार बढ़ते हुए दसवें अध्याय में दस-दस प्रकार के व्यक्तियों
का निर्देश है।
कथावत्थु--कथावत्थु की रचना आचार्य मोग्गलिपुत्त तिस्स
स्थविर ने बुद्ध-परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद अशोक के समय की थी। इसे अभिधम्मपिअक के पांचवें ग्रन्थ के रूप
में मान्यता दी गई। यह अपे क्षेत्र में अकेला तर्कशास्त्रा और भिक्षु-संघ का
इतिहास है। इसमें स्थविरवाद को प्रामाणिक मानकर तत्कालीन अन्य 17 बौद्ध निकायों के मतों का ाण्डन किया गया हैं यह ग्रन्थ23 वग्गवों में विभक्त है। इसमें पुगलकथा से लेकर अपरिनिप्फन्न कथा तक कुल 217 कथायें आई हैं
यमक--यह अमिधम्मपिटक का छठवां ग्रन्थ है। ‘यमक’ का
अर्थ है जोड़ा। इसमें प्रश्नों को जोड़े के रूप में रखा गया है, जैसे- क्या सभी कुशल धर्म कुशल मूल है? क्या
सभी कुशल मूल कुशल धर्म है? यह दस यमकों मे विभक्त है-
(1) मूल यमक, (2) खन्ध यमक,
(3) आयतन यमक, (4) धातु यमक,
(5) सच्च यमक, (6) खंखार यमक, (7) अनुसय यमक, (8) चित्तयमक (9) धम्मयमक और (10) इन्द्रिय यमक। इस ग्रन्थ का
विषय गम्भीर हैं इसमें अभिधम्म सम्बन्धी उत्पन्न होने वाले प्रश्नों का निराकरण
किया या है।
पट्टान--यह अभिधम्म पिटक का सातवां ग्रन्थ है। यह
अभिधम्मपिटक के सभी ग्रन्थों से गम्भीर, गूढ़ एवं विशाल है। इसमें 24 प्रत्ययों के
माध्यम से प्रतीक समुत्पाद की व्याख्या है।
अतः हम कह सकते हैं कि प्रतीत्य समुत्पाद का ही
पूर्ण विस्तार के साथ विवेचन पट्ठान में किया गया है, किन्तु सुत्तन्त की अपेक्षा पट्ठान की
विवेचन-पद्धति की एक विशेषता है। प्रतीत्यय समुत्पाद की कारण-कार्य-परम्परा में 12 कडि़यां हैं जो एक दूसरे से प्रत्ययों के उपाधार पर जुड़ी हुई हैं।
सुत्तन्त में प्रायः इन कडि़यों की व्याख्या की गई है। पट्ठान में इन कडि़यों की
व्याख्या पर जोर न देकर उन प्रत्ययों पर जोर दिया गया है, जिनके आश्रय से वे उत्पन्न और निरुद्ध होती है। पट्ठान (पन्चय ठान = प्रत्ययों
का स्थान) में 24 प्रत्ययों का विवेचन है। 24 प्रत्यय इस प्रकार हैं- हेतु (2) आलम्बन,
(3) अधिपति, (4) अननन्तर,
(5) समनन्तर, (6) सहजात, (7) अन्योन्य, (8) निःश्रय, (9) उपनिःश्रय, (10) पूर्वजात, (11) पश्चात्-जात, (12) आसेक्न, (13) कर्म, (14) विपाक, (15) आहार, (16) इन्द्रिय, (17) ध्यान, (18) मार्ग, (19) सम्प्रयुक्त, (20) विप्रयुक्त, (21) अस्ति, (22) नास्ति, (23) विगत, (24) अविगत।
अनुपिटक साहित्य-
तृतीय संगीति के पश्चात्
(ई.पू. तृतीय शताब्दी) और बुद्धदत्त, बुद्धघोष तथा धम्मपाल (ईसा की चैथी-पाँचवीं) के समय के बीच जिस साहित्य की
रचना हुई, उसे हम अनुपिटक साहित्य के अन्तर्गत रखते
हैं। इस साहित्य के तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं और वे हैं- नेत्तिपकरण, पेटकोपदेस एवं मिलिन्दपञ्ह।
नेत्तिपकरण-
‘नेत्ति’ शब्द का अर्थ है ले जाने वाली अर्थात् इस ग्रन्थ की देशना सद्धर्म को
समझाने के लिये मार्ग-दर्शक का काम करती है और निर्वाण तक ले जाने वाली है। इस
ग्रन्थ में यह समझाया गया है कि बुद्धोपदिष्ट सुत्तों को किस प्रकार जानना एवं
समझना चाहिये। कुशल क्या है? अकुशल क्या है? आदि प्रश्नों के उत्तर त्रिपिटक का मनन करके दिये गये हैं। ग्रन्थ का
प्रत्येक कथन बुद्धवचन से प्रमाणित है। बिना उद्धरण या उदाहरण के किसी भी बात को
प्रस्तुत नहीं किया गया है। बौद्ध देशों में इस ग्रन्थ में रचयिता महाकात्यायन
माने गये हैं।
पेटकोपदेस-
इस ग्रन्थ के लेखक भी महाकात्यायन ही माने जाते
हैं अर्थात् नेत्तिपकरण की भांति यह भी श्रावक भाषित है। टीका के अनुसार इसका
उपदेश महाकात्यायन ने अपने पास रहने वाले भिक्षुओं को जम्सुवन खण्ड में रहते हुए
किया था। इसमें विषय विन्यास प्रधानतः चार आर्य सत्यों को दृष्टि में रखकर किया
गया है।
मिलिन्दपञ्ह-
यह अनुपिटक
साहित्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है। आचार्य बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथाओं में
त्रिपिटक के समान ही आदरणीय मानते हुए इसे उद्घृत किया है। यह उसकी महत्ता का
सर्वोत्तम सूचक है। ‘मिलिन्द’ शब्द ‘मेनान्डर’ नाम
का पालिकरण है। इसमें मेनान्डर के प्रश्नों का समाधान आचार्य नागसेन ने किया है।
इसके रचयिता भी आचार्य नागसेन ही माने जाते हैं। दार्शनिक और साहित्यिक दोनों
दृष्टियों से यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें स्थविरवाद बौद्ध धर्म को परिपुष्ट
किया गया है। यह सात अध्यायों में विभक्त है- (1) बाहिरकथा,
(2) लक्खणपञ्द्ये, (3) विमतिच्छेदनपञ्द्ये,
(4) मेण्डकपञ्द्ये, (5) अनुमान पञ्द्ये
(6) धुतगीकथा और (7) ओपम्मकथा।
बाहिरकथा में नागसेन की जन्म-कथा और मिलिन्द का
परिचय दिया गया है। लक्खणपद्ये में 44 प्रश्नोत्तर हैं और इसमें धर्म सम्बन्धी गूढ़ प्रश्न पूछे गये हैं।
विमतिच्छेदनपञ्द्ये में कर्म-फल, निर्वाण, बुद्धत्व एवं प्रज्ञा आदि के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर है। मेण्डकपञ्द्ये
में दुविधा उत्पन्न करने वाले एवं चकरा देने वाले प्रश्नोत्तर हैं। अनुमानञ्द्ये
में बुद्ध के धर्म-नगर का उपमाओं द्वारा वर्णन है। धुतंग कथा में 13 धुतांगों के पालन करने के गुण, धुतागीधारियों
की योग्यता सम्बन्धी वर्णन है। ओपम्मकथा में उपमा द्वारा धर्म बतलाये गये हैं।
ग्रन्थ के अन्त में कहा गया है कि भदन्त नागसेन के विभिन्न प्रश्नोत्तरों से
प्रभावित हो राजा मिलिन्द उनका उपासक बन गया। पुनः वह प्रव्रजित हो गया और
अर्द्धत्व प्राप्त किया।
इस ग्रन्थ में ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सामाजिक सामग्रियाँ
पर्याप्त हैं। छः तीर्थंकरों का भी उल्लेख है।
अट्टकथा साहित्य-
अशोक पुत्र महेन्द्र जब लंका में बौद्ध धर्म के
प्रचारार्थ गये तब उन्होंने अट्टकथाओं का भी सिंहली भाषा में भाषान्तर कराया था।
इसका ज्ञान हमें धम्मपदट्ठकथा आदि से होता है। बुद्धघोष प्राचीन सिंहली अट्टकथाओं का पालि रूपान्तर करने
के लिये ही लंका गये थे। उन्होंने अपनी अट्टकथाओं में जिन प्राचीन सिंहली अट्टकथाओं
के उद्धरण दिये हैं, उनमें ये मुख्य हैं- (1) महा-अट्टकथा, (2) महापच्चरी या महापच्चरिय,
(3) कुरुन्दी या कुरुन्दिय, (4) अन्धट्ठकथा,
(5) संक्षेप अट्टकथा, (6) आगमट्ठकथा
और (7) आचरियान समानट्ठकथा।
बुद्धघोष ने महा अट्टकथा के आधार पर
सुमंगलविलासिनी, पपञ्चसूदनी, सारत्थप्पकासिनी, मनोरथपूणी (दीघ, मज्झिम, समुत्त तथा अगीत्तरनिकाय की अट्टकथायें)
नामक अट्टकथायें लिखीं। समन्तपासादिका (विनयपिटक की अट्टकथा) में बुद्धघोष ने
प्रायः महापच्चरी का उल्लेख किया है, अतः प्रतीत होता
है कि इसका सम्बन्ध विनय से अधिक था। इनके अतिरिक्त बुद्धघोष ने कंखावितरणी (पातिमोक्ख की अट्टकथा), परमत्थजोतिका
(खुद्दकपाठ, सुत्तनिपात की अट्टकथा), अट्ठसालिनी। धम्मसंगणि की (अट्टकथा), सम्मोहविनोदिनी
(विभंग-अट्टकथा), पञ्चप्पकरणट्ठकथा
(कथावत्यु, पुग्गलपञ्ञत्ति, धातुकथा, यमक और पट्ठान की अट्टकथा) लिखा। बुद्धघोष का समय 380 ई. से ई. 440 तक माना जाता है। इनका एक
स्वतन्त्र ग्रन्थ विसुद्धिमग्ग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
बुद्धदत्त भी एक महत्त्वपूर्ण अट्टकथाचार्य
हैं। ये बुद्धघोष के समकालीन थे। इनके द्वारा रचित ग्रन्थ या अट्टकथायें इस प्रकार
है- (1) विनयविनिच्छय,
(2) उत्तरविनिच्छय, (3) अभिघम्मावतार, रूपारूपविभाग और मधुरत्थविलासिनी (बुद्धवंस की अट्टकथा)। विनयविनिच्छय और
उत्तर-विनिच्छय दोनों बुद्धघोषकृत समन्तपासादिका के पद्यबद्ध संक्षेप हैं।
अट्टकथाचार्य धर्मपाल बुद्धघोष के लगभग समकालिक
थे। इन्होंने परमत्थदीपनी लिखा, जो उदान इतिवुत्तक, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, येरीगाथा
एवं चरियापिटक की अट्टकथा है।पुनः इन्होंने नेत्तिपकरण अट्टकथा, नेत्तित्थ कथाय टीका (नेत्तिपकरण अट्टकथा की टीका), परमत्थमञ्जूसा (विसुद्धियग्ग की अट्टकथा), लीनत्थपकासिनी
या लीनत्थवण्णना (सुमगीलकिलासिनी, पपञ्वसूदनी, सारत्थप्पकासिनी और मनोरथपूरणी की टीका), जातकट्ठकथा
की टीका और मधुरत्थविलासिनी (बुद्धवंस की अट्टकथा) की टीका लिखा। उपर्युक्त
ग्रन्थों में परमत्थदीपनी सबसे महत्त्वपूर्ण है। अट्टकथाओं और टीका-ग्रन्थों से
ग्रन्थों के अर्थ समझने में सहायता तो मिलती ही है, साथ
ही हमें तत्कालीन इतिहास, भूगोल, समाज, राजनीति एवं दर्शन की जानकारी होती है।
बहुत सुन्दर और संक्षिप्त- सार होते हुए भी पर्याप्त विस्तार से--परिचय
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