सूर्य की उपासना, स्तोत्र तथा फल


मकर संक्रांति पर्व का मुख्य आधार सूर्य हैं। इस दिन सूर्यदेव की विशेष उपासना की जाती है। सूर्य साक्षात् देवता माने जाते हैं। ये शीघ्र मनोकामनाएं पूरी करते हैं। छठ पर्व तथा भगवान सूर्य पर आधारित मकर संक्रांति जैसे पर्वों पर सूर्य की उपासना के लिए यहाँ स्तोत्र दिया जा रहा है। प्रतिदिन प्रातः काल सूर्य को अर्घ्य देकर  सूर्याष्टक का पाठ करना फलदायी होता है। जो व्यक्ति इस सूर्याष्टक को पढ़ता है उसकी सभी ग्रह बाधा दूर हो जाती है। जिसे पुत्र नहीं है उसे पुत्र प्राप्त होता है। (संस्कृत में पुल्लिंग शब्द कहने से स्त्रीलिंग का भी ग्रहण होता है अतः रुत्र से पुत्र और पुत्री दोनों समझना चाहिए) दरिद्र धनवान हो जाता है। सविवार के दिन जो मांसाहर और मधु पान (शराब आदि मादक पदार्थ का सेवन) करता है, वह सात जन्मों तक रोगी रहता है। वह हमेशा दरिद्रता से घिरा रहता है। जो लोग रविवार के दिन स्त्री, तेल, मधु, मांस का सेवन नहीं करते उसे शोक, दरिद्रता और बीमारी नहीं होती है। वह सूर्यलोक को जाता है।

सूर्याष्टकम्

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोस्तु ते।।

सप्ताश्व-रथमारूढं प्रचण्डं कश्यपात्मजम्।
श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।

लोहितं रथमारूढं सर्वलोकपितामहम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम् ।।

त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।

बृंहितं तेज:पुजं च वायुराकाशमेव च।
प्रभुं च सर्वलोकानां तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।

बन्धूकपुष्पसंकाशं हारकुण्डलभूषितम्।
एकचक्रधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।

तं सूर्यं जगत्कर्तारं महातेज: प्रदीपनम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।

तं सूर्य जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदम्।
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणामाम्यहम्।।
इति सूर्याष्टकम्

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः।।

पूर्व गिरी उदयाचल तथा पश्चिम गिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति (सूर्य के उदित होने पर ही दिन होता है) आपको प्रणाम है।

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः।।

आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है,आपको नमस्कार है।

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते।।

उग्र (अभक्तों के लिये भयंकर),वीर (शक्तिसंपन्न) और सारंग (शीघ्रगामी) सूर्यदेव को नमस्कार है कमलों को विकसित करनेवाले प्रचंड तेजधारी सूर्य को प्रणाम है ।

आदित्यहृदयस्तोत्रम्

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥१॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवानृषिः॥२॥

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥३॥

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यमक्षय्यं परमं शिवम्॥४॥

सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्॥५॥

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥६॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥७॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥८॥

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥९॥

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥१०॥

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान्॥११॥

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः॥१२॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुस्सामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः॥१३॥

आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः॥१४॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते॥१५॥

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥१६॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥१७॥

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः॥१८॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥१९॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥२०॥

तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रवये लोकसाक्षिणे॥२१॥

नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥२२॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥२३॥

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥२४॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥२५॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥२६॥

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदाऽगस्त्यो जगाम च यथागतम्॥२७॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्॥२८॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥२९॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥३०॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा  सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥३१॥

॥ इति आदित्यहृदयम्

॥ सूर्याष्टकम् ॥

प्रभाते यस्मिन्नभ्युदितसमये कर्मसु नृणां
प्रवर्तेद् वै चेतो गतिरपि च शीतापहरणम् ।
गतो मैत्र्यं पृथ्वीसुरकुलपतेर्यश्च तमहं
नमामि श्रीसूर्यं तिमिरहरणं शान्तशरणम् ॥ १॥

त्रिनेत्रोऽप्यञ्जल्या सुरमुकुटसंवृष्टचरणो
बलिं नीत्वा नित्यं स्तुतिमुदितकालास्तसमये ।
निधानं यस्यायं कुरुत इति धाम्नामधिपतिः
नमामि श्रीसूर्यं तिमिरहरणं शान्तशरणम् ॥ २॥

मृगाङ्के मूर्तित्वं ह्यमरगण-भर्ताऽकृत इति
नृणां वर्त्माऽत्मात्मेक्षिणितविदुषां यश्च यजताम् ।
क्रतुर्लोकानां यो लयभरभवेषु प्रभुरयं
नमामि श्रीसूर्यं तिमिरहरणं शान्तशरणम् ॥ ३॥

दिशः खं कालो भूरुदधिरचलं चाक्षुषमिदं
विभागो येनायं निखिलमहसा दीपयति तान् ।
स्वयं शुद्धं संविन्निरतिशयमानन्दमजरं
नमामि श्रीसूर्यं तिमिरहरणं शान्तशरणम् ॥ ४॥

वृषात्पञ्चस्वेत्यौढयति दिनमानन्दगमनस्-
तथा वृद्धिं रात्रैः प्रकटयति कीटाज्जवगतिः ।
तुले मेषे यातो रचयति समानं दिननिशं
नमामि श्रीसूर्यं तिमिरहरणं शान्तशरणम् ॥ ५॥

वहन्ते यं ह्यश्वा अरुणविनियुक्ताः प्रमुदितास्-
त्रयीरूपं साक्षाद् दधति च रथं मुक्तिसदनम् ।
न जीवानां यं वै विषयति मनो वागवसरो
नमामि श्रीसूर्यं तिमिरहरणं शान्तशरणम् ॥ ६॥

तथा ब्रह्मा नित्यं मुनिजनयुता यस्य पुरत-
श्चलन्ते नृत्यन्तोऽयुतमुत रसेनानुगुणितम् ।
निबध्नन्ती नागा रथमपि च नागायुतबला
नमामि श्रीसूर्यं तिमिरहरणं शान्तशरणम् ॥ ७॥

प्रभाते ब्रह्माणं शिवतनुभृतं मध्यदिवसे
तथा सायं विष्णुं जगति हितकारी सुखकरम् ।
सदा तेजोराशिं त्रिविधमथ पापौघशमनं
नमामि श्रीसूर्यं तिमिरहरणं शान्तशरणम् ॥ ८॥

मतं शास्त्राणां यत्तदनु रघुनाथेन रचितं
शुभे चुंराग्रामे तिमिरहरसूर्याष्टकमिदम् ।
त्रिसन्ध्यायां नित्यं पठति मनुजोऽनन्यगतिकां-
श्चतुर्वर्गप्राप्तौ प्रभवति सदा तस्य विजयम् ॥ ९॥

नन्देन्द्वङ्कक्षितावब्दे (१९१९) मार्गमासे शुभे दले ।
सूर्याष्टकमिदं प्रोक्तं दशम्यां रविवासरे ॥ १०॥


इति श्रीपण्डितरघुनाथशर्मणा विरचितं श्रीसूर्याष्टकं सम्पूर्णम् ।



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