श्रीमद्भागवत की टीकायें


श्रीमद्भागवत महापुराण महर्षि  वेदव्यास द्वारा रचित ग्रन्थ है।  इसमें 12 स्कन्ध 335 अध्याय और 18 हजार श्लोक हैं। दशम स्कन्ध सबसे बड़ा है, जिसके पूर्वार्ध तथा उत्तरार्थ दो विभाग हैं। द्वादश स्कन्ध सबसे छोटा है। इस पुराण में वेदों, उपनिषदों व दर्शन शास्त्र की विस्तारपूर्वक व्याख्या की गई है। इसे सनातन धर्म तथा संस्कृति का विश्वकोष भी कहा जाता है। इसकी भाषा ललित तथा भाव कोमल व कमनीय हैं । ज्ञान तथा कर्मकाण्ड की संततसेवा से ऊपर बने मानस में भी यह ग्रंथ भक्ति की अमृतमयसरिता बहाने में समर्थ सिद्ध होता है। व्यास द्वारा अपने पुत्र शुक को यह महापुराण कथन किया गया तथा के मुख से राजा परीक्षित ने उसे श्रवण किया। इसके पश्चात् सर्वसाधारण जनता में उसका प्रचारण हुआ। इसमें कृष्णभक्ति (अर्थात विष्णु-भक्ति) का प्रतिपादन किया गया है।

इसकी रचना के संबंध में निम्नलिखित कथा प्रचलित है : एक बार व्यास महर्षि अत्यंत खिन्न होकर अपने सरस्वती तीर पर स्थित आश्रम में बैठे हुये थे कि नारद मुनि उनके पास आये। नारद मुनि ने उनसे उनकी खिन्नता का कारण पूछा। व्यास ने कहा, “अनेक पुराणों तथा भारत ग्रंथ की रचना करने पर भी मुझे आत्मशांति का लाभ नहीं हुआ है, इसलिये मैं खिन्न हूं। नारद मुनि विचारमग्न हुये, फिर उन्होंने कहा, "आपने अब तक प्रचंड साहित्य निर्माण कर केवल ज्ञानमहिमा का बखान किया परन्तु भगवान् का भक्तियुक्त गुणगान आपके द्वारा नहीं हुआ है, अतः उस प्रकार की ग्रंथ रचना आप किजिये । इससे आपको आत्मशांति मिलेगी। नारदमुनि के उपदेश पर व्यास मुनि ने भक्ति रस प्रधान भागवत पुराण की रचना की। उससे उन्हें शान्ति मिली।
वैष्णव धर्म के अवांतरकालीन समग्र संप्रदाय 2 भागवत के ही अनुग्रह के विलास हैं, विशेषतः वल्लभ संप्रदाय तथा चैतन्य संप्रदाय, जो उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्र जैसी प्रस्थानत्रयी मानते हैं। वल्लभ तथा चैतन्य के संप्रदायों को अधिक सरस तथा हृदयावर्जक होने का यही रहस्य है कि उनका मुख्य उपकाव्य ग्रंथ है श्रीमद्भागवत। इसमें गेय गीतियों की प्रधानता है, किन्तु इस ग्रंथ की स्तुतियां आध्यात्मिकता से इतनी परिप्लुप्त हैं कि उनको बोधगम्य करना, विशेष शास्त्रमर्मज्ञों की ही क्षमता की बात है। इसी लिये पंडितों में कहावत प्रचलित है- विद्यावतां भागवते परीक्षा" । 
भागवत के विषय में प्रश्न उठता रहता है कि इसे पुराणों के अंतर्गत माना जाये अथवा उपपुराणों के ?

1) आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने पुराण-विमर्श नामक ग्रंथ में इस बात का साधार विवेचन करते हुए अपना अभिमत व्यक्त किया है कि भागवत ही अंतिम अठारहवां पुराण है। वैष्णव धर्म के सर्वस्वभूत श्रीमद्भागवत को अष्टादश पुराणों के अंतर्गत ही मानना उचित प्रतीत होता है।

2) द्वैतमत के आदरणीय आचार्य आनंदतीर्थ (मध्वाचार्य) ने, जिनका जन्म 1199 ई. में माना जाता है, अपने भक्तों की भक्ति-भावना की पुष्टि के हेतु श्रीमद्भागवत के गूढ अभिप्राय को अपने भागवत-तात्पर्य-निर्णय" नामक ग्रंथ में अभिव्यक्त किया है। वे भागवत को पंचम वेद मानते हैं।

3) रामानुजाचार्य (जन्मकाल 1017 ई.) ने अपने "वेदान्त तत्त्वसार" नामक ग्रंथ में भागवत की वेदस्तुति (दशम स्कंध, अध्याय 87) से तथा एकादश स्कंध से कतिपय श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत का, 11 वें शतक से प्राचीन होना ही सिद्ध होता है

4) काशी के प्रसिद्ध सरस्वतीभवन नामक पुस्तकालय में वंगाक्षरों में लिखित भागवत की एक प्रति है। इसकी लिपि का काल दशम शतक के आसपास निर्विवाद सिद्ध किया जा चुका है।

5) शंकराचार्यजी द्वारा रचित "प्रबोध-सुधाकर" के अनेक पद्य भागवत की छाया पर निबद्ध किए गए हैं। सबसे प्राचीन निर्देश मिलता है हमें श्रीमदशंकराचार्य के दादा-गुरु अद्वैत के महनीय आचार्य गौडपाद के ग्रंथों में। अपनी पंचीकरण व्याख्या में गौडपाद ने जगृहे पौरुषं रूपम्" श्लोक उद्धृत किया है,जो भागवत के प्रथम स्कंध के तृतीय अध्याय का प्रथम श्लोक है। आचार्य शंकर का आविर्भाव काल आधुनिक विद्वानों के अनुसार सप्तम शतक माना जाता है। अतः उनके दादा गुरु का काल, षष्ठ शतक का उत्तरार्ध मानना सर्वथा उचित होगा।

भागवत, कम से कम दो हजार वर्ष पुरानी रचना है। पहाडपुरा (राजशाही जिला, बंगाल) की खुदाई से प्राप्त राधा-कृष्ण की मूर्ति, जिसका समय पंचम शतक है, भागवत की प्राचीनता को ही सिद्ध करती है। जहांतक भागवत के रूप का प्रश्न है, उसका वर्तमान रूप ही प्राचीन है। उसमें क्षेपक होने की कल्पना का होई आधार नहीं। इसके 12 स्कंध हैं और श्लोकों की संख्या 18 हजार है। इसमें किसी भी विद्वान् का मतभेद नहीं परंतु अध्यायों के विषय में संदेह का अवसर अवश्य है। अध्यायों की संख्या के बारे में पद्मपुराण का वचन है- द्वात्रिंशत् त्रिशतं च यस्य- विलसच्छायाः ।" चित्सुखाचार्य के अनुसार भी भागवत के अध्यायों की संख्या 332 है (द्वित्रिंशत् त्रिशतं) पूर्णमध्यायाः) । परन्तु वर्तमान भागवत के अध्यायों की संख्या 335 है। अतः किसी टीकाकार ने दशम स्कंध में 3 अध्यायों (क्र. 12, 13 तथा 14 ) को प्रक्षिप्त माना है।

समस्त वेद का सारभूत, ब्रह्म तथा आत्मा की एकता रूप अद्वितीय वस्तु इसका प्रतिपाद्य है और यह उसी में प्रतिष्ठित है। इसी के गूढ अर्थ को सुबोध बनाने हेतु, अत्यंत प्राचीन काल से इस पर टीका ग्रंथों की रचना होती रही है। भारतीय सनातन संप्रदाय के विभिन्न संतों ने श्रीमद्भागवत पर अपने-अपने सिद्धान्त के अनुसार अनेक टीकाओं का निर्माण किया। विशेषतः वैष्णव संप्रदायों के विभिन्न आचार्यों ने अपने मतों के अनुकूल इस पर टीकाएं लिखी हैं और अपने मत को भागवत मूलक दिखलाने का उद्योग किया है। भागवत में पक्ष का प्राधान्य होने पर भी, कला पक्ष का अभाव नहीं है। इसका आध्यात्मिक महत्त्व जितना अधिक है, साहित्यिक गौरव भी उतना ही है । भागवत के अंतरंग की परीक्षा करने से ज्ञात होता है कि उसमें दक्षिण भारत के तीर्थ क्षेत्रों की महिमा उत्तर भारत के तीर्थ क्षेत्रों से अधिक गाई गई है। इसमें पयस्विनी, कृतमाला, ताम्रपर्णी आदि तामिलनाडु प्रदेश की नदियों का विशेष रूप से उल्लेख है, इसके साथ ही यह वर्णन है कि कलियुग में नारायण परायण जन सर्वत्र पैदा होंगे, परंतु तामिलनाडु में वे बहुसंख्य होंगे। इन विधानों से अनुमान किया जाता है कि भागवत की रचना दक्षिण भारत में विशेषतः तामीलनाडु में हुई है। 

 इनमें किसी टीकाकार द्वारा श्रीमद्भागवत का सार प्रतिपादित किया गया तो किसी ने स्कन्ध विशेष की ही व्याख्या की है। इसकी भाषा जटिल है। कहा जाता है कि विद्वानों की परीक्षा भागवत में होती है। विद्यावतां भागवते परीक्षा। अतः कुछ टीकाकारों ने कूट शब्दों को विशिष्ट रूप से व्याख्यायित किया है। भागवत पर की गयी कुछ प्रसिद्ध टीकाओं के विवरण निम्नानुसार हैं-
1- श्रीमद्भागवत की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका भावार्थ दीपिकाहै, जो अद्वैत सिद्धान्त पर आधारित प्रसिद्ध
एवं सर्वाधिक प्रमाणिक टीका है। इसके रचयिता श्रीधरस्वामीहैं। इसकी रचना 13 वीं शताब्दी में की गयी। यह सभी सम्प्रदायों में मान्य टीका है। इनके बारे में कहा जाता है कि श्रीधरः सकलं वेत्ति श्रीनृसिंहप्रसादतः।
 2- विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त पर आधारित 14 वीं शती के ‘‘सुदर्शनसूरि’’ विरचित शुकपक्षीया टीकाहै जो अन्य संस्कृत टीकाओं की अपेक्षा संक्षिप्त मानी जाती है।
3- श्री सुर्दशनसूरि के शिष्य राघवाचार्य विरचित ‘‘भागवत चन्द्रचन्द्रिका’’ विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त पर आधारित संस्कृत की टीका है।
4- श्री माधवाचार्य विरचित द्वैत सिद्धान्त पर आधारित ‘‘भागवततत्पर्यनिर्णय’’ टीका ।
5- श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध पर सनातन गोस्वामी के द्वारा दशम स्कन्ध पर ‘‘बृहद्वैष्णवतोषणी / वृत्तितोषिणी’’ लिखित टीका । (गौडीय वैष्णव मत)
6- रूपगोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी के भ्रात्रेय जीवगोस्वामी द्वारा विरचित ‘‘क्रमसन्दर्भ/तत्त्वसंदर्भ ’’ नामक टीका ।
7- बृहतक्रमसंदर्भ- ले.- जीवगोस्वामी (गौडीय वैष्णव मत)
8- विश्वनाथ चक्रवती के द्वारा विरचित ‘‘सारार्थ दर्शिनी’’ टीका । ई.18 वीं शती
9- पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक 16वीं शती के बल्लभाचार्य जी के द्वारा लिखित ‘‘सुबोधनी’’ संस्कृत टीका । यह शुद्धाद्वैत मतानुसारणी टीका मानी जाती है। इन्होंने श्रीधर स्वामी कृत भावार्थ दीपिका टीका का खंडन किया है।

10- टिप्पणी (विवृति) -ले. विठ्ठलनाथजी । (शुध्दाद्वैत मत)

11- निम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्य शुकदेवजी की ‘‘सिद्धान्त प्रदीप’’ टीका। (द्वैताद्वैत मत)

12- 16वीं शती में माध्व संप्रदाय के आचार्य विजयध्वजतीर्थ  के द्वारा रचित ‘‘पदरत्नावली’’ टीका ।
13- वंशीधर विरचित ‘‘भावार्थ दीपिकाप्रकाश’’
14- गंगासहाय विरचित ‘‘अवन्वितार्थ प्रकाशिका’’
15- राधारमण गोस्वामी (चैतन्यदास) प्रणीत ‘‘दीपिकादीपिनी’’
16- पुरूषोत्तमचरण गोस्वामी विरचित ‘‘सुबोधिनीप्रकाश’’। (शुध्दाद्वैत मत)
17- गोस्वामी श्रीगिरिधर लालकृत ‘‘बालप्रबोधिनी’’, (शुध्दाद्वैतमत)
18- भगवत्प्रसादाचार्य विरचित ‘‘भक्तरंजनी’’, (स्वामीनारायण मत)
19- दशम  स्कन्ध के पूर्वार्द्ध पर पद्यप्रदान टीका श्री हरिविरचित ‘‘हरिभक्तरसायन’’ है।
20- सनातन गोस्वामी कृत ‘‘बृहद्वैष्णवतोषिणी’’ टीका ।
वैष्णवतोषिणी- ले.- जीवगोस्वामी (श्रीधर मत ) 
21- श्री हरि का हरिभक्ति रसायन नामक पद्यमयी टीका।
22- रामनारायण विरचित ‘‘भावभावविभाविका’’ टीका।
23- श्रीरामचन्द्र डोंगरेजी के प्रवचन पर आधारित ‘‘भागवतरहस्य’’,
24- बलदेव विद्याभूषण कृत वैष्णवानन्दिनी। मायावाद एवं विशिष्टाद्वैतवाद का खंडन ।
25- गंगासहाय कृत अन्वितार्थप्रकाशिका। 19 वीं शती 
26- श्रीअखण्डानन्द सरस्वती कृत ‘‘भागवतदर्शन’’ आदि कृतियाँ सुप्रसिद्ध हैं
इसके अतिरिक्त भी विविध टीकाएं हैं। जिनके द्वारा श्रीमद्भागवत के रहस्य को स्पष्ट किया गया।

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3 टिप्‍पणियां:

  1. अति विनम्रता कह रही है कि जिन्हें संस्कृत भाषा का अति अल्प ज्ञान है और यहाँ उपलब्ध समस्त विषयक मर्म आत्मसात करना चाहते हैं तो हिन्दी में विकल्प है क्या ?

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  2. गुरुजी प्रणाम आपका यह लेख मेरे लिए बहुत उपयोगी है विशेष रूप से आपने जो टीकाओं का वर्णन किया है इसके लिए अलग अलग नहीं भटकना पड़ेगा किसी भी छात्र को अतः आपको फिर से धन्यवाद एवं प्रणाम

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  3. गुरुजी प्रणाम बहुत बहुत धन्यवाद इस लेख के लिए

    जवाब देंहटाएं

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