1. प्रातः उठना
2. मूत्र पुरीष
3. दन्त धावन
4. आचमन
5. प्रातः सन्ध्या
6. मध्याह्न सन्ध्या
7. सायं सन्ध्या
8. भोजन विधि
9. शयन विधि
10. अभिवादन
11. अतिथि पूजन
क. सामान्य आचार
1. सामान्य आचारों का उल्लेख भी
स्मृतयों में यत्र-तत्र विकीर्ण हैं। इनमें से कतिपय महत्त्वपूर्ण आचारों की
समीक्षा से स्पष्ट हो जाता है कि स्मृतिकारों की सूक्ष्म दृष्टि से मानव-जीवन का
कोई क्षण छिपा हुआ नहीं है। स्मृतियों ने बाह्य शुद्धि तथा अन्तरिक शुद्धि विषय
आचारों पर विशेष बल दिया गया है। सामान्य आचार का पालन प्रत्येक स्थान तथा
प्रत्येक समय में प्रत्येक वर्ण के व्यक्ति द्वारा किया जाना अपेक्षित माना जाता
है।
1. प्रातः उठना
ब्राह्म मुहूर्त में उठना
चाहिए। ब्राह्म मुहूर्त मंे उठकर धर्म तथा अर्थ का, शरीर के
क्लेशों एवं उनके कारणों का तथा वेद के तत्व एवं अर्थ का चिन्तन करना चाहिए। याज्ञवल्क्य भी ब्राह्म मुहूर्त में उठने का
विधान करते हैं।
2. मूत्र पुरीष
प्रातःकाल उठकर मलमूत्र
का त्याग नैऋृति दिशा में करना चाहिये।
दिन में यज्ञोपवीत कान पर चढ़ाकर एवं सन्ध्या में उत्तर की तथा मुख करके
तथा रात्रि में दक्षिण दिशा की तथा मुख करके मूत्र तथा पुरीष का त्याग करना चाहिए।
ब्रह्म मुहूर्त में उठकर
मूत्र पुरीष का त्याग करना चाहिए। लकड़ी,
मिट्टी के ढेला, पत्ते तथा तृण आदि के द्वारा
स्थान को ढंककर वाणी को प्रयत्नपूर्वक नियंत्रित करके, शरीर
एवं मस्तक को ढंककर, मलमूत्र का त्याग करना चाहिए। कभी भी जोते हुए खेत में, न जल मंे, न पर्वत पर, न
पुराने देवालय में न ही बामी में, न जीवों से युक्त गड्ढों
में, न चलते हुए, न खड़े-खड़े होकर,
न नदी के किनारे, न पर्वत की चोटी पर, वायु, अग्नि, ब्राह्मण,
सूर्य, पानी आर गायों को दखते हुए कभी भी
मलमूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। इससे
प्रतीत होता है स्मृतिकालीन समाज पर्यावरण के प्रति भी सचेत था। प्रकृति के प्रति
स्नेहिल पूर्ण भाव था। शौच आलस्यरहित होकर करें।
3. दन्तधावन
विष्णुस्मृति के अनुसार
ईशान तथा पूरब दिशा की तथा मुख करके दन्तधवन करना चाहिए। दक्षिण तथा पश्चिम दिशा की तथा मुख करके
दन्तधावन नहीं करना चाहिए। अमावस्या को
दातून नहीं करना चाहिए। खाने से पहले तथा खाने के बाद दन्तधावन करना चाहिए। वट, मन्दार, खादिर, श्वेतखदिर, निम्ब,
तेल, श्रीफल के वृक्ष दन्तधावन के लिए ग्राह्य
हैं।
4. आचमन
अंगूठे के मूल के नीचे
ब्राह्मतीर्थ (कनिष्ठिका) अग्ुली के नीचे कायतीर्थ, अग्रभाग
में देवतीर्थ तथा तर्जनी के नीचे पितृतीर्थ कहा गया है।
फेन
सहित जल से, शूद्र द्वारा तथा एक हाथ वाले
व्यक्ति के द्वारा लाये हुए जल से आचमन नहीं करना चाहिए। पूरब या उत्तर दिशा की
तथा मुख करके आचमन करना चाहिए। जल से पहले
तीन बार आचमन करना चाहिए। उसके पश्चात दो बार मुख को भी धोना चाहिए। इन्द्रियों,
हृदय तथा सिर का भी जल से स्पर्श करना चाहिए। ब्राह्मण हृदय तक पहुंचे हुए, जबकि क्षत्रिय कण्ठ तक, वैश्य मुख तथा शूद्र अन्त तक
स्पर्श किए गए जल द्वारा ही शुद्ध होता है।
स्नान करके, पानी पीकर, क्षुत,
शयन, भोजन करके तथा रथ पर चलने के बाद (विशेष
रूप से) वस्त्र धारण करके पुनः (अर्थात् दो बार आचमन करे)। आचमन का नियम सभी स्मृतियों में विहित है।
5. प्रातः सन्ध्या
प्रातः उठकर आवश्यक कार्य
करके, स्नानादि से पवित्र होकर, एकाग्रचित्त
होकर प्रातःकालिक सन्ध्या तथा सायंकालिक सन्ध्या में अपने समय पर देर तक जप करता
हुआ रहे। प्रातःकालीन सन्ध्या से सूर्य
दर्शन पर्यन्त सावित्री का खड़ा होकर जप करे।
प्रातःकाल की सन्ध्या में जप करते हुए स्थित रहने पर व्यक्ति रात्रि में
किए गए पापों को दूर करता है, जबकि सायंकालीन सन्ध्या में
स्थित हुआ वह, दिन में किए गए दोषों को विनष्ट करता है। जो व्यक्ति प्रातःकालीन सन्ध्या तथा सायंकालीन
सन्ध्या उपासना नहीं करता है वह शूद्र के समान सभी द्विजवर्णोचित कर्मों से
बहिष्कार के योग्य है। देर तक सन्ध्या
करने से लम्बी आयु, प्रज्ञा, यश,
कीर्ति एवं ब्रह्मतेज प्राप्त होता है।
पूरब दिशा की ओर मुख करके
भानु जब ताम्र वर्ण का हो स्नान करें।
द्विज मलमूत्रोत्सर्ग से निवृत्त होकर, शौच करके तथा
दातौन करने के पश्चात् प्रातः सन्ध्या की उपासना करे। स्नान, अब्दैवत मन्त्र
द्वारा मार्जन, प्रणायाम (तदुपरान्त) सूर्योवस्थान तथा
गायत्री का जप प्रतिदिन करें। प्रातःकाल
सूर्य के उदय होने तक पूर्व दिशा को मुख करके सावित्री जप करें। इसके उपरान्त
दोनों सन्ध्याओं में (प्रातः एवं सायं) अग्निहोत्र करें।
6. मध्याह्न सन्ध्या
याज्ञवल्क्य मध्याह्न
सन्ध्या का फल कहते हैं कि जो द्विज प्रतिदिन ऋचाओं का अध्ययन करता है, वह मधु तथा दूध से देवताओं के लिये तथा मधु तथा घृत से पितरों के लिये
तर्पण करता है। जो द्विज प्रतिदिन यजुस
मन्त्रों का अध्ययन करता है वह घृत तथा जल से देवताओं तथा आज्य एवं मधु से पितरों
को प्रसन्न करता है, सामदेव के मन्त्रों का पाठ करता है वह सोम तथा घृत से देवताओं का तर्पण
करता है तथा मधु तथा घृत द्वारा पितरों को तृप्ति प्रदान करता है। जो द्विज प्रतिदिन अथर्वाङ्गिरस पढ़ता है वह
देवों का भेद द्वारा एवं पितरों का मधु तथा घृत द्वारा तर्पण करता है। जो प्रतिदिन यथाशक्ति वाकोवाक्य पुराण, नाराशसी, गाथा इतिहास तथा (वारूणादि) विद्याओं का
प्रतिदिन अध्ययन करता है वह मांस, दूध, ओदन तथा मधु द्वारा देवताओं के लिए तर्पण करता है तथा पितरों को मधु तथा
घृत द्वारा तृप्त करता। ( मध्याह्न को)
स्नान करके देवताओं तथा पितरों का तर्पण करे तथा उनकी पूजा करे। महर्षि मनु ने भी तर्पण करने का फल बताते हुए
कहा है कि स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मण जल द्वारा जो पितरों का तर्पण करता है उसके
द्वारा ही वह सम्पूर्ण पितृयज्ञविषयक क्रियाओं के फलों को प्राप्त कर लेता है।
7. सायं सन्ध्या
सायंकालीन सन्ध्या में
नक्षत्रों के ठीक प्रकार दिखाई देने तक बैठकर जप का आचरण करे। जो व्यक्ति सायंकालीन सन्ध्या में उपासना नहीं
करता है वह शूद्र के समान सभी द्विजवर्णोचित कर्मों से बहिष्कृत करने के योग्य
है। कात्यायन ने सन्ध्या वन्दन न करने पर
सम्पूर्ण कर्मों का अनधिकार कहा है। जो
नियमित सन्ध्या करते हैं उससे सम्पूर्ण दोष दूर रहते हैं।
8. भोजन विधि
भोजन करने के लिये
अलग-अलग दिशाओं का महत्त्व है। ‘‘आयु के लिए पूर्व की तथा,
दक्षिण की तथा यश की प्राप्ति, पश्चिम की तथा
धन की प्राप्ति तथा उत्तर की तथा सत्य की प्राप्ति होती है।’’ द्विज को सायं प्रातः ही भोजन
करने का विधान किया गया है। भोजन को उसकी
निन्दा करते हुए नहीं खाना चाहिये। अन्न को छोड़ना नहीं चाहिये। उच्छिष्ट अन्न किसी को नहीं देना चाहिये तथा न
स्वयं खाये, भोजन बहुत अधिक नहीं करना चाहिये तथा जूठे मुंह
कहीं नहीं जाना चाहिये। अधिक भोजन करने से
आरोग्य, आयु, स्वर्ग तथा पुण्य का क्षय
होता है तथा लोक निन्दा होती है अतः अधिक भोजन का निषेध किया गया है। मनु ने स्त्री के साथ (एक पात्र में) भोजन करने
का निषेध किया है। एक वस्त्र (केवल धोती,
गमछा या लंगोट) आदि पहनकर भोजन नहीं करना चाहिये। भोजन मौनपूर्वक करना चाहिये।
9. शयन विधि
सर्वप्रथम दिशा का ध्यान
रखते हुए विष्णुस्मृति में कहा गया है कि ‘‘उत्तर तथा पश्चिम
दिशा में सिर करके नहीं सोना चाहिए।’’
श्मशान में, अकेले घर में, मन्दिर में तथा नारी के मध्य नहीं सोना चाहिए। महर्षि मनु ने भी रजस्वला स्त्री के साथ एक आसन
तथा शय्या पर बैठने तथा सोने का निषेध किया है।
दिन में तथा सन्ध्या में भी नहीं सोना चाहिए। याज्ञवल्क्य ने भोजन करने के पश्चात् शयन की
आज्ञा दी अर्थात् खाली पेट नहीं सोना चाहिए।
मनु
के समान याज्ञवल्क्य ने भी पश्चिम दिशा की तथा सिर करके तथा नंगे होकर सोने का
निषेध किया है। रोगी व्यक्ति के समीप नहीं
सोना चाहिए।
इससे
प्रतीत है मनुष्य के प्रत्येक अग् की शुद्धि पर विशेष ध्यान दिया गया है। मनुष्य
के प्रातः उठने से सोने तक की दिनचर्या का उल्लेख किया है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी
मनुष्य की दिनचर्या प्रमाणित होती है। मनुष्य अद्यतन सामान्य आचारों का पालन करके
निरोगी रहता है।
10. अभिवादन
अभिवादन करने से आयु,
विद्या, यश तथा बल बढ़ते हैं। मूर्खाभिदन का निषेध किया गया है। यज्ञ में दीक्षा लिये छोटे को भी नाम लेकर नहीं
पुकारे। परस्त्री के नामोच्चारण का निषेध
करते हुये उसे ‘‘आप या सुन्दरि या भगिनि’’ कहे। वय में छोटे मामा, चाचा, श्वसुर ऋत्विज् तथा गुरुओं से उठकर ‘‘मैं अमुक नाम वाला हूँ’’ ऐसा कहें किन्तु अभिवादन का
निषेध है। मौसी, मामी,
सास तथा बुआ गुरु स्त्री के समान अभिवादनादि से पूजनीय हैं, वे सभी गुरु स्त्री जैसी है।
अपने
बड़े भाई की स्त्री का प्रतिदिन चरण-स्पर्श करना चाहिये तथा जातिवालों (पिता के
पक्षवाले चाचा आदि) तथा (माता के पक्षवाले मामा आदि तथा श्वसुर) आदि की स्त्रियों
का परदेश से आकर अभिवादन करना चाहिए।
प्रतिदिन गुरुओं के चरणों को स्पर्श करना चाहिए। अस्सी वर्ष का शूद्र भी पुत्र के समान बैठाने
योग्य है तथा उसका नाम शूद्र के समान नहीं लेना चाहिए।
प्राचीन
भारत में चरण स्पर्श करके अभिवादन की प्रणाली में एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक बीज
निहित है। जब कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति का चरण स्पर्श करता है तो उसके अन्दर
आत्मसमर्पण एवं विनम्रता का भाव जाग्रत हो जाता है जो मानव जीवन के हृदय का ही गुण
है।
11. अतिथि पूजन
गृहस्थ के घर एक रात
ठहरने वाले ब्राह्मण को अतिथि कहा गया है क्योंकि आने तथा ठहरने का समय निश्चित
नहीं करने से वह अतिथि कहा जाता है। एक
ग्रामवासी, विचित्र कथाओं तथा परिहासों के द्वारा जीविका
चलाने वो तथा अग्नि से युक्त विप्र को भी अतिथि नहीं समझना चाहिए। मनु के अनुसार गृहस्थ के घर सायंकाल अतिथि को
भोजन के लिए मना न करे तथा वह समय तथा असमय आये, अपितु बिना
भोजन किये अतिथि को वहां नहीं रहना चाहिये।
अतिथि को जो भोज्य पदार्थ खिलाये वही स्वयं भी खाये, अतिथि
आदर सत्कार से धन, आयु, यश तथा स्वर्ग
की प्राप्ति होती है।
बहुत
से अतिथियों के एक साथ आने पर बड़ों का अधिक, मध्यम
श्रेणी वालों का मध्यम तथा निम्न श्रेणी वालों का कम सत्कार करना चाहिए। नवविवाहित वधू कुमारी रोगी तथा गर्भिणी स्त्री
का अतिथियों के पहले भोजन करायें।
गृहस्वामी को पहले स्वयं भोजन का निषेध किया गया है। गृह दम्पत्ति को अतिथि
ब्राह्मण, स्वजातीय, भृत्य (दास-दासी)
के भोजन करने के बाद भोजन करना चाहिये। घर
पर आये अतिथि के लिए आसन, पैर धोने के लिए जल, शक्ति के अनुसार व्य×जनादि से संस्कृत (स्वादिष्ट)
अन्न से सत्कार करना चाहिए। नवपरिणीता वधू
को, कुमारी कन्या एवं रोगी को प्रथम भोजन कराने से मनु का
वैज्ञानिक अध्ययन स्पष्टतया प्रतीत होता है। वे इन सभी की शारीरिक, मानसिक स्थिति को जानते थे उसी के अनुकूल इस प्रकार का विधान किया।
अन्नादि के अभाव में तृण (आसन एवं शयन के लिए), भूमि (बैठने
के लिए), जल (पीने तथा पैर धोने के लिए) तथा मधुर वचन ये
चारों सज्जनों के घर से कभी दूर नहीं होते सदैव विद्यमान रहते हैं अतः अन्न के
अभाव में इन्हीं के द्वारा अतिथियों का आदर सत्कार करना चाहिये। याज्ञवल्क्य के अनुसार भिखारी तथा ब्रह्मचारी
को सत्कारपूर्वक भिक्षा देनी चाहिए। भोजन के समय पर आये हुये, मित्र, सम्बन्धी तथा बान्धव को भोजन करना
चाहिये। श्रोत्रिय (अर्थात् वेदपाठी) तथा
वेद का पण्डित (यदि पथिक हों तो) ब्रह्मलोक प्राप्ति की कामना रखने वाले गृहस्थ के
लिये ये दोनों अतिथि मान्य होते हैं।
विष्णु स्मृति के अनुसार जिस प्रकार वर्णों में ब्राह्मण देवता माने गये,
स्त्रियों के लिये पति, उसी गृहस्थों के लिये
अतिथि देवता हैं इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसलिए अतिथि का पूजन करना
चाहिये उसे घर में भूखा नहीं रखें।
पराशर
के अनुसार अतिथि चाहे वह प्रिय हो अथवा शत्रु, मूर्ख
हो या पण्डित जैसा भी हो उसे देव की प्रतिमूर्ति मानकर उसका सत्कार करना चाहिये
क्योंकि अतिथि स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला होता है। अतिथि का घर से निराश होकर लौटना अपने स×िचत पुण्यों का नाश करना है। जिस
गृहस्थ के घर पर आया अतिथि निराश होकर, अर्थात् समुचित आदर न
पाकर खिन्न मन से लौट जाता है उस गृहस्थ के पितर अपने वंशजों को कुल कलंक मानकर
उनसे रुष्ट होकर पन्द्रह वर्षों तक उनके हाथों से दिये गये अन्न-जल-श्राद्ध-तर्पण
आदि को ग्रहण नहीं करते तथा भूख प्यास से तड़पते रहते हैं। अतिथि की उपेक्षा करने
वाले गृहस्थ द्वारा दी गयी आहुति देवगण भी स्वीकार नहीं करते हैं अतः उसका यजन
निष्फल हो जाता है।
घर
में पधारे अतिथि से उसके वर्ण, गोत्र,
शिक्षा, योग्यता, आचरण
तथा व्रत-नियम आदि के सम्बन्ध में नहीं पूछना चाहिए। अतः अतिथि के सामाजिक स्तर,
शिक्षा-दीक्षा, वेशभूषा तथा आचार व्यवहार आदि
पर ध्यान न देकर पूर्ण श्रद्धा तथा मनोयोग से उसका स्वागत सत्कार करना चाहिये।
इससे
प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से गृहस्थ के कर्तव्यों में अतिथि सत्कार का प्रमुख
स्थान रहा है। स्मृतियों में अतिथि सत्कार की बारम्बार प्रशंसा की गई है। आज भी
पर्यटन विभाग का स्लोगन ‘‘अतिथि देवो भव’’
है।
अतः
सम्पूर्ण मानव के सामान्य आचार मनुष्य के दैहिक बल तथा आत्मशुद्धि का परिचारक है।
ये सामान्य आचार वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
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