✦ भूमिका:
भारत एक प्राचीन और समृद्ध सांस्कृतिक
धरोहर वाला देश है, जिसकी जीवन-शैली, सोच, संस्कार और व्यवहार अनेक शताब्दियों से एक समान प्रवाहित होते आए
हैं। इस सांस्कृतिक प्रवाह की भाषा यदि कोई रही है, तो वह है — संस्कृत। संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारतीय चेतना की मूल अभिव्यक्ति
है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारतीयों की संस्कृति, आचार-विचार, जीवन-शैली और व्यवहार का मूल स्रोत
संस्कृत भाषा है।
यह
भाषा हमारे धर्म, नीति, समाज, पर्यावरण, शिक्षा और न्याय के हर पक्ष में गहराई
से जुड़ी हुई है। संस्कृत साहित्य ने भारतीयों की सोच, संबंधों की गरिमा, आचरण की मर्यादा और प्रकृति के साथ
संतुलन बनाए रखने की आदत को सदियों से संस्कारित किया है। अतः यह कहा जा सकता है
कि भारतीयों की जीवन-शैली और व्यवहार का वास्तविक स्रोत संस्कृत भाषा ही है।
भारत
की संस्कृति और समाज की नींव जितनी प्राचीन है, उतनी
ही परिपक्व और संतुलित भी। इस संतुलन, व्यवस्था
और उच्च आचार-व्यवहार का जो आधार संस्कृत भाषा में लिखित ग्रन्थ है । संस्कृत न
केवल एक भाषा है, अपितु भारतीय चिंतन, धर्म, व्यवहार, नीति, प्रकृति-संरक्षण, संबंध-गठन
और न्याय का मूल स्रोत है। संस्कृत साहित्य ने भारतीयों को केवल धर्म नहीं, बल्कि संयम, सदाचार, प्रकृति प्रेम और न्यायप्रियता की जीवन-शैली प्रदान की है।
✦ धार्मिक एवं नैतिक जीवन का निर्माण:
भारतीय सभ्यता का आधार संस्कृत भाषा
है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, महाकाव्यों और गीता जैसे ग्रंथों ने भारतीयों को जीवन के उद्देश्य, आस्था और नैतिक व्यवहार का मार्ग
दिखाया। श्रीमद्भगवद्गीता का कर्मयोग, धर्म, सत्य, कर्म, आत्मा, मोक्ष जैसे मूल जीवन-सिद्धांतों से परिचित कराया। मनुस्मृति के
सामाजिक नियम, उपनिषदों का आत्म-चिंतन तथा पुराणों
में वर्णित कथा-साहित्य ने भारतीयों के जीवन को दिशा दी है। इन ग्रंथों के अनुसार, सत्कर्म ही धर्म है, अहिंसा ही परमो धर्मः और कर्तव्य ही
सबसे बड़ा अधिकार है। संस्कृत साहित्य ने भारतीयों के व्यवहार को इन उच्च आदर्शों
से जोड़कर, समाज को स्थायित्व दिया। गीता में
अर्जुन को दिया गया श्रीकृष्ण का उपदेश आज भी भारतीय आचरण का पथ-प्रदर्शन करता है।
✦ सामाजिक व्यवस्था एवं व्यवहारिक दिशा:
संस्कृत ग्रंथों में सामाजिक न्याय और
व्यवस्था नियमन का स्पष्ट विधान है। धर्मशास्त्रों और स्मृतियों (जैसे
याज्ञवल्क्यस्मृति, नारदस्मृति) में उत्तराधिकार, ऋण अदायगी, लेन-देन, दंड और अपराध जैसे विषयों पर विस्तृत नियम हैं। इन व्यवस्थाओं के
कारण घूसखोरी, काला बाजारी, ठगी, अन्याय जैसी कुरीतियाँ समाज में अंकुश में रहीं।
इनसे ही भारतीय समाज में संपत्ति का न्यायपूर्ण बँटवारा, घूस और काला बाज़ारी का निषेध, ऋण की समय पर अदायगी, विवेकपूर्ण दंड-विधान की चेतना विकसित हुई।
✦ सम्बन्धों की गरिमा:
संस्कृत ग्रंथों ने व्यक्ति के कुल, गृह, सामाजिक दायित्व, पारिवारिक
कर्तव्य को प्रमुख स्थान दिया। यहाँ पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों की उच्चतम
गरिमा का चित्रण हुआ है। रामायण में राम का पिता के वचनों के प्रति समर्पण, भरत का त्याग और सीता का धैर्य — ये सभी भारतीयों को अपने कर्तव्य, मर्यादा और रिश्तों के प्रति सजग बनाते
हैं। महाभारत में युधिष्ठिर का धर्मपालन और कर्ण का
दानवीरता भारतीय व्यवहार का आदर्श है।
✦संस्कारों
एवं जीवन-परंपराओं में उपयोग:
भारतीय जीवन में सोलह संस्कारों का
अत्यधिक महत्व है — जैसे जन्म, नामकरण, उपनयन, विवाह, अन्त्येष्टि आदि। इन सभी संस्कारों में जो मंत्र और विधियाँ प्रयुक्त
होती हैं, वे सभी संस्कृत भाषा में ही हैं। पूजा, व्रत, यज्ञ, हवन इत्यादि में उच्चारित मंत्रों से
भारतीय जीवन पवित्र और अनुशासित होता है।
✦ जीव संरक्षण और पर्यावरण चेतना:
संस्कृत साहित्य में प्रकृति और
प्राणियों के प्रति जो श्रद्धा दिखाई देती है, वह
आज के पर्यावरणीय संकट के समय में अत्यंत प्रासंगिक है।
पशु-पक्षियों को देवताओं का वाहन माना
गया: शिव का वाहन – नंदी (बैल), दुर्गा का सिंह, विष्णु का गरुड़, सरस्वती का हंस, लक्ष्मी का उल्लूक, गणेश का मूषक, कार्तिकेय का मयूर, इन प्रतीकों के माध्यम से समाज
में इन जीवों की संरक्षा और सम्मान सुनिश्चित हुआ।
काक बलि (कौए को अन्न देना), दशहरे पर नीलकंठ पक्षी का दर्शन, तुलसी और पीपल का पूजन, नदी-पूजन, पर्वतों को देवता मानना ये सभी
परंपराएँ संस्कृत ग्रंथों में वर्णित हैं, जो
पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता के प्रति गहरी जागरूकता को दर्शाती हैं।
प्रकृति और पर्यावरण के प्रति
संवेदनशीलता:
संस्कृत साहित्य में प्रकृति और
पर्यावरण के प्रति गहरा सम्मान है।
- ऋषियों के आश्रम वनों में स्थित होते
थे, जो वनसंरक्षण की प्रेरणा देते हैं।
- नदियों को देवी का स्थान दिया गया — जैसे गंगा, सरस्वती, यमुना।
- वृक्षों को पूजनीय माना गया — जैसे पीपल, वट, तुलसी
आदि।
- पशु-पक्षियों में देवत्व की भावना से
मनुष्य में करुणा और सह-अस्तित्व की चेतना जागृत होती है।
ये सब जीवन को प्रकृति के साथ जोड़ते
हैं और आधुनिक पर्यावरण चेतना का आधार बनते हैं।
✦ पाप-पुण्य और न्यायभावना:
संस्कृत साहित्य में कर्म का विशेष
महत्व है। व्यक्ति को सिखाया गया है कि जैसा करेगा, वैसा भरेगा —
“यथाकर्मणा
प्राप्यते फलम्”। यह विचारधारा आत्मनियंत्रण, सदाचरण और सत्य के प्रति आस्था को
सुदृढ़ करती है। पाप और पुण्य के स्पष्ट बोध से व्यक्ति स्वयं अनुशासित होता है।
संस्कृत में कर्म-सिद्धांत अत्यंत
महत्वपूर्ण है —
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (गीता)
यह शिक्षित करता है कि व्यक्ति को बिना
फल की चिंता किए अपने कर्म करने चाहिए।
इसके अतिरिक्त —
“पापं कर्म कृतं गोप्यं न शक्यं
सन्निवर्तितुम्” (स्मृति)
अर्थात् किया गया पाप कभी छिप नहीं
सकता — यह चेतावनी व्यक्ति को अनुशासन और
नैतिकता के मार्ग पर टिकाए रखती है।
✦ जीवन-आदर्श एवं प्रेरक चरित्र:
संस्कृत साहित्य में वर्णित चरित्र
केवल कथानक नहीं, बल्कि आदर्श जीवन मूल्यों के प्रतीक
हैं। ये भारतीयों को जीवन में प्रेरणा और दिशा देते हैं —
राम – कर्तव्य, सत्य और मर्यादा के प्रतीक।
श्रीकृष्ण – नीति, भक्ति और जीवन प्रबंधन के आदर्श।
सीता – आदर्श पत्नी और सहनशीलता की मूर्ति।
सावित्री – साहस और तपस्या
शिव – त्याग और ध्यान के प्रतीक
युधिष्ठिर – धर्मनिष्ठ और सत्यप्रिय राजा।
इन चरित्रों ने भारतीय आचरण को उच्च
मानकों तक पहुँचाया। इन चरित्रों ने पीढ़ियों को उच्च आचरण और नैतिकता का मार्ग
दिखाया है।
✦ व्यावहारिक बौद्धिकता और नैतिकता का
आधार: (जीवन
के व्यवहारिक पक्षों का मार्गदर्शन:)
संस्कृत साहित्य केवल आदर्श नहीं, बल्कि व्यावहारिक जीवन समस्याओं का
समाधान भी देता है।
पंचतंत्र, हितोपदेश जैसे ग्रंथों में राजनीति, मित्रता, कूटनीति और व्यवहार कुशलता के गूढ़ पाठ मिलते हैं। नीतिशतक, पंचतंत्र और हितोपदेश जैसे संस्कृत
ग्रंथों से नैतिकता, व्यवहार-कुशलता और नीति का विकास हुआ।
चाणक्यनीति
जैसे संस्कृत ग्रंथों ने जीवन को केवल आदर्श नहीं, बल्कि व्यवहारिक कौशल, नीति-बुद्धि, मैत्री, राजनीति, प्रबंधन जैसी विधाओं से भी समृद्ध
किया। यह साहित्य आज भी बच्चों से लेकर शासकों तक के लिए इसमें व्यवहार-नीति
समाहित है।
दर्शन और कर्तव्यपरायणता का आधार:
भारतीय दर्शन के छह प्रमुख संप्रदाय — सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत — संस्कृत में रचित हैं। इन्हीं दर्शनों
ने भारतीय समाज को आत्मनिष्ठ, संयमी
और कर्तव्यपरायण बनने की प्रेरणा दी है।
✦ आधुनिक जीवन में संस्कृत की उपस्थिति:
आज भी संस्कृत भाषा भारत की संसद, न्यायपालिका, विद्यालयों की प्रार्थनाओं, विश्वविद्यालयों के आदर्श-वाक्यों, मंदिरों के मंत्रों, विवाह एवं संस्कारों श्लोक, आदर्श-वाक्य
नियमित रूप से प्रयोग किए जाते हैं। यह दर्शाता है कि यह भाषा आज भी भारतीय आचरण और
चेतना की धुरी बनी हुई है। यह केवल ग्रंथों में सीमित न रहकर जन-जीवन का हिस्सा
बनी हुई है।
✦ साहित्य एवं कला में योगदान:
संस्कृत साहित्य अत्यंत समृद्ध है।
कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति, माघ आदि महाकवियों ने जो साहित्य रचा, उसने न केवल भाषा को गरिमा दी, बल्कि जीवन को दिशा भी दी। नाट्यशास्त्र
जैसे ग्रंथों ने नाट्य, नृत्य, संगीत और अभिनय की भारतीय परंपरा को जन्म दिया, जो आज तक जीवित है।
✦ आधुनिक भारतीय भाषाओं पर प्रभाव:
हिन्दी, मराठी, बांग्ला, कन्नड़, तेलुगु आदि अनेक भाषाएँ संस्कृत की
पुत्रियाँ मानी जाती हैं। इनके शब्द भंडार, मुहावरे
और व्याकरणीय ढाँचा संस्कृत से प्रभावित हैं। यही कारण है कि भारतीयों की
भाषा-शैली और अभिव्यक्ति में संस्कृत का प्रभाव सहज देखा जा सकता है।
✦ उपसंहार:
संस्कृत भाषा केवल साहित्य या पूजा-पाठ
की भाषा नहीं है, बल्कि भारतीय समाज के हर व्यवहारिक, धार्मिक, सामाजिक, नैतिक और प्राकृतिक पक्ष का आधार है। वह
आज भी हमारे जीवन-व्यवहार,
संस्कार, सोच और मूल्य-व्यवस्था की रीढ़ है। यह भाषा न केवल ज्ञान की वाहक है, बल्कि जीवन को गरिमा देने वाली
संस्कृति की संवाहक भी है। जीवन के प्रत्येक चरण में, प्रत्येक संबंध में, प्रत्येक जिम्मेदारी में संस्कृत
ग्रंथों की छाया दिखती है। ग्रंथों में देवताओं के पशु-पक्षियों के साथ संबंध केवल
प्रतीकात्मक नहीं है — यह जीवों के संरक्षण, सह-अस्तित्व और पर्यावरण संतुलन की
गहरी सांस्कृतिक समझ को दर्शाता है। ये परंपराएँ भारतीयों को प्रकृति और
प्राणी-जगत के प्रति श्रद्धा, संवेदनशीलता
और संरक्षण की प्रेरणा देती हैं।
संस्कृत भाषा ने न केवल भारत की
आध्यात्मिक चेतना को आकार दिया है, बल्कि
सामाजिक व्यवहार, न्याय, नीति, पर्यावरण संरक्षण और संबंधों की
मर्यादा को भी सुदृढ़ बनाया है। इसके ग्रंथों में उल्लिखित आदर्शों और नियमों ने
भारतीय जीवन-शैली को एक सुसंस्कृत स्वरूप दिया है।
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