काव्य की
आत्मा पर विविध काव्यशास्त्रकारों में मतभेद रहा है। इस मतभेद के कारण भरत (500 ई.
पू. से लेकर प्रथम शती तक) से लेकर 1750 तक के काल खण्ड में रस,
अलंकार, वक्रोक्ति ,ध्वनि
और औचित्य संप्रदाय इन 6 सिद्धान्तों / संप्रदायों की स्थापना हुई। साहित्यशास्त्र
के मुख्य 41 आचार्य इनमें से किसी न किसी संप्रदाय से संबंधित है। यदि हम
काव्यशास्त्र के कालक्रमिक विकास को समझ लें तो विभिन्न सिद्धान्तों को समझने में
आसानी होगी। अधिकांश विद्वानों ने इस काल
को चार भागों में विभक्त किया है -
प्रारंभिक
काल- अज्ञात काल, भरत से लेकर भामह (सातवीं
शताब्दी) तक
रचनात्मक
काल - भामह से लेकर आनंद वर्धन तक (600 विक्रमी
से 800 विक्रमी तक)
निर्णयात्मक
काल - आनंदवर्धन काल से लेकर मम्मट तक ( 800 विक्रमी से 1000 विक्रमी तक)
व्याख्या
काल - मम्मट से लेकर विश्वेश्वर पंडित तक (1000
विक्रमी से 1750 विक्रमी तक)
प्रारंभिक काल
भरत का नाट्यशास्त्र ग्रंथ साहित्य शास्त्र का
प्रमुख ग्रंथ है। उसमें रस और नाटक के सूक्ष्म तत्वों का विवेचन बहुत सुंदर रूप से
हुआ है। यह साहित्यशास्त्र का बीज भूत है। इस ग्रंथ का विस्तार अन्य आचार्यों ने
किया है। नाट्यशास्त्र के 16 वें अध्याय में केवल 4 अलंकारों, 10 गुणों और 10
दोषों का ही विवेचन किया गया है, जो अलंकार शास्त्र की दृष्टि से एक रूपरेखा मात्र
ही कहा जा सकता है। भामह ही अलंकार शास्त्र के प्रथम आचार्य माने जाते हैं । उनका
काव्यालंकार ग्रंथ अलंकार शास्त्र का मुख्य ग्रंथ कहा जा सकता है। इसमें उन्होंने
भरत के चार अलंकारों के स्थान पर 38 स्वतंत्र अलंकारों का विवेचन किया है। भट्टिकाव्य के लेखक भट्टि ने इसी के आधार पर
अपने ग्रंथ में अलंकारों का निरूपण किया है । भरत के बाद मेधावी, रूद्रट आदि उनके
कुछ टीकाकार हुए हैं परंतु उनके ग्रंथ अनुपलब्ध है। आचार्य विश्वेश्वर ने
काव्यप्रकाश की भूमिका में इनका उल्लेख किया है।
रचनात्मक काल
भामह से
लेकर आनंदवर्धन तक 200 वर्षों में अलंकार संप्रदाय, रीति संप्रदाय, रस संप्रदाय
तथा ध्वनि संप्रदाय इन चार मुख्य संप्रदायों के मौलिक ग्रंथों का निर्माण हुआ है। चारों
संप्रदायों के आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं -
अलंकार
संप्रदाय – भामह, उद्भट, रूद्रट ।
रीति
संप्रदाय – दण्डी, वामन
रस
संप्रदाय – भट्टलोल्लट,शंकुक और भट्ट नायक आदि
ध्वनि
संप्रदाय - आनंदवर्धन
यह काल
साहित्य शास्त्र की दृष्टि से बड़ा ही महत्वपूर्ण है। इसमें जहां एक और भामह, उद्भट
और रूद्रट ने काव्य के वाह्य स्वरुप अलंकारों का निरूपण किया, वहीं दूसरी ओर दण्डी
और वामन ने काव्य की रीति और उसके गुणों की विवेचना की । नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध
सूत्र की व्याख्या करने वाले सभी भट्टलोल्लट, शंकुक
और भट्ट नायक आदि ने नाट्यशास्त्र के सिद्धांत को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया और
इसी काल में आनंदवर्धनाचार्य ने अपना ध्वन्यालोक ग्रंथ लिख कर ध्वनि सिद्धांत की
स्थापना की।
निर्णय काल
इस काल में
ध्वन्यालोक की प्रसिद्ध टीका लोचन एवं नाट्यशास्त्र की अभिनव भारती टीका के टीकाकार
अभिनव गुप्त, वक्रोक्तिजीवितकार कुन्तक, व्यक्तिविवेकार महिमभट्ट हुए। महिमभट्ट ने
अपने व्यक्तिविवेक में ध्वनि सिद्धांत का खण्डन किया हैं। इसके अतिरिक्त भोजराज,
रूद्रट, धनिक और धनंजय भी इस काल के हैं।
व्याख्या काल
इस काल में
हेमचंद्र, विश्वनाथ और जयदेव आदि ने काव्य की सर्वांग पूर्ण विवेचना करते हुए काव्यशास्त्र
पर अबतक के स्थापित सिद्धान्तों को लेकर अपने ग्रंथों की रचना की है। रुय्यक तथा
अप्पय दीक्षित आदि ने केवल अलंकारों के विवेचन में ही अपनी शक्ति लगा दी। शारदातनय,
शिङ्गभूपाल तथा भानुदत्त आदि ने इन सिद्धांतों के विवेचन में प्रयत्न किया है। गौडीय
वैष्णव आचार्य रूपगोस्वामी का सहयोग भी इस काल में रहा है। राजशेखर, क्षेमेंद्र
अमर चंद्र आदि ने कवि शिक्षा के विषय पर अपने ग्रंथों का निर्माण किया है। इस काल
के आचार्यों के अवदानों को हम विविध संप्रदायों के अंतर्गत निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकरण
कर सकते हैं -
ध्वनि
संप्रदाय – मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, हेमचंद्र, विद्याधर, विद्यानाथ, जयदेव तथा अप्पय
दीक्षित आदि
रस
संप्रदाय - शारदातनय, सिंहभूपाल, भानुदत्त,
रूप गोस्वामी आदि
कवि शिक्षा
– राजशेखर, क्षेमेंद्र, अरिसिंह, अमरचंद्र, देवेश्वर आदि
अलंकार
संप्रदाय - पंडितराज जगन्नाथ, विश्वेश्वर पंडित आदि
ध्वनि
सिद्धांत को साहित्यशास्त्र का मुख्य सिद्धान्त मानकर काव्यशास्त्र को निम्नानुसार तीन
भागों में विभक्त किया जाता है -
ध्वनि
पूर्व काल - प्रारंभ से आनंदवर्धन 800 विक्रमी तक
ध्वनि काल -
आनंद वर्धन 800 विक्रमी से मम्मट 1000 विक्रमी तक
ध्वनि
पश्चात् का काल - 1000 विक्रमी से जगन्नाथ 1750 विक्रमी तक
रस संप्रदाय
प्रवर्तक आचार्य- भरत मुनि
ग्रन्थ –
नाट्यशास्त्र
आचार्य भरत ने रस को काव्य की आत्मा
माना।
सिद्धान्त- विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगात् रसनिष्पत्तिः ।
रस सिद्धान्त के व्याख्याकार -
भट्टनायक,
भट्टलोल्लट, अभिनव गुप्त और विश्वनाथ।
काव्यशास्त्र
के प्रसिद्ध छः संप्रदायों में सबसे प्राचीन संप्रदाय,
रस संप्रदाय है। इसके संस्थापक भरतमुनि है। इनका समय ई.पू. तृतीय
शताब्दी है। राजशेखर ने काव्यमीमांसा में नंदीकेश्वर के नाम का उल्लेख किया है,
किंतु उनका कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता है, इसीलिए प्रथम आचार्य के रूप में भरत को ही माना जाता है। इन्होंने अपने
नाट्यशास्त्र में सबसे पहले रस के विषय में चर्चा की है। भरतमुनि ने लिखा है-
विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगात् रसनिष्पत्तिः अर्थात् विभाव, अनुभाव
तथा संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इसके बाद के आचार्यों ने इसी
के आधार पर उसका विवेचन किया है। भरतमुनि नाट्यशास्त्र के छठे अध्याय में रस और
सातवें अध्याय में भावों का विस्तार से विवेचन हुआ है। यही रस सिद्धान्त का आधार
है। इस सिद्धांत की व्याख्याकारों में भट्टनायक, भट्टलोल्लट,
विश्वनाथ और अभिनव गुप्त प्रसिद्ध है। अभिनव गुप्त ने आनन्दवर्धन
कृत ध्वन्यालोक पर लोचन टीका तथा नाट्यशास्त्र पर अभिनव भारती टीका लिखी। इन्होंने
रस को व्यंजना वृत्ति का व्यापार माना। आचार्य विश्वनाथ ने अपने साहित्यदर्पण में
रस को काव्य की आत्मा मानते हुए उसकी कुछ विशेषतायें बतायी यथा- रस अलौकिक है,
यह ब्रह्मानन्द का सहोदर है । रस ज्ञान स्वरूप होता है। इनहोंने रस
के 4 अंग 9 स्थायी भाव, आलम्बन और उद्दीपन ये दो विभाव,
कायिक, वाचिक, आहार्य और
सात्विक ये चारों अनुभाव, तथा 33 संचारी भाव स्वीकार किये।
अलंकार संप्रदाय
अलंकार
संप्रदाय के प्रवर्तक भामह माने जाते हैं। इन्होंने काव्यालंकार नामक ग्रन्थ की
रचना की । इनका समय छठी शताब्दी माना जाता है। इनके व्याख्याकार भामह विवरण तथा काव्यलंकारसारसंग्रह
के लेखक उद्भट और उसके बाद हुए दण्डी, रूद्रट
और उसके बाद काव्यालंकारसारसंग्रह प्रतिहारेन्दु राज तथा जयदेव आदि अनेक आचार्य
अलंकार संप्रदाय के अंतर्गत आ जाते हैं। उद्भट ने काव्यलंकारसारसंग्रह में 41 अलंकारों
का निरूपण किया है। भामह के बाद दण्डी ने अलंकार
पर काव्यादर्श नामक ग्रन्थ लिखा। इनका समय सातवीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है।
इन्होंने काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते अर्थात् काव्य के शोभाकर
धर्म अलंकार हैं कहकर अलंकार को काव्य का
शोभाधायक तत्व माना। इन्होंने इस ग्रन्थ के द्वितीय परिच्छेद 35 अलंकारों के लक्षण
तथा उदाहरण दिये है। अलंकार संप्रदाय के अनुयायी भी रस की सत्ता को मानते हैं,
किंतु उसे प्रधानता नहीं देते हैं। उनके मत में काव्य का प्राण भूत
जीवनाधायक तत्व अलंकार ही है। अलंकारविहीन
काव्य की कल्पना वैसे ही है जैसे गर्मी से रहित अग्नि की कल्पना। चंद्रलोक के
रचयिता जयदेव ने काव्यप्रकाशकार के लक्षणों में आए अनलंकृति पुनः क्वापि अर्थात्
कहीं-कहीं अलंकार हीन शब्दार्थ भी काव्य हो सकते हैं, पर
उत्तर देते हुए लिखा है-
अङ्गीकरोति यः काव्यं
शब्दार्थावनलंकृती।
असौ
न मन्यते कस्माद्नुष्णमनलं कृती । चन्द्रालोक, 1/8
अर्थात्
काव्यप्रकाशकार जो अलंकार विहीन शब्द और अर्थ को भी काव्य मानते हैं,
वह उष्णता विहीन अग्नि की सत्ता क्यों नहीं मानते? अलंकार संप्रदायवादी काव्य में अलंकारों को ही प्रधान मानते हैं और इसका
अंतर्भाव रसवदलंकारों में करते हैं। रसवत्,
प्रेय, ऊर्जस्विन् और समाहित चार प्रकार के
रसवदलंकार माने जाते हैं। दंडी और भामह दोनों ने रसवदलंकारों के भीतर ही रस का
अंतर्भाव किया है।
रीति संप्रदाय
रीति
संप्रदाय के संस्थापक वामन है। इनका समय 9वीं शताब्दी माना जाता है। वामन ने
काव्यालंकारसूत्र नामक ग्रन्थ की रचना की। इन्होंने काव्य में अलंकारों की
प्रधानता के स्थान पर रीति की प्रधानता को स्वीकार किया है। रीतिरात्मा काव्यस्य
यह उनका प्रमुख सिद्धांत है। इसीलिए उन्हें रीति संप्रदाय के प्रवर्तक माना जाता
है। इनहोंने वैदर्भी रीति, गौडी रीति, पाञ्चाली रीति इन तीन रीति का प्रतिपादन किया। ये सौन्दर्य शास्त्र के
उद्भावक है।
रीति का विवेचन करते हुए उन्होंने
विशिष्टपदरचनारीतिः लिखा है अर्थात् विशिष्ट पद रचना का नाम रीति है। आगे उस विशेष
की व्याख्या करते हुए कहा है विशेषणो गुणात्मा अर्थात रचना में माधुरी आदि गुणों
का समावेश ही उसकी विशेषता है और यह विशेषता ही रीति है। इस प्रकार इस सिद्धांत
में गुण और रीति का अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। इसीलिए रीति संप्रदाय को गुण संप्रदाय
के नाम से जाना जाता है। वामन ने काव्यशोभायाः कर्तारो गुणाः तथा अतिशयहेतवत्वलङ्कारः इन 2 सूत्रों को लिखकर गुण और अलंकार का भेद
प्रदर्शित करते हुए अलंकारों की अपेक्षा गुणों के विशेष महत्व को प्रदर्शित किया
है। गुण काव्य शोभा के उत्पादक होते हैं। अलंकार केवल उस शोभा के अभिवर्धक होते
हैं अर्थात बढ़ाने वाले होते हैं, इसीलिए काव्य
में अलंकारों की अपेक्षा गुणों का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है। अतः वामन ने अलंकारों
की प्रधानता को समाप्त कर गुणों की प्रधानता का प्रतिपादन करने वाले रीति संप्रदाय
की स्थापना की। मम्मट आदि बाद के आचार्यों ने रीति की उपयोगिता स्वीकार की है,
किंतु उसे काव्य की आत्मा स्वीकार नहीं किया है। उनके मत में
रीतियोरवयवोसंस्थानविशेषवत् काव्य में रीतियों की स्थिति वैसे ही है जैसे शरीर में आंख नाक कान आदि
अवयवों की है। इन अवयवों की रचना शरीर के लिए उपयोगी भी है और शरीर शोभा की जनक भी
है, फिर भी उसे आत्मा का स्थान नहीं दिया जा सकता। इसी
प्रकार काव्य में रीति का महत्व तथा शोभाजनकत्व होने पर भी उसे काव्य की आत्मा
नहीं कहा जा सकता।
ध्वनि संप्रदाय
इस
संप्रदाय के संस्थापक आनंदवर्धन आचार्य हैं। इन्होंने ध्वन्यालोक ग्रन्थ की रचना
की। इनके मत में काव्य की आत्मा ध्वनि है। काव्यस्यत्मा ध्वनिः। इन सभी संप्रदायों में ध्वनि संप्रदाय सबसे
अधिक प्रबल एवं महत्वपूर्ण संप्रदाय रहा है। यद्यपि इसके विरोध में भी अनेक ग्रंथ
लिखे गए हैं ।ध्वनि सिद्धांत वैसा ही अधिक से अधिक चमकता गया जैसे अग्नि में तपने
पर स्वर्ण की कांति बढ़ती है। ध्वनि सिद्धांत के विरोध में वैयाकरण,
साहित्यिक, वेदांत, मीमांसक,
नैयायिक आदि सभी ने अपना पक्ष रखा, किंतु अंत
में काव्यप्रकाशकार मम्मट ने बड़ी प्रबल युक्तियों द्वारा उन सब का खंडन करके
ध्वनि सिद्धांत की पुनर्स्थापना की। इसीलिए उनको ध्वनि प्रतिष्ठापक परमाचार्य माना
जाता है। भरत से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक लगभग 2000 वर्षों के दीर्घ अवधि के भीतर
इन संप्रदायों का विकास और संघर्ष होता रहा है। अनेक प्रमुख आचार्यों ने इन
साहित्यिक विकास के कार्यों में अपना योगदान किया है।
वक्रोक्ति संप्रदाय
वक्रोक्ति
संप्रदाय के संस्थापक कुन्तक माने जाते हैं। इन्होंने वक्रोक्तिजीवितम् नामक
ग्रन्थ की रचना की। कुन्तक ने काव्य में रीति की प्रधानता को समाप्त कर वक्रोक्ति
की प्रधानता की स्थापना की। वैसे काव्य में वक्रोक्ति का महत्व भामह ने भी स्वीकार
किया है।
सैषा
सर्वत्रा वक्रोकितरनयार्थो विभाव्यते।
यत्नोऽस्यां
कविना कार्य: कोऽलंकारोऽनया विना।।
इसी प्रकार
दण्डी ने भी भिन्नं द्विधा स्वभावोक्तिर्वक्रोक्तिश्चेति वाङ्मयम् लिखकर वक्रोक्ति
के महत्व का प्रतिपादन किया है। वामन ने भी सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्तिः लिखकर
काव्य में वक्रोक्ति का स्थान माना है। किंतु उन सब के मत से वक्रोक्ति सामान्य
अलंकार आदि रूप ही हैं। कुन्तक ने वक्रोक्ति को जो गौरव प्रदान किया है उसे अन्य
आचार्यों ने नहीं दिया है, इसीलिए कुन्तक ही
इस संप्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं। वक्रोक्तिजीवितकार ने अपने पूर्ववर्ती
रीति सिद्धांत को भी परिमार्जित करके अपने यहां स्थान दिया है। वामन की पांचाली,
वैदर्भी, गौडी आदि रीतियां देश भेद के आधार पर मानी जाती थी। कुन्तक ने उसका आधार,
देश को न मानकर रचना शैली को माना है और उसके लिए रीति के स्थान पर
मार्ग शब्द का प्रयोग किया है। कुन्तक, वामन की वैदर्भी रीति
को सुकुमार मार्ग कहते हैं। इसी प्रकार गोडी रीति को विचित्र मार्ग तथा पांचाली
रीति को मध्यम मार्ग नाम से कहते हैं।
औचित्य सम्प्रदाय
नोट- मैंने इस ब्लॉग में इन विषयों पर अलग - अलग लेख लिखा था। यह लेख UGC नेट (संस्कृत) की तैयारी कर रहे छात्रों को ध्यान में रखकर लिखा है। विस्तृत सामग्री या इससे जुड़ी अन्य जानकारी के लिए टिप्पणी में लिखें।
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1. अलंकार सम्प्रदाय
2. संस्कृत काव्यशास्त्रकारों की सूची एवं परिचय
3. रीति सम्प्रदाय
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आपका यह लेख, वैदिक सूक्त संकलन वाला लेख लघुसिद्धान्तकौमुदी, हमारे जैसे नेट जेआरएफ परीक्षा की तैयारी करने वाली छात्राओं के लिए बहुत ही उपयोगी है। औचित्य संप्रदाय के बारे में भी जानकारी देने का कष्ट करें।
जवाब देंहटाएंउपलब्ध कराता हूँ।
जवाब देंहटाएंThank you so much for this...... it's very important for us....😊😊😊😊😊😊😊😊
जवाब देंहटाएंकाव्य प्रकाश किताब के कुछ प्रश्न या अन्य कुछ सामग्री मिल जाए तो महान कृपा होगी जी आपकी
जवाब देंहटाएंसम्पूर्ण काव्यशास्त्र इस ब्लॉग पर उपलब्ध है। आपने मीनू बटन से नहीं खोजा। काव्यप्रकाश का काव्यप्रयोजन,अर्थश्लेष,शब्दश्लेष, गुण एवं अलंकार, शब्दशक्ति आदि विषयों पर अनेक लेख उपलब्ध हैं।
हटाएंSir nmste
जवाब देंहटाएंAapne bhut achcha likha h ,thanku so much sir
Sir aapse ek bat puchni thi ki agr phd m agr koi net se matter le kr apni thisis m use kre to kya pta chl jata h ki matter khi se liya h
इन लेखों को पढ़कर अपनी भाषा में लिखें। शब्दशः लिखने पर पता चल जाएगा। आप शोधप्रबन्ध जमा नहीं कर पायेंगे।
हटाएंSir nmste
जवाब देंहटाएंSir nmste
जवाब देंहटाएंAap students k liye bhut achcha kaam kar rahe hai or bhut achche lekha bhi likh rhe h thank you so much sir
Sir aapse ek bat puchni the ki mera topic gvlvdevchritm ka kavya shastriye adhyan h
Usme kavya shastra ka parichay Dena h to Jo aapne matter diyah utna hi aaiga ya or bhi kuch add krna h
इतना देना भी पर्याप्त होगा परन्तु एक शोधार्थी से अपेक्षा की जाती है कि वह काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों को मूल पुस्तक तथा टीका ग्रन्थों के माध्यम से भी जाने। आप इस लेख में लिखित ग्रन्थों को एक बार अवश्य देखें। इसके पश्चात् विषय वस्तु को आत्मसात् कर अपनी समझ के अनुसार लिखें।
हटाएंSir प्लीज़ reply
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