आज हम यहाँ संस्कृत क्षेत्र की चुनौतियाँ तथा समाधान पर चर्चा करेंगें। सर्वप्रथम संस्कृतज्ञों में समर्पण, उल्लास, ममत्व और अहंता संस्कृत के प्रति अर्पित होनी चाहिए। अपनी समस्त ऐन्द्रिक लोलपुता संस्कृत की ओर मोड़ देना चाहिए। स्वाद हो तो संस्कृत का। दृश्य हो तो संस्कृत का। फिर वह ऐन्द्रिक लोलुपता संस्कृत का साधक होगा, बाधक नहीं। ऐसा दोष नहीं वरन् अच्छाई है। भाषा एवं जीवन दर्शन के रुप में संस्कृत के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। जैसा कि कुछ राजनैतिक संस्थाओं ने किया है। ऐतिहासिक रुप में संस्कृत ने संसार के विभिन्न हिस्सों में सभ्यता के उदय में एक प्रगतिशील भूमिका निभायी है।
जब से औद्योगिक क्रान्ति हुआ, शिक्षा को
उद्येश्य में परिवर्तन हो गया। जहाँ पहले ज्ञानार्जन के लिए अध्ययन किया जाता था। औद्योगिक
क्रान्ति के पश्चात् कौशल सम्पादन हेतु अध्ययन शुरु हुआ। औद्योगिक क्रान्ति के
कारण पारम्परिक कौशल एवं व्यवसाय समाप्त होते गये। पुनः औद्योगिक कौशल प्राप्त
करने हेतु शिक्षण केन्द्रों की आवश्यकता आ पड़ी। चुंकि पारम्परिक व्यवसाय के नष्ट
होने से रोजगार का संकट खड़ा होने लगा। अर्थोपार्जन हेतु लोग व्यावसायिक शिक्षा की
ओर बढ़े, क्योंकि निर्मित वस्तु का एक नये तरीके का बाजार बन
रहा था, जिसमें रोजगार की सम्भावना थी। व्यावसायिक शिक्षा के
आने से मानविकी विषयों की महत्ता कम होती गयी। क्योंकि मानविकी विषय रोजगारोन्मुख
क्रय-विक्रय, बाजारवाद, उत्पादक-उपभोक्ता
से दूर था। यहाँ पूंजी निर्मित नहीं होती। यहीं से मानविकी विषयों का ह्रास होने
लगा।
यूरोपीय देश जापान, कोरिया और चीन ने विश्व बाजार पर एकाधिपत्य स्थापित कर नित नये
उत्पादक शोध किये, जिसमें स्वास्थ, बीमा,
बैकिंग, परिवहन, वस्त्र,
सौन्दर्य प्रसाधन, कृषि, धातुकी (स्वर्ण, गैस, तेल) आदि
थे। शोध की भाषा के अनुरुप उत्पादन की भी वही भाषा हुई। उस भाषा में रोजगार सृजित हुए। विपणन हेतु विज्ञापन आदि की
भाषा का आर्विभाव हुआ। क्रेता या बाजार की भाषा को देखकर विपणन की भाषा समृद्ध
होती गयी।
अब वही भाषा अनिवार्य हुई, जिसमें शोध या उत्पादन हो अथवा भाषायी रुप से अधिक जनसंख्या वाला क्षेत्र।
लोग क्रेता विक्रेता एवं उत्पादन की भाषा को सीखने हेतु प्रेरित हुए क्योंकि वहाँ
रोजगार था।
संस्कृत भाषा को जो आज चुनौती अन्य भाषा तथा
तज्जनित संस्कृति से मिल रही है। इसके कारक तत्वों का गहराई से पड़ताल की आवश्यकता
है। आज अंग्रेजी मुख्य चुनौती है। भारत में ईस्ट इन्डिया कम्पनी द्वारा औद्योगिक
क्रान्ति लाया गया। ईसाई मिशनरी और कम्पनी में गठजोर स्थापित हुआ। उद्योगों को
कामगार मजदूर मिले तो मिशनरी ने इस मार्फत सांस्कृतिक धावा बोला। भारतीय सरकारें
भी उस रास्ते पर आगे बढ़ी। वर्षों से कई
संस्थाएँ केवल वैचारिक समारोह करती है। संस्कृत के विकास प्रचार-प्रसार में व्यक्ति सर्टिफिकेट, यात्रा
व्यय, मानदेय आदि लेकर अपने दायित्व को पूर्ण मान रहे हैं।
सरकार के अनुदान से प्रायोजित कार्यक्रमों का
यदि सोशल आडिट कराया जाय तो कुछ होता हुआ भी दिखे। योजना निर्माता जमीनी हकीकत से
वाकिफ नहीं होते या उनमें दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव होता है। जैसी सरकारें वैसी
योजना।
मुगलों से लेकर आज तक शासन और बोलचाल की भाषा
कभी एक नहीं रही। आम जनों ने जब-जब शासकीय या कामकाज की भाषा सीखी, शासकीय भाषा बदल दी
गयी।
प्रजातंत्र में शासकीय भाषा, संख्याबल पर भी
निश्चित नहीं हो सका। जो भी भाषा पिछड़ी थी, वह पिछड़ती चली
गयी। संस्कृत जैसे भाषा को न उचित शासकीय संरक्षण मिला, न ही निजी क्षेत्र में। अतः यह अंतिम गति की ओर बढ़ती जा रही है। जिन भाषाओं का अपना
भौगोलिक स्वरुप क्षेत्र था। वहाँ से रोजगार के लिए जनता के पलायन हुआ। भाषा टूटती गयी।
औद्योगिक भाषा उसे निगलती जा रही है।
कुछ भाषाएँ जो भाषायी आधार पर ही रोजगार सृजन
करती है, यथा पर्यटन वहाँ भी समृद्व जनों की भाषा स्वीकार्य
होती गयी। औद्योगिक रुप से विकसित समृद्व राष्ट्र विविध देश वासियों को अपनी भाषा
सीखने को विवश किया।
सूचना क्रान्ति के दौर में भी भाषायी सामथ्र्य
होने से संस्कृत अनुवाद में सक्षम हो सकता था। परन्तु इसमें भी नित नये विषयों की
जानकारी आवश्यक थी। दुर्भाग्यवश प्राचीन ग्रन्थ कोयला, श्रम,
पूंजी आदि के बारे में अद्यतन नहीं किये गये, अतः
सूचना के संकलन एवं प्रसारण में अक्षम रहे।
समृद्ध भाषा के ज्ञाता होते हुए भी संस्कृतज्ञ
औद्योगिकीकरण एवं सूचना क्रान्ति में अपना योगदान नहीं दे सके।
संस्कृतज्ञों के
एक वर्ग की धारणा है कि भाषा केवल सम्प्रेषण का माध्यम है। प्रश्न यह भी करते है
कि भाषा को बचाना है या भाषा में निहित ज्ञान को। मेरा कहना है कि आपके अनुसार फिर
भाषा की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। परन्तु यह न भूलें कि किसी भी एक भाषा में
दूसरी भाषा के विचारों को वहन करने का सामथ्र्य न के बराबर होता है। हर भाषा के
शब्दों की अपनी एक आत्मा, उनका अपना एक विशेष
जीवन और वातावरण होता है। उन शब्दों का ऐसा अनुवाद, जिससे
उसके भावों में अन्तर न आये, अत्यन्त कठिन है।
ब्रिटिश के गुलाम
देशों ने राजनैतिक गुलामी से आजादी तो पा ली, परन्तु
सांस्कृतिक गुलामी में फंस गया। फिर पश्चिमी देशों ने विकास का नारा दिया। भारत ने
इस नारे को स्वीकार कर लिया। फलतः देश में नैतिक शिक्षा का अभाव हुआ। परिणाम विकास
के जगह भ्रष्टाचार हुआ। जनवरी 1999 में मानव मूल्यों पर एक
रिर्पोट प्रस्तुत हुआ, जिसमें संस्कृत को उपादेय वाहक पाया
गया।
संस्कृत में बहस विकास के पैमाने तथा अवधारणा
के बीच रहा। जब विश्व में औद्योगिक क्रान्ति हुआ हम चुप बैठे रहे जब सूचना
क्रान्ति आयी हम पंगू बने रहे। परिणाम हम पिछड़ते चले गये। पश्चिमी देश पांव
पसारते गये पसारते गये। औद्योगिक क्रान्ति के समय ही यदि हम सक्रिय भूमिका में
आयें होते तो आज सूचना क्रान्ति मेरी मुठ्ठी में होती। हम हजारों वर्ष पूर्व लिखित
पुस्तकों के पद पदार्थ के चीर फाड़ में ही मशगुल रहे। अपनी विद्वता लगाते रहे। यदि
हम कम्प्यूटर ज्ञान अपना लिये होते और पाठ्यक्रम में जगह दे देते तो आज ये दुर्दिन
न आते। ज्ञान एवं सूचना प्रवाह में अवरोधक भाषाओं का संस्कृत भाषा के व्याकरण से
समाधान कर देते। आज भी यह सम्भव है। पाठ्यक्रमों में आमूल चूल परिवर्तन हो।
संस्कृत भाषा में ही रोजगार परक तकनीकि पाठ्यक्रम चलाये जायें। संस्कृत में
उच्चस्तरीय कार्य हो, जिससे लोग कहे सके हाँ इस भाषा में
नवीन और सर्वस्पर्शी कार्य हुआ। अचार मुरब्बा बनाने से लेकर सौन्दर्य प्रसाधन तक
की चर्चा संस्कृत भाषा के माध्यम से भी हो तभी हम प्रासंगिक रह पायेंगें।
देश में सर्वत्र
भाषायी स्तर पर निराशा व्याप्त है। संस्कृतज्ञ भी अपने बच्चों को संस्कृत पढ़ाने
से बचने लगे है। मेरा कहना है आप जो भाषा, विद्या
पढ़ाए। रोजगार दिलायें, परन्तु संस्कृत का संस्कार जरुर दें
ताकि अवकाश और अवसर आने पर वह उसका सदुपयोग कर सके।
साइन्टिस्ट भी सेटेलाइट उड़ाने के पूर्व, पुल के
उद्घाटन के पूर्व धार्मिक अनुष्ठान कराते हैं, जबकि इसका
उनसे कोई ताल्लुकात नहीं होता, वरन् यह एक सामाजिक विज्ञान
है। इसी सामाजिक विज्ञान को और विस्तार देने की आवश्यकता है। संस्कृत की पहुॅच और
पूछ इतनी ज्यादा है कि वैज्ञानिक चिकित्सक, अभिनेता, नेता भी अपने बारे में ज्योतिषी से ही पूछते है, मेरी
पदोन्नति कब होगी। समाज में एक गलत मनोवैज्ञानिक प्रचार किया जा रहा है, संस्कृत पंडितों और मनुवादी सोच वाले लोगों की भाषा है।
संस्कृतज्ञों में आपसी फूट के लिए संस्कृत में
एक चुटुकुला कहा जाता है, पण्डितः पण्डितं दृष्ट्वा श्वानवद्
गुर्गुरायते। सहनाववतु उद्घोष इस रूप में विकृत होगा, आशा नहीं थी।
संस्कृत के वर्तमान अध्येता अपने वैचारिक
अधिष्ठान एवं कार्य संस्कृति, आचरण एवं व्यवहार के कारण इस
समाज का नेतृत्व करने लायक बनें। अध्येताओं की संख्या में विस्तार हो तथा विद्वान्
वैचारिक रूप से पुष्ट हों। मेरा इस विषय पर कुल तीन लेख हैं। आगामी लेख पढने के लिए
संस्कृत क्षेत्र की चुनौतियाँ तथा समाधान-2 पर क्लिक करें। अलग विंडो खुलेगी।
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जगदानन्द झा
संस्कृत को पुनर्स्थापित करने के लिए चुनौतियां एवं समाधान
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