शुभ मास में प्रारम्भ से एक दिन पूर्व श्रोता-वक्ता दोनों बाल, नख आदि काटकर हविष्य भोजन कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए राग-मत्सर छोड़कर सत्यवादी बनें। इस अवसर पर कोई - कोई सभी प्रकार के प्रायश्चित्त के लिए पञ्चगव्य निर्माण कर गायत्री से अभिमंत्रित कर तीन बार पान करते हैं।
इसके
बाद कथा के आरम्भ के दिन प्रातः नित्यकर्म करके यजमान तिल, आँवला आदि के साथ स्नान
करे। चन्द्र तथा तारा आदि बल से युक्त शुभ मुहूर्त में (शुक्लपक्ष में जन्म राशि
से चंद्रमा का गोचर 1, 2, 3, 5,
6, 7, 9,
10
और ग्यारहवें स्थान में शुभ होता है। यदि चंद्रमा इस भाव में गोचर मे है तो जातक
को सभी प्रकार के लाभ और विजय दिलाने वाला होता है। चन्द्रमा यदि गुरु ग्रह द्वारा
दृष्ट है तो बलशाली हो जाता तथा शुभ फल देता है। तारा बल का संबंध नक्षत्र से है)
शुद्ध स्थान में गोबर से शुद्ध कर कथा मण्डप में अपने आसन पर पूर्वमुख कर बैठे। वेद,
शास्त्र के तत्व को जानने वाले आचार्य वक्ता को शुद्ध आसन पर उत्तराभिमुख बिठाकर
आचमन प्राणायाम करके स्वस्त्ययन शान्तिपाठ (लिंक पर क्लिक कर देवपूजा विधि पर जायें) करें।
इसके
बाद हाथ में कुश, अक्षत,
जल, द्रव्य लेकर अधोलिखित संकल्प पढ़ें-
ॐ
विष्णुः ३ अद्येत्यादिदेशकालौ संकीर्त्य अमुकगोत्रस्यामुकशर्म्मणोऽमुकराशेरमुकप्रवरस्य ममेह जन्मनि जन्मान्तरे
वा स्वकर्माभ्यासवशाद्वाल्यावस्थातः शिशुकुमारपौगण्डयौवनयौवनार्द्धवार्द्धकातिवार्द्ध
कास्ववस्थासु जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तावस्थासु च देशकालवशेन मनोवाक्कायकर्मेन्द्रिय-
व्यापारैः कामक्रोधादि-वशाविर्भूतैर्ज्ञानाज्ञानतः कृतानां क्रियमाणानां
करिष्यमाणानां च शुष्कार्द्रलघुगुर्वादि-सङ्करीकरणमलिनीकरणजातिभ्रंशकरणाऽपात्रीकरणानां
परसंसर्गजातानां चिरकालाभ्यसितानां बहूनां बहुविधानां सकलाघचयानामत्यन्त-
निरसनपूर्वकं श्रीमदनादिपुरुषश्रीकृष्णप्रीतिद्वारा
श्रुतिस्मृति-पुराणागमोक्तमोक्ष- लक्षणनारायणोपासनादिभक्तिफलावाप्तये तथा
चास्मत्कुलपूर्वजातानांं प्राप्ता- प्राप्तशुभ-गतीनां वैकुण्ठपदप्राप्तये स्वस्य
चान्ते विष्णुस्मृत्यर्थम् अन्यत्कामनार्थं वा श्रीमद्भागवतश्रवणं सप्ताहैरहं
करिष्ये, तदङ्गत्वेन निर्विघ्नतासिद्ध्यर्थं
गणपतिपूजनं पुण्याहवाचनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धञ्च करिष्ये ।
उपरोक्त
संकल्प पढ़कर किसी पात्र में संकल्प छोड़े। इसके बाद गणेश-गौरी का पूजन,
षोडशमातृका, सप्तघृतमातृका, नवग्रह पूजन, पुण्याहवाचन एवं नान्दीश्राद्ध की विधि करें।
उपर्युक्त विधि को इसी ब्लॉग में देंखें-
षोडशमातृका , सप्तघृतमातृका (वसोर्धारा) पूजन
नान्दीश्राद्ध (आभ्युदयिक श्राद्ध)
तदनन्तर सर्वतोभद्र में प्रधान कलश पर विष्णु के
सुवर्ण प्रतिमा की अग्न्युत्तारण- पूर्वक स्थापना करके षोडशोपचार से पूजन करे।
इसके
बाद वरण द्रव्य (वस्त्र तथा धन ) लेकर अधोलिखित संल्प को पढ़कर वक्ता का वरण करे। ॐ
अद्येत्यादिदेशकालौ संकीर्त्य मम सर्वविध- पापक्षयद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं
जन्मजन्मान्तरे श्रीभगवद्भक्तिप्रात्यर्थं च श्रीमद्भागवत- सप्ताहकधा
श्रवणार्थममुकगोत्रममुकशाखाध्यायिनं शुकरूपिणं ब्राह्मणं श्रावयितारमेभिर्द्रव्यैस्त्वामहं वृणे।
फिर वक्ता- वृतोऽस्मि कहे। पुनः वस्त्र अलङ्कार आदि से पूजा कर शुकरूप द्विज का वस्त्रादि अलंकार तथा पाद्य आदि से पंचोपचार पूजन कर प्रार्थना करे, फिर प्रणाम करे।
ॐ शुकरूप द्विजश्रेष्ठ सर्वशास्त्रविशारद।
एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय।।
इसके बाद वरण द्रव्य लेकर संकल्प पढ़कर गर्गरूप उपवाचक का वरण कर पूजा करे। ॐ अद्येत्यादि०
मम सकलपापक्षय- द्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं पूर्वोक्तसंकल्पसिद्ध्यर्थञ्च
अमुकगोत्रममुकशाखाध्यायिनं गगरूपिणं ब्राह्मणम् उपवाचयितारमेभिर्द्रव्यैस्त्वामहं
वृणे।
उपवाचक ॐ वृतोऽस्मीति बोले। इसके बाद वस्त्रादि से पूजा कर श्री गर्गरूपी द्विज की प्रार्थना करें — ॐ विद्वन् भागवते ह्यस्मिन् वाचकेनाखिलीकृत ।
विसर्गविन्दुमात्राणां व्यत्ययेन त्वरात्त्वतः ।
तत्त्वया सावधानेन विविच्य बहुयत्नतः।
अनीर्ष्यया च साहाय्यं देयं देव! नमो नमः ।
प्रार्थना कर
प्रणाम करे।
फिर
गायत्री मन्त्र, विष्णु का द्वादशाक्षर मन्त्र, विष्णुसहस्रनाम, गणेश
मन्त्र के जप-पाठ के लिए ५ ब्राह्मणों का वरण करने के लिए संकल्प करें। ॐ
अद्येत्यादि० सर्वविधपातकनिवृत्तिद्वारा श्रीपरमेश्वर- प्रीत्यर्थं करिष्यमाण
श्रीमद्भागवत सप्ताहयज्ञकर्मणः साङ्गतासिद्धये अमुकगोत्रममुक- शर्माणं
ब्राह्मणमेभिर्द्रव्यैर्गायत्री जपकरणार्थं त्वामहं वृणे।
वरण कर वरण द्रव्य से पूजा करे और प्रणाम करे।
इसी प्रकार विष्णु का द्वादशाक्षर मन्त्र, विष्णुसहस्रनाम, गणेश मन्त्र के जप-पाठ के लिए वरण करें।
जगत में भक्ति से ही प्राप्त होने वाले, वेद और वेदांत के द्वारा ही जानने योग्य, मुर और नरकासुर को मारने वाले, अपार यादवरूपी समुद्र में प्रकट हुए, भगवान् श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूं। इस संसार में अपने स्वरूप तथा शास्त्र को प्रसन्नता पूर्वक प्रकट किया करते हैं तथा सचमुच ही जिनका स्वरूप इस त्रिभुवन को तारने के लिए भक्ति के समान स्वतंत्र नौका रूप है, वे भगवान् श्रीकृष्ण हम लोगों का कल्याण करें।
इसी तरह पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल दक्षिणादि आठ उपचार से पन्द्रह या सोलह उपचार से पूजा करें ।
ग्रन्थ पर पीले फूल, माला, फल, नैवेद्य, दक्षिणा, अर्पण कर शंख घण्ट आदि बाजा बजाते हुए आरती करे और प्रदक्षिणा करके प्रार्थना करे।
षोडशोपचारैः श्रीमद्भागवतपूजां कृत्वा ग्रन्थोपरि पीतपटाच्छादनं पुष्पमाला-फल-
नैवेद्य-दक्षिणादि निवेद्य घण्टा शंखादि वाद्यैः सह नीराजनं कुर्यात्, ततः
प्रदक्षिणाञ्च कृत्वा प्रार्थयेत्।
श्रीमद्भागवताख्यस्त्वं
प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि।
स्वीकृतोसि
मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे।।
मनोरथो
मदीयोऽयं सफलः सर्वथा त्वया।
निर्विघ्नेनैव
कर्तव्यो दासोऽहं तव केशव ।।
अज्ञानतिमिरान्धानां
जडानां विषयात्मनाम्।
सुप्रकाशः
सुचैतन्यो बुद्धस्त्वं शरणं भव।
ज्ञानं
देहि यशो देहि भग देहि गतिं शुभाम् ।
ग्रन्थोत्तमप्रसादेन
मुक्तोहं स्यां भवार्णवात्।।
इति
प्रार्थयित्वा ऽन्यान् वैष्णवादीनपि गन्धपुष्पाक्षतैः सम्पूज्य प्रणमेत् ।
इसी प्रकार प्रार्थना कर अन्य वैष्णव आदि को गन्ध, पुष्प, अक्षत से पूजा कर प्रणाम करे।
इसके बाद यदि वक्ता उत्तराभिमुख होकर बैठे हो तो यजमान पूर्व की ओर मुख कर बैठे। यदि वक्ता पूर्व मुख हो तो यजमान उत्तरमुख होकर बैठे अथवा वक्ता के सामने श्रोता बैठे। फिर वक्ता व्यास आदि का नमन कर महा आसन पर आसीन होकर गणेश्वर, सरस्वती, विष्णु, नारदादि भक्तों को नमस्कार कर पुष्पाञ्जलि अर्पण करें।
ततो यजमानः स्वासने वक्ता उदङ्मुखश्चेत् पूर्वाभिमुखः वक्ता पूर्वमुखश्चेदुदङ्मुखः अथवा वक्तृसम्मुख उपविशेत्। ततो वक्ता व्यासादीन् नत्वा महासनमधिरुह्य श्रीगणेश्वरं सरस्वतीं विष्णुं नारदादिभगवत्प्रियान् नमस्कुर्वन् पुष्पाञ्जलिं निवेदयन्
फिर अन्यत्र दृष्टि-मन न लगाते हुए कुर्ता और पगड़ी बाँध कर मौन हो श्री नारायण के चरण कमल में मन स्थिर करके आलस्य-निद्रा को जीतकर स्पष्ट अक्षर उच्चारण करते हुए श्रीमद्भागवत माहात्म्य पठनपूर्वक श्रीमद्भागवत का पाठ करे।
नान्यदृष्टिर्नान्यमना नाश्लिष्टवाक् नाधिमनाः श्रीमहापुरुषचरणकमलं हृत्पद्मे धारयन्नायासवर्जितः स्फुटाक्षरेणैव श्रीमद्भागवतमाहात्म्यपठनपूर्वकं श्रीमद्भागवतं पठेत् ।
ततः
श्रोतापि नान्यमना च धृतकञ्चुकोष्णीषो मौनी श्रीमन्नारायणचरणकमले भ्रमरायितमना
नालस्यनिद्रादियुतो विस्मृतगृहकदुम्बादिस्पृहो भगवच्चरित्रमादितोत्यक्तैकपदः
शृणुयात्। वाचकस्तु प्रत्येकाध्यायान्ते साक्षतजलंं गृहीत्वा ॐ कृतेनानेन
अमुकस्कन्धान्तर्गतामुकध्यायपाठेन श्रीमन्नारायणप्रसादतो यजमानस्यामुकाभीष्ट-प्राप्तिरस्तु अथवा कृतेनानेन पाठेन सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः । इति पठित्वा जलं
प्रक्षिपेत् ।
सप्ताह
कथनकालनिर्णयः-
आसूर्योदयमारभ्य
सार्द्ध त्रिप्रहरान्तकम्।
वाचनीया
कथा सम्यक् धीरकण्ठं सुधीमता ।।
कथाविरामः
कर्तव्यो मध्याह्ने घटिकाद्वयम् ।
कथावसाने
कर्तव्यं कीर्तनं केशवस्य च ।।
(अयं
च विरामो माध्याह्निकक्रियार्थं मूत्रपुरीषोत्सर्जनार्थं वेति भावः ) ।।
सूर्योदय
से आरम्भ कर साढ़े तीन प्रहर तक धीर कण्ठ से पाठ करना चाहिए। मध्याह्न में दो दण्ड
कथा का विश्राम करना चाहिए। विश्राम के समय भगवान् का कीर्तन करना चाहिये। यह
विश्राम मध्याह्न क्रिया सम्पादन हेतु समझना चाहिये।
सप्ताह
पाठक्रम –
प्रथम
दिन - तृतीय स्कन्ध के १९ अध्याय तक ४८ अध्याय,
द्वितीय
दिन - पञ्चम स्कन्ध के १५ अध्याय तक ६० अध्याय,
तृतीय
दिन - अष्टम स्कन्ध के १२ अध्याय तक ५७ अध्याय,
चतुर्थ
दिन - दशम स्कन्ध के ३ अध्याय तक ३९ अध्याय तक,
पञ्चम
दिन - दशम स्कन्ध के ५९ अध्याय तक ५६ अध्याय,
षष्ठ
दिन - एकादश स्कन्ध के १९ अध्याय तक ६० अध्याय
सप्तम
दिन - द्वादश स्कन्ध के अन्त १३ अध्याय तक २५ अध्याय तक
इस
नियम से सात दिनों में पाठ अवश्य पूर्ण करना चाहिये।
अथ
श्रोतृनियमाः –
उपवासः
प्रकर्तव्यः श्रोतृभिस्तत्फलेप्सुभिः ।
तदशक्तौ
हविष्यान्नं सकृत्स्वल्पं समाहरेत् ।।
जलेनापि
फलेनापि दुग्धेन च घृतेन वा।
केवलेनैव
कर्तव्यं निर्विघ्नं धारणं तनोः ।।
ब्रह्मचर्यमधः
सुप्तिः पत्रावल्यान्तु भोजनम्।
कथासमाप्तौ
भुक्तिं च कुर्यान्नित्यं कथाव्रती ।।
कामं
क्रोधं मदं लोभं दम्भं मात्सर्यमेव च ।
मोहं
द्वेषं तथा हिंसां निन्दां चापि विवर्जयेत् ।।
सत्यं
शौचं दयां मौनमार्जवं विनयं तथा।
मनःप्रसन्नतां
चापि बुधः कुर्यात्कथाव्रती ।। (अयञ्च नियमो वक्तुरपि ) ।।
इत्थं
शास्त्रोक्तनियमेन नियमितः श्रोता सप्तदिनानि श्रीमद्भागवतं शृणुयात् ।। तत्र
प्रतिदिनं संक्षेपेण श्रीगणेशादिपूजनपूर्वकं विष्णुपूजा पुस्तकपूजा च कर्तव्या।
प्रतिस्कन्धान्ते कर्पूरार्तिक्यं पुष्पाञ्जलिमपि दद्यात्। कथासमाप्तौ प्रतिदिवसे
कीर्तनं कृत्वा ततश्चोत्थाय 'जय जगदीश हरे
इति पद्येन आर्तिक्यं कुर्यात् । ततः श्रोतॄणां चरणामृततुलसी- दलादिकं वितरेत्, ततः
सन्ध्यादिकं कर्म समाप्य हविष्यान्नं भुक्त्वा यथासुखमेकान्ते शयीत ।।
एवं
सप्ताहयज्ञेऽस्मिन् समाप्ते श्रोतृभिः सह ।
पुस्तकस्य
च वक्तुश्च पूजा कार्याऽतिभक्तितः ।
ततः
सप्ताहश्रवणान्ते श्रीगणपत्यादीन् सम्पूज्य संकल्पं कुर्यात् । ॐ अद्येत्यादि० – मम
सप्ताहयज्ञाङ्गहोमकर्मणि पञ्चवारुण्यादिहोमपूर्वकं प्रधान- भूतश्रीविष्णुदेवतायै
चरुपायसाज्येन दशमस्कन्धश्लोकमन्त्रैस्तदशक्तौ वेदस्तुत्या गोपिकागीतेन वा तथा
श्रीविष्णोर्वैदिकमन्त्रेण तान्त्रिकमन्त्रेण वा गायत्र्या चायुतं
सहस्त्रमष्टोत्तरशतं वा इदमाज्यादिहवनीयद्रव्यहोमं यथासंख्येनाहं करिष्ये । इति
संकल्प्य पूर्वोक्तहोमप्रकारेण सर्वं विधेयम्। प्रधानदेवस्य होमे किञ्चिद्विशेषः ।
दशमस्कन्धमन्त्रः ३९३६ स्वाहान्तैः प्रणवाद्यैर्जुहुयात्। अशक्तौ वेदस्तुत्या
गोपीगीतेन वा अथवा गायत्र्यायुतम्। द्वादशाक्षरेण विष्णोरराटमिति मन्त्रेण वा १००८
। १०८ गायत्र्या १००८ । १०८ हुत्वाग्निं सम्पूज्य भूराज्यादि नवाहुतय इत्यादि
सर्वं कृत्यं सम्पाद्य शय्यादानगोदानादिकं शुकरूपिणे वाचकाय दद्यात् ततो
गर्गरूपिणे उपवाचकाय वस्त्राभूषणदक्षिणादिभिः सम्पूज्यान्यान्यऋत्विग्भ्योऽपि
यथायोग्यदक्षिणासम्मानादिभिः सन्तोष्य प्रणमेत् । अत्र होमाशक्तौ विरक्तश्चेद्वा
गीतापाठं श्रुत्वा यथाशक्ति होमद्रव्यं दक्षिणाञ्च संकल्प्य सहैव ब्राह्मणाय
प्रतिपादयेत् ।
श्रोता
के लिये नियम –
भागवत श्रवण का फल चाहने वाले श्रोता को (सात दिन तक) उपवास करना चाहिये। यदि उपवास नहीं कर सके तो एक बार थोड़ा हविष्यान्न लेना चाहिये। जल से, फल से, दूध से, घृत से, किसी एक की सहायता से शरीर धारण करना चाहिये।
कथा का व्रत करने वाले को प्रतिदिन ब्रह्मचर्य रहना, जमीन पर सोना, पत्तल में खाना, कथा समाप्ति पर खाने का नियम बनाना चाहिए।
कथा श्रवण में काम, क्रोध, मद, लोभ, दम्भ, मात्सर्य, मोह के हिंसा निन्दा-सभी का त्याग करना चाहिए। सत्य व्यवहार, शुद्ध रहना, दया, मौन, सरलता, नम्रता, मन की प्रसन्नता रखनी चाहिए। यही नियम वक्ता को भी पालन करना चाहिये।
शास्त्र में कहे गये नियम का पालन करते हुए श्रोता सात दिनों तक श्रीमद्भागवत सुने, प्रतिदिन संक्षेप से गणेश आदि देवताओं का पूजन करे। विष्णु की पूजा एवं पुस्तक पूजा भी दैनिक करे। प्रत्येक स्कन्ध की समाप्ति पर जय जगदीश हरे आदि गाकर कपूर से आरती करे। कथा-समाप्ति के बाद प्रतिदिन कीर्तन आरती करे। श्रोताओं में तुलसी चरणोदक का वितरण करे और सन्ध्यादि से निवृत्त होकर हविष्यान्न कर शयन करे। इस प्रकार सप्ताह सम्पन्न होने पर श्रोताओं और वक्ता की भी पूजा करे। फिर श्रवण के अन्त में गणपत्यादि की पूजा कर संकल्प करे-
ॐ अद्येत्यादि० – मम सप्ताहयज्ञाङ्गहोमकर्मणि पञ्चवारुण्यादिहोमपूर्वकं प्रधान- भूतश्रीविष्णुदेवतायै चरुपायसाज्येन दशमस्कन्धश्लोकमन्त्रैस्तदशक्तौ वेदस्तुत्या गोपिकागीतेन वा तथा श्रीविष्णोर्वैदिकमन्त्रेण तान्त्रिकमन्त्रेण वा गायत्र्या चायुतं सहस्त्रमष्टोत्तरशतं वा इदमाज्यादिहवनीयद्रव्यहोमं यथासंख्येनाहं करिष्ये । पढ़कर संकल्प छोड़े।
इतना संकल्प कर पूर्वोक्त प्रकार
से हवन करे। अथवा अग्निस्थापना पद्धति में हवन करे। प्रधान देवता के होम में विशेष
यह है कि दशम स्कन्ध के ३९३६ आहुति स्वाहान्त मन्त्र से हवन करे अथवा वेदस्तुति से
अथवा गोपीगीत से अथवा एक हजार गायत्री मंत्र से आहुति दे । द्वादशाक्षर मन्त्र से
या विष्णोरराटमसि से १००८ / १०८ गायत्री से १००८/ १०८ हवन कर अग्नि को पूजा कर घी
के नव आहुति देकर सभी कृत्य पूरा होने पर वक्ता को शय्या दान गोदान सुवर्ण दान करे। शुकरूप वाचक को वस्त्र, आभूषण, दक्षिणा
आदि दे। गर्गरूप उपवाचक को एवं अन्य ऋत्विजों को भी यथायोग्य दक्षिणा, वस्त्र
देकर सन्तुष्ट करे। होम करने में असक्त हो या विरक्त श्रोता हो तो गीता का पाठ
करें एवं होम द्रव्य और दक्षिणा दान करें।
श्रीमद्भागवतदानम्–
काठ
के दो पटरी से पुस्तक को सुरक्षित कर बाहर से रेशमी वस्त्र या रंगे पीले वस्त्र से
वेष्टित कर डोरी से बाँध कर रिहल या चौकी पर रखकर गणेश, सरस्वती के पूजनपूर्वक तीन पल या
यथाशक्ति सुवर्ण के सिंहासन पर पुस्तक रखकर अधोलिखित संकल्प पढ़कर शुकरूपी वाचक को
प्रदान करे।
तत्र
संकल्पः ॐ तत्सत् ३ ॐ विष्णुः ३ ॥३० अद्येत्यादि० मम इह जन्मनि जन्मान्तरे वा
उपार्जितकायिक वाचिक-मानसिक- शुष्कार्द्र-लघुगुर्वादीनां सकलपापानां
समूलोन्मूल-पूर्वकं श्रीपरमेश्वरलक्ष्मी- नारायणप्रसादनद्वारा
श्रीमन्नारायणचरणोपासनादिभक्तिफलावाप्तये तथा चास्मत्कुल-
जातैर्भूतपूर्वैरेकविंशतिकुलैः सह पुस्तकपत्रपङ्क्त्यक्षरवस्त्रसूत्रतन्तुसंख्याकदिव्या-
ब्दसहस्रपर्यन्तं विषयभोगं कर्तुमन्ते वैकुण्ठवसतिप्राप्तये इदं
श्रीमद्भागवतमहाग्रन्थं सांगं सोपस्करं सवस्त्रं सदक्षिणं श्रीकृष्णप्रियसरस्वतीदेवताकममुक-गोत्रायामुकणे
ब्राह्मणाय शुकरूपिणे वाचकाय दातुमहमुत्सृजे तत्सत्र मम ।
प्रार्थना
–
ॐ
सर्वविद्याश्रयं ज्ञानं कारणं ललिताक्षरम्।
पुस्तकं
सम्प्रयच्छामि प्रीता भवतु भारती ।।
सरस्वति
जगन्मातः शब्दब्रह्माधिदेवते।
अस्य
प्रदानात्त्वं हरेः पदाप्तिः सत्पुस्तकस्यात्र नमोस्तु तुभ्यम् ।।
इस
प्रकार प्रार्थना कर ब्राह्मणों से समंत्रक आशीर्वाद लेकर वाचक से श्रद्धा पूर्वक
भागवत का प्रसाद ले ले। ब्राह्मणों, दीन, अनाथ आदि को श्रद्धा पूर्वक भोजन कराकर
स्वयं भी बन्धु वर्ग के साथ प्रसाद ग्रहण करे। फिर ग्रन्थ को हाथी घोड़ा रथ आदि पर
चढ़ा कर बाजा, कीर्तन
के साथ अथवा नगर यात्रा, परिक्रमा कर वाचक के घर ऊंचे आसन पर रखकर पुष्पाञ्जलि छोड़े। ग्रन्थ को
प्रणाम करे। फिर शुभ समय में मण्डप का विसर्जन करे।
इति
सप्ताहयज्ञविधिः ।
पारिभाषिक शब्दों का अर्थ-
हविष्यान्न
भोजन – यज्ञादि के लिए विहित सात्विक अन्न को
हविष्यन्न कहा जाता है। जैसे-
जौ, तिल, मसूर के सिवा अन्य दालें, अरवा चावल इस श्रेणी में आता है।
चन्द्र तथा तारा आदि बल - शुक्लपक्ष में जन्म राशि से चंद्रमा का गोचर 1, 2, 3, 5, 6, 7, 9, 10 और ग्यारहवें स्थान में शुभ होता है। यदि चंद्रमा इस भाव में गोचर में है तो जातक को सभी प्रकार के लाभ और विजय दिलाने वाला होता है। चन्द्रमा यदि गुरु ग्रह द्वारा दृष्ट है तो बलशाली हो जाता तथा शुभ फल देता है। तारा बल का संबंध नक्षत्र से है। ताराषष्टि समन्विता अर्थात् तारा का 60 गुना बल होता है। मुहूर्तचिंतामणि के अनुसार, कृष्ण पक्ष में तारा के बलवान होने पर चंद्रमा भी शुभ होता है और तारा इष्ट नहीं होने पर चंद्रमा भी इष्ट नहीं होता है।
सर्वतोभद्र -
अग्न्युत्तारण -
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