छन्दःशास्त्र परिचय

जिस शास्त्र में छन्द रचना के नियम, नाम, लक्षण, भेद आदि का विवेचन किया जाता है उसे छन्दशास्त्र कहते हैं। इसके प्रमुख एवं प्रतिष्ठापक आचार्य पिङ्गल हैं अतः इसे पिङ्गलशास्त्र भी कहा जाता है। भावों का एकत्र संवहन, प्रकाशन तथा प्रह्लादन छंद का लक्षण हैं। इस दृष्टि से रुचिकर और श्रुतिप्रिय लययुक्त वाणी ही छंद कही जाती है।

शतपथब्राह्मण में 'रसो वै छन्दांसि' कह कर छन्द की रागात्मिका अनुभूति और अभिव्यक्ति की ओर संकेत किया  गया है ।

छन्दशास्त्र के प्रमुख आचार्य-

छन्दशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव माने जाते हैं। पिंगल कृत छन्दः सूत्र के भाष्य यादव प्रकाश में इस छन्दशास्त्र का ज्ञान शिव से बृहस्पति को, बृहस्पति से दुश्च्यवन को, दुश्च्यवन से इन्द्र को, इन्द्र से माण्डव्य को, माण्डव्य से पिंगल को प्राप्त हुआ। पाणिनि शिक्षा की 'शिक्षाप्रकाश' नामक टीका के अनुसार 'छन्दशास्त्र' का रचयिता पिंगल,  पाणिनि का अनुज थे। इनके परवर्ती आचार्यों में कालिदास की श्रुतबोध, क्षेमेन्द्र की सुवृत्ततिलक, केदारभट्ट की वृत्तरत्नाकर और गङ्गादास की छन्दोमञ्जरी प्रमुख है। आचार्य परम्परा के सम्बन्ध में यह श्लोक स्मरणीय है-

छन्दोज्ञानमिदं भवाद् भगवतो लेभे सुराणां गुरुः

तस्माद् दुश्च्यवनस्ततो सुरगुरुर्माण्डव्यनामा ततः ।

माण्डव्यादपि सैतवस्तत ऋषिर्यास्कस्ततः पिङ्गलः

तस्येदं यशसा गुरोर्भुवि धृतं प्राप्यास्मदाद्यैः क्रमात् ॥

पाणनिशिक्षा की 'शिक्षाप्रकाश' नामक टीका के अनुसार 'छन्दःशास्त्र' का रचयिता पिंगल, वैयाकरण पाणिनि का अनुज था। पिंगल के छन्दःशास्त्र में अग्रेलिखित पूर्वाचार्यों का उल्लेख है- अग्निवेश्य, अंगिरस, काश्यप, कौशिक, कौष्टुकि, गौतम, तण्डिन, भार्गव, माण्डव्य, यास्क, रात, वशिष्ठ, सैतव। छन्दशास्त्र के प्राचीन आचार्य 'पिङ्गल' का 'छन्दसूत्र' रचना है। इनका समय ई.पू. पाँचवी शताब्दी माना जाता है। इन्हें समुद्र तट पर मगर ने मार डाला । पिङ्गल मुनि को पिङ्गलनाग तथा पिङ्गलाचार्य भी कहा जाता हैं।

छन्दः शास्त्र का महत्व

छन्दयति पृणाति रोचते इति छन्दः ।

जिस वाणी को सुनते ही मन आह्लादित हो जाता है, वह वाणी ही छन्द है।

छन्दः पादौ तु वेदस्य । हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते ।

छन्द को वेद का पाद (चरण) कहा गया है।

वेदाङ्गों में इसका प्रमुख स्थान है।

छन्द का लक्षण

अक्षर परिमाण को छन्द कहते हैं। छन्दशास्त्र में वर्ण, मात्रा, यति, गति, क्रम के विशेष नियमों से बनी हुई पदबन्ध रचना को छन्द कहते हैं। अग्निपुराण में चार चरण वाली रचना को पद्य कहा है।

छन्द का प्रकार या भेद

छन्द पद्यगद्यगेयभेद से तीन प्रकार का हैअतः छन्दःशास्त्र पद्यकाण्डगद्यकाण्डगेयकाण्ड भेद से त्रिकाण्डात्मक है । यद्यपि बहुत से विद्वान् गद्यसमूह में छन्दोव्यवस्था नहीं मानते हैं क्योंकि उनमें कोई छन्द की मर्यादा नहीं है तथापि उनमें किसी छन्द का न होना को ही छन्द मानकर छन्दो व्यवहार माना जाता है।

अग्निपुराण में पद्य के दो भेद किये हैंवृत्त और जाति ।

गङ्गादास ने भी वृत्त और जाति भेद को स्वीकार किया है।

वृत्तरत्नाकर में छन्द के दो भेद हैंवैदिक और लौकिक। पुनः लौकिक छन्द के दो भेदवार्णिक और मात्रिक किया गया है। इनमें वार्णिक को वृत्त एवं मात्रिक को जाति कहा है।  नियत वर्ण व्यवस्था से निष्पन्न छन्द वृत्त कहलाता है तथा नियत मात्रा व्यवस्था से निष्पन्न छन्द जाति कहलाता है। 

नारायण के अनुसार-

'पद्यं चतुष्पदी तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा । 

वृत्तमक्षरसंख्यातं जातिर्मात्राकृता भवेत् ।।

 हलायुध के अनुसार-

 पद्यं चतुष्पदं तच्च वृत्तं जातिरिति द्विधा । 

एकदेशस्थिता जातिवृत्तं लघुगुरुव्यवस्थितम् ॥

अर्थात् वृत्त में लघुगुरुव्यवस्था होती है तथा जाति में मात्राव्यवस्था ।

छन्दःशास्त्र में वृत्त के तीन भेद बताये हैंसमअर्धसम एवं विषम। 

आर्या छन्द मात्रावृत्त है।

सम, अर्धसम एवं विषम वृत्त

समवृत- जिस छन्द में चारों चरणों के लक्षण समान हों वह समवृत्त कहलाता है। इसे सर्वसम भी कहा जाता है।

अर्धसमवृत्त - जिस छन्द के प्रथम और तृतीय चरण तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में समान अक्षर हों, वह अर्धसमवृत्त कहलाता है।

विषम / सर्वविषम वृत्त जिस छन्द के चारों चरणों के लक्षण विभिन्न हों, वह विषमवृत्त कहलाता है । इनकी गणना लघुगुरु वर्णों के आधार पर होती है।

पाद या चरण-

पाद का अर्थ एक भाग या हिस्सा होता है। इसे ही पद या चरण कहते हैं। छन्दों में प्रायः चार या छः पाद होते हैं। प्रत्येक पाद में मात्राओं की संख्या और उनका क्रम नियत होता है।

चरणों के भेद - सम या युग्म, विषम या अयुग्म ये दो चरणों के भेद हैं।

प्रथम, तृतीय एवं पञ्चम चरण 'विषम' कहे जाते हैं । द्वितीय, चतुर्थ एवं षष्ठ चरणों को 'सम' कहते हैं।

लघु तथा गुरु के आधार पर वर्णों की गणना होती है। वर्णों की गणना करने पर ही हम जान पाते हैं कि कौन सा पद्य या श्लोक किस छन्द में है। वर्णों की गणना करने के लिए आपको वर्णों तथा मात्राओं की जानकारी आवश्यक है। उसके आधार पर आप पद्य या श्लोक में वर्णों / मात्राओं की गणना कर सकेंगें।

वर्ण या अक्षर

            'त्रिषष्टिः चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः।

            प्राकृते संस्कृते वापि स्वयं प्रोक्ताः स्वयंभुवा ।।

            त्रयोविंशतिरुच्यन्ते स्वराः शब्दार्थचिन्तकैः ।

            द्विचत्वारिंशद् व्यञ्जनान्येतावान् वर्णसंग्रहः ।।'

, , , ऋ स्वर वर्णों के ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत भेद होते है। लृ का ह्रस्व तथा प्लुत भेद होता है। ए, , , , अं, अ: मिश्रित स्वर हैं । ये दो ह्रस्व वर्ण के मिश्रण से बनते हैं। जैसे- अ और इ के मिश्रण से ए, आ और ई के मिश्रण से ऐ. अ और उ के मिश्रण से ओ तथा आ और ऊ के मिश्रण से औ बनता है। अतः इसका ह्रस्व नहीं होकर केवल दीर्घ और प्लुत ही होता है । ञ, , , , म आदि व्यंजन वर्ण जब अनुस्वार में बदल जाते हैं तब यह दीर्घ हो जाता है। क् + ष से 'क्ष' त् + र से 'त्र' और ज्+ ञ से 'ज्ञ' भी बना है। स्वरों की संख्या 21 है। स्वर सहित व्यंजन मिलाकर ६३ अक्षर होते हैं। इन्हीं में एक अर्धचन्द्र शामिल करने से 64 वर्ण हो जाते हैं। 

उक्त के अनुसार स्वर व व्यञ्जन दोनों वर्ण हैं। वर्ण व अक्षर समानार्थक हैं।

स्वर के ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत ये तीन भेद होते हैं। 

छन्दोवेद में अक्षर वर्ण से भिन्न है। 'वागित्येकमक्षरम्, अक्षरमिति व्यक्षरम्‘-ऐतरेय ब्राह्मण

छन्दःशास्त्र की जानकारी के लिए वर्णों की मात्रा का ज्ञान अति आवश्यक है। स्वर वर्णों में ह्रस्व वर्ण को मात्रा कहते हैं। छन्द में स्वर वर्ण की ही गणना की जाती है। व्यञ्जनों की आधी मात्रा होती है परन्तु इसकी मात्रा नहीं गिनी जाती।मात्रा को मत्ता, मत्त, कला और कल भी कहते हैं। आइये अब मात्रा को समझते हैं-

मात्रा

किसी अक्षर के उच्चारण में व्यतीत होने वाले समय से उस अक्षर की मात्रा का बोध होता है। ह्रस्व स्वर के उच्चारण में एक मात्रा का समय लगता है। इसे ह्रस्व स्वर को लघु कहा जाता है। दीर्घ मात्रा वाले अक्षर के उच्चारण में लघु मात्रा के अक्षर से दुगुना समय लगता है। व्यञ्जन की अर्धमात्रा होती है। इस प्रकार लघु (ह्रस्व) स्वर की एक मात्रा है। दीर्घ या संयुक्त स्वरों की दो मात्राएँ होती हैं।

संयोगादि, सानुस्वार तथा सविसर्ग स्वर गुरु होता है। यद्यपि संयुक्त व्यञ्जन से पूर्व का अक्षर गुरु माना जाता है किन्तु रेफ संयुक्त व्यञ्जन वाले ह्र, प्र, ध्र, ग्र आदि से पूर्व के ह्रस्व अक्षर का यदि एकमात्रा से उच्चारण किया जाता है तो वह गुरु नहीं होता और दो मात्रा से उच्चारण किया जाता है तो गुरु होता है । यह व्यवस्था छन्द के अनुरोध से है।

उदाहरणवक्त्र में व् + अ + क् + त् + र् + अ है। इसमें चार व्यञ्जन एवं दो स्वर है, यहाँ इसकी दो ही मात्रा है,क्योंकि छन्द में व्यञ्जन की मात्रा नहीं गिनी जाती। इसी प्रकार ज्ञान में ज् + ञ् + आ + न + अ है। इसमें तीन मात्राएँ हैं। राजा में र् + आ + ज् + आ की चार मात्राएँ हैं। ज्ञान तथा राजा में आ दीर्घ स्वर वर्ण है। इसमें केवल स्वर वर्ण ही गिना जायेगा। इस प्रकार आप जान चुके होंगे कि किसी पद के वर्णों की गणना करते समय उसके स्वर वर्ण की ही गणना की जाएगी तथा उसमें यह देखना है कि वह स्वर ह्रस्व है या दीर्घ। ह्रस्व तथा दीर्घ के आधार पर आप मात्राओं का निर्धारण कर सकेंगे।

संख्या- मात्राओं और वर्णों की गणना को संख्या कहते हैं। इनका मूल आधार ह्रस्व एवं दीर्घ तथा प्लुत वर्ण होते हैं। ह्रस्व वर्णों को लघु तथा दीर्घ वर्णों को गुरु कहते हैं।

किस छन्द में कितनी मात्राएं हों या कितने वर्ण हों यह उनकी संख्या है। जैसे- अनुष्टुप् छन्द के एक चरण में 8 वर्ण तथा चारों चरण मिलाकर 32 वर्ण होते हैं। इसी संख्या के आधार पर आप आगे अलग-अलग छन्दों के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे।

क्रम- लघु गुरु के स्थान सम्बन्धी नियम को क्रम कहते हैं । अर्थात् कहाँ पर लघु हो और कहाँ पर गुरु हो इस नियम को क्रम कहते हैं।

लघु-गुरु विचार- छन्द शास्त्र में S से गुरु का तथा I से लघु का ज्ञान होता है। कहाँ गुरु होगा कहाँ लघु उसके लिए छन्दशास्त्र में नियम हैं।

त्रिक या गण-

तीन अक्षरों के संयोग को त्रिक या गण कहते हैं। इन गणों से वर्णों की संख्या एवं क्रम का ज्ञान हो जाता है । छन्द के चरणों में लघु गुरु वर्णों का स्थान और परिमाण नियत होता है। छन्दों में वर्णों की संख्या एवं क्रम का की जानकारी के लिए यमाताराजभानसलगाः' इस सूत्र का उपयोग किया जाता  है। इसके य से लेकर ता तक का एक त्रिक या गण बनता है। पुनः मा से लेकर रा तक का एक त्रिक या गण बनता है। इसमें ह्रस्व (लघु) तथा दीर्घ (गुरु) वर्ण के लिए प्रयुक्त होने वाले चिह्न को इस दिखाया जा रहा है।

                          I S S  S I S  I I I  I S

                        यमाताराजभानसलगाः'

इस सूत्र के आधार पर आठ त्रिकों (गणों) का ज्ञान होता है। इस सूत्र में कुल दस अक्षर हैं। इस सूत्र को 'पिंगल दशाक्षर' भी कहते हैं।

इन आठ त्रिकों (गणों) के अलग-अलग नाम हैं । सूत्र के अन्त में आये ल से लघु, ग से गुरु का बोध होता है।

इन आठ त्रिकों (गणों) के अलग-अलग नाम हैं । सूत्र के अन्त में आये ल से लघु, ग से गुरु का बोध होता है।

 ‘यमाताराजभानसलगाः' से बनने वाले अधोलिखित त्रिकों को भली भांति देखकर समझ लें। छन्द के लक्षण में इन्हीं त्रिकों को नाम आयेंगें। इसके आधार पर पद्यों/ श्लोकों में त्रिकों की गणना होगी।

क्रम

त्रिक नाम

 चिह्न

वर्ण रूप

1

यगण

। ऽ ऽ

यमाता

आदिलघु

2

मगण

ऽ ऽ ऽ

मातारा

सर्वगुरु

3

तगण

ऽ ऽ ।

ताराज

अन्त्यलघु

4

रगण

ऽ । ऽ

राजभा

मध्यलघु

5

जगण

। ऽ ।

जभान

मध्यगुरु

6

भगन

ऽ । ।

भानस

आदिगुरु

7

नगण

। । ।

नसल

सर्वलघु

8

सगण

। । ऽ

सलगाः

अन्त्यगुरु


यति- 

बड़े-बड़े छन्दो में जहाँ एक चरण में इतने अधिक अक्षर हो कि उनका एक सांस में उच्चारण करना कठिन हो उनकी लय को ठीक करने के लिए एक-एक चरण में एक से अधिक यति होती है। इसे ही विच्छेद, विभजनविश्रामविराम अथवा अवसान कहते हैं। पद्य को पढ़ते समय जहाँ पर जिह्वा को विश्राम दिया जाता हैउस स्थान को यति कहते हैं। श्लोक के चरण के अन्त में यति होना आवश्यक है। छन्द के लक्षण में वर्णों की संख्या, उसके क्रम के साथ यति का भी निर्देश प्राप्त होता है। जैसे- विद्युन्माला छन्द में 4-4 वर्ण पर यति का नियम है। आवश्यकतानुसार यति न लगाने पर यतिभङ्ग दोष होता है।

श्लोकों / पद्यों के गायन के नियम

गति - छन्दशास्त्र में लय या पाठ प्रवाह को गति कहते हैं। मात्राओं एवं वर्णों की संख्या पूरी होने पर भी गति या लय के अभाव में छन्द नहीं बनता। किसी श्लोक की गति का अभ्यास अपने गुरु से अथवा किसी मान्य वेबसाइट / गायक से सीखा जा सकता है। यह आपके अभ्यास पर निर्भर है। इस प्रकार किसी पद्य या श्लोक के सही उच्चारण के लिए छन्दःशास्त्र के नियम के अनुसार यति लेना चाहिए तथा किसी गुरु से इसके गति या प्रवाह एवं नाद को सुनकर उच्चारण करना चाहिए। याद रखें श्लोकों को पढ़ा नहीं वल्कि गाया जाता है। हर श्लोक का अलग- अलग लय होता है। प्रत्येक छन्द का अपना रस होता है। रस तथा भाव का सम्मिश्रण करते हुए निर्धारित यति तथा गति के साथ श्लोक का गायन करना सीखें। 

तुक- चरण के अन्त में स्वर सहित वर्णों की आवृति को तुक कहते हैं। तुक के प्रयोग से काव्य कर्णप्रिय एवं कमनीय हो जाता है। उत्तम तुक में पाँच मात्राएं, मध्यम तुक में चार मात्राएं एवं अधम तुक में तीन मात्राएं होती हैं। दो मात्राओं का तुक त्याज्य मानते हैं। तुक के बारे में यथा स्थान विस्तार से चर्चा होगी।

संख्या के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द

एक -           चन्द्र            दो-             नेत्र

तीन-           काल            चार-           वेद

पाँच-           तत्व            छः-             ऋतु

सात-           ऋषि           आठ-           वसु

नव-            ग्रह            दस –            दिशा

ग्यारह –      रूद्र           बारह-            मास

प्रमुख छन्दों से परिचय

क्रम

छन्द का नाम

लक्षण

संख्या यति

1

अनुष्टुप्/वक्त्र

श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।

द्विचतुष्पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।

 32

विषमवृत्त

2

विद्युन्माला

मो मो गो गो विद्युन्माला।

8 यति 4,4 पर

3

इन्द्रवज्रा

स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः।

11 समवृत्त

4

उपेन्द्रवज्रा

(उपजातिः)

उपेन्द्रवज्रा  प्रथमे लघौ सा।।

अनन्तरोदीरित लक्ष्मभाजौ,

पादौ यदीया-वुपजातयस्ताः।

11

समवृत्त

5

शालिनी

शालिन्युक्ता म्तौ तगौ गोऽब्धिलोकैः।

11 यति 4,7

6

रथोद्धता

रान्नराविह रथोद्धता लगौ।

11 पादे यति

7

वंशस्थ

जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ।

12 पादे यति     


अनुष्टुप्  

श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।

द्विचतुष्पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।

विद्युन्माला

मो मो गो गो विद्युन्माला।

इन्द्रवज्रा

स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः।

उदाहरण-

त                   

कान्तप्रतीक्षानिरताद्य कान्ता

कान्तं स्वकीयं सहसा विलोक्य।

आलिङ्गितुं याति मुदा नवोढा

सोपानमार्गैर्निजकामतृप्त्यै ।।

डॉ.शशिकान्त तिवारी शशिधर कृत


कक्षे न कान्तो न च काननेऽसौ

हा पूर्णिमायां कमलेक्षणा सा।

यावन्न दृष्ट्वा कुपिताप्रसन्ना

किंकार्यमूढा रजनीं दुनोति।।१।।

चन्द्रोऽद्य कस्मात् सुतरां प्रदीप्तो

जानाति किं नो दयितो न पार्श्वे।

प्रासादशीर्षे सहसेन्दुरश्मिर्-

धत्ते प्रकाशं ननु लोचनाभ्याम्।।२।।

कान्तस्य कान्तानयने सुयुक्ते

सोपानमारुह्य कथं प्रियस्य।

पार्श्वं द्रुतं गच्छति सा तदेन्दुः

कान्तेन तां तिष्ठति दर्शनेच्छुः।।३।।

श्वश्रूस्स्वकक्षे ह्यधुनापि शेते

कान्तस्स पूर्वं ह्यवतिष्ठते चेत्।

सङ्केतितस्थानमसौ सुयोगं

लब्ध्वा द्रुतं याति रमा प्रियाय।।४।।

एवं करोतु श्वशुरो वधू त्वं

श्वश्रूस्तु मैवं कुरुते वधूः किम्।

श्वश्रूर्न नैव श्वशुरस्तु वध्वै

लब्ध्वावकाशं त्वरयाथ कान्ता।।५।।

कान्तं चिरं सुस्थितमेव सद्यस्-

तस्मै प्रगन्तुं चलिता प्रसन्ना।

कार्यं किमेवं पितरौ तु भर्तुर्-

ज्ञात्वापि मत्तौ निजलाभसिद्ध्यै ।।६।।((युग्मकम्))।।

जब दो पद्यों की एक क्रिया होती है अर्थात् जब दो पद्य परस्पर साकांक्ष होते हैं तब युग्मक होता है।

कान्ता सकामा युवतिः प्रगल्भा

रात्रौ न चैवं प्रनिरीक्ष्य चन्द्रम्।

कान्ताय शीघ्रं कथिते स्थले चेद्-

याति क्व कान्ताग्रहणे सचेष्टः।।७।।

तोषस्स्वनाम्नि क्व धरे न कान्ता

ज्ञात्वा मनो मे रजनीं ह्यवाप्य।

शीघ्रं न चायाति सखे वदेत् क्व

काव्येन नाम्ना मनतोष एवम्।।८।।

---समाप्तम्---

----महाचार्य्यः मनतोषः भट्टाचार्यः।।


अनंगरंगोत्सवकामनायामुत्फुल्लपद्मश्रियमाहरन्ती।

उन्मुक्तभावोत्थतरंगमालालीलालवंगीव विभाति काचित्।।

डॉ. निरंजन मिश्र कृत

उपेन्द्रवज्रा

उपेन्द्रवज्रा  प्रथमे लघौ सा।

उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ

उदाहरण-

प्रियप्रतीक्षातुरतापतप्ता

ससम्भ्रमे प्रार्थितसङ्गमार्थं ।

अनङ्गरागोन्मदविह्वला सा

प्रयाति सोपानपथे ललामा ।।


इयं लवङ्गी मदनालसापि

प्रियाङ्कगाढोल्लसिताननेति।

चिरप्रतीक्षाशमनोत्सुका सा

प्रकामकान्ता त्वरया प्रयाति ।

डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय कृत

अलं महीपाल तव श्रमेण

प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात्।

न पादपोन्मूलनशक्तिरंहः

शिलोच्चये मूर्च्छति मारुतस्य ।।


11 अक्षराणि, 17 मात्राः

इन्द्रवज्रा में दो तगण एक जगण तथा गुरु गुरु होता है। उपेन्द्रवज्रा छन्द में पहले तगण के स्थान पर जगण होता है शेष सभी समान रहते हैं । अर्थात् उपेन्द्रवज्रा छन्द में जगण, तगण, जगण,  गुरु गुरु होता है। ( उपेन्द्रवज्रा प्रथमे लघु सा )

अन्य उदाहरण-

इयं नवोढा पतिमाह्वयन्ती

सोपानमार्गे त्वरितं चलन्ती।

अनङ्गरङ्गं नयते हसन्ती

वसन्तशोभामिह दर्शयन्ती।।

***अरविन्द:

(उपजातिः)

अनन्तरोदीरित लक्ष्मभाजौ, पादौ यदीयावुपजातयस्ताः।

शालिनी

शालिन्युक्ता म्तौ तगौ गोऽब्धिलोकैः।

उदाहरणम् -

माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः

स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः।

सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालुः

नान्यं‌ जाने नैव जाने न जाने॥

रथोद्धता

रान्नराविह रथोद्धता लगौ।

वंशस्थ

जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ।

तोटकम्

इह तोटकमम्बुधिसैः प्रथितम् ॥ ३.४८ ॥

द्रुतविलम्बितम्

द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ ॥ ३.४९ ॥

उदाहरणम्-

न     भ     भ     र

सकलकाव्यकलाललितालता

मदनवातनिषेवितपल्लवा।

सरसचन्द्रनिमन्त्रितमानसा

सरति मान्मथमन्दिरमन्दरे।।


सरति कापि मुदा मृदुहासिनी

लसति कापि मनोभवमन्थरा।

वहति कापि रसोद्भवझङ्कृतिं

रमणरङ्गरसा रमणी कवे !

डॉ. निरंजन मिश्र कृत

भुजङ्गप्रयातम्

भुजङ्गप्रयातं भवेद्यैश्चतुभिः ॥ ३.५५ ॥

स्रग्विणी

रैश्चतुर्भिर्युता स्रग्विणी सम्मता ॥ ३.५६ ॥

उदाहरणम्- 

र     र     र     र

नास्ति वित्तेषणा नैव लोकेषणा,

कुत्र पुत्रेषणा दृश्यते कथ्यताम्।

देहभावं त्यजन्ती विमुक्ता मुदा,

याति नाकं प्रतीयं नवोढा रमा॥


कामशीला नितम्बं समालोक्य या,

योगयुक्ता सदाभ्यासशीला मुदा।

कामभावं परित्यज्य सर्वात्मना,

याति नाकं प्रतीयं नवोढा रमा ॥

डॉ. श्रेयांश द्विवेदी कृत

12 अक्षराणि, 20 मात्राः

पञ्चचामरम्

जरौ जरौ जगाविदं वदन्ति पञ्चचामरम्। केदारभट्टकृत- वृत्तरत्नाकर:३. ८९

।ऽ। ऽ।ऽ ।ऽ। ऽ।ऽ ।ऽ। ऽ

ज   र  ज   र  ज  ग

यति: द्वाभ्यां द्वाभ्यां ।

उदाहरणम् -

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले

गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयम्

चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥

प्रहर्षिणी

म्नौ ज्रौ गस्त्रिदशयतिः प्रहर्षिणीयम् ॥ ३.७० ॥

पृथ्वी

जसौ जसयला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरुः ॥ ३.९४ ॥

हरिणी

रसयुगहयैर्न्सौ म्रौ स्लौ गौ यदा हरिणी तदा ॥ ३.९६ ॥

वसन्ततिलका

उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ॥ ३.७९ ॥

उदाहरणम्-

त     भ     ज    ज    ग     ग

उन्नम्य सुन्दरमुखं परिहृष्यमाणा।

चण्डांशुकं स्खलनभीतिधिया वहन्ती।

सोपानपङ्क्तिमनुलङ्घ्य पदं धरन्ती।

आच्छादिता विरलपाटलपुष्पवृष्ट्या ।।


दिव्यै: सुम:सुरभिकर्षितमानसेयं

देवाङ्गनाऽशुगमनाय ससम्भ्रमेण।

देवाधिराजमहिषी ननु कापि देवी

किंस्वित् प्रयाति वद मित्र वराङ्गनेयम्।।

डॉ. नव लता कृत

मालिनी

ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः ॥ ३.८७ ॥

शिखरिणी

रसै रुद्रैश्छिन्ना यमनसभला गः शिखरिणी ॥ ३.९३ ॥

मन्दाक्रान्ता

मन्दाक्रान्ता जलधिषडगैर्म्भौनतौ ताद्गुरु चेत् ॥ ३.९७ ॥

शार्दूलविक्रीडितम्

सूर्याश्वैर्मसजस्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् ॥ ३.१०१ ॥

उदाहरण-

कान्त क्वासि प्रिये विलोकय वच: श्रुत्वा प्रबुद्धास्मि भो:

प्रागन्तास्मि वितर्कितं झटिति रे! त्वं चन्द्रशालास्थित:।

या नि:श्रेणिपदा कृतोर्ध्ववदना धम्मिल्लपुष्पावृता

संरूढा चकितुं कलानिधिवरं गौरी चकोरी ध्रुवम् ।।

प्रणेता©प्रो.ताराशंकरशर्मा पाण्डेय:

स्रग्धरा

म्रभ्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम् ॥ ३.१०४ ॥

आर्या,

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