धातु दो तरह के होते हैं-
1. मूल धातु 2. सनाद्यन्त धातु।
धातुओं की संख्या लगभग दो हजार हैं, जिसमें से विभिन्न काव्य ग्रंथों एवं शास्त्रों में 800 धातुओं का ही प्रयोग हुआ है। यें धातुएं 10 गणों में विभाजित हैं। सकर्मक और अकर्मक, परस्मैपदी,आत्मनेपदी और उभयपदी के कारण धातुओं के स्वरूप में परिवर्तन देखा जाता है। धातु के पहले उपसर्ग लगाने से धातु के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। इन विषयों पर हम फिर कभी विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे।
धातुओं की संख्या लगभग दो हजार हैं, जिसमें से विभिन्न काव्य ग्रंथों एवं शास्त्रों में 800 धातुओं का ही प्रयोग हुआ है। यें धातुएं 10 गणों में विभाजित हैं। सकर्मक और अकर्मक, परस्मैपदी,आत्मनेपदी और उभयपदी के कारण धातुओं के स्वरूप में परिवर्तन देखा जाता है। धातु के पहले उपसर्ग लगाने से धातु के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। इन विषयों पर हम फिर कभी विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे।
स्तोत्र साहित्य या काव्य ग्रंथों के कुछ श्लोकों को याद कर
लेने से भी शब्दकोश में वृद्धि होती है तथा श्लोकों में व्याकरण के नियमों को
समझना आसान हो जाता है। रामरक्षास्तोत्रम्, आदित्यहृदयस्तोत्रम्,
श्रीमद्भगवद्गीता, नीतिशतकम्, हितोपदेश, पंचतंत्रम् जैसे ग्रंथ के कुछ श्लोक याद
कर लेना चाहिए। व्याकरण का अपने आप में कोई महत्व नहीं है, वल्कि यह संस्कृत के दूसरे विषयों को समझने के लिए है। कहा भी जाता है- काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्। कणाद का वैशेषिक दर्शन तथा पाणिनि का व्याकरण सभी शास्त्रों का उपकार करने वाला शास्त्र है। जो लोग भाषा विज्ञान में विशेष रूचि रखते हैं, वे इसका प्रगत अध्ययन करते हैं। व्याकरण का मूल काम है- शब्दों को बनाना तथा उसका अर्थ ज्ञान कराना । व्याकरण शब्द का अर्थ होता
है- व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शव्दाः अनेन इति
व्याकरणम् अर्थात् जिस शास्त्र के द्वारा शब्द विशेष रूप से उत्पन्न किए जाते
हैं, उस शास्त्र को व्याकरण कहते हैं।
व्याकरण को शब्द शास्त्र भी कही जाता है। यहाँ वर्णों के संक्षेपीकरण अथवा वर्ण लाघव को विशेष महत्व दिया गया है। कहा जाता है कि अर्धमात्रालाघवेनपुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः अर्थात् व्याकरण के जानकार को बोलने में आधी मात्रा भी कम बोलना पड़े तो पुत्रोत्सव मनाते हैं। इसी लिए यहाँ प्रत्याहारों तथा समास का विशेष महत्व है।पाणिनि ने माहेश्वर सूत्र से कुल 42 प्रत्याहारों का निर्माण कर अपने सूत्रों में प्रयोग किया। प्रत्याहारों का प्रयोग अन्य स्थानों पर भी हुआ है। जैसे- सुप्, तिङ्, तङ् आदि। आज अनेक भाषाओं में हम शब्दों को संक्षेप में बोलते हैं। माहेश्वर सूत्र के द्वारा वर्णों का उपदेश किया गया गया है। लघुसिद्धान्तकौमुदी तथा सिद्धान्तकौमुदी जैसे ग्रन्थ में सन्धि प्रकरण में वर्ण विचार, सुबन्त अवं तिङन्त में शब्द विचार, विभक्त्यर्थ या कारक में वाक्य विचार तथा महाभाष्यम्, वैयाकरणभूषण, वाक्यपदीयम् में शब्दार्थ विचार किया गया है। शब्द निर्माण प्रक्रिया की जानकारी हो जाने
के बाद जो लोग आगे पढ़ना चाहते हैं, वह सूत्रों की व्याख्या पर विशेष विचार करते
हैं। इसे परिष्कार कहा जाता है। भट्टोजि दीक्षित,नागेश भट्ट,पतंजलि आदि अपने
ग्रन्थ में सूत्रों के गुण दोष पर विचार किये हैं। वहाँ यह देखते हैं कि यदि सूत्र
के मूल स्वरुप में कुछ परिवर्तन कर दिया जाए तो उसके परिणाम में क्या अंतर आ सकता
है। संस्कृत का व्याकरण ध्वनि शास्त्र से भी संबंध है। जब भी हम संधि आदि में वर्ण
परिवर्तन करते हैं, वहां पर ध्वनि साम्य को विशेष महत्व दिया गया है। जैसे वर्ग
के चौथे अक्षर के स्थान पर वर्ग का तीसरा अक्षर होता है। अ एवं इ का जो उच्चारण
स्थान है वही उच्चारण स्थान ए का है अतः अ+इ = ए होता है। हम जिन वाक्यों का उच्चारण करते हैं,उसका वही
अर्थ सुनने वाले कैसे समझ पाते हैं, इस पर भी विस्तार पूर्वक यहां विचार किया गया
है। इसे व्याकरण का दर्शन कहा जाता है। महाभाष्य तथा वाक्यपदीयम् जैसे ग्रंथों में
ध्वनि शास्त्र पर भी विचार किया गया है। वैसे ध्वनि विज्ञान के लिए पाणिनि सहित अनेक आचार्यों ने शिक्षा ग्रन्थों की रचना की है। जो संस्कृत में लिखित तमाम ग्रंथों
को पढ़कर समझना चाहते हैं, ऐसे पाठकों के लिए शब्द निर्माण की प्रक्रिया को जानना आवश्यक हो जाता होता है।
संस्कृत व्याकरण का प्रारंभिक ग्रंथ लघुसिद्धान्तकौमुदी पुस्तक के प्रारंभ में 14 माहेश्वर
सूत्र दिए गए हैं। इसमें कुल 37 अक्षर
हैं। उन सूत्रों से कुल 42 प्रत्याहार बनाए गए हैं। व्याकरण पढ़ने से पहले इन वर्णों से परिचय तथा
प्रत्याहार का भरपूर अभ्यास करना चाहिए
। वर्णों के उच्चारण स्थान तथा प्रयत्नों
का ज्ञान भी आवश्यक होता है। संधि करते समय उच्चारण स्थान, आभ्यंतर एवं वाह्यप्रयत्न
में समानता देखने की आवश्यकता होती है। पाणिनि तथा अन्य व्याकरण के आचार्यों ने
अपने सूत्रों, वार्तिक तथा परिभाषाओं में प्रत्याहार,गण आदि का प्रयोग किया है।
यदि
हम संस्कृत व्याकरण के अध्ययन के पूर्व इन विषयों की सामान्य जानकारी कर लेते हैं
तो शब्द निर्माण प्रक्रिया अर्थात रूप सिद्धि को समझना आसान हो जाता है । सूत्र,
वार्तिक, गणसूत्र, उणादि सूत्र तथा कुछ परिभाषाओं को मिलाकर लघु सिद्धांत कौमुदी का निर्माण हुआ है ।
अन्य भाषाओं से संस्कृत
भाषा में 2 मौलिक भेद है। 1. यह कि यहां किसी वस्तु का लिंग न होकर शब्द का लिंग होता है।
2. यहां अकारादि क्रम का शब्दकोश उतना महत्व नहीं रखता, जितना कि वर्णों के अंत में अकारादि स्वर एवं ककारादि
हलन्त वर्णों का होता है। संस्कृत व्याकरण का ढांचा अंत वर्ण तथा लिंग के आधार पर
खड़ा है, जिससे यह तय होता है कि इन अंत वर्ण वाले शब्द के रूप में परिवर्तन कैसे
आएगा। या यूं कहिए शब्द रूप या धातु रूप में होने वाले परिवर्तनों को हम अंतिम
वर्णों के आधार पर तय करते हैं। उपसर्ग तथा कुछ प्रत्यय भी शब्दों के स्वरूप एवं
अर्थ परिवर्तन में भरपूर भूमिका निभाते हैं।
तो आइए हमें सबसे पहले अमरकोश जैसे कोश ग्रंथ को तथा अन्य सहायक उपकरणों को एक बार पढ़ना चाहिए। अमरकोश
में शब्दों के साथ उसका लिंग ज्ञान भी कराया गया है। इस शब्द कोश की यह एक विशिष्ट
विशेषता है। उसके बाद वार्तिक, धातुपाठ, लिंगानुशासन गणपाठ को याद करना चाहिए।
संस्कृत व्याकरण
में कुछ ऐसे शब्दों की भी मान्यता दी गई, जिसके स्वरुप में कभी भी परिवर्तन नहीं
होता। उसे अव्यय कहा गया है। इसके लिए अव्यय प्रकरण बनाया गया। इसमें कुछ शब्दों को
संकलित किया गया है, शेष को स्वरूप देखकर पहचाना जा सकता है। यहाँ कुछ सांकेतिक नाम रखे गए हैं। संस्कृत में नाम
को संज्ञा कहते हैं। जैसे इत् संज्ञा, पद संज्ञा, गुण संज्ञा आदि।
नोट- 1. मेरे ब्लॉग के प्रत्येक लेख को पुनः पुनः देखना चाहिए। इसमें समय-समय पर संशोधन एवं परिवर्धन होते रहता है।
अद्भुत। प्रणमामि।।💐🙏
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