तत्त्व मीमांसा-
चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथिवी जल
तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं । जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई
तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है । अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने
पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत्, इन्द्रिय अथवा
देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की
वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाणव्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम
गन्ध रस रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी
तत्तत् इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं आकाश
तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अतः उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही
नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है? इस प्रश्न का
उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विðा अकस्मात्
भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों का
संग्रह या संघट्ट मात्र है।
आत्मा-चार्वाकों के अनुसार चार
महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण
है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अतः चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म
सिद्ध होता है। अर्थात् यह शरीर ही आत्मा है। इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है-तर्क, अनुभव और आयुर्वेद शास्त्रों।
तर्क-से आत्मा की सिद्धि के लिये
चार्वाक लोग कहते हैं कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न
रहने पर चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात्
आत्मा सिद्ध होता है।
अनुभव-‘मैं स्थूल हूँ’, ‘मैं दुर्बल हूँ’, ‘मैं गोरा हूँ’, ‘मैं निष्क्रिय हूँ’ इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता इत्यादि शरीर के
धर्म हैं और ‘म®’ भी वही है। अतः शरीर ही आत्मा है।
आयुर्वेद-जिस प्रकार गुड जौ महुआ
आदि को मिला देने से कालक्रम के अनुसार उस मिश्रण में मदशक्ति उत्पन्न होती है, अथवा दही पीली मिट्टी और गोबर के परस्पर मिश्रण से उसमें बिच्छू पैदा हो
जाता है अथवा पान कत्था सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके मिश्रण से
मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण
से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। किन्तु इन भूतों के विशिष्ट मात्रा में मिश्रण का कारण क्या है? इस प्रश्न
का उत्तर चार्वाक के पास स्वभाववाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
ईश्वर-न्याय आदि शास्त्रों में
ईश्वर की सिद्धि अनुमान या आप्त वचन से की जाती है। चूँकि चार्वाक प्रत्यक्ष और
केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है अतः उसके मत में प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही
ईश्वर है। वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली प्रजा का नियन्ता होता है। अतः
उसे ही ईश्वर मानना चाहिये ।
ज्ञान मीमांसा-
प्रमेय अर्थात् विषय का यथार्थ
ज्ञान अर्थात् प्रमा के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है । चार्वाक लोक केवल
प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान
प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है । हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने
वाला संसार ही प्रमेय है । इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत् है । आँख कान नाक
जिह्ना और त्वचा के द्वारा रूप शब्द गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता
है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं
होती । बौद्ध जैन नामक अवैदिक दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन
अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं। उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता
केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि
अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निधयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही
होता है । दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते
हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अतः
सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु
वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी
जाती है वह व्याप्ति स्वभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूम के साथ अग्नि का, पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है । सुख और धर्म का दुःख और अधर्म का
कार्यकारण भाव स्वाभाविक है । जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे के शब्द में
कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये।
जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो
वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष
सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता है। यह प्रत्यक्ष ही है । जहाँ तक
वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृ और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं अतः
उनकी विðासनीयता सन्दिग् है।
साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिङ्गग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं मांसभक्षण सदृश घृणास्पद
कार्य करने से तथा-
सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्करीका ।
उदन्यजेव जेमना मदेरु ता मे जराटवजरं मरायु ।।
मन्त्र में जर्भरी तुर्फरी आदि
अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी अप्रामाणिकता स्वयं सिद्ध करते हैं।
आचार मीमांसा-
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो
जाता है कि चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष दिखायी देने वाले देह और जगत् के अतिरिक्त
किसी अन्य पदार्थ का स्वीकार नहीं करते। धर्म अर्थ काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थचतु य को वे लोग पुरुष अर्थात् मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं। उनकी
दृष्टि में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता
है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल
को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धूर्तों के द्वारा कपोलकल्पित
स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने
वाली पशुहिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्तद् वस्तुओं का
दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है।
इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिसमें इन्द्रियों की
तृप्ति हो मन आन्दित हो वही कार्य करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की तृप्ति हो मन
आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये। शरीर इन्द्रिय मन को आनन्दाप्लावित
करने में जो तत्त्व बाधक होते हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना धर्म है । शरीरिक मानसिक कष्ट सहना, विषयानन्द से मन और शरीर को बलात् विरत करना अधर्म है। तात्पर्य यह है कि
आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में, पुराणों
स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का साधक है तो उनका अनुसरण करना
चाहिये और यदि वे उसके बाद के होते हैं तो उनका सर्वथा
सर्वदा त्याग कर देना चाहिये।
प्रणाम महोदय 🙇🙇
जवाब देंहटाएंमहोदय! मीमांसा सूत्र पढ़ने की जिज्ञासा है। अतः कृपा करें । 🙏🙏