रामचन्द्र स्वामी स्वतः एक युग पुरूष हैं, उन्होंने मेरे जीवन में एक ऐसे मधुर स्वप्न को साकार रूप प्रदान करने की
चेष्टा की, जिसका मैं शतशः आभारी रहूँगा। जीवन में जो स्वप्न
लोक आज विद्यमान हैं, उसमें पुण्यकीर्ति श्री रामचन्द्र
स्वामी की ही अमिट छाप है। प्रस्तुत है, उनकी कुछ जीवन
गाथा।
सूर्यास्त के साथ-साथ कुमद्वती तथा मेरे जीवन के एक नवीन पक्ष का उदय हो
रहा था। आधी हिन्दी बोलने वाली किसी साध्वी माँ ने हमेंशा कुछ अस्फुट बातें कही
परन्तु मैं कुछ भी न समझ सका। मैं क्या जानूँ कि वह वृद्धा नेपालिन हैं।
पीछे पुष्कारिणी में थे एक अधेर उम्र के तपस्वी। उनसे जब मैं अपना परिचय
हुलासगंज के माध्यम से दिया तो उन्होंने स्वामी जी के न रहने की रबर दी। हम दोनों
जगन्नाथ महाप्रभु का दर्शन कर प्रसाद अर्पित किये। रामचन्द्र स्वामी की खोज समाप्त
कर मैंने शिक्षाशास्त्री में प्रवेश तथा रामचन्द्र स्वामी के आध्यात्मिक जीवन में
प्रवेश की महत्वाकांक्षा लेकर गोवर्द्धन मठ पुरी में रात्री निवास किया तथा प्रातः
काशी को लौट आया।
पुनः शिक्षाशास्त्री में प्रवेश की सूचना लेकर जब मैं प्रातः ही रामचन्द्र
स्वामी के पास पहुँचा तो उन्होंने मुझे अपने पास रहने का प्रस्ताव दिया जिसे मैंने
स्वीकार कर लिया। दिन पर दिन बीतने लगे। श्री स्वामी जी एक महान कार्य सौंपने के
उद्देश्य से मुझे अपना अनुभव कहने लगे, ताकि मैं भविष्य के
लिए तैयार हो सकूँ।
चुंकि स्वामी जी मुझे मंदिर का सम्पूर्ण कार्य भार सौंपना चाहते थे अतः मुझे तैयार करना आवश्यक था। वे एक विशाल
प्रतिष्ठान स्थापित करना चाहते थे, जिसमें मंदिर, छात्रावास, नेत्र चिकित्सालय, मठ, संत निवास शामिल था। उड़ीसा में उड़िया
भाषा की जानकारी आवश्यक होनी चाहिए, अतएव स्वामी जी ने एक
दिन कहा कि आप उड़िया भाषा क्यों नही सीखते? त्रिभाषी पुस्तक
से उडि़या का अभ्यास कीजिए तथा अंग्रेजी का ज्ञान भी आवश्यक होता है। विश्वव्यापी
कार्य करने के लिए अंग्रेजी अवश्य सीखनी चाहिए।
यद्यपि स्वामी जी सत्तर वर्ष के थे फिर भी वे मुझे तुम कह कर कभी भी नहीं पुकारते थे। वे हमेशा जनार्दन जी कहा करते थे।
स्वामी जी अपने बीते दिनों का संस्मरण बहुत ही कम सुनाते थे, परन्तु उनके जितने विरोधी रह चुके थे, उनका वे प्रवल
विरोधी जान पड़ते थे। यद्यपि स्वामी जी अपने जीवन के लिए अपनी स्वेच्छा के विपरीत
एक भी कार्य नहीं होने दिया था फिर भी वे सतर्क थे।
स्वामी जी का मार्ग दर्शन मिला। एक दिन जिस दिन मैं कार्तिक मास में पुरी
पहुँचा। स्वामी जी ने मेरे लिए ऊपर का कक्ष खोल दिया। यह सीढ़ी से सटी था। कक्ष
में स्वामी जी ने श्री स्वामी रंग रमानुजाचार्य जी के ठहरने की व्यवस्था की थी जो
कि मेरे गुरू थे। थानापति स्वामी उन समस्त वृतान्त को सुनाना प्रारंभ किए जो उनके
इच्छा के विरूद्ध था। वे बार-बार कहा करते थे कि स्वामी जी को लक्ष्मी प्रपन्न के
कहने पर भी जीयर स्वामी मठ जाना नहीं चाहिए था। कुछ भी हो हमलोग एक ही वाधूलवंश के
हैं। लड़ाई अन्यत् चीज है, यह घरेलू मामला था। मैंने सहमति
प्रकट की तथा इस बात को गम्भीरता पूर्वक लिया कि वास्तव में हमलोग एक ही वंशज हैं।
किसी भी परिस्थिति में अपना घर अपना ही होता है। मेरा उनसे सैद्धान्तिक विरोध था
परन्तु वे मेरे चाचा गुरू थे। अतः जीयर स्वामी के महन्त जी के लाख कहने के भी मैं
कभी भी वहां जाना स्वीकार नहीं किया। क्योंकि इससे बाहरी लोगों का हस्तक्षेप होता
तथा उनकी मानहानी होती। थानापति स्वामी यह बखूबी से जानते थे कि मैं वहाँ शिक्षा
ग्रहण करने आया था, न कि किसी धार्मिक संस्था का बागडोर
सम्भालने। फिर भी वे कहते जा रहे थे कि संसार में चमड़ा
कूटने से क्या लाभ? यहीं पर रहो, मैं सम्पूर्ण उत्तराधिकार
तुझे दिये देता हूँ। यहीं का आश्रम चलाओ, देखो। पुरी जैसे
महत्वपूर्ण तीर्थ तथा पर्यटन स्थल पर इन्होंने 60 एकड़ जमीन खरीद रखा था, जिसकी कीमत बहुत अधिक थी।
रामानुज सम्प्रदाय का नियम काफी कठिन होता है। व्यावहारिक पक्ष अत्यन्त
कठोर होता है, जो आज के लिए अप्रासंगिक है। युगीन नहीं हैै।
इसका प्रत्यक्ष अनुभव मैं पिछले बार की यात्रा में कर चुका था कि किस प्रकार
स्वामी जी स्पृश्यता का भेदभाव करते है। कैसे भितरिया और बहरिया का व्यवहार होता
है। यहाँ अब्राह्मणों की जनसंख्या नगण्य हैं। रामानन्दियों में भेदभाव कम है। मैं
उनका भतीजा शिष्य था। फिर भी मुझे बाहर में भोजन दिया जाता था। अभी तक मैं भद्र
नहीं हुआ था। पंचगव्य प्राशन नहीं किए था। सिले वस्त्र धारण करता था तथा कुंए या बावली का जल न पीकर हेन्डपम्प का जल पीता था। इस सम्प्रदाय में इन नियमों का पालन
अनिवार्य होता है। इतना जानते हुए भी मैं रामानुज सम्प्रदाय का पूरा पक्षधर था। इस
सम्प्रदाय का सिद्धान्त अत्यन्त तार्किक और जगमंगलकारी है। मैं भी एक सामाजिक जीवन
में आस्था रखता था अतः मैंने उनके विचार पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना शुरू किया।
अभी समय भी काफी शेष था जिसके अंतराल मुझे स्वामी जी की विचारधारा को परखने,
सामाजिक कार्य करने और रामानुज सम्प्रदाय से सक्रिय रूप से जुड़ने
का समय मिला हुआ था। इस अवधि में मैं सही निर्णय कर सकता था। एक बार तो बातचीत में
ही मैंने कहा। स्वामी जी यदि महात्मा ही बनना है तो पढ़ना व्यर्थ है, अच्छा है पढ़ाई छोड़कर मैं भगवत् सेवा ही करूँ। धार्मिक ग्रन्थों का
अध्ययन करूँ। दीर्घदर्शी थानापति स्वामी ने जो कुछ भी सोचा हो फिर भी शिक्षा से
जुड़े रहने का सलाह देना वे उचित समझे।
मैंने
व्यावसायिक शिक्षा को छोड़ने की बात कही थी लेकिन वे इसपर सहमत नहीं थे।
आश्रम में पहुचने के बाद भितरिया होने के लिए भद्र होना आवश्यक था। उसके
बाद और भी कठोर नियम थे। शिक्षाशास्त्री जैसी कक्षा में उर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगा,
धोती पहनना और भद्र रहना एक कौतूहल का पात्र बनना था, जहाँ अनेक प्रान्त के छात्र थे। मैंने नव जीवन के लिए खुद को तैयार कर
लिया। अब मेरे जीवन में रामचन्द्र स्वामी का अमोध संचार प्रदायिनी इच्छा शक्ति
व्याप्त हो चुकी थी। भद्र होने के साथ ही मैं भक्ति के दूसरे सीढ़ी पर कदम रख चुके
था। मुझे कदम दर कदम चढ़ते अपने मंजिल को प्राप्त करना था जिसके प्रापक स्वंय वहाँ
विराजमान थे। जगन्नाथ मंदिर के पास भद्र होकर आजसे मुझे प्रतिदिन अनेकों बावली में स्नान करना था। हमेशा कुँए का
जल पीना था। भगवान के लिए भोग तैयार करना और इस पर रामचन्द्र स्वामी का सर्वेक्षण। मैंने वैसे ही नियमों का पालन करना शुरू किया। भगवान का
तीर्थोदक लिया। कमर में एक गमछी लपेटी। कमर में एक और उत्तरीय वस्त्र बांधा तथा
भोग तैयार करने के प्रस्तुत हो गया। शायद स्वामी जा को
आधुनिकता के विषय में ज्ञान नहीं था। वे जब हमें गैस चूल्हे में आग जलाना सिखा रहे
थे तो मैं दूसरी ओर हँस रहा था। स्वामी जी भय था कि कही आग न लग जाय। रामानुज
सम्प्रदाय में नियमों की कुछ भी कमी नहीं है। इसके अनुयायी आज भी ईशा पूर्व के जीवन शैली में
विश्वास करता है । आचार्य उनके विरूद्ध कभी भी एक पग नहीं चलते।
भोजन पात्र पीतल का होना चाहिए। लकड़ी पर पकाया भोजन शुद्ध माना जाता है।
श्वान पकवान को कभी न देखे। लेकिन मैंने भीतर प्रवेश करने पर देखा कि स्वामी जी का
रसोई घर आधुनिकता से परिपूर्ण है। वहाँ पीतल के पात्र की जगह कुकर का प्रयोग होता
है और टन के टन लकड़ी रहने पर भी गैस चूल्हे का ही उपयोग होता किया जाता है। लगभग
सभी पात्र स्टील के है। इसका अर्थ यह नहीं है कि स्वामी
जी सम्प्रदाय के नियमों का उल्लंघन कर रहे थे बल्कि एकाकी जीवन में इन वस्तुओं की
आवश्यकता हो ही जाती है। पूरे आश्रम में तीन ही व्यक्ति थे। अब मुझे लेकर कुल चार
व्यक्ति होंगे। सामने नौकर के बच्चें को स्वामी जी ही भोजन दिया करते थे। आश्रम
में कार्य अधिक था। अबतक सभी कार्य अकेले स्वामी जी ही सम्पादित करते थे। धीरे-
धीरे मैं प्रशिक्षित किया जा चुका था। सुबह में चाय बनाना। 10 बजे के पूर्व ही भोजन तैयार कर देना मेरी जिम्मेदारी थी। भोग लगाना और
भगवान को शयन कराना स्वामी जी का कर्तव्य था। मैं उत्सुकता पूर्वक देखा करता था कि
स्वामी जी भगवान के समक्ष भोग रखकर बाहर में लगी घंटियों को काफी देर तक
बजाते थे। फिर जोर जोर से जर्नादन नाम लेकर पुकारते थे । रामकृष्ण जी व रामानुज
दासी को भोजन एकत्र ही दे दिया जाता था। स्वामी जी बहुत ही आग्रह पूर्वक मुझे एक
आसन देकर बगल में बैठाते थे। पूछ-पूूूूछ कर आकण्ठ भोजन कराने के बाद भी स्वामी जी और अधिक भोजन कराने की कामना रखते थे।
मेरी आखें कभी-कभी भर आती है कि स्वामी जी किसी प्रकार आत्मीय भाव से पुत्रवत्
स्नेह पूर्वक दूध भरा जग रख देते थे, जबकि वे स्वयं एक गिलास ही दूध लेना स्वीकार
करते थे। ऐसा उत्कृष्ट प्रेम मैंने कभी नहीं पाया था। तब मैं आश्चर्य करते था कि
किस प्रकार लक्ष्मी जी स्वामी जी के विषय में कहा करते थे कि वे कंजूस हैं और उनके
यहां भोजन की कठिनाई होती है।
भोजन के बाद नील
को पुकारा जाता था। तब वह नन्हा बालक थाली गीना आदि लेकर उपस्थित होता था। स्वामी
जी उसे भोजन देकर मुझे सिखाते थे कि कैसे चौका साफ किया जाता है।
विद्यापीठ से पढ़कर तुरन्त लौटते ही स्वामी जी या तो स्नान करने को निर्देश
देते थे या काजू व अन्य चीजों का जलपान देते थे। रात्री होते ही आरती हो जाती थी।
उस समय मैं आरती में आकर उपस्थित
हो जाता था। भोग पा लेने के बाद छुट्टी ही छुट्टी थी।
स्वामी जी मुझे आश्रम की देखरेख हेतु यथाशीघ्र प्रशिक्षित करना चाह रहे थे,
फिर भी वे मुझपर अधिक बोझ देना नहीं चाहते थे। एक दिन जब मैंने भूजा
चावल खरीदना चाहा तो उन्होंने इसे वैष्णव को नहीं खाना चाहिए ऐसा कहा। एक दिन और
जब मैं दाढ़ी बनाने हेतु रेजर खरीद लाया तो उन्होंने जिज्ञासा की। यह क्या है?
मैने जब बताया तो इसका भी विरोध किया।
स्वामी जी कभी भी मेरी कटु आलोचना नहीं की न ही मुझे गलत
कार्य को रोकने के लिए आड़े हाथ लिया। वे अनेक दृष्टान्त और युक्तियां के द्वारा
अपने बातों को कहा करते थे। वे अक्सर फूलपेंट पहनाना, चन्दन न लगाना, अभक्ष्य भक्षण करने का उदाहरण जीयर स्वामी मठ के छात्रों से दिया करते थे।
वे हुलासगंज के छात्रों की आलोचना भी ऐसे प्रसंग में करते थे। उनका पेट बाहर को
निकल आया था और वे सौम्य मुख बाले थे। वे अनचाहे किसी की निन्दा व हानी नहीं करना
चाहते थे। सच में वे एक शरणागत वत्सल वैष्णव थे।
एक रात्रि को जब मैं भगवान् को शयन कराने की विधि देख रहा था तब स्वामी जी
भीतर बुलाकर सिखाया कि किस प्रकार पात्रों का मंजन करना चाहिए तथा कैसे तुलसी दल
उतार कर पुनः तुलसी अर्पित किया जाता है। वे आश्रम ताले भी सुपुर्द कर दिए। अब दोनों की आत्मा एवं विचार करीब एक हो चुके थे अतः स्वामी जी आश्रम से जुड़े उन नितान्त
गम्भीर बातों को भी समझना शुरू कर दिए। कौन शत्रु हो
सकता है? किसने उनके निजी जीवन के साथ दुष्टता की ? उनकी सारी कहानी भोजन के वक्त ज़रूर कहा करते थे। इसी आश्रम में रामकृष्ण
जी और रामानन्द दासी वर्षों से थे फिर भी वे स्वामी जी के विश्वास पात्र नहीं हो
सके थे। स्वामी जी एकान्त में उन की सारी कहानी कहा करते थे। क्योंकर वे
अविश्वसनीय हैं। मेरे द्वारा यह पूछने पर कि वे क्यों
आविश्वासनीय थे तो स्वामी जी कहते थे यह आप जानकर
क्या करेंगें। स्वामी जी के भावनाओं का मैं उल्लंघन कभी नहीं कर सकता, भले ही मेरा
उनसे सैद्धान्तिक विरोध हो चुका हो। वे मेरे लिए आज भी समादरणीय हैं। उनका
स्नेह मुझे आज भी रूला डालता है।
उड़ीसा में पुरी
के निकट ही साक्षी गोपाल का मंदिर है। कार्तिक मास में एक दिन साक्षी गोपाल को
दर्शन करना विधान है। स्वामी जी ने रामानन्द दासी को साथ ले जाना उचित नहीं
समझा क्योंकि यह साधुवृत्ति के विपरीत था। लोग उसके साथ देखने पर कटाक्ष करते।
स्वामी जी के साथ मुझे चलने का निर्देश हुआ ताकि आत्मीयता और भी प्रगाढ़ हो
सके। रास्ते की कठिनाई को देखकर स्वामी जी ने कहा कि अगर स्कूटर चलाते होते तो
हमलोग उसी से आया करते। फूल माला और दीपक के फुटकर पैसे न होने के कारण स्वामी जी
ने मुझसे ही खर्च कराया जबकि अपने नौकरों के बच्चों के लिए विविध प्रकार की
मिठाइयाँ ली गयी। दर्शन होने के पश्चात् हम लोग आश्रम लौट आये।
स्वामी जी पाकविद्या विशारद थे। वे हमेशा बाला जी के किसी संत की चर्चा
करते थे कि वे विद्वान् होने के बाद भी सफल पाकशास्त्री थे। वे अतिथि को किस
प्रकार दाल भाजी आदि को छौंककर अंगे्रजी में बोल-बोल कर खिलाते थे। हाईकोर्ट
के जज भी उनकी विद्वता की धाक मानकर स्वयं कुर्सी दिया करते थे। विद्या की सहयोगी विद्या पाक शास्त्र भी हैं। कोई संत विद्वता से या तो भोजन खिलाकर ही किसी
पर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। जो व्यक्ति आपका भोजन कर चुका हो वह किसी भी
परिस्थिति में एक बार शिर अवश्य झुकायेगा। किसी अतिथि की प्रतीक्षा वे हमेशा करते
थे। विशेष अवसरों पर उडि़या भोजन बनाना सिखाते थे। खट्टे की चटनी, सूजी का उपमा, मीठी खिचड़ी तथा नारियल की चटनी
आदि। वे रोटी बहुत ही पतली और छोटी बनाते थे। और कहते थे यह बादशाही रोटी
है। ज्ञात हो की स्वामी जी हमेशा विद्वानों को अपने यहाँ
बुलाते थे तथा रामानुजाचार्य के विविध दार्शनिक ग्रन्थों को सम्मुख रख देते
थे। जब तक वे ग्रन्थ देखते स्वामी जी तुरन्त चाय और गर्म-गर्म हलुआ आदि तैयार कर
चटपट रख देते थे। शिक्षा और भोजन का ऐसा सामान्जस्य कभी भी देखने को नहीं मिलता
है।
एक बार स्वामी जी को पता चला कि बिहार के किसी विद्वान् की नियुक्ति
व्याकरण विभाग में हुई है। वे मुझसे बोले कि उन्हें आग्रह पूर्वक बुला लाना
चाहिए। वे अन्य कोई नही थे। मेरे ही पूज्य गुरूदेव डा0 हरिनारायण तिवारी जी जिन की कार्तिक मास में
ही नियुक्ति हुई थी। जब मैंने अपने गुरू जी से आमंत्रण बात कही तो रविवार को आने की
तिथि उन्होंने स्वीकार कर ली। डा0 हरिनारायण जी उस दिन आधुनिक वेष में थे अतः स्वामी जी किञ्चित् विरफे, फिर भी उतने
उदासीन नहीं थे। डा0 तिवारी जी उन्हीं के निकटवर्ती
ठहरे। स्वामी जी को बिहार प्रदेश से ही अधिक प्यार था वे अक्सर कहते थे कि यह
आश्रम सम्पूर्ण बिहार के लिए है। इसके पीछे एक कारण था कि वे जीयर मठ के विरूद्ध थे। वहां मध्यप्रदेशियों का कब्जा था। वे कभी कहे थे कि मैं बिहारियों से घृणा करता हूँ। इससे स्वामी
जी को सदमा पहुंचा। जीयर स्वामी मठ से उनका प्राचीन लड़ाई रह चुकी है। डा0 तिवारी उनके घर के पूर्णतः निकटवर्ती थे। इससे और आनन्द की बात ही क्या हो
सकती थी। मैंने आश्रम में एक संस्कृत विद्यालय
खोलने का प्रस्ताव पहले से ही रखा था। उसकी अत्यधिक पुष्टि डा0 तिवारी के आने से हो गयी। अब वो एक महाविद्यालय खोलने के लिए कृतसंकल्पित
थे।
अपनी भ्रमणशीलता तथा लोकसम्पर्क से मजबूर मैंने जब घूमते-घूमते एक दिन एक संस्था में जा पहुँचा। इस संस्था से मैं पूर्व परिचित था। भक्ति सिद्धान्त ने
किस प्रकार वृद्धावस्था में विदेश जाकर असंख्य विदेशियों को हिन्दू धर्म में लाया। मैं उनके अनेक ग्रन्थों को पढ़कर अत्यन्त उत्साहित होता था। एक दिन रामकृष्ण जी ने
कहा कि इसी जंगल में कुछ दूर पर अंग्रेजों का मठ है। मैंने वहां जाकर देखने
की इच्छा व्यक्त की। परन्तु रामकृष्ण जी ने कहा ‘ उनसे
मेरी लड़ाई है अतः मैं नही जा सकता ऐसा कहा तो मैंने भी वहां जाने की जिद छोड़
दी। उस दिन अपना बगीचा देखकर लौट आया। उस स्थान को ढूढने का प्रयास मैं करता रहा। एक दिन मैं वहां उपस्थित हो गया। मैं संस्था के उद्देश्य से लगभग वाकीफ था, परन्तु संरचनात्मक विकास आदि के विषय में जानने हेतु वहां के उपाध्यक्ष से भेंट की। वे हिन्दी बोलने में असमर्थ होने के कारण एक काले किशोर व्यक्ति की ओर इशारा
की जो अभी-अभी वहाँ जगन्नाथ दर्शन कर उपस्थित हुए थे। वे और कोई नहीं थे वे मेरे के भावी मित्र अमरकृष्ण दास थे जो बाद में अनन्ताचार्य बन कर मेरे कनिष्ठ गुरूभ्राता हो गए। प्रथम मुलाकात में ही हम दोनों ने धर्म तथा धार्मिक मठों
के सम्बन्ध में लगातार 6 घंटे बातचीत की। अमरकृष्ण
कभी अंग्रेजी या उडि़या बोलने लगते थे या वे अस्फुट हिन्दी बोलते थे। जब हम दोनों ने
एक ह्दय की धड़कन दूसरी ह्दय से जुड़ा हुआ देखा तो शोघ्र ही मित्रता की अटूट गांठ
बांध ली। हम दोनों अब एक नवजीवन लेकर धर्म के लिए कुछ करने हेतु दृढ़ हो चुके
थे। मैंने अपना फोन नम्बर दिया तथा गले में गले मिलाकर हाथ उठाकर हरे कृष्णा
किया तथा प्रथम मिलन में सब कुछ तय कर फिर-फिर मिलने का वादा किया।
क्रि.......................क्रि........................................क्रि
हलो कौन ? जर्नादन आछन्ति कि ? हां। डिकि दियन्तु। हैलो हरे कृष्ण। अमरकृष्ण ने कहा। अच्छे हैं।
हाँ। मैंने
पूछा कब मिलियेगा। तुम आकर मिलना काम है अच्छा। इस प्रकार अनेकों फोन आने लगे। हमदोनों में काफी निकटता हो गयी। और एक दिन................आज फिर कोई नवीनतम कार्य
होने जा रहा था। एक संस्था का गठन। वह सामाजिक और धार्मिक होना चाहिए। हिन्दू
धर्म के उत्थान के लिए। यूँ तो एक संस्था पिछले दिनों गठित हो चुकी है। हिन्दी, उड़ीया विचार मंच। जिसमें धर्म के दार्शनिक विषयों की विवेचन होती है, परन्तु आज यह और विकसित होगा।
अमरकृष्ण ने कहा आज 1 जनवरी है 1995 है। समाज में संस्था की स्थापना हो और स्थापनोत्सव मनाया जाएगा चैत्र
कृष्ण प्रतिपद् के दिन। भारतीय नववर्ष के दिन। इससे
पूर्व संध्या पर होली का त्योहार होता है तथा इसी दिन श्री स्वामी परांकुशाचार्य
जी का जन्म दिवस है। हमलोग शीघ्रतया एक संस्था गठित कर ले एवं आगामी दिनों अपने घर
पर स्थापनोत्सव मनाऐंगें। संस्था के नाम पर चर्चा होने लगी तो अमर ने पूर्ण नाम
कहा और मैंने भक्ति आन्दोलन। पूर्ण संस्कृति का अभिप्राय है वह संस्कृति जो
पूर्ण हो तथा आन्दोलन से अभिप्राय है निज तथा समूह के विकास हेतु अतिशीघ्र प्रयास । यथा स्वतंत्रता हेतु आन्दोलन प्रति व्यक्ति में संक्रमित था एक वैसा ही भक्ति हेतु
प्रयास जैसा प्रयास पूर्वाचार्य शंकराचार्य, रामानुजचार्य
ने किया था। काफी तर्क के पश्चात् नाम स्थिर हो गया। हम दोनों ने भगवान् के समक्ष नाम
का समर्पण किया और इसे देश देशान्तर तक विकसित करने का प्रण किया।
संस्था के उद्देश्य, विकास के साधन तथा कार्यकर्ताओं की आवश्यकता को देखकर
अब दोनों बहुत अधिक निकट होने लगे। एक दिन अमर ने प्रस्ताव रखा कि मैं संस्कृत
पढ़ना चाहता हूँ। आप अपने पास मेरी व्यवस्था कर दीजिए। हम दोनों रामचन्द्र स्वामी
के पास थे और अपने मित्रों को नव संस्था गठित कर लेने का शुभ समाचार लिख रहे थे।
अमरकृष्ण ने अपने पिताजी के नाम के पश्चात् सेठी लिखा तो मैंने
स्वामी जी से पूछा कि सेठी किस जाति में आता है। स्वामी जी ने अमर से जाति पूछा। अमर ने
ग्वाला के समकक्ष बताया होना बताया। स्वामी जी समझ चुके थे।
आज अमर कृष्ण ने अपने तमाम मित्रों का नाम गिनाया जो पूर्व में स्वराज
परिवार के थे। अभी उन्हें भी पत्र भेजना और मैंने श्री राम कथा प्रचारक समिति के
विषय में बताया। उन्हें अमर कृष्ण पत्र भेज रहे थे। दोनों संस्थाऐ अब एक हो रही थी।
अमर कृष्ण ने निरंकार पाठक, वंशीधर शास्त्री, दिनेश कुमार ओझा आदि के पास पत्र
लिखे और मैंने सुव्रत दास एवं प्रशान्त कुमार साहू के पास। एक पत्र अमरकृष्ण के
पिताजी के भी पास लिखा गया, जिसमें उनसे आग्रह किया गया था कि एक पुत्र को धर्म के
लिए समर्पित किया जाय, जो भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रख सके।
डा0 तिवारी आज पुनः आश्रम में आने वाले हैं। वह
भी अकेले नहीं। उड़ीसा के संस्कृत शिक्षा निदेशक (शिक्षा विभाग संस्कृत) भी आने वाले हैं। वे
आज यहां आकर देखेंगे कि विद्यालय खोलने योग्य कौन सा स्थान अच्छा
होगा। स्वामी जी उनके मार्ग निर्देशन एवं अपनी सहायता के लिए अपने ट्रस्टी को बुलाये हैं, जिनका नाम जना है।
लगभग शाम के समय उदय मोहन्ती जो निदेशक थे वे और गुरू जी आये।
स्वागत सत्कार के पश्चात् स्वामी जी ने उन्हें अपने निकटवर्ती 17 एकड़ के प्लाट का नक्शा दिखाया। उस जमीन के किस ओर से रास्ते निकल रहे हैं, ये भी निर्देशित किए। बाद में मोहन्ती जी ने एक समुद्र की ओर वाला
जगह पसन्द किया जो मंदिर के सामने था। दूसरा मंदिर के पीछे का भाग। स्वामी जी
उन्हें पिछले भाग के औचित्य एवं उपयोगिता के विषय में राय दी तथा सामने में आँख का
अस्पताल खोलने की अपनी मंशा भी स्पष्ट कर दी। फिलहाल कोई विद्यालय खड़ी करने में
लाखों रूपये चाहिए और यह एक विरान क्षेत्र है, जहाँ छात्र नहीं के बराबर पढ़ने आते।
फिर भी तावत् काल आश्रम के दूसरे मंजिल पर विद्यालय चलाने तथा बाद में
स्थानान्तरित करने की बात भी तय हो चुकी थी। विशेष रूप से यह तय था कि मैं ही
इसका प्राचार्य बनूँगा।
एकदिन अमरकृष्ण आए और मुझे सूचना दी कि अगर मेरे यहाँ से हरे कृष्ण
आन्दोलन प्रारम्भ हो तो बहुत ही अच्छा रहेगा। हम फाल्गुन पूर्णिमा (दौलत पूर्णिमा)
के अवसर पर अपने यहाँ समस्त मित्रों के साथ गांव-गांव में हरे कृष्ण की धूम
मचाऐंगे तथा श्रीकृष्ण के संदेश की सूचना दी जाएगी। हालाँकि उस समय मेरी तबियत काफी
खराब थी अतः मैंने स्वामी जी से कहा कि मैं घर जा रहा हूँ। वही अपना स्वास्थ्य परीक्षण के पश्चात् लौटेगें। स्वामी जी मेरा स्वास्थ्य परीक्षण पुरी के राजकीय अस्पताल में करवाये थे। वहां के सी0 एम0 ओ0 मुझसे परिचित थे। वे काफी मदद पूर्वक मेरे स्वास्थ्य की देखभाल के
लिए किसी विशेषज्ञ डाक्टर को लगाये थे।
मैंने पुरी के अस्पताल में अपना स्वास्थ्य परीक्षण कराकर आवश्यकता के अनुसार औषधि ली। मैं अपनी स्वास्थ्य सूचना लेकर काफी देर तक ग्रांट रोड पर अमर के आगमन की प्रतिक्षा करता रहा। अंत में अमर आया। दोनों बस द्वारा भुवनेश्वर होते कटक पहुँचा। कटक में अमर के दोस्त प्रशान्त साहू से मिला। कटक से बस द्वारा अमर कृष्ण के घर केन्द्रापाड़ा जनपद के एक गाँव में पहुँचा। मुझे याद है। तब तक रात हो चुकी थी। जाड़े का मौसम था। मैं, प्रशान्त तथा अमर का एक और दोस्त गांव के किसी स्कूल में रात में रूका था। भोजन की व्यवस्था अमर के घर पर थी। घर पर अमर के पिता, माँ, छोटा भाई तथा बहन थी। मैं जल्द ही सभी से घुलमिल गया। रात का भोजन अच्छा नहीं लगा। उड़ीसा में चावल पकाकर पानी में छोड़ देते हैं। वही वहाँ का मुख्य आहार है। खैर मैं यहाँ कोई लजीज स्वाद चखने नहीं आया था, अपितु हरि नाम संकीर्तन के शुभारम्भ के लिए आया था।
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