ज्ञानं भारः क्रियां विना। संस्कृत पढ़े लोगों को जब कहीं
छोटी सी नौकरी में भी नहीं मिलती तो यह सूक्ति सार्थक लगती है। संस्कृत पढ़ कर न
तो बिजली का कोई काम कर सकता। मैं गाड़ी मरम्मत का। आखिर कौन सा काम कराने के लिए
संस्कृत पढ़े लिखे लोगों को कोई रखेगा। संस्कृत की पुस्तकों में जो कुछ लिखा है
उसकी आज रोजगार परक कोई उपयोगिता नहीं है।
Rajkamal Goswami शिक्षे तुम्हारा नाश हो तुम
नौकरी के हित बनी !
मैथिली शरण गुप्त ने कभी मैकॉले की शिक्षा व्यवस्था पर यह
टिप्पणी की थी ! संस्कृत को लेकर आप का दु:ख न्यायसंगत है किंतु अंग्रेजी को छोड़
कर सभी देशज भाषायें इसी गति को प्राप्त हैं ! भाषायें ज्ञान की संवाहक होती हैं , आज के युग का ज्ञान अंग्रेजी
में अभिव्यक्ति पा रहा है ! अत: संस्कृत को अंग्रेजी को साथ ले कर चलना पड़ेगा !
संस्कृत का जो सम्मान देश के बाहर है वह भारत में कम पाया जाता है किन्तु वहाँ
संस्कृत रोमन लिपि में भी लिखी जाती है जो वहाँ अधिक बोधगम्य है ! अभी एक उर्दू
वाले से चर्चा हो रही थी, वह भी दुखी थे । उनका कहना था,
जिनमें उर्दू सोई है लफ्ज़ों की चादर तान कर ।
कुछ दिनों में उन किताबों के कवर रह जायेंगे !
संस्कृत तो शाश्वत सदानीरा नदी है ! जिन्होंने संस्कृत विषय
के साथ आधुनिक विषय लिये हैं वे लोग बहुत आगे तक पहुँचे हैं ! कई संस्कृत विद्वान
प्रशासनिक सेवाओं में उच्च पदों पर आसीन रहे हैं !
7 October at 21:45
संस्कृत जटिल भाषा है। आधे से अधिक जीवन भाषा सीखने में चला
जाता है।
डॉ.कंचन तिवारी नगाधिराज प्रारंभ में सरल है। जीवन की जटिल
समस्याओं को सुलझाने के लिये जटिलता भी धारण करती है ।कुल मिलाकर जीवन को सरल
बनाती है
डॉ.कंचन तिवारी नगाधिराज प्रारंभ में सरल है।जीवन की जटिल
समस्याओं को सुलझाने के लिये जटिलता भी धारण करती है ।कुल मिलाकर जीवन को सरल
बनाती है
Kanchan Saroj Kemka Koi bhi cheez jatil tabhi tak hoti hain jab wo hume nahi
aati jab tak uska gyan hume nahi hota baat bhaasha ki ho ya kisi or language ya
kisi or subject ki ya phir kisi or kaam ki isi tarha sey sanskrit bhasha Jatil
isliye hain kyuki wo humari mother tounge nahi hain wo humare ghar mey nahi
boli jaati jaise hindi aur English boli jaati hain uska hum apne dainik jeevan
mey use nahi karte .
Lekin jatil tabhi aasan bannta hain jab usmey dilchaspi
ho aur isi dilchaspi ko aap aur aap hi jaise kai teachers ispar kaam kar rahe
hain Sir
जगदानन्द झा Kanchan Saroj Kemka भाषिक संस्कृत और
साहित्य, शास्त्रीय संस्कृत में जमीन आसमान का अंतर है।
संस्कृत में गद्य साहित्य से अधिक पद्य साहित्य है जिसमें शब्दों को इस प्रकार
तोड़ा मरोड़ा जाता है कि वह भाषिक संस्कृत से काफी अलग हो जाता है। मैं यह यूं ही
नहीं कह रहा, बल्कि अन्य भाषाओं से तुलना करने के पश्चात इस
संश्लिष्ट पदावली वाली भाषा के बारे में लिखा हूं। एक एक शब्द के इतने अधिक पर्याय
हैं और कौन लेखक किस शब्द का प्रयोग करते हैं कहा नहीं जा सकता। एक अरब से अधिक
शब्द और उसका अर्थ है याद रखना किसी मनुष्य के वश में नहीं और इसका प्रयोग हुआ है
इसीलिए मैं कह रहा हूं कि यह भाषा अत्यंत जटिल है। जिसके पास जितना अधिक बुद्धि है
वह नया नया शब्द गडकर प्रयोग कर सकता है य दूसरे के लिए समझ से बाहर भी होता है
सुशील कुमार पाराशर सरला भाषा संस्कृतं
जगदानन्द झा बटवृक्षः धावति का अर्थ लिख दे तो समझ लूँ कि
यह सरल है।
Krishna Mohan Shukla धावति का अर्थ दौड़ना
होता है किन्तु मैंने इसका आशय बढ़ने से ले लिया है
जगदानन्द झा बालकः धावति में धावति का अर्थ अलग होगा और
यहाँ अलग। इसके लिए कोई नियम निर्देश प्राप्त होता है क्या? ताकि सभी को समान रूप से
अर्थावबोध हो। मुझे बढ़ रहा है यह अर्थावबोध क्यों नहीं हुआ? यदि
होता तो बढ़ रहा है> यह किस शब्द का अर्थ है? यह प्रश्न ही नहीं पूछता।
Krishna Mohan Shukla यदि रुचि हो जाय तो कुछ
भी कठिन नहीं
जगदानन्द झा रुचि हो जाय तो चीनी भावचित्र में लिखी जानी
वाली मन्दारिन' भी सीखी जा सकती है। इसे ८५ करोड़ वक्ता सीखते और प्रयोग भी करते हैं। यह
दुनियों के सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है।
Krishna Mohan Shukla लगन व परिश्रम से सब
कुछ सम्भव है महोदय।
जगदानन्द झा Krishna Mohan Shukla मैं यहाँ दों भाषाओं की
तुलना में लिखा हूँ। आज हम जिस भाषा को बोलते, लिखते पढ़ते
हैं उस हिन्दी के सापेक्ष संस्कृत जटिल है। यहि जटिल नहीं होती तो लोग संस्कृत को
यथावत् स्वीकार करते आ अब देखिये दुग्ध में मुख सुख है या दूध में। जटिलता से ,सरलता की ओर की यात्रा का नाम ही तद्भव है। इसी प्रकार वाक्य विन्यास में
भी जटिलता से सरलता की ओर यात्रा हुई है। अक्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं
व्रजेत्।
Anjani Kumar Sinha अच्छा व्यंग्य किया है
आपने।
जगदानन्द झा मान्यवर यह व्यंग्य नहीं यथार्थ है। जिस हिन्दी
को हम लिखते और बोलते हैं,
उसकी अपेक्षा यह जटिल है। अब देखिये न । हिन्दी के सभी विभक्तियों
में कर्ता के स्वरुप में थोड़ा परिवर्तन होता है, चाहे वह
किसी लिंग या स्वरान्त या हलन्त का हो। परन्तु संस्कृत में कितना अधिक परिवर्तन हो
जाता है। हिन्दी की अपेक्षा इसमें कितने गुना परिवर्तन होता है इसे प्रयोग कर
देखना चाहिए।
Usha Nagar ????
जगदानन्द झा Usha Nagar यदि ऐसा नहीं है तब संस्कृत कवि
सम्मेलन में लोग सुनने क्यों नहीं जाते? कवि बिना देखे कविता
पाठ क्यों नहीं करते? संस्कृत की पुस्तकें, पत्रिकाएं क्यों नहीं बिकती? सच तो यह है कि लोग
संस्कृत समझ नहीं पाते तो पुस्तक पढ़ेंगे खाक।
राजकुमार हिरणवाल ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। न जाने क्यों, मुझे आपकी पोस्टें नकारात्मक
लगने लगी हैं ? कोई बेचने वाला हो,संस्कृत
किताबें खूब बिकती हैं।
जगदानन्द झा राजकुमार हिरणवाल मैं भी किताब बेचने का उपक्रम
शुरू करने जा रहा हूं,
पुस्तक विक्रेता संस्कृत की किताब नहीं बेचता है, कहता खरीदार नहीं है। मैंने एक दिन पूरे मार्केट में सर्वे भी किया था।
लगभग 10000 किताबें तो मैं खुद ही खरीद चुका हूं एक एक
पुस्तक का द्वितीय संस्करण 15 या 20 वर्ष
बाद ही निकल पाता है। कई प्रकाशक तो एक बार पुस्तक छापने के बाद दोबारा प्रिंटिंग
नहीं कराते क्योंकि उसका कोई ग्राहक नहीं होता। संस्कृत की पुस्तकों को स्वयं लेखक
को छपवाना पड़ता है।
Usha Nagar झा महोदय , भाषा
कोई भी कठिन या सरल नही होती । जो भाषा प्रतिदिन बोलने एवं सुनने में आए उसे समझना
, याद रखना बोलना सरल हो जाता है । दुर्भागयवश संस्कृत लोक
व्यवहार की भाषा न होने से कठिन लगती है । तथापि मैं कहूंगी कि आम लोगों को भी
संस्कृत के श्लोक , स्तोत्र आदि कंठस्थ हैं । किसी भाषा की
पुस्तक पढना व्यक्ति की रुचि , विषय एवं पुस्तक की उपयोगिता
पर निर्भर करता है ।
जगदानन्द झा Usha Nagar श्लोक याद कर लेना अलग बात है।
यदि कोई श्लोक बोल रहा हो तो तत्क्षण उसका अर्थ समझ में आना दोनों दो विषय हैं। आज
तक गिने चुने लोग ही मुझे मिले जिनके सामने मैं पुस्तक रख दूं और पूछूं कि इसमें
क्या लिखा है तो वह तत्काल पढ़ते ही उत्तर दे दे हैं। डाटा तब तक महत्व हीन है जब
तक कि उसे व्याख्यायित न कर ली जाए।
Usha Nagar आप प्रयासरत हैं जिसका प्रभाव दिख
रहा है । शिक्षाविदों को पाठ्यक्रम को आजकल के सामाजिक ढाॅचे के अनुरूप बदलना होग
जैसा की अन्य भाषाओं के पाठ्यक्रम में हो रहा है ।
जगदानन्द झा Usha Nagar कुछ लोग द्वितीया विभक्ति का रूप
हटाकर और भूतकाल के लिए कुछ प्रत्यय जोड़कर इसे सरल बना रहे हैं लेकिन जो उपलब्ध
साहित्य है उसमें तो द्वितीय विभक्ति भी है और भूतकाल के लिए तीन लकारों का प्रयोग
भी। उसे बिना जाने क्या हम उन ग्रंथों को समझ पाएंगे या उपयोग कर पाएंगे?
Usha Nagar आपका कथन सही है । सरली करण का
तात्पर्य भाषा का स्वरूप बदलना नही है । आपने जो भूतकाल के प्रयोग का उदाहरण दिया
सही है । तीनों भूतकाल ( लङ् , लुङ् व लिट्) का प्रयोग तीन
पृथक-पृथक समय के लिए किया जाता है जो की प्रत्यय जोङकर नहीं दर्शाया जा सकता ।
आपकी व्यथा मैं समझ रही हूं । भाषा भी समय के साथ परिवर्तित होती है । यह वैदिक,
लौकिक और पुराणों की संस्कृत में देखते हैं ।
Arknath Chaudhary न जटिल है और न
कठिन।प्रयास में निष्ठा चाहिए।
Nikhil Barman संस्कृतभाषा सरला, कोsपि हृदयेन इच्छति चेत् केवलं २० घण्टा आवश्यकी
।उद्यमेन हि उद्यमी।
जगदानन्द झा Usha Nagar कुछ लोग द्वितीया विभक्ति का रूप
हटाकर और भूतकाल के लिए कुछ प्रत्यय जोड़कर इसे सरल बना रहे हैं लेकिन जो उपलब्ध
साहित्य है उसमें तो द्वितीय विभक्ति भी है और भूतकाल के लिए तीन लकारों का प्रयोग
भी। उसे बिना जाने क्या हम उन ग्रंथों को समझ पाएंगे या उपयोग कर पाएंगे?
जगदानन्द झा 20 घंटे वालों ने माता पिता, स्वर्ग नर्क, सुख दुःख, आत्मा
परमात्मा जैसे भावों का घंटा बजा दिया दिया है। यहाँ तो एक की ही सत्ता है,
जो बहुवचन को उपयोग में लाने के लिए बहुवचन को साथ रखा है। वहाँ की
शिक्षा का कतिपय उदाहरण- मम प्राक्तनविद्यालयस्य छात्राभि: सह कियत्क्षणम् । अहम्
संस्कृतभाषा प्रचारक:सेबकश्च। कहो तो विभक्ति लोप कर संस्कृत लिखी जाय।
Usha Nagar आपका कथन सही है । सरली करण का
तात्पर्य भाषा का स्वरूप बदलना नही है । आपने जो भूतकाल के प्रयोग का उदाहरण दिया
सही है । तीनों भूतकाल ( लङ् , लुङ् व लिट्) का प्रयोग तीन
पृथक-पृथक समय के लिए किया जाता है जो की प्रत्यय जोङकर नहीं दर्शाया जा सकता ।
आपकी व्यथा मैं समझ रही हूं । भाषा भी समय के साथ परिवर्तित होती है । यह वैदिक,
लौकिक और पुराणों की संस्कृत में देखते हैं ।
3 October at 21:42
अन्तःसंजाल पर हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के समकालीन
लेखकों की प्रतिनिधि रचनाएं आपको आसानी से पढ़ने को मिलता है। राष्ट्रीय संस्कृत
संस्थान ने इस दिशा में किंचित प्रयास भी किया था। मैंनें अपने ब्लॉग पर इसके बारे
में कुछ लेख लिखा था। संस्कृत गीतकारों की जीवनी के साथ उनके कुछ प्रतिनिधि गीतों
का संकलन https://sanskritbhasi.blogspot.com/2017_01_29_archive.html…
इस लिंक पर किया। मुझे आशा है कि हिन्दी समय की तरह ही आने वाले
दिनों में संस्कृत का भी एक अन्तः संजाल होगा, जहां प्रभूत
मात्रा में सामग्री मिलेगी।
29 September
2018 at 22:26
विचार प्रवाह -
1. आजकल जिस
शिक्षा को देने के लिए छात्रों को छात्रवृत्ति देनी पड़े, वह
शिक्षा महत्वहीन है। जिस शिक्षा को देने के लिए भोजन और आवास भी देना पड़े,
वह शिक्षा उससे भी अधिक महत्वहीन है। यह दोनों वाक्य सभी जगह लागू नहीं
होते।
2. कोई भी
पदासीन व्यक्ति अपने से ऊंचे पद पर आपको नहीं बैठा सकता और न ही नियुक्त कर सकता,
परंतु प्रजातंत्र इसका अपवाद है।
3. बड़े और
ऊंचे पहुंच वाले व्यक्ति तब तक आपके लिए फायदेमंद है जब तक आप उसकी सेवा लेते हैं
परंतु ऐसा कम ही होता है। अक्सर ऐसे लोग दूसरे से सेवा लेने या दूसरे का उपयोग
करने के पश्चात ही बड़ा बन पाते हैं।
4. जिस समाचार
को बनाने के लिए पैसा खर्च नहीं करना पड़ता है और जिस समाचार को पाने के लिए पैसा
खर्च नहीं करना पड़ता है, वह समाचार अनुपयोगी है।
27 September 2018 at 19:32
एक वैदिक ऋषि हुए। नाम था
दीर्घतमा। गूगल पर सर्च करने पर इनकी कहानी कई भाषाओं में मिल जाएगी अतः चरित्र
चित्रण करना यहां अनिवार्य नहीं। सुप्रीम कोर्ट का आज का फैसला इस देश के निवासी
को वैसा ही ऋषि बनाना चाहता है।
Ritu Gupta M suni nahi in
rhishi k baare m
जगदानन्द झा Ritu Gupta गूगल पर दीर्घतमा ऋषि लिखकर खोज लो। इनकी चर्चा
ऋग्वेद तथा महाभारत में आयी है। यदि कुछ लिख दूं तो लोग गालियां देना शुरू करेंगे।
वेदिक ऋषियों, ऋषिकाओं तथा पौराणिक ऋषियों के चरित्र
स्वाभाविक होते थे। अब उसे लोग अजीबो गरीब मानते हैं । सारे फसाद की जड़ यही है।
राकेश पंचौली जगदानन्द झा
आदरणीय जी पुराण पाखंड है
वेदों की ओर लौटो पुराणों में मिलावट की गई है मुगल काल में
जगदानन्द झा राकेश पंचौली आप
दयानंद जी की व्याख्या पढ़े होंगे कृपया यह बताइए कि ऋग्वेद के किस सूक्त में इनका
वर्णन आया है? वहां का मूल उद्धरण दे
दीजिए।
26 September 2018 at 21:21
जो चिंतनशील होता है, जो कुछ विशेष सोचता है, जो अपने
चिंतन तथा प्रयोग से किसी निष्कर्ष तक पहुँचा हो, घटना विशेष
ऐसे व्यक्ति के चिंतनधारा में व्यापक परिवर्तन लाता है। इतना अप्रत्याशित कि चिंतक
भी परिवर्तित होने वाले विचार के बारे में नहीं सोचे रहता । चूंकि चिंतनशील
व्यक्ति विशिष्ट प्रकार का सोचता है, इसीलिए कई बार उसके सोच
के प्रति अन्य लोगों के असहमति के स्वर काफी ऊंचे होते हैं। चिंतक का सोचा और किसी
के पल्ले नहीं पड़ता।
चिंतन धारा में व्यापक
परिवर्तन सिर्फ चिंतकों में दिखाई देता है। मैंने कई लोगों के विचार, जीवनशैली में आमूलचूल परिवर्तन होते देखा है। उनमें नहीं,
जिसने कभी किसी मुद्दे पर कुछ भी चिंतन नहीं किया हो। किसी विशेष
अवधारणा पर नहीं पहुंचा हो। शामिल बाजा हमेशा, जीवन पर्यन्त
साथ बजते रहता है। जो सोचेगा वही सोच भी बदलेगा। जिसने सोचा ही नहीं, उसे सोच बदलने की जरूरत भी नहीं।
22 September at 2018 20:46
आज कल संस्कृतभाषी ब्लॉग पर
लिखे अपूर्ण लेखों को पूर्ण करने में संलग्न हूँ। कई स्थानों पर ध्वनियों को भी
जोड़ना है। विशेषतः वहां जहां मूल संस्कृत है, ताकि नए
बच्चे उसका शुद्ध उच्चारण करना सीख सकें। दिव्यरंजन जी कहते हैं- हिंदी प्रभाव के
कारण हिंदी भाषी लोगों का उच्चारण काफी विकृत हो गया है। वे जो लिखते हैं वह बोलते
नहीं जो बोलते हैं वह लिखते नहीं। कई बार ध्वनि भेद से अर्थ में भेद हो जाता है।
वह कार्य करता है। कर्ता कारक का एक भेद है। इन दोनों वाक्यों में आये करता एवं
कर्ता के ध्वनियों में लोग भेद नहीं कर पाते।
20 September 2018 at 21:57
मैं जो कुछ भी जानता हूं, जितना भी जानता हूं, उसे दूसरे तक
पहुंचाने के लिए ब्लाग लिखते रहता हूं। इसे पढ़ने के लिए किसी को शुल्क चुकाने की
आवश्यकता नहीं होती है। एक साथ कई लोग पढ़ भी सकते है। यह सबके लिए समान रूप से
उपलब्ध रहता है। खोजे जाने पर तत्काल मिल जाता है। 2011 से
अबतक मेरे एक एक लेख को 1000 से लेकर 100000 तक लोगों ने पढ़ा है। मेरे ब्लॉग का नाम संस्कृतभाषी है।
लिंक - https://sanskritbhasi.blogspot.in
मैं यह जानता हूं कि मुझसे
कुछ लोग अधिक जानते हैं तो कुछ लोग कम। जो लोग हमसे कम जानते हैं, उनके लिए मेरा ब्लॉग उपयोगी हो सकता है। (पहली कक्षा में
वर्णमाला सीखने वाले बच्चों की कभी कमी नहीं होती।) मैं मिलने वालों से बराबर कहता
हूं, आपके द्वारा अबतक का अर्जित ज्ञान उन लोगों के लिए
पर्याप्त है, जो अब तक आप इतना सीख नहीं पाया । आप लिखिए।
उनके लिए लिखिए।
यदि एक अध्यापक यदि एक छात्र
अपने नोट्स को इंटरनेट पर लिख दे तो आने वाले कक्षा के छात्रों के लिए कितना अधिक
उपयोगी होगा। इसके लिए मैंने कई बार अध्यापकों को भी प्रोत्साहित किया। उदाहरण के
तौर पर आप Google ग्रुप्स या ऐसे
ग्रुप को देख सकते हैं जहां पर प्रभूत ज्ञान राशि इकट्ठा हो गई है।
मैं भी लिखता हूँ। वही लिखता
हूँ, जो ज्ञान आज भी जरूरी है
और कल भी रहेगा। यदि आप शिक्षित हैं तो आप भी लिखिए, शाश्वत
काम आने वाली बातें। शाश्वत ज्ञान। किसी के काम आयेगा।
संस्कृत क्षेत्र में अभिनन्दन
या स्मृति ग्रन्थ लिखने की परम्परा है। यदि अभिनन्दनीय व्यक्ति जीवित रहा तो स्वयं
के खर्चे या पदासीन व्यक्ति कभी-कभी सरकारी पैसे से प्रकाशित कराता है। इसके
द्वारा किसी विद्वान् के व्यक्तित्व तथा कृतित्व से लोगों को परिचित कराया जाता
है। जो लेखक जिनसे जुड़ा या प्रभावित रहता है, वह उनके बारे
में लिखता है। अनेक अभिनन्दन ग्रन्थों को देखने के पश्चात् ऐसा लगा कि सम्पादक या
प्रकाशन समिति लेखकों के विद्वता पूर्ण लेख को भी प्रकाशित कर देते हैं,जिससे अभिनन्दनीय या स्मरणीय व्यक्ति का कुछ भी लेना देना होता है। कुछ
अभिनन्दन ग्रन्थों की सूची अधेलिखित है-
15 September 2018 at 16:14
आचार्य युगलस्मृतिग्रन्थः । केशव
शर्मा । 2008
गोपीनाथ कविराज अभिनन्दन
ग्रन्थ । गोपीनाथ कविराज । 1968
डॉ0 वी0 राघवन स्मृति ग्रन्थः । वी0 सुब्रह्मण्यम् शास्त्री । 1983
पाण्डुरंगस्मरणम् । भि0 वेलणकर । 1980
प्रणामाञ्जलिः । ए.वि.
नागसम्पिगे । 2015
प्रशस्तयः । शालिग्राम
शास्त्री । 2015
भास्कर राय भारती दीक्षित
व्यक्ति। बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते । 1993
मंजुनाथ वाग्वैभवम् । मंडन
मिश्र । 1990
महामहोपाध्यायचिन्नस्वामिशास्त्रिण।
पट्टाभिराम शास्त्री । 1990
लक्ष्मीकान्तयशोभूषणम् ।
सुरेन्द्र पाल सिंह । 2014
विश्वदृष्टि । वि0 वैंकटाचलम् । 1993
विश्वदृष्टि डा0 सम्पूर्णानन्द स्मृति वि0 वैंकटाचलम्
। 1993
विश्वमूर्तिवैभवम् । आचार्य
विश्वमूर्ति शास्त्री । 2015
शशिगौरवामृतम् । शशिधर शर्मा
। 1988
श्रुतिनैवेद्यम् । प्रवेश
सक्सेना । 2006
हिमांशुश्रीः । विन्ध्येश्वरी
प्रसाद हिमांशु । 2005
DrSurendra Kumar Pandey Jha
ji
Yah bhi kid lijiyr
Sahitya Sevadhi = Dr S K
Pandey
( Pro Suresh Chandra Pande Abhinandan Granth )
Ichchha Ram Dwivedi पूर्णमदः पूर्णमिदम्। आचार्य इच्छाराम द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ 2012
अभिषेक प्रकाशन दिल्ली
जगदानन्द झा Ichchha Ram Dwivedi आदरणीय, अभिनंदन
ग्रंथों की सूची बहुत लंबी है, सोशल मीडिया पर रुक कर लोग
उतना नहीं पढ़ते। यहां सामान्य सूचना दी, ताकि नई पीढ़ी इस
विधा से परिचित हो सकें और शोध करते वक्त इन ग्रंथों से भी सहायता ले सके। आपने
टिप्पणी कर उत्साह बढ़ाया। मैं अपने ब्लॉग पर विस्तारपूर्वक संस्कृत के विद्वानों
के अभिनंदन ग्रंथों के बारे में एक लेख लिखूंगा।
Karuna Lahari is feeling sad
with Amoda Acharya and 5 others.
15 September 2018 at 14:48
तो क्या मान लूँ कि अब एक
ऐतिहासिक युग का अवसान हो गया? आपने इस सोशल
मिडिया को संस्कृत की धारा से जोड़ते हुए एक नया आयाम स्थापित किया है। आपका हर
पोस्ट हमारे जैसे हजारों लोगों में तूफानी जज्वा पैदा करता है। हम आपको यूँ ही
मरने नहीं देंगें। मैं सोचती हूँ, जिसने इतने अनगिनत काम
किये, वह यूँ ही हार नहीं सकता। आपको जरूर गिरोहबंद लोगों ने
हराया होगा। हम आपको हारने भी नहीं दूँगी। आजतक आप हमारे आवाज थे अब मैं आपकी आवाज
बनूँगी। जब से यह Post देखी हूँ, मन
बेचैन हो गया है। मैं तो कहूँगी, आप लौट आओ। लौट आओ, मेरे मार्ग दर्शक। इसलिए भी आपको लौटना होगा ताकि कल दुनियाँ यह नहीं कहे
कि संस्कृत का अलख जगाने वाला एक महान् क्रानितदर्शी भी हार सकता है। यह आपका
अवसान नहीं, आने वाली संस्कृत भाषा और समाज का अवसान होगा।
फिर कोई भी जगदानन्द बनाना नहीं चाहेगा।
#जगदानन्दझा की
वॉल से यह दुखदीयी खबर मिली-------
संस्कृत के कारण 22 अगस्त
2018 तक जो लोग मुझसे जुड़े थे कृपया मेरी बात सुनें -
संस्कृत को लेकर मेरी जो
अवधारणा थी वह गलत साबित हुई। मैंने लगातार 15 दिनों तक चिंतन मनन कर यह विनिश्चय
किया कि अब तक जो कुछ किया, वह उस समाज को समर्पित कर
तटस्थ हो जाऊं। इसके बाद मुझे यहां से जुड़ाव नहीं रखना। अब मेरे मस्तिष्क में
संस्कृत को लेकर कोई भी विचार नहीं पनपता है। आपको जो कुछ दिख रहा है, वह मेरा मनोरंजन मात्र है। इसमें मेरी कोई अवधारणा नहीं होती।
संस्कृतज्ञों से मिलने, सभा संगोष्ठी में जाने, संस्थाओं के प्रति जिज्ञासा सब कुछ बंद कर आम जीवन जीना जीवन का ध्येय है।
संस्कृतम् मेरे लिए सूचना मात्र है। अब संस्कृत के निमित्त मुझसे संपर्क करना
बेकार है। मैं अब इस क्षेत्र में सक्रिय नहीं हूं और होना भी नहीं चाहता। संस्कृत
से जुड़े हुए हरे लोगों के प्रश्नों का एक ही उत्तर है - नमस्कार। अलविदा।
12 September 2018 at 07:57
अभी हाल में ही मुझे पता चला
कि मैं विगत दिनों जो कुछ कर रहा था उसमें से बहुत सारे कार्य अनावश्यक व
मूल्यविहीन थे। अतः उनका परिणाम शून्य अथवा नकारात्मक था। मैंने उसमें सुधार लाना
आरंभ कर दिया है।
7 September 2018
साहब अब मैं क्या क्या कहूँ?
तुम बुद्धिजीवी को परदेशी बता
देते हो। नौकरी हो या देश सभी जगह रोहिंग्या टाइप के लोगों को शरण दे देते हो। साथ
दूँ तब भी, न दूँ तब भी हमारे साथ
तुमने जो व्यवहार किया, वैसा जंगल में भी देखने को नहीं
मिलता। अपनी मनमर्जी के लिए कोई न कोई बहाने ढ़ूंढ़ ही लेते हो। बस अपना काम निकलना
चाहिए। तुम्हें कुछ लाभ मिलना चाहिए। चाहे जिसके गले को रेतकर अपना स्वार्थ पूरा
हो रहा हो, तुम कभी नहीं चूकते। हम अल्पसंख्यक हैं साहब।
बुद्धिजीवी ढ़ेर सारा बच्चा पैदा करना नहीं जानता। यदि इस सब काम में लगे तो ज्ञान
साधना छूट जाएगा। अपने हितों की रक्षा के लिए अब बुद्धिजीवी आपसे लड़े या अपना
कुनबा बढ़ाये या बौद्धिक काम करे। आपने तो हमें गुलाम बना रखा है साहब। जब चाहो
प्रयोग कर लो, जब चाहे दुत्कारो।
तुम हमेशा जीत जाते हो साहब।
जब से पैदा हुआ,यही सब देख रहा हूँ।
5 September 2018
जय मैकाले, जय शिक्षक
दिवस । (शेष भाग ब्लॉग पर है)
Attri BL ये
विद्वाता की टेंशन का परिणाम है वरना मैकाले को कौन महान बताएगा । महंगे मिशनरी
स्कूल, देशी पब्लिक स्कूल, एडिड स्कुल,
सरकारी स्कूल जैसी असमान और निर्धन भारतीयों के शोषण की शिक्षा
प्रणाली दे गए वे । केवल नौकर पैदा करने की मशीन है आधुनिक शिक्षा प्रणाली ।
मैकाले की कृपा से दो सो सालों से नकली लोग पीएचडी कर रहे हैं, कुछ नेताओं की चंपी करके, कुछ प्रोफेसरों को तन मन
धन समर्पित करके । बुआ, माता,मामी,पतोहू,सौतेली माता,बहन,
आचार्य की पुत्री,आचार्य की पत्नी,अपनी पुत्री से सम्भोग करने पर गुरुपत्नी भोगी हमारे शिक्षा जगत् में
कितने ही भरे पडे हैं । याज्ञवलक्य ने लिङ्गं छित्त्वा वधस्तस्य की तो व्यवस्था की
थी । आज तो कोई रोने वाला भी नहीं है, हमारे शिक्षा जगत् में
कितने ही बलात्कारी, कदाचारी, दुश्कर्मी
हैं जिनका बाल भी बांका नहीं हूआ । ये तथाकथित उच्च सिक्षित भारतीय लाखों की
रिश्वतें देकर नौकरियां लेने का जुगाड़ में रहते हैं । अंग्रेजी माध्यम लागूकर
प्रतिभाशाली बच्चों का शोषण किया जा रहा है और मैकाले महान हैं । जिन स्त्रियों की
विरुदावली गा रहे हैं तो एक बार वेदमंत्रदृष्टा अपाला, आत्रेयी,
घोषा, उपनिषदों की मैत्रेयी गार्गी, रामकृष्ण बुद्ध की गुरुमाताओं का भी ख्याल कर लेते । संस्कृत के गौरीशंकर
से नीचे पाताल में जाने से पहले पृथ्वीवासियों का भी ख्याल कर लेते झा जी ।
जगदानन्द झा मैकाले ने
प्राइवेट और सरकारी स्कूल की बात नहीं की। यह तो उन प्रज्ञा पुरुषों का कमाल है
जिन्होंने गुरुकुलों में सभ्य समाज को शिक्षा देता रहा। आज भी महंगे स्कूल उसी का
बदला हुआ प्रतिरूप है।
4 September 2018
जरुरत से ज्यादा अच्छा होना
भी कई बार आपको मुसीबत में डाल सकता है।
Madhav Prasad Shastri सत्योक्क्ति: श्रीमताम् । मयाप्यनुभूतम् यत् - जंगल के सीधे वृक्ष
सर्वप्रथम काटे जाते हैं, टेढे वृक्ष को कोई नहीं छेडता ।
BuddhaDev Sharma
नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
सरलास्तत्र भिद्यन्ते
कुब्जास्तिष्ठन्ति केवलम्।।
4 जून 2015
अनुसंधान प्रविधि पर लिखित
प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र की पुस्तक
शोध प्रविधि एवं पाण्डुलिपि विज्ञान, म.म. वागीश शास्त्री की अनुसंधान-सम्पादन प्रविधिः,
प्रो. प्रभुनाथ द्विवेदी की संस्कृत शोध प्रविधि एवं डा.
नगेन्द्र की अनुसंधानस्य प्रविधिः प्रक्रिया पुस्तक पढने का सुअवसर मिला।
अनुसंधान-सम्पादन प्रविधिः पुस्तक की प्रवाहमयी भाषा,
विषयोपस्थापन, विषय की समग्रता निःसन्देह सर्वोत्तम है। अनुसन्धित्सु को
चाहिए कि अनुसंधान के पूर्व इस पुस्तक को एक बार अवश्य पढे।
अनुसंधान-सम्पादन प्रविधिः
में लेखक किस प्रकार के सार गर्भित भाषा का उपयोग करते हैं एक नमुना
देखिये-कस्यापि गभीरकार्यस्य मूल्यनिर्धारणे स्वोपज्ञता समुत्कृष्टो निकषः।
1 जून 2015
संस्कृत में सद्यः प्रकाशित एक उपन्यास की भाषा देखिये-
1-वेदिकां निर्माय अग्नेः समक्षम्। 2-परमां आपदां जनयति। 3-
सन्दर्भेस्मिन् नाहं सहमता। 4- चत्वारः होरारात्रिः। 5- पूर्वं मद्यमियं पिबतु।
6-शीघ्रमायास्यामि।
Rajkumar Mishra
कितना तेजस्वी प्रयोग है रचनाकार का जो पाणिनी को भी अपने
ज्ञान पर विचार करने हेतु विवश कर रहा है । नये-नय़े पाणिनी का स्वागत है इस अपार
संसार में ।
शिवराज आचार्य कौण्डिन्यायन
संस्कृतभाषाप्रयोगे दौर्बल्ये सत्यपि संस्कृतप्रयोगे
उत्साहः प्रशंसनीयः । उपन्यासकारः स्वकीयं संस्कृतभाषाज्ञानं वर्धयतु ।
1 जून 2015
विद्वान्सः संशयात्मानः प्राकृता दृढनिश्चयाः।
मतमेकं हि मूर्खाणां विदुषाञ्च सहस्रशः।।
29 मई 2015
प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र ने बाल साहित्य लेखन में अनेक
नूतन प्रयोग किया है। अभिराज गीता में अक्षरगानम्, पहाडे,मधुमक्षिका आदि पर सरस संस्कृत में कविता लिखी है। नौ कथाओं का संकलन #छिन्नमस्ता
किस्सागोई (कथा ) की मिसाल है।
प्रेम शङ्कर शर्मा
अवर्णनीयो ह्यभिराजमिश्रो,
गुरुर्मदीयो विदुषां कवीनाम् |
विराजते संस्कृत-सेविनां सः,
राजेन्द्र एवास्ति यथैव नाम ||
29 मई 2015
e कार्यशाला के आयोजन के लिए उत्तर प्रदेश
संस्कृत संस्थान से जून के प्रथम सप्ताह
5,6,7 जून 15 में तीन दिनों के लिए निःशुल्क वाचनालय का कक्ष मांगा हूँ ,जो विचाराधीन है।
सम्भव है दि. 4 या 5 जून 15 को अनुमति मिले। कक्ष हेतु
प्रार्थना पत्र 21 मई 15 को दिया गया।
शिवराज आचार्य कौण्डिन्यायन
गावंगांव के पण्डित पुरोहितों को संस्कृत प्रचार का
प्रशिक्षण देना चाहिए। वे अपनेअपने शिष्य यजमानों को और उनके घरके जनों को कर्मकाण्ड
में प्रयुक्त पदार्थों के वाचक संस्कृत पदों का ज्ञान दें । ऐसा कार्यक्रम होना
चाहिए ।
29 मई 2015
25-30 वर्षों से पढ-पढा
रहे विषयों के चर्वित चर्वण का दौर जारी है। समाज में संस्कृत के लिए सकारात्मक
माहौल बनाने के बजाय व्याख्यान, गोष्ठी और कार्यशाला का आयोजन सिर्फ वायोडाटा को भारी भरकम बनाने की कवायद
जिसमें प्रायः वक्ता के अतिरिक्त अन्य कोई लाभार्थी भाग नहीं लेते। सारे वक्ता
वर्षों से इसी एक उद्यम में लगे हैं। ज्ञात विषयों पर निरर्थक आयोजन। हासिल क्या
हुआ? निरन्तर पढने वालों का अभाव होता जा रहा है। इसमें भाग
ग्रहीता को एक प्रमाण पत्र मात्र हासिल होता है, जो उन्हें
प्रोन्नति और पुरस्कार दिलाता है। इतिहास और वर्तमान साक्षी है अध्यापक पद और पुरस्कार के दौर में शामिल न होकर
संस्कृत को जीवित बनाये हुए हैं। आइये इस ग्रीष्मावकाश में एक नया शिष्य ढूँढें।
उसे ज्ञान राशि से अभिषिंचित करें।
माध्यमिक और उच्चतर
माध्यमिक कक्षाओं के परिणाम आ गये। अब बारी है प्रवेश की। हम एक अभियान चलायें
। उच्चतर माध्यमिक कक्षा में संस्कृत विषय
लेकर पढे अपने क्षेत्र के छात्र छात्राओं की सूची तैयार करें। उन्हें स्नातक में
संस्कृत विषय लेकर पढने के लिए प्रोत्साहित करें। अपने क्षेत्र में व्याख्यान, गोष्ठी और कार्यशाला करने के बजाय ऐसे छात्रों के लिए
कौंसलिंग का आयोजन करें। उनके परिवार के
सदस्यों से मिलें। यह एक मौका है,जो वर्ष में एक ही बार मिलता है। यह चुनौतीपूर्ण कार्य हमसे
हो सकता है।
नव लता
प्रवेश के समय संस्कृत
विषय चुनने के लिये महाविद्यालयप्रशासन के स्तर से यदि कुछ प्रोत्साहन तथा प्रवेश
समिति को कुछ स्वातन्त्र्य दिया जाये तो कुछ सफलता मिल सकती है। तथापि अपने अपने
स्तर से प्रयास अवश्य करना चाहिए।
डॉ अनिल कुमार
ऐसा चाहते तो सब हैं
परन्तु करेगा कौन ? क्या हम अपने आस-पास पता कर सकते हैं कि ऐसे कितने छात्र
हैं
जगदानन्द झा
यदि आपके लिए शिक्षा का
लक्ष्य सिर्फ धनार्जन है तो कोई अन्य अर्थकरी विद्या पढकर पुनः मानवीय गुण पाने के
लिए संस्कृत पढें। जाहिर है संस्कृत पढकर आप न तो बैरा बन सकते हैं न कुक।
DrSurendra Sharma
Sir ji jb roj subhah hamari school staff teem canbance k
liye jati h to y hi jbab mlta h aapke es jbab se koe. Nhi ghukega Sanskrit log
jb padege tb esme rojgaar badega
28 मई 2015
आज कल उच्च शिक्षा के क्षेत्र में गोष्ठी और कार्यशालाओं के
आयोजन पर जोड है। अच्छी बात है। काशी में मूल ग्रन्थ को गुरुमुख से पढने की
परिपाटी है,जो बाद में पुस्तक के कलेवर में प्रकाशित होता है। सबको ज्ञात है उच्च शिक्षा
में छात्रों की संख्या नगण्य है। प्राथमिक और माध्यमिक में कम छात्र होने का रोना
रोते है। जब आपके पास पढने वाला ही न हो तो किसके लिए साज श्रृंगार?
???? ऐसा भी करें- - छात्र संख्या बढाने के लिए जनजागरुकता के
कार्यक्रम भी करें।
आज गोष्ठी और
कार्यशालाओं बजाय आवश्यकता है उच्च शिक्षा
के छात्रों के संरक्षण और उचित मार्गदर्शन का। एक तो शहरी क्षेत्र के बच्चे
संस्कृत पढते नहीं जो पढते भी हैं, उन्हें संरक्षण नहीं मिल पाता,
ताकि वे इस क्षेत्र में नौकरी की आस में टिके रहें। अब माला पहनने- पहनाने के बजाय अपने सम्पर्क
स्थलों पर जाकर बच्चों को संस्कृत पढने की प्रेरणा दें।
28 मई 2015
आप जानते ही हैं मैं पुस्तकालयाध्यक्ष हूँ। रोज नई पुस्तकें
देखने को मिलती है। भ्रम तब होता है जब अनुवादक खुद को व्याख्याकार लिखते हैं। मूल
पाठ पर कार्य न करने के बाबजूद स्वयं को सम्पादक घोषित करते हैं। आखिर सीधे
अनुवादक क्यों नहीं लिखते?
Vedkant Sharma
उन्हे ऐसा ही करना चाहिये जैसा आप कह रहे हैं।
Vidyavaridhi Radheshyam Mishra
यदि अनुवाद के साथ बीच बीच में व्याख्या भी करते हैं तो
लिखने में परहेज ही क्या
जगदानन्द झा
व्याख्यात्मक
अनुवाद नहीं करते वरन् शब्दानुवाद को व्याख्या लिखते हैं।27 मई 2015
मैंने
25-5-2015 को ट्रेनों को नियत समय पर न
चलने एवं स्टेशन पर पीने का पानी उपलब्ध न
होने की पीडा व्यक्त की थी। आज हिन्दुस्तान दैनिक समाचार पत्र ने प्रमुखता से छापा
।27 मई 2015
संस्कृत के विज्ञजन, संस्कृत को सर्वसुलभ बनाने के लिए तकनीक का प्रयोग करें।
27 मई 2015
इन्टरनेट प्रशिक्षण कार्यशाला में भाग लेने के लिए आप सादर
आमंत्रित हैं।
इसके पाठ्यक्रम इस प्रकार हैं- कम्प्यूटर कन्ट्रोल पैनल,सर्च,यूनीकोड,यू ट्यूब,बेसिक ग्राफिक,विडियो/आडियो एडिटिंग,सोशल नेटवर्किंग, संस्कृत विकिपीडिया, ईमेल सम्पादन, कन्वर्टर(आँनलाइन/आँफलाइन)
डिवाइस के प्रयोग में दक्षता आदि।
तकनीक प्रिय,
संस्कृत अध्येता, संस्कृत विषयों पर लेखन करने वाले,
संस्कृत को सर्वसुलभ बनाने के इच्छुक व्यक्ति इन्टरनेट
प्रशिक्षण कार्यशाला में भाग लेने के लिए सादर आमंत्रित हैं। सम्भावित तिथि - 5,6,7 जून 15 स्थान- उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान,लखनऊ। #योग्यता- संस्कृत विषयों में एम. ए. या आचार्य। सम्पर्क-9598011847
क्या आप लेखक है? क्या आप अपने लेखन को सर्वसुलभ बनाना चाहते हैं?
क्या आप अपने लेखन को पहचान दिलाने के इच्छुक हैं?
एक समाधान --इन्टरनेट प्रशिक्षण कार्यशाला में भाग लेने के
लिए आप सादर आमंत्रित हैं।
सम्पर्क-9598011847 कोई फीस नहीं ली जाएगी।
संस्कृत के साथ आम समस्या यह है कि जो योग्य हैं और जिनके
पास देने के लिए पर्याप्त ज्ञान है, उन्हें तकनीक की जानकारी नहीं है,
जिन्हें तकनीक की जानकारी है उनके पास देने के लिए बहुत कुछ
नहीं है।
26 मई 2015
e कार्यशाला के आयोजन के लिए उत्तर प्रदेश
संस्कृत संस्थान से जून के प्रथम सप्ताह में तीन दिनों के लिए निःशुल्क वाचनालय का
कक्ष मांगा हूँ साथ ही इस प्रकार की गतिविधि संचालित करने के लिए स्वयं के लिए
अनुमति भी। आशा है, अनुमति मिल जाएगी।
e- कार्यशाला का पाठ्यक्रम तैयार है। अच्छे
परिणाम या जल्द सीखने के लिए 3G नेट सुविधा युक्त लैपटाप साथ
में लायें।
जगदानन्द झा
लखनऊ में आकर तीन दिनों (5,6,7 जून) तक भाग ले सकेंगे।
26 मई 2015
काश! केन्द्र सरकार ट्रेनों को नियत समय पर चला पाती।
स्टेशन पर सभी को पीने का पानी उपलब्ध करा देती।
22 मई 2015
कल नोएडा में छात्रों की एक प्रतियोगिता है.जिसमें मैं भी
उपस्थित रहूँगा।
21 मई 2015
शास्त्रीय ज्ञान धारण करने वाले व्यक्ति वनाम प्रेरक
व्यक्ति,
श्रेष्ठ कौन?
डॉ. अरविन्द कुमार तिवारी
सर्वैरपि साधु प्रोक्तम्। किन्तु प्रेरकस्यापि
शास्त्रीयज्ञानमावश्यकम्। तदभावे प्रेरकता कुत:॥ --योजकस्तत्र दुर्लभ:॥
Acharya Omhari Sharma
श्रीमद्भागवत के अनुसार मात्र शास्त्रीय ज्ञान को धारण करने
वाला प्रेरणा शून्य व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं हो सकता उसे तो ज्ञानखल कहा गया है
21 मई 2015
लखनऊ में शीघ्र एक त्रिदिवसीय वैद्युदाणविक कार्यशाला का
आयोजन किया जाना प्रस्तावित है। उद्देश्य है संस्कृत से जुडे लोगों को इन्टरनेट के
प्रयोग तथा यहाँ उपलब्ध संस्कृत विषयक सामग्री से परिचित कराना। मात्र 10
व्यक्तियों के लिए। जानने व सीखने के इच्छुक को कम्प्यूटर
चलाने का ज्ञान अपेक्षित। और अधिक जानने एवं प्रतिभाग के लिए लखनऊ के इच्छुक व्यक्ति 9598011847
पर सम्पर्क करें।
त्रिदिवसीय वैद्युदाणविक
कार्यशाला का कोर्स गहराई से ज्ञान और कौशल प्रदान करने के लिए
बेहद अनुभवी पेशेवरों की एक टीम द्वारा तैयार की गई है। पूरा पाठ्यक्रम बड़े पैमाने पर इस तंत्र
में विशेषज्ञता हासिल करने के लिए आवश्यक
सभी विषयों को शामिल किया गया है।
त्रिदिवसीय वैद्युदाणविक
कार्यशाला में आज इस्तेमाल हो रहे तकनीकि को विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला में
शामिल किया गया। हम संस्कृत क्षेत्र के वर्तमान और भावी विकास के
ढांचे को गहराई को समझाने के साथ नवीनतम किये जा रहे प्रयोग से शुरू करेंगें। इसके
अलावा,
हमारे प्रशिक्षक, आवश्यक कौशल से लैस होगें, और आपको बाजार के लिए तैयार कर देगें। यह कार्यशाला आपको
सुविधा संपन्न तथा नेट पर लिखने के लिए सक्षम बना देगी।
19 मई 2015
काशी जाकर आज ही लौटा हूँ। उपहार में बहुमूल्य पुस्तकें
मिलीं। मन गदगद हुआ। गंगा तट स्वच्छ दिखा, सुबह शाम काफी चहल पहल। ज्ञान की धरा काशी में गुरुओं और
मित्रों से मिलने का जहाँ वर्णनातीत आनन्द है, वहीं वहाँ की अवस्थापन सुविधाएँ आज भी कष्टकारी है।
संस्कृत विद्यालयों के नियुक्तियों में धनबल के प्रयोग,
भाई भतीजावाद के आरोप, हर संस्कृत बेरोजगार युवक के मुँह पर उदासी क्या क्या नहीं
देखने सुनने को मिला। क्या हो गया काशी को?
पर काशी अब, अभी भी न्यारी है। वेदों की ध्वनि,
अनुशासित स्नातक, प्रवचन प्रिय विद्वद्गण, ज्ञान पिपासु विदेशी इसे सबसे अलग करते हैं।
14 मई 2015
मित्रों-
मेरा मोबाइल कल 13-5-15 को सायं 6.15 पर लखनऊ में चोरी हो गया। इसमें 9598011847
तथा 7784942287 नं. थे। अतः फिलहाल सम्पर्क नहीं हो सकेगा।
संस्कृत सर्जना ई पत्रिका को ई ISSN
सं. आवंटित कर दी गयी। इसकी सं. है ISSN 2395-5910 संस्कृत सर्जना।
12 मई 2015
लखनऊ में अभी अभी भूकम्प आया।
10 मई 2015
अव्वल तो यह कि भारतीय अवधारणा में
माता और पिता को अलग - अलग देखा ही नहीं जाता । सीता राम,
शिव पार्वती आदि। स्मरण, वन्दन और पूजन के
साहचर्य भाव साहित्यिक ग्रंथों में भी सहज देखे जाते हैं । इसके पीछे गहरे
निहितार्थ हैं, जो हमें अन्य परम्पराओं से श्रेष्ठता का बोध
कराता है । अब हम इस नयी आयातित परम्परा का गुणदोष उन्हें कतई नहीं सिखा सकते,
जो भारतीय दाम्पत्य व्यवस्था में खुद को असहज पाते हो। मेरी मां जब
खुद को एकाकी पाएगी तो ----
10 मई 2015
वृक्षमूलेपि दयिता यत्र तिष्ठति
तद्गृहम्।
प्रासादोपि
तथा हीनोरण्यसदृशः स्मृतः।।शत्रोरपि गुणा वाच्या दोषावाच्या
गुरोरपि।
युक्तियुक्तं वचोग्राह्यं न वचो
गुरुगौरवात्।
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा
भार्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं
तत्र वै ध्रुवम्।।
सा भार्या या प्रियं ब्रूते स
पुत्रो यत्र निर्वृतिः।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो
यत्र जीव्यते।।
9 मई 2015
अत्यादरो
भवेद्यत्र कार्यकारणवर्जितः ।
तत्र
शंका प्रकर्तव्या परिणामेsसुखावहा ॥
7 मई 2015
यस्य
भार्या शुचिर्दक्षा मिष्ठान्नप्रियवादिनी ।
आत्मगुप्ता
भर्तृभक्ता सा श्रीरित्युच्यते बुधैः।।
6 मई 2015
यह
शिक्षा द्वारा प्रसृत संस्कारों की कमी ही है कि जीव हत्या जैसे पाप हो जाने के
बाद भी प्रायश्चित्त नहीं करते ।
6 मई 2015
मुझे
लगता है कई मामले में आज की न्याय
व्यवस्था से ऋषियों द्वारा निर्मित प्रायश्चित्त व्यवस्था कम खर्चीला,ज्यादा नैतिकपूर्ण और दोषी को ज्यादा विवेकशील बनाता था।किसी के द्वारा
दोष सिद्ध किए जाने की प्रतीक्षा तथा बचाव के तमाम उपाय से अलग स्वशासन की उच्च
अवधारणा विकसित थी। जीवों के प्रति समदृष्टि आदि सद्गुण के विकास के लिए संस्कृत साहित्यों को पढ़ते रहें
।
4 मई 2015
जब
मेरा मन अशांत होता है,
भगवान बुद्ध के पद्मासन मुद्रा को देखता हूँ, मन में असीम शान्ति छा जाती है ।
3 मई 2015
अधिकांश
संस्कृत प्रेमी मायूस होते है, जब उन्हें
अन्तःसंजाल पर संस्कृत विषयक इच्छित सामग्री नहीं मिलती । जब हम अन्तःसंजाल पर
सामग्री उपलब्ध ही नहीं करायेंगे (नहीं डालेंगे) तो मिलेगा कैसे? अन्तःसंजाल पर अपना ब्लाग,
बेवसाइट बनाकर, संस्कृत विकिपीडिया पर लिखकर हम संस्कृत की उपलब्धता
बढ़ा सकते हैं । एतदर्थ आप अपने मित्रों तथा मुझसे भी सहयोग ले सकते हैं ।
सोशल
मिडिया पर लेखन के साथ-साथ कुछ स्थायी काम करना भी सहज और आसान है । आज और आने
वाले समय में किसी पुस्तक के प्रिंट प्रकाशन से यह ज्यादा उपयोगी और सर्व सुलभ
होगा । मैं ऐसा करते रहता हूँ अतः यहाँ आपसे भी आग्रह कर रहा हूँ ।
एक
उदाहरण सामने है - मैंने अपने पुस्तकालय
के सभी पुस्तक और उसके लेखक का नाम अपने ब्लाग पर डाला। कर्मकांड,
ज्योतिष, धर्मशास्त्र, आधुनिक विद्वानों की जीवनी आदि ।
आप देवनागरी में जब कोई पुस्तक खोज करते हैं तो मेरा ब्लाग खुलता है - sanskritbhasi.blogspot.in
30 अप्रैल 2015
आत्म
प्रचार हो पर संस्कृत के प्रचार प्रसार को प्रोत्साहित करते रहें।
सन्तोष
कुमार चौबे
कहां
से होगा संस्कृत का प्रचार?जिस मोदी सरकार से
उम्मीद थी उसी ने द्वितीय संस्कृत आयोग भंग कर दिया।इस पर आर ए स एस भी चुप है।
जगदानन्द
झा
प्रथम
संस्कृत आयोग से क्या मिला? इसके सदस्य व्यावहारिक
संस्कृत के क्षेत्र में क्या अनुभव और उपलब्धि प्राप्त थे? क्या
वे कभी जनाकांक्षा का प्रतिनिधित्व किए थे?
सन्तोष
कुमार चौबे
१५
अक्टूबर १९७०में जिस राष्ट्रीयसंस्कृतसंस्थान की स्थापना हुई उसका श्रेय प्रथम
संस्कृत आयोग को ही जाता है। अनेक सर्वे करके कुछ तो होता। अनेक राज्यों में सरकार
होने के बाद भी बी जे पी ने संस्कृत के लिए किया क्या?
सन्तोष
कुमार चौबे
बहुत
सारे लोग अनुभव व उपलब्धि प्राप्त करके भी अन्तत:परिवार वाद में लिप्त हो
गये।संस्कृत पर अब जो भी होगा विदेशी ही करेंगे।हम केवल नारा लगायेंगे कि भारत
जगद्गुरु था ।संसद में शपथ लेगे संस्कृत में वोट के लिये।
29 अप्रैल 2015
संस्कृतसर्जना के लिए अब तक 3 व्यक्तियों ने मेरे
न चाहते हुए भी धन दे दिया । एक विदुषी ने लेखकों के लिए वार्षिक पारितोषिक देने
का संकल्प लिया हुआ है । सर्जना के कार्य में मैं स्वयं व्ययभार वहन करने हेतु
संकल्पित हूँ । अब अतिरिक्त धन तो सिर्फ पारितोषिक देने के कामों में ही आ सकता है ।
उद्देश्य
पवित्र हो तो ईश्वर योगक्षेम की व्यवस्था
स्वयं करते हैं । संस्कृतसर्जना के हर संकल्प के साथ विना मांगे धनवर्षा
होती रही है । वैसे इसमें स्वैच्छिक सेवकों के कारण अधिक धन की आवश्यकता ही नहीं
होती ।
28 अप्रैल 2015
लखनऊ
के न्यू हैदराबाद में संस्कृत का एक समृद्ध सार्वजनिक पुस्तकालय है । विना किसी शुल्क के 10-30
AM से 4-00 PM तक आप यहाँ पढ़ सकते हैं ।
उत्तर
प्रदेश संस्कृत संस्थान के इस पुस्तकालय में 20 हजार
से अधिक मुद्रित पुस्तकें 8 हजार पाण्डुलिपियाॅ हैं । यहाँ 30
पत्र-पत्रिकाएँ नियमित आती हैं ।
संस्कृतसर्जना पत्रिका हैकर्स का ध्यान भी अपनी ओर खींचता है । अभी इसका साइट हैक किया
हुआ है ।
एक
बार मैंने संस्कृत के भद्रजनों से पत्रिका की ग्राहकी पर प्रतिस्पन्द लिया था।
निष्कर्ष निराशाजनक निकला । दरअसल मैं भ्रम में था कि एक पत्रिका विशेष में लोग
अंक या धन पाने के लिए के लिए लिखते भर हैं । यहाँ तो पत्रिका को खरीद कर पढ़ने का
चलन ही नहीं है ।
27 अप्रैल 2015
मैंने अपने जीवन में अनगिनत संस्कृत नाटक देखा
। भारी भरकम खर्च वाले नाटक देखा, परन्तु एक कल का
नाटक और एक राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के छात्र, छात्राओं
द्वारा मंचित सत्यहरिशचन्द्रोपाख्यान नाटक
मुझे प्रभावित कर गया। वैशाखो
अभवत् श्रावणः के सम्बाद, कथानक, चरित्र
हरेक कुछ दमदार और जीवन्त थे।
डॉ. अरविन्द कुमार तिवारी
"श्रावण: अभवत्
वैशाख:" अस्य साफल्याय साधुवादा:॥ अस्य शीर्षकस्य विषयवस्तु संक्षेपण यदि
प्रकाशयन्ति चेत् दूरस्था अपि मग्ना भवेयुरिति।
26 अप्रैल 2015
रामानुजाचार्य
ने सभी के लिए समान धार्मिक अधिकार( सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः) की घोषणा की थी
। उनके जयंती के अवसर पर संस्कृत सर्जना
का दूसरा अंक प्रकाशित कर यह संदेश दिया गया कि संस्कृत भाषा पर सबका समान अधिकार
है । online
संस्कृतसर्जना पढ़िये।
संस्कृत
सर्जना पत्रिका देश के कोने कोने में धूम मचा रखी है । जाने माने संस्कृत के
विद्वान प्रो हरेराम त्रिपाठी भी इसके पाठक हैं ।
26 अप्रैल 2015
संस्कृत
सर्जना का online संस्करण उस प्रश्न का
उत्तर है जहाँ यह आक्षेप लगाया जाता है कि संस्कृत कुछ वर्ग के लिए ही है । Online द्वारा संदेश है कि यह भाषा सबके लिए है ।
संस्कृत
कोई गुप्त विद्या नहीं है । इसे आप भी
संस्कृत सर्जना के माध्यम से जान सकते हैं ।
21 अप्रैल 2015
यशः
शेष संस्कृत कवि गोस्वामी बलभद्र प्रसाद शास्त्री की अंतिम रचना सतीशंकरम्
महाकाव्यम् की समीक्षा संस्कृत सर्जना पत्रिका के अप्रैल अंक में प्रकाशित की जा
रही है।21 अप्रैल 2015
मुझे
सादे कागज पर लिखना ज्यादा पसन्द है।
कुछ
लोग रंगीन कर दिये गये कागज पर लिखते हैं,जिसका
स्वरूप और सीमा सुनिश्चित या पूर्व निर्धारित रहता है।
20 अप्रैल 2015
मित्रों,
संस्कृत सर्जना पत्रिका अंक 2 के यूनीकोड
संस्करण में कुछ लेख पठानार्थ प्रस्तुत हैं। पुरातन अंक को Downlode करने एवं पढने की सुविधा उपलब्ध करा दी गयी। उन्नयन एवं असुविधा के बारे
में सुझाव की प्रतीक्षा में-
18 अप्रैल 2015
संस्कृत
सर्जना सदस्यों के लिए उपहार-
1-
जो छात्र संस्कृत
सर्जना पत्रिका के सदस्य हैं, वे इस पत्रिका
के के वर्ष 1 अंक 2 अप्रैल 2015
अंक में से कुल 5 संस्कृत लेखों को 1-1
मिनट का रिकार्डिंग 01
मई 2015 से 15 मई 2015
के मध्य कर WhatsApp सं0 7784942287 पर भेजें। कुल 50 प्रतिभागी के भाग लेने पर चयन
समिति द्वारा किये गये चयन के आधार पर 3 छात्र सदस्यों को
मिलेगा रु. 50-50 का टाकटाइम।
संस्कृत
सर्जना सदस्यों के लिए उपहार की घोषणा-
2- संस्कृत
सर्जना पत्रिका के वे सदस्य जो सेवा में हैं, वे भी उपहार के
योग्य होगें। सेवा क्षेत्र से जुडे व्यक्ति इस पत्रिका के वर्ष 1 अंक 2 अप्रैल 2015 अंक में से
कुल 5 संस्कृत लेखों पर अपनी ओर से समीक्षा लिखकर 01 मई 2015 से 15 मई 2015 के मध्य इस पत्रिका के प्रतिस्पन्द पर भेजें। कुल 20 प्रतिभागी के भाग लेने पर चयन समिति द्वारा किये गये चयन के आधार पर
1 ऐसे सदस्य को पत्रिका की ओर से उनका विजिटिंग कार्ड 500 प्रति प्रिंट कराकर उपहार स्वरुप दिया जाएगा। जिनके लेख छपे होगें उन्हें
उपहार का लाभ नहीं दिया जाएगा।
संस्कृत सर्जना में केवल सर्जना
के सदस्यों के ही लेख प्रकाशित किये जाते हैं।
इसमे शास्त्रीय शोध निबन्ध
प्रकाशित नहीं किये जाते।
जिन्होंने लोक में संस्कृत को
प्रतिष्ठित किया उनके संस्मरण इस पत्रिका में प्रकाशित किये जाते हैं।
संस्कृत
सर्जना पत्रिका देश के कोने कोने में धूम मचा रखी है । जाने माने संस्कृत के
विद्वान प्रो हरेराम त्रिपाठी भी इसके पाठक हैं ।
13 अप्रैल 2015
अद्य
डॉ. शोभा मिश्रामहोदयायाः विशेष पुरस्कारेण सम्माननम्। 2012
तमे वर्षे अनया लिखिता आचारप्रतिमानम् इत्याख्या कृतिः अधिकारिविद्वद्मिः विशेष पुरस्कारयोग्या घोषिता आसीत्।
आज
राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान लखनऊ परिसर में अम्बेडकर जयंती के उपलक्ष्य में एक
गोष्ठी का आयोजन किया गया । अम्बेडकर संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा बनाने के पक्षधर
थे ।
12 अप्रैल 2015
विगत 30 वर्षों से
पुस्तक, कलम मेरे प्रिय साथी रहे हैं । अब ये मेरे सर्वाधिक आकर्षण के केंद्र हैं।
11 अप्रैल 2015
संस्कृतजगति अधुनापि
प्रायः लेखनं नाम तपः पूतानामार्षवचनानां संग्रह एव भवति। संस्कृत सर्जनायां
शोधलेखाः नैव प्रकाश्यन्ते। स्वकल्पनाधारिता रचना लेखो वा प्रेषणीयः।
11 अप्रैल
2015
संस्कृतसर्जनायाः अङ्के
आवासीय संस्कृत विद्यालयानां परिचयः, प्रवेश प्रक्रिया, प्रवेशार्हता, नियमाः
एवं च शुल्कादि विषये लेखः आगमिष्यति।मन्ये
अनेन विद्यालयस्य प्रचारः भविष्यति येन तत्र योग्याः छात्राः पठिष्यन्ति।
10 अप्रैल 2015
संस्कृत विद्वानों
का हिन्दी के विकास और प्रचार नें महत्तर अवदान रहा है। आज भी संस्कृत विद्वानों
का एक बडा समूह हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के पल्लवन में प्रयत्नशील है, चाहें वह कवि सम्मेलन का मंच हो, मुखपुस्तक, ब्लाग आदि लेखन हो या प्रिंट। भाषाओं के विकास में संस्कृतज्ञ हमेशा
उदारमना रहें हैं।
जगदानन्द झा
Facebook पर हीं
देखें संस्कृतज्ञ अपनी संस्कृत रचना से ज्यादा हिन्दी कविताओं को Post करते
हैं।
Pradeep Kumar
Sharma
इस सन्दर्भ मे अपने
पिताजी के मित्र श्री शुक्ला जी का उल्लेख करूगा, उनके
श्री मुख से भारतम भारती सुना था.....होशियारपुर मे......भाषा का ओज और तेज उनकी
तपस्या को सार्थक कर रहा था! और.... पिताजी के धारा प्रवाह व्याख़ान....आज भी याद
किया जाते है!
Madhaveshwar
Choudhary
भवन्त:
संस्कृतज्ञा:। संस्कृते एव लिखन्तु।
9 अप्रैल 2015
हम यहां दृक्
पत्रिका के 28-29 अंक वर्ष 2013 की चर्चा कर रहें है, जिसके
पृष्ठ 218 पर डा0 हर्षदेव माधव का विशेष लेख छपा है। इस लेख में आधुनिक संस्कृत
साहित्य की वर्तमान स्थिति पर पीड़ा व्यक्त करते हुए साहित्यिक कृतियों पर दिये
जाने वाले पुरस्कारों, संस्कृत पत्रिका के प्रकाशन की
स्थिति, लेखन
में नवचेतना तथा संस्कृत सर्जकों के लिए
राष्ट्रीय मंच का अभाव जैसे कुछ गम्भीर प्रश्न उठाये गये हैं। दरअसल यह
पीड़ा तब आयी जब आलोचक नामवर सिंह ने संस्कृत को मृत भाषा कहा था।
मैं भी उत्कृष्ट मानकर पुरस्कृत की गयी कृतियों
की अबतक कितनी आवृति, समीक्षा तथा अनुवाद प्रकाशित हुए, इसपर आवाज उठा चुका
हूं।
8 अप्रैल 2015
अक्सर यह देखा गया
है कि पद के साथ पदस्थ व्यक्ति भी प्रबुद्ध और योग्य मान लिया जाता है। वह अचानक
पूज्य तथा मार्गदर्शक स्वीकृत हो जाता है । क्षेत्र जो भी हो।संस्कृत भी इससे
अछूता नहीं है ।अब यह तर्क न देने लगें कि
योग्य ही पदस्थ होते हैं ।
Rajkamal Goswami
Justice Katju ne to
pad ki garima ko dhul me mila diya. Unhone face book par ghoshit kiya k Gomans
khana chahiye aur khud khate bhi hain. Gandhi ko British agent aur Subhash ko
Japanese agent bataya. Ab isko kya kahenge. Supreme Court k retired Judge hain.
Kauvva bahut upar baith jaye to bhi Hans nahi ban sakta. Jha ji post bhagya se
milti , post charitra yogyata aur buddhimatta ki parichayak nahi hoti.
राजेश्वराचार्यः
संस्कृतम्
अकाट्य सत्य।
बहुत ऐसे हैं जो
विद्यार्थीकाल में दिनभर श्राद्धअन्न, पूजापाठ के पीछे
पीछे दौड़ते रहते थे, एक अक्षर भी नहीं पढ़ते थे। बाद में
घूस देकर और सोर्सपैरवी से पद पा गए। आज उनकी बल्ले बल्ले है। चहुँओर चमक रहे हैं।
ऐसे लोग विद्वान्
कैसे कहे जा सकते। उनके इतिहास को जानने की फुर्सत किसे है। पद दीखाई दे रहा है
न...। बस.. "पदेन प्रतिष्ठा" ।
हाँ.. पिछले जन्म का
प्रारब्धफल कहना चाहिए।
Vijay Vpsc
प्रबुद्ध तथा योग्य
ब्यक्ति से पद स्वयं प्रतिष्ठा पाता है जबकि अन्य पद पाने से योग्य एवं प्रतिष्ठित
होते हैं
आचार्य अरविन्द
पाण्डेय
गिद्ध बहुत ऊँचाई पर
उड़ता है, किन्तु
उसकी दृष्टि सडे़-गले माँस पर होती है, यही है आजकल का ऊँचे
दर्जे का भ्रष्टाचार ।
लीलाधर शर्मा
ते पदवृद्धा: सन्ति
। ज्ञानेन तु शिशव: एव सन्ति ।
जगदानन्द झा
मित्रों, क्या
आपको कुत्ते की आवाज में कोई संगीत का एहसास तो नहीं होता? क्या आप
वहाँ रुक कर उसे सुनते हैं, हाँ डरावने कुत्ते के बारे में आगाह
कर दिया जाता है ।
7 अप्रैल 2015
भारत में जहाँ गरीबी
है वहाँ के लोग शिक्षा को ज्ञान से अलग रोजगार के तौर पर देखते हैं जबकि जहाँ जीवन
की मूलभूत सुविधा उपलब्ध है वहाँ लोग रोजगार और ज्ञान को अलग अलग तौर पर लेते हैं
।
Pradeep Kumar
Sharma
उचित कथन है, भारत की ज्ञान व्यवस्था के अनेक बोद्धिक, सामाजिक और
राजनैतिक उद्हारण आज भी चित्रित है! जिन्हे समय समय पर श्रधांजलि दी जाती है! इसके
उल्ट समसामयिक व्यवस्था मे बोद्धिक, शैक्षिक और रोज़गार
मापदंड असंगत है! जीवनशैली और महत्वकांक्षा भी कुछ हद तक कारण हो सकते है!
5 अप्रैल 2015
एते बालकाः आंग्लविद्यालये पठन्ति परञ्च
अवकाशदिनेषु श्लोकानां अभ्यासं कुर्वन्ति।एतैः अद्य पर्यन्तं बहवः श्लोकाः
कण्ठस्थीकृताः।
Vidyavaridhi Radheshyam Mishra
हम संस्कृत सेवी लोग इतने रहस्य से क्यों
देखते है भाई।
जगदानन्द झा
5 कक्षापर्यन्तं विद्यालये संस्कृतं
नास्तीतिकारणात्।
चिन्तामणि जोशी
एते भारतीपुत्राः
4 अप्रैल 2015
चन्द्रग्रहणे प्रद्युम्नः द्यौः शान्तिः
मन्त्रं जयजीतौ मनोजवमतुलितबलधाममित्येकमेकं श्लोकं पठित्वा
चन्द्रग्रहणमवलोकितवन्तः।
Jyotishacharya DrMohit Shukla
आज सायं काल चंद्र ग्रहण के वक्त झा जी के
आंचलिक विज्ञान केंद्र में आने पर मुझे बहुत अच्छा लगा।
3 अप्रैल 2015
अपनी प्रशंसा सुनना अथवा करना किसे अच्छा
नहीं लगता? अपना फोटो देखना औरों को भी दिखाना सामान्य मानव का स्वभाव
है। अतः हम जहाँ भी होते हैं खुद के उत्थान में
(प्रचार में ) लगे रहते हैं, क्यों सच है न?
प्रो हरिप्रसाद अधिकारी
अच्छी बात है। परंतु प्रशंसा एक मजबूरी
है। देवता भी प्रशंसा से ही प्रसन्न होते हैं।
2 अप्रैल 2015
संस्कृते पत्रकारिता द्विविधात्मिका।1-
मुद्रणात्मिका 2- वैद्युदाणविकात्मिका चेति ।
2 अप्रैल 2015
संस्कृतसर्जना का द्वितीय अंक इसी अप्रैल माह में
आ रहा है। www.sanskritsarjana.in पर जाकर आप इसका सदस्य बनें। आपके
लेख पत्रिका में प्रकाशन के लिए सादर आमन्त्रित हैं ।लेख भेजने का ईमेल पता sanskritsarjana@gmail.com
Rajendra Tripathi Rasraj
क्या संस्कृत कविताये भी स्वीकार्य हैं!
1 अप्रैल 2015
क्योंकि------
1. जब तक गुरुजन अपने निवास स्थान के आसपास रहने बाले बच्चों और अभिभावकों से
संस्कृत पढने के लिए व्यक्तिगत तौर पर सजीव आग्रह नहीं करेंगें,
संस्कृत का भला होना सम्भव नहीं है. मंचीय उद्बोधन आखिर
किनके लिए?
2. हम पडोसियों को मेला, दुकान, वैद्य आदि के बारे में सविस्तार गुणगान पूर्वक बताते है, पर
संस्कृत के बारे में नहीं।
3. संस्कृत पर आश्रित होते हुए बहुतेरे संस्कृतज्ञ अपने पडोस
में हुए मांगलिक कृत्य (जैसै जन्मोत्सव ) का चित्र Fb पर लगाते हैं पर संस्कृत के कार्यक्रम में जाना भी उचित
नहीं समझते तो संस्कृत के कार्यक्मों का चित्र कहाँ से डालें।
नव लता
आचार्य सुभीर झा जी, किसी सीमा तक यह सत्य है कि संस्कृतजीवी संस्कृत के लिए
अग्रणी होकर उतना प्रयास नहीं कर रहे हैं जितना करना चाहिए,
किन्तु यह भी सत्य है,कि बहुत से लोग विना सम्यग् अध्ययन किेये यश अर्थ और
प्रतिष्ठा चाहते हैं। यह बात भी है कि नियुक्ति-तन्त्र के भ्रष्ट होने के कारण
योग्य लोगों को उचित स्थान नहीं मिल पाता। हमें कुण्ठा छोड़ कर विना आत्मप्रचार
किए अपने-अपने स्तर से संस्कृत की निधियों की रक्षा तथा लोक में प्रचार-प्रसार
करना चाहिए। विश्वविद्यालयविशेष के विषय में सोमनाथ जी की व्यथा पर जगदानन्द जी का
विचार यथार्थ है। किसी ने कहा है कि संस्कृत पढ़ने वाला भूखा नहीं मर सकता क्योंकि
उसमें असीम धैर्य होता है। जो संस्कृत पढ़ने से रोकते हैंं उनकी हम निन्दा तथा
सांस्कृतिक बहिष्कार करते हैं।
Kumar Shravan
sidhi baat
sanskrit madhyamik vidyalayo va sanskrit mahavidyalayo me nakal band ho va
niyuktiya ho iske liye sabhi ko aage aana hoga, hum kabhi bhi sanskrit ka uthan
nahi kar paayenge jab tak ki sanskrit madhyamik vidyalayo ki upeksha karenge,
ku ki bhrashtachar yaha per purna rupen vyapta ho chuka hai,
आचार्य अरविन्द पाण्डेय
हरिः ॐ ! यावद् भारतवर्षे संस्कृतं जीवितं तावदेव संस्कृतिः अपि जीविता।
देवभाषासंस्कृतं भारतदेशस्यात्मास्ति। सर्वे विचारयन्तु प्रायः सर्वे
क्रान्तिकारिणः संस्कृतज्ञा एवासन् । देवभाषानुरागिनाः वीरसुधीरविवेकवन्तश्च
भवन्ति। कथमपि सन्देहो न कुर्यात् । जयतु संस्कृतं जयतु भारतम् । नमो नमः।
Bhoopendra Kumar Sen
यावत् धर्मं बिलसति तावत् संस्कृतं विकसति
DrLaxmi Narayan Pandey
संस्कतज्ञ भी संस्कृत के लिए सहयोग नहीं करते ।अजीब सी कृतघ्नता है। संस्कृत
के विषय में बोलेगे तो जमीन आसमान एक कर देंगे, पर करने के नाम पर शून्य ।संस्कृत समर्थक दलों के शासन में भी
संस्कृत मरणासन्न है।
31 मार्च 2015
आदरणीया नवलता जी, डाॅ रेखा शुक्ला, डाॅ नलिनी शुक्ला, डाॅ कमला पांडेया आदि कवयित्रियों ने संस्कृत बालगीत लिखकर संस्कृत की सेवा की हैं ।नयी
पीढ़ी में डाॅ राजकुमार जी के की रचना से परिचित होने का सुअवसर मिला । बालगीत लेखन में इनका सत्प्रयास स्तुत्य है।
जगदानन्द झा
डयते कथमाकाशे !
मातर्मातर्भूमितलाद् रे !
डयते कथमाकाशे ?
यानं कौतुककार्यं कुर्वत्
सर्वेषामिह स्वान्ते ।।1।।
आलोके निपतति खलु सूक्ष्मं
मत्तो दूरगतं तत्
धरामुपरितोऽवतरद् मातः !
कियद् विशालं चैतत् ? ।।2।।
कथन्नु तिष्ठन्त्यस्मिन् याने
अभया यात्रिगणास्ते ?
को वा चालयिताऽस्य पुनर्भोः ?
ज्ञानं नहि मयि चास्ते ।।3।।
वीक्षन्ते किं नभोगतान् तान्
देवान् चाप्सरसस्ताः ?
कथय रहस्यं यानगतानां
शङ्का येन निरस्ता ।।4।।
जगदानन्द झा
इति राजकुमारस्य
Rajkumar
Mishra
धन्यां वाचमहं ददामि भवते काव्यप्रचाराय मे ।
डॉ. अरविन्द कुमार तिवारी
मम बालपाठशाला बहु शोभते विशाला इति गुरुवरगीतमपि रुचिकरम्। शोभनं गानमिदम्।
31 मार्च 2015
संस्कृत में बाल साहित्य अत्यल्प मात्रा में लिखे जा रहे है। बाल गीत हो या
बाल कथा इसमें बाल मन की सुलभ जिज्ञासा, कुतुहलता और शब्दों के चयन( की सीमा ) को ध्यान रखना पडता
है।
आजकल बच्चे दूरदर्शन पर Jungle
Book का कार्टून रूचिपूर्वक
देखते हैं।
परमादरणीय अभिराज राजेन्द्र मिश्र ने इसी जंगल की कहानी को लेकर संस्कृत में
पुस्तक लिखी है। पुस्तक का नाम कान्तारकथा है। यह बाल साहित्य का अनुपम निधि है।
30 मार्च 2015
मित्रों, आप जानते ही होगें कि हमारे जैसे कुछ साथी सोशल मीडिया पर
सोद्देश्य आये हैं, संस्कृत के प्रसार में अपना योगदान देने के लिए। हमें अपनी
बात रखने के लिए, अपने ही लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए अन्य भाषा के
संवाद समूहों या पत्रों पर आज भी निर्भर
रहना पडता है। हम कहीं तो स्वावलम्बी बनें। यहाँ सुअवसर है।
मेरी अवधारणा स्पष्ट है संस्कृताय हितचिन्तनम् । जिस मुद्दे से संस्कृत का हित
न हो रहा हो वह यहाँ पर मुझ जैसे को प्रभावित नहीं करता। आखिर,
हम दिनभर किनके-किनके गीत गाते रहते हैं?
कृपया दूसरों के निःशुल्क प्रचारक बनने के बजाय भारत की आत्मा का प्रचारक बनें
त के प्रसार में अपना योगदान देने के लिए। हमें अपनी बात रखने के लिए,
अपने ही लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए अन्य भाषा के
संवाद समूहों या पत्रों पर आज भी निर्भर
रहना पडता है। हम कहीं तो स्वावलम्बी बनें। यहाँ सुअवसर है।
मेरी अवधारणा स्पष्ट है संस्कृताय हितचिन्तनम् । जिस मुद्दे से संस्कृत का हित
न हो रहा हो वह यहाँ पर मुझ जैसे को प्रभावित नहीं करता। आखिर,
हम दिनभर किनके-किनके गीत गाते रह... और देखें
Jyotishacharya
DrMohit Shukla
संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है, जिसमें की गयी अधिकांश रचनाएँ सम्पूर्ण मानवों के हित के
लिए हैं। इसलिए ही संस्कृत के विद्यार्थी के विचार अत्यंत व्यापक होते हैं।
जगदानन्द झा
संस्कृत के एक विद्यार्थी से कल मुझे संदेश मिला । संदेश में 10 दूरभाष संख्या देते हुए वताया कि यदि किसी के पास फीस,
कापी और पुस्तक के लिए धन न हो तो इस नं. पर call
करें, इस मैसेज को अधिक से अधिक
फारवर्ड करें। मैंने पूछा क्या खबर पक्की है,
जांच लिया और संस्कृत के विद्यार्थियों के लिए भी सुविधा है?
उन्होंने कहा हाँ। जब मैंने जांच की तो सारे नं. बंद मिले।
सूचना गलत थी, गलत सूचना को प्रसारित करने का मुझसे भी अनुरोध था। दुःख है
मेरे लोग संस्कृत के जगह भ्रामक प्रचार में लगे मिले।Jyotishacharya
DrMohit Shukla
कोई भी मनुष्य आजीवन संस्कृत पढ़े तो भी वह संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान नहीं
हो सकता क्योंकि इसका साहित्य इतना अधिक व्यापक है,
हाँ कुछ ज्ञान संस्कृत की किसी एक विधा का कुछ सीमा तक
प्राप्त कर सकता है।इसलिए मैंने सुना है अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चुके एक विश...
और देखें
सत्यप्रकाश चौबे
ये उस विद्यार्थी ने कोई अच्छा परिचय स्वयंम व परिवार का नही दिया...
Vijay
Gupta Kesari
संस्कृत के विद्यार्थियों का नहीं अपितु जो संस्कृत जानता है उसका ही विचार
बहुत व्यापक होता है।
Jyotishacharya
DrMohit Shukla
मानव आजीवन एक विधार्थी ही होता है। जो अपने को ज्ञानी समझता है वो अहंकारी
होता है, क्योंकि ज्ञानी केवल परम ब्रह्म परमात्मा ही हैं।
Jyotishacharya
DrMohit Shukla
संस्कृत जानने वाला व्यक्ति भी संस्कृत का विद्यार्थी ही हुआ।
जगदानन्द झा
कृपया मुद्दे पर चर्चा करना उचित होगा कि 1.
हम सोशल मीडिया पर क्यों आये,
उद्देश्य क्या है? 2. जिन कारणों से आये उसे लेकर अवधारणा स्पष्ट है?
जगदानन्द झा
सूचना पर जल्द कैसे भरोसा कर आगे बढा देते है।
रामनरेश द्विवेदी
आपकी बात ठीक है पर संस्कृत की चिन्ता हम नहीं तो क्या विदेश के लोग या
संस्कृतेतर लोग करेंगे ।
Jyotishacharya
DrMohit Shukla
झा जी! इस संसार में सत्य और असत्य उसीप्रकार मिला है जैसे दूध में पानी इसलिए
विवेकी पुरुष वही है जो हंस की तरह सत्य रूपी दूध को परख कर ग्रहण कर ले और असत्य
को त्याग दे।
जगदानन्द झा
छल कपट से दूर संस्कृत के अपने भोले लोगों से मैं आशा रखता हूँ आपके सौजन्य से
वे हंस बनें तथा सत्य रूपी दूध को परख कर ग्रहण कर ले और असत्य को त्याग दे।
Jyotishacharya
DrMohit Shukla
संस्कृत ही वो भाषा है जो समग्र विश्व को पुनः एक सूत्र में पिरो सकती है।
"वसुधैव कुटुम्बकम्" संस्कृत में रचित सूक्ति की प्रसंशा आज समग्र विश्व
कर रहा है।इतनी व्यापकता अन्य कहीं नहीं है जितनी संस्कृत भाषा में है।
Basant
Tripathi
झा जी, आप के सत्प्रयत्नों के लिए साधुवाद । संस्कृत मानवता की
अमूल्य धरोहर है। जितनी हमारी संस्कृत में गति होगी,
उतना ही हमारा पथ प्रशस्त होगा।
डॉ. पल्लवी मिश्रा
आदरणीय झा जी ! यह सत्य है कि हम सभी संस्कृत अध्येता-अध्येत्री एक कुटुम्बी सदृश
अपनत्व रखते हैं। अतः विश्वास-भरोसा जल्दी ही सहज भाव से परस्पर करते हैं।
आज जो भी हो, परस्पर संगठन से ही संस्कृत दिनों दिन प्रगतिमार्ग पर है।
भ्रामक प्रचार से बचना चाहिए।
कभी कभी कटुसत्य बोलने में बहुत डर लगता है। क्योंकि जो सेटल्ड लोग हैं उनको
समझाना मतलब स्वयं उपेक्षित होने जैसा लगता है।
डाॅ. नीलम रावत
झा भैया! संस्कृत ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो सबको आपस में जोड़ने की बात करती
है। यहाँ तक कि मानव, पशु और मोती को भी एक सूत्र मेँ बाँधने क्षमता रखती है।
Pradeep
Kumar Sharma
सुन्दर और तार्किक कथन है, सोशियल मीडीया पर मर्यादित आचरण और आत्म नियंत्रण ज़रूरी
है! क्या भेजे, किसे भेजे, कहा भेजे, क्यो भेजे.......सचार और प्रचार तभी हो पाएगा वरना ढाक के
तीन पात !!!!!
Pushkar
Pradhan
को हि भारः समर्थानाम्
डॉ व्रजेश गौतमः
संस्कृत अथवा किसी भी भारतीय भाषा के स्थान पर जर्मन या अन्य विदेशी भाषा,
त्रिभाषा सूत्र का उल्लंघन है। दिल्ली उच्च न्यायालय के वाद
3002/13 (संस्कृत शिक्षक संघ दिल्ली द्वारा जनहित याचिका) का
निस्तारण केन्द्र सरकार के शपथ पत्र देने पर 15 अक्टूबर 2014 को
डॉ व्रजेश गौतमः
यदि आपकी जानकारी में यह विषय आता है तो उस विद्यालय /संस्था को सचेत करैं।
डॉ व्रजेश गौतमः
संस्कृत शिक्षक संघ दिल्ली यह कार्य कर रहा है,
आप भी अपने स्तर पर यह कार्य कर सकते हैं।
29 मार्च 2015
यदि संस्कृत
का अनुवादित साहित्य हीं हमें चाहिए तो संस्कृत में काव्य,
कथा आदि लेखन का औचित्य और आवश्यकता ही क्या है?
फिर इसकी जीवन्तता कैसे सिद्ध होगी ?
Bibhuti Sarma
कयापि भाषया
स्वमतानि प्रकाशयन्ति लेखकाः । अनुवादस्तु भाषानिहितविषयानां एकैकस्मिन्
भाषाभाषिसमुहे वितरणार्थं माध्यमः ।
29 मार्च 2015 ·
हिन्दी के
पुस्तक का यदि संस्कृत में अनुवाद होता है तो संस्कृत समृद्ध होता है और यदि अन्य
भाषाओं में लिखित पुस्तक का संस्कृत में अनुवाद होता है तो संस्कृत समृद्ध होता
है।अब विचार करें हम किस काम में लगे हैं ।हम क्या करना चाहते हैं ?
नव लता
अनुवाद
साहित्य की एक विधा है। आजकल शोधग्रन्थों की रचना के नाम पर ग्रन्थोद्धरणों का
समुच्चय, कुछ लेखकों की रचनाओं का संकलन कर एक ग्रन्थ तैयार कर देना,
कुछ प्रख्यात ग्रन्थों से कुछ अंश लेकर एक पुस्तक का आकार
देकर उसे अपने नाम से प्रसारित कर देना आदि के द्वारा भी लोग साहित्यसमृद्धि में
योगदान की सूची में अपनी उपस्थिति उट्टङ्कित करवा देते हैं। किन्तु मेरे विचार से
साहित्य की वास्तविक समृद्धि मौलिक लेखन, मौलिक शास्त्रानुचिन्तन,
मौलिक भाष्यादि तथा मौलिक समालोचनात्मक साहित्य से ही होती
है।
29 मार्च 2015
निजी प्रकाशक
व्यावसायिक हित को देखते हुए संस्कृत के मूल ग्रंथ का प्रकाशन नहीं करते हैं ।
सरकारी प्रकाशन भी इसी राह पर चलते हुए हिन्दी में अनुवादित या संस्कृत विषय पर
हिन्दी में लिखित पुस्तक का प्रकाशन करें तो दोनों में क्या फर्क । सरकारी संस्था
को संस्कृत का हित देखना चाहिए व्यापार का नहीं ।
शिवराज आचार्य
कौण्डिन्यायन
संस्कृत के
कुछ दुर्लभ ग्रन्थों के प्रकाशन के लिए सरकार प्रकाशकों को अनुदान देकर सुलभ बनाती
थी, उसकी कुछ प्रतियां स्थानविशेष से सस्ते में बेचने की व्यवस्था भी करती थी,
एेसे पुराणादि के पुस्तक हम ने भी खरीदे थे। क्या वह
व्यवस्था अब बन्द हुइ है ?
Sambasiva
Murty Kambhampati
अन्यभाषानुवादश्च
कर्त्तव्यः खलु लेखकैः ।
संस्कृतेन सदा
कृत्वा रक्षणीया च संस्कृतिः ।
जगदानन्द झा
दुर्लभ
ग्रन्थों के प्रकाशन एवं अनुदान बंद तो नहीं हुए परन्तु संस्कृत की संस्थाएँ अन्य
भाषा में अनुदित अधिकाधिक पुस्तकों के प्रकाशन की ओर उन्मुख होती दिखायी दे रही
है। इसलिए कि संस्कृत का पाठक वर्ग और क्रेता उन्हे नहीं मिलता है।
जगदानन्द झा
प्रयास यह हो
कि संस्कृत का पाठक वर्ग बने न कि अनुदित साहित्य का। भाषान्तरण का कार्य
प्रशंसकों पर छोड देना चाहिए। सरकारें दायित्व निर्वाह के लिए होती है हर क्षेत्र
में व्यवसाय उचित नहीं।
28 मार्च 2015 ·
अहो पश्यात्र
सानन्दम् जना मज्जन्ति संस्कृते ।
एषा काल्पनिकी
कक्षा संस्कृतास्वादनाभिधा ॥
28 मार्च 2015
यन्मायावशवर्ति
विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा,
यत्सत्त्वादमृषैव
भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रम:।
यत्पादप्ल्वमेकमेव
हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां,
वन्देऽहं
तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।
24 मार्च 2015
संस्कृतप्रचाराय
मयापि WhatsApp प्रारब्धा सं. 7784942287.
अत्रैकः संस्कृतप्रवाहः नामकः समुदायः अद्यैव आरब्धः।
संस्कृततेतरजनाः अत्र युक्ता भवेयुरिति ममेच्छा।
20 मार्च 2015
सम्मान समारोह
के अवसर पर आयोजित सांगीतिक संध्या के विवरण
क्रम गीत
स्वर
गीतकार
1. स्वागत गीतम् सहगान -
केवल कुमार,
अमिताभ
पं0 वासुदेव द्विवेदी
श्रीवास्तव,
विनोद सिन्हा
मुक्ता चटर्जी,
संगीता मिश्रा
अभिलाषा यादव
2.
संस्कृते
वहति संस्कृति धारा संगीता मिश्रा,
अमिताभ श्रीवास्तव
श्री केशव प्रसाद गुप्ता
3. वंदे सदा स्वदेशम्
केवल कुमार और साथी प्रो0 अभिराज राजेन्द्र मिश्र
4. छुक-छुक-छुक-छुक
संगीता मिश्रा प्रो0 हरिदत्त शर्मा
5. श्रावणमासे यमुनातीरे (कजरी) मुक्ता चटर्जी,
संगीता मिश्रा
डा0 नवलता
6. मधुमासः मुक्ता चटर्जी डा0 रेखा शुक्ला
7. होली अमिताभ
श्रीवास्तव और साथी डा0 नवलता
संगीत
निर्देशन-श्री केवल कुमार
वादक कलाकार-
1. तबला-राजीव सेन गुप्ता
2-ढोलक-रिषी कुमार यादव
3-आर्गन-शिवम् शर्मा
4-बासुरी-जितेन्द्र कुमार
संचालन-श्री अमिताभ श्रीवास्तव
20 मार्च 2015
यह एक कठिन और
चुनौती पूर्ण कार्य था, क्योंकि संगीत जब निर्देशक और गायक संस्कृतगीतम् के अर्थ को
समझते तब ठीक से धुन बनता,गायक भाव पूर्ण गाते। उच्चारण का अनुभव उनके लिए पहला अनुभव
था। परन्तु अब यह असंभव नहीं रहा।
20 मार्च 2015
संस्कृतगीतम्
को सुनने को बाद ऐसा लगा कि हर शब्द का अर्थ समझा हुआ है,
भाव ऐसा कि साथ में मैं भी गुनगुनाकर रस सराबोर हो गया।
अद्भुत, अकल्पनीय और पहली बार इस प्रकार की प्रस्तुति को जरुर सुनने आयेंं.
आज 20-03-2015
को सायं 6-00 बजे से गन्ना संस्थान,डालीबाग, लखनऊ
20 मार्च 2015
संस्कृत गीत
के संगीतमय प्रस्तुति में अनेक गायकों और वादकों का सहयोग एवं सहभागिता है।
परिकल्पना मेरी है तथा उच्चारण शुद्धता में मेरा योगदान है।
संस्कृत
रचनाकारों के रचनाओं को जन जन तक पहुँचाना भी संस्कृतज्ञों का सम्मान है।
20 मार्च 2015
आज उ0
प्र0 संस्कृत संस्थान द्वारा जिन संस्कृत रचनाकारों को पुरस्कार
दिया जा रहा है,उनकी रचनाओं की संगीतमय प्रस्तुति सायं 6-00
बजे से गन्ना संस्थान,डालीबाग, लखनऊ में होगी। खासियत यह है कि आधुनिक संस्कृत रचनाओं को
पहली बार प्रोफेशनल संगीत निर्देशक, गायक और वादक मिलकर प्रस्तुति दे रहा हैं।
आचार्य
वाचस्पति
ध्वनि-चलचित्राङ्कन
उपलब्ध करायेंगे , तो अनुगृहीत होंगें हम भी ।
12 मार्च 2015 ·
--आदर्श बडा अनुगमन छोटा-
लगभग हरेक संस्थाओं के दीवार पर बडे और मोटे
अक्षर में संस्कृत के आदर्श वाक्य लिखे मिलते हैं,
ये आदर्श तो संस्कृत से उदृत करते हैं,
परन्तु आदर्शवान् बनने के लिए संस्कृत पढना पढाना उचित नहीं
समझते। कैसी विडम्वना है?
12 मार्च 2015
संस्कृत भाषा
में कथा साहित्य के लेखकों का अभाव होता जा रहा है। देश भर में 15 से 20 लोग ही
कथा साहित्य के सृजन में दक्ष हैं। नवीन पीढी में रचनाकारों का अभाव यदि जल्द
समाप्त नहीं हुआ तो यह विधा कालातीत होकर रह जाएगी।
11 मार्च 2015
संस्कृतज्ञों का जनता में आदर और जनसम्पर्क ---
विगत दिनों साहित्य अकादमी और उत्तर प्रदेश
संस्कृत संस्थान का पुरस्कार घोषित हुआ। इसमें किसी भी प्रकार के मीडिया ने महत्व
नहीं दिया। जहाँ तक संस्कृत के आम पाठक में भी इसकी चर्चा नहीं हुई। सन्देश साफ है
संस्कृतज्ञ समाज और जनता तक अपनी उपस्थिति दर्ज
नहीं करा सके।
Chandresh
Upadhyay
कलियुग
मे.....न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः .......बिना धनार्जन के समय खर्च करना कोई नही
चाहता....
जगदानन्द झा
समस्या और
प्रश्न जुडाव का है। आजीवन जिसने हजारों को पढाया वे भी संस्कृतज्ञों से जुडाव
नहीं रखते अन्यथा पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति एकाकी स्वप्रचार नहीं करते वल्कि
शिष्यगण करते।
Pradeep Kumar
Sharma
कथन वस्तुत:
तर्कसंगत है! व्यक्तिगत प्रयासो को उपेक्षित किया जाता है! अनुदान मे राजनीति होती
है! जो विद्वान तन मन धन से संस्कृत सेवक है उनकी विद्वता, आत्मसम्मान , उपलब्धि को नज़रअंदाज़ किया जाता है!
जगदानन्द झा
मैं तो यह देख
रहा हूँ जिसने अनगिनत पुस्तक लिखे, कई संस्थानों में पढाया, सर्वोच्च पुरस्कार पाये पर उसकी चर्चा संस्कृत क्षेत्र में नहीं की जाती। सगे
सम्बन्धी भी उनकी उपलब्धि के बारे में ठीक से नहीं जानते। कहीं कुछ समस्या है।
जगदानन्द झा
संस्कृत
क्षेत्र में ही धनार्जन का यह होड क्यों है? अभी प्राप्त एक SMS के अनुसार निसर्ग संस्था द्वारा 24-03-15 को लखनऊ में
आयोजित भास कृत नाटक को देखने के लिए रु0100 का टिकट लोग खरीद रहे हैं।
Ashok Kumar
यावत् सर्वे
संस्कृतं समाजिकव्यवहारे न आगमिष्यति तावद् एतादृश्यैव स्थिति भविष्यति।
28 फ़रवरी 2015
एक भाषा अनुवादक (राजभाषा अधिकारी) की टिप्पणी थी। संस्कृत में विगत कुछ वर्षों से संस्कृत से अन्य भाषा में अनुवाद का चलन जोर पकडा है,जिसे देखो संस्कृत पुस्तकों के अनुवाद करने में व्यस्त हैं। मजे की बात है कि इन अनुवादकों को संस्कृत का विद्वान् होने का गौरव भी प्राप्त होता है। क्या मेरे जैसे अनुवादकों (जो भाषानुवाद में दक्ष हैं ) को भी विविध भाषाओं का विद्वान् होने का गौरव प्राप्त होगा?
27 फ़रवरी 2015
संगीत निर्देशक श्री केवल कुमार जी ने संस्कृत में गीत लिखने वाले 6 विद्वानों की 07 प्रतिनिधि रचनाओं का चयन कर लिया है। संगीतमय प्रस्तुति के लिए अनेक गायक कलाकारों से साक्षात्कार का अवसर भी मिला। एक अपनों के वीच के संस्कृत गायक के गीत अगले Post में आपके लिए प्रस्तुत करुँगा।
यमुना पुलिने क्रीडति श्यामो होलायाम्। इतो याति राधासखिभिः सह-- इस होली गीत में राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है। वसंतोत्सव कहें, काम-महोत्सव या होली, वसंत ऋतु के फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। सुनें संस्कृत भाषा में गाया गया होली का यह सुमधुर गान।
26 फ़रवरी
2015
यह बसन्त का
राग रंग हैं। सज-धज का यह निकल पडा है। हर आगन्तुक घंटों इन्हें अपलक निहारते
हैं।उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ में भी यह ऋतुराज
अपनी आभा चहुँओर फैलाये बैठा है। अपने पुष्प सिंहासन पर। चारुतर वसन्त के ऐश्वर्य को आप भी देखें।
24 फ़रवरी 2015
-----संस्कृत के चार सेवक----
1-कुछ लोग प्रकाशकों
से धनप्राप्ति के लिए संस्कृत के प्रसिद्ध
पुस्तकों का अनुवाद करना ही संस्कृत की साधना समझते हैं।
2- कुछ लोग दो चार पुस्तक मिलाकर एक पुस्तक बना देना ही
संस्कृत की साधना एवं सेवा समझते हैं।
3- कुछ लोग अपने चिन्तन से मौलिक ग्रन्थों का लेखन करते हैं,
संस्कृत में नये प्रयोग करते हैं, वे भी
स्वयं को संस्कृत का साधक एवं सेवक समझते हैं।
4-
कुछ लोग
संस्कृत को जनभाषा बनाने के लिए जन सम्पर्क करते हैं. लोगों को संस्कृत पढने के
लिए प्रोत्साहित करते हैं। संस्कृत में नये प्रयोग करते हैं।इस प्रकार विना किसी
महत्वाकांक्षा के संस्कृत के साधक एवं सेवक के रुप में अपना जीवन लगा देते हैं,।
----मैं दिग्भ्रमित हूँ,
वास्तव में कौन-कौन संस्कृत के साधक एवं सेवक हैं?
Pradeep Kumar
Sharma
निसंदेह सभी
प्रयास संस्कृत को अमरत्व प्रदान करते है! यही कारण है की अवरोध और विरोध के
विपरीत संस्कृत का प्रवाहा कभी रुका नही! आपका आधुनिक प्रयास भी वंदनीय है! साधक
भी अनेक है और साधनाए भी.......पर केंद्र एक ही है!
DrSurendra
Kumar Pandey
Jha ji Ve
sabhi log Sanskrit ke sewak hai jo kisi bhi roop me sanskrit likhte ya padhte
hai.
डॉ. अरविन्द
कुमार तिवारी
निस्संदेह ये
सभी लोग संस्कृत के सेवक एवं साधक हैं।
DrBipin
Pandey
निश्चित ही
संस्कृत की साधना तो सभी चारो कोटि के लोग कर रहे है । गुण और परिमाण का अंतर है ।
चिन्ता का विषय ये है की पहली दो कोटि के लोग बहुसंख्य है और परवर्ती दोनों कोटि
के लोगों को दिया बाती लेकर ढूढना पड़ता है ।
चिन्तामणि
जोशी
भिन्नरुचिर्हि
लोकः
23
फ़रवरी 2015
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के सम्मान समारोह के अवसर पर सम्मान होने वाले
विद्वानों की प्रतिनिधि रचनाओं को कम्पोज कराकर सांगीतिक संध्या के आयोजन पर
विचार- विमर्श कर रहा हूँ। संगीतमय प्रस्तुति के लिए अनेक कलाकारों से बातचीत चल
रही है। यदि सब कुछ मनोनुकुल रहा तो आप भी
इसका आनन्द ले सकेंगें।
22 फ़रवरी 2015
मित्रों!
आपके अपने Timeline
एवं Profile पर लगाया गया Photo आपके व्यक्तित्व, सोच,परिवेश आदि को उजागर करता है। क्या हम इस प्रकार के चित्र
का संयोजन कर पाते है? जिसे देखकर ही लोग हमारे मानसिकता से परिचित हो जायें?
21 फ़रवरी 2015
-------------संस्कृत क्षेत्र से जुडा एक तथ्य यह भी-----------
1- संस्कृत क्षेत्र में छात्रों के लिए जितनी छात्रवृत्ति दी
जाती है, उससे कहीं अधिक पुरस्कार दिये जाते हैं।
2- ये पुरस्कार धार्मिक संस्थाओं,
औद्योगिक घरानों, व्यक्तियों के स्मृति में,
केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों द्वारा दी जाती हैं।
3-
एक अनुमान के
अनुसार कुल छात्रवृत्तियों की धनराशि से कुल पुरस्कारों की धनराशि ज्यादा होती है।
4-
कुछ अज्ञात
अपवाद छोड दे तो संस्कृत क्षेत्र के पुरस्कार सेवारत या सेवानिवृत्त लोग हीं पाते
हैं।
20 फ़रवरी 2015
संस्कृत
सर्जना ई. पत्रिका का अवलोकन करते आदरणीय प्रों. प्रभुनाथ द्विवेदी । आज इन्होंंने
इसकी प्रशंसा करते हुए अपनी शुभकामनाऐं दी।
19 फ़रवरी 2015
संस्कृत सर्जना पत्रिका के आगामी आने वाले अंक में -----
1.सोशल मीडिया पर संस्कृत विषयक सूचनाओं के प्रवाह, प्रचार, सूचनाओं की प्राप्ति में इसकी भूमिका, साहित्यिक उपस्थिति,इसकी गुणवत्ता
2- संस्कृत समाज में मादक पदार्थों के सेवन का स्तर।
3- संस्कृत ग्रन्थों में बाल
उत्पीडन/शोषण जैसे नवीन विषय पढने को मिल सकते हैं।
19 फ़रवरी 2015
इधर दो दिनों में लमही,सुसंस्कृतम्.तथा Jornal of Academic Research पत्रिका विशेष रुप पढने का अवसर मिला। लोक गायिका मालिनी
अवस्थी सम्पादित सोन चिरैय़ा भी। सोन
चिरैय़ा में प्रो. विद्यानिवास जी ने
साक्षात्कार में लोक की व्याख्या बहुत सुन्दर की है।
आज पधारे। संस्मरण के लिए चित्र साथ में खिंचवाया। नाम परिचित लोग जानते है।
शास्त्र ग्रन्थों का अनुवाद एवं अध्यापन आपका परिचय। चित्तनारायण पाठक जी।
19 फ़रवरी 2015
अहिंदी भाषी क्षेत्र के छात्र देवनागरी लिपि में पढ़ने में ज्यादा प्रवीण नहीं
होते। संस्कृत पढ़ने के समय यह लिपि उनके सामने प्रथमतः समस्या के रूप में उपस्थित
होती है। अब वह पहले भाषा पढ़े या लिपि ?
-----और पढने के
लिए इस लिंक पर चटका लगायें-
18 फ़रवरी 2015
2011 की जनगणना केवल 14 हजार संस्कृतभाषी ? संस्कृत क्षेत्र में रोजगार कितने कर रहे हैं? क्या उनकी मातृभाषा
संस्कृत नहीं हो सकती ? क्या हम पेयजल और स्वच्छता
मंत्रालय से पेयजल और स्वच्छता पर एक प्रोजेक्ट नहीं ले सकते ? धर्मशास्त्रों, स्मृति ग्रन्थों में स्वच्छता के बारे में बहुतेरे दिशा
निर्देश मिलते है। हम भी अपना योगदान दें।
---- और पढें-
17 फ़रवरी 2015
दि0 16-02-2015 को संस्कृत सर्जना पत्रिका पढने के लिए New Delhi, Lucknow, Greater Noida, Bengaluru, Mumbai,
Pune, Ahmedabad, Chandigarh, Silchar, Gurgaon से पाठक गण आये। इस पत्रिका को दो नये देश नेपाल (Kathmandu) तथा Trinidad
& Tobago के पाठक भी
मिले। अब यह कुल 5 देशों में पढी जाने लगी। http://sanskritsarjana.in/ पर आये पाठकों का हार्दिक अभिनन्दन और साधुवाद।
16 फ़रवरी 2015
social Media द्वारा संस्कृत के कार्यक्रमों के प्रचार, सूचनाओं की प्राप्ति में इसकी भूमिका, साहित्यिक उपस्थिति, इनके स्तर पर व्यापक
सर्वेक्षण सामने नहीं आया। इसपर भी चर्चा हो।
16 फ़रवरी 2015
संस्कृत के विश्रुत विद्वान् डा. देवी सहाय पाण्डेय जी आज मेरे यहाँ आये। आप
आजादचरितम् जैसे अनेकों पुस्तकों के लेखक है।
आपका अभिनन्दन।
14 फ़रवरी 2015
एक सार्वजनिक आग्रह-
1- मैंने कुछ समय पूर्व अपने FB पर post करने की इजाजत
दी,पर ध्यान रहे यहाँ राजनैतिक, व्यक्तिगत प्रचार परक एवं किसी को आपत्ति न हो वैसा ही post डालें या share करें।
2- राजनैतिक, सिर्फ मनोरंजन के लिए Facebook पर आये व्यक्तियों द्वारा मित्रता आमंत्रण भेजना व्यर्थ है।
3- संस्कृत के विकास और प्रचार, कला,संस्कृति
एवं साहित्य में मेरी विशेष रूचि है, ऐसे मित्र सादर आमंत्रित
हैं।
13 फ़रवरी 2015
संस्कृतसर्जना पत्रिका का अवलोकन करते संस्कृत के मूर्धन्य हास्य कवि डा.
प्रशस्य मित्र शास्त्री।
12 फ़रवरी 2015
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानम् का विश्वभारती सम्मान वर्ष २०१३ के लिए संस्कृत को अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर लाने में
अप्रतिम योगदान देने वाले डॉ भागीरथ
प्रसाद त्रिपाठी वागीश शास्त्री के नाम का चयन किया गया है। इससे विश्वभारती
सम्मान अपने नाम को भी सार्थक किया
9 फ़रवरी 2015
आज संस्कृत क्षेत्र के दो विद्वानों प्रो. भगीरथ प्रसाद त्रिपाठी (वागीश
शास्त्री) एवं स्वामी रामभद्राचार्य को यश भारती पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
यह सम्मान सन्देश देता है कि संस्कृत क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य कर व्यक्ति
इस प्रकार के शिखर पुरस्कार को पा सकता है।
4 फ़रवरी 2015
तन्त्र ग्रन्थों में बाल उत्पीडन के प्रसंग मिलते हैं। प्राकृत साहित्य में
बच्चों के विविध भावों और अवस्थाओं का वर्णन मिलता है।
3 फ़रवरी 2015
संस्कृत के ग्रन्थों में परिधानों तथा तन्तुवाय का उल्लेख ऋग्वेद से लेकर
महाभाष्य तक बहुधा पाया जाता हैं। उस समय वस्त्रों के निर्माण की एक सुनिश्चित
प्राविधि रही होगी। तथा इनके निर्माण में विभिन्न प्रकार के संसाधनों का भी प्रयोग
किया जाता रहा होगा। बाद के वर्षों में वस्त्रों पर अलंकारिक चित्रण भी किये गये।
यदि आपको संस्कृत ग्रन्थ में शाटी में प्रयुक्त किये गये रंगो के निर्माण की विधि, परिधानों के लिये निर्मित किये जाने वाले तन्तु (धागा) के निर्माण की विधि, वस्त्रों के निर्माण में प्रयुक्त संसाधनों के विवरण का उल्लेख प्राप्त हो तो
उस पर एक लेख संस्कृत सर्जना में आमंत्रित हैं। आप उस समय के पावरलूम का एक
काल्पनिक चित्र भी बना सकते हैं।
29 जनवरी 2015
संस्कृत सर्जना ई- पत्रिका का उद्देश्य
1.
संस्कृत के नूतन लेखकों,
अध्येताओं, छात्रों को लेखन हेतु प्रोत्साहित करना इस प्रकार उनमें
भाषा विकास के साथ-साथ उनकी प्रतिभा को मंच देना।
2.
संस्कृत एवं संस्कृतेतर जगत को संस्कृत विद्या की जीवन्तता,
इसमें निगूढ़ तत्व से परिचित करना तथा समसामयिक,
ज्ञानवर्द्धक तथा जनोपयोगी जानकारी उपलब्ध कराना।
3.
ऐसे समस्त ज्ञान सम्पदा को प्रकाश में लाना जो संस्कृत
विद्या व भाषा के प्रसार-प्रचार में उपयोगी हो।
27 जनवरी 2015
आज डा. पद्मिनी नातू, संस्कृत विभागाध्यक्षा, नारी शिक्षा निकेतन,लखनऊ ने छात्र द्वारा
संस्कृत में लिखित तथा संस्कृत सर्जना पत्रिका में प्रकाशित उत्कृष्ट सर्जना को
चयन के आधार पर पुरस्कृत करने का संकल्प व्यक्त किया है
25 जनवरी 2015
लीजिये, अब पूरी संस्कृतसर्जना पत्रिका यहाँ भी पढिये
https://issuu.com/mohdmurtuza/docs/sanskrit_sarjana_23-1-15/7?fbclid=IwAR3xRfu9ByMKa_KW_Ej-d5RgFdtyixUtDwi9K1lEqXmrKR5UjzABHBKShEI
24 जनवरी 2015
संस्कृत सर्जना लोकार्पण के अवसर पर लोकार्पित पत्रिका का अवलोकन करते प्रो.
अर्कनाथ चौधरी तथा सदस्य तकनीकि सम्पादक श्री आशुतोष जी।
1 जनवरी 2015 ·
http://sanskritsarjana.in/
शुभारम्भ 24/01/2015 से
संस्कृत भाषा में अपार ज्ञान सम्पदा
है। सूचना प्रवाह के युग में संस्कृत सर्जना त्रैमासिक ई. पत्रिका द्वारा भारतीय
परम्परा, तीर्थ स्थल, संस्कृत शिक्षा से जुडे व्यक्ति,संस्थाएँ,नवीन रचनाएँ, संस्कृत उत्थान के लिए वैचारिक निबन्ध और इसमें अन्तर्निहित
ज्ञान उन नई पीढी के लोगों तक भी पहुँचाने की कोशिश करेंगें,
जो अभी इससे दूर है। हम नई पीढी के लोगों और विज्ञ
संस्कृतज्ञों को सादर यहाँ आमंत्रित करते हैं। आइये आप भी निःशुल्क सदस्य बनें।
आपसे भी सहयोग की अपेक्षा है।
31 December
2014
उस महान् ईसामसीह के नाम पर सृजित ईसाई नव वर्ष की
मंगलकामना, जिन्हें बुद्ध के जन्म निर्धारण में भी अब याद करना जरूरी हो चला है।
22 December
2014 ·
अभी मैं गोस्वामी बलभद्र प्रसाद शास्त्री रचित संस्कृत
ग्रन्थ सतीशंकरमहाकाव्यम् के सम्पादन में लगा हूँ। आशा है यह जनवरी 2015 तक
मुद्रित हो जाय।
16 December
2014
आइये हम कुछ सर्जनात्मक गतिविधि में भी भाग लें। संस्कृत
भाषा की जीवन्तता समाज के सम्मुख रखें। अपनी सोच, रचना, संस्मरण साझा
करें। संस्कृतज्ञ के रूप में आप सेवा दें। संस्कृत के प्रसार में सहयोगी बनें।
आकर्षक एवं गुणवत्ता युक्त #संस्कृतसर्जना ई. पत्रिका में
प्रकाशनार्थ अपने फोटोग्राफ के साथ sanskritsarjana@gmail.com पर संस्कृत विषयक सामग्री भेजें।
11 December
2014
आप भी अपनी राय दें-
बुद्धिजीवियों के सहयोग एवं परामर्श से एक सामान्य
सर्जनात्मक पत्रिका के संचालन का प्रस्ताव है।
पत्रिका के संचालनार्थ उसके तकनीकी पहलुओं बटन आदि तथा
स्वरूप पर विशेषज्ञों से चर्चा आदि कर निर्धारित किया जा चुका है। वर्तमान में
सामान्य सर्जनात्मक पत्रिका के प्रकाशन पर विचार किया जा रहा हैं। ताकि इसे 31
दिसम्बर 2014 या सरस्वती समारोह 2015 के अवसर पर लोकार्पित कराया जा सकें। पत्रिका
के नाम पर कुछ सुझाव प्राप्त हुये हैं। यथा संस्कृत परिचर्चा, संस्कृत भाषा, संस्कृत प्रिया, संस्कृत सर्जना आदि।
Software Development एवं website
designing का कार्य करने वाला फर्म Business Innovation ने सर्जनात्मक पत्रिका का demo उपलब्ध करा दिया है।
प्रस्तावित सर्जनात्मक ई- पत्रिका का उद्देश्य संस्कृत
सर्जकों (लघुकथा,
एकांकी, गीत, गजल,
निबन्ध, यात्रावृतान्त आदि) को एतदर्थ मंच
प्रदान करना तथा उनकी प्रतिभा को पाठकों के सम्मुख लाना।
2. संस्कृत के नूतन लेखकों, अध्येताओं, छात्रों
को लेखन हेतु प्रोत्साहित करना इस प्रकार उनमें भाषा विकास के साथ-साथ उनकी
प्रतिभा को मंच देना। सर्जनात्मकता विकसित करना।
3. संस्कृत एवं संस्कृतेतर जगत को संस्कृत विद्या की
जीवन्तता, इसमें निगूढ़ तत्व से परिचित
करना तथा समसामयिक, ज्ञानवर्द्धक तथा जनोपयोगी जानकारी
उपलब्ध कराना।
4. ऐसे समस्त ज्ञान सम्पदा को प्रकाश में लाना जो संस्कृत
विद्या व भाषा के प्रसार-प्रचार में उपयोगी हो।
प्रत्येक लेख पर स्वत्वाधिकार तब तक लेखकों एवं सम्पादकों
का बना रहेगा जब तक कि इसके लिए उन्हें पारिश्रमिक/मानदेय का भुगतान नहीं किया गया
हो। पत्रिका में प्रकाशित लेख से सम्पादक/प्रकाशक की सहमति आवश्यक नहीं होगा।
ई. पत्रिका में अन्तर राष्ट्रीय मानकों का अनुपालन किया
जायेगा। यह एक त्रैमासिक पत्रिका होगी। यह प्रत्येक वर्ष के जनवरी, अप्रैल, जुलाई
एवं अक्टूबर में प्रकाशित होगी। इसमें अधोलिखित प्रकार की विषय वस्तु संस्कृत,
हिन्दी भाषा में प्रकाशित होगी।
1. उ0 प्र0 संस्कृत संस्थान सहित अन्य संस्थाओं में आयोजित
होने वाले संस्कृत,
पालि, प्राकृत भाषा विषयक कार्यक्रमों की
पूर्व तथा अनन्तर की सूचना।
2. संस्कृत भाषा के समबद्र्वन में किये जा रहे नवाचारों की
रूपरेखा, योजना आदि परक वैचारिक व
प्रेरक निबन्ध।
3. समसामयिक संस्कृत से सम्बद्ध घटनाक्रमों पर विशेषज्ञ
विद्वानों के लेख/यथा पुरस्कार मृत्यु, रोजगार, नियुक्ति
आदि।
4. नवीन प्रकाशित पुस्तक का समीक्षात्मक परिचय।
5. संस्कृत के दिग्गज विद्वानों, प्रचार-प्रसार में संघर्षरत
बुद्धिजीवियों के साक्षात्कार,जिनमें उनकी विशेषज्ञता हो।
संस्कृत से जुडी समकालीन समस्या उसके निदान।
6. संस्कृत को बढ़ावा देने हेतु कार्यरत विविध संस्थाओं
संगठनों के क्रियाकलापों तथा उनके बारे में परिचय।
7. संस्कृत के लिए जीवन जिये पुरस्कार प्राप्त श्रेष्ठ
पुरूषों की प्रेरणादायी जीवनी ।
8. पर्यटन, तीर्थ परिचय
9. मनोरंजक लेख
10. कक्षा 5 से 12 तक के लिए बालोपयोगी सामग्री,जिससे भाषा विकास हो सके।
11. अन्य जनोपयोगी विषयक, यथा ज्योतिष, कर्मकाण्ड,
धर्मशास्त्र।
12. इसमें स्तुति वन्दना, पूर्व लिखित साहित्य आदि पर समीक्षात्मक
शोधात्मक लेख प्रकाशित न के बराबर होंगे।
इस पत्रिका के लेखन सम्पादन हेतु वर्ष में एक बार इस प्रकार
के साहित्य सर्जकों में श्रेष्ठ को चयन कर पुरस्कृत करने पर विचार किया जा सकता
है।
13. अन्तर्जाल पर उपलब्ध संस्कृत विषयक सामग्री की जानकारी
देना।
14. ई-पत्रिका में सम्पादक, प्रबन्ध सम्पादक, तकनीकी
सम्पादक, परामर्शक, एवं सम्पादकीय
काॅलम के लेखक अतिथि सम्पादक होगें।
15. उपर्युक्त पद धारकों से यह अनिवार्य अपेक्षा होगी कि वे
अन्तर्जाल पर कार्य करने में दक्ष हो तथा उनके पास इस कार्य हेतु उचित संसाधन
उपलब्ध हो।
16. पाठकों द्वारा प्राप्त पत्र भी इसमें प्रकाशित किये
जायेगें।
17. समाचार और लेख प्राप्ति एवं पत्रिका के प्रसार हेतु कुछ
संयोजकों को भी इसमें नामित किया जा सकता हैं।
इसमें कवर पृष्ठ को छोड़कर कुल 32 से 40 पृष्ठ होंगें।
प्रस्तावित पत्रिका बहुरंगी एवं सचित्र होगी। इसे डिजायनर से डिजायनिंग कराकर
आकर्षक स्वरुप दिया जाएगा।
6 December
2014
1- स्वस्मै स्वल्पं परस्मै सर्वस्वम्।
इस नीति वचन को खुद के जीवन में आत्मसात् करते हुए मैंने
अपने लिए पुस्तकालय में एयर कंडीशनर नहीं लगवाया,जबकि वाचनालय में A C लगा
है। यहाँ तक कि पुस्तकों के रैक में अनावश्यक CFL भी नहीं
जलाता।
सुविधा उपलब्ध होते हुए भी एक नैतिक मानदण्ड का पालन करना
संस्कृत विद्या से प्राप्त हुआ।
3 December
2014
कुछेक अपवाद करे छोड़कर मुझे ज्ञात नहीं है कि संस्कृत से
जुड़े लोग अपने भाषाई गौरव के प्रतीक के रुप में कोई सामुहिक आयोजन करते हों। यही
कारण है कि देश में संस्कृत से जुड़े कालिदास समारोह हो या व्यास महोत्सव या कोई
अन्य। वर्षों से इसमें अनियमितता देखी जा रही है।
3 December
2014
पुस्तकालयाध्यक्ष बनने से पूर्व सामयिक विषयों पर कविता,निबन्ध लेखन चलता रहा। संस्कृत
विद्या में महती अभिरुचि के कारण अबतक चार ग्रन्थों का सम्पादन। संस्कृत के प्रसार
एवं विकास के लिए ब्लॉग तक चला आया। अपने ब्लॉग http://sanskritbhasi.blogspot.in/
में मेरे प्रिय गीतों, 260 वैचारिक निबन्धों, हिन्दी कविताएँ, 21 हजार से अधिक संस्कृत पुस्तकों,
100 से अधिक संस्कृतज्ञ विद्वानों की जीवनी और भी बहुत कुछ मुझे एक
दूसरी ही दुनिया में खींच ले जाते है और जिन्हें महसूस कर अपने आप को अभिव्यक्त
करने की इच्छा बलवती हो जाती है। मुझे इस क्षेत्र में कार्य करने एवं संस्कृत
विद्या अध्ययन को उत्सुक समुदाय को नेतृत्व प्रदान करने में अत्यन्त सुखद आनन्द का
अनुभव होता है।
3 December
2014
जब हम आज तक इन्सान होकर इन्सानियत की भाषा नही पढ पाये तो
देववाणी क्यों और कैसे पढ समझ सकते है। विश्व की यही एकमात्र भाषा है जिसमें
मातृदेवो भवः, पितृदेवो भवः, अतिथिदेवो भवः, गुरूदेवो
भवः, का पाठ पढाया जाता है। इन सबका इस अत्याधुनिक समय में
कोई विशेष मतलब नही रह गया है। यदि पिता पेन्शनजीवी न हो तो महंगाई के समय में माॅ
बाप का बोझ और भारी हो जाता है।
1 दिसंबर 2014 ·
क्या हम समाज में संस्कृत
विद्या के बारे में ये संदेश दे पाये। अपने प्रायोगिक पाठ्यक्रम में रखें हैं?
1- रंगमंच का विकास
संस्कृत के ग्रंथ नाट्यशास्त्र से हुआ। आज भी पथप्रदर्शक और जीवन्त है।
2-संगीत, दृश्यकला,(शिल्प,चित्र आदि) वास्तु का विकास संस्कृत से हुआ।
3-काल गणना,भौतिकी(वैशेषिक दर्शन) का विकास संस्कृत से
हुआ।
हमें जनहित के तमाम
क्षेत्रों में शोध के लिए अवसर एवं धनराशि नहीं दिये गये। हमें केवल मानविकी तथा
पूजा पाठ तक सीमित रखा गया।
26 नवंबर 2014 ·
क्या हम जीवन व्यवहार में
संस्कृत का कहीं आग्रह करते हैं? जब भी कोई लाभार्थी आपसे लाभ पाना चाहे,
संस्कृत का आग्रह करें।
26 नवंबर 2014 ·
मैं डोर टू डोर पुस्तक
विक्रेता,
जिसका मैं उपभोक्ता हूँ सवसे संस्कृत का आग्रह करता हूँ ।
आर्थिक लाभ देते समय संस्कृत विकास शर्त
रखता हूँ।
26 नवंबर 2014 ·
संस्कृत विद्या का उपहास
तो होगा हीं क्योंकि-
1- संस्कृतज्ञ वित्तीय
व्यवहार (बीमा, शिक्षा
आदि ) असंस्कृतज्ञ के साथ करके उन्हें मजबूत करते हैं।
2- संस्कृत की डिग्री लेकर
असंस्कृतज्ञ नौकरी पा जाते हैं और हमें
हीं चिढाते हैं।
3- संस्कृत के
प्रतिष्ठानों में असंस्कृतज्ञ नौकरी पाकर मौज करते हैं। संस्कृतज्ञ हाथ मलता है।
4- क्योंकि- हम विरोध नहीं
करते और संस्कृत का कहीं आग्रह ही नहीं करते।
26 नवंबर 2014 ·
अर्थव्यवस्था पर काविज लोग
मेडिक्लेम में आयुर्वैदिक उपचार को नहीं रखते। सरकारें ज्योतिष नक्षत्रशाला के लिए
धन नहीं देती। तो क्यों न हो संस्कृत का सत्यानाश।
संस्कृत राग अलापते रहें ।
हर मंच पर। जन प्रतिनिधि , नीति निर्माता,जनता के वीच इसे हमेशा चर्चा में रखें।
26 नवंबर 2014 ·
दरसल इस विदेशी भाषा वाली
बुरी सोच के पीछे धनलोलुप और मौके का फायदा लेने बाले लोग हैं। यही लोग यहाँ के
अर्थव्यवस्था पर काविज है। जिस दिन विदेशी भाषा देश की भाषा हो जायेगी इनका गुरु
ज्ञान और धंधा बन्द हो जायेगा।
26 नवंबर 2014 ·
दरसल इस विदेशी भाषा वाली
बुरी सोच के पीछे धनलोलुप और मौके का फायदा लेने बाले लोग हैं। यही लोग यहाँ के
अर्थव्यवस्था पर काविज है। जिस दिन विदेशी भाषा देश की भाषा हो जायेगी इनका गुरु
ज्ञान और धंधा बन्द हो जायेगा।
Shri Krishan Jugnu
स्मृतिकारों ने इस दोष को
बहुत पहले ही पहचान लिया था,,, उन्होंने अपनी भाषा की उन्नति के प्रावधानों को दर्ज किया है,,, जय जय
Namita Mittal
संस्कृत केवल स्वविकसित
भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही
एकमात्र भाषा है जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है।
संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योग शास्त्र के प्रणेता
महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को
भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है।
26 नवंबर 2014 ·
इस देश के स्कूल में सिर्फ
विदेशी भाषा ही क्यों नहीं पढाते ? विदेशी भाषा के पैरोकार अपने खानदान को विदेशी भाषा हीं
पढायें । विदेशी बन जायें और खूब पैसा कमायें।
17 नवंबर 2014
यौवनं
धनसंपत्ति प्रभुत्वमविवेकिता ।
एकैकमप्यनर्थाय
किमु यत्र चतुष्टयम् ॥
जवानी, धन संपत्ति, सत्ता और अविवेक ये हर अपने आप में ही अनर्थकारी है, तो पूछना ही क्या ?
7 नवंबर 2014 ·
बिहार के मिथिलांचल में
अत्यधिक बौद्धिक सम्पदा है। यहां की धरा दार्शनिकों, विद्वानों,कवियों एवं धर्मशास्त्रकारों
के कारण विश्व में प्रसिद्ध हुई। वर्तमान की पीढ़ी विज्ञापन,कला,संस्कृत तथा पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही है।
युवाओं से आग्रह है कि वे जहाँ जायें अपने
संस्कार को साथ ले जायें। संस्कृत एवं संस्कृति दोंनों का संरक्षण करें।
3 नवंबर 2014 ·
03 -11-14 को पाणिनि कन्या
महाविद्यालय,वाराणसी
जाकर विश्वास और दृढ हो गया कि वहाँ अभी भी पाणिनि जीवन्त है।
1 नवंबर 2014 ·
कल दि0 02 नबम्वर 14 को
मैं -UP Sanskrit Sansthan की ओर से पाणिनि कन्या
महाविद्यालय,वाराणसी के पाणिनि महोत्सव में निदेशक के साथ
भाग लेने जा रहा हूँ।
1 नवंबर 2014 ·
1-मैनें उत्तर प्रदेश
संस्कृत संस्थान में वर्षों से संचित एवं सुरक्षित 5 हजार पाण्डुलिपियों की सूची
बनाया। संस्थान ने पाण्डुलिपि विवरणिका नाम से प्रकाशित किया ।
2- अब उन 5 हजार
पाण्डुलिपियों की ई सूची तैयार करा रहा हूँ।
3- कुछ महत्व
पाण्डुलिपियों को विना किसी आर्थिक सहायता के मित्रों के सहयोग से स्कैन कराकर PDF में सुरक्षित करा रहा हूँ।
4- पूर्वजों द्वारा परिकृत
हजारों वर्षों के ज्ञान सम्पदा को सुरक्षित करने एवं प्रसारित करने में महान् तोष
का अनुभव करता हूँ
आप भी अपने क्षेत्र में इस तरह के प्रयास कर
सकते हैं।
1 नवंबर 2014 ·
आप भी अपने क्षेत्र में इस
तरह के प्रयास कर सकते हैं।
उत्तर प्रदेश संस्कृत
संस्थान में पुस्तकालयालयाध्यक्ष रहते संस्कृत को जन सुलभ बनाने के लिए ई.संस्कृत
के क्षेत्र में मैंनें ये प्रयास किये-
1-पुस्तकालय के 21,000
पुस्तकें 8 हजार पाण्डुलिपियों की सूची तैयार कर http://upsanskritlibrary.in
पर उपलब्ध कराया।
2- देवनागरी लिपि के लिए
सर्च इंजन की सुविधा।
3- अबतक 8000 संस्कृत की
नवीन पुस्तकें उपलब्ध कराया।
4- मेरा पुस्तकालय अद्यतन
है।
31 अक्टूबर 2014 ·
सर्वेषां हि शौचानां
अर्थशौचं परं स्मृतम्। मनु.
जनता अर्थशौच पर
संस्कृतज्ञों की ओर उत्तरापेक्षी निगाहों से देखता है। आइये,संस्कृत क्षेत्र में ई संसाधन/ तकनीकि को
बढायें भ्रष्टाचार मिटायें।
31 अक्टूबर 2014 ·
जानते है?
1-जहाँ ई संसाधन की कमी है, वहाँ भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत ज्यादा है।
2-जहाँ जनता का सम्पर्क ई संसाधन/ तकनीकि के बजाय लोक सेवक से होता है, भ्रष्टाचार वहीं पनपता है।
3- संस्कृत क्षेत्र में ई संसाधन/ तकनीकि की भारी कमी है।
4- क्या आपको शैक्षणिक प्रमाणपत्र ई संसाधन/ तकनीकि द्वारा उपलब्ध कराया जाता
है?
आइये,संस्कृत
क्षेत्र में ई संसाधन/ तकनीकि को
बढायें, भ्रष्टाचार मिटायें।
22 सितंबर 2014 ·
मेरे विचार से संस्कृत ग्रन्थ के प्रणेता से एक संस्कृत अध्येता तैयार करने
वाला संस्कृत का बडा हितैषी और आदर का पात्र है।
4 September 2014
भारतीय परम्परानुसार अपने या
किसी के अभ्युदय, कार्यसिद्धि, मनोकामना पूर्ति, सुरक्षा आदि हेतु, ईश पूजन, वन्दन तथा आर्शीग्रहण करने की परम्परा रही
है। अनेक स्थलों पर मांगलिक वस्तुओं तथा प्रतीकों के निदर्शन की परम्परा प्राप्त
होती है। स्मृतिशास्त्रों में मंगलकामनाओं हेतु विभिन्न प्रकार के मांगलिक पद्य
दृष्टिगोचर होते है।
3 September 2014
‘रामसेतु’
भारत के गौरवशाली इतिहास का अभिन्न व बहुमूल्य अंग है। बंगाल की
खाड़ी और अरब सागर के बीच जहाज़ों को 400 समुद्री मीलों की यात्रा कम करने तथा
समुद्री मार्ग की सीधी आवाजाही के लिए रामसेतु को न तोडें। राम कथाओं में वर्णित ‘‘रामसेतु’’ किसी के लिए मिथकीय कल्पना है और किसी के
लिए पूरा-आख्यान। हिन्दु धर्म अनुयायियों के अनुसार आज से लगभग साढ़े सत्रह लाख
वर्ष पूर्व भगवान श्री राम और उनकी वानर सेना ने इसी सेतु से समुद्र पार किया था,
और लंका पर विजय प्राप्त की थी।
25 August 2014
डा0 प्रशस्य मिश्र शास्त्री
हास्य के क्षेत्र में सर्वज्ञात कवि हैं। इन्होंने नर्मदा पुस्तक में एकविंशी
शताब्दी समायाति में आधुनिक व्यवस्था, सामाजिक
विषमता आदि पर तीखा हमला बोला है-
श्वानो गच्छति कारयानके
मार्जारः पर्यड्के शेते
किन्तु निर्धनो मानवबालः
बुभुक्षितो रोधनं विधत्ते।
22 August 2014
कार्य छोटे-छोटे है पर दृष्टि
नहीं जाती। संस्कृतज्ञों से परीक्षा, रोजगार,
पुरस्कार आदि के प्रपत्र भी हिन्दी या अन्य भाषा में भरायी जाती है।
यहाँ संस्कृत में करने में परेशानी क्या है?
Pushkar Pradhan यदि कोई वस्तु आवश्यक न लगे तो सहजता और आकर्षण ही उसके अपनाने में
महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं.
संस्कृत आदर्श ही नहीं चुनौती
भी है. आपका प्रयास स्तुत्य है अग्रज.
20 August 2014
संस्कृत में निरन्तर भ्रमण
शील लोगों का अभाव है। पर्यटक स्थल तो जायेंगे परन्तु संस्कृत संस्थाओं, व्यक्तियों
तक सुधि लेने भी नहीं जाते। पास के संस्थानों में तो जायें। संस्कृत में निहित
ज्ञान सम्पदा से बच्चों को परिचित कराने के लिए छोठी-छोटी पुस्तकें लिखे जाने की
आवश्यकता है। इसमें संस्कृत ग्रन्थों में उपलब्ध कहानियां हों। इसकी भाषा जो भी हो
परन्तु कथ्य संस्कृत हो।
20 August 2014
संस्कृत के प्रचार-प्रसार एवं
संरक्षण के बारे में यदि आपने कोई सर्वहितकारी कार्य योजना बनायी है और विश्वास हो
कि न्यून जन धन संसाधन के वावजूद यदि इसे लागू किया जाय तो इस लिंक के टिप्पणी
अनुच्छेद में जाकर अनुमानित व्ययाकलन के साथ अपनी कार्य योजना से अवगत करायें।
14 August 2014
सरकार के अनुदान से प्रायोजित
कार्यक्रमों का यदि सोशल आडिट कराया जाय तो कुछ होता हुआ भी दिखे। योजना निर्माता
जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं होते या उनमें दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव होता है। जैसी
सरकारें वैसी योजना।
संस्कृत भाषा को जो आज चुनौती
अन्य भाषा तथा तज्जनित संस्कृति से मिल रही है। इसके कारक तत्वों का गहराई से
पड़ताल की आवश्यकता है। आज अंग्रेजी मुख्य चुनौती है। भारत में ईस्ट इन्डिया
कम्पनी द्वारा औद्योगिक क्रान्ति लाया गया। ईसाई मिशनरी और कम्पनी में गठजोर
स्थापित हुआ। उद्योगों को कामगार मजदूर मिले तो मिशनरी ने इस मार्फत संास्कृतिक
धावा बोला। भारतीय सरकारें भी उस रास्ते पर आगे बढ़ी। वर्षों से कई संस्थाएँ/व्यक्ति
केवल विचारों को व्यक्त कर संस्कृत के विकास प्रचार-प्रसार में सर्टिफिकेट, यात्रा व्यय,
मानदेय आदि लेकर अपने दायित्व को पूर्ण मान रहे हैं।
DrSurendra Kumar Pandey संस्कृत भाषा के लिए सबसे बड़ी चुनौती वे लोग है जिनके उपर संस्कृत भाषा के
संरक्षण ,संवर्धन और पोषण का उत्तरदायित्व है .यह कटु सत्य
है | अब भी वक्त है कि वे सभी लोग जिनके मन में रंच मात्र भी
संस्कृत के प्रति प्रेम है वे इस देव भाषा की सेवा बिना किसी स्वार्थ और लाभ के
करे | इसमें देश ,राष्ट्र और भारतीय
संस्कृति का हित निहित है | झा जी के विचारों से मैं सहमत
हूँ |
7 August 2014
संस्कृत नाटक दूतवाक्यम् के
दृश्य को देखकर कलाकारों का उत्साह बढाते उत्तर प्रदेश विधानसभाध्यक्ष, श्री माता
प्रसाद पाण्डेय तथा अन्य
Divya Ranjan Pathak उत्तर प्रदेश (समाजवादी) संस्कृत संस्थान ने संस्कृत का पूरा पूरा मजाक
उड़ाया . दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन किया गया श्री जनेश्वर मिश्र के नाम पर
जिसमें एक विदुषी को पुरस्कृत भी किया गया । सम्मान देने और पुरस्कार देने में
अंतर होता है । मंच पर लगे बैनर में जनेश्वर मिश्र और अखिलेश यादव का नाम दिखा
परन्तु जिस गरीब विदुषी को डेढ़ लाख दिया गया उस बेचारी का नाम ही नहीं, ऐसा लगता है कि संस्थान कभी ऐसे आयोजन करता ही नहीं हो. भाषण एवं
चाटुकारिता में तो समय दिया गया परन्तु पुरस्कार प्रक्रिया दो मिनट में निपटा दी
गयी, आम परंपरा के तहत सारा आयोजन हिंदी और अशुद्ध उर्दू में
किया गया. बेचारा संस्थान शायद कोई समाजवादी संस्कृत वक्ता नहीं खोज पाया होगा.
गलती संस्थान की नहीं है, अब तो जो सर्वदा अयोग्य और संस्कृत
न जानता हो वो इस संस्थान के अध्यक्ष पद के लिए एक योग्य व्यक्तित्व होगा. प्रथम
दिवस और द्वितीय दिवस की प्रस्तुतियों ने संस्कृत का मजाक उड़ाने में कोई कसर नहीं
छोड़ी . अध्यक्ष महोदय स्वयं अपना नाम शंकर के स्थान पर संकर उच्चारित करते दिखे तो
शेष का क्या दोष । खैर सकार इत्यादि दोष तो आज के विद्वानों में भी आम है ।
प्रथम दिवस संस्कृत नाटक के
नाम पर शुरू की गई नृत्य नाटिका हिन्दी गीतों पर आ गई और यह शो जिसे एक
नृत्याङ्गना द्वारा निदेशित बताया जा रहा, मात्र लाइट
एण्ड साउण्ड शो बनकर रह गया .
द्वितीय दिवस का कजरी गायन
गाँव में होने वाले ऑर्केस्ट्रा शो से अधिक स्तर का नहीं था, परन्तु किसी
गलती की वजह से भास का नाटक आमन्त्रित कर लिया गया था, शायद
आयोजक ये नहीं जानते होंगे कि इसकी सुन्दर प्रस्तुति होगी वर्ना वे श्री प्रेमचन्द
को न आमन्त्रित करते । इस प्रस्तुति ने पूरे समारोह का स्वाद बिगाड़ दिया । अन्यथा
हम कह सकते थे कि इतना घटिया आयोजन आगे कभी न होगा ।
मै यह जानना चाहूँगा कि आखिर
किस की गलती से श्री प्रेमचन्द होम्बल आ गए . अवश्य ही यह गलती से हो गया होगा ।
खैर जिसकी भी गलती हो, कमसे कम एक अच्छी
प्रस्तुति दिखी । इस समाजवादी गलती के लिए संस्थान धन्यवाद का पात्र है । नाटक का
पूर्वरंग ही यह दिखा गया कि यदि आप काम करना जानते हैं तो बड़ी बड़ी लाइट या
मल्टीमीडिया व्यर्थ है, नाटक का पूर्वरंग ही सारे समारोह पर
भारी पड़ा और पूर्व के सारे आयोजन से बहुत आगे निकल गया ।
मजे की बात है कि अध्यक्ष
महोदय भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एवं फिल्म इन्टीट्यूट पुणे से सम्बद्ध एवं
प्रशिक्षित बताए गए फिर भी इतना निम्न आयोजन होना आश्चर्य जनक किन्तु सत्य की
श्रेणी में ही गिना जाएगा ।
Divya Ranjan Pathak खैर अब मुझे यह अफसोस नहीं रहैगा कि उर्दू नाटक के नाम पर उर्दू एकेडमी ने
अशुद्ध उर्दू उच्रचारण वाले कलाकारों को लेकर आगा हश्र कश्मीरी की ऐसी तैसी फेरी
थी , संस्कृत भी क्यों पीठ दिखाए...
Divya Ranjan Pathak
Divya Ranjan Pathak मगर आज तक मैंने उर्दू के कार्यक्रमों में संचालन में हिन्दी या संस्कृत
का प्रयोग होता नहीं देखा, आमतोर पर नफीस उर्दू बोली जाती है,
उर्दू अकादमी में भी स्टाफ उर्दू बोलता लिखता पढ़ता दिखता है परन्तु
बोचारा संस्कृत संस्थान, यहाँ एक को छोड़ कोई भी संस्कृत का
ज्ञान नहीं रखता । वास्तव में संस्कृत संस्थान की पहचान मात्र यहाँ के पुस्तकालय
के कारण हैं जिस में छात्र पढ़ने आ जाते हैं, अन्यथा यहाँ
सन्नाटा ही रहे ।
Pramodavardhana
Kaundinnyayana यस्स्याश् चोरश् चिकुरनिकुरश् चन्द्रपूरो मयूरः,
भासो हासः कविकुलगुरुः
कालिदासो विलासः। हर्षो हर्षो हृदयवसतिः पञ्चबाणस् तु बाणः, केषान् नैषा
कथय कविताकामिनी कौतुकाय॥
4 August 2014
आज देखा जा रहा है कि
संन्यासी न केवल किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति पक्षपात के लिए विवश हो रहे हैं।
यद्यपि आज भी देश में बहुत ऐसे संत भी हैं जो समाज के उत्थान के लिए अनेक
प्रकल्पों के माध्यम से समाज का उत्थान कर रहे हैं। बड़े-बड़े संतों के अनेकानेक
आश्रम चल रहे हैं। इन प्रकल्पों की सच्चाईयाँ भी हैं। आश्रमों के माध्यम से कुछ
अच्छे कार्य भी हो रहे हैं। परन्तु जब कभी तथाकथित संतों की कुटिलतायें सामने आती
हैं, जब किसी कारण से पोल खुल जाता है,
तब धर्म और संत दोनों से विश्वास हिल जाता है, टूट जाता है। इसके कुछ उदाहरण सामने हैं, जिन्हें
बताने की आवश्यकता नहीं है। सन्तों की परम्परा का संस्कृति के विकास में बहुत बड़ा
योगदान रहा है। यह कोई छिपी बात नहीं है, पर आज उसी पहचान के
सामने कुछ सन्तों के आचरण प्रश्नचिह्न बनकर खड़े हैं।
लिंक पर जायें- संन्यासियों ! ये तेरी कैसी विवशता
2 August 2014
http://sanskritbhasi.blogspot.in/
के एक लेख से उद्धृत-
आचार्य करने तक मेरी पहुँच
सन्दर्भ ग्रन्थों तक नहीं हुई थी। मैंने जीवनी संग्रह का भी कार्य किया।
संस्कृतज्ञ विद्वानों की जीवनी भी अत्यल्प मात्रा में प्राप्त हुई। हिन्दी साहित्य
में ग्रन्थकार की जीवनी पद-पद पर प्राप्त होता रहा परन्तु संस्कृत ग्रन्थों के
सम्पादक तदनुरुप लेखन नहीं कर पाये हैं।
हिन्दी साहित्य में समालोचना
का कार्य बहुत देर से आरम्भ हुआ, जबकि
काव्यशास्त्रकारों ने काव्यों पर ढ़ेर सारी समालोचना कर रखी है। संस्कृत के
समालोचक तथा हिन्दी समालोचको में महान् भेद प्रकट होते हैं। संस्कृत में शब्द और
अर्थ के बीच समालोचना घूमती है। रस चर्चा होती है। काव्य के विन्यास पर ज्यादा
जोड़ है परन्तु कथ्य पर आलोचना कम। जबकि हिन्दी में कथ्य या काव्य के सन्देशों पर
ज्यादा आलोचना की जाती है। लेखकीय पृष्ठभूमि पर विचार मंथन चलता है।
31 July 2014
भोजप्रबन्ध के रचयिता बल्लाल
का यह श्लोक कितना मार्मिक है।
वृद्धो मत्पतिरेष मञ्चकगतः
स्थूणावशेषं गृहं
कालोयं जलदागमः कुशलिनी
वत्सस्य वार्तापि नो।
यत्नात् सञ्चिततैलबिन्दुघटका
भग्नेति पर्याकुला
दृष्ट्वा गर्भभरालसां निजवधूं
श्वश्रूश्चिरं रोदिति।। 255।।
मेरे पति ने वृद्धावस्था में
चारपाई पकड़ ली है, पूरा घर गिर गया है। केवल
एक स्थूणा (ठूठ) भर बची है। बरसात का समय है। बेटे का कुशल-समाचार भी प्राप्त नहीं
हो रहा है और बहू के प्रसव कर्म के लिए मैंने एक-एक बूंद जोड़कर जो तेल किसी तरह
जमा किया था, उसका मटका भी फूट गया है।गर्भ के भार से अलसाई
अपनी बहू को देख-देख कर उसकी सास उपर्युक्त बातें कहती हुई बड़ी देर से रो रही है।
Pushpa Gupta आह,अकिंचनता की पराकाष्ठा, हृदय बेधकर रख देती है
Jul 28 2014 : The Times of India
(Lucknow)
Software to make learning
Sanskrit easier
Lucknow
Learning Sanskrit language
would be simpler with UP government working on a software and eportal. The
software would be available in Indian languages besides English.
The UP Sanskrit Sansthan is
being backed by Jawaharlal Nehru University and National Informatics Center for
the purpose. “The effort is a part of Sanskrit literacy campaign towards which
we are working,“ said chairperson Shankar Suhail. He added that the aim is to
make Sanskrit a part of everyday life.
“The 'adaptation' is
necessary to revive Sanskrit,“ he stated.
The software would include
learning of basic Sanskrit so that people are able to read and write primary
Sanskrit. A syllabus and a learning module are the two essentials for the
software and different teams are already working upon them. “Once the raw
material is ready , the software would be prepared for a trial run,“ informed
Jagadanand Jha associated with the project.
Suhail also claimed that
work for Sanskrit e-portal has also begun with technical assessment of
requisites like construction of server room, data storage server, leased line
for the room and 20KVA online UPS.
The Sansthan has big plans
for literacy campaign which includes integrating Sanskrit with computer
education and starting online courses for school children.
Chetan Pandey Govt.
Initiative !!! it will be some bogus thing which will never work and if it is
being sponsored by UP govt. then certainly it will be useless... gauranteed,
reminds me of the Ashtadhyayi software done by CDAC with the help of JNU....
and otherefforts done by the t Govt Fund
embezlers at JNU
Govt Fund embezlers at JNU
Nripendra Pathak I am
working on this in JNU... PhD on Sanskrit-Hindi Machine
30 July 2014
संस्कृत के पुरस्कारों से
जुडा एक तथ्य यह भी
1- संस्कृत
क्षेत्र से प्राप्त पुरस्कार धनराशि का सदुपयोग विद्वद्जन खुद या उनके पारिवारिक
सदस्य करते हैं, जबकि अन्य भाषा एवं कला क्षेत्र के लोग उनके
क्षेत्र से प्राप्त पुरस्कार की धनराशि को (परोपकारार्थ) उस क्षेत्र में अध्ययन रत
छात्रों को छात्रवृत्ति आदि देकर सदुपयोग करते है। मैं अपवाद को नहीं जानता।
संस्कृतज्ञ के रूप में अपनी
पहचान स्थापित करें।
संस्कृत को पहचान दें, संस्कृत का
प्रसार करें।
कमलाकान्त बहुगुणा परमत्र
अपवादः अपि वर्तते ।आसन् मदीयाः आचार्यवरा: पंडित युधिष्ठिर मिमांसकाः अथ च डॉ
विजयपाल विद्यावारिधि महोदयाः।
डा. प्रदीप कुमार मिश्र हम तौ
झुट्ठै खुशफ़हमी पाले बैठे थे ई सब भी कुछ परोपकार करते होंगे...........धत्त तेरे
की......मने हमरे दिमाग की.............
30 July 2014
कल लखनऊ में संस्कृत दिवस की
पूर्व संध्या पर नगर के मुहल्ले में जाकर संस्कृत के क्षेत्र में कार्यरत
संस्कृतज्ञों की पहचान पर एक सर्वे किया गया। आश्चर्य तब हुआ जब विजली मिस्त्री.
केश कर्तक, ट्यूटर वकील आदि को लोग
उनके पेशे के साथ उनका नाम जानते थे,परन्तु अधिकांश
संस्कृतज्ञ के बारे में यह नहीं जान सके कि मेरे पडोस में संस्कृत पढा लिखा
व्यक्ति रहता है। आखिर कब संस्कृत से जुडे लोग संस्कृतज्ञ के रूप में अपनी पहचान
स्थापित करेंगें ?
डॉ. अरविन्द कुमार तिवारी
मेरा अभिप्राय प्रशंसा श्रवण का नहीं अपितु जो अन्य कार्यों में हमारे मित्र
व्यस्त दिखते; क्या वे संस्कृत से
पहचाने जायें। इस ओर उनका ध्यानाकर्षण किया जाय?
जगदानन्द झा प्रश्न निष्ठा
एवं सुलभता का भी है।
25 July 2014
देश के विविध भागों में
आयोजयिष्यमान संस्कृत दिवस की सूचना भी नहीं मिल रही है। मैं अपने संस्कृतज्ञ
मित्रों से अनुरोध करता हूँ कि संस्कृत से जुडी संस्थाओं में होने बाले संस्कृत
कार्यक्रमों की सूचना सार्वजनिक करें। ऐसा करना अच्छा है।
Shri Krishan Jugnu जब संस्कृतीय भारत में अंग्रेजी शिक्षा लागू हुई, तब
संस्कृत के अध्यापक बडे ही चिंतित हुए थे,, उन्होंने संस्कृत
प्रेमी एचएच विल्सन को पत्र लिखा, प्रत्युत्तर में विल्सन
ने लिखा था - अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोधिकम्। देवभोग्यमिदं यस्माद्देव
भाषेति कथ्यते।। इसका अर्थ हुआ कि अमृत तो अमृत होता है, बहुत
ही मीठा,, संस्कृत भाषा उससे भी अधिक मीठी है, देवता भी इसका उपयोग करते हैं, इस कारण यह देवभाषा
के नाम से प्रख्यात है...
25 July 2014
क्या संस्कृत के विद्वद्जनों
की रचनाधर्मिता इतनी कमजोर हो गयी कि मैं facebook पर
व्यक्तिगत फोटो तथा कविताएँ अधिक मात्रा में पाता हूँ। मेरी लालसा थी कि मेरे
अधिकाधिक संस्कृतज्ञ मित्र हों। मैं संस्कृत की रचनाओं तथा संस्कृत क्षेत्र में
होने वाले गतिविधियों को जान सकूँ।
Shri Krishan Jugnu झा साहब, आप सही कह रहे हैं, यह
पीड़ा मेरी भी हैं, मैं सदैव संस्कृत में होने वाले नित नए
प्रकाशनों के विषय में जानना चाहता हूं ताकि खरीद भी सकूं,,, मगर यहां तो टिप्पणियां ही ज्यादा देखने को मिलती है... कभी क्षेमेन्द्र
ने लिखा था-- हा प्रजे क्व गमिष्यसि !
डॉ.कंचन तिवारी नगाधिराज
सत्यमेतदुक्तं भवता। परं स्वपक्षतो विषयमेकमाश्रित्य
विचारशीलैर्विद्वद्भिर्भवद्भिरेव नित्यं किमपि अस्माकं बोधाय उपस्थापनीयम्
24 July 2014
कल से मैं बल्लाल का
भोजप्रबन्ध पढ रहा हूँ। आशा है अपने Blog पर इसपर
कुछ लिखूँ।
23 July 2014
मेरा वाराणसी तथा अन्य
संस्कृत शिक्षा केन्द्रों से वर्षों से जुडाव रहा है। वहाँ हिन्दी सहित तमाम
सामाजिक क्षेत्रों के यशःशेष मनीषियों के स्मारक,मूर्तियां
स्थापित हैं।संस्कृत की राजधानी वाराणसी में भी संस्कृत से जुडे मनीषियों के नाम
स्मारक या उनकी मूर्तियां उपलब्ध नहीं हैं। आपको कहीं संस्कृत से जुडे मनीषियों के
नाम स्मारक या उनकी मूर्तियां लगी दिखी हो तो मेरे भी संज्ञान में लायें।
19 July 2014
आप भी इस साइट में शामिल हों ।
http://sanskritbhasi.blogspot.in/
मैंनें अपने ब्लाग पर अकारादि
अनुक्रम से अ से ह तक लगभग 15 हजार संस्कृत पुस्तकों
एवं उनके लेखकों/टीकाकारों की सूची उपलब्ध करा दी है। ये पुस्तकें मेरे पुस्तकालय
में उपलब्ध भी हैं।
19 July 2014
जयललिता एवं वाइको जी सुनिये।
मैं भारत का नागरिक हूँ और यह जानता हूँ कि आपके प्रदेश में भी लोग संस्कृत पढते
हैं। जब हमें भारतीय भाषाओं से परहेज नहीं है तो आपको क्यों?
15 July 2014
माँ गंगा। इसके तरंग पर
चटकीले सुनहरे सूर्य रश्मि।ऊपर मेघ। देखा है ऐसा मनभावन दृश्य?
14 July 2014
क्या आप संस्कृत की अनुपलब्ध पुस्तकें online ढूँढकर पढते हैं यदि ऐसा
है तो like पर click करें। दरअसल मैं
यह जानने की कोशिश में लगा हूँ कि इस प्रकार के पाठकों की संख्या कितनी है?
मैं संस्कृत के अनुपलब्ध पुस्तकों को online करना
चाहता हूं। प्रयोग कर्ता तो मिलें।
काशी की संस्कृति को पास से देखकर महसूस करने के लिये आज
मैं अस्सी घाट चौराहे पर देर तक बैठा रहा। एक ओर विदेशी सैलानी आ जा रहे थे तो
दूसरी ओर धवल वस्त्र में ब्रह्मचारी। यही तो काशी है।
14 July 2014
त्रेता का निषाद बच्चों को वेद नहीं पढना चाहते द्वापर आते
आते वही वेद का विभाजन करने में सक्षम हो गया। द्वापर में दो ही कृष्ण मुख्य हैं 1. कृष्ण द्वीपायन वेदव्यास 2.
श्री कृष्ण। अब कलियुग में वेद का रक्षक कौन समुदाय?
आनन्द वर्द्धन दुबे वेदव्यासजी की माता 'मत्स्यगन्धा या योजनगन्धा'
ये भरत वंशी राजा उपरिचर वसु की पुत्री तथा जरासन्ध की
बुआ(पितृष्वसा) है । इसका पालन पोषण दाशराज ने किया है ।
वशिष्ठ के पौत्र पराशर जी व्यासजी के पिता हैं । मैं इन्हें
निषाद नहीं मान सकता ।
इसका नाम सत्यवती भी है , बाद में इसका विवाह शान्तनु (भीष्म के पिताजी)
से स्वयं भीष्मजी ने कराया ।
विचार करें द्वैपायन व्यास जी निषाद कैसे ।
"पातभरी सहरी सकल सुत बारे बारे .....
इन्हें बेद ना पढाइहौं" और "बिन्ध्य के बासी उदासी तपी, ब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे" कवि(गोस्वामी जी) का मनोविनोद है ।
इससे अधिक क्या कहें ?
27 June 2014
·
भारतीय शास्त्र जो ईश्वर सिध्धि पर चर्चा करता हो.पूजन
परम्परा का निर्धारण करता हो.देवालय निर्माण मूर्ति स्थापन की विधि शास्त्रानुसार
हो ,उस समृद्ध परंपरा के साथ ये सब
क्या हो रहा है ?
27 June 2014
आश्चर्य है शंकराचार्य के साईं मत पर रखे विचार पर संस्कृत
के धुरन्धर मुखर क्यों नहीं हैं
सर्वेश त्रिपाठी आपका क्या मत है
शंकराचार्य की बात सही है। परम्परा से प्राप्त विद्या युक्त
व्यक्ति शंकराचार्य की बात का निहितार्थ समझ सकता है।
सर्वेश त्रिपाठी मैंने यह देखा है की संस्कृत के अधिकतर
विद्वान् सबसे ज्यादा स्वार्थी लालची अकर्मण्य घमंडी निष्क्रिय विद्या रुपी मणि पर
भुजंग की भांति कुंडली मारे बैठे होते हैं। सिर्फ मीठा मीठा बोलकर काम निकालते
हैं।
आचार्य सुधीर झा जय दुर्गे! सर्वेश त्रिपाठी जी संस्कृत
विद्वान के लिए आपने जो भी शब्द प्रयोग किया है बिलकुल अमर्यादित है शायद आपके
शब्दकोष में यही शब्द भरा हुआ है जिसको विद्वान शब्द कहकर प्रयोग कर दिया भाषा
संयमित सम्मानित प्रयोग करने का प्रयाश रखे किसी व्यक्ति में ऐसा स्वाभाव हो सकता
है भाषा के विद्वान में सद्गुण ही सद्गुण होता है ये आपकी परख की कमी है
सर्वेश त्रिपाठी सिद्धांत अलग है और यथार्थ अलग आजकल। बुरा
उन्हे ही लगेगा जो वैसे हैं। मैंने सभी को नहीं कहा। और वहाँ प्रयुक्त विद्वान्
शब्द व्यंग्य है
आचार्य सुधीर झा
आचार्य सुधीर झा जय दुर्गे! आपने सभी को कहा या न कहा, बुरा उसी को लगेगा जो वैसा
होगा, आपका मानसिक दिवालियापन द्योतित होता है मैं आपसे
निवेदन किया भाषा मर्यादित हो तो आप दम्भ भरने लगे सबसे ज्यादा अहंकार, मद आदि तो आपका ही प्रकट होता है
जगदानन्द झा बन्धु साईं पर बात करें,जो शास्त्र ईश्वर सिध्धि पर
चर्चा करता हो.पूजन परम्परा का निर्धारण करता हो.देवालय निर्माण मूर्ति स्थापन की
विधि शास्त्रानुसार हो ,उस समृद्ध परंपरा के साथ ये सब क्या
हो रहा है ?
सर्वेश त्रिपाठी एक शैव होने के नाते मैं यह कहना चाहूँगा
की जगती का प्रत्येक कण कण शिवरूप होने के कारन पूज्य है। पर जब हम किसी धर्म या
पंथ के अनुयायी हों तो उसके शास्त्रों और उसके गुरुओं की बात हमें माननी चाहिए। एक
संत या व्यक्ति के रूप में मैं साई बाबा का सम्मान करता हूँ। पर उनकी पूजा अर्चना
नहीं कर सकता। शंकराचार्य जी के बयान से पूर्णतः सहमत हूँ। स्वधर्मे निधनं श्रेयः
परधर्मो भयावहः ।
हर हर महादेव
डॉ अभिवृत चौहान मैं शास्त्रों एवं वेदों में वर्णित भगवान
को पूज्य मानता हूँ ....जो कि त्रिदेव हैं .....जो भी सत्कर्म करता है वो आदर का
पात्र हो सकता है भगवान् नहीं .जो अहम् ब्रह्मास्मि कहता है वो रावण ही कहलाता है
इतिहास में .....मुझे विश्वाश है कि अंधभक्त आशाराम को भी साईं और बाकी सब गुरुओं
को भी उनके मरने के कुछ वर्षों बाद भगवान् बना ही देंगे ...पर कम से कम मैं तो
असहमत हो सकता हूँ ....
किसी को भी भगवान् बनाना अपमान है प्रभु का ...और यह
निंदनीय है .........
अंत में इतना ही कि ...............सनातन धर्म में सबसे बड़ा
पाप गौ हत्या को माना गया है और मुझे विदित है .............
हरिहर निंदा सुने जो काना |
ताय पाप गौ घात समाना ||
Chandra Kala Shakya झा जी मैने देखा है
परम्परा से प्राप्त विद्या युक्त व्यक्ति ही सबसे ज्यादा भेदभाव की बातें करके
समाज में फूट डालने का काम करते है चाहे वह मदरसे हों या पारम्परिक विद्यालय ।
जगदानन्द झा साईं मत में गीता पवित्र ग्रन्थ है या अन्य कुछ
.वेद पाठ की परम्परा है या नहीं,देव वाद की अवधारणा क्या है.प्रश्न बहुत है
Chandra Kala Shakya जय हो स्वामी शंकराचार्य
जी की जिन्होने अभी चुनाव के वक्त 'हिन्दुत्व ''के नाम एक हुए समस्त हिन्दुओं को आपस में ही लडा दिया ।
अफसोसजनक
27 June 2014
हमारे धर्म वेद अनुमोदित है अतः वेद पाठ की परंपरा है
.वेदाध्ययन के लिए शास्त्र अध्ययन .शास्त्र अध्ययन के लिये संस्कृत भाषा
अध्ययन.अंततः .संस्कृत की हानि करने वालों से साबधान.
भारतीय शास्त्र जो ईश्वर सिध्धि पर चर्चा करता हो.पूजन
परम्परा का निर्धारण करता हो.देवालय निर्माण मूर्ति स्थापन की विधि शास्त्रानुसार
हो ,उस समृद्ध परंपरा के साथ ये सब
क्या हो रहा है ?
आश्चर्य है शंकराचार्य के साईं मत पर रखे विचार पर संस्कृत
के धुरन्धर मुखर क्यों नहीं हैं।
13 June
2014
उज्जैन निवासी सुपसिद्ध संस्कृत कवि और विद्वान आचार्य
श्रीनिवास रथ का आज निधन हो गया।
27 May 2014
आज विश्व गृह कीटों के दुष्प्रभाव से पीडि़त है। इससे
आर्थिक एवं स्वास्थ्य की क्षति हो रही है। कीट घरेलू सामग्री को नष्ट कर रहे है।
प्रदूषित कर रहे है। तमाम कम्पनियां इसके रोकथाम के लिए दवाएँ बना रही है। संस्कृत
ग्रन्थ में घरेलू कीट के पहचान, भेद, उसकी आदतें, उसके दुष्प्रभाव से अपरिचित नहीं रहा होगा। संस्कृत ग्रन्थों में इसके
रोकथाम के लिए एकत्र वर्णन नहीं है। तिलचटृा, दीमक आदि की
उत्पत्ति मानव सभ्यता के पहले हो चुकी है। संस्कृतज्ञों द्वारा कहीं भी घरेलू कीट
की पहचान एवं इसके रोकथाम के उपायों के लिए शोध नहीं किया जा रहा है। बृहत्संहिता
के अध्याय 54 में अनेक जगह दीमक की वांवी (वल्मीक) को आधार मानकर जल के परिज्ञान
का वर्णन मिलता है परन्तु कीटों के पहचान एवं उपचार का वर्णन नहीं मिलता है।
यदि हम जीवन को सरल एवं सहज करने वाले उपचारात्मक ज्ञान
संस्कृत ग्रन्थों में खोज सकें तो जन-जन इस भाषा के अध्ययन को प्रेरित होगा।
http://sanskritbhasi.blogspot.in/ से साभार
अभी-अभी सम्पन्न हुए लोक सभा चुनाव में चयनित सांसदो को
संस्कृत में शपथ लेने के लिए एक प्रेरक अभियान चलाने की आवश्यकता है। प्रत्येक
सांसदीय क्षेत्र के संस्कृतज्ञ अपने संसदीय क्षेत्र से चयनित सांसदों से संस्कृत
में शपथ लेने का आग्रह करें तो निश्चय ही संस्कृत की उच्च स्तर पर स्वीकार्यता का
सन्देश जन-जन तक जाएगा। यह एक मौका है। SMS, मेल, फोन, पत्र, व्यक्तिगत एवं सामुहिक आग्रह द्वारा इसे सम्भव
किया जा सकता है।
http://sanskritbhasi.blogspot.in/ के
जगद्यात्रा से साभार
23-05-2014
संस्कृत के प्रचार प्रसार के लिए
जन जागरुकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। यह इसलिए के कक्षा 6 से 8 तक पढ़ने के
बाद छात्र/छात्राओं को अगली कक्षाओं में संस्कृत पढ़ने की प्रेरणा देने वाला कोई
नहीं होता। समाज में संस्कृत के प्रति अच्छी धारणा पैदा किये जाने पर ही इसके
विकास की कल्पना की जा सकती है। अभी संस्कृत शिक्षा की पैरवी करने वाले सामाजिकों
का अभाव है। जब तक जनमानस में संस्कृत की स्वीकार्यता पर्याप्त मात्रा में नही
बढ़ायी जाती सांस्थानिक स्तर पर सभा, संगोष्ठी करने का कोई खास लाभ नहीं
मिलने वाला। पुनि-पुनि चन्दन की कहावत वाले कार्यक्रमों में वही गिने-चुने वक्ता
और श्रोता होते है, जो इस क्षेत्र से जुड़े है।
इस
ग्रीष्मावकाश में हर मुहल्ले-गाँव के सामाजिक स्थलों पर स्थानीय अभिभावकों एवं
छात्रों की सभा कर संस्कृत शिक्षा के लाभ, उद्येश्य व प्रेरक कार्यक्रम
आयोजित किया जाना चाहिए। समाज के अनेक तबकों को इस शिक्षा के बारे में जानकारी
मुहैया कराने एवं उसके लिए माहौल निर्मित करने के लिए कक्ष और फाइल से बाहर निकलकर
धरातल पर कार्य करना होगा।
जन जागरुकता
के लिए SMS, ई-मेल, सोशल
मीडिया, पत्र लेखन द्वारा अपने परिचितों को
संदेश भेजना, ग्राम मोहल्ले की गलियों में
सभायें आयोजित करना व्यक्तिगत और सामूहिक रुप से जन सम्पर्क अभियान चलाना, समाचार, दीवार
पर संस्कृत को अपनाने हेतु प्रेरक वाक्यों को लिखा जाना आदि कार्य किये जा सकते है।
किसी
एक क्षेत्र का चुनाव कर संस्कृत शिक्षा के लिए जन जागरुकता अभियान चलाने इसके लिए
उचित माहौल तैयार करने का सकारात्मक असर आएगा। कुछ वर्षो बाद संस्कृत शिक्षार्थियों
एवं संस्कृत के पैरोकारों की संख्या में वृद्धि होगी।
अभी-अभी
सम्पन्न हुए लोक सभा चुनाव में चयनित सांसदो को संस्कृत में शपथ लेने के लिए एक
प्रेरक अभियान चलाने की आवश्यकता है। प्रत्येक सांसदीय क्षेत्र के संस्कृतज्ञ अपने
संसदीय क्षेत्र से चयनित सांसदों से संस्कृत में शपथ लेने का आग्रह करें तो निश्चय
ही संस्कृत की उच्च स्तर पर स्वीकार्यता का सन्देश जन-जन तक जाएगा। यह एक मौका है। SMS, मेल, फोन, पत्र, व्यक्तिगत
एवं सामुहिक आग्रह द्वारा इसे सम्भव किया जा सकता
22 May 2014
मैं शिक्षा आध्यात्म एवं चिकित्सा
को त्रिकोण के रुप में देखता हूँ। सर्वप्रथम महाभारत में डिप्रेशन का जिक्र
(अवसाद) प्राप्त होता है। अर्जुन के अवसाद ग्रस्त होने पर उनकी साइकोथैरेपी, काउंसलिंग
श्री कृष्ण द्वारा किया गया।तनाव एक मनोरोग है। यह बीमारी आमतौर पर व्यक्ति को
जीवन के पूर्वार्ध के वर्षों में खासकर किशोरावस्था व युवावस्था में अपना शिकार
बनाती है, यदि मनोरोग खासकर तनाव का समय से
उपचार न कराया जाये तो विकलांगता, बेरोजगारी, दुर्व्यवहार, जेल
की यातना सहने, आत्महत्या करने या एकाकी जीवन
व्यतीत करने जैसी घटनाएँ सामने आती है।
योगवासिष्ठ
में मनोदशा का वर्णन निम्न प्रकार से आया है-
क्षणमानन्दितामेति
क्षणमेति विषादिताम्।
क्षणं
सौम्यत्वमायाति सर्वस्मिन्नटन्मनः।
17 May 2014
स्वातंत्रयोत्तर
काल में सृजनात्मक विधाओं में गीतियाँ, गजल, कव्वाली, उपन्यास, लघुकथा, जीवनी, आत्मकथा, यात्रावृत्त, हास्यविनोद, पुस्तक-समीक्षायें
तथा अन्य देशी-विदेशी विधाओं को लेखको ने संस्कृत भाषा में पिरोकर उसकी ग्राह्य
क्षमता और समद्धि में वृद्धि की है। छन्दों में वार्णिक से मात्रिक तक तथा दोहा, चौपाई, सवैया, कवित्त
से लेकर दंडक, अश्वघाटी तक की रचना हो रही है।
गजलें और गीतियाँ भी इसी क्रम में है। छन्दोमुक्त नव्यकाव्य की रचना के प्रति
संस्कृत-लेखकों का झुकाव और हाइकू जैसी जापानी व प्रयोगात्मक कवितायें भी संस्कृत
साहित्य की समृद्ध परम्परा में जुड़ रही है। व्यंग्य-लेख ललित-निबन्ध आदि नवीन
विधाओं में लेखन पत्र-पत्रिकाओं के आवश्यक अंग है। मीडिया की विधाओं से प्रेरित
संस्कृत-साहित्य में नाटकों के संकलन संस्कृत-नाट्यमंजरी, पूर्व-शाकुन्तलम्
आदि का प्रकाशन भी हुआ है। संस्कृत-धारावाहिकों के प्रसारण भी दूरदर्शन पर हुये।
चीन देश की गायिका संस्कृत की प्रथम पाॅप गायिका है।
जगद्यात्रा
संस्कृत के
प्रचार प्रसार के लिए जन जागरुकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। यह इसलिए के कक्षा 6 से 8 तक पढ़ने के
बाद छात्र/छात्राओं को अगली कक्षाओं में संस्कृत पढ़ने की प्रेरणा देने वाला कोई
नहीं होता। समाज में संस्कृत के प्रति अच्छी धारणा पैदा किये जाने पर ही इसके
विकास की कल्पना की जा सकती है। अभी संस्कृत शिक्षा की पैरवी करने वाले सामाजिकों
का अभाव है। जब तक जनमानस में संस्कृत की स्वीकार्यता पर्याप्त मात्रा में नही
बढ़ायी जाती सांस्थानिक स्तर पर सभा, संगोष्ठी करने का कोई खास लाभ नहीं
मिलने वाला। पुनि-पुनि चन्दन की कहावत वाले कार्यक्रमों में वही गिने-चुने वक्ता
और श्रोता होते है, जो इस क्षेत्र से जुड़े है।
7 April 2014
चुनाव शुरु
संस्कृत गायब। फिर मत कहना संस्कृत जरुरी है। इसे बचाओ।
Shastri Kosalendradas उर्दू 'अंदर' संस्कृत 'पार' अबकी
बार मोदी सरकार
योगेन्द्रकुमार
गौतमः ये हो नही सकता
आचार्य
वाचस्पति संस्कृत-भाषा रही पुकार,
घोषणा-पत्र
में मिली न धार,
गौरव- थाती
की बातें बेकार,
संस्कृत बिना
न होगा उद्धार,
आन्दोलन करने
को हो जाओ तैय्यार,
अबकी बारी
मोदी सरकार !!!
डॉ.
अरविन्द कुमार तिवारी किमिदं यथार्थं? बहुभि:
यदुक्तं कृतं तत्? राजनीतौ सर्वं मतावाप्तये घोष्यते।
अत: मा चिन्तयन्तु। संस्कृतज्ञा: करिष्यन्ति रक्षां संस्कृतस्य न नेतार:।
Pramodavardhana Kaundinnyayana सँस्कृतं
विना का शिक्षा?
अवशिष्टा
भवति दासतैव।
दासत्वमुक्तये
आवश्यिका राजसत्तैव॥
7 April 2014
स्थान परिचयः-
चित्रकूट के
महत्व का गुणगान आदि-कवि वाल्मीकि, पुराणों के रचयिता महर्षि व्यास, महाकवि
कालिदास, संस्कृत नाटककार भवभूति, संतकवि
तुलसी, मुसलमान कवि रहीम ने मुक्त कण्ठ से
किया है। मानवीय सृष्टि-सरणि में अवतारी पुरुष भगवान राम ने जिस स्थान को अपना
निवास स्थान चुना हो और जिसकी प्रशंसा के भाव भरे गीत गायें हों उसके प्रभाव तथा
माहात्म्य के बारे में कुछ कहना अशेष रह जाता है।
3 April 2014
विगत दिनों
जम्मू एवं हिमाचल के अनेक शक्तिपीठ गया था। उनके बारे में कोई भी पौराणिक श्लोक
कहीं लिखा नहीं मिला,जिससे ज्ञात हो सके कि यह कोई
तीर्थ स्थल है।
28 March 2014
स्मृति
ग्रन्थों में कुछ विषयों के प्रतिपादन में भिन्नतायें प्रतीत होती हैं। मनुस्मृति
तथा याज्ञवलक्य स्मृति में आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त
तीनों ही विषयों का समावेश किया गया है जबकि नारद स्मृति मूलतः व्यवहार प्रधान है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मनुष्य के नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है ऐसे समय में
स्मृतियां अत्यधिक सहायक सिद्ध होती है जहां गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, भाई-बहन
आदि सम्बन्धों में पूजनत्व की भावना छिपी हुई है।
वर्तमान समय
में गुरु-शिष्य के सम्बन्धों में नैकट्य तथा समर्पण की भावना समाप्त हो गई है।
गुरु केवल अर्थोपार्जन के लिए पढ़ाता है तथा शिष्य केवल अर्थोपार्जन के लिए शिक्षा
ग्रहण करता है अर्थात् अर्थोपार्जन जीवन का उद्देश्य बन गया है। ऐसा नहीं है कि
प्राचीन समय में अर्थोपार्जन नहीं किया जाता था। वह जीवन का एक अभिन्न अंग था, किन्तु
धर्म को नहीं छोड़ा जा सकता था। स्मृतियों में इन सम्बन्धों में भी ‘‘गुरु
देवो महेश्वराय’’ की भावना
प्रबल थी जो आज क्षीण हो गई है।
20 March 2014
आचार्य वंशी
दास जी.मानवता के प्रतिमान।इनके लिए सारे विशेषण कम हैं। मैं इनसे मिलकर धन्य हो
गया। यहाँ वाचाल जीव सहज शान्त हो जाता है। जालन्धर के दाना मंडी,हनुमान
मंदिर में इस परम सिद्ध संत की कुटी है। जीवन में एक बार इनका दर्शन अवश्य करें।
7 March 2014
मैंने संस्कृत
रचनाओं का दो विभाग किया है। 1. आम जन के लिए की गयी रचनाएं श्लोकबद्ध 2.
बुद्विजीवियों के लिए उपयोगी रचनाएं गद्य युक्त। ये परवर्ती काल में भी शास्त्रीय
ग्रन्थ और उस पर भाष्य, टीका परम्परा गद्य रुप में ही
पातें है यथा ब्रहम्सूत्र, उपनिषद् के भाष्य।
इसके पीछे
श्रुति परम्परा महत्वपूर्ण कारक रहा है। लयात्मक (छन्दोबद्ध) रचना को याद रखना सहज
होता है। स्मृति संरक्षण हेतु आम जन के योग्य ग्रन्थ के श्लोकबद्ध करने की परम्परा
चल पड़ी। जबकि गद्य युक्त ग्रन्थ सन्दर्भ प्रधान होते थे उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ
विद्वानों के बीच चर्चा किये जाने वाले इन शास्त्रों को कण्ठस्थ करना उतना आवश्यक
नहीं था।
7 March 2014
पुस्तकों का
संसार मुझे अत्यन्त रोमांचित करते रहा है। बचपन से ही पुस्तकों को पढ़ना और उसे
संग्रह करना मेरी दिनचर्या थी। कोई भी पुस्तक मिल जाये उसे जल्द से जल्द पढ़ने को
मैं उतावला हो उठता हूँ।
अपने अतीत के
अनुभव से मैं यह कह सकता हँू कि उच्च शिक्षा में प्रवेशार्थी छात्रों को पुस्तकालय
के उपयोग की शिक्षा दी जानी चाहिए।
26 February 2014
विद्वान् और
पुस्तक में श्रेष्ठ कौन?
लगभग 12 वर्ष
बीत गये। अब मै सोचता हूँ। पुस्तक बड़ा या विद्वान्। निश्चय हीं पुस्तक की अपेक्षा
ज्ञान की जीवित प्रतिमूर्ति बड़ा है। पुस्तकीय ज्ञान को आत्मसात किया विद्वान्
उसमें व्यक्त विचारों की व्याख्या कर सकता है। भाष्य कर विस्तृत फलक उपलब्ध कराता
है। उससे तर्क पूर्ण ढ़ग से सहमत या असहमत हो सकता है। तद्रुप अनेक ग्रंथो का सार
संकलन कर समयानुकूल प्रस्तुत का सकता है।
अब तो मैं यह
भी मानने लगा हूँ कि वह विद्वान् उस विद्वान से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है जोे अपने
ज्ञान को केवल पुस्तकाकार कर ही नहीं छोड़ा अपितु उसके संवाहकों की एक जीवित वंश
परम्परा स्थागित किया हो।
12 February 2014
सामाजिक एवं
राष्ट्रीय उत्थान में संस्कृत की भूमिका-
एक बच्चा
रोजगार को दृष्टि में रखते हुए रोजगार परक भाषा एवं विद्या पढ़ता है। अभिभावक उसे
समाज से दूर किसी ऐसे विद्यालय में उसे पढ़ने भेजते हैं जहाँ वह रोजगार परक भाषा
एवं शिक्षा प्राप्त करने में सफल होता है।
बच्चा
संस्कृत नहीं पढ़ता। संस्कृत न पढ़ने से उसमें सामाजिक सदाचार, नैतिकता, अपने
देश के सांस्कृतिक विरासत से अछूता रह जाता है। माँ-पिता सिर्फ धन देकर पढ़ने में
सुविधा प्रदान करने वाले तक रह जाते हैं। बच्चा विदेश जाता है वहीं का निवासी हो
जाता है। माँ-पिता द्वारा किया गया खर्च वह लौटाता है। ऐसा बच्चा न तो अपने देश न
ही अपने समाज के लिए कुछ कर पाता है। अतः यह आवश्यक है कि मानव के संतुलित विकास
के लिए संस्कृत की शिक्षा जरुर दी जाए।
5 February 2014
एक यक्ष
प्रश्न संस्कृत का उद्धारक सरकार या प्रेरक समूह
यह तय है कि
संस्कृत मूल धारा में न होकर भी समाज का उपकारक शास्त्र बना रहेगा। जिस गति से इस
भाषा को चाहने वालें की संख्या घटती जा रही है सम्भव है कुछ दिनों बाद इसके
उद्वारक तो दूर प्रशंसको को ढूढ़ना भी मुश्किल होगा।
31 January 2014
हम इस पचड़े
में नही पड़ते कि गुप्त प्रेम के इस रोचक ग्रन्थ का कश्मीर या दक्षिण भारत पाठ के
अतिरिक्त और कितने पाठ हैं। कितनी टीका है। कवि को मृत्युदण्ड दिया गया या
राजकुमार सुन्दर के मृत्युक्षण का उल्लेख इसमें किया गया। वह प्रक्षिप्त है या
नहीं। इसके बारे में विशद वर्णन अनेक ग्रन्थों में प्रकाशित है। मुझे तो बस इसमें
अधिक रुचि और आनन्द है कि एक राजकुमारी के साथ गुप्त प्रेम कितना सरस होता है। जब
कवि अपने गुप्त मिलन के आनन्द को अंतिम बार स्मरण किया तो कैसे? कितना
वह मार्मिक स्मरण था कि राजा भी प्रभावित हुए विना नहीं रहा।
30 January 2014
प्रेमाकुल, विरही
युवक युवतियों को तो इसे पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे उसके ही भिन्न-भिन्न मनोदशाओं
का वर्णन यहाँ किया गया है। पुस्तक की विधा, रचनाकर के बारे में तो छपी
पुस्तकें उपलब्ध है ही अतः मैं भाव, रस, सौन्दर्यबोध, नायिका
भेद आदि का वर्णन यहां नहीं करना चाहता। बस इतना ही कहना चाहूँगा। आप यदि
कामशास्त्रीय यथा किसी रूपसी (नव यौवना) का वर्णन, प्रेम
सम्बन्ध के प्रायोगिक स्वरूप (सुरत व्यापार) आलिंगन (बांहो में भरने) कामभाव के
मुक्त मनोहारी आनन्द का ज्ञान चाहते है तो जरूर पढ़े चौरपंचाशिका ।
6 January 2014
मेरा यह
मानना है कि केवल लेखन कर्म से ही संस्कृत की सेवा नहीं होती वरन् संस्कृत शिक्षा
अध्ययन को प्रेरित करने वाले, संस्कृत छात्रों व विद्वानों को
संरक्षरण देने वाले, संस्कृत के विकास हेतु जनान्दोलन
चलाने वाले, संस्कृत के लिए संघटनात्मक ढ़ांचा
निर्मित करने वाले, मुद्रक, डिजाइनर, संस्कृत
गीत को ध्वनि देने वाले, डाक्युमेंन्ट्री फिल्म निर्मित करने
वाले, इलेक्ट्रानिक संसाधनों द्वारा
संस्कृत प्रचार करने सहित तमाम वे लोग भी संस्कृत सेवी है, जो
निस्वार्थ भाव से संस्कृत को व्रत समझकर इसे पल्लवित एवं पुष्पित कर रहे है।
दसेक
बुद्धिजीवी संस्कृतज्ञ काव्य रचना, टीका परम्परा, निरर्थक
बौद्धिक व्याख्यान देकर इस भ्रम में रह रहे हैं कि इससे संस्कृत पल्लवित एवं
पुष्पित हो रहा है। मैं इससे असहमत हूँ। आखिर ये सब किसके लिए? आपको
कौन सुनेगा? कौन पढ़ेगा?
किसके लिए
संस्कृत शिक्षा एवं पुरस्कार
शिक्षा
व्यक्ति के सर्वांगीन विकास हेतु प्रदान किया जाता है। संस्कृत शिक्षा द्वारा आज
के परिवेश के अनुरुप व्यक्ति का सर्वांगीन विकास नहीं करता। पुनश्च आज की शिक्षा
उत्पादक शिक्षा हो गयी है। प्राचीन अवधाराणाओं के विपरीत यह रोजगार उपलब्ध कराने
का एक जरिया है।
काम करना और
उसमे डूब जाना मेरी आदत में शुमार है। महोत्सव का नाम सुनते ही मेरे रगों मे
उत्तेजना फेल जाती है। पूरी योजना मेरे सामने तैरने लगती है और मैं जुट पड़ता हूँ
उसे पूरे करने में।
अखिल भारतीय
व्यास महोत्सव संस्कृत जगत् के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व के रुप में प्रतिष्ठित हो
इस अभिलाषा के साथ मैं गत वर्ष कार्य में जुटा। लक्ष्य था महोत्सव में सभी संस्कृत
सेवियों एवं संस्कृत प्रेमियों को इस अवसर पर आमंत्रण भेजना।
भारतीय
साहित्य; खासकर संस्कृत साहित्य का
स्वर्णयुग एक हजार वर्षों के बाद अकबर के राजत्व में ही परिलक्षित होता है।
मध्यकालीन अखण्ड भारत की महान् विभूति ‘रहीम’ संयोग
से इसी काल में हो आए हैं।
मेरा
नाम जगदानन्द झा है। सम्प्रति में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ
में पुस्तकालयाध्यक्ष पद पर कार्यरत हूँ। सौभाग्य से मेरा कार्यक्षेत्र, रूचि
का क्षेत्र, मेरी निष्ठा और क्रियाशील अन्तःकरण
संस्कृत के लिए ही है। मुझे इस क्षेत्र में कार्य करने एवं संस्कृत विद्याध्ययन को
उत्सुक समुदाय को नेतृत्व प्रदान करने में आनन्द का अनुभव होता है। मैं संस्कृत के
क्षेत्र में रोजगार के नूतन क्षेत्र को यदि विकसित कर सकॅू तो अपने को धन्य
समझूँगा।
समस्त भारतीय
धर्म शाखाओं का उद्भव व्यास रचित ब्रहम सूत्र से हुआ है।
23 October 2013
महर्षि व्यास
और व्यास महोत्सव
महर्षि
व्यास ने जहां एक ओर वैदिक साहित्य का विस्तार किया वहीं पुराण, महाभारत, व्यास
स्मृति एवं ब्रहमसूत्र की रचना कर लौकिक साहित्य का भी प्रणयन किया। आज महर्षि
व्यास के नाम पर जितना विपुल साहित्य उपलब्ध होता है उतना अनेको लेखकों के द्वारा
मिलकर भी लिखा जाना असम्भव है। वेदों के चतुर्धा विभाग के पश्चात इसकी अनेक शाखाएं
उदभूत हुर्इ, जिसका श्रेय भी महर्षि व्यास को
जाता है। महाभारत समस्त विधाओं का आकार ग्रन्थ है। महाभारत काल से अब तक इसकी
कथाओं का आश्रय लेकर सहस्रों ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं। महर्षि व्यास रचनाकारों के
लिये युग-युग तक प्रेरणा श्रोत बने रहेगें। रामधारी सिंह दिनकर के प्रेरणा श्रोत
भी महर्षि व्यास ही हैं, व्यास की अमर कथा को हिन्दी में
काव्य रूप देने के कारण इन्हें राष्ट्रकवि की पदवी प्राप्त हुई। भारतीय धर्म
शाखाओं के उद्भव का मूलाधार ब्रहमसूत्र है। गीता महाभारत का ही एक अंश है। इन
ग्रन्थों के कारण भारतीय दार्शनिक चिन्तन परम्परा को एक उर्वरा भूमि प्राप्त
हुई। महर्षि व्यास का संस्कृत साहित्य के विस्तार में महनीय अवदान है। व्यास के
साहित्य को समाजिक एवं धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है, पौराणिकों
ने व्यास कथा के माध्यम से उनके कथानकों, सदुपदेशों को दिगिदगंतर तक विस्तार
दिया लोक नायकों ने वर्षों से उन्हें समाज में समादर दिलाया है। व्यास साहित्य के
आधार पर कला जगत के लोग अपनी-अपनी कल्पना के माध्यम से कलालोक का सृजन करते है।
लोक गायकों, लोक कलाकारों में उनक चरित्रों को
समाज में प्रचार और प्रसार किया है। सम्पूर्ण कला जगत व्यास साहित्य से ओत प्रोत
है। वस्तुत: भारत का प्रत्येक जन, प्रत्येक समाज और प्रत्येक सभ्यता
व्यास साहित्य का अनुगमन करते दिखायी देता है। व्यास महोत्सव के माध्यम से व्यास
साहित्य पर नित्य नूतन किये जा रहे गवेषणाओं नाटय, गीत, दृश्य
कला को आम जन के सम्मुख लाने एवं उसे उचित पहचान दिलाने हेतु इसका आयोजन किया जाता
है।
व्यास
प्रणीत पुराणों के आधार पर राजाओं की वंशावली ज्ञात हो सकी। महर्षि व्यास का
कालखाण्ड अत्यन्त गौरवपूर्ण रहा है, लगभग उसी समय से हमें भारत का
क्रमिक इतिहास भी प्राप्त होता है। तब से आज तक एक लम्बी टीका एवं भाष्य परम्परा
चली आ रही है। देश और विदेश के शोधार्थी व्यास की रचनाओं पर अपनी मौलिक प्रतिभा
द्वारा अनेक रहस्यों से पर्दा उठा रहे है। शोध एवं विश्लेषण के लिये आधारभूत
पुस्तकों की आवश्यकता होती है। हमने व्यास के प्रति अपना आदर प्रकट करने के लिए
तथा भारतीय विधा की सर्व सुलभता के लिए देश के विविध ग्रन्थागारों में उपलब्ध
व्यास साहित्य के ग्रन्थों की संक्षिप्त सूचना आप सुलभ करने का एक उपक्रम इस लेख
में लिखने का लघुतम प्रयास किया है।
10 October 2013
महर्षि व्यास
भारतीय दर्शन की चिन्तन धारा के मूल स्त्रोत हैं।
समस्त भारतीय
धर्म शाखाओं का उद्भव व्यास रचित ब्रहम सूत्र से हुआ है।
देश ही नहीं
अपितु विश्व के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में व्यास प्रणीत दर्शन शास्त्र का
अध्ययन अध्यापन होता है।
भारत में
उच्च शिक्षा संस्थानों के इतर अन्य धार्मिक संस्थाओं में भी अपनी-अपनी मान्यताओं
के अनुरूप व्यास वाडमय का अध्यययन शोध एवं प्रकाशन आदि अनेक भाषाओं में किया जाता
है।
22 September 2013
इन्दौर से
बाम्बे हाईवे रोड पर स्थित धामनोद से दक्षिण खलघाट के समीप ३ किमी पश्चिम
श्रीनर्मदा के रामशय्या घाट की नर्मदा जी का दृश्य। यहाँ
एक प्राचीन शिव मंदिर तथा हनुमान जी का मंदिर है , शिव
मंदिर के नीचे गुफा है जिसका द्वार बंद कर दिया गया है और हनुमानजी ५००० वर्ष
पुराने तथा दक्षिणाभिमुखी हैं | मगरमच्छ के
आकार की दिखने वाली शिला त्रिपदा गायत्री, भगवान् राम, लक्ष्मण
एवं माँ जानकी की अति प्राचीन प्रतिमा थी , जो डूब
क्षेत्र में आने के कारण वहां से खुदवाकर हटा दी गयी |
इससे लगता है
कि यहाँ गायत्री और श्रीराम के उपासकों ने अवश्य ही साधना की होगी | यहाँ से ओंकारेश्वर ऐसा मनोरम दृश्य कहीं नहीं
दिखता, यहाँ जल की मात्रा और बहाव स्नान
की दृष्टि से अत्युत्तम है | कीचड़ नाम
मात्र नही |पहले इसे राम शय्या घाट कहते थे
किन्तु अब लोग राम छज्जा घाट कहते हैं | पंचवटी जाते
समय भगवान श्रीराम ने इस स्थान पर ३ दिन निवास किया था | इसलिए इसका नाम रामशय्या घाट (रामछज्जा घाट)
पडा ।
31 August 2013
बाजार के
प्रवाह को और तेज कर सकती है संस्कृत भाषा ।
उत्तर प्रदेश
संस्कृत संस्थान लखनऊ और जुहारी देवी गर्ल्स पीजी कॉलेज के संयुक्त तत्वावधान में
दिनांक 30-8-2013, शुक्रवार को संस्कृत सप्ताह समारोह
आयोजित हुआ। कार्यक्रम का उद्घाटन संयोजक डॉ. रेखा शुक्ला. विशिष्ट अतिथि कॉलेज
प्रबंधतंत्र सचिव सी के अरोड़ा, सभाध्यक्ष विजय लक्ष्मी त्रिवेदी
और प्राचार्या बेबी रानी अग्रवाल ने किया।
उत्तर प्रदेश
संस्कृत संस्थान, लखनऊ से आये श्री जगदानन्द झा ने
कहा कि सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में संस्कृत भाषा की उपयोगिता जग जाहिर है।
आज अनेकों विश्वविद्यालयों में कम्प्यूटर में संस्कृत भाषा के अनुप्रयोग तथा उसके
द्वारा अनुवाद सम्पादन जैसे पाठयक्रम लाये गये हैं। प्रबन्धन के तमाम क्षेत्र में
संस्कृत ग्रन्थ सहायक सिद्ध हो रहे है। सम्भ्रान्त वर्ग में प्रचलित इस भाषा का
द्वार सामान्य जनों के लिए खोला जा रहा है। यही संस्कृत भाषा बाजार के प्रवाह को
और तेज कर सकता है। यही भाषा भविष्य की तकनीकी है। अब संस्कृत साहित्य में लेखन
एकदा और कश्मिंशिचद् से शुरू नहीं होते वरन् समसामयिक ज्वलंत विषयों पर सटीक वर्णन
किया जाता है। इसका साहित्य व्यवस्था परिवर्तन का माद्दा भी रखता है।
27 August 2013
Rajkumar Mishra
वाग्देव्याश्च
समर्चकः प्रतिपलं ज्ञानप्रसारे रतः
सल्लापेन मनो
हरन् च सुखयन् वाण्या जगन्मानवान् ।
नाम्ना
योऽस्ति गुणैर्युतो हि जगदानन्दः सुखैकस्थलः
रक्षाबन्धनपर्वणि
सतनयः सोऽयं स्थितो दृश्यते ।।
1 August 2013
संस्कृत
विद्यालयों में सूचना का अधिकार अधिनियम पढाया जाना चाहिए तथा इसके प्रयोग की विधि
सिखाना चाहिए।
जागो
संस्कृतज्ञ जागे संस्कृत।
16 July 2013
क्या वर्तमान
स्थिति में संस्कृतज्ञ कहीं भाषाई अल्पसंख्यक हैं ?
भाषाई
अल्पसंख्यकों के आयुक्त डा नंदलाल जोतवानी ने भाषाई अल्पसंख्यकों के आयुक्त की
48वीं रिपोर्ट अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद को पर्यावरण भवन में 27
जुलाई 2012 को प्रस्तुत की. इसके बाद रिपोर्ट को भारत के राष्ट्रपति को प्रस्तुत
किया जाना है जिसके बाद रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखा जाना है.
48वीं
रिपोर्ट में जुलाई 2010 से जून 2011 की अवधि को शामिल किया गया है और इसमें देश के
सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए संरक्षण की
योजनाओं को लागू करने की स्थिति की गहन समीक्षा की गयी है. इसके साथ साथ राज्य सरकारों/केंद्र
शासित प्रदेशों के प्रशासनों/केंद्रीय मंत्रालयों से प्राप्त 47वीं रिपोर्ट पर की
गयी कार्यवाही रिपोर्ट की भी समीक्षा की गयी।
विदित हो कि
भाषाई अल्पसंख्यक आयुक्त का पद संवैधानिक होता है. इनकी नियुक्ति संविधान के
अनुच्छेद 350-बी के तहत की जाती है उसे भाषाई अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक
तथा राष्ट्रीय स्तर पर सहमत सभी मामलों की जांच करने की शक्तियां प्रदान की गयी है।
भाषाई
अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की योजनाओं में प्रमुख रूप से निम्नलिखित बिंदुओं को
शामिल किया गया.
• शिक्षा
के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देना।
• शिक्षा
के माध्यमिक स्तर पर अल्पसंख्यक भाषाओं की शिक्षा देना।
• अल्पसंख्यकों
की भाषा के अध्यापकों तथा पाठ्यपुस्तकों का प्रावधान।
• जिले/तहसील
की जनसंख्या में 15 प्रतिशत या इससे अधिक बोलने वाले अल्पसंख्यकों की भाषाओं में
नियमों, विनियमों तथा नोटिसों आदि को
अनुवादित तथा प्रकाशित करवाना।
• जिले
की जनसंख्या में 60 प्रतिशत या इससे अधिक बोलने वालों की दशा में अल्पसंख्यकों की
भाषाओं में शिकायतों की प्राप्ति, इनका निदान तथा उनका उत्तर देना।
• राज्य
की सेवाओं में भर्ती परीक्षाओं में अल्पसंख्यकों की भाषाओं का प्रयोग करना।
• राज्य
तथा जिले के स्तंर पर भाषाई अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए उपयुक्त मशीनरी का गठन
करना।
• भाषाई
अल्पसंख्यकों के लिए उपलब्ध सुरक्षा के बारे में अल्पसंख्यकों की भाषा में सामग्री
प्रकाशित कराना।
डॉ॰घनश्याम
भट्ट संस्कृत के सन्दर्भ में तो यह
देखना पड़ेगा कि भाषा की उपयोगिता मानक है या व्यापक व्यावहारिक उपयोगिता .यदि
उपयोगिता मात्र है तो फिर भारत सहित अनेक राष्ट्रों में हिंदू जनता बहुवचनीयता के
साथ रहती है और हिंदुओं के समस्त कार्य जन्म से लेकर मृत्यु के बाद तक संस्कृत
भाषा के बिना सिद्ध नहीं होते हैं,किन्तु ये धार्मिक मान्यता और
आस्थाओं तक ही सीमित है .हमारे दैनिक जीवन के समस्त क्रियाकलापों में संस्कृत मौन
रहती है .कुछ प्रयास संस्कृत प्रेमी और संस्कृत भारती के द्वारा किया जाता है पर
उसमें भी कृत्रिमता दिखती है .समाज के व्यावहारिक दृष्टिकोण को यदि निष्पक्ष रूप
से टटोला जाय तो संस्कृत निश्चित ही अल्पसंख्यक प्रतीत होती है.यदि हिंदू संस्कृति
के दृष्टिकोण से देखा जाय तो बहुसंख्यक।
11 सितंबर 2012
आधुनिक भारत में संस्कृतज्ञों के योगदान की बात बहुत कुछ सन्देहास्पद है।
आधुनिक भारत की निर्माण यात्रा औद्योगिकरण से होती हुई टेक्नोलोजी के माध्यम से
वैश्विक व्यापारीकरण और उपभोक्तावाद की ओर चल रही है जिसमें संस्कृतज्ञों का
योगदान एक विचार का विषय है।
भारत में तीन क्रान्तियाँ हो चुकी हैं- एक औद्योगिक क्रान्ति दूसरी
सूचना-सञ्चार- क्रान्ति तीसरी क्रान्ति का युग प्रारम्भ हो चुका है वह है ज्ञान-
क्रान्ति । इन तीनों में से औद्योगिक क्रान्ति से मिलने वाले लाभ से हम सँस्कृतज्ञ
चूक गए। इस दूसरी और तीसरी क्रान्ति से मिलने वाले अवसरों को भविष्य को ध्यान में
रखते हुए सँस्कृतज्ञों को चूकना नहीं चाहिए।
संस्कृतज्ञों ने विगत 60 वर्षों में बदलती परिस्थितियों में किस क्षेत्र की समस्या
सुलझाने का क्या सुझाव रखा ?
100 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले वर्तमान भारत के लोगों के भोजन,
वस्त्र, आवास, सुरक्षा,
शिक्षा आदि के सन्दर्भ में संस्कृतज्ञ कौन सी समस्या सुलझाने का
व्यावहारिक, यथार्थपरक उपयोगी उपाय सुझा सकते हैं ?
26 जुलाई 2012
वीरभोग्या वसुन्धरा
मित्रों
इस संस्कृत सप्ताह में हमलोग संस्कृत भाषा के विकास में बाधक तत्वों को
चििह्नत कर उनके विरुद्ध रैलियां निकालें। प्रदर्शन करें ।क्या हममें संस्कृत के
प्रति प्रतिवद्धता की कमी है ? हमलोग एकजुट नहीं हो सकते ? यदि हां तो हम पददलित होते रहेंगें।
10 जुलाई 2012
एसएम कॉलेज में प्राचार्या संस्कृत की शिक्षिका हैं और यहां इस विषय में
नामांकन के लिए छात्राएं नहीं मिल रही हैं। संस्कृत के साथ अब हिन्दी भी अलोकप्रिय
विषय के रूप में स्थापित होने लगी है। इस वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों
में हिन्दी और संस्कृत विषय में नामांकन के लिए छात्र नहीं मिल रहे हैं। यह स्थिति
भागलपुर की भी हो गई है। हिन्दी व संस्कृत विषय को लेकर स्नातक कक्षा में नामांकन
कराने के प्रति अब आकर्षण समाप्त हो रहा है।
शिक्षाविदों का मानना है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी व देवभाषा संस्कृत के प्रति
छात्र व छात्राओं की घटती रूचि काफी चिंता का विषय है।
7 जुलाई 2012
यह जानकर अपार कष्ट हो रहा है कि संस्कृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान आदरणीय
प्रो0 श्रीनारायण मिश्र का निधन 73 वर्ष की आयु में हृदय गति रूक जाने के कारण दिनांक 4 जुलाई 2012 को हो गया। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा मिथिला में हुई
थी। इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक,
उपाचार्य एवं आचार्य की पदवी अलंकृत करते हुए कला संकाय के
संकायाध्यक्ष के पद को भी सुशोभित किया। सेवानिवृत्ति के उपरान्त भी इन्होंने संस्कृत
भाषा के विकास में अपना योगदान दिया। प्रो0 मिश्र अनेक दुर्लभ ग्रन्थों के अनुवाद कर उसे लोकोपयोगी
बनाया। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान ने संस्कृत ग्रन्थों के प्रणयन,
सम्पादन एवं अनुवाद में मौलिक योगदान को देखते हुए इन्हें
ग्रन्थ पुरस्कार से पुरस्कृत किया। इनकी वंश परम्परा एवं शिष्य परम्परा आज भी
संस्कृत के प्रचार-प्रसार एवं अध्यापन में देश के विशिष्ट शैक्षणिक संस्थाओं में
अपना योगदान दे रही है।
प्रो0
श्रीनारायण मिश्र के निधन से संस्कृत जगत की अपूरणीय क्षति
हुई है। ईश्वर से प्रार्थना है कि दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें तथा दुखार्त
परिजनों को दुख सहन करने का सम्बल प्रदान करें।
17 अप्रैल 2012
मैने संस्कृतज्ञों को तिरस्कृत होते देखा, फिर भी वे चाहते थे कि श्रीमान् कृपा करें। अनाचार का
भुक्तभोगी होने पर भी अपने अधिकार व सम्मान की रक्षा नहीं कर सकें। संस्कृतज्ञ
जयघोष में विश्वास करते हैं ।
समर्थ श्री ये भी संस्कृत के पतन का एक कारण है,स्वाभिमान को चंद पैसों की खातिर गवां देना....
22 दिसंबर 2011
यदि आप ज्ञानपिपासु हैं, तो संस्कृत
का अभ्यास आवश्यक है ।
यदि आप ज्ञानपिपासु नहीं, पर जीवन
में सोक्रेटीक अस्वस्थता चाहते हैं, तो संस्कृत का अभ्यास
उपयोगी है ।
यदि आप साहित्य-रसिक हैं और साहित्य के
अद्भुत विश्व में डूब जाना चाहते हैं, तो संस्कृत ऐसे रत्नों से
परिपूर्ण है जो साहित्यिक विश्व को साकारित कर सके ।
20 नवंबर 2011
एक आमंत्रण
संस्कृत भाषा में विविध ज्ञात विषयों पर अबतक लगभग 10 लाख से अधिक ग्रन्थ लिखे गये हैं। इन ग्रन्थों में से लगभग आधे पुस्तकों का ही प्रकाशन हो
पाया है। अप्रकाशित पुस्तकों को पाण्डुलिपि कहा जाता है। वैदिक ग्रन्थ सभी प्रकार
के ज्ञान-विज्ञान का मूल उद्गम माना जाता है। उपनिषदों में मन और मस्तिष्क दोनों
को तार्किक दृष्टि से सन्तुष्ट करने की चेष्टा की गयी है। यहां आभ्यन्तर और
अप्रत्यक्ष, अभौतिक विषयों के लिये तर्कोपस्थिति, कथानक आदि माध्यम द्वारा सरल और स्वाभाविक ढ़ंग अपनाया गया
है। स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों में आचार-विचार, उपासना, हिन्दू रीति-रिवाज, जीवन व्यवस्था आदि के परिचय के साथ ही इसके पीछे निगूढ़
तत्वदर्शिता को भी अनावृत किया गया है। उपनिषदों, स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों में अनेक ऐसे पारिभाषिक शब्द
आते है,
जिनका अपने सन्दर्भ में विशेष महत्व हैं। ऐसे पारिभाषिक शब्दों
के अन्य भाषाओं में अनुवाद के समय विशेष सावधानी की आवश्यकता होती हैं,
अन्यथा उन शब्दों की आत्मा, उसके वातावरण एवं विशेष जीवन्तता खत्म ही नहीं होती अपितु
अनर्थकारी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
संस्कृत ग्रन्थों को एक
आमंत्रण के रूप में लिया जाना चाहिए। किसी भी आमंत्रण को अकारण उपेक्षा न की जाय।
23 जुलाई 2011
बिहार के मिथिलांचल में अत्यधिक बौद्धिक सम्पदा है। यहां की धरा दार्शनिकों,
विद्वानों,कवियों एवं धर्मशास्त्रकारों के कारण विश्व में प्रसिद्ध
हुई। वर्तमान की पीढ़ी विज्ञापन,कला तथा पत्रिकारिता जैसे नूतन क्षेत्र में अपनी पहचान बना
रहा है।
युवाओं से आग्रह है कि अपने संस्कार
को साथ ले जायें। संस्कृत एवं संस्कृति दोंनों का संरक्षण करें।
12
अक्टूबर 2010
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