आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः - मनुष्य के शरीर में रहने वाला महान् शत्रु आलस्य है।
आशा दासीकृता येन तस्य दासायते जगत् - जिसने आशा को दास बना लिया, संसार उसका दास हो जाता है।
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन् = दुर्जन व्यक्ति की सदैव उपेक्षा करनी चाहिए, भले ही वह विद्या से अलङ्कृत हो।
वीरभोग्या वसुन्धरा- पृथ्वी वीरों के द्वारा भोगी जाती है।
सत्यमेव जयते नानृतम्- सत्य की ही जीत होती हे, असत्य की नहीं।
१. अति
सर्वत्र वर्जयेत् - अति करने से हमेशा बचना चाहिए ।
२. अधिकन्तु
न दोषाय- जितना अधिक हो, उतना ही अच्छा
।
३. अल्पविद्या
भयङ्करी - थोड़ी जानकारी भयानक है ।
४. अहिंसा
परमो धर्मः - अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है।
५. अङ्गीकृतं
सुकृतिनः परिपालयन्ति - कर्मठ लोग जिस काम को अपने हाथ में लेते हैं उसे पूरा
करके ही छोड़ते हैं।
६. अङ्गारः
शतधौतेन मलिनत्वं न मुञ्चति - कोयला सैकड़ों बार धोने पर भी सफेद नहीं होता।
७. अभ्यासात्
जायते नृणां द्वितीया प्रकृति: - किसी चीज का अभ्यास करते रहने पर वह
धीरे-धीरे स्वभाव ही बन जाता है।
८. अवश्यमेव
भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् - जैसा करोगे वैसा ही पाओगे।
९. अव्यवस्थितचित्तानां
प्रसादोऽपि भयङ्करः - अव्यवस्थित बुद्धि वाले लोगों की मेहरबानी से भी डरना
चाहिए।
१०. अर्धो
घटो घोषमुपैति शब्दम् - अधजल गगरी छलकत जात।
११. अगच्छन्
वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति - बिना चले गरुड भी एक कदम भी नहीं चल पाता ।
१२. अङ्कमारुह्य
सुप्तं हि हत्वा किं नाम पौरुषम् - गोद में सोये हुए को मारना ही क्या
पुरुषार्थ है ?
१३. अङ्गुलिप्रवेशात्
बाहुप्रवेश: - अंगुली पकड़ में आने पर धीरे- धीरे हाथ पकड़ में आ जाता है।
१४. अजा
सिंहप्रसादेन वने चरति निर्भयम् - सिंह की कृपा के कारण ही बकरी जंगल में
निर्भय होकर विचरण करती है।
१४. अति
तृष्णा विनाशाय - अधिक लोभ करना विनाश का कारण है।
१५. अपन्थानं
तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति - कुमार्ग पर चलने वाले को तो अपना सहोदर भाई
भी छोड़ देता है।
१६. अपि
धन्वन्तरिः वैद्यः किं करोति गतायुषि - मरने वाले को तो भगवान् भी बचा नहीं
सकते।
१७. अर्के
चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत् - यदि अर्क में ही शहद मिलने लगे तो
शहद के लिए लोग पर्वत पर जाते ही क्यों ?
१८. अशिक्षिता
पटुत्वं हि नारीणाम् - स्त्रियाँ स्वभाव से ही पटु होती है।
१९. अतृणे
पतिते वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति - घास-फूस न मिलने पर अग्नि स्वयं शान्त हो
जाती है।
२०. अप्रियस्य
च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ: - अप्रिय और हितकर बात कहने और सुनने वाले,
दोनों ही मुश्किल से मिलते हैं।
२१. अहो
दुरन्ता बलवद्विरोधिता - बलवान् का विरोध बुरे परिणाम वाला होता है।
२२. आतुरे
नियमो नास्ति - घबड़ाहट में कानून नहीं दिखाई देता।
२३. आदानं
हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव - सज्जनों का संग्रह भी बादलों की भाँति त्याग
के लिए होता है।
२४. आमृत्योः
सेव्यतां हरिः - मरणपर्यन्त भगवद्भजन करना चाहिए।
२५. आपन्नार्तिप्रशमनफलाः
सम्पदो ह्युत्तमानाम्- सत्पुरुषों की सम्पत्ति दुःखी लोगों की पीडा हरने के
लिए होती है।
२६. आज्ञा
गुरूणां ह्यविचारणीया - गुरुजनों की आज्ञा पर सोच-विचार नहीं करना चाहिए।
२७. आकण्ठजलमग्नोऽपि
श्वा लिहत्येव जिह्वया - किसी की कोई आदत मरने तक भी नहीं छूटती ।
२८. आपदि
स्फुरति प्रज्ञा यस्य धीरः स एव हि - आपत्ति के समय जिसकी बुद्धि काम दे उसी
को धैर्यवान् कहना चाहिए।
२९. आमुखायाति
कल्याणं कार्यसिद्धिं हि शंसति - प्रथम सफलता यह सूचित करती है कि कार्य अवश्य
पूरा होगा।
३०. आर्जवं
हि कुटिलेषु न नीति: - दुष्टों के साथ सरलता दिखाना नीति नहीं है।
३१. आवेष्टितो
महासर्पैः चन्दनं किं विषायते - चन्दन, विष
व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजङ्ग ।
३२. आचार:
परमो धर्म: - अच्छा आचरण ही सबसे बड़ा धर्म है।
३३. इह
प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा - इस लोक और परलोक में स्त्री की पति ही
गति होती है।
३४. आहारे
व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् - आहार और व्यवहार में लज्जा को त्यागने से
ही मनुष्य सुखी रहता है।
३५. इन्द्रोऽपि
लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः - अपने मुख से अपना गुणगान करने पर
इन्द्र की भी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाती है, तो
अन्य लोगों की बात की क्या ?
३६. उदारचरितानां
तु वसुधैव कुटुम्बकम् - उदारचरित पुरुषों के लिए तो सारा संसा ही अपना कुटुम्ब
है।
३७. उद्यमेन
हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः - उद्यम करने से ही कार्य की सिद्धि होती है,
केवल इच्छा करने से ही सिद्धि नहीं मिलती है।
३८. उद्योगिनं
पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः - उद्यमी पुरुष ही श्रेष्ठ है और उसी को लक्ष्मी की
प्राप्ति होती है।
३९. उष्ट्रणां
विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा:- ऊँट के विवाह में गदहे गीत गाते है ।
४०. उपदेशो
हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये - मूर्ख उपदेश सुनकर और ही भड़क उठते हैं।
४१. उपायं
चिन्तयेत् प्राज्ञः तथा अपायञ्च चिन्तयेत् - बुद्धिमान् लोगों को चाहिए कि कोई
उपाय सोचने के साथ-ही-साथ उसके आगे-पीछे भी सोच लें।
४२. उष्णो
दहति चाङ्गारः शीतः कृष्णायते करम् - अङ्गारा यदि गरम है तो हाथ जला देगा और
बुझकर ठण्डा हो गया है तो हाथ काला कर देगा।
४३. उदिते
हि सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमाः - सूर्य के उदित होने पर तारे तथा
चन्द्रमा का रंग धूमिल हो जाता है।
४४. एको
हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्क: - एक ही दोष गुणों के
समूह में ऐसे ढक जाता है जैसे चन्द्रमा की किरणों मे उसका काला धब्बा।
४५. एकः
प्रजायते जन्तुः एक एव प्रलीयते - प्राणी अकेला पैदा होता है और अकेला ही मर
जाता है।
४६. कर्मणा
बाध्यते - बुद्धि काम से बुद्धि मारी जाती है।
४७. कालस्य
कुटिला गतिः - समय की गति टेढ़ी होती है।
४८. किमिव
हि मथुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् - सुन्दर चेहरे पर भी कुछ
४९. काले
खलु समारब्धाः फलं बध्नन्ति नीतयः - उचित समय पर अपनाई गई नीतियाँ निश्चय ही
फल देती हैं।
५०. कृतं
मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः - मेरे दाहिने हाथ में यश है तथा वायें
में विजय है।
५१. कीर्तिर्यस्य
स जीवति - मनुष्य कीर्ति से ही जीवित रहता है।
५२. कामार्ताः
हि भवति कृपणाश्चेतनाचेतनेषु - कामी पुरुष जड़ और चेतन को बिलकुल भूल जाता है।
५३. कर्मण्येवाधिकारस्तु
मा फलेषु कदाचन - कर्म करना ही हमारा धर्म है, उसके फल की चिन्ता हमें नहीं करनी चाहिए।
५४. काकोऽपि
न किं कुरुते चञ्च्वा सोदरपूरणम् - अपना पेट कौन नहीं भर लेता।
५५. कल्पवृक्षोऽपि
अभव्यानां प्रायो याति पलाशताम् - भाग्यहीनों के लिए तो कल्पवृक्ष भी पलाश का
पेड़ बन जाता है।
५६. कष्टं
निर्धनिकस्य जीवितमहो दारैरपि त्यज्यते - गरीब का जीवन भी दो कौड़ी का है,
क्योंकि गरीबी में स्त्री भी कन्नी काट जाती है।
५७. कण्टकेनैव
कण्टकम् - काँटे को काँटे से ही निकालना चाहिए।
५८. किं
मिष्टमन्नं खरशूकराणाम् - गधों और सूअरों को मिठाई खिलाने से क्या लाभ?
जैसे भैंस के आगे बीन बजावे जो खड़ी पगुराय।
५९. कृशे
कस्यास्ति सौहृदम् - गरीब का कोई मित्र नहीं। हो जाय,
६०. कुपुत्रो
जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति - पुत्र भले ही कुपुत्र ,किन्तु माता कभी भी कुमाता नहीं होती।
६१. किञ्चित्कालोपभोग्यानि
यौवनानि धनानि च - धन और जवानी कुछ दिनों तक ही रहती है।
६२. कुदेशेष्वपि
जायन्ते क्वचित् केचिन्महायशाः - कभी-कभी निन्दित देश में भी लाल मिलते हैं।
६३. केतकी
गन्धमाघ्राय स्वयं गच्छन्ति षट्पदाः - . केतकी के भौरें स्वयं चले आते हैं।
फूल सुगन्ध सूंघकर
६४. के
वा न स्युः परिभवपदं निष्फलारम्भयला: - बेकार का काम करने पर सभी को मुँह की
खानी पड़ती है।
६५. को
न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरिता: - मुँह में लड्डू खिलाकर दुनिया में हर
किसी को वश में किया जा सकता है।
६६. क्रियाणां
खलु धर्म्याणां सत्पल्यो मूलकारणम् - धार्मिक क्रियाओं की मूल प्रेरक पतिव्रता
धर्मपत्नियाँ ही होती हैं।
६७. क्रियसिद्धि
सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे - महापुरुषों के कार्यों में उसकी सफलता उनके
सत्त्व के कारण ही होती है, बाहरी उपकरणों की
बहुलता से नहीं।
६८. क्लेशः
फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते - फल की सिद्धि हो जाने पर कष्ट भूल जाता है और
पुनः नवस्फूर्ति मिलती है।
६९. को
जानाति जनो जनार्दनमनोवृत्तिः कदा कीदृशी - कौन जाने ऊँट कब किस करवट बैठता है
?
७०. क्षणविध्वंसिनः
कायाः का चिन्ता मरणे रणे - जीवन क्षणिक है, अतः मौत का क्या डर ?
७१. क्षणे
क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः - असली सुन्दरता तो वही है,
जो क्षण-क्षण में नवीनता को प्राप्त करे।
७२. क्षणे
रुष्टा क्षणे तुष्टा रुष्टा तुष्टा क्षणे क्षणे- अव्यवस्थित लोग क्षणभर में
खुश और क्षणभर में नाखुश हो जाते हैं।
७३. खलः
सर्वपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति - दुष्ट लोग दूसरों के छोटे-से-छोटे दोष
को भी देख लेते हैं।
७४. खलः
करोति दुर्वृत्तं नूनं फलति साधुषु - दृष्ट लोग बुरा काम करते हैं किन्तु उसे
सज्जनों को भुगतना पड़ता है।
७५. गतं
न शोचामि - बीती ताहि बिसारि दे।
७६. गण्डूषजलमात्रेण
शफरी फर्फरायते- चुल्लू भर पानी में ही मछली चुलबुल लगती है। अधजल गगरी छलकत
जात।
७७. गुणा:
पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः - गुणियों के गुण की ही कदर होती है,
उनके कुल या उनकी उम्र की नहीं।
७८. चक्रवत्
परिवर्तन्ते सुखानि च दुःखानि च - सुख और दुःख क्रमशः आते-जाते रहते हैं।
७९. चक्रारपङ्क्तिरिव
गच्छति भाग्यपङ्क्तिः - भाग्य में उतार-चढ़ाव आया ही करता है ।
८०. चाण्डालोऽपि
नरः पूज्यो यस्यास्ति विपुलं धनम् - धनवान् चण्डाल का भी आदर किया जाता है
८१. छिद्रेष्वनर्था
बहुलीभवन्ति - मुसीबत अकेले नहीं आती।
८२. जातस्य
हि ध्रुवो मृत्यु: -जो पैदा हुआ वह मरेगा अवश्य ।
८३. जलबिन्दुनिपातेन
क्रमशः पूर्यते घट: - बूँद-बूँद करके
घड़ा भर जाता है
८४. जानीयात्
व्यसने मित्रम् - आपत्ति काल में मित्र की परीक्षा की जाती है।
८५. जननी
जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी - माता
और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
८६. त्याज्यं
न धैर्यं विधुरेऽपि काले - मुसीबत के समय भी धैर्य को नहीं छोड़ना चाहिए।
८७. तृषितो
जाह्नवीतीरे कूपं खनति दुर्मतिः – गङ्गा
के तट पर रहने मंद बुद्धि वाला व्यक्ति प्यास लगने पर कुँआ खोदता है।
८८. तस्य
तदेव हि मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नम् - मन लगा गधी से तो परी की ऐसी-तैसी ।
८९. तेजसां
हि न वयः समीक्ष्यते - तेजस्वियों की उम्र नहीं देखी जाती। (गुणवान् छोटी
आयुवाला भी आदरणीय होता है।)
९०. दारिद्र्यदोषो
गुणराशिनाशी - दरिद्रता एक ऐसा दोष है, जो
सभी गुणों को नष्ट कर देता है।
९१. दुःखस्य
अनन्तरं सुखम् - दुःख के बाद सुख मिलता है।
९२. दुर्लक्ष्यचित्ता
हि महतां वृत्ति: - बड़े लोगों के कामों से उनके लक्ष्य की थाह लगाना कठिन है
।
९३. दशाननोऽहरत्
सीतां बन्धनञ्च महोदधेः - सीता चुराई रावण ने और बाँधा गया बेचारा समुद्र ।
९४. द्विषन्ति
मन्दाश्वरितं महात्मनाम् - तुच्छ लोग महात्माओं के कार्य की निन्दा करते हैं।
९५. दुग्धं
पश्यति मार्जारो न तथा लगुडाहतिम् - दूध को देखते ही बिल्ली 'डण्डे की मार' को भूल जाती है। अर्थात् किसी काम को
करते समय मनुष्य उसके परिणाम को नहीं सोचता।
९६. दर्दुरा
यत्र वक्तारस्तत्र मौनं हि शोभनम् - मूर्खो की सभा में विद्वान् को चुप रहना
ही अच्छा है।
९७. दुग्धधौतोऽपि
किं याति वायसः कलहंसताम् - दुग्ध से नहला देने पर भी कौआ हंस नहीं बनता।
९८. दैवे
दुर्जनतां गते तृणमपि प्रायेण वज्रायते - भाग्य के खोटा होने पर तिनका भी वज्र
बन जाता है।
९९. निरस्तपादपे
देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते - वृक्षहीन देश में एरण्ड भी वृक्ष कहलाता है
अर्थात् अन्यों में काना राजा।
१००. न
रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत् - रत्न ढूँढता नहीं,
बल्कि ढूंढ़ा जाता है।
१०१. न
हि कस्तुरिकामोदः शपथेन विभात्यते -कस्तूरी की सुगन्ध खाने से तो प्रमाणित
नहीं हो जाती।
१०२. न
वञ्चनीयाः प्रभवो ऽनुजीविभि: - सेवकों को चाहिए कि अपने स्वामी से छल न करें।
१०३. न
हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः- सोये हुए सिंह के मुख में अपने आप
मृग नहीं घुस जाता, उसके लिए उसे
प्रयास करना पड़ता है।
१०४. न
वृथा शपथं कुर्यात् - बेकार में शपथ नहीं खाना चाहिए।
१०५. न
हि सुखं दुःखैर्विना लभ्यते - दुःख के बिना सुख नहीं होता।
१०६. न
ह्यमूला जनश्रुतिः - अफवाह के पीछे कुछ-न-कुछ सच्चाई होती ही है।
१०७. न
कामवृतिर्वचनीयमीक्षते- कामान्ध मनुष्य बदनामी की परवाह नहीं करता।
१०८. नक्षत्रताराग्रहसइलाऽपि
ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः- हजारों तारें, ग्रह आदि क्यों न हो किन्तु चाँदनी रात तो चन्द्रमा के कारण ही होती है।
१०९. न
धर्मवृद्धेषु वय: समीक्षते- धर्म के विषय में छोटा या बड़ा नहीं देखा जाता।
११०. न
गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुच्यते- गृहिणी के कारण ही घर की शोभा होती है।
१११. न
काचस्य कृते जातु युक्ता मुक्तामणेः क्षतिः- काच के लिए मणि को गँवाना उचित
नहीं।
११२. न
खलु स उपरतो यस्य वल्लभो जनः स्मरति- जिसकी याद लोग मरने के बाद भी करते हैं,
वह मरकर भी नहीं मरता।
११३. न
भवति पुनरुक्तं भाषितं सज्जनानाम्- सज्जन लोग अपनी बात से नहीं पलटते ।
११४. न
जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति- उपभोग करने से इच्छाएँ शान्त नहीं होतीं
बल्कि बढ़ती ही हैं।
११५. न
विश्वसेत् अविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् - अविश्वसनीय मनुष्य का विश्वास
नहीं करना चाहिए और जो विश्वसनीय भी है उसका भी बहुत विश्वास नहीं करना चाहिए।
११६. न
तु सद्योऽतिनीचस्य दृश्यते कर्मणः फलम्- नीच कर्मों का फल भी तुरन्त नहीं
मिलता।
११७. न
हि सिद्धवाक्यानि अतिक्रम्य गच्छति विधिः- सिद्ध पुरुषों के वाक्यों का
उल्लंघन स्वयं भाग्य भी नहीं कर सकता। वे जो कहते हैं वही होता है।
११८. न
प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्तमानाम् - उत्तम पुरुषों का स्वभाव
मरणपर्यन्त भी नहीं बदलता।
११९. न
सुवर्णे ध्वनिः तादृक् कांस्ये प्रजायते - सोने में उतनी आवाज नहीं होती जितनी
कि कांसे में अर्थात् नीच लोग बहुत बकवास करते हैं।
१२०. न
केवलं यो महतोपभाषते, शृणोति
तस्मादपि यः स पापभाक्- महात्माओं की जो
निन्दा करता है, वही नहीं, जो सुनता है उसे भी पाप लगता है।
१२१. नासमीक्ष्य
परं स्थानं पूर्वमायतनं त्यजेत् - अगला कदम जमा लेने पर ही पिछला कदम उठाना
चाहिए।
१२२. न
महानिच्छति यूतिमन्यत् - महान् व्यक्ति दूसरों की सम्पत्ति नहीं चाहते।
१२३. न
तितिक्षासममस्ति साधनम् - सहनशीलता से बढ़कर दूसरा कोई श्रेष्ठ साधन नहीं है।
१२४. नारिकेलसमाकारा
दृश्यन्ते हि मनोहराः- सज्जन लोग नारियल के समान ऊपर से कठोर किन्तु नीचे से
कोमल होते हैं।
१२५. नीचो
वदति न कुरुते, वदति न साधुः
करोत्येव - नीच लोग बकते बहुत है
किन्तु करते कुछ नहीं, किन्तु उत्तम लोग
बोलते कुछ नहीं किन्तु सब करके दिखाते हैं।
१२६. पदं
हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते- सदा गुणों द्वारा ही पद प्राप्त किया जाता है।
१२७. परोपकाराय
सतां विभूतयः - सज्जनों की सम्पत्ति परोपकार के लिए होती है।
१२८. पयःपानं
भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् - सर्प को विष पिलाने से तो केवल उसका विष ही
बढ़ता है।
१२९. पर्वतखनने
मूषकोपलब्धि: - खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
१३०. परोपदेशे
पाण्डित्यं सुकरम् - पर उपदेश कुशल बहुतेरे।
१३१. परसदननिविष्टः
को लघुत्वं न याति- केहि की प्रभुता ना घटे पर घर गये रहीम। पर घर कबहूँ न
जाइये जात घटत है जोत ।
१३२. परोपदेशवेलायां
शिष्टा सर्वे भवन्ति वै- दूसरे को उपदेश देते समय सभी दूध के धोये बन जाते
हैं।
१३३. पाणौ
पयसा दग्घे तक्रं फूत्कृत्य पिबति पामर: - दूध का जला मट्टा फूंक-फूँककर पीता
है।
१३४. पावको
लोहसङ्गेन मुद्गरैरभिहन्यते- लोहे की संगति के कारण अग्नि भी हथौडे से पीटी
जाती है—
अर्थात् गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है।
१३५. परेङ्गितज्ञानफला
हि बुद्धयः- बुद्धिका फल यही है कि वह दूसरे के संकेत का आशय समझ ले।
१३६. प्रायः
समापन्नविपत्तिकाले धियोऽपि पुंसां मलिना भवन्ति- आपत्ति आने पर प्रायः मनुष्य
की बुद्धि मलिन हो जाती है।
१३७. प्रियवाक्यप्रदानेन
सर्वे तुष्यन्ति मानवाः - प्रिय वचन बोलने से ही सभी प्रसन्न हो जाते हैं।
१३८. प्रारब्धमुत्तमजनाः
न परित्यजन्ति- अच्छे लोग अपने प्रारम्भ किये कार्यों को पूरा करके ही छोड़ते
हैं।
१३९. प्रियेषु
सौभाग्यफला हि चारुता- स्त्री की
सुन्दरता का यही फल है कि उससे उसका पति प्रसन्न हो जाय।
१४०. बलवति
सति देवे बन्युभिः किं विधेयम्- भाग्य के प्रबल होने पर बन्धु-बान्धव क्या
बिगाड सकते हैं?
१४९. बुद्धिर्यस्य
बलं तस्य- जिसके पास बुद्धि है, उसी
के पास बल है।
१४२. बुभुक्षितः
किं न करोति पापम्- मरता क्या नहीं करता ?
१४३. बुभुक्षितं
न प्रतिभाति किञ्चित्- भूखे को कुछ नहीं सूझता।
१४४. बलीयसी
केवलमीश्वरेच्छा- ईश्वर की इच्छा ही प्रबल होती है।
१४५. भवन्ति
नम्रास्तरवः फलागमैः- फलों से लदकर पेड़ स्वयं झुक जाते हैं।
१४६. भवितव्यतानां
द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र - होनहार वीरवान के होत चीकने पात।
१४७. भिन्नरुचिर्हि
लोकः - संसार में अलग-अलग मनुष्यों की अलग-अलग रुचि होती है ।
१४८. भूयोऽपि
सिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति- बारम्बार दूध-घी से सींचने पर
भी नीम का वृक्ष कभी भी मीठा नहीं होता।
१४९. भोजनं
कुरु दुर्बुद्धे मा शरीरे दयां कुरु- शरीर भले चला जाय,
जब खाओ तब डटकर ।
१५०. मन
एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः- मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही
है।
१५१.
मनुष्याः स्खलनशीला:- मनुष्य से भूल हो ही जाती है।
१५२. मधु
तिष्ठति जिह्वाग्रे हदि हालाहलं विषम् - मुख में राम बगल में छूरी। में
१५३.
मनोरथानाम् अगतिर्न विद्यते- मन के लिए कोई अगम्य विषय नहीं है।
१५४. मनसि
च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः - मन के सन्तुष्ट होने पर क्या धनी और क्या
निर्धन ?
१५५. मन्ये
दुर्जनचित्तवृत्तिहरणे धाताऽपि भग्नोद्यमः- दुर्जन की चित्तवृत्ति बदलने में स्वयं
ब्रह्मा भी समर्थ नहीं है।
१५६.
मन्दायते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः- मित्र के काम को पूरा करने का जो बीड़ा
उठाता है वह कभी भी आलस नहीं करता।
१५७.
महाजनो येन गताः स पन्थाः- जो काम बड़े लोग करे हमे भी उसी को करना चाहिए।
१५८.
मातर्लक्ष्मि तव प्रसादवशतो दोषा अपि स्युर्गुणा:- हे मा लक्ष्मि! तुम्हारी कृपा
से दोष भी गुण हो जाते हैं।
१५९. मितं
च सारं च वचो हि वाग्मिता- कम बोलना और सारयुक्त ना- यही बोलने की श्रेष्ठ कला है
।
१६०
यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति- सूरत अच्छी है तो गुण भी अच्छे होंगे ही।
१६१. यत्र
नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः - जिस घर में स्त्रियों का आदर होता है,
वहाँ देवताओं का निवास होता है।
१६२ यत्र
विद्वज्जनो नास्ति श्लाघ्यस्तत्रात्पधीरपि- अन्धों में काना राजा।
१६३.
यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः - विधिकर लिखा को मेटन हारा।
१६४.
यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नाकरणीयं नाचरणीयम् - यद्यपि कोई कार्य ठीक है,
किन्तु
सारा समाज
उसके विरोध में है तो उसे नहीं करना चाहिए।
१६५.
यमस्तु हरति प्राणान्, वैद्यः प्राणान् धनानि च- यमराज केवल प्राण ही लेते हैं,
किन्तु वैद्यराज तो प्राण और धन दोनों ही लेता है।
१६६. यस्तु
क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्- क्रियावान् मनुष्य ही विद्वान् है ।
१६७. याच्ञा
लाघवकरी- माँगने से मान घटता है।
१६८. याच्ञा
मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा:- -बड़े लोगों से याचना करने पर यदि वह पूरी न हो
तो भी अच्छा है, किन्तु नीच लोगों से याचना पूरी
होने पर भी अच्छा नहीं है।
१६९.
यादृशास्तन्तवः कामं तादृशो जायते पट:- जैसा सूत वैसा वस्त्र ।
१७०. येन
साधारणी वृत्तिः स वै शत्रु इति स्मृतः- एक ही व्यवसाय में दो आदमियों की पटरी
नहीं खाती ।
१७१. यो
अत्युन्नतः प्रपतति किमत्र चित्रम्- जो अधिक ऊँचाई पर चढ़ता है वह गिरता ही है,
इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
१७२. यो
यद् वपति बीजं लभते सोऽपि तत्फलम्- जैसी करनी वैसा भोग।
१७३. रत्नं
रत्नेन सङ्गच्छते- रत्न की शोभा रत्न से ही होती है।
१७४.
रिक्तो सर्वो भवति हि पूर्णता गौरवाय- पूरा खाली लघु होता है,
पूर्णता गौरव के लिए होती है।
१७५.
वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं यत्रोक्तं लभते फलम् - बोलना वहीं अच्छा है जहाँ उसका कुछ
फल मिले।
१७६. वरं
मृत्युः न पुनरपमानः- अपमान से कहीं मृत्यु ही अच्छी है।
१७७. वाचः
कर्मातिरिच्यते- बोलने से कहीं अच्छा काम करके दिखाना है।
१७८.
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् - विद्यारूपी धन सभी धनों में श्रेष्ठ है।
१७९.
विपादनीया हि सतामसाधवः- सज्जनों को चाहिए कि दुर्जनों को सदा दबाते रहें।
१८०. विना
पुरुषकारेण न च दैवं सुसिध्यति- बिना पुरुषार्थ के कार्य की सफलता में ईश्वर भी
मदद नहीं करते।
१८१.
विषकुम्भं पयोमुखम्- मुख में राम बगल में छूरी।
१८२.
विषस्य विषमौषधम् - विष की दवा विष ही है।
१८३.
विद्याविहीनः पशुः- विद्या से रहित पुरुष पशु के समान है।
१८४.
विषमपि क्वचिद् भवेत् अमृतं वा विषमीश्वरेच्छया- ईश्वर की इच्छा से कभी अमृत विष
तथा विष भी अमृत बन जाता है।
१८५.
विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्- विषवृक्ष भी स्वयं लगाकर उसे
काटना ठीक नहीं।
१८६. लोभो
मूलमनर्थकम्- लोभ ही सब बुराइयों की जड़ है।
१८७.
व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा- व्यवहार से ही शत्रु और मित्र होते है।
१८८. शठे
शाठ्यं समाचरेत् - शठ के साथ शठता का ही व्यवहार उचित है।
१८९.
शत्रोरपि गुणा वाचा दोषा वाचा गुरोरपि- शत्रुओं के अन्दर यदि गुण हो तो उसकी
प्रशंसा करनी चाहिए तथा गुरु के दोषों की भी निन्दा करनी चाहिए।
१९०.
शरीरमात्रं खलु धर्मसाधनम्- अपना शरीर ही धर्म का साधन है।
१९९. शरीरं
वा पातयेम कार्यं वा साधयेम- करो या मरो।
१९२. शिरसि
फणी दूरे तत्प्रतिकार:- सर्प है सर पर लेकिन इलाज है दूर।
१९३.
शान्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः- शान्तिरूप हथियार यदि हाथ में है तो
दुर्जन क्या कर सकता है ?
१९४. शूरं
कृतज्ञं दृढसौहृदं च लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतो:- शूर,
कृतज्ञ और सच्ची मित्रता रखने वाले के पास लक्ष्मी स्वयं निवास करती
है।
१९५.
शूर्पवत् दोषमुत्सृज्य गुणान् गृह्णन्ति साधव:- सार-सार को गाहि रहे,
थोथा देय उड़ाय ।
१९६. श्वा
भवत्यपकाराय लिहन्नपि दशन्नपि - काटे-चाटे स्वान को दुहँ भाति विपरीत।
१९७. श्वा
यदि क्रियते राजा स किं नाश्नाति उपानहम्- कुत्ते को यदि राजा बना दिया जाय तो
क्या वह जूते को नहीं काट खायगा ?
१९८.
शास्त्रं हि निश्चितधियां क्व न सिद्धमेति- स्थिर बुद्धिवाले को शास्त्र कैसे
सिद्ध नहीं होते ?
१९९. स तु
भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला- अधिक धन के प्रति आसक्ति ही दरिद्रता का सूचक
है।
२००.
सदाभिमानैकधना हि मानिनः - स्वाभिमानी पुरुषों के लिए उनका स्वाभिमान ही एकमात्र
धन है।
२०१. सतां
हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः- सज्जन पुरुषों के सामने यदि कोई
सन्देह की बात आ जाय, तो वे अपने
अन्तःकरण के सुझाव को ही प्रमाण मानते हैं।
२०२.
सुतप्तमपि पानीयं शमयत्येव पावकम्- पानी कितना भी गरम क्यों न हो,
वह आग को बुझा ही देता है।
२०३. सत्यं
ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्- सत्य बोलो,
प्रिय बोलो किन्तु यदि सत्य अप्रिय हो तो उसे मत बोलो।
२०४. सर्वं
परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्- परावलम्बन से दुःख और स्वावलम्बन से सुख मिलता
है।
२०५. सर्वे
भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः- सभी लोग सुखी और नीरोग होवें।
२०६. सर्वः
स्वार्थं समीहते- सभी स्वार्थी हैं।
२०७. सर्वः
सर्वं न जानाति- सभी को सब कुछ नहीं आता।
२०८.
सर्वमर्थेन सिध्यति- पैसे से ही सब कुछ सिद्ध होता है।
२०९. सर्वे
गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति- सभी गुण धन में ही पाये जाते हैं।
२१०. सर्वः
कान्तम् आत्मानं पश्यति- सभी लोग अपने को बुद्धिमान् ही समझते हैं।
२११.
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः- यदि सर्पघर में निवास करता है तो निश्चय ही
मृत्यु समझना चाहिए।
२१२.
सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम्- सन्तोष ही मनुष्य का उत्तम धन है।
२१३.
सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दम्- पूरा भरा हुआ घड़ा कभी भी शब्द नहीं करता। अर्थात्
अधिक पढ़े-लिखे लोग घमण्ड नहीं करते।
२१४. संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति- अच्छी या बुरी संगति से ही लोगों में गुण और दोष आते हैं।
२१५:
संहतिः कार्यसाधिका- एकता में बल है।
२१६.
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते- सम्भावित बदनामी की अपेक्षा मरना ही
श्रेयस्कर है।
२१७. सती च
योषित् प्रकृतिश्च निश्चला पुमांसमध्येति भवान्तरेष्वपि - सती स्त्री और निश्चल
प्रकृति मनुष्य को दूसरे लोक में भी हित करती है।
२१८. सहसा
विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्- अचानक बिना सोचे कुछ नहीं करना चाहिए।
अविवेक मुसीबतों की जड़ है।
२१९.
स्वदेशजातस्य नरस्य नूनं गुणाधिकस्यापि भवेदवज्ञा- अपने देश में किसी भी गुणी का
मान नहीं होता।
२२०.
सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम्- अच्छी संगति मनुष्यों को क्या नहीं कर देती ?
२२१.
स्त्रियाश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः–
स्त्रियों का चरित्र और पुरुषों के भाग्य को जब स्वयं देवता भी नहीं
जान पाते तो हम लोगों की बात ही क्या ?
२२२.
स्त्री पुंच्च यदा तद्धि गेहं विनष्टम् - जिस घर में स्त्री पुरुष की तरह अधिकार
जमा ले,
तो समझो कि वह घर चौपट हुआ।
२२३.
स्त्रीणापाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु- स्त्रियों का यह स्वभाव होता है कि
वे हाव-भाव से ही अपने राग का प्रदर्शन करती है, मुख से कुछ नहीं कहती।
२२४.
हतविधिपरिपाक: केन वा लङ्घनीयः- तकदीर का लिखा कौन मिटा सकता है ?
२२५.
हतविधिनिहतानां हा विचित्रो विपाक:- तकदीर के मारों का बड़ा बुरा हाल होता है।
२२६. हितं
मनोहारि च दुर्लभं वचः- सत्य कड़वा होता है।
२२७.
ह्रदाः प्रसन्ना इव गूढनक्रा:- वैसे तो तालाब तो बहुत सुन्दर होता है,
किन्तु उसी में भयानक मगर छिपे रहते हैं।
यहाँ क्रमशः अन्य सूक्तियाँ संयोजित की जाती रहेगी।
यह तो पूरा टकसाल है। बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसूक्तियों के आगे ग्रन्थो के नाम भी लिखित होते तो अधिक सुगमता होती महोदय,,,,😊धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअत्युत्तमम् आपके द्वारा बहुत सुन्दर कार्य किया जा रहा है , बहुत ~ बहुत साधुवाद
जवाब देंहटाएंउद्धरणग्रन्थनामापि लिख्यते चेदितोऽपि श्रेयसे प्रतियोतिपरीक्षालेखकानाम् छात्राणाम्।सर्वथाभिनन्दनार्हो भवान्
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