‘अलम्‘
पूर्वक
‘कृ’
धातु
के प्रयोग से अलड्कियते अनेन अथवा अलंकरोति’
व्युत्पत्ति
करने पर कारण या भाव अर्थ में घल् प्रत्यय करने पर अलंकार पद निष्पन्न होता है। इस
पद का अर्थ है जिस पदार्थ या तत्व के द्वारा कोई वस्तु सुशोभित की जाए और उसके
सौन्दर्य में वृद्धि हो, वह
पदार्थ या तत्व अलंकार कहलाता है। जिस प्रकार भौतिक शरीर को कुण्डलादि अलंकार
अलंकृत करते हैं उसी प्रकार शब्द अर्थ रूप शरीर वाले काव्य को उपमा आदि अलंकार
अलंकृत करते है।
रस-सम्प्रदाय - काव्यशास्त्र के इतिहास में सर्वाधिक प्राचीन काव्य सिद्धान्त है। रस
सम्प्रदाय के पश्चात् दूसरा स्थान अलंकार सम्प्रदाय का है। सर्वप्रथम भरत ने
नाट्यशास्त्र में चार अलंकारों का विवेचन किया। अलंकार का सैद्धान्तिक विवेचन भामह
से प्रारम्भ होता है। भामह तथा उनके उत्तरवर्ती दण्डी आदि आचार्याें ने रस को
नाट्य का ही मुख्य विषय मानकर अन्य काव्यों में अलंकार को प्रधानता दी और उसके
पश्चात पण्डितराज जगन्नाथ तक सभी आचार्यों ने अलंकारों की महत्ता और स्थिति के
सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं।
काव्यगत
अलंकारो का प्रयोग मानव जाति के प्रथम लिखित ग्रन्थ ‘ऋग्वेद‘
में
हुआ है। ऋग्वेद में अनुप्रास, यमक,
श्लेष,
उपमा,
रूपक,
उत्प्रेक्षा,
अतिशयोक्ति
आदि अलंकारों के प्रयोग उनके मन्त्रों में हुए है। ऋग्वेद के अनन्तर ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों में अलंकार पद का प्रयोग तो सौन्दर्याधायक तत्व के रूप में
स्पष्ट शब्दों में किया गया है:- वसनेन अलंकारेणेति संस्कुर्वन्ति (छान्दोग्योपनिषद्)
अलंकार पद का काव्यशास्त्रीय
प्रयोग सबसे पहले यास्क ने ‘निरुक्त’
में
किया है। यास्क ने अलंकृत शब्दों को पर्यावाची मानकर उपमा पद की निरूक्ति दी। यास्क ने उपमा के अनेेक भेदों:- कार्मोपमा,
भूतोपमा,
रूपोपमा,
सिद्धोपमा,
लुप्तोपमा
और अर्थोपमा के स्थलों को प्रस्तुत किया है।
पाणिनि के समय में
अलंकारों का शास्त्रीय निर्वचन हो चुका होगा। उन्होंने उपमा,
सादृश्य,
उपमान,
प्रतिरूप,
उपमित
आदि शब्दों के प्रयोग अपने सूत्रों में किए हैं। कात्यायन ने उपमा वाचक ‘इव‘
शब्द
के साथ नित्य समास करने का विधान किया था। पतञ्जलि ने पाणिनीय सूत्रों के
उपमा, उपमान,
उपमित,
वचन
आदि पदों का निर्वचन प्रस्तुत किया था। वादरायण के वेदान्त सूत्र में उपमा तथा रूपक के नाम मिलते हैं।
वेद,
ब्राह्मण,
उपनिषद्
निरुक्त, व्याकरण
आदि शास्त्रों में अलंकारों के विवेचन का संकेत होने पर भी उस युग के किसी ऐसे
अलंकार ग्रन्थ की उपलब्धि नहीं होती। अलंकारों का सूक्ष्म रूप से शास्त्रीय विवेचन भरत के नाट्य शास्त्र में मिलता है। भरत ने उपमा,
रूपक,
दीपक
और यमक इन चार अलंकारों का विवेचन किया था।
उपमा रूपकं चैव दीपकं यमकं
तथा।
अलंकारास्तु विज्ञेयाश्चत्वारो
नाटकाश्रयाः।।
भरत के पश्चात् अलंकारों का
उत्तरोत्तर विकास हुआ तथा भरत के ये चार अलंकार अप्यय दीक्षित के समय तक 125
हो गए।
विविध आचार्यो की अलंकार की परिभाषाएं तथा काव्य में उनका महत्व:-
विविध आचार्यो की अलंकार की परिभाषाएं तथा काव्य में उनका महत्व:-
ध्वनि पूर्वकाल:- भामह
से रूद्रट तक 9
वीं शताब्दी तक ।
यद्यपि सर्व- प्रथम भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में अलंकार तत्व की समीक्षा की थी, तथापि भामह पहले आचार्य थे, जिन्होंने स्पष्ट रूप से अलंकार के स्वरूप का विवेचन किया और उसको काव्य के आत्मतत्व के रूप में प्रतिष्ठित किया। भामह का कथन है कि अलंकार काव्य का सबसे प्रमुख सौन्दर्याधायक तत्व है:- न कान्मपि निर्मुष विभाति वनिताननम्।
यद्यपि सर्व- प्रथम भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में अलंकार तत्व की समीक्षा की थी, तथापि भामह पहले आचार्य थे, जिन्होंने स्पष्ट रूप से अलंकार के स्वरूप का विवेचन किया और उसको काव्य के आत्मतत्व के रूप में प्रतिष्ठित किया। भामह का कथन है कि अलंकार काव्य का सबसे प्रमुख सौन्दर्याधायक तत्व है:- न कान्मपि निर्मुष विभाति वनिताननम्।
भामह ने शब्द और अर्थ की
वक्रता से युक्त उक्ति को अलंकार बताया था:-
वक्राभिधेयशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलड्कृतिः। ( काव्यालंकार,
1/36)
उनके अनुसार इसी वक्रता से
शब्द तथा अर्थ चमत्कृत होते है और यही वक्रता सभी अलंकारों का मूल है:-
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिः अनयाऽर्थो विभाव्यते।
यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना।।(काव्यालंकार २–८५)
इस प्रकार स्पष्ट है कि भामह
की दृष्टि में काव्य का सौन्दर्य उक्ति वैचित्र्य से होता है और वक्रतामयी उक्ति
का नाम अलंकार है। इस रूप में अलंकार ही काव्य का साध्य तथा मुख्य प्रतिपाद्य है।
इस प्रकार स्पष्ट
है कि भामह की दृष्टि में काव्य का सौन्दर्यतिशयी तत्व के रूप में उपलब्ध गुणों की
अपेक्षा अलंकारों को ही महत्व दिया था और अलंकार की अपेक्षा से ही गुण का उत्कर्ष
माना था। परन्तु दण्डी ने गुणों
का निरपेक्ष तथा स्वतन्त्र काव्य की आत्मा के रूप में महत्व स्वीकार करते हुए
अलंकारों को भी महत्व दिया है। उनकी दृष्टि में काव्य के शोभाकारक सभी प्रकार के
धर्म अलंकार है:-
काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान्
प्रचक्षते। काव्यादर्श 4
इसी अपने दृष्टिकोण के सन्दर्भ
में ही दण्डी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हमारी दृष्टि में अन्य शास्त्रों (नाट्यशास्त्र) में
वर्णित सन्धि के अंग, वृत्ति
के अंग तथा लक्षण अलंकार ही है। इसी प्रकार दण्डी काव्य के सभी उपादेय तत्वों को
अलंकार शब्द से अभिहित करते हैं और इन अलंकारों की संख्या अपार तथा सदैव
संवर्धनशील मानते हैं। इनके पूर्ववर्ती भामह का मत है कि हेतु, सूक्ष्म और लेश को अलंकार नहीं है (हेतुः
सूक्ष्मोऽथ लेशश्च नालंकारतया मतः। 2/86) और दण्डी कहते हैं कि हेतु, सूक्ष्म और लेश वाणी के उत्तम भूषण हैं (हेतुः सूक्ष्मोऽथ लेशश्च
वाचामुत्तमभूषण्। काव्यादर्श 2/235) । इस विकल्पन की श्रृंखला को भट्टि तथा मेधाविन् जैसे आचार्यों ने स्पष्ट करने कार्य किया।
‘अग्निपुराण‘
में
भी अलंकार के लक्षण के सम्बन्ध में दण्डी का अनुसरण किया गया है। उसमें अर्थालंकार
से रहित कविता को विधवा के समान बताया है:-
काव्यशोभाकारान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते। अर्थालंकार
रहिता विधवेव सरस्वती।
आचार्य वामन ने
यद्यपि रीति को काव्य की आत्मा प्रतिपादित किया है तथापि उन्होंने काव्य की उपादेयता केवल सौन्दर्य रूप अलंकार के कारण ही स्वीकार की है:- काव्यं ग्राह्यमलंकारात् ।
उद्भट ने काव्य
में अलंकारों की प्रधानता का प्रतिपादन किया है। रसादि को उन्होंने रसवत,
प्रेयस्वत्
और समाहित अलंकारों में समाविष्ट कर लिया। तदनन्तर उन्होंने आक्षेप,
समासोक्ति,
पर्यायोक्ति
आदि अलंकारों में व्यंग्य अर्थ को वाच्यार्थ का उपकारक प्रतिपादित किया है। इस
प्रकार उत्तरवर्ती ध्वनिवादी रस, वस्तु एवं अलंकारवादी है। भामह से पूर्णतः
प्रभावित है।
रूद्रट ने काव्य में अलंकारों का महत्व अवश्य स्वीकार किया है परन्तु उन्होंने अलंकारों को शब्द और
अर्थ को शोभायमान करने वाला बताया है। रूद्रट के अनुसार कवि प्रतिभा से उद्धत
अभिधान अर्थात् कथन विशेष का नाम अलंकार है। काव्य में रूद्रट ने अलंकार और रस को
समान महत्व दिया है तथा निरपेक्ष स्थिति की स्वीकृति के प्रतिपादक हैं।
वक्रोक्ति
सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कुन्तक ने अलंकारों के सम्बन्ध में एक विचित्र मार्ग
ग्रहण किया। उन्होंने एक ओर वामन, दण्डी
आदि प्रतिपादित रस को रसवत् शब्द का सीधा सादा अभिधायुक्त लक्ष्यार्थ-रसऽवत्
रसतुल्य करते हुए अलंकार के सह्दयों के ह्दयाह्लादक होने पर ही उसकी रसवत्ता को
स्वीकार किया। इस प्रकार वे रसवत् अलंकार को ही सभी अलंकारों का आधार और काव्य का
जीवन मानते हैं।
आनन्दवर्धन ने
अलंकारो को गुण और रीति के साथ काव्य शब्दार्थ के चारूत्व का हेतु मात्र माना हैं
और उसकी स्थिति रस ध्वनि से आश्रित मानी है। आनन्दवर्धन ने रस को सर्वोपरि मानकर
उसकी प्रधानता प्रतिष्ठित की। परन्तु उसकी प्रधानता देते हुए भी आनन्दवर्धन ने
अलंकारों के महत्व की अपेक्षा नहीं की। आनन्दवर्धन का कथन है कि जिस प्रकार कामिनी
के शरीर को कुण्डलादि अलंकार शोभित करते हैं,
उसी
प्रकार काव्यगत अलंकार काव्य के शरीर शब्द अर्थ को शोभित करते हैं:-
तमर्थमवलम्बन्ते येऽङ्गिनं ते गुणाः स्मृताः ।
अङ्गाश्रितास्त्वलङ्कारा मन्तव्याः कटकादिवत्॥ (ध्वन्यालोक 2.6)
अभिनवगुप्त ने भी
अलंकारों को स्पष्टतः काव्य का बाह् पक्ष माना है और उनकी उपयोगिता अलंकार्य
सापेक्ष मानी है। उसके अनुसार रसभाव रहित स्थल पर अलंकारों की स्थिति भूषणों से
सुसज्जित शव के समान सर्वथा अनुपादेय तथा विरक्तिजनक होती है। आनन्दवर्धन ने जो
काव्य में अलंकारो की स्थिति कुन्डलादि के समान वाह्य और अनित्य मानी है उसी का ही
अनुसरण आचार्य मम्मट,
राजशेखर,
हेमचन्द्र,
विश्वनाथ,
जगन्नाथ,
विश्वेश्वर
आदि आचार्यों के द्वारा अलंकार के दिए गए लक्षणों में देखा जा सकता है।
ऊपर के विवेचन से
स्पष्ट है कि भरत के पश्चात् तथा आनन्दवर्धन से पूर्व काव्यशास्त्र के आचार्यों
ने अलंकारों को काव्य में शृंगी रूप में प्रतिष्ठित किया है। जयदेव,
केशव मिश्र,
और अप्यय दीक्षित भी इसी के समर्थक हैं। परन्तु ध्वनिवादी आचार्यों-आनन्दवर्धन,
कुन्तक,
मम्मट,
क्षेमेन्द्र,
रूय्यक,
विद्याधर,
विश्वनाथ,
जगन्नाथ,
आदि
ने उनको काव्य की शोभा का आधायक तत्व मानकर भी गौण स्थान दिया।
मम्मट ने अपनी
काव्य परिभाषा में अलंकारों की स्थिति प्रायः आवश्यक मानी है परन्तु ‘काव्य-प्रकाश’
के
अष्टम उल्लास में वे इस तथ्य को स्वीकार करते है कि अलंकार काव्य के केवल बाह्
स्वरूप की शोभा में श्रीवृद्धि करते हैं वह भी आवश्यक नहीं। दूसरी और गुण रस के
अपरिहार्य धर्म हैं।
अलंकारो की संख्या
तथा विभाजनः- भरतमुनि ने अलंकारों की संख्या 4
मानी थी तो ‘कुवलयानंद’
तक
यह संख्या 5
हो गई। मम्मट, विश्वनाथ
आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों के मत में यह संख्या भिन्न-भिन्न है। स्थिति की दृष्टि
से अलंकार का विभाजन किया जाता है। काव्य के शब्द और अर्थ ही शरीर स्थानीय होते
है। काव्यालंकार शरीर के अंगो को सुसज्जित करने वाले भूषणों की तरह,
शब्द
और अर्थ को सुसज्जित करते हैं। इस दृष्टि से इनके तीन भेद होते हैं,
1. शब्दालंकार - जैसे, अनुप्रास, श्लेष, यमक इत्यादि। इनका अस्तित्व शब्दों पर आधारित रहता है। शब्द विशेष के रहने पर ही इनकी स्थिति रहती है और उसके हट जाने पर समाप्ति हो जाती है। समानार्थक शब्द रख देने पर अलंकार अस्तंगत हो जाता है।
1. शब्दालंकार - जैसे, अनुप्रास, श्लेष, यमक इत्यादि। इनका अस्तित्व शब्दों पर आधारित रहता है। शब्द विशेष के रहने पर ही इनकी स्थिति रहती है और उसके हट जाने पर समाप्ति हो जाती है। समानार्थक शब्द रख देने पर अलंकार अस्तंगत हो जाता है।
2. अर्थालंकार -
जैसे, उपमा,
दीपक,
व्यतरिक
इत्यादि। यदि शब्दों के पर्याय में परिवर्तन कर देने पर भी अलंकार की सत्ता रहती
है तो अर्थ की प्रधानता होने पर वह अर्थालंकार कहलाता है।
3. उभयालंकार - इसमें पूर्वोक्त दोनों विशेषताएं अलंकार के किसी न किसी भाग में अवश्य मिलती हैं। जैसे श्लेष, वक्रोक्ति आदि। शब्दालंकारों की संख्या शताधिक है। अलंकारों की संख्या पर विभिन्न आचार्यों के मत भिन्न भिन्न हैं। रुय्यक ने अलंकारों को सात वर्गों में विभक्त किया - सादृश्यगर्भ, विरोधगर्भ, शृंखलाबद्ध, तर्कन्यायमूलक, काव्यन्यायमूलक, लोकन्यायमूलक, गूढ़ार्थप्रतीतिमूलक।
3. उभयालंकार - इसमें पूर्वोक्त दोनों विशेषताएं अलंकार के किसी न किसी भाग में अवश्य मिलती हैं। जैसे श्लेष, वक्रोक्ति आदि। शब्दालंकारों की संख्या शताधिक है। अलंकारों की संख्या पर विभिन्न आचार्यों के मत भिन्न भिन्न हैं। रुय्यक ने अलंकारों को सात वर्गों में विभक्त किया - सादृश्यगर्भ, विरोधगर्भ, शृंखलाबद्ध, तर्कन्यायमूलक, काव्यन्यायमूलक, लोकन्यायमूलक, गूढ़ार्थप्रतीतिमूलक।
बहुत ही अच्छा
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंयह आपने जो कार्य किये वह अतुलनीय हैं।इसके लिए आपको वहुत वहुत धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंDhanyawad very nice 👌🙏🙏
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