प्राचीन भारतीय विधि एवं विधिकार

           सनातन भारतीय विधान में विधिशास्त्र धर्मशास्त्र पर आधारित है। प्राचीन भारत में धर्म और न्याय का मूल स्रोत वेद को माना गया है। मनुस्मृति में विधि के चार स्रोत माने गये है। 1. वेद वचन 2. स्मृति 3.परम्परा से चला आया हुआ शिष्टाचार 4. स्वंय को प्रिय लगने वाले कार्य।
                                     वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
                                    एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षात् धर्मस्य लक्षणम्।।
                        इस प्रकार प्राचीन भारतीय विधिकारों में सर्वप्रथम नाम आता है वेद का वेद अर्थात् ईशवर प्रदत्त विधि। तदनन्तर उनके वचनों को संसार में लाने वाले माध्यममनु याज्ञवल्क्य व्यास आदि की स्मृति का स्थान आता है।
                        वेदों के बाद मानव व्यवहार एवं दण्ड की व्यवस्था के लिए कल्पसूत्र की रचना की गयी। गृह्यसूत्र, श्रौतसूत्र, धर्मसूत्र तथा शुल्वसूत्र को कल्पसूत्र कहा जाता है। भारतीय विधि वेदों से आरम्भ कल्पसूत्र स्मृति, स्मृतियों के निबंध तथा टीका से माना जाता है। परवर्ती साहित्य में अर्थशास्त्र तथा नीतिशास्त्रों की रचना की गयी।
                        हिन्दू न्याय और विधि के इतिहास में पूर्वोक्त ग्रन्थों के ग्रन्थकारों को विधिकार कहा गया है।
                        याज्ञवल्क्य जिनका समय लगभग 6000 पू0 माना जाता है ने अपने स्मृति में विधिकार के रुप में 20 ऋषियों का नामोल्लेख किया है।
            धमसूत्रों के बाद मनु, याज्ञवल्क्य नारद, बृहस्पति, कात्यायन, पितामह, यम, हरित, अंगिरस, प्रजापति, संवर्त, दक्ष, पुलस्त्य, विश्वामित्र की स्मृतियों को विधि ग्रन्थ माना गया है। श्रुति और स्मृति में मतभेद होने पर श्रुतिमान्य होती है। याज्ञवल्क्य ने परम्पराओं और सामान्य न्याय पर जोर दिया है साक्षी आदि विषयों पर याज्ञवल्क्य ने अपनी परिभाषाएँ प्रस्तुत की।
भारत का सनातन धर्म राजा अथवा शासक के आदेश पर आधारित नही है। स्मृतिकारों ने कहा है धर्मो पारयते प्रजाः। राजा न्याय का निर्माता नहीं इसका पालक है। भारत में विधिनियमों के संग्रह को संहिता के अतिरिक्त, स्मृति नाम से सम्बोधित किया गया है। शास्त्र कारों के मत से अन्य सभी प्रकार के ज्ञान की भांति मनुष्य के कर्तव्याकर्तव्य के विधान का सोत्र श्रुति ही है। अतः विधि संहिताओं का आधार उन स्मृतिकारों की स्मरण शक्ति ही है। इसी आधार पर मनु के स्मृति का नाम मनुस्मृति प्रारम्भिक विधि संहिताएँ जिस रुप में हमें उपलब्ध है इससे स्पष्ट है कि वे तत्कालीन लोकरीतियों के संग्रह है। स्थानीय लोकरीतियांे में में एकरुपता हो सबको कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान उपलब्ध हो सके अतः मौखिक प्रचलित रुढि़ के स्थान पर लिपिबद्व विधिनियमों को लोक व्यवहार में लाया गया।
विनय पिटक- विनय पिटक भिक्षुसंघ का संविधान हैं। सारनाथ में भिक्षुसंघ की स्थापना। संघ की परिशुद्वि, संघटन संचालन के लिए विनय नियम बनाने लगे। समय-समय पर बने नियमांे के संकलन विनय पिटक में किया गया। तीन भाग- 1. उमतो विभंग (सुक्त विभंग) 2.खंघक 3.परिवार पूर्णिमा और अमावस्या के दिन संघ में इन नियमावलियों का पाठ होता है। सात प्रकार के विवादो का समाधान, शिष्टाचार के 75 नियम, असत्य भाषण के 92 नियम, चीवर-पात्र धारण के 30नियम, अनिश्चित परिस्थितियों के 2 नियम, किसी आपत्ति को प्राप्त भिक्षु के लिए 13 नियम, पराजय के कारणों पर 4 नियम सहित कुल 227 के उल्लेख है, जो भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए लागू होते है।
गिलगिट से प्राप्त बौद्व ग्रन्थों में भी विनय का कुछ अंश है इसका सम्पादन नलिवाक्ष दत्त ने किया
पराशर स्मृति
                        पराशर स्मृति कलियुग का स्मृति माना गया है। इसमें कलियुग के आचार, रीति, नियम की चर्चा की गयी है। अन्य स्मृतियों से प्रथक् इसकी महत्ता इसीलिए है कि समसामयिक कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय इसमें प्रतिपादित है। यथा---
                                    आपत्काले तु सम्प्राप्ते शौचाचारं न चिन्तयेत्।
                                    स्वयं समुद्वरेत्पश्चात् स्वस्थो धर्म समाचरेत्।।
                        संकटापन्न स्थिति में व्यक्ति को शौच तथा आचार की संहिता न कर सर्वप्रथम स्वयं की रक्षा करनी चाहिए। स्वस्थ होने पर धर्म का आचरण करना चाहिए।
इसी प्रकार--                  देश भंग प्रवासे च व्याधिषु व्यसेनष्वपि।
                                   रक्षेदेव स्वदेहादौ पश्चाद्धर्म समाचोत्।।
देश पर आये संकट में, प्रवास में रोग ग्रस्त होने पर, अत्यधिक व्यस्तता में सर्वप्रथम अपने शरीर की रक्षा करें तदनन्तर धर्म का आचरण करना चाहिए। स्त्रियों के लिए उदारता इस स्मृति में देखी जाती है-
                                      नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते यतौ।
                                     पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते।।

पति के खो जाने, मरने, सन्यासी होने, नपुंसक होने, पतित होने, इन पाँच स्थितियों में नारी को दूसरी शादी कर लेनी चाहिए।
नारद- न्यायालय में न्याय की व्यवस्था कैसी हो विक्षद वर्णन नारद में देश के न्याय प्रशासन का वर्गीकरण कर उसे व्यवस्थित किया-यस्मिन् देशे य आचारः पारम्पर्य नारद ने। 3234 विभागों में विभाजित कर स्पष्ट किया।
बृहस्पति- न्याय प्रशासन तथा न्यायलय व्यवस्था का सविस्तार वर्णन। न्यायालय के अधिकारियों की संख्या 10 बताया नारद में 8 अमात्य तथा पुरोहित भी न्यायलय के अधिकारी थे। न्यायालय में प्रार्थना पत्र देने के बाद की कारवाइयों का उल्लेख दीवानी तथा फौजदारी न्याय व्यवस्था का अलग-अलग उल्लेख है।
     कुछ स्मृतियों का उल्लेख मिताक्षरा, स्मृति चन्द्रिका में प्राप्त होता निबंध तथा टीका ग्रन्थों में स्मृतियों की व्याख्या का प्रयास 9000 के बाद नवीन स्मृति की रचना नहीं की गयी। इसके बाद निबन्ध टीका ग्रन्थों में याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा टीका रचना काल 11 वीं शताब्दी। जीमूत वाहन 13 वीं और 15 वीं शताब्दी के बीच दायभाग की रचना की इसमें सभी स्मृतियों के वचन सम्मिलित किये गये। दायभाग का कानून बंगाल में चलता है।
                        मितक्षरा के चार उपविभाग 1. वाराणसी में बीरमित्रोदय तथा निर्णय सिन्धु 2. मिथिला में विवाद चिन्ता विवाद रत्नाकर 3. द्रविड़ देश में स्मृति चन्द्रिका, पराशर माधव और वीर मित्रोदय 4. महाराष्ट्र में और गुजरात में व्यवहार मयूख, वीर मित्रोदय और निर्णय सिन्धु की मान्यता है। एक देश, काल में अनेक विधिकार इसकी सम्भावना क्रम विश्व सभी विधिकार अपनी समसामयिक परम्पराओं, न्यायाधीशों की व्यवस्थाओं और मान्य अधिनियमांे को ही विधियों का रुप प्रदान करते रहे है।

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