1. त्रिपाट
या त्रिपाठ- मूल अंश मोटे अक्षरों में बीचों बीच लिखें, टीका
महीन अक्षरों में लिखी जाय
2. पंचपाट-
टीका ऊपर नीचे लिखने के साथ ही दोनों प्राप्त भागों हासिये पर भी लेखन किया जाय।
3. कच्चित
प्रयोग- आकांक्षा, कुशल क्षेत्र जानने हेतु। सूत्र
कच्चित् कामप्रवेदने
4. अंक
प्रयोग- प्रतीकात्मक शब्द संख्या द्वारा। यथा आकाश-0, चन्द्रमा-1
लिपि स्थान
शारदा काश्मीर
क्षेत्र- कल्हण-सहोदराः पाक मुज्फफराबाद ललित विस्तर में दरद लिपि
नेवारी नेवार
(नेपाल)
सिन्धु सिन्धु
क्षेत्र की
पल्लव पल्लव
साम्राज्य (कांची)
शारदा- 12
स्वर 33
व्यंजन
1. जम्मू 1.
ब्राहमी-
बायें से दायें
2. गिल्गित 2.
खरोष्ठी-दायें
से बायें,
सामी
भाषा उर्दू,
फारसी
3.
देवनागरी-
बायें से दायें
4.
चीनी
भाषा- ऊपर से नीचे
पाण्डुलिपि शोधकर्ता
फग्युर्सन
व्युहलर
पीटर्सन
आर्फकेट
एच0 कार्न
बार्नेट
ए0 सी0
बर्नल
गुस्ताव आॅपर्ट
कर्नल टाॅड
प्रो0 जुलियस
जाली
डाॅ0 आर0
भण्डारकर
म.म. हरप्रसाद शास्त्री
राजेन्द्र लाल मित्र
पं0 टी0
गणपति शास्त्री
पं0
सुब्रहम्ण्य शास्त्री
प्रो0 वी0
राघवन
1. भखशाली
पाण्डुलिपि- भखशाली कार के ध्वंसावशेष से प्राप्त
विषय- ज्योतिष गणित
भोजपत्र, शारदालिपि,
संस्कृत
भाषा 70
4 व
7’4
इंच ईशा की 2
शताब्दी या 10वीं
शताब्दी,
आर्कियोलाजिकल
सर्वे आॅफ इन्दिया में 1927
से 38
तक में प्रकाशन
2. बाॅवेर
पाण्डुलिपि- 1890
में मध्यएशिया कुचा के पास बौद्व स्तूप से भोज पत्र पर, गुप्तकालीन
ब्रहमलिपि 4
थती भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना
द्वारा प्रकाशित महाभारत
रायल एशियाटिक सोसायटी स्थापना1784
गया में अशोक के संगतराशों ने पथ्थरों पर एक
अपूर्ण वर्णमाला खोदी है।
ब्राहमी में ई0
र्पू0
तृतीय शताब्दी से ही 46 अक्षर थे।
पाणिनि लिपिकर और लिबिकर समस्त पद का उल्लेख
करते है
अक्षर, काण्ड,
पटल,
ग्रन्थ-
लेखन कला के प्रमाण हस्तलिखित ग्रन्थ को सरस्वती मुख कहते है। हस्तलिखित पुस्तकों
के अवतरण का संकलन हेमाद्रि के दानखंड में है। कामसूत्र में पुस्तक वाचक एक कला
है।
बौद्व आगम के सण्य लेखन कला का प्रचार था जातक,
अशोक के पोते दशरथ के नागार्जुनी गुफा अभिलेख
ईसा की पहली और दूसरी शली
खारवेल के हाथी गुफा अभिलेख
नाना
घाट के अभिलेख
मथुरा
के पुराने अभिलेख
एरण के सिक्के पर लेख वायें से दाहिने- ब्राहमी
का पूर्व इतिहास पता चलता है।
ई0 पू0
400
शती एरण के सिक्के बायें दायें दोनो ओर से लिखे प्राप्त होते है ब्राहमी में।
लार्ड कर्जन वायसराय 1898
मंे घोषणा राष्ट्रीय स्मारक कानून 100 वर्ष से
अधिक प्राचीन धरोहर एण्टीक्वीटीज एक्सपोर्ट एक्ट 1947
फोटोग्राफी- डाकुमेंन्टेशन,
रिकार्ड
हेतु,
अध्ययन,
विक्रय,
सुरक्षा
मरम्मत- वास्तविकता समाप्त न हो,
लिखावट
धूमिल न पड़े,
कम
खर्च,
सामग्री
स्थायी हो।
जल विरोध स्हायी को साडियम हाइपो-क्लोराइड
(छंवबप) से छुड़ाना चाहिए।
अम्लीयता समाप्ति हेतु- सफाई,
अम्लीयता
निसारण,
लैमिनेशन
अम्लीयता-
पी0एच0
7
तक सामान्य,
इससे
ऊपर क्षारीय,
7
से कम पर अम्लीयता होती है।
ताड़पत्र लेख के संरक्षण हेतु ग्लिसरीन व एलकोहल
के द्योल से करनी चाहिए।
ताड़पत्र की मरम्मत शिफान व पेस्ट से की जाती
है।
क्षरण के कारण- धूल, गन्दगी,
दाग,
तेल,
मोड़ने,
धूंए,
सूर्यप्रकाश,
कीट
फूफंट,
सल्फर
डाई आक्साइड
700 निमोटीर वेवलेंग्य के ऊपर की
किरणें इन्फ्रा रेड विकिरण द्वारा पहुँचती है। इन्फ्रारेड व अल्ट्रासायलेट दोनो
किरणें नुकसान पहुँचाती है
प्रकाश की सधनता, प्राचुरता
से नुकसान
प्रकाश में उपस्थित ऊर्जा- वेवलेंग्ध अनुपाती
प्रकाश की प्रभाव- रंगो को घूमिल करना,
रासायनिक
प्रक्रिया के दर में वृद्वि
विन्दुएँ
पाण्डुलिपि के प्रकार, पाण्डुलिपि
विवरणिका,
पाण्डुलिपि
के विषय में जानकारी
पाण्डुलिपि की सुरक्षा, पाण्डुलिपि
कानून
लिपि- ब्राहमी, खरोष्ठी,
शारदा,
बंगाली,
नेपाली,
देवनागरी,
उत्पत्ति
स्थल आदि
समसामयिक गतिविधि
ब्राहमी
लिपि की उत्पत्ति
ब्राहमी अक्षरों के आदिरुप सेमेटिक अक्षर थे।
एरण के सिक्के का लेख दायें से बायें चलता है।
मौर्या काल से कई शताब्दी पूर्व से ही ब्राहमी
व्यवहार में आती थी।
सर्वदेशाक्षरभिज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः।
बह्रर्थवक्ता चाल्पेन लेखकः स्यानृपोत्तम।।
शीर्षोपेतान् सुसम्पूर्णच्छुभाच्छेणिं गतान्
समान्।
अक्षरान्वै लिखेद्यस्तु लेचाकः स वरः स्मृतः।।
मत्स्यपु0
अध्या.189
हयशीर्ष पाच्चरात्र के सङकर्षण संज्ञक तृतीय
काएठ के 31
वें अध्याय में ग्रन्थलेखन की विधि बतायी गयी है। शारदा तथा नागरी लिपि का उल्लेख
स्पष्टतः प्राप्त होता है।
रौप्यापात्रे मषीं स्थाप्य लेखन्या हेमया शुचिः।
काश्मीरैर्नागरैर्वर्णैः समशीर्षैः समांशकैः।।
लेखयेल्लेखको धीमान् सर्वशास्त्रविशारदः
लिपि में शिरोरेखा
शंकराचार्य ई. की आठवीं शताब्दी में हुए। उस समय
लिपि में शिरोरेखा का हो चुका था। आठवीं शताब्दी के बाद राजा दन्तिदुर्ग द्वितीय
का समनगढ़ दुर्ग से प्राप्त ताम्रपत्र शिरोरेखा से युक्त नन्दिनागरी में लिखा गया
है। कुमारिल भटृ प्रभाकर को अत्रतु नोक्तं तत्रापि, नोक्तम्
पढ़ा रहे थे,
जिसमें
द्विरुक्ति थी। प्रभाकर ने शिरोरेखा ठीक कर अत्र तुनोक्तं, तत्रापि
नोक्तम् किया।
ब्राहमी के प्राचीन अभिलेख संस्कृत में न होकर
प्राकृत में ही पायें गये है।
ब्राहमी में शिरोरेखा नही होती है। प्र0
34
बतायन
‘हयशीर्ष संहिता’
संस्कृत
ग्रन्थांे के लेखन हेतु काश्मीर (शास्त्र) लिपि एवं पागर वर्णो को ही सर्वाधिक
उपयुक्त मानती है।
तत्रः पुण्याह............ समांशकैः- प्र0
35
नित्यषोऽशिकार्णक की सेतुबन्ध नामक टीका के
रचयिता भास्करानन्द ए वर्ण का स्वरुप नागर लिपि में त्रिकोणात्मक होना बतलाता है।
कोणत्रयवदुद्भवो........लेखनात्।
रोमन लिपि में डाइक्रिटिकल माक्र्स लगाकर
संस्कृत ध्वनियों को अभिव्यक्ति दी जाती है।
प्राचीन
भारत में ग्रन्थ सम्पादन प्रक्रिया
अलग-अलग प्रान्तों की अलग-अलग लिपियाँ
लेखनाधार-भोजपत्र, तालपत्र,
काष्ठुलक,
चमड़ा,
कपड़ा
लेखिनी दाहमयी,
वेणुमयी,
अयोमयी,
तूलिका
लेखन द्रव्य मसी,
अलक्तक,
गैरिक
लेखन सम्प्रदाय, चिह्न-
प्रान्त प्रान्त में भिन्न
लेखक विषय से अभिज्ञ
एक लिपि में लिखित मातृका को दूसरी लिपि में
लिप्यन्तर
लेखक लिप्यन्तर को नही जानते है अतः सुनकर
लिप्यन्तर को लिखा गया।
पाठभेद समीक्षा- टीकाकारों द्वारा वल्लभदेव
मेद्यदूत टीका में आषाढ़स्य प्रथम दिवस के श्लोक व्याख्यान के अवसर पर कहा। केचित् श और थ लिपि
के साम्य होने के कारण
प्रशम ऐसा कहा।
प्रमाणविमर्श (हायर क्रिटिसिज्म) इस ग्रन्थकार
का पाठ ऐसा ही था व्याख्या द्वारा यह प्रमाण पुरस्सर कहते थे- आलंकारिक,
भाष्यकार
महिममटृ व्यक्ति विवेक में जातं मन्ये के कालिदास पद्य में वान्यरुपाम् पद में वा
शब्द इवार्थक है यह प्रयोग नहीं किया।
बहून् समाहत्य विभिन्नदेश्यान्
कोशान् विनिश्चित्य तु पाठमग्रयम्।
प्राचां गुरुणामनुसृत्य वाचम्
आरभ्यते भारतभावदीपः। नीलकंठ,
(भावदीप
टीका)
महाभारत व्याख्या, आदिपर्व।।
आनन्द तीर्थ तात्पर्यनिर्णयकर्ता ने
मातृकाग्रन्थों पर देखे गये विपर्यास को कहा है।
प्राच्य
लिपि
पालि- बौद्व साहित्य- बिहार,
उ0
प्र0
प्राकृत (अर्धमागधी) सौरसेनी,
महाराष्ट्री,
अप्रभंश-जैन
संस्कृत- देवनागरी तथा नागरी लिपि
ग्रन्थ लिपि- तमिलनाडु, दक्षिण
भारत में
पाश्चात्य
लिपि क्षेत्र भाषा
आसामी उत्तर
भारत,
असम
संस्कृत
बंगाली, वंग पूर्वी
पश्चिमी बंगाल
डोगरी जम्मू
हिमाचल के कुछ भाग
गुजराती इंडो
आर्यन परिवार,
सौरसेनी
प्राकृत
से
सम्बद्वृ,
जैन,
मुस्लिम,
पारसी
प्रयोक्ता
हिन्दी इन्दो
आर्यन ग्रुप
कर्णाटक, कश्मीरी,
मैथिली,
नेपाल, नेवारी नेपाल
शारदा देवनागरी
से सम्बद्वृ जम्मू तथा कश्मीर के कुछ भाग में प्रयुक्त
सिंहली
सिद्वहेमशब्दानुशासन- प्रथम 7
अध्याय संस्कृत के बारे में लिखा अंतिम 8 वें
अध्याय के पहले तीन
पाठ----
महाराष्ट्री प्राकृत, सैरसेनी
प्राकृत,
मागधी
प्राकृत,
पैशाची
प्राकृत आदि भाषा हेतु तथा चतुर्थ पाठ अप्रभंश के लिए है।
महोदय बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी है। परन्तु इसमें जो पाण्डुलिपि शोध कर्ताओ के नाम है।उनका भी परिचय मिल सकता है क्या ?
जवाब देंहटाएंइसे संक्षिप्त नोट समझिये। शोधकरर्ताओं के नाम नेट पर उपलब्ध है।
हटाएंVery very important informa sir I am a research student my subject is manuscriptology .i would like to have more information about manuscriptology from you sir thnaks for information you have provide us.
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