कृदन्त भाग पाठ 31
ण्वुल्,
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ण्यत् (योग्य अर्थ)
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क्त्वा,
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णमुल्
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तव्य / तव्यत् (चाहिए, योग्य अर्थ)
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क्यप् (योग्य अर्थ)
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क्त (भूतकालिक)
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घञ् (भाव अर्थ में)
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अनीयर् (चाहिए, योग्य अर्थ)
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शतृ (वर्तमानकालिक कार्य की निरन्तरता के अर्थ में)
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क्तवतु (भूतकालिक)
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ल्यु (कर्ता अर्थ में)
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यत् (योग्य अर्थ)
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शानच् (वर्तमानकालिक कार्य की निरन्तरता के अर्थ में)
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तुमुन् (भविष्यत् कालिक)
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णिनि (वाला अर्थ में ) ल्युट् (नपुंसकलिङ्ग भाववाचक संज्ञा)
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जिन्होंने व्याकरण का अध्ययन गहराई से नहीं किया हो, वे सोच रहे होंगें कि ण्वुल् प्रत्यय में ण् तथा ल् को हटाने तथा वु को शेष बचाने जैसी लम्बी प्रक्रिया करने की क्या आवश्यकता है? सीधे वु आदेश कर देते। ऐसे छात्रों को संज्ञा, इत्संज्ञा, लोप आदि व्याकरण के कुछ सामान्य स्वभाव समझना चाहिए। इसे समझने पर वे प्रातिपदिक या धातु से आने वाले प्रत्ययों में वर्णों की इत्संज्ञा, लोप या अन्य संज्ञा के कारण के स्वरूप में होने वाले परिवर्तन को आसानी से समझ सकते हैं। वे यह जान सकते हैं कि जब पठ् + क्त = पठितः, पा + क्त = पीतः बन सकता है तो धा + क्त = धीतः क्यों नहीं? जबकि धा + क्त = हितः बनता है।
ण्वुल् प्रत्यय
तृच्-
इस प्रत्यय का प्रयोग भी ण्वुल् के समान ही 'वाला' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए होता है। जैसे— √कृ + तृच् = कर्तृ → कर्ता (करने वाला)। तृच् में 'तृ' शेष बचता है। च् की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता में है। इस प्रत्यय का प्रयोग करने पर ऋकारान्त प्रातिपदिक का निर्माण होता है तथा उसके कर्ता के अनुसार पुल्लिंग, स्त्रीलिङ्ग एवं नपुंसकलिङ्ग तीनों लिङ्गों में रूप चलते हैं। जैसे- √हृ + तृच् = हर्तृ । ये रूप पुल्लिंग में कर्ता, कर्तारौ कर्तारः स्त्रीलिङ्ग में दीर्घ ई का प्रयोग करके कर्त्री, नदी के समान तथा नपुंसकलिङ्ग में कर्तृ, कर्तॄणी, कर्तृणि इत्यादि रूप चलेंगे। तृच् प्रत्यय का प्रयोग होने पर धातु के स्वर को गुण आदेश होता है। जैसे कृ धातु के 'ऋ' स्वर को 'अर्' गुण आदेश होकर बना कर्तृ, यहाँ तृ, 'तृच्' प्रत्यय का है। इसी प्रकार √पठ् + तृच् = पठितृ, √दा + तृच् = दातृ, √पच् + तृच् = पक्तृ, गम् + तृच् = गन्तृ, आदि को भी समझना चाहिए।
तव्यत् , तव्य और अनीयर्
पाठ- 32
यत् प्रत्यय
ण्यत् प्रत्यय
हृ + ण्यत् = हार्यम् ।
वच् + ण्यत् = वाक्यम्।
क्यप् प्रत्यय
नोट- क्यप् प्रत्यय में पकार की इत्संज्ञा होती है अतः यह पित् प्रत्यय है। पित् कृत् प्रत्यय के परे ह्रस्वान्त धातु में तुक् (त् ) हो जाता है। इसके नियम इस प्रकार है-
विशेष-राज्ञा सोतव्यः वा राजा ( सोमः ) सूयते । यहाँ (राजन् + सू+क्यप् )=राजसूयः, राजसूयम् । सरति आकाशे इति-सूर्यः । ( सृ+क्यप् ) । मृषा + वद् + क्यप् = मृषोद्यम् । रुच्+क्यप्-रुच्यम् ।। गुप + क्यप् = गुप्यम् ( सोना चाँदी से भिन्न धन )। कृष्ट स्वयमेव। पच्यन्ते = कृष्टपच्याः ( कृष्ट + पच् + क्यप् )। न व्यथते=अव्यथ्यः। (न+व्यथ्+क्यप् )।
पाठ- 33
धातु प्रत्यय
पुल्लिंग स्त्रीलिंग
नपुंसकलिंग
पठ+शतृ पठन् पठन्ती
पठत्
लिख्+शतृ
लिखन् लिखन्ती लिखत्
पच्+शतृ
पचन् पचन्ती
पचत्
दृश्+शतृ
पश्यन् पश्यन्ती
पश्यत्
गम्+शतृ
गच्छन् गच्छन्ती
गच्छत्
भू+शतृ
भवन् भवन्ती
भवत्
मिल्+शतृ
मिलन् मिलन्ती
मिलत्
नी+शतृ
नयन् नयन्ती
नयत्
घ्रा+शतृ
जिघ्रन् जिघ्रन्ती
जिघ्रत्
दा+शतृ
यच्छन् यच्छन्ती
यच्छत्
धातु प्रत्यय पुंलिंग रूप
क्रुध् + शतृ = क्रुध्यन्
गम् + शतृ = गच्छन्
प्रच्छ् + शतृ = पृच्छन्
चुर् + शतृ = चोरयन्
भू + शतृ = भवन्
जि + शतृ = जयन्
धातु
(अर्थ) पुल्लिंग स्त्रीलिंग नपुंसकलिंग
लभ् (पाना) लभमान् लभमाना
लभमानम् पाते हुआ/ हुई
सेव् (सेवा
करना) सेवमान् सेवमाना सेवमानम् सेवा करता/करती हुई
दा (देना) ददानः ददाना
ददानम् देते हुआ/ हुई
पाठ- 34
क्त्वा प्रत्यय का प्रयोग
दा + क्त्वा = दत्त्वा, दम्
+ क्त्वा = दमित्वा, दान्त्वा,
वृत् + क्त्वा = वर्तित्वा,
वृत्वा तृ
+ क्त्वा = तीर्त्वा
शम् + क्त्वा = शमित्वा, शान्त्वा, कृष्
+ क्त्वा = कृषित्वा, कर्षित्वा,
वस् + क्त्वा = उषित्वा शास्+
क्त्वा = शिष्ट्वा,
धा + क्त्वा = हित्वा, अद् + क्त्वा = जग्ध्वा,
भिद् + क्त्वा = भित्वा, बन्ध्
+ क्त्वा = बद्ध्वा
श्वि+ क्त्वा = श्वयित्वा जू+
क्त्वा = जरीत्वा, जरित्वा
खन् + क्त्वा = खनित्वा, खात्वा तन्
+ क्त्वा = तनित्वा, तत्वा
क्रम् + क्त्वा = क्रमित्वा, क्रान्त्वा,
क्रन्त्वा, गुह्
+ क्त्वा = गृहित्वा, गूढ्वा,
मृज् + क्त्वा = मार्जित्वा,
मृष्ट्वा, क्लिश्-क्लिशित्वा, क्लिष्ट्वा,
मृष् + क्त्वा = मृषित्वा,
मर्षित्वा भञ्ज्
+ क्त्वा = भङ्क्त्वा, भक्त्वा
ग्रन्थ + क्त्वा = ग्रन्थित्वा, ग्रथित्वा स्यन्द्
+ क्त्वा = स्यन्दित्वा, स्यन्त्वा
गुम्फ् + क्त्वा = गुम्फित्वा, गुफित्वा
मस्ज् + क्त्वा = मङ्क्त्वा, मक्त्वा
ग्रह + क्त्वा = गृहीत्वा क्षुध्
+ क्त्वा = क्षुधित्वा, क्षोधित्वा
वच् + क्त्वा = उक्त्वा
क्त्वा
(१) यदि धातु से पूर्व उपसर्ग का प्रयोग न हुआ हो तो 'करके' या (कर) की अभिव्यक्ति के लिए 'क्त्वा' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। इसके प्रारम्भ में प्रयुक्त (क्) की 'लशक्वतद्धिते' सूत्र से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा शेष बचता है- 'त्वा' ।
(२) कुछ धातुओं में इस प्रत्यय को जोड़ने पर कोई परिवर्तन नहीं होता है जैसे- √ स्ना + क्त्वा = स्नात्वा, √ज्ञा + क्त्वा = ज्ञात्वा, √भू + क्त्वा = भूत्वा, नी + क्त्वा = नीत्वा, √कृ + क्त्वा = कृत्वा, Vधृ + क्त्वा = धृत्वा ।
(३) कुछ नकारान्त धातुओं के न् का लोप हो जाता है और उसके बाद इस प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे- √हन् + क्त्वा = हत्वा, √मन् + क्त्वा = मत्वा,
किन्तु जन् + क्त्वा = जनित्वा, √खन् + क्त्वा = खनित्वा इसके अपवाद भी हैं।
(४) यदि धातु प्रारम्भ में य, व, र, ल में से कोई भी प्रयुक्त हुआ हो तो के ऐसी धातुओं को क्त्वा प्रत्यय का प्रयोग करने पर क्रमशः य को इ, व को उ, र को ऋ तथा ल को लृ आदेश हो जाता है। जैसे- √यज् + क्त्वा = इष्ट्वा, √ वप् - क्त्वा = उप्त्वा ।
तृतीय नियम
धातुओं के साथ प्र परा आदि उपसर्ग का प्रयोग होने पर क्त्वा
को ल्यप् हो जाता है। अर्थात् धातुओं का रूप त्वान्त न होकर यान्त हो जाता है। जैसे कि -
नयति - नीत्वा । आनयति - आनीय
गच्छति - गत्वा । आगच्छति
- आगत्य
भवति – भूत्वा। सम्भवति
- सम्भूय
तिष्ठति-स्थित्वा । उत्तिष्ठति
- उत्थाय
हरति-हृत्वा । विहरति-विहृत्य
क्षालयति-क्षालयित्वा । प्रक्षालयति-प्रक्षाल्य
हसति - हसित्वा । उपहसति-उपहस्य
|
स्मरति – स्मृत्वा ।
विस्मरति - विस्मृत्य
जानाति - ज्ञात्वा । विजानाति-विज्ञाय
क्रीणाति - क्रीत्वा । विक्रीणाति-विक्रीय
|
नमति- नत्वा। प्रणमति-
प्रणम्य
गृह्णाति – गृहीत्वा । संगृह्णाति
- सङ्गृह्य
आप्रोति- आप्त्वा । प्राप्नोति-
प्राप्य
करोति – कृत्वा । उपकरोति
- उपकृत्य |
तिष्ठति-स्थित्वा । प्रतिष्ठति
- प्रस्थाय
ल्यप्–
(१) यदि धातु से पहले उपसर्ग का प्रयोग हुआ हो तो 'करके' अथवा 'कर' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'ल्यप्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। त्यप् के प्रारम्भ में प्रयुक्त 'ल्' की 'लशक्वतद्धिते' से तथा अन्तिम 'प्' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'य'। जैसे आ + दा + ल्यप् = आदारा, वि + √नी + ल्यप् = विनीय, अनु + √भू + ल्यप् = अनुभूय
(२) ल्यप् प्रत्यय से पहले यदि धातु का अन्तिम स्वर हस्व हो तो 'य' न जोड़कर 'त्य' जोड़ते हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति में प्रत्यय और धातु के बीच तुक के आगम का विधान किया गया है। तुक में उक् की इत् संज्ञा होती है। अतः उसका लोप हो जाता है, शेष बचता है 'त्'। जैसे— उप + √कृ + ल्यप् = उपकृत्य, निस् + √चि + ल्यप् = निश्चित्य, वि + √जि + ल्यप् = विजित्य, अव + √कृ + ल्यप् अवकृत्य।
(३) कृत्वा प्रत्यय के समान नकारान्त धातुओं के 'न' का लोप हो जाता है, किन्तु यहाँ तुक का भी आगम होता है। जैसे- √तन् + ल्यप् वितत्य, किन्तु इस क्रम में अपवाद रूप में प्रखन् + ल्यप् = प्रखन्य को भी स्मरण रखना चाहिए।
(४) √गम्, नम्, √यम् और √रम् धातु के विकल्प से दो रूप बनते हैं- जैसे गम् + ल्यप् अवगत्य, अवगम्य ।
(५) इसके अतिरिक्त णिजन्त एवं चुरादिगणीय धातुओं की उपधा में हस्व स्वर प्रयुक्त होने पर ल्यप् से पहले अय् का प्रयोग करते हैं। जैसे- प्र + √नम् अय् + ल्यप् प्रणम्थ्य, किन्तु इसी क्रम में प्रचोर्य (प्रचुर् चोर् + ल्यप्) को अपवाद समझना चाहिए।
धातु क्त्वा ल्यप्
√सृज् = बनाना सृष्ट्वा विसृज्य
√कृ = करना कृत्वा अपकृत्य
√मन् = मानना मत्वा अवमत्य
√क्री = खरीदना क्रीत्वा विक्रीय
क्षिप् = फेंकना क्षिप्त्वा निक्षिप्य
√स्था = ठहरना स्थित्वा उत्थाय
√भू = होना भूत्वा संभूय
√श्रि = आश्रय लेना श्रित्वा
√हस् = हँसना हसित्वा विहस्य
√भ्रम् = घूमना भ्रमित्वा
√हृ = हरण करना हृत्वा
समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप्
सूत्रार्थ- नञ् से
भिन्न जिस समास के पूर्वपद में कोई अन्य अव्यय स्थित हो तो उस समास में धातु से
परे क्त्वा के स्थान पर ल्यप् आदेश होता है।
नञ् अव्यय है। अनञ् कहने से नञ् समास से भिन्न और नञ् समास
के सदृश अव्यय अर्थ लिया गया है। अर्थात् समास के पूर्वपद में नञ् से भिन्न अन्य
कोई अव्यय हो तो धातु से परे क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर ल्यप् आदेश हो जाता है।
उदाहरण- प्रकृत्य। प्रहृत्य। पार्श्वतः कृत्य। नानाकृत्य।
द्विधाकृत्य।
अकृत्वा। (नञ्) न + कृत्वा में समास करके अ + कृत्वा बना
है। नञ् पूर्व में होने पर सूत्र ने ल्यप् आदेश का निषेध किया है, अतः
यहाँ पर ल्यप् आदेश नहीं हुआ, क्त्वा ही रहा गया- अकृत्वा।
'ल्यप्' प्रत्ययान्त
शब्द अव्यय होते हैं। अतः इनके रूप में परिवर्तन नहीं होता है।
आ + नी = आनीय, आ
+ दा = आदाय, द्विधा + कृ=
द्विधाकृत्य,
निर् + भिद् = निर्भिद्य, निस्
+ चि= निश्चित्य, उत् + प्लु =
उत्प्लुत्य,
परा + जि = पराजित्य, प्र
+ दिव्= प्रदीव्य, अनु + भू=
अनुभूय,
अव + कृ = अवकीर्य, अधि
+ इ = अधीत्य, आ + पु = आपूर्य,
प्र + इ = प्रेत्य, प्र
+ वच् = प्रोच्य, सम् + कृ=
संस्कृत्य,
आ + ह्वे = आहूय, उद्
+ तृ = उत्तीर्य अनु + वद् =
अनूद्य
नोट - 'ल्यप् ' प्रत्यय के योग में निम्नलिखित विशेष कार्य
ध्यान में रखने चाहिए ।
१. ह्रस्वान्त धातु के परे 'तुक्' ( त् ) हो जाता है । यथा- वि + जि = विजित्य |
२. तन्, मन्, हन् धातु के 'नकार' का लोप हो जाता है । यथा- वि + तन् = वितत्य, आ
+ हन् = आहत्य इत्यादि ।
३. गम्, नम्, यम्, रम् धातुओं के 'मकार' का विकल्प से लोप हो जाता है । यथा- आ + गम् = आगत्य, प्र + नम् = प्रणत्य
आदि ।
४. मूल इकारान्त भिन्न अनुनासिकोपध धातुओं के अनुनासिक का
लोप हो जाता है । यथा-परिष्वज्य, किन्तु चुबि से परिचुम्ब्य ।
५. ण्यन्त धातुओं के 'णिच्' का लोप हो जाता है, किन्तु
पूर्व स्वर लघु हो तो णिच् के स्थान में 'अय्' हो जाता है । यथा— वि
+ चिन्ति + य = विचिन्त्य । प्रपीडय । सम्बोध्य । किन्तु विगणय्य । विघटय्य ।
प्रणमय्य ।
पौन:पुन्य ( बारबार ) अर्थ रहने पर क्त्वा प्रत्यय के अर्थ में 'णमुल्' ( अम् ) भी होता है । यथा - स्मारं स्मारं नमति कृष्णम् । स्मृत्वा स्मृत्वा इत्यर्थः । इसी तरह पायं पायम् । भोजं भोजम् । श्रावं श्रावम् ।
काव्य से उदाहरण-
सुग्रीवः सर्वान् वानरान् समानीय दिश: प्रति प्रस्थापयामास ।
अभ्यास
दिये गये उदाहरण के अनुसार रिक्त स्थान को भरें ।
उदाहरण-
अध्यापकः .......... विद्यालयम् आगच्छति । (पठति)
अध्यापकः पठित्वा विद्यालयम् आगच्छति ।
(क) अहं नदीतीरे .......... गृहं गच्छामि । (भ्रमामि)
(ख) रमेशः दुग्धं ........
स्वपिति । (पिबति)
(ग) पिता .......... भगवन्तं स्मरति । (उत्तिष्ठति)
(घ) मम भगिनी पुष्पम् .. .. मन्दिरं
गच्छति । (आनयति)
(ङ) छात्रः लेखं ............ अध्यापकं दर्शय ति । (लिखति)
(च) किं त्वं फलं ......... व्यायामं करोषि ?
(खादसि)
(छ) सा बालिका ........ लिखति । (शृणोति)
(ज) मम भ्राता कदापि ........... न गच्छति । (वदति)
(झ) स्नेहा उत्तरं ................ उपविशति । (ददाति)
(ज) तस्य मित्रं ...... खादति । (स्नाति)
अन्य ल्यप् प्रत्ययान्त
शब्द
आ + गम् = आगम्य - आकर
आ + नी = आनीय - लाकर
आ + दृ = आदृत्य – आदर कर
आ+घा = आधाय - स्थापित कर
आ + पृच्छ = आपृच्छ्य - पूछकर
अनु + कृ = अनुकृत्य – नकल कर
अनु + ग्रह = अनुगृह्य – दया कर
अनु + ज्ञा अनुज्ञाय – आदेश कर
अनु + नी = अनुनीय - अनुनय कर
अनु + भू = अनुभूय - अनुभव कर
अनु + शुच = अनुशोच्य - भली प्रकार
सोचकर
अनु + स्था = अनुष्ठाय - अनुष्ठान
कर
अनु + वद् - अनूद्य - अनुवादकर
अवि + इ = अधीत्य - पढ़कर
अप + कृ = अपकृत्य - अपकारकर
अधि + गम् = अधिगम्य - पाकर
अभि + अस = अभ्यस्य - रटकर
अव + तृ = अवतीर्य - उतरकर
अव + मन्= अवमत्य - अपमान कर
अव + गम् = अवगम्य - जानकर
उत् + पत् = उत्पत्य - पैदा होकर
उत् + प्लुत् = उत्प्लुत्य - कूदकर
उत् + डी = उड्डीय - उड़कर
उत् + तृ = उत्तीर्य - पारकर
परा + अच् =
पलाय्य – भागकर
परा + जि = पराजित्य - हराकर
नि + धा = निधाय - रखकर
निर् + गम् = निर्गम्य- निकलकर
नि + पत् = निपत्य - गिरकर
प्र + दा = प्रदाय - देकर
प्र+भू = प्रभूय - समर्थ होकर
प्र + बुध् = प्रबुध्य - जागकर
प्र + आप = प्राप्य - पाकर
प्र + विश् = प्रविश्य - प्रवेश कर
प्र + स्था = प्रस्थाय - प्रस्थान
कर
प्र + हृ = प्रहृत्य - प्रहारकर
प्र + वच् = प्रोच्य - कहकर
प्र + नी = प्रणीय - बनाकर
प्र + नि +पत् - प्रणिपत्य - प्रणाम
कर
सम् + धा = संधाय - जोडकर
सम् + भू = संभूय - पैदा होकर
सम् + कृ = संस्कृत्य – साफकर
सम् + स्मृ = संस्मृत्य – स्मरण कर
सम् + हृ = संहृत्य - नाशकर
सम् + क्षिप् = संक्षिप्य -
संक्षिप्त कर
सम् + गम् =संगम्य मिलकर
सम् + ग्रह = संगृह्य - इकट्ठा कर
सम् + चि = संचित्य - संचय कर
सम् + दिह् = संदिह्य - सन्देहकर
वि + हा = विहाय - छोड़कर
वि+ भज = विभज्य - बांटकर
वि+ लोक् = विलोक्य - देखकर
वि+जी = विजित्य - जीतकर
वि+ कृ - विकीर्य – विखेरकर
वि + कृ = विकृत्य - बिगाड़कर
वि+क्री = विक्रीय - बेचकर
वि+ग्रह = विगृह्य - विग्रहकर
वि + चि = विचित्य - खोजकर
वि+चित् = विचिन्त्य - सोचकर
वि+ज्ञा = विज्ञाय - जानकर
वि + श्रम् = विश्रम्य - आरामकर
वि + स्मृ = विस्मृत्य - भूलकर
वि + हस् = विहस्य - हँसकर
वि+ ह = विहृत्य - विहारकर
प्रति + श्रु = प्रतिश्रुत्य -
प्रतिज्ञाकर
प्रति + अभि + ज्ञा = प्रत्यभिज्ञाय
- पहचानकर
प्रति + आ + गम् = प्रत्यागम्य - लौटकर
पाठ- 35
क्त, क्तवतु प्रत्यय
निष्ठा प्रत्ययान्त शब्दों के उदाहरण
धातु क्त (त) क्तवतु (तवत् )
घ्रा घ्राणः,
घ्रातः घ्राणवान्, घ्रातवान्
दा दत्तः दत्तवान्
आ+दा आत्तः आत्तवान् हितः
धा हितः हितवान्
पा पीतः पीतवान्
हा हीनः हीनवान्
क्षि क्षीणः क्षीणवान्
श्वि शूनः शूनवान्
ली लीनः लीनवान्
शी शयितः शयितवान्
जागृ जागरितः जागरितवान्
धातु क्त
क्तवतु धातु क्त क्तवतु
अर्च अर्चितः, अर्चितवान्
ईक्ष ईक्षितः, ईक्षितवान्
कृ कृतः, कृतवान् इष् इष्टः, इष्टवान्
कुप् कुपितः, कुपितवान् क्रुध् क्रुद्धः, क्रुद्धवान्
खिद् खिन्नः, खिन्नवान् गम् गतः, गतवान्
ग्रस् ग्रस्तः, ग्रस्तवान् क्षिप् क्षिप्तः, क्षिप्तवान्
चि चित:, चितवान् चेष्ट् चेष्टितः, चेष्टितवान्
जागृ जागरितः, जागरितवान् जुष् जुष्टः, जुष्टवान्
ज्ञा ज्ञात:, ज्ञातवान् त्यज् त्यक्तः, त्यक्तवान्
दण्ड् दण्डितः, दण्डितवान् दीप् दीप्तः, दीप्तवान्
दृश् दृष्टः, दृष्टवान् नम् नतः, नतवान्
ख्या ख्यातः, ख्यातवान् गर्ज् गर्जितः, गर्जितवान्
ग्रह गृहीतः, गृहीतवान् खाद् खादितः, खादितवान्
चिन्त चिन्तितः, चिन्तितवान् छिद् छिन्नः, छिन्नवान्
जि जित:, जितवान् आप् आप्तः, आप्तवान्
कथ् कथितः, कथितवान् क्री क्रीतः, क्रीतवान्
गद् गदितः, गदितवान् गै गीत:, गीतवान्
।
घुष्
घोषितः, घोषितवान् चल् चलितः, चलितवान्
चुम्ब् चुम्बित:, चुम्बितवान् जन् जातः, जातवान्
जीव जीवितः, जीवितवान् पठ्
पठितः, पठितवान्
पच् पक्व:, पक्ववान् पीड् पीडितः, पीडितवान्
पूज् पूजितः, पूजितवान् बाध् बाधित:, बाधितवान्
भक्ष्
भक्षितः, भक्षितवान् भुज् भुक्तः, भुक्तवान्
भ्रंश् भ्रष्टः, भ्रष्टवान् मद् मत्तः, मत्तवान्
मिल् मिलित:, मिलितवान् मृ
मृतः,
मृतवान्
याच् याचितः, याचितवान् रक्ष् रक्षितः, रक्षितवान्
राज् राजितः, राजितवान् रुध् रुद्धः, रुद्धवान्
लिख् लिखित:, लिखितवान् वन्द् वन्दितः, वन्दितवान्
विद् विदितः, विदितवान् वेष्ट् वेष्टितः, वेष्टितवान्
शक् शक्तः, शक्तवान् शम् शान्त:, शान्तवान्
हु हुत:, हुतवान् शुभ् शोभितः, शोभितवान्
श्रि श्रितः, श्रितवान् सह सोढः, सोढवान्
सृज् सृष्टः, सृष्टवान् स्तु स्तुतः, स्तुतवान्
स्पृश् स्पृष्टः, स्पृष्टवान् हन् हतः, हतवान्
अधोलिखित धातुओं में क्त तथा क्तवतु प्रत्ययों
का लगाकर अभ्यास करें।
ध्यै, शकि, लिख्, मृज्, पच्, मुच्, भञ्ज्, नृत्, गद्,
क्लिद्, मद्,खन्, जन्, मन्, अद्, क्षुद्,खिद्, प्याय्,
स्फाय्, धाव्, सिव्, भ्रंश्, रञ्ज्, क्लिद्, स्फाय्, सह् मुह् ।
क्त प्रत्ययान्त-
ध्यातः शङ्कितः लिखितः मृष्टः पक्वः मुक्तः भग्नः रक्तः
नृत्तः गदितः क्लिन्नः मत्तः खातः जातः मतः जग्धः अन्नम् क्षुण्णः खिन्नः पीनः स्फीतः
धौतः धावितः स्यूतः भ्रष्ट: शुष्कः सोढः मुग्धः,
मूढः।
क्तवतु प्रत्ययान्त-
ध्यातवान् शङ्कितवान्, लिखितवान् मृष्टवान् पक्ववान् मुक्तवान् भग्नवान् रक्तवान् नृत्तवान् गदितवान् क्लिन्नवान् मत्तवान् खातवान् जातवान् मतवान् जग्धवान् क्षुण्णवान् खिन्नवान् पीनवान् स्फीतवान् धौतवान् धावितवान् स्यूतवान् भ्रष्टवान् शुष्कवान् सोढवान् मुग्धवान्, मूढवान्।
पाठ- 36
किसी क्रिया की सिद्धि के लिए जब कोई दूसरी क्रिया की जाती
है तब इसे क्रियार्थक क्रिया कहते हैं। उत्तरक्रिया के बोधक धातुओं से तुमुन् (
तुम् ) और ण्वुल् ( वु = अक ) प्रत्यय होते हैं । जब किसी अन्य क्रिया के पास (उपपद)
में क्रियार्थक क्रिया हो तो समीपवर्ती धातु में तुमुन् प्रत्यय हो जाता है। इन दोनों
क्रियाओं का कर्ता एक व्यक्ति होता है।
को अथवा के लिए को प्रकट करने के लिए तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। तुमुन् में उन् हट जाता है एवं तुम् शेष रहता है । तुमुन् प्रत्ययान्त शब्दों का प्रयोग अव्यय की तरह होता है। अतः इसके रूप नहीं चलते हैं।
तुमुन् प्रत्यय का उदाहरण - भोक्तुं याति में दो क्रिया है । 1. भुज् 2.
या । यहाँ भोजन क्रिया के लिए गमन क्रिया हो रही है। अतः गमन क्रिया क्रियार्थक
क्रिया है। अतः याति इस क्रियार्थक क्रिया
के समीपवर्ती धातु भुज् से तुमुन् प्रत्यय होता है। तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय
भविष्यत् काल की विवक्षा में होती है, अर्थात् जिसे तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय किया
जा रहा है वह क्रिया अभी नहीं हुई है।
ण्वुल् प्रत्यय का उदाहरण - कृष्णं दर्शको याति ।
इच्छार्थक धातु उपपद में रहने पर ( उसके
कर्मरूप क्रियाबोधक ) धातुओं से, यदि दोनों का कर्ता एक ही व्यक्ति हो तो 'तुमुन्' होता है'। यथा - स
इच्छति भोक्तुम् ।
शक्, धृष् आदि धातुओं के योग में, पर्याप्त (समर्थ अर्थ) का वाचक शब्द तथा कालार्थक शब्द उपपद रहने पर धातुओं से 'तुमुन्' होता है । यथा कर्तुं शक्नोति, धृष्णोति आदि । गन्तुं समर्थः, शक्तः, प्रवीणः आदि । भोक्तुं कालः समागतः, समयः, वेला आदि ।
तुमुन् प्रत्ययान्त शब्द ।
भू-भवितुम् अद्-अत्तुम् । सु-सोतुम् ।
तुद्-तोत्तुम् । रूध्-रोद्धुम् । चुर्-चोरयितुम्।
बोधि-बोधयितुम् । चिकीर्ष-चिकीर्षितुम्
। पुत्रीय- पुत्रीयितुम् ।
चि-चेतुम् । जागृ-जागरितुम् । मृ-मर्तुम्।
क्षम्-क्षमितुम्, क्षन्तुम् । वस्-वस्तुम् । दह् - दग्धुम् ।
हन्- हन्तुम् । सिच्-सेक्तुम् । गुप्-गोपायितुम्, गोपितुम्, गोप्तुम् ।
दुह-दोग्धुम्
। मुह्, मोहितुम्, मोग्धुम् ।
तन्-तनितुम् । दिव्-देवितुम् । क्री-केतुम् । हु-होतुम् ।
इ-एतुम् । जीव-जीवितुम् । यज्-यष्टुम् ।
कृ + तुमुन् = कर्तुम् क्री + तुमुन् = क्रेतुम् गम् + तुमुन् = गन्तुम्
ज्ञा + तुमुन् = ज्ञातुम् दा + तुमुन् = दातुम् श्रु + तुमुन् = श्रोतुम्
दृश् + तुमुन् = द्रष्टुम् क्रीड् + तुमुन् = क्रीडितुम् पा + तुमुन् = पातुम्
खाद् + तुमुन् = खादितुम्
पाठ- 37
णमुल् प्रत्यय
(२) यहाँ पीत्वा पीत्वा में 'क्त्वा' प्रत्यय का प्रयोग करके उसका दो बार प्रयोग किया है तथा पायं पायं में णमुल् प्रत्यय का प्रयोग करके उसका दो बार प्रयोग किया है। क्त्वा प्रत्यय के विषय में हम पहले विस्तार से उल्लेख कर चुके हैं। अब हम यहाँ णमुल् प्रत्यय के विषय में लिखेंगे।
(३) णमुल् में केवल 'अम्' बचता है। शेष का लोप हो जाता है। इसीलिए धातु में इस प्रत्यय का प्रयोग करने पर इस प्रकार रूप बनाते हैं- √पा + णमुल् पायं पायम्, √भुज् + णमुल्= भोज भोजम्।
(४) इस प्रत्यय से युक्त शब्द अव्यय होते हैं। अतः इनके रूप नहीं चलते हैं। अकारान्त धातु से 'णमुल्' प्रत्यय का प्रयोग होने पर प्रत्यय से पूर्व और धातु के बाद 'य्' का आगम होने से धातु के बाद 'यम्' (य् + अम्) जोड़ते हैं। जैसे पायं पायम्। √दा + णमुल्दा + य् + अम्दायम्, दायम् । इसी प्रकार स्नायं स्नायं में भी समझना चाहिए।
(५) 'णमुल्' में 'ण' की इत् संज्ञा होने के कारण धातु के पूर्व स्वर को वृद्धि आदेश हो जाता है। जैसे- श्रु+ णमुल् श्रावे. √स्मृ + णमुल्स्मार स्मारम्।
कर्तृवाचक- ऐसे प्रत्यय जिनका प्रयोग करने पर धातु से कर्तापन का बोध होता हो, कर्तृवाचक कहलाते हैं। इनमें ण्वुल्, तृच्, त्यु, णिनि, अणु, अच् क, ट, खच्, क्विप् आदि प्रत्यय आते हैं।
णित् होने का फल
(1)यह है कि जिस धातु से णमुल् प्रत्यय होगा वहाँ यदि
इगन्ताङ्ग होगा तब अचो णिति 7.2.115 से इगन्ताङ्ग वृद्धि होगी।
(2) अत उपधायाः 7.2.116 से उपधा अकार को वृद्धि होगी।
(3) हनस्तोऽचिण्णलोः 7.3.32 से हन् को तकार आदेश होगा।
(4) आतो युक् चिण्कृतोः 7.3.33 से आकारान्त अङ्ग को
युक्-आगम होगा।
(5) नोदात्तोपदेशस्य. 7.3.34 से उदात्तोपदेश एवं मान्त ('चमि' को
छोड़कर) को उपधावृद्धि नहीं होगी।(6) जनिवध्योश्च 7.3.35 से जन् तथा वध् को
(7.2.116 से) उपधा-वृद्धि नहीं होती है।
मकारान्त कृत्
प्रत्यय बन जाने का फल
1. कृन्मेजन्तः
1.1.39 से कृदन्त मकारान्त की अव्यय संज्ञा तथा अव्ययादाप्सुपः 2.4.82 से सुप् का
लोप।
2. भुज् + णमुल् = भोजम् (पुगन्तलघू. 7.3.86 से उपधागुण) आभीक्ष्ण्य में धातु को द्वित्व होता है।
प्रयोग- भोजं भोजं व्रजति (खा खाकर
चलता है)
3. पा + णमुल् = पायम् (आतो युक्. 7.3.33 से युक्)
प्रयोग- पायं पायं व्रजति (पी पीकर चलता है)। ‘क्त्वा के पक्ष में, भुक्त्वा व्रजति, पीत्वा व्रजति।
णमुल् प्रत्यय के बारे में विशेष-
न यद्यनाकाक्षे 3.4.23
समानकर्तृक दो धातुओं में से
पूर्वकालिक धात्वर्थ में 'यत्' शब्द के उपपद होने पर
आभीक्ष्ण्ये णमुल् च 3.4.22 से होनेवाले णमुल् एवं क्त्वा
नहीं होते हैं, यदि अन्य वाक्य की आकाङ्क्षा न रखनेवाला
वाक्य हो।
प्रयोग- यद् अयं भुङ्क्ते ततः पठति 'यह बार-बार पहले खाता है, पीछे पढ़ता है'। यद् अयम् अधीते ततः शेते ‘यह पहले बारबार पढ़ता है
तब सोता है'। यहाँ प्रथम में भोजन अथवा द्वितीय में पठन
करनेवाला वाक्य अन्य किसी वाक्य की आकाङ्क्षा नहीं रखता है। अतः णमुल नहीं हुआ।
3. विभाषाऽग्रेप्रथमपूर्वेषु 3.4.24
अग्रे,
प्रथम एवं पूर्व उपपद हों तो समानकर्तृक पूर्वकालिक धातु से विकल्प
से क्त्वा एवं णमुल् होता है।
पाठ- 38
अन्य कृत प्रत्यय
'घञ्' प्रत्यय
"भावे" ( पा० सू० ) घञ् ( अ ) - भाव में धातुओं
से ' घञ्' प्रत्यय
होता है। कहीं कहीं कारकों के अर्थों में भी 'घञ्' होता है । घञ् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं । यथा पठनम्- पाठः ।
पचनम्-पाक: आदि ।
कारकों में - चित्तं दारयन्ति = विद्रावयन्तीति = दाराः । जरयति = नाशयति कुलमिति = जारः । लभ्यते इति लाभः । रज्यति अनेन इति रागः । उपेत्य अधीयते अस्मात् इति उपाध्यायः । आध्रियते अत्रेति आधारः ।
ष्यतृ-
अभी हमने शतृ और शानच्, जिन्हें सत् भी कहा जाता है तथा वर्तमान काल में प्रयोग किए
जाते हैं,
का उल्लेख किया था, उन्हें ही यदि लृट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन के अन्तिम 'ति' को हटाकर लगा दिया जाए तो `ष्यतृ' प्रत्ययान्त रूप बन जाते हैं। जैसे- √भू + तिप् (लृट् लकार, प्र. पु. ए.व.) = भविष्यति = भविष्य + अत् भविष्यत् ।
इसीलिए इसे 'ष्यत्' भी कहते हैं। इसके रूप भी शतृ प्रत्यय के समान ही पुल्लिंग में 'भवत्' की तरह चलते हैं। मूल प्रातिपादिक- पठिष्यत्,
करिष्यत्, गमिष्यत्, नेष्यत् आदि बनेगा। यह प्रत्यय भी परस्मैपदी धातुओं के साथ
प्रयोग किया जाता है।
ष्यमाण-
ष्यत् प्रत्यय के समान ही इसका प्रयोग भी होता है, किन्तु यह केवल आत्मनेपदी धातुओं के साथ किया जाता है। शेष सभी नियम ष्यत्' के समान ही होंगे, रूप बनेंगे ।
धातु ष्यतृ
√भू = होना भविष्यत् भविष्यन्
√गम् = जाना गमिष्यत् गमिष्यन्
√मृ= मरना मरिष्यत् मरिष्यन्
हन् = मारना हनिष्यत् हनिष्यन्
प्र + √आप् = प्राप्त करना प्राप्स्यत् प्राप्स्यन्
आ + √रुह् =चढ़ना आरोक्ष्यत् आरोक्ष्यन्
लभ् = प्राप्त करना लप्स्यमानः
धातु स्यमान ष्यतृ
√ज्ञा = जानना ज्ञास्यामानः ज्ञास्यन्
कृ - करना करिष्यमाणः करिष्पन्
√दा = देना दास्यमानः दास्यन्
√छिद् = काटना छेत्स्यमानः छेत्स्यन् =
√क्रीड्= खेलना क्रीडिष्यत् क्रीडिष्यन्
√नी =ले जाना नेष्यमाण: नेष्यन्
√ग्रह = पकड़ना ग्रहीष्यमाणः ग्रहीष्यन्
पूर्वकालिक क्रिया-
जब एक क्रिया के होने बाद दूसरी क्रिया
आरम्भ होती है, तब पहले सम्पन्न हुई क्रिया को पूर्वकालिक क्रिया कहते हैं। इस प्रकार के
वाक्यों में उस क्रिया के बाद 'करके' अथवा 'कर' पट का प्रयोग किया जाता है। जैसे- मैं पढ़कर जाता हूँ. अहं
पठित्वा गच्छामि। प्रस्तुत उदाहरण में 'पढ़ना' क्रिया जाना क्रिया से पूर्व होने तथा उसके साथ 'कर' (पढ़कर) पद का प्रयोग होने से पूर्वकालिक प्रत्यय 'क्त्वा' का प्रयोग इस अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए क्त्वा,
ल्यप् और णमुल् तीन प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। इन
प्रत्ययों से निर्मित पद अव्यय होते हैं, उनके रूप नहीं चलते। अब हम क्रमशः इनका उल्लेख करेंगे।
पाठ- 39
ल्यु-
(१) नन्दि, वाशि,
मदि, दूषि, साधि, वर्धि, शोभि तथा रोचि धातुओं के बाद कर्तृवाचक शब्द बनाने के लिए 'ल्यु' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। ल्यु में 'लशक्वतद्धिते' से ल् की इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है,
शेष बचता है जैसे- नन्द + ल्यु (अन) नन्दन वाश ल्यु (अन)
वाशन,
मद् ल्यु (अन) मदन दूषल्यु (अन) दूषणः,
√साधु + ल्यु (अन) साधन,
√ + ल्यु (अन) वर्धन,
शोभ् + ल्यु (अन) शोभन रोच्ल्यु (अन) रोचन:। जन + √अर्द + ल्यु- जनार्दन, √लू + ल्यु लवणः । (२) ल्यु प्रत्ययान्त शब्दों के रूप
पुल्लिंग,
प्रथमा विभक्ति एकवचन में राम के. समान चलते हैं तथा इनसे 'वाला' अर्थ की अभिव्यक्ति होती है-नन्दनः आनन्दित करने वाला।
विशेष- यह भावार्थक ल्युट् प्रत्यय से भिन्न है।
णिनि-
ग्रह आदि धातुओं से 'वाला' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए, गिनि प्रत्यय का प्रयोग होता है। णिनि के प्रारम्भ में
स्थित 'ण' की चुटू' से तथा अन्त में स्थित 'इ' की 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है,
शेष बचता है - 'इन्'। जैसे— √ग्रह् + इन् (णिनि) = ग्राहिन्। ण की इत् संज्ञा होने से
धातु के पूर्व स्वर को वृद्धि आदेश होता है। इसीलिए से √ग्रह् धातु के ग्र में स्थित स्वर 'अ' को वृद्धि आदेश 'आ' होकर बना ग्राह् + इन् • ग्राहिन् (गृहह्णाति, इति ग्राही) = इस प्रत्यय का प्रयोग करने पर नकारान्त
प्रातिपदिक बनता है तथा पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति एकवचन में ग्राही उत्साही,
स्थायी, मन्त्री, अयाची, अवादी, विषयी, अपराधी इत्यादि शब्द बनते हैं। णिनि प्रत्यय का प्रयोग करने
पर,
उत् + √सह् + णिनि उत्साहिन्, √स्था + H युक् + णिनि स्थायिन्, √मन्त्र + णिनि = मन्त्रिन्, नञ् + √याच् + णिनि = अयाचिन्, नञ् + √वद् + णिनि अवादिन्, विषय णिनि विषयिन्, अप + राध् + णिनि अपराधिन्, नकारान्त प्रातिपदिक का निर्माण होता है। =
अच्- पच्, वद्,
चल, पत्, जू. मॄ. क्षम्, सेव् वण्, सृ आदि धातुओं से कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'अच्' प्रत्यय का प्रयोग होता है। अच् के अन्त में प्रयुक्त च की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है,
शेष बचता है-- 'अ'। जो व्यञ्जनान्त धातु के अन्त में जुड़कर उस वर्ण को पूरा
कर देता है। जैसे- √पच् + अच् (अ) पचः। = अच् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग होते
हैं। जैसे- √वद् + अच् = वद्], √चल् + + अच् = चलः, √पत् + अच् = पतः, √जू + अच् = जरः, √सृ + अच् = मरः, √क्षम् + अच् = क्षमः, √सेव् + अच् = सेवः, √वण् + अच् व्रणः, √सृज् + अच् = सर्जः।
पाठ- 40
क प्रत्यय
(१) जिन धातुओं की उपधा (अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा) में इ. उ,
ऋ, ऌ, में से कोई भी स्वर प्रयुक्त हुआ हो,
उन धातुओं के बाद तथा √ज्ञा
(२) इसके अतिरिक्त आकारान्त धातु तथा ए, ऐ, ओ, औ स्वर वर्णों में समाप्त होने वाली वह धातु जो
आकारान्त हो जाती है, यदि उनसे पहले कोई उपसर्ग आया हो तो
कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'क' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं।' जैसे- प्र + √ज्ञा + क = प्रज्ञः (प्रकृष्टेन जानाति, इति) अभि + √ज्ञा + क = अभिज्ञः, वि + √ज्ञा
+ क = विज्ञः, सु + √ज्ञा + क = सुज्ञः।
(३)
धातु आकारान्त प्रयुक्त हो तथा उससे पूर्व कोई उपसर्ग भी न आया हो,
किन्तु यदि उससे पूर्व कोई कर्म पद प्रयुक्त हुआ हो तो कर्तृवाचक
अर्थ में 'क' प्रत्यय का प्रयोग करते
हैं। जैसे- गो छदा + क = गोदः (गां ददाति, इति) सुख + बृछदा
+ क = सुखदः, दुःख + छदा + क = -दुःखदः ।
(४)
कोई शब्द धातु से पहले रहने पर आकारान्त धातु से कर्तृवाचक अर्थ में क प्रत्यय का
प्रयोग होता है। जैसे- द्वि + √पा + क =
द्विपः, सम + √स्था + क = समस्थ,
विषम् + √स्था + क = - = विषमस्थः ।
(५) ग्रह धातु में 'गृह' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'क' प्रत्यय का प्रयोग होता है। जैसे— √ग्रह् + क = गृहम् (गृह्णाति धान्यादिकमिति)
अण्
यदि
धातु से पूर्व कर्मवाची पद प्रयुक्त हुआ हो तो आकारान्त धातुओं से भिन्न धातुओं
में कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'अण्'
प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। " `अण्'
में स्थित `ण्’ की `हलन्त्यम्' से 'इत्' संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा शेष बचता है (अ)। ण् की इत् संज्ञा होने
से धातु के आदिस्वर को वृद्धि होती है। आकारान्त धातु को 'क'
प्रत्यय होता है, जिसका उल्लेख किया जा चुका
है। जैसे- कुम्भ + √कृ + अण् = कुम्भकारः (कुम्भं करोतीति)
भार + √हृ + अण् भारहारः (भारं हरति इति) ।
(१)
√चर् धातु से पहले यदि अधिकरणवाची पद का प्रयोग हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ
की अभिव्यक्ति के लिए 'ट' प्रत्यय का
प्रयोग करते हैं। 'ट' में स्थित 'ट्' की 'चुटू' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'अ'। जैसे- कुरुषु चरतीति १८. ट - कुरुचर: = कुरु √चर् + ट (अ)। (२) इसके अतिरिक्त यदि 'चर्' धातु से पहले भिक्षा, सेना और आदाय शब्दों में से
किसी भी शब्द का प्रयोग हुआ हो तो भी उक्त अर्थ में 'ट'
प्रत्यय का प्रयोग होगा। जैसे- भिक्षा + √चर्
+ ट (अ) = भिक्षाचर:। सेना + √चर् + ट (अ) = सेनाचरः । आदाय
+ √चर् + ट (अ) = आदायचरः।
(३)
यदि √सृ धातु के पहले पुरः, अग्र, अग्रतः
अथवा अग्रे पदों का प्रयोग हुआ हो तो उक्त अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'ट' प्रत्यय का प्रयोग करते है- जैसे- पुरः + √सृ + ट = पुरस्सरः । अग्र + √सृ + ट = अग्रसरः ।
अग्रतः + √सृ + ट = अग्रतस्सरः । अग्रे + √सृ + ट = अग्रेसरः।
(४)
यदि √कृ धातु से पहले दिवा, विभा, निशा,
प्रभा, भास्कर, किं. बहु,
लिपि, चित्र, क्षेत्र,
लिबि, बलि, भक्ति,
कर्तृ, संख्यावाचक शब्द, जड्या, बाहु, अहः, यत्, तत्, धनुष्, अरुष आदि शब्द कर्म रूप में प्रयुक्त हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति
के लिये 'ट' प्रत्यय का प्रयोग होता है,
अण् नहीं। यह नियम वस्तुतः 'अण्' का अपवाद है। जैसे- दिवा + √कृ + ट = दिवाकर,
विभा + √कृ + ट= विभाकर, निशा + √कृ + ट= निशाकर, बहु +
√कृ + ट= बहुकरः, एक + √कृ + ट= एककर धनुष + कृ. + ट= धनुष्करः, अरुष् + √कृ + ट= अरुष्करः। यत् + √कृ + ट यत्कर, तत् + √कृ + ट= तत्करः ।
(५)
इसी प्रकार √कृ धातु से पहले कर्म का योग
होने तथा 'हेतु', आदत, अथवा अनुकूलता अर्थ की अभिव्यक्ति कराने के लिए अण् का प्रयोग न करके 'ट' प्रत्यय का ही प्रयोग करते हैं। यह नियम भी अणु
का अपवाद है। जैसे- यशस् + √कृ + ट + डीप्= यशस्करी (विद्या)
यशस्करोतीति। श्राद्धं करोतीति (श्राद्ध करने की आदत वाला) श्राद्ध + √कृ + ट= श्राद्धकरः। वचनं करोतीति (वचनों के अनुकूल कार्य करने वाला) वचन
+ √कृ + ट = वचनकरः।
पाठ- 41
खच्
(१)
यदि प्रिय अथवा वश शब्दों का √वद् धातु से
पहले कर्म के रूप में प्रयोग हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'खच्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। खच् के प्रारम्भ
में स्थित 'ख्' की 'लशक्वतद्धिते' से तथा अन्तिम च की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है,
शेष बचता है- 'अ'। जैसे-
प्रिय + मुक् (म्) आगम + √वद् + खच् (अ) = प्रियंवदः (प्रियं
वदतीति)। वश + मुक् (म्) आगम + √वद् + खच् (अ) = वशंवदः।
(२)
यदि भृ, तृ, वृ, जि, धृ, सह, तप्, दम् और गम् धातुओं से
पहले कोई संज्ञा शब्द कर्म के रूप में प्रयुक्त हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ की
अभिव्यक्ति के लिए खच् (अ) प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे-
विश्वं बिभर्ति, इति विश्वम् + √भृ + खच् (अ) + टाप् = विश्वम्भरा ।
पतिं
वरतीति,
पतिम् + √वृ + खच् (अ) + टाप् पतिंवरा ।
रथं
तरतीति,
इति रथम् + √तृ + खच् (अ) =रथन्तरम् (साम का
नाम) ।
युगं
धरति,
इति युगम् + √धृ + खच् (अ) - युगन्धरः ।
अरिं
दमयति,
इति अरिम् + √दम् + खच् (अ) ।
शत्रुं
जयति इति शत्रुम्+जि + खच् (अ) = शत्रुञ्जयः ।
शत्रुम्
सहते इति शत्रुम् + √सह् + खच् (अ) शत्रुंसहः
।
(३)
यदि √कृ धातु से पहले क्षेम, प्रिय और मद्र शब्दों का
प्रयोग कर्म के रूप में हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए खच् और अण्
दोनों प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। जैसे- क्षेमम् + √कृ
+ खच् (अ) = क्षेमङ्करः । प्रियम् + √कृ + खच् (अ)
=प्रियङ्करः । मद्रम् + √कृ + खच् (अ) = मद्रङ्करः । अण्
प्रत्यय होने पर क्रमशः क्षेमकार, प्रियकार: और मद्रकारः रूप
बनेंगे।
विशेष
–
किन्तु जब 'क्षेम' पद
में कर्म की विवक्षा नहीं होगी तब 'अच्' प्रत्यय होकर क्षेमस्य करः, इति, क्षेम + √कृ + अच् = क्षेमकरः बनेगा।
क्विप्
(१)
–
यदि √सद् (बैठना), √सू
(उत्पन्न करना), द्विष् (शत्रुता करना), √द्रुह (द्रोह करना), √दुह (दुहना), √युज् (जोड़ना), √विद् (जानना) √भिद् (भेदना), √छिद् (काटना), √जि (जीतना), √नी (ले जाना) और राज् (सुशोभित होना)
धातुओं से पहले उपसर्ग आए अथवा न आए, दोनों ही स्थितियों में
कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'क्विप्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। इस • प्रत्यय का कुछ भी
शेष नहीं बचता है, सब कुछ लोप हो जाता है। द्यु + √सद् + क्विप् = घुसत्, प्र + √सू
+ क्विप् = प्रसूः, √द्विष् + क्विप् = द्विट्, मित्र + √द्रुह् + क्लिप् = मित्रधुक्, गो + √दुह् + क्विप् = गोधुक्, अश्व + √युज् + क्विप् = अश्वयुक्, वेद + √विद् + क्विप् = वेदवित्, गोत्र + √भिद् + क्विप् + = गोत्रभित्, पक्ष + √छिद् + क्विप् = पक्षच्छित्, इन्द्र + √जि + क्विप् = इन्द्रजित्, = सम् + √राज् + क्विप् = सम्राट्।
(२) √कृ धातु से पहले सु, कर्म,
पाप, मन्त्र तथा पुण्य शब्दों का प्रयोग कर्म
के रूप में होने पर भी क्विप् प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे सु + √कृ + क्विप् = सुकृत्, कर्म + √कृ + क्विप् = कर्मकृत्, पाप + √कृ + क्विप् = पापकृत्, मन्त्र + √कृ + क्विप् = मन्त्रकृत्, पुण्य + √कृ + क्विप् = पुण्यकृत् ।
(३) √हन् धातु से पहले बह्म, भ्रूण तथा वृत्र शब्दों के कर्म रूप में प्रयुक्त होने पर कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए क्विप् प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे- ब्रह्म + √हन् + क्विप् = ब्रह्महा, भ्रूण + √हन् + क्विप् = भ्रूणहा, वृत्र + √हन् - क्विप् = वृत्रहा।
पाठ- 42
भावार्थक प्रत्यय
धातु के अर्थ की सिद्धि होने पर भाव कहा जाता है तथा भाव की अभिव्यक्ति के लिए जिन प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें भावार्थक प्रत्यय कहते हैं। इनमें घञ्, ल्युट्, क्तिन्, अच्, अप्, नङ् और युच् प्रमुख प्रत्यय हैं ।
घञ्
धातु
के अर्थ को बताने के लिए तथा कर्ता को छोड़कर अन्य कारक के अर्थ की अभिव्यक्ति के
लिए 'घञ्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं।
(१) घञ् में 'घ' और 'ञ्' की क्रमशः 'लशक्वतद्धिते' तथा 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'अ' 'ञ्' इत् होने के कारण धातु की उपधा के अ को आ, इ को ए, उ को ओ तथा ऋ को अर् गुण आदेश हो जाता है तथा धातु के अन्तिम इ ई उ ऊ और ऋ ॠ को वृद्धि आदेश (ऐ, औ और आर) हो जाते हैं। घञ् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग होते हैं। घ् इत् होने के कारण धातु के च् को कृ तथा ज् को ग् आदेश हो जाता है। जैसे- चि + घञ् = काय, नि+घञ् = नायः प्र + √स्तु + घञ् = प्रस्तावः √भू + घञ् = भाव, √पठ् + घञ् = पाठः, √लिख्+ पञ्लेख √रध् + घञ् रोधः, वि + √रुध् + घञ् = विरोध, अव + √तृ + घञ् = अवतारः, उप + √कृ घञ् = उपकार, वि + √कृ + घञ् = विकारः प्र + √कृ + घञ् = प्रकार, √पच् + घञ् = पाकः, √त्यज् + घञ् = त्यागः, √शुच् + घञ् = शोक, √भुज् + घञ् = भोगः, √युज् + घञ् = योगः, √रुज् + घञ् = रोगः, √भज् + घञ् = भागः, सिच् + घञ् = सेकः । = +
ल्युट्
धातुओं में नपुंसकलिङ्ग की भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए 'क्त' और 'ल्युट्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। ल्युट् के प्रारम्भ में स्थित 'ल्' की 'लशक्वतद्धिते' से तथा अन्तिम 'ट' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा अवशिष्ट 'यु' को 'युवोरनाको' सूत्र से 'अन' आदेश होता है। यहाँ ध्यान रहे 'न' हलन्त नहीं होता। जैसे- √पठ् + ल्युट् (अन) = पठनम्, √हस् + ल्युट् (अन) = हसनम्, गम् ल्युट् (अन) + = गमनम्, √क्रीड् + ल्युट् (अन) = क्रीडनम्, √चल् + ल्युट्(अन) = चलनम्, √धाव् + ल्युट् (अन) = धावनम्, √वद् + ल्युट् (अन) वदनम्, √लिख्+ल्युट् (अन) = लेखनम्, √कृ + ल्युट् (अन) = करणम्, √दृश् + ल्युट् (अन) ल्युट् (अन) दर्शनम्।
पाठ- 43
क्तिन्
स्त्रीलिङ्ग भाववाचक शब्द बनाने के लिए धातुओं में 'क्तिन' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। 'क्तिन्' में 'क्' और 'न्' की क्रमश: 'लशक्वतद्धिते' तथा हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'ति'। क्तिन् प्रत्ययान्त शब्दों के रूप 'मति' के समान चलते हैं। जैसे- √कृ + क्तिन् = कृतिः, √धृ + क्तिन् = धृतिः, √चि + क्तिन् = चितिः, √स्तु + क्तिन् = स्तुतिः, √गा + क्तिन् गीतिः, √वच् + क्तिन् = उक्तिः, √ हृ क्तिन् - हृतिः, √प्री + क्तिन् प्रीतिः, √ख्या + क्तिन् ख्यातिः, √सुप् + क्तिन् सुप्तिः।
अच्
ह्रस्व इ तथा
दीर्घ ईकारान्त धातुओं से भाववाचक शब्द बनाने के लिए 'अच्'
प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। 'अच्' में च्' की 'हलन्त्यम्'
से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता
है 'अ'। भाववाचक 'अच्' प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग और नपुंकलिङ्ग दोनों
होते हैं, जैसे- जि + अच् जयः (पुल्लिंग), √नी + अच्नयः (पुल्लिंग), √भी + अच् = भयम्
(नपुंसकलिङ्ग)
अप्
(१)
ऋकारान्त और उकारान्त धातुओं में भाववाचक शब्द बनाने के लिए 'अप्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। अप् के
अन्तिम् 'प्' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है,
शेष 'अ' बचता है। अप्
प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग होते हैं। जैसे + अप् करः (बिखेरना), √कृ+ यु [ + अप्= यवः (जोड़ना), √स्तु + अप्स्तवः
(स्तुति) √भू + अप्= भवः (होना) √गृ+
अप्= गरः (विष) √लू + अप्लवः (काटना) √पू
+ अप् = पवः (पवित्र करना) (२) √ग्रह, √वृ, √दृ, निस् + √चि, √गम्, √वश् और चरण धातुओं
में भी भावार्थक शब्द बनाने के लिए 'अप्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं जैसे- √ग्रह + अप् =
ग्रहः, √वृ + अप् = वरः, √दृ + अप् =
दरः निस् + √चि + अप् = निश्चयः, √गम्
+ + अप् गमः, √वश् + अप्वशः, √रण् +
अप्रणः ।
पाठ- 44
नङ्
यज्,
याच्, यत्, विच्छ्
(चमकना), प्रच्छ और रस् धातुओं में भाववाचक शब्द बनाने के
लिए 'नङ्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं।
'न' के 'ङ'
की 'हलन्त्यम्' से इत्
संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष 'न'
बचता है। जैसे √यज् + नङ् = यज्ञः, √याच् + नङ् = याच्या, √यत् + नङ् = यत्नः, विच्छ् + नङ् = विश्नः, √प्रच्छ् + नङ् = प्रश्नः,
√रव् + नङ् = रक्षणः।
युच्
प्रेरणार्थक धातुओं में एवं आस्, श्रन्थ्, घट्ट, वन्द्, विद् धातुओं से भावार्थक शब्द बनाने के लिए 'युच्' प्रत्यय का प्रयोग होता है। इस प्रत्यय से युक्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। युच्' के अन्तिम च् की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा 'युवोरनाकौ' से शेष 'यु' को 'अन' आदेश हो जाता है। जैसे- √कृ + णिच् + युच् + टाप् कारणा, √हृ + णिच् + युच् + टाप् हारणा, आस् +युच् + टाप् आसना, √वन्द् + युच् + टाप् वन्दना, विद्+ = युच् + टाप् वेदना ।
(ए) शील-धर्म-साधुकारिता वाचक- किसी भी धातु के बाद शील, धर्म तथा भलीप्रकार सम्पादन करना इन तीनों में से किसी भी एक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए षाकन्, इष्णुच् तथा आलुच् प्रत्ययों का प्रयोग करते हैं।
षाकन्
जल्म्, भिक्षु, √कुछ (अलग करना,
काटना) √लुण्ट् (लूटना) तथा √वृ (वरण करना) धातुओं में शील, धर्म तथा साधुकारिता
अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'चाकन्' प्रत्यय
का प्रयोग करते हैं। 'षाकन्' के
प्रारम्भ में स्थित प्' की 'षःप्रत्ययस्य'
सूत्र से तथा अन्तिम 'न्' की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष
बचता है 'आक' । जैसे जिल्प् + षाकन्
(आक) = जल्पाकः, (बहुत बोलने वाला), √भिक्षु
+ षाकन् (आक) = भिक्षाकः (भिक्षा मांगने वाला) √कुछ + षाकन्
(आक) = कुट्टाक, लुण्ट् +षाकन् (आक) = लुण्टाक, √वृ + चाकन् (आक) = वराक: (बेचारा)।
पाठ- 45
इष्णुच्
अलं + √कृ, निर् + आ + √कृ, प्र + √जन्, उत् + √पच्, उत् √पत्, उत् + √मद्, रुच्, अप + √त्रप्, √वृत्, वृध्, √सह और √चर् धातुओं के पश्चात् 'शील', 'धर्म' और 'भलीप्रकार' सम्पादन अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'इष्णुच्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। इष्णुच् के अन्तिम 'च' की 'हलन्त्यम्' से 'इत्' संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'इष्णु'। जैसे अलम् + √कृ + इष्णुच् = अलङ्करिष्णुः, निर् + + √कृ + इष्णुच् निराकरिष्णुः (अपमान करने वाला), प्र + √जन् + इष्णुच् = प्रजनिष्णु: उत् + √पच् + इष्णुच् = उत्पचिष्णुः, उत् + √पत् + इष्णुच् = उत्पतिष्णुः, उत् + √मद् + इष्णुच् = उन्मदिष्णुः √रुच् + इष्णुच् रोचिष्णुः अप + √त्रप् + इष्णुच् = अपत्रपिष्णुः, √वृत् + इष्णुच् = वर्तिष्णु वृध् + इष्णुच् = वर्धिष्णुः √सह इष्णुच् = सहिष्णु, √चर् + इष्णुच्चरिष्णु: (भ्रमणशील) ।
आलुच्
√स्पृह, गृह, √पत्, दय्, √शी (सोना) धातुओं के बाद एवं निद्रा, तन्द्रा, श्रद्धा शब्दों के बाद उक्त अर्थों की
अभिव्यक्ति के लिए 'आलुच्' प्रत्यय का
प्रयोग करते हैं। 'आलुच्' के अन्तिम च्'
की 'हलन्त्यम्' से इत्
संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'आलु'। जैसे- स्पृहयालु, दयालु,
गृहयालु, पतयालुः, शयालु,
निद्रालुः, तन्द्रालु, श्रद्धातुः
आदि ।
सम्मानीय, आपके ब्लॉग से मुझे संस्कृत के किसी भी टॉपिक को समझने में बहुत मदद मिली. प्रिंट की सुविधा होती तो सरल हो जाता. पर इतने के लिए भी साधुवाद.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
यहाँ सामग्री में निरन्तर परिवर्तन होता है। अभी सभी पाठ लिखा नहीं जा सका। आपसे अनुरोध है कि आप ऑनलाइन पढ़ते रहें। जब सभी पाठ पूर्ण हो जायेंगें उसके बाद इसका पीडीएफ डाउनलोड मीनू बटन में दे दिया जाएगा।
हटाएंमहोदय बहुत ही अच्छी जानकारी दी है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंअति उत्तम आपका ह्रदय पूवॅक धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपको शत् शत् प्रणाम
मुझे णिच् के वर्तमान काल के प्रत्यय मिल सकते है करता?
जवाब देंहटाएंणिच् प्रत्यय का प्रयोग दो अर्थों में होता है। स्वार्थ में तथा प्रेरणा देने के अर्थ में। मैंने संस्कृत शिक्षण पाठशाला 2 https://sanskritbhasi.blogspot.com/p/2.html में चुरादि गण में होने वाले णिच् प्रत्यय के बारे में चर्चा की है। उसका उदाहरण- चोरयति, क्षालयति, प्रेषयति, कथयति आदि है। इस णिच् प्रत्यय का वही अर्थ है, जो धातु का होता है। अर्थात् यह स्वार्थ में णिच् प्रत्यय किया गया है। इस णिच् का धातु से अलग कोई भी अर्थ नही है।
हटाएंदूरसा णिच् प्रेरणार्थक है। जब कर्ता किसी क्रिया को करने के लिए अन्य को प्रेरित करता है तब उस क्रिया को प्रेरणार्थक क्रिया कहते है। प्रेरणार्थक क्रिया का उदाहरण – रामः अध्यापेन बालकं पाठयति। यहाँ राम बालक को पढ़ाने के लिए अध्यापक को प्रेरित कर रहा है। याद ऱखें- प्रेरणार्थक वाक्यों में दो कर्ता होते हैं। एक प्रेरणा देने वाला (प्रयोजक), दूसरा क्रिया करने वाला (प्रयोज्य) । जब सकर्मक क्रिया होती है तब प्रयोज्य में तृतीया विभक्ति होती है और प्रयोजक में प्रथमा विभक्ति जैसे - रामः अध्यापेन बालकं पाठयति । यहाँ राम प्रेरित कर रहा है अतः यह प्रयोजक है। इसमें प्रथमा विभक्ति हुई तथा जिसे काम करने के लिए प्रेरणा दी जा रही हो वह प्रयोज्य होता है। इसमें तृतीया विभक्ति होती है। इसके लिए पाणिनि का एक सूत्र है- तत्प्रयोजको हेतुश्च - प्रेरणार्थक में धातु के आगे णिच् प्रत्यय का प्रयोग होता है। अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर जायें-
https://sanskritbhasi.blogspot.com/2018/09/blog-post_26.html
गम् - गमयति । दम् - दमयति । नम् - नमयति । व्यथ् – व्यथयति
व्यथ् - व्यथयति । त्वर् - त्वरयति । रम् - रमयति । शम् - शमयति । घट - घटयति
कृपया उक्त्वा या उक्तवान्.... की प्रक्रिया बता दें... कैसे यह सिद्ध होगा।
हटाएंअभी आज ही कृदन्त का पाठ पढ़ना प्रारम्भ किया है। मेरी आयु ७० वर्ष है। सेवा निवृत्ति के पिछले दश वर्षों से लगातार पढ़ रहा हूँ। आपके ब्लॉग से बहुत सहयोग मिल रहा है। पाठ पूरा करने पर पुनः टिप्पणी करूँगा। आप संस्कृत भाषा की जो सेवा कर रहे हैं, वह अप्रतिम है। एतदर्थ साधुवाद।
जवाब देंहटाएंमहोदय कृपया यह बताने का कष्ट करें कि पूर्व कृदंत और उत्तर कृदंत प्रकरण रचने की आवश्यकता क्यों पड़ी या इन में मूल अंतर क्या है
जवाब देंहटाएंVery good work
जवाब देंहटाएंशक् + णिनि क्या शाकिन् होगा?
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