काश्मीर शैव दर्शन में गुरु शिष्य परम्परा और उनका कृतित्व

मैं अपने इस ब्लॉग पर काश्मीर शैव दर्शन के बारे में लिखते रहा हूं। इसका एक साथ संक्षिप्त परिचय इस लेख में उपस्थापित है।
काश्मीर शैव दर्शन के गुरु शिष्य परंपरा के बारे में सोमानन्द कृत शिवदृष्टि से बहुत अधिक जानकारी मिल जाती है। इस ग्रंथ में उन्होंने एक ऐतिहासिक घटना की जानकारी दी है । इस जानकारी के आश्चर्य होता है कि कैसे कैलास की वादियों से चलकर यह विद्या काश्मीर में पल्लवित और पुष्पित हुई। कलयुग के आने पर शैव दर्शन के ज्ञाता ऋषि और महात्मा अदृश्य स्थान में चले गए, जिससे शैव दर्शन की परंपरा नष्ट हो गयी। योग्य अधिकारियों को शैवागम की दीक्षा और शक्तिपात का लाभ नहीं मिल पा रहा था।  तब कैलाश वासी श्रीकंठ नाथ शिव ने महामुनि दुर्वासा को इस शास्त्र की परंपरा को पुनः संचालित करने का आदेश दिया। इसके अनुसार महामुनि दुर्वासा ने त्र्यंबकादित्य नामक मानस पुत्र की सृष्टि करके तीव्र शक्तिपात के द्वारा उसे इस शास्त्र के ज्ञान और विज्ञान से संपन्न कर दिया और शैव दर्शन के प्रचार का काम उन्हीं को सौंप दिया। वह त्र्यम्बकादित्य भी कुछ समय तक योग्य साधकों को इस शास्त्र की दीक्षा देते रहे और अंततोगत्वा परिपूर्ण योग सिद्धि को पाकर नए मानस पुत्र को उसी तरह से ज्ञान और विज्ञान से संपन्न बनाकर इस शास्त्र के प्रचार के काम को उन्हें सौंप कर स्वयं ऊर्ध्व लोग चले गए। वे अभिनव गुरु भी त्र्यंबकादित्य कहलाए । उन्हें द्वितीय त्र्यंबक कहा जाता है। इसी प्रकार इस सिद्ध परंपरा की 14 पीढ़ियों व्यतीत हो गई। 15 पीढ़ी के त्र्यंबकादित्य एक बार कहीं लोक संपर्क में आने पर बहिर्मुखी हो गए। उनकी दृष्टि एक सुंदर और सुयोग्य ब्राहमणी पर पड़ी। उनके पिता से प्रार्थना करके उन्होंने उसके साथ ब्राह्मणोचित विधि से विवाह किया । उस वैवाहिक संगम से उनका जो पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम संगमादित्य रखा गया। इस संगम से ही इस प्राचीन पराद्वैत शैव दर्शन के गृहस्थ गुरुओं की परंपरा चल पड़ी। वह संगमादित्य घूमते- घूमते काश्मीर आकर इस देश में बस गए। इस तरह से अद्भुत संयोग से मठिका कैलाश पर्वत के प्रदेश से उखड़ कर कश्मीर की उर्वरा भूमि में आ गई। संगमादित्य की वंश परंपरा में क्रम से वर्षादित्य, अरुणादित्य, आनंद और सोमानंद इस त्र्यम्बक मठिका के अधिपति पद को विभूषित करते गए । इस मठिका के अगले अधिपति आचार्य उत्पलदेव, लक्ष्मण गुप्त और अभिनव गुप्त श्रीनगर में रहते रहे परंतु बालबोधिनी न्यास के रचयिता शितिकंठ सोमादित्य को अपना पूर्वज बताते हैं और अपना निवास स्थान पद्मपुर (पम्पोर) के पास सिंहपुर (साम्पोर) बताते हैं। यदि यह बात प्रमाणित है तो सोमानंद का निवास स्थान सिंहपुर था।
काश्मीर शैव दर्शन दर्शन के साहित्य को तीन भागों में बांटा गया है। आगम शास्त्र, स्पन्द शास्त्र और प्रत्यभिज्ञा शास्त्र।
आगम शास्त्र
आगम शास्त्र के आदि वक्ता, आचार्य, शिव माने गए हैं। इन्होंने ऋषियों को ज्ञान प्रदान किया। ऋषियों ने गुरु शिष्य परम्परा के द्वारा संपूर्ण जगत में आगम शास्त्र का प्रसार किया। इस संप्रदाय के ग्रंथों में मालिनी विजयोत्तर तंत्र, स्वच्छंद तंत्र, विज्ञान भैरव, नेत्र तंत्र, स्वायम्भुव तन्त्र, रुद्रयामल तन्त्र नैश्वास तन्त्र, आनन्द भैरव और उच्छुष्म भैरव, शिवसूत्र मुख्य माने जाते हैं। मातङ्ग तंत्र और मृगेन्द्र तन्त्र को भी मुख्य आगमों के अंतर्गत माना गया है । शिव सूत्र पर वृत्ति, भास्कर और वर्धराज के वार्तिक और क्षेमराज की विमर्शिनी व्याख्याएँ मिलती है । मालिनी विजयोत्तर, स्वच्छन्द तंत्र और विज्ञान भैरव पर भी व्याख्यान प्राप्त होता है।
मालिनी विजयोत्तर तंत्र का शैव तांत्रिक संप्रदायों में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इनके 2 नाम प्रसिद्ध है। पूर्वमालिनी और उत्तरमालिनी । संस्कृत की वर्णमाला में शुद्ध वैज्ञानिक उदयक्रम का नाम पूर्वमालिनी है । जब वर्णों के स्वाभाविक और वैज्ञानिक उद्भव क्रम को अस्त-व्यस्त रूप में लिया जाता है तब उसे उत्तरमालिनी कहा जाता है । परम तत्व के जिज्ञासु नारद आदि ऋषियों को भगवान स्कन्द ने इसे शिव के मुख से तंत्र का उपदेश दिया था। इसमें आगम के महत्वपूर्ण अंग योग और उससे संबंधित क्रियाओं का प्रतिपादन है । वर्तमान रूप में उत्ब्धतरमालिनी विजयोत्तर तंत्र, सिद्धियोगीश्वरीतन्त्र का उत्तर भाग प्रतीत होता है।
विज्ञानभैरव का आरम्भ देवी और भैरव के संवाद से हुआ है । इस तंत्र में काश्मीर शैवागम के ज्ञान और योग पक्षों का विवेचन है । इसमें  162 छन्द हैं । इस तंत्र पर क्षेमराज और शिवोपाध्याय की विवृति तथा भट्ट आनंद की विज्ञान कौमुदी नामक टीका है।
स्वच्छंद तंत्र को भैरव तंत्रों (अद्वैत तन्त्रों) में प्रधान कहा गया है । इसका वर्ण्य विषय उपासना और क्रिया (कर्मकांड) है । अन्य तन्त्रों की भांति इस का उद्भव भी देवी और भैरव के बीच हुए दार्शनिक संवाद से हुआ है । इस तंत्र पर आचार्य क्षेमराज की उद्योत नाम की टीका है । इस तंत्र में अनेक पौराणिक आख्यानों का उल्लेख है । उनके वर्णन में भी पौराणिक वर्णन पद्धति ग्रहण की गई है।
नेत्र तंत्र कश्मीर शैवागम के साधना पक्ष की व्याख्या से संबंधित है । क्षेमराज के अनुसार स्वच्छंद तंत्र की तरह यह तंत्र भी पहले द्वैत व्याख्या परक था। यह तंत्र अद्वैत सन्त्रों के साथ और द्वैताद्वैत और द्वैत तन्त्रों को भी सिद्धि देने वाला बताया गया है । साधक को मुक्ति तक ले जाने और महान भय से उसका त्राण करने के कारण यह तंत्र नेत्र तन्त्र नाम से जाना जाता है । स्वयम्भुव तंत्र और रुद्रयामल तंत्र के संबंध में प्रमाण के अभाव के कारण कोई समुचित जानकारी नहीं है।
शिवसूत्र के स्रष्टा स्वयं भगवान शिव माने जाते हैं । वसुगुप्त के शिष्य भट्ट कल्लट ने अपने ग्रन्थ स्पन्द सर्वस्व में उल्लेख किया है कि स्वयं भगवान शिव से स्वप्न में वसुगुप्त को शिव सूत्रों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। स्पन्द विवृतिकार राजानक रामकण्ठ, स्पन्द प्रदीपिकाकार उत्पल वैष्णव और शिवसूत्र वार्तिककार भास्कर शिव सूत्र स्वयं भगवान शिव कृत अवश्य है किंतु वसुगुप्त को शिव सूत्र का ज्ञान एक सिद्ध से प्राप्त हुआ था।
स्पन्दशास्त्र
स्पन्द शास्त्र  काश्मीर शैव दर्शन के साधना पक्ष से संबंधित है। स्पन्दकारिका स्पन्दशास्त्र का मूलभूत ग्रन्थ है । इसका दूसरा नाम स्पन्द सूत्र भी है। स्पन्दकारिका के रचयिता के संबंध में दार्शनिकों में मतभेद है। उत्पल वैष्णव और भास्कराचार्य भट्टकल्लट को स्पन्दकारिका का कर्ता मानते हैं। शिवराज के स्पन्दनिर्णय में प्राप्त कारिका के अनुसार स्पन्दकारिका  को वसुगुप्त कृत माना जाता है। दार्शनिकों का मत है कि स्पन्दकारिका के रचयिता वसुगुप्त ही है।
स्पन्दकारिका पर भट्टकल्ल्ट की स्पन्दसर्वस्ववृत्ति, रामकण्ठ की स्पन्दविवृति, उत्पलवैष्णव की स्पन्दप्कदीपिका और क्षेमराज की स्पन्दसमदोह तथा स्पन्दनिर्णय आदि टीकायें हैं। स्पन्दसमदोह में केवल प्रथम कारिका पर टीका है।
वसुगुप्त ने अपने संबंध में कुछ नहीं लिखा उसके बारे में भट्टकल्लट ने जो कुछ लिखा है उस से ज्ञात होता है कि वह भट्टकल्लट गुरु थे अतः भट्टकल्लट काल से ही वसुगुप्त का काल निर्णय होता है। अनुमान किया जाता है कि बसुगुप्त 825 ईसवी और 850 ईसवी के मध्य किसी समय हुए होंगे । बसुगुप्त भी अभिनव गुप्त के पूर्व पुरुषों में से थे अथवा उनके सजातीय ब्राह्मण परिवार से संबंध था।
भट्ट कल्लट वसुगुप्त के शिष्य और रामकण्ठ उत्पलदेव के शिष्य माने जाते हैं । राजतरंगिणी के अनुसार भट्ट कल्लट और रामकण्ठ समकालीन सिद्ध है । इनका समय 950 से 975 ईसवी के बीच माना है, जिस पर मतभेद है। रामकण्ठ के अनुसार कल्लट की वृत्ति को समझने के लिए ही उसने अपनी विवृति की रचना की थी। रामकण्ठ की व्याख्या से पूर्व कल्लट की व्याख्या का स्पष्ट विवेचन विवृति में मिलता है ।
उत्पलवैष्णव त्रिविक्रम का पुत्र था तथा नारायण स्थान में उत्पन्न हुआ था । उत्पल वैष्णव ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकार आचार्य उत्पल देव का अपनी स्पन्दविवृति में उल्लेख किया है । उत्पल वैष्णव का समय प्रत्यभिज्ञासूत्रकार उत्पलदेव और शिवसूत्रवार्तिककार भास्कराचार्य के पश्चात् और अभिनव गुप्त के पूर्व किसी समय हुआ होगा। स्पन्दप्रदीपिका में उत्पल वैष्णव का एक और ग्रन्थ भोगमोक्ष प्रदीपिका का भी उल्लेख मिलता है ।
क्षेमराज अभिनव गुप्त के शिष्य थे । अभिनव गुप्त की ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृत्तिविमर्शनी की रचना  1014 ईस्वी में हुई थी, अतः क्षेमराज का साहित्य रचना का लगभग 1025 ईसवी से लेकर 1050 ईसवी के बीच माना जा सकता है ।
प्रत्यभिज्ञा शास्त्र
 यह काश्मीर शैव दर्शन का शैव सिद्धांत है। इसने ही सबसे पहले शैवमत का दार्शनिक शैली से विवेचन किया था । इसमें तर्क, वाद प्रतिवाद का प्रयोग किया गया है। स्पन्द शास्त्र और प्रत्यभिज्ञा शास्त्र के सिद्धांतों में तत्वतः कोई भेद नहीं है और कोई विरोध भी नहीं है ।
इस शास्त्र का मूल ग्रन्थ सोमानन्द की शिवदृष्टि है, जिसमें दार्शनिक सिद्धांतों की स्थापना की गई थी। उन्हीं की विस्तृत व्याख्या  प्रत्यभिज्ञा शास्त्र का मुख्य विषय है। सोमानन्द के शिष्य उत्पलदेव ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञा लिखी। इस पर उत्पलदेव द्वारा वृत्ति, अभिनव गुप्त द्वारा प्रत्यभिज्ञा विमर्शिनी और प्रत्यभिज्ञाविवृतिविमर्शिनी प्राप्त होती है । क्षेमराज ने प्रत्यभिज्ञाहृदयम् लिखा, जिसमें प्रत्यभिज्ञा शास्त्र का सार समाहित है । अभिनव गुप्त ने 12 खंडों में तन्त्रालोक और एक पृथक् ग्रन्थ तन्त्रलोकसारः लिखा।  इनमें शैव दर्शन के सभी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है ।
      सोमानन्द की शिवदृष्टि काश्मीर शैव दर्शन का प्रथम दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें शैव दर्शन के मूल सिद्धांतों तथा तत्वों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। उन्होंने मानव जीवन के बारे में पारमार्थिक और व्यावहारिक प्रयोजनों की प्राप्ति के उपाय बनी हुई अनेक साधनों का निरूपण किया है । इन्होंने तर्कों के आधार पर 13 प्रमुख दर्शन विद्याओं की समीक्षा की। 
उत्पलदेव सोमानन्द के शिष्य थे । डॉ. के. सी पांडे ने उत्पल को सोमानन्द का पुत्र बताया है, परंतु यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती, क्योंकि उत्पलदेव ने स्वयं को सोमानंद का शिष्य कह कर अपने पिता का नाम उदयाकर बताया है। उत्पल का काल 850 ईसवी के आसपास माना जाता है । इनके ग्रंथों में सबसे महत्वपूर्ण ईश्वरप्रत्यभिज्ञा है। इनकी लेखन शैली सुबोध है अतः इनकी कृति को काश्मीर शैव दर्शन का सबसे अधिक महत्व पूर्ण ग्रन्थ माना जाता है।इन्होंने सिद्धित्रयी में दर्शन शास्त्र के कुछ अवशिष्ट विषयों का निरूपण किया। यह ग्रन्थ तीन छोटे-छोटे ग्रन्थों का एक समुदाय है। इन्होंने मनोरम शिव स्तुतियों की भी रचना की, जो शिवस्तोत्र के नाम से ख्यात है। अभिनवगुप्त ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञा को सोमानंद के ज्ञान का प्रतिबिंब कहा है । इसके सूत्रों के द्वारा ही कश्मीर से बाहर काश्मीर शैव दर्शन प्रत्यभिज्ञा दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
आचार्य अभिनव गुप्त आचार्य उत्पल देव के शिष्य थे, इस बात पर विवाद है, क्योंकि तन्त्रालोक में अभिनव गुप्त को उत्पल का शिष्य न बताकर प्रशिष्य बताया गया है। वह बहुत बड़े शैवयोगी थे। आज भी उन्हें काश्मीर शैव दर्शन कर सर्वोत्तम अधिकारी शिवाचार्य समझा जाता है । दार्शनिकों की मान्यता है कि अभिनव गुप्त द्वारा ही शिव दर्शन पूर्णता को प्राप्त हुई है । इनका जन्म काल 950 ईसवी से 960 ईसवी के बीच माना जाता है। ईश्वरप्रत्यभिज्ञा पर अभिनव गुप्त ने विमर्शिनी नामक व्याख्या लिखकर उसे और सरल बना दिया।इन्होंने सोमानन्द विरचित ईश्वरप्रत्यभिज्ञा विवृति पर एक और विमर्शिनी नामक टीका लिखी। । काश्मीर शैव दर्शन के क्षेत्र में अभिनव गुप्त का ग्रन्थ तन्त्रालोक और परात्रिशिकाविवरण महत्वपूर्ण है। यह पुस्तक परात्रिंशिका नाम से भी प्रकाशित है। मालिनीविजय तंत्र के पूर्वभाग पर अभिनवगुप्त  ने वार्तिक ग्रन्थ का निर्माण किया। अभिनवगुप्त का शैव दर्शन पर इसके अतिरिक्त अन्य अनेक स्वतंत्र टीकायें लिखी हैं। इन्होंने अनेक दार्शनिक स्तोत्रों की भी रचना की, जिसमें क्रम स्तोत्र, भैरव स्तोत्र, अनुभवनिवेदन स्तोत्र, देहस्थदेवता स्तोत्र इत्यादि प्रमुख है। इनके पूर्व भी अनेक स्तोत्रकारों ने स्तोत्रों की रचना की, जिसमें स्तवचिन्तामणि के रचयिता भट्ट नारायण का नाम आता है। अभिनव गुप्त  इन्हें अपना गुरु बताते हैं।
और अधिक जानने के लिए अभिनवगुप्त पर चटका लगायें।
अपने समय के प्रकांड पंडित क्षेमराज अभिनव गुप्त के प्रधान शिष्य थे ।  इनका समय ग्यारहवीं शताब्दी है। इन्होंने प्रत्यभिज्ञाह्रदय, स्पन्दसन्दोह, पराप्रवेशिका तथा बोधिविलास नामक स्वतंत्र ग्रंथों का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त शिवसूत्र पर विमर्शिनी टीका, स्पन्द सिद्धान्त की स्फुट व्याख्या स्पन्दसन्दोह नामक लघुकाय ग्रन्थ में की। स्तोत्र साहित्य के ग्रन्थ सामबपञ्चाशिका, शिलस्तोत्रावलि और स्तवचिन्तामणि पर व्याख्यायें लिखी। प्रत्यभिज्ञाहृदय में क्षेमराज ने समस्त प्रत्यभिज्ञा दर्शन का सार प्रस्तुत किया है। । इस ग्रन्थ का शैव या त्रिक दर्शन में वही स्थान है जो वेदान्त दर्शन में वेदान्तसार का है।   इनके शिष्य योगराज ने परमार्थसार पर एक महत्वपूर्ण टीका लिखी है ।
क्षेमराज के बाद उनके शिष्यों में वरदराज और योगराज का नाम आता हैं। योगराज ने परमार्थसार पर विवृत्ति लिखी और वरदराज ने शिव सूत्र पर वार्तिक लिखा था । वरदराज का जन्म समय तथा निवास स्थान के संबंध में कुछ भी अधिक ज्ञात नहीं होता है ।
वरदराज क्षेमराज का शिष्य थे, इन्होंने क्षेमराज से शिवसूत्र का ज्ञान प्राप्त किया था । वरदराज के पिता का नाम मधुराज था, जो आचार्य अभिनव गुप्त का शिष्य थे। अभिनव गुप्त और क्षेमराज की तिथियों से वरदराज का जन्म समय 11वीं शताब्दी ईस्वी की समाप्ति के आसपास मानना युक्ति संगत है । शिवसूत्रवार्तिक  के संपादक पंडित मधुसूदन कौल ने वरदराज का समय 16वीं सदी के प्रारंभ में बताया है।
महेश्वरानंद माधव का पुत्र थे। उसने स्वयं को महाप्रकाश का शिष्य बताया है। उनका लोक प्रचलित नाम गोरक्ष था और महेश्वरानन्द नाम गुरु द्वारा दिया गया है। उन्होंने अपने संप्रदाय का नाम देवपाणि बताया है। महेश्वरानंद ने अपने प्रमुख ग्रन्थ महार्थमंजरी में लिखा है कि मुझे प्रत्यभिज्ञा मार्ग के अनुगमन से ही आत्मज्ञान हुआ था। उनकी तिथि का कोई सही प्रामाणिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है।  वे अनुमानतः 16वीं शताब्दी में जन्म लिए होंगे ।
उत्तरवर्ती शैवाचार्यों में भास्करकण्ठ उल्लेखनीय हैं। भास्कर कण्ठ ने अपने गुरु का नाम नरोत्तम कौल बताया है। भास्करकण्ठ की तिथि के संबंध में कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार 1947 ईस्वी तक या गुरु शिष्य परंपरा चलती रही। ईश्वरप्रत्यभिज्ञा की अभिनवगुप्त रचित विमर्शिनी पर भास्करकण्ठ की अत्यंत विद्वत्ता पूर्ण एवं गंभीर भास्करी वृत्ति मिलती है।
काश्मीर शैव दर्शन में कुछ ऐसे भी शैवाचार्य हुए हैं जिन्हें निश्चय पूर्वक उपर्युक्त किसी भी गुरु परम्परा में नहीं रखा जा सकता। आचार्य क्षतिकण्ठ उसमें सर्वप्रथम है। उन्होंने कश्मीरी अपभ्रंश में महानयप्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की है।  यह ग्रन्थ शैव दर्शन के साथ साधनात्मक योग से संबंधित है। नारायण कण्ठ ने मृगेन्द्र तंत्र पर वृत्ति लिखी थी । राजानक आनन्द का षट्त्रिंशतत्वसंदोह काश्मीर शैव दर्शन के तत्व परिचय का सुंदर ग्रन्थ है।
महा व्याकरण भर्तृहरि का नाम शैव परम्परा के क्रम में प्राप्त होता है । इन्होंने व्याकरण के ग्रंथ वाक्यपदीय का प्रारंभ करते हुए जगह- जगह पर शैवागम के आध्यात्मिक विषयों को जोड़ते हुए दिखते हैं। महा माहेश्वर पं. रामेश्वर झा जी ने वाक्यपदीय पर टिप्पणी लिखी है,जिसमें काश्मीरी शैव दर्शन का प्रभाव देखा जाता है। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है। अधिक जानने के लिए भर्तृहरि  लिंक पर चटका लगाएं
काश्मीर शैव दर्शन के आचार्य रामेश्वर झा के बारे में भी जानें।

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