रीति सम्प्रदाय

          संस्कृत अलंकार शास्त्र में रीति सम्प्रदाय का अपना विशेष महत्व रहा है। इन रीतियों का उद्भव देश विशेष से जुड़ा हुआ है। ये शनैः शनैः प्रदेशगत शैलियों के विशिष्ट प्रकार से सार्वभौमिक लेखन प्रकारों के रूप में प्रचलित हुई। रीति सम्प्रदाय के प्रधान प्रवर्तक आचार्य वामन माने जाते है। वामन के पूर्ववर्ती आचार्य दण्डी ने रीतियों के वर्णन को अपने ग्रन्थ में पर्याप्त स्थान एवं महत्व दिया है। इन्होंने अपने काव्यादर्श में  वैदर्भी तथा गौडी इन दो रीतियों का वर्णन किया है।  कुछ और उत्तरवर्ती लेखकों ने भी इस दिशा में महनीय प्रयास किए है, परन्तु वामन के ग्रन्थ में रीति का जो महत्व उपलब्ध है, वह इस विषय के किसी ग्रन्थ में नहीं हैं। इन्होंने दण्डी से आगे बढ़कर पाञ्चाली रीति का निर्देश कर अपनी मौलिकता स्थापित की। वामन रीति को शैली ही नहीं मानते थे अपितु काव्य का सारभूत तत्व (आत्मा) भी इसे ही स्वीकार करते हैं। उन्होंने अपने तीन सूत्रों में स्पष्ट कहा है, रीतिरात्मा काव्यस्य।  इस रीति को भी उन्होंने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है ‘‘विशिष्टपदरचना रीतिः ‘‘। पदों की यह विशिष्टता ही वास्तव में काव्य में महत्वशाली तत्व है। यह वैशिष्ट्य पदों में काव्य गुणों के कारण ही आता है, अन्यथा पद सामान्य ही रहते है। अतः रीति गुणों पर आधारित काव्य तत्व है-विशेषो गुणात्मा। इसलिए विद्वानों की एक परम्परा रीति सम्प्रदाय को ही गुण सम्प्रदाय कहने के पक्ष में है।
      काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में सर्वप्रथम गुणों का वर्णन भरत के नाट्यशास्त्र में उपलब्ध है। नाट्यशास्त्र के 16 वें अध्याय में उन्होंने श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता तथा कान्ति इन दश गुणों को स्वीकार किया है। रूद्रदामन् के गिरनार शिलालेख (1500) में माधुर्य, औदार्य, स्पष्टता। दण्डी भी इन 10 गुणों को मानते हैं किन्तु दोंनों के क्रम में कुछ भेद देखे जाते हैं। भरत से उनकी व्याख्या अनेक प्रकार विकसित होते हुए दिखाई देते हैं।  बाण जो कि प्रायः सभी ज्ञात अलंकारशास्त्रियों से पूर्ववर्ती माने जाते है, प्रदेशगत विशेष रचना शैलियों का उल्लेख अपने हर्षचरित के प्रथम उच्छास में करते हैं श्लेषप्रायमुदीच्येषु प्रतीच्येष्वर्थमात्रकम् । उत्प्रेक्षा दाक्षिणात्येषु गौडेष्वक्षरडेम्बरः ।। 1.7 परन्तु गुणों की विशिष्ट सत्ता सर्वप्रथम भरत ही स्वीकार करते है। गुणों में शब्दगत एवं अर्थगत दोनों प्रकार का वैशिष्ट्य स्वीकार करना दण्डी को अभीष्ट था। वे इन गुणों को केवल वैदर्भ मार्ग या वैदर्भी मार्ग या वैदर्भी रीति का प्राण मानते हैं तथा इनकी विपर्यय को गोडीय मार्ग का प्रतिपादक स्वीकार करते है। गौड मार्ग में वे अर्थव्यक्ति, उदारता और समाधि को ही मानते हैं।
‘‘इति वैदर्भमार्गस्य प्राणाः दशगुणाः स्मृता।
एषां विपर्ययः प्रायो दृश्यते काव्यवर्त्मनि ।।
भामह रीतियों की भिन्नता को स्वीकार नहीं करते।  एषां विपर्ययः प्रायो दृश्यते काव्यवर्त्मनि॥
वामन ने गुणों की कल्पना, इनके बोध, महत्व तथा व्याख्या को सर्वथा मौलिक एवं नूतन रूप दिया है। इन्होंने गुण तथा अलंकार में भेद प्रदर्शित करने तथा अलंकारों की अपेक्षा गुणों को विशेष महत्व देने के लिए काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गुणाः (का. सू. 3/3/1) तथा तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः (का. सू. 3/3/2)  इन दो सूत्रों को लिखा। गुण काव्यशोभा के उत्पादक होते हैं,जबकि अलंकार उसकी शोभा को बढ़ाने वाले होते हैं।  वामन ने गुणों को दो प्रकार का माना है- शब्द गुण तथा अर्थ गुण। इन दोनों प्रकार के गुणों में नाम साम्य अवश्य है, किन्तु स्वरूप भेद पर्याप्त हैं।  भामह ने गुणों की संख्या तीन स्वीकार की थी-आनन्दवर्धन, मम्मट, हेमचन्द्र और विश्वनाथ सभी मत का अनुसरण करते हैं। प्रायः ये सभी अलंकारिक वामन के गुणों को माधुर्य, ओज, प्रसाद में ही अन्तर्भूत कर देते हैं। कुछ गुणों को वे केवल दोषाभाव मात्र मानते हैं। उनकी सकारात्मक सत्ता का अभाव हैं। और वामन के कुछ गुण तो वास्तव में गुण न होकर दोष हैं और कुछ कोरी कल्पना मात्र। वामनोत्तर अलंकारिक रीतियों की सत्ता तथा काव्य शोभा इन्हीं तीन गुणों पर आधारित मानते हैं। मम्मट तो गुणों को रस के अनिवार्य धर्म मानने के पक्ष में है। काव्य शोभा का उद्भावक के रूप में नहीं। उनका कथन हैः
                       ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः।
                       उत्कर्ष हेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः। का. प्र. 8/66
      वे इन्हीं पर विभिन्न रीतियों को आधृत मानते हैं। वामन के मार्ग का थोड़ा सा अनुसरण भोजराज अवश्य करते हैं। परन्तु उन्होंने भी गुणों के विभाजन तथा स्वरूप दोनों में विशेष अन्तर कर दिया है। भोजराज गुणों के तीन भेद मानते हैं 1.बाह्य गुण 2. अन्तर गुण 3. वैशेषिक गुण। गुणों की संख्या भी उनके मत में 24 हैं।
      रीति का विकास- रीति साहित्य शास्त्र में अनेकों नाम से जानी जाती है। इसका प्राचीन नाम मार्ग या पन्था हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखन शैली के उद्भव के साथ ही इसकी भी कल्पना की गई होगी। धीरे-धीरे इसका स्वरूप प्रदेशगत हो गया होगा। प्रायः एक ही प्रदेश के रचनाधर्मी जब एक सी ही पद रचना में नैपुण्य दिखाने लगे तो उन्हीं प्रदेशों के आधार पर इन रीतियों का भी नामकरण हो गया होगा। आरम्भ में वैदर्भ और गौड़ ये दो मार्ग ही प्रसिद्ध थे। इनमें से वैदर्भ को काव्य का श्रेष्ठ एवं रमणीय मार्ग माना जाता था तथा गौड़ मार्ग को दुरूहता, शब्दकाठिन्य, तथा श्रवण कटुता के कारण निन्दनीय माना जाता था। आरम्भिक आचार्य भामह इस पद्धति का अनुसरण नहीं करते थे। उनके मत में तो वैदर्भ मार्ग की प्रशंसा करनी चाहिए और न गौड़ मार्ग की निन्दा, अपितु काव्य के शोभन गुणों की और गौड़ीया मार्ग में केवल कुछ गुणों की सत्ता स्वीकार करते है। दण्डी की दृष्टि में वैदर्भ मार्ग कवियों के लिए आदर्श तथा अनुकरणीय है। गौड़ो में अक्षराडम्बर और वैदर्भ मार्ग की सरलता के सूक्ष्म अनन्तर के कारण ही इन दोनों की लोकप्रियता में मूल अनन्तर दिखाई है।
दण्डी के अनन्तर रीति को सुदढ़ आधार तथा महत्वपूर्ण स्थान दिलाने का श्रेय वामन को है। उन्होंने रीतियों को संख्या में भी पूर्ववर्ती आलंकारिकों की अपेक्षा वृद्धि की है। यह वृद्धि वास्तविक तथा तथ्यों के अधिक अनुकूल है। अब तक की दो रीतियों गौडी और वैदर्भी में वे पाञ्चाली को और जोड़ देते हैं जो सम्भवतः पाञ्चाल क्षेत्र में विशेष लोकप्रिय थी।
रीति सम्प्रदाय का महत्वः- रीति सम्प्रदाय में अलंकार सम्प्रदाय के प्रारम्भिक विकास की तुलना में काव्यसिद्धान्तों के विकास का स्तर प्रायः उन्नत दिखाई देता है। जहां अलंकार सम्प्रदाय काव्य के केवल अंगों, शब्द तथा अर्थ तक ही सीमित है, वहां रीतिसम्प्रदाय में पहली बार काव्य के सूक्ष्म तत्व के उन्मोलन में रीतिसम्प्रदाय के आचार्य ने अपनी क्षमता दिखाई है। यह प्रकारान्तर से वामन की ही प्रशंसा है।
रीति सम्प्रदाय को ही गुण और अलंकार के स्वरूप और क्षेत्र विभाजन का श्रेय जाता है। भामह ने गुण और अलंकार के व्यापक अर्थ में सीमित करते हैं। उनकी दृष्टि में काव्य शोभा के सभी धर्मों को अलंकार के व्यापक अर्थ में सीमित करते हैं। उनकी दृष्टि में काव्य शोभा को बढ़ाने वाले गुण होते हैं और उसका अतिशय करने वाले अलंकार। काव्य में अलंकार की अपेक्षा गुण अधिक महत्वपूर्ण हैं क्योकि उनकी स्थिति काव्य में नित्य तथा अपरिहार्य हे काव्य शोभा के इस सम्प्रदाय का विशेष महत्व है।
अलंकार सम्प्रदाय के आचार्यों की तुलना में रीतिवादी आचार्यों की दृष्टि सूक्ष्म, गहरी, तीक्ष्ण एवं पैनी है। वामन ने रस को बहिरङ्गता के क्षेत्र से लाकर अन्तरंगता में रस का निवेश करते हैं। वामन वक्रोक्ति में अविवक्षित वाच्यध्वनि का अन्तर्भाव भी उपलब्ध होता है। इस प्रकार काव्य तत्वों का विवेचन इस सम्प्रदाय में अधिक व्यापक उपलब्ध होता है। ध्वनिवादी आचार्य भी रीति की सत्ता स्वीकार करते है और ध्वनि के साथ इसका पूर्ण सामंजस्य दिखाते हैं। आचार्य कुन्तक ने रीति को एक और महत्व प्रदान किया। उन्होंने रीति को कविस्वभाव से सम्बद्ध मानकर इस की अपरिहार्यता की प्रतिष्ठा की। उन्होंने रीतियों को मार्ग कहकर इनके नए नाम दिए-सुकुमार, वैदर्भी, विचित्र, गौड़ी, मध्यमा, पांचाली।
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