असाध्य रोग
बढता
जा रहा अविरल
वासना
का मवाद
दिनों
दिन
पलों
पल
क्षणों-क्षण।
समष्टि
ही रोगी है
चिकित्सक
फिर कौन हो!
रोदन
-घुटन- उत्पीडन
व्यथन
-चुभन –क्रन्दन
राग-रण रौरव -वाद-
कलह
का भैरव नाद-
छल
-छद्म-कीलित-चैतन्य
अहम्मूलक
दैन्य।
हर
व्यक्ति रोता है अपनी व्यथाएँ
हर
हृदय कहता है अपनी कथाएँ
अपनी
सुनाने को ही एक सुनता है दूजे की बात
स्वार्थान्ध
जग का दु:ख ही सौगात
दिनमणि
का मुकुलित हरसिंगार
चन्द्रमा
का विलसित सुधासार
तारों
की स्वप्निल चहक
अनिल
की मलयज महक
सुरभित
धरा- स्वच्छ आकाश
मानवता
का हार्दिक विकास
दुर्लभ
है! दुर्लभ है!
दम
तोड़ती जीवन्तता का बचाव
वासना
पिशाचिनी के क्रूरतम कसाव में
हे!
हे! भवरोग वैदय!!
वर्षा ऋतु
ग्रीष्म की दहकती
पथरीली उमस में
गरीबिन धरती
पसीने से नहाई है,
या पठारी आँगन में
वर्षा ऋतु आयी है।
नर्मदे।
शिव-केलि-क्रीड़ा-शर्म्म दे।
सन्तप्त-लोक-जीवन-वर्म्म दे।
तव
चरणाश्रिताय, अमृतहर्म्य दे।।
जननि।
जाने
कहां से आया,
बहता-बहता
यह प्रश्निल-पतित-प्राण-
अमरों
ने भी पाया अभय तट पर ही माण-
सुनकर
स्नेहिल स्वभाव-
लेकर
आया अभाव
भूखा-नंगा-वासनाविकल
गात.......भर तू...
स्नेहिल
सुधाधर धर्म दे।
नर्मदे।।
तेरे ही अन्तस में
मत
ढो।
मत
ढो रे बन्धु।
बौद्धिकता
का शव बदबूदार।
मधुर-भावनाओं
के सक्षम-पाषाण खण्ड बांध,
फेंक
इसे भक्ति-भागीरथी में,
और
निश्चिन्त हो जा ।
जीवन
संघर्षो के विकट कुरूक्षेत्र में
भीष्म
या युधिष्ठिर बनना आसान है
किन्तु
बन अर्जुन सा कृष्ण खोज लाना अति दुर्गम है।
रे
रे पांडव।
दुस्तर-अति
दुरधिगम्य कुत्सित छल छद्ममय
नव-रण
में जीत यदि चाहता है-
प्यारा
वह सारथी अवश्य खोज।
अन्यथा-
बुद्वि
वैतरिणी में बेवस वह जायेगा-
अपनी
ही दुर्गन्धित लाशों में
युगों
तक दब जायेगा।
ढहता
रहेगा तेरे नव-कौशल का किला।
पागल।
रिझा
ले-रिझा ले।
उस
परम कैवन्र्तक कोमधुर-मधुर वृदावनेश्वर प्रियतम क्राचन्द को
दूर
नहीः-
तेरे
ही स्नेहिल अन्तस् में ही है वह
जागो-जागरण वीर।
क्षितिज
की घाटी में
गगन
के गद्दे पर-
घनों
की रजाई ओढ़-
सोये
हुए सूरज।
निरालास्य
जागों।
रजनी
से उरब चुका
कब
का यह युग-शयन।
आलस-पर्याय
नहीं यौवन
कर्म
का जाग्रत-अध्याय है।
अरूणोल्लसित
श्रृंगार भर स्वर्णिम-सी
खड़ी
तो है पदप्रान्त में प्रणयिनी-प्रभा,
पर
सोये हुये सूर्य का स्वागत कैसे करें।
जागो, जागरण-वीर।
कूजे
आनन्द-कीर
रून-रून-झुन-उन्मन-चुन,
रे।
रे।
निरख-।
निरख।
कलियों
में आनन्द खोलती मधुकर श्रेणी,
लहराई-सुगन्ध
सजती अलसाई वेणी,
निशि-विगलित
अंजन पुंछ गयी ब्रह्म-वेलायें,
विजय
तिलक करती जगती अभिनव आशाएं।
तुम्हे
जगाने को चलकर कितनी यात्राएं,
गाते
शाश्वत्, अनुबंधो की प्रणय मच्चाएं,
अमित
स्वंयभू-छनद उगें अनजान स्वरों के।
जागो-जागो
तेजराशि।
तारूण्य
जगाओ,
जन-जन
में चैतन्य माधुरी बन छा जाओ।
चेतन
का प्रमाण रजनी-तम नहीं
मात्र
दिन मान,
पुण्य-दिनमान।।
अर्थ में जागो।
जाग
रे जाग।
तू
अमृत विहाग।
सिंह
सा तू जाग लेकिन कौर्य का इतिहास मत बन,
हास्य
रस कण छींट लेकिन, काव्य का उपहास मत बन।
जाग
कर तू जाग।
पुरूषत्व
के वेष में नपुंसकता का पाल।
चन्द्र
सदृश शीतल होता क्या कभी सूर्य का पारा
हिंस्र
सूकरों से घिरकर भी कभी सिंह क्या हारा,
अभी
प्रात ही नन्दनवन को कौन जलाने आया,
कौन
प्रेम के सन्दर्भो में गरल मिलाने आया ?
क्यों
अपनेपन की दीवारें ध्वस्त हुयी जाती है
क्यों
आंसू का नर्क बांटने विपदायें आती हैं
ज्ीवन
की धड़कने काटती प्रगति-वधिक की चेटी
बेंच
रहा रे कौन अस्मिताओं की-
रोटी-बेटी।
न्याय
हुआ अपराधी, न्यायाधीश बना अन्याय,
देख
रे देख। मेरे भाई।
स्वार्थ
अन्ध हो गयी यहां क्यों भामाशाही आंखे,
डूबी
क्यों दुर्मद-विलासिता में वैभव की पांखे।
क्यों
बढ़ती जाती धनाढ्यता औ दुरन्त निर्धनता,
हाय
भुनी जा रही बाजरे सी दुभार्गिन जनता,
जग
तेरे विस्तृत-आंगन में दमन-चक्र क्यांे फलता,
नींद
में शायद सभी कुछ हो रहा,
लोग
जीते स्वप्न की-सी भ्रान्तियां-
बड़बड़ाते-चीखते
हैं
किन्तु
भोले जागरण के अर्थ से अनजान।
आह।
जागो।
उपेक्षा
में नही, अर्थ से अनजान।
आह।
जागो।
उपेक्षा
में नही, अर्थ में जागो।
उठो रे उठो।।
युग-सत्य
मूकवत्-जड़वत्-वधिरवत्
आलस्य-प्रमाद
रत-जीवन में,
चिन्तन
की खेह ढोता
कराह
रहा युगसत्य।
मनस्क्षितिज
की बंजर भूमि में
मौढ्य-हल
से जोतता-संकल्प
बोता
शाश्वत समाधान।
भुना
हुआ बीज कभी अंकुरित होता नहीं,
चेतना
का सत्य, मिथ्याशव कभी ढोता नहीं।
द्वेष-कलह-घृणा-मोहधूमिल,
संघर्ष
की गुदड़ी में,
सिल-सिल
कर लाखों पैवन्द
ढॅकती
निज नग्नता-
सती
साध्वी-सुहागिन-वेदना।
कर्म
शून्य,
यत्न
शून्य,
मृतकवच्छिथिल,
वासना-हिमालय
तले दबी,
प्रगति-नन्दिनी, आशावगुण्ठनवती।
निद्रा
की मदिरा पिलाती-
नित्य, निराशा कलारिन।
भाग्यहीन
निर्धन को नींद बहुत आती है
आहों
की अग्नि प्रथम उसे ही जलाती है।
आश्चर्य।
भास्कर के घर में भी प्रभा आज मंहगी है,
शशधर
शीतलता का कर्ज वहन करता है।
सोचता
हूं धरती की सहनशक्ति बेंच दूँ।
प्रकृति
की हरियाली नख से खरोच दूँ।
गरीब
की अस्थियाँ पीसने वाली नैतिकताएँ दबोच दूँ।
रोती-बिलकती-विवशता
भरी-
जि़न्दगी
का सत्य कुछ ऐसा ही है-
अर्द्धनग्न।।
मैला कोहिनूर
विकारों
भरा चिन्तन,
गन्दगी
भरा मन,
दुर्गन्धों
भरा तन,
लेकर
जहाँ भी गया,
सभी
ने मुझे दुत्कारा,
घसीटा
और मारा-
कितने
ही सभ्यों ने कीचड़ उछाला,
किन्तु
मैंने स्वयं को संभाला,
मन
को पुचकारा और दुलारा-
उसके
कोमल-कपोलों पर ढले आँसू पोंछे-
और
खूब प्यार किया।
समझाया
तू अपनी छोटी अंगनैया में खेल
आ
मुझसे कर ले मेल,
मेरा
लाल है तू अनमोल हीरा है।
सचमुच।
कूड़े
के ढेर में पड़ा हीरा-
अगर
भंगी के हाथ लग जाये तो-
क्या
करेगा बेचारा।
या
तो हीरा लुटा देगा
या
खुद लुट जायेगा।
हे
मेरे स्नेहिल-जौहरी।
यह मोटी-मैल की तह में छिपा कोहिनूर
तू
ही तराश।
इतना
मैं निश्चित जानता हूं-
कि-
प्रेम
की फैक्टरी में ताराशा हुआ हीरा
कही
गंदा नहीं होता
और
लुटता भी नहीं-
छल-छद्म
की बाजारों में।।
तुम्हारा क्षणिक स्वीकार।
हे
परम-तृप्त।
तुम्हें
यह नैवेद्य नहीं निवेदन कर रहा,
किन्तु
अपनी नीवन व्यापिनी-भूख
स्वयं
में खा रहा।
तुम्हें
भोजन की आवश्यकता कहाँ ?
दुर्भिक्ष
तो हमें घेरे है।
तुम्हें
जल समर्पण कर-
मैं
अपनी तृषाएँ पीता हूँ।
विषयों
की प्रचण्ड लू,
शीतल
मलय समीर बन जाती है,
ज्ब
तुम्हें चँवर डुलाता हूँ
तुम्हारा
क्षणिक स्वीकार-
मुझे
आनन्द में पागल कर जाता है,
क्या-क्या
कहूँ।
तुम्हें
प्रणाम कर,
विश्व
की समस्त प्रणतियां मैं पा जाता हूँ।
तुम्हारे
दिव्य नाम पर
जबसे
समर्पण हुआ यह तन
मैं
अपनी अनादि-अतृतियाँ-
भूनना
सीख गया हूँ।
अभय
हो गया हूँ।।
रे
मूर्ख।
दूसरे
की नग्नता निहारने से पहले,
ऐ
मन।
तू
अपनी निर्लज्जता देख।
दूसरे
की दुर्गन्ध मापने से पहले
रे
मूर्ख।
तू
अपनी गन्दगी परेख।
स्वातन्त्र्य
का अर्थ अनुशासन हीनता नहीं,
मस्ती
का अर्थ आवारापन नहीं,
जीवनोद्यान
की हरी-हरी घास,
जिस
खूंटी में बंधा निर्बाध चर रहा-
उसे
भी सोच।
मालिक
की बाँधी वह स्नेह की डोर,
यदि
तोड़ने की कोशिश की-तो-
लौह
जंजीरों में बांधा जायेगा-और-
जन्म
जन्मान्तर तक बंधा-बांधा खेह खायेगा।।।
उद्दीप्त-प्रतिबंध
सजातीय
को भी आकर्षित करने के लिये-
कुछ
वैजात्य अनिवार्य है।
क्योंकि
चुम्बक बने बिना-
लेहा
कहां खीच पाता है सजातीय लोहे को भी।
सूरज
से खिंची हुयी पृथ्वी,
पृथ्वी
से खिंचा हुआ चांद-
रागों
से आलिंगित सरगम-
तथ्यों
से चिपके हुए वाद-
और
भी संसर्गो में खिंचे हुए लोग
अवश्य
पृथ्वी वैलक्षण्य के ज्ञाप हैं।
कुछ
उसका-कुछ मेरा।
मोहमयी
रात पर स्वार्थ का सबेरा
सारे
अनुबंध प्रतिबन्धित हैं।
उद्दीप्त
प्रतिबंध ही-
पल-पल-नवायमान
शाश्वत् अभिव्यक्ति का -
मापदण्ड
है।।।
शान्तिमय-सत्य
सरल,
स्वाभाविक,
मसृण-उल्लासमय,
यौवन-उभार
भर,
अनाविल,
मुग्ध-सौन्दर्य
जब दृष्टिगत होता है,
जीवन
के अनजाने,
अनगिन-प्रश्न,
भोलेपन
में ही,
उत्तरित
हो जाते हैं,
जग
जाता है-
एक
शाश्वत् स्वप्न,
जाग्रत-सुषुप्ति
का मनमोहक द्वार।
अभीप्सित-सत्य
के वसन्त में,
लहलहा
उठता है-
विश्व-विश्रान्ति
का आराम।
अस्मिता
का महिमामय-विलय
जिसे
समझती है बुद्धि-तृप्ति-।
किन्तु
मतवाला मन,
अंगड़ाई
लेता,
कह
उडता है जिसे-
प्रेम।
प्रणति।।
समर्पण।।।
अनछुआ-सौन्दर्य,
छद्महीन,
जीवन
का शान्तिमय-सत्य है,
जिसे
प्राप्तकर
जगत
का मिथ्यात्व निवृत्त हो जाता है
और,
ब्रह्म
का यथार्थ,
सत्यापित
हो जाता है।
‘‘निरख रहा हूँ।‘‘
सतृष्ण
निरख रहा हूँ-
उस
समुद्र को,
जहां
से निकले है-
ये
घनश्याम,
बिरह-संतप्त-धरती
के वक्षोंजो पर-
कृपा-केसर
का लेप करने के लिये।
उस
क्षितिज को,
जहाँ
से निःसृत-समीर
मलयज-सुगन्ध-लिये।
हरती
निर्धन की आतप-व्यथाएं।
वह
हिमानी की गोद,
जहाँ
पलपुस कर बढ़ी-जाहन्वी,
कितनी
कर्मनाशा-जि़न्दगियाॅ,
आलिंगन
में बांध लेती है,
विश्व-विभेद-विश्व
जिसकी वीचियों में-
घुल-घुल
प्रेमांकुर बन जाता है।
अद्भुत-सौजन्य।
क्षुधित
को रोटी,
तृषित
को नीर,
निर्वासित
को आश्रय,
निष्प्राण
को समीर,
विना
मूल्य बाटने वाली प्रकृति,
तुम्हें
सतृष्ण निरख रहा हूँ
तेरे
पवित्र चरण-चुम्बन के लिए।।
न तोड़ो
अरूण-पीत,
श्वेत-श्याम-
ए
मुकुलित-सुमन नहीं,
पयस्विनी-वसुधा
के,
हृदय
से उच्छलित,
करूणा-सुधाकण
हैं।
चिन्मय-सुन्दर
के चरणो में,
सहन-समर्पित।
मत
तोड़ो इन्हें-। रे लोलुप।
गुन
गुन गुन गाते हुए,
भ्रमरों
का दिल टूट जायेगा,
तुम्हारा
घर सजने के प्रथम ही-
खिले
इस चमन का सुहाग लुट जायेगा।
सौन्दर्य
का शाप,
अत्यन्त
कुरूप होता है।
अमृत
सौरभ-सिक्त जीवन,
स्वयं
के लिए ही सब कुछ है।
कुसुमित-अस्मिता
की महक ही
उल्लसित-विकास
है उपवन का।
जिस
दिन सुमन टूटा
उसी
दिन आँगन श्मशान हुआ।
सुमन
ही जीवन
कुमन
ही मरण,
नास्ति
से नास्ति तक की यात्रा में,
जैविकता,
बीच
में लहरित-अस्तिता है।
अस्तित्व
का सौन्दर्यमान
धूल
धूसरित न करो
न
तोड़ो।
न
तोड़ो ये सुमन-
अरूण-पीत,
श्वेत
श्याम।।।
समर्पित हैं तुम्हें
यह
तुलसी दल,
यह
फूल,
समर्पित
हैं तुम्हें,
हे, सियाजू के सुकूल।
इन्हें
स्वीकारों।
वृन्तों
का गेह छोड़,
स्वजन-सम्बन्ध
तोड़,
जाति
कुल-गौरव-वम्र्म,
लोक-लज्जा
धर्म छोड़,
विल्कुल
अपंग हुये ये,
स्नेहाकुल
उतारे गये हैं-
सिर्फ
तुमको चढ़ाने को।
अतीव-लालसाओं
भरे,
प्रणय-आशाओं
भरे,
अंजलिगत
हुये
व्यग्र
हैं ये-
तुम्हारे
प्रेमाकुल-पराग-पंकिल-
पादपद्मोपवन
में पहुँचने को।
नियति
कैसी।
जिसे
देखो वही नोच लेता इन्हें,
कोई
देवाराधन को,
शय्यास्तरण
को कोई,
कोई
अति निर्दयः-
सूँधकर
फेंक देने को
यहां
पर सुमन की सभी को ज़रूरत है।
शोभा-समर्पण
का समग्र-प्रतिमान,
प्रियतम
हो।
एक
ही सुमन काफी है-
तुम्हारें
चरणों में पहुँच,
समष्टि
की पीर हरने को।।
हे
सियावर।।।
प्रेम-समाधि
तुम्हारी
प्रेम समाधि में डूब जाना चाहता हूँ,
भर
जाना चाहता हूं लबालब, तुम्हारे अमृत सुहाग से।
तुम्हारे
तेज की सप्त जिह्वाएँ मुझे चाट ले-
तुम्हारे
समुद्र की अनंत लहरें मुझे घेर लें-
मैं
निस्तब्ध अतल में-
चलता
जाऊ-
अनवरत्-।
कहीं
छोर न मिले मुझे।
अनन्त
गति,
अनन्त
सत्य,
अनन्त-आह्लाद।
पे्रमशून्य
जीवन भी क्या है-?
केवल
शव-
शव-
शव।
हे
केशव।
मेरी
घुँघराली अलकों में सुमन खिलो
मेरी
कजरारी पलकों में पे्रमाश्रु बन छलक जाओ,
तुम्हे
अपनी प्राण-पुतलियों में कस लूँ।
तुम्हारी
अलबेली-बाहों में-
मैं
नवल वेलि-सी फँस लूँ।
रसिकेश।
तुम्हारा
वियोग ही योग है,
तुम्हारा
आलिंगन ही समाधि,
शाश्वत्-समाधि,
सहज
प्रेम-समाधि।।।
सिवा तुम्हारे
तुम्हारे
वियोग में तड़पती
शब्दों
की स्फुटित-आत्माएँ
स्वार्थों
के महावन में
कब
तक ढूँढेगी-
स्नेहिल-परमार्थ।
लौकिकार्थों
के शव ढोते-ढोते-
बेहाल
हुये बेचारे शाब्दिक-व्यक्तित्व,।
न
जाने किस स्फोट में,
तुम्हारे-मधुमय-सौन्दर्य
का प्रस्फोट होगा,।
शब्द
की सीपियां मुंह खोले पड़ी-
मुक्ताएँ
बिखेर रही।
हे
माली।
इन्हें
कौन गूथे-कौन हार बनाये-
तुम्हारा
कण्ठहार बनाने को,
सिवा
तुम्हारे।।
भावों का दास होना अधिक अच्छा
राजपथ
छोड़ जैसे कोई पगडंडियों में भटक जाय,
समुद्र
के लिए चला कोई सरवर में अटक जाय,
कुछ
इसी तरह हो गया है
आज
का चिन्नाम-व्यक्तित्व-युग।
परिवर्तन, परिवत्र्य का धर्म नहीं-
मात्र
परिवर्तक की पिपासा है।
तभी
तो-
सावन
का थोपा हुआ
घन
परिवत्र्तन,
शरद
नकार जाता है,
बुद्वि
का समग्र-मापदण्ड,
वादों
का गिरगिट डकार जाता है।
बालू
के चमकीले-स्तम्भ
बड़े-बड़े
राज्य-प्रासादों को धोखा दे चुके।
क्षतिग्रस्त-चिन्तनों
की-
अस्तिताएँ
भी विस्मृत हो गयी।
किन्तु-
अभी
भी-
बह
रही भाव की हिलकोरती-नदी,
अमन्द-प्रवाह,
मरूः
स्थलों को सरस करती।
संयम
युग हो या वासना युग,
भाव
की रस शक्ति,
सुरसरि-सी,
पिपासु
की व्यथा हर,
समुद्र
तक ज़रूर ले जाती है।
रे
रे तृषित।
तू
सरवर का मोह छोड़, तरणी नदी में कर।
पा
लेगा सरस सत्य।
इसीलिए
कहता हूँ-
कवि
की अनुभूति-
बुद्धि
का सम्राट
होने
की अपेक्षा
भावो
का दास
होना-
अधिक
अच्छा है।।।
वांछा है
जीवन-चांचल्य
के,
थमने
के पहले,
वंकिम-त्वरण
के,
जमने
के पहले,
गतिशीलता-
समझ
बन जाये,
शान्ति की कोकिल कूजने लगे,
यही
लालसा है।
चिन्तन-पाषाणों
के खण्डित-आयाम-
सरिता
की वेगीली-कविता के नाम,-
बहें
नहीं, पिघलें यदि बनकर परिणाम,-
सुरसरि
का गोरापन, यमुना का श्याम,-
भावना-सरस्वती
में घुलकर अभिराम,
युग
का कलुषित पथ पा जाये विश्राम,
वांछा
है-
अपनी
गहराई में स्वयं डूब जाऊँ मैं।
हे
मेरे माँझी।
मेरी
ससीम-नाव,
ऊपर
मत करना।
युग-युग
से छला है-
मुझको
किनारों ने।
सतही
मझधारें
छिछले-भँवर
सिर्फ
डराते हैं मुझे,
अपने
अतल की खोज करने से।।
दरिद्र नारायण
आश्चर्य
है,
इन
फटे हाल कंगलों का मन
कुबेर
से कम नहीं,
किन्तु
महाश्चर्य।
कुबेरों
का ह्दय
दारिद्रय
की धर्मशाला है।
अद्भुत
है-
काग
के हृदय में हंस की करूणा,
हंसों
के मानस में कागों का क्रौर्य।
जीवन
कुछ वक्र ही है।
बाहर
भुजंगायित,-
अन्तर
इन्द्रारूणि-सा।
कौन
जाने,?
साधना
का कौन सा पल-
कालनेमि
हो।
मुखौटों
की बारात में,
वास्तविकता
का वर पहिचाना कैसे जाय-?
जब
सभी सजे घोड़े पर चढ़े हो।
आदमी
असलियत की बातें बोलता है,
असलियत
खोलता नहीं।
जाति-धर्म-वर्ण-आश्रम-मज़हब
या कौन,
फेथ
और रेलिजन-
यहाँ
सभी बनावटी हैं।
शायद
बनावट ही असली है,
और
सहजता यहाँ फसली।
सिद्वान्त
धनी, व्यवहार दरिद्र।
किन्तु-
जिसका
अन्तर नारायण है-
उस
दरिद्र नारायण को-
शत-शत-शत
बार नमन।।।
पथ्थरों
के भी हृदय होता है।
पठारों
पर हँसती हरियाली
और
कुलकुलाते हुये फसली-नाले,
यह
बताते हैं कि-
पत्थरों
के भी हृदय होता है,
जो
सावन-भादों की काव्य गोष्ठियों में
कभी-कभी
भावुक हो जाता है।
व्यक्तित्व
की असली-पहिचान,
भावुकता
में ही उभरती है।
श्रावणी-कुरूक्षेत्र
में ये-
घटोत्कच-पठारियां,
नये
महाभारत की सूचना देती हैं,
और
अनागत दुर्दशाएँ ज्ञापित करती है।
अभागे
इस क्षेत्र में उलझे-
पलाश
–तेंदू-शीशम-बबूर
झरबेरों
में उलझे-
खींस-काढ़े
खजूर,
दाँत
दिखाते आरोपित सदाबहार,
जिन
पर कौवे भी अलंकृत नहीं होते,-
पत्थरों
को तोड़-जोड़ कर,
बने
खपरैलों में-
कही-कहीं
पतली कचनार की कलियाँ,
नयी
दृष्टियों के लिये दृश्य तो हैं-
किन्तु
एक दर्शन है उनके लिए,
जो
पत्थरों को जीते हैं
शुष्कताएँ
पीते हैं,
गंदगियाँ
नहाते हैं
और
मजबूरियाँ खाते हैं।
कुल
मिलाकर-
हर
युग को,
कटु
सत्य का
उपहार
देते हैं।।
हे मर्यादा पुरूषोत्तम।
धन्य
हे वे लोग-सत्य के समक्ष-
जिनकी
गहराइयां नग्न हो गयी,
क्योंकि
वह गोपी हो गये,
श्याम
सुन्दर के रास में वही सम्मिलित होंगे।
वे
लोग भी धन्य हैं,-
जिनकी
नग्नताएं किसी एक को समर्पित हो गयी,
क्योकि
वे द्रोपदी हो गये,
जि़न्दगी
का महाभारत वे ही जीतेंगे।
हे
मर्मादा पुरूषोत्तम।
ए
चमकते-रेतीले कूल,
मेरी
गहराइयां नग्न करते हैं
आत्मा
की लाज अब तुम्हारे हाथों में है
चाहे
वस्त्र बनो-।
या
इन निर्लज्ज रेत के ढूहों को ध्वस्त कर दो।
अब
हमने दोनो हाथ ऊपर उठा लिए हैं।।।
कालजयी
बनकर
कुछ
कलियां,
कुछ
कांटे,
कुछ
कंकड़,
कुछ
पत्थर,
गूँथ-गूँथ
कर बनाये,
मनचली-अनुभूतियों
के हार,
दुर्जय
उन क्षणों के कण्ठ में पहनाया,
किन्तु-
क्षणों
ने प्रसाद रूप मुझको ही लौटाया,
बेवस, पहने हुये मैं विश्व धूम आया।
न
तो कहीं चैन मिला-
और
न आराम,
हे
मेरे राम। बोलो-
तुम्हें
कैसे आलिंगन करूँ
चरणों
में साष्टांग लोट भी-
कैसे
सकूँ ?-
बिध
जाते आर-पार,
उर
में विषैले-शूल।
अपनी
ही भूल मुझे अब तक रूलाती रही,
कभी
नंगे, कभी भूखे-प्यासे सुलाती
रही,
सोच
रहा-
फेंक
दूँ-
यह
आरोपित कंटक-हार,
क्षण-क्षण
की सोचों का,
भ्रम
के उत्कोचों को।
किन्तु
शक्ति क्षीण हूँ मैं
खोलो।
खोलो। डर में चेतन-पौरूष-द्वार
ज्ल
जाये जीवन का, कज्जल गिरि सा विकार,
अपना
आलोक-पथ स्वयं बन जाऊँ मैं,
कालजयी
बनकर,
क्षण-क्षण
पर छा जाऊँ मैं।।।
चित्त
के पर्तो में
बहुत
दिनों बाद,
चित्त
को खरोंचती रे।
सुन्दरी-सुन्दरी-स्मृति-रूपायें,
अतीत
की साॅझी बनाती वे वृत्ति-कुमारिकाएँ,
हाँ।हाँ।
जीवन
के रेगिस्तान में-
सतीत्व-लहलहाती, वे पतिव्रता-अर्पिताएँ।
जिन्दगी
का गन्दगी भरा कोई पापी-म्लेच्छ,
कही, उनका सुवर्ण-सा शरीर न छू दे।
जौहर
का खेल, खेल रही तेजस्वनी-कलियां
रे,
आज
भी सूनी गलियों में,
मात्र
तेरे आत्म गौरव के लिए।
अरे।
जीवित-प्रेत-मन,।
तू
उन सतियों का वन्दन कर।
उनकी
पग धूलि, अपने मस्तक का चन्व्दन
कर।
जीवन
मुक्ति के लिए।।
कचरे
बटोर मत
छोटी-मझोली
या दीर्ध शंकाएँ-
लोग
गन्दे नाले के निकट ही करते हैं।
तू
अपनी बुद्धि सखे, ऐसी क्यों बनाए-
कि
जो भी पास आये,
वह
मात्र शंका करे-
और
तुम्हे भरपूर गन्दा कर चला जाये।
बहुत
जन्म लगते है चित्त से छुड़ाने में-
तर्को-कुतर्को-शंकाओ
के मतजाल
ज्ञान
का ऐसिड कठिनाई से मिलता है,
वह
भी वैराग्य जब जी भर के रगड़ता है-
भक्ति-महिमामयी
गर्म-नीर धोती है,
तब
कही निर्मल बन पाता अन्तः करण।
प्रश्नों
के गोबर मस्तिष्क से निकाल दे-
कचरे
बटोर मत-बौद्धिक।
तुझे
मिल जायेगा सिद्ध समाधान
समर्पण
की राह में।।
समांगता का नवम्बर
समागंता
के अंक से ही जो खुलता है,
नवम्बर
जीवन
एक ऐसा पेचीदा ताला है।
धुमावदार-पेंचों
में फँसी-
मौसमी-प्रमाएँ,
कितनी
ही बार-
प्रमाण
के पत्थरो पर मस्तक मार चुकीं
अनगिन-लहुलुहान-प्रयास
अब
तक भी-
डिस्प्वाइंट
ही रहे।
बढ़ता
ही रहा बौद्विकता का सौतिया डाह।
दिल
के पैवन्दों से सिली हुयी-सोचों की-
हालत
भी पतली है-
हर
चिन्तन काला है।
....... रोज-रोज-हर सुबह-
प्रश्न
का कोई हथौड़ा-
सूरज
का मस्तक-
निहाई
सा लाल कर देता है।
कही
गोधूम, कही मक्के-यव-धान-
प्रकृति
की पलको में अलसाये विहान-
आखिर
क्यों उग जाती है-
लाखों-लाखों-स्वीकृतियां-?
धरती
की धड़कनों में फसल बनकर।
वस्तुत; नकार की गीता में-
जीवन, स्वीकृतियों का अठ्रठाह अध्याय है।
इसके
मिषठ्क कभी विषम नहीं होते।
वैदिक-कुण्ठाओं
का अष्टावक्ी-अवतार-
जब
ज्ञान की सभा में अपमानित हो जाता है-
उसे
तब इच्छुरस की समरसत्ता याद आती है-
और
समाधान का फलसफा जन्माती है,
आकृति-वैषम्य-
कभी
रस साभ्य का निषेध नहीं करता।
केवल-समांगता
का नम्बर मिल जाए-बस-
सारी
समस्याओं के ताले खुल जायेंगे।
निर्विवाद।।
भगवल्लीला-विलास
कटक
में-कुण्डल में-
हार
में-नूपर में-
एक
ही हिरण्य का जब से अवबोध हुआ,
ये
सभी नाम-रूप-भेद भाव-
भ्रमभार
न रह,
पृथक-पृथक
रूचियों के-
आभूषण
बन गये।
अग-जग-प्रपच्य
सत्य-प्रेमोपादान हुआ
अबाधित-भगवल्लीला
विलास।
ललना-कपोलो
में-
शैशव-मधुबोलो
में-
रजनी-प्रभात
के हिन्दोलों में-
विकास
रहा अब एक ही आनन्द रस-।
अद्वयानुभूति।
शाश्वत्।
निषेध
रहित।।
मैं पीड़ाये पीसता हूँ।
मैं
पीड़ाएँ पीसता हूँ,
कल्पना
अनुभूति के सिलबट्ो पर।
क्रौच्ची-व्यथा
हो या गोदान की कथा-
मेरे
हाथ हर रगड़ पर चलते हैं।
परीक्षा-दीमको
से-
जब
बल्मीक हो जाती हैं सम्बेदनाएँ,
तब
भी मैं
युग
के ललाट पर-
ऋषित्व
का अवहेल मलता हूँ।
क्योंकि
मैं पीड़ाये पीसता हूँ।
हर
सुबह,
हर
शाम,
क्षितिज
की छाती पर,
रगड़-रगड़
दिनकर की रक्तिम व्यथाएँ-
हिमवान्
के कर्पूरि-शरीर पर मलता हूँ
अरूण
हो जाती है सम्पूर्ण-प्रकृति,
क्रोध
में-
या
प्रणय बोध में,
समझ
नही पाता,
किन्तु,
इस
संशय में ही विकीर्ण कर देता हूँ-
ह्दय
की धैर्यशालिनी-इयत्ताएँ।
ताकि-
दिन
और रात दोंनो-
अपनी
व्यथाएँ,
नीलकण्ठ
से घूँट-घूँट पी सके,
और
कम से कम,
शाम
से सुबह-सुबह से शाम-
किसी
तरह जी सकें।
जीवन
के कितने ही मानदण्ड मैंने तोडे़ हैं-
फिर
भी जीवन्त हूँ,
युग-सत्य-सा-
किसी
व्यथा का आदि तथा किसी का अंत हूँ।
मैं
पीड़ाएँ पीता भी हूँ।
दानवता
की बर्बर-बुभुत्सा में,
कटती
जब बेचारी गायें
मिमिआती-बकरियाँ,
नुचती-मुर्गिया,
भुनती
मछलियाँ
जलती
बधूटियाँ,
चटचटाती
अर्भकों की अस्थियाँ,
तब
भी मैं,
सिसिआती
सम्वेदनाओं में,
जले
हुये ऊन जैसी,
अपनी
आत्मा समेट लेता हूँ।
अणु
से अणुतम होता हुआ-
विराट
की नस-नस में
गर्म
रक्त सा दौड़ने लगता हूँ
क्योंकि
वाष्प बनने के पहले-
जल
भी उबलना जानता है।
मेरी
उबाल-
सागर
की छाती पर ज्वार बनती है
कभी
आतप,
कभी
तूफान जनती है।
दिन
में कई बार
रक्त
तप्त तवे पर रोटी सा सिंकता हूँ
फिर
भी गोधूम की गन्ध नही छोड़ता।
मैं
पीड़ाएँ जीता भी हूँ।
जब
जनमता है मरण,
और
मारता है जन्म,
मैं
स्वंय लोरियों की अन्त्येष्टि में-
शामिल
होता हूँ,
कभी-कभी
तो-
श्मशानों
को भी जोत-जोत कर-
चहकीली-जिन्दिगियाँ
बोता हूँ
ताकि
मानवता की फसले उगें-
और
प्रकाश का विहान जगे।
जब
सुमनों को-
अंगारो
की परिभाषा रटाती-दोपहरी,
तृषित
हो जल मांगती है,
मेरी
सम्पूर्णता पसीने-पसीने हो जाती है-
आँखे
सावन-भादव की कसौटी बन जाती है।
क्या
कहूं-
पलकों
के पुलिन पर बैठा,
निरखता
रहता हूँ
काली-झील
में डूबा पूर्णिमा का चाँद।
वैसे
भी-
अश्रुमयी
हो तो ग्रीष्म-
खिलीं
हो तो वसन्त-
सिमटीं
हो तो शिशिर-
अलसाई
हो तो हेमन्त-
प्रेममयी
हों तो शरद-
छहों
ऋतुएँ-
मेरी
पलकों में-
पलती
है।
एक
काव्य चेतना लिए,
ढलती
हैं।
साँचे-स्वर्णाभरण-सी।
क्योंकि
मैं पीड़ाएँ पीसता ही नहीं-
पालता-
और,
सँवारता
भी हूँ।।
अष्टमी आयी है।
जीवन
की भाद्रपदी-अष्टमी-
यौवन
की इठलाती आंच में-
न्वनीत-सा
गला रहा हूँ-
नवयुग
का अस्तित्व घृत बनने को।
व्यस्तताओं
की भाग दौड़ में-
बौद्विकता
के बाल पक गये
किन्तु
सुकुमार-भावों की
मेंसे
भी नहीं भिनीं अभी।
चाहता
हूँ-
भावुकता
जब तक तरूणी हो,
इस
पल पल परिवर्तित-परिवेश को,
उसी
कालिन्दी-कुलस्थ श्याम-क्षीर में,
नीर
की तरह समांग कर दूँ।
समर्पण
का महारम्स होने तक
हर
कल्पना का-
कात्यायनी-व्रत
पूर्ण हो जाय।
काव्य-कला
जीवन का सुन्दर-सत्य हो।
कृत्रिम-सप्तभंगी-कुरूपताएँ
धुल जाँय,
अमर्यादित-इयत्ता
में नंगी-नहाती,
युग
सभ्यता का चीर हरण,
ळे
चीरवर्द्धन। तुम्हीं को करना है।
उसका
यह नंगापन तभी अदृश्य होगा,
वसन
रूप होगी होगी अकांड-निर्वस्मता।
कुलीनता
अब कृष्णा न रही,
जो
कृष्ण के लिए अम्र्त होगी।
वत्सलता, अब कृष्णा न रही,
जो
कृष्ण के लिए अम्र्त होगी।
वत्सलता, अब देवकी न रही जो-
शिशुओं
का रक्त अपने चक्षुओं से बहाती-
दुष्ट
दलन को चहेगी।
प्रतीक्षा,
अब
सुलभा या शबरी कहाँ-जो-
अपनी
नग्न-असभ्य-वास्तविकता भी,
भावुकता
में भूल जायेगी
क्या-क्या
कहूँ नन्दनन्दन।
बनावट
के वृन्दावन में प्रणति-राधा भी न रही,
जो
सौ वर्षो का वियोग ढोती,
कालिन्दी-कूल
की ही वाच्छा करेगी।
अब
जो भी युग सत्य है,
वह
विकृत है,
भयावह
हैं।
इस
क्षितिज तक-
प्रचण्ड
चीत्कार।
अब
किस मुख से कहु-
तुम
आ जाओ,
लज्जावनत
हूँ मैं।
पुण्डरीकों
ने प्रणयक्षेत्र की सीमाएँ,
सील
कर दी हैं।
आदर्श
की बूढ़ी-भूखी-परिभाषाओं के,
पेट
काटते थियेटर-
अब
आत्मधाती
दस्ते तैयार करते हैं।
सर्वन
क्रौर्य,
उन्माद,
आक्रोश
जैविक-क्षरण,
और
मरण।
दौर्वल्य-कायरता
के कंधो पर
निकली
मानवता की शव यात्राएँ,
महाध्वंस
का श्मशान ढूढती हैं।
भ्रूण-परीक्षण
की पूतना
अब
गर्भ में ही शिशुओं को
निगल
जाती है।
द्रौण्यस्त्र
से दग्ध,
मनुष्यता
का बीज,
बचाने
को,
तुम्हें-
गर्भ
में ही जाना होगा।
सब
कुछ लुटकर भी
अभी
शेष है-
उत्तरा
की,
सिसकती-अस्मिता।
यद्यपि
सुरक्षित भविष्य,
अभी
भी-
प्रश्नों
के गर्भ में है।
यही
सब सुनने को अष्टमी आयी है।
जे
तुम्हें गर्भ में ही सुनायेगी
तब
शायद
आपको
भी
स्व
प्राकट्य पर विचार करना पड़े।
जन्म
से ही-
अतिवादों
के घेरे तोड़़ने होंगे।
हे
कंस दमन।।
सुनकर जाना मीत
सुनकर
जाना मीत।
मेरे
सपनों का अन्तिम जीवन संगीत।
-रून-झुन-चुन-मुन-
वीणा
की वह अलहड़-झंकार।
साजों
का शैशव,
तेरे
चुम्बन की ललक लिये,
बिथुरी-अलकावलि,
धूल-धूसरित
सकल-शरीर,
जन
सकोगे क्या कंगालिन-पीर
हे
कोमल रघुबीर।
अभी-अभी
अन्जन आँजे हैं
तेरे
करूणिल-कर ने।
किन्तु
अश्रुओं ने धो डाली,
दृग
की श्यामल प्रीति।
कहाँ
गया ?
वह
प्रणय-परस,
निरखो।
निरखो।
आँखे
बिसूरती
फेंक
रही मुक्ता की लरियां
चुन-चुन
लो, हे मानद।
गिर-गिर-प्रबल-थपेड़े
खा-खा झंझाओं से,-
चिहुँक-चिहुँक
छन्दिल सी चम्पक-शम्पाओं से,
कुत्सित-कंगाली-कलुषित
कचरे गाँवों से,-
खग
कुल से भ्रमरों से, किल खिल-सरिताओं से-
तिनके-तिनके
तान बटोरी।
अभी-अभी
कल ही तो पग में नुपुर बाँधे,
आज
भोर ही कटि ने किन्चित् थिरकन खोली,
भरी
हुई है-
लास्य-कल्पनाओं
से उर की नन्हीं-झोली।
प्राण
अभी-
पीड़ाओं
से संगीत सीखते,
इस तुतले-सरगम पर जितना जी चाहे-
हँस
लो।
पर
मुँह मत फेरो।
नटवर।
अभी-अभी
कृछ पल में ही गाने का पल-
आने
वाला है।
जब
गाऊँगा-
अम्बर
झूमेंगा
सागर
ताली देगा।
बरसेगा
आह्लाद चन्द्र, रवि आतप पीलेगा।
स्वर-स्वर
में मेरा तेरा ही अमृत होगा।
निश्चित
ही-
स्नेहिल-कर
से-
फिर
मुझे उठा लेना
अहा।
अमृतमय-
मुझे
चूम लेंगे
बरवस
से अधर तुम्हारे।
शान्त,
प्रेममय,
बन
जायेगी,
उर-समष्टि
की जलन-
तप्त
जीवन की।
तभी
सफल होगा मेरा संगीत
ह्दय
का गीत।
सुन
कर जाना मीत।
मेरे
सपनों का मधुरिम जीवन-संगीत।।
नव्य युग आया है।
जहाँ
कोई बन्धन नहीं,
जहाँ
स्वातन्मय नहीं,
वाह्यतः
संकोच नही,
अन्तर
विकास नहीं
जहाँ
मर्यादा नही,
उड़ान
में बाधा नहीं,
भावों
का श्याम और छनदों की राधा नहीं,।
जहाँ
पाप राजनीतिक,
जिन्दगी
सुपर-सेप्टिक,
जहाँ
अधरों में नम्रता नज़रों में नाज़
अंग
अंग अहं भरी वासना की खाज,
जहाँ
कामुकता में कू्ररता, पर क्लीवता,
पौरूष
का अर्थ जहाँ मात्र उत्तेजना,
परिचय
उरोजों से, अपरिचय
स्वार्थ
का विलास मुखर
पग-पग
पर संशय।
जहाँ
मेल जोड़ बढ़ा किन्तु नाटकीय,
महत्
आश्चर्य।
खुला
सभी गोपनीय,
किन्तु
कहाँ बन्द हुयी मनुजता वरीय।
जहाँ
नर पर से नर का उठ गया विश्वास
ऐसा
विकास युग,।
वैज्ञानिक-आस
युग,
अनजाना
रास युग,।
मत
जाना सड़को पर घूमने अकेले,
अल्ट्रा
माडर्न यह-
सभ्य-युग
आया है,
नव्य-युग
आया है।।
भारत की तस्वीर बनाएँ।
आओ।
आओ।।
भारत
की तस्वीर बनायें।
फूलो
से-फलियों से,
मटमैली
कलियों से
घुँघराली
गलियों से
क्या
नही यहाँ।
सप्तरंग
डूबी तूलिकाएँ-
जीवन्तिनी-समाधियों
के अनुभूत-रेखाचित्र-
तराश-तराश
के सजाये गये अन्तर्पट,
नवोन्मेष-रञ्जित-कर।
सामग्रियाँ
काफी हैं।
किन्तु
तश्वीर कैसी हो-
नवीन
या-
प्राचीनों
से चयनित ?
सुना
है-
अनंत
युगो की अनंत-तश्वीरे-
निचोड़
निचोड़कर,
इत्र
सी चुवाई गयी संस्कृतियाँ
कलायें-नवोन्मेष-आकृतियाँ-
रेखाचित्र
और तश्वीरें,
वे
चमकीले विश्वास-
स्वर्ण
की कसौटी पर राँगे सा वह गये,
और
बुद्धि सत्य अब,
लौह
युग की परीक्षा में,
घनों
की मार से चद्र से फेलता जा रहा।
कितना
विस्तृत होगा नवयुग का चित्र।
चिन्तन
न रहे।
फिर
भी-
तश्वीर
तो बनाती है
-रचनी या चुननी है।
किन्तु
नयी काट-छाँट,
तोड़-जोड़,
उठा-पटक,
से
बेहतर है-
प्राचीन-विरासतें
ही निचोड़ी जाय,
अवश्य
कोई न कोई तश्वीर सुमेगी इत्र -सी,
शाश्वत्-वर्तमान
वाली।
सावधानी
इतनी रहे-,कि-,
तेजाबी, युग में घुलनशील मापदण्ड,
सड़ने
न पाये।
नहीं
तो तश्वीर इत्र सी नही, विषैली-शराब सी चुयेगी।
इसीलिए
कहता हूँ-
भारत
की तस्वीर बनाओं,
फूलों
से-फलियों से-
गरिमा
मयी-कलियों से।।
सत्-चित्-आनन्द
जब
कोई सिसृक्षा,
मेरे
अन्तस् को कुरेदती है,
मुझे
तुम्हारे, विराट-सत् की याद आती है।
जीवन
की प्रत्येक कृति-
व्यापक-सत्
के लिये ही तो विकल हो रही।
ज्ब
मेरा मानस,
किसी
जिज्ञासा से लहरित होता है,
उद्भावनाओं
के उन्मेष,
विराट
चित् की वीवियाँ ही हैं।
जब
कोई स्नेहिल मुस्कान,
ह्दय-कलिका
का विकास बुनती है-
मेरी
जीवन-तरणी तुम्हारे-
आनन्दाब्धि
के झोकों में डूब-डूब जाती है।
हे,हे, सच्चिदानन्द
घन।
मेरा
सबकुछ तुम्हीं तो हो।
डूब जाने दो
कम
से कम,
एक
पल को ही,
मुझे
डूब तो जाने दो
मेरे
शान्त-अतल में।
मेरा
परिवार,
मेरा
घर-बार,
मेरा
बाजार
मेरा
भोगा संसार,
गम्भीर-समुद्र
की तह में खो जाने दो।
दिक्
न करो मुझे।
व्यस्तताएँ
जीते-जीते बहुत थक गया हूँ मैं।
क्षणिक
आराम कर लेने दो,
उस
आराम कुंज में,
शाश्वत्
आत्माराम,
उस
राम में।
ये
सिसृक्षाएँ,
जिज्ञासाएँ,
ये
आशाएँ-
सभी
कुछ तुम्ही जिओ,
मुझे
सौप दो मेरा मरण
मेरा
शाश्वत्-जीवन,
हे
मेरे रमण।
तुममें
मैं समाता जा रहा हूँ।
परमानन्द
बन,
स्वंय
में ही।।
दम्भ ही तो
वैभव
विलासिता,
सुख-शान्ति,
स्वं
प्रतिष्ठा के लिए,
विद्या
का,
कला
का,
साधुता
का,
ज्ञान
का,
दम्भ
ही तो हो रहा हूं मैं।
जन्म
से ही पाखण्ड-
पाखण्ड
लिए
खण्ड-खण्ड
हो गया हूं मैं।
बहिर्मुष,
दिग्भा्रन्त,
वासना
का धूमाकुल ज्वलित-पिण्ड,
विल्कुल
नवयुग की पहचान जैसा,
अनिर्वाच्य।।
कब तुम्हारा अर्चन करूँगा
दारिद्रय
की काल कोठरी से निकल,
कब
तुम्हारा अर्चन करूँगा-
हे
मेरे आत्म वैभव।
संकटो
के शिकज्जों में कसा,
जीवन
के ऊ्हापोह में फंसा,
अति
विवशता में ही कठोर-ह्दय बना हूँ में।
माता-पिता
का अकिच्चन्-वात्सल्य भी-
मुझे
द्रवित न कर सका था,
पर
आज मुझे,
मेरे
पापिष्ठ मै ने रूला दिया।
भौतिकता
की सड़ान्ध भरी-अहमियतों ने,
सुरभित-सत्य
से वंचित रखा।
दिया
तो तुमने सर्वस्य था मुझे
किन्तु
मेरी मूर्खता ने कृपण कर दिया
हे
मेरे आत्मन्।
मेरे
अन्तस् में जागो।
झकझोर
दो मरैल-अस्मिताएँ।
शिर
पर लदी हुयी सड़ी खेपें,
फेंक
दू मैं।-
दूर-बहुत
दूर।
अनंत-अचिनत्य
गहराइयों में।
रोम-रोम
में रत्नों के कल्पवृ़क्ष उगे,
पूरा
ब्रह्माण्ड-
उल्लास
के फूलों से भर दू।
ऐसा
सामथ्र्य जागो।।
ऐसी
अनुभूति पागो।।
हे, मेरे आत्म गौरव।।
भूखा-आदमी
वैभव
वाले तो लाखों है,
इस
बाजार में,
किन्तु
है कोई हिम्मत वाला,
जो
मुझे नहीं
सिर्फ
मेरी भूख खरीद ले।
भूखा
व्यक्ति भी-
ब्हुतेरी
चीजे लाया है बेंचने,
भुखमारी-
क्ंगाली-
मुफलिसी-
और
साथ लाखों मजबूरियाँ,
किन्तु,
हिरण्य
की अक्षिओ वाले-
उसे
ही सामान समझ लेते हैं
और
लगाते हैं सामान से-
सामान
की बोलियाँ।
-अज़ीबोगरीब है यह-
खरीदने
वाला।
चेतन
को ही जड़ समझता है,
पर
बिकने वाला-
जडवत्
अपने चेतन को सता रहा है,
और
अपनी बेबसी पीठ पर लादे-
नकेल
लगे ऊट की तरह,
चला
जाता है उसी के पिछे-
मूकवत्,
बधिरवत्
मृतकवत्।
क्योंकि
बिक चुका होता है-
वह
भूखा आदमी।।
आज की कविता
काँटा,
पाँव
में मात्र गड़ता ही नहीं,
गड़कर
टूटता भी है।
करकता, फफकता भी है,
कही
यदि सड़ा हो-
तो
ज़हरवाद बन जाता है।
ज़हरवाद
का इलाज सिर्फ दो है-
आपरेशन
या मरण,
आज
की कविता ज़हरवाद तो नही
मगर
दलके हुये गलके सी ज़रूर अगियाती है।
कौन
देख पाता है कोई न कोई पंक्ति मवाद बन जाती है।
कौन
देख पाता है कोई न कोई पंक्ति मवाद बन जाती है।
क्योंकि-
ह्दय
में भाव अब कमलवत् नही खिलते-
किन्तु
विषावन्त-काँटे सा चुभते हैं
एक
ज्वलन्तशील अनागत लिये।।
मैं भी देखूं तुम्हें
डबडबाई
हुयी आखों से,
कितनी
बार,
निहारने
की कोशिश की तुम्हें
ह्दय
के दर्पण में।
किन्तु
वहां तो मैं ही नज़र आया,
मेरा
चेहरा,
विकृत,
वित्रस्त,
भयानक,
दर्पण
मैं देखूँ और तुम नज़र आओ,
यह
हो ही कैसे सकता है।
मैं
न हो ऊँ और तुम ही देखो मुकुर लेकर,
पर
क्या ही सुन्दर हो,
तुम्हारे
साथ ही मैं भी देखूँ तुम्हें
अपने
आइने में,
विल्कुल
कपोल से कपोल सटाये।।
निजपन मोहे भाना
रूनझुन
रूनझुन पायल बोले
खन
खन बोले चुडि़या
मीठी
मीठी बयना बोले
नयना
मुझे लुभाना
ना
ना निजपन मोहे भाना।
चन्द्रमुखी
चितचोरन रानी
श्यामल
कुन्तल बाली
सरस
रसीली लाली अधरा
लाली
पटमोहे भाना
ना
ना निजपन मोहे भाना।
तू
चन्दा नितदिन छिप जावै
इक
चन्दा का घटना
सबसे
सुन्दर सपना
निजपन
मोहे भाना।
हे
रानी अधरामृत वाली
चुम्बन
मोहे पिलाना
प्रेम
फाग बन आना रानी
प्रीतम
मोहे लुभाना निजपन...........
सूनसान
घर आओ चन्दा
चितवन
तो हे बुलाना
पल-पल
तेेरा सुमिरन मेरा
निजपन....................
चातक
की गति हो गयी मेरी
श्यामा
ध्वनि सुहाना
कू-कू
जस पिकवयना बोले
निजपन
मेरा भुलाना
निजपन
मोेहे भाना
अक्षर-अक्षर
रानी बस गयी
अब
क्या सुनना पढ़ना
बिन्दु
बिन्दु में देखूँ तोही
कण-कण
मोहे भुलाना
निजपन
मोहे भाना
सुर
संगीत नटी मृदु बाला
गोरी
लोचनि तू रजनीगंधा
तेरा
रूप लुभाना
निजपन
मोहे भाना
मन्थर
गति से चलना तेरा
मन्द-मन्द
मुसुकाना
गोरे
मुख पर काली कजरा
अतिशय
मोहे भाना
निजपन....................
प्रीतम
नाना रूप सलोना
तेरा
रूप बुलाना
आ
जा अँखिया तोहे बुलाना
री
चन्दा मेरे घर आजा
दूर
है तेरा डेरा
शील
सुशील है रानी प्यारी
भाभी
तोहे बुलाना
हाँ
हाँ साजन तोहे बुलाना।
निजपन
मोहे भाना।
दूर
क्रूर वह मितवा मेरा
झूठे
तोहे रूलाना
आजा
सजनी आजा सजनी
मन
वा तोहे बुलाना
निजपन
मोहे भाना।
सुन्दर गाओ तुम एक गीत
सुन्दर
गाओ तुम एक गीत
जिसमें
झूमें हम दो मीत
छा
जाए घटा और गरजे अम्बर
ढोल
बजाए ढम ढम सागर
मधुर
सुनहरा गीत
प्रीत
मधुरिया सत्रह की
सुन्दर।
गाओ तुम इक गीत
हर
कलियों पर मधुकर गूंजे
हर
डाली पर कोकिल कंूजे
हर
रजनी में गंधा गमके
हर
विमला पर प्रीतम तरसे
मधुर
सुनहरा गीत प्रीतमधुरिया
मेरी
मधुरिया.....................
सुन्दर।............................
मधुर।
सुनहरा सुन्दर गीत
जिसमें
तारिख सत्रह हो
जिसकी
उमरिया सत्रह हो
पन्द्रह
से सत्रह तक गाओ
हम
रही को याद दिलाओं
सात
स्वरों में तुम गाओ
सात
दिनों तक तुम ’’
सात
जन्म की गाथा ’’
सात
जनों को तुम्हीं मनाओ
आओ
प्रीतम आओ मीत
सुन्दर।
गाओ तुम................
जाकर भी आया कर
जाकर
भी आया कर
ऐ
नदियों की लहरें सी
तू
भी कभी कंकर पत्थर
साथ
बहाएगी।
कभी
रेत लाएगी।
जाकर
भी आया कर
ऐ
नदियों की लहरें सी
एक
दिन तू
तट
जरूर बहाएगी।
आँख मिचौली का खेल
कहां
जाते हो-छुपने
अब
छुपोगे तो और सा होगा
बचपन
की खुशी
आनन्द
एहसास न होगा।
जो
छुपने में होता था
आँख
मिचैली के खेल में
अब
छुपोगी तो बस इंतजार होगा
प्यार
भरा कसक होगी।
बस
तुम्हारे लिए वेकरार होगा।
जो
बचपने में न होता था।
आंख
मिचैली के खेल में
अब
छुपोगे तो छोड़ जाओगे मुझे
अकेला, पागल बनाकर
अनवरत
खोजने के लिए छोड़ जाओगे
जो
बचपने में न होता था
आँख
मिचैली के खेल में
अब
छुपोगे तो उम्मीदें कम होगी
मिलने
की।
शेष
रातें,
सात
युगों सी लम्बी, एकाकी वेचैन होगी
जो
बचपने में न होता था।
आँख
मिचैली के खेल में।
यादें
कभी
दूर द्वार के ओटों से
छुपकर
देखा करती थी
वो
दिन याद अभी आते हैं
जब
मिलकर चुपके हँसती थी
ह्दय
द्वार तक नित आती थी
स्वर्णिम
स्वप्न सजाती थी
चैराहे
से वह दिल में आकर
पथ
को रोज भुलाती थी।
अभिलाषाओं
का जीवन पथ
पत्रों
में भर लाती थी
बंद
द्वार वह रोज सवेरे
मन
का खोला करती थी।
क्षण-क्षण
पल-पल हँसना रोना
डग
में रोज सुनाती थी
कभी
दूर द्वार ओटों से छुपकर देखा करती
थी।
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