प्रायः प्रत्येक मङ्ल कार्य में
पञ्चाङ्ग पूजन अपेक्षित है। कार्यारम्भ से पूर्व गौरी गणेश, कलश, मातृका, घृतमातृका, नवग्रह, पञ्चलोकपाल, दशदिग्पाल, योगिनी आदि देवों की पूजा की जाती
है। पुण्याहवाचन एवं साङ्कल्पिक नान्दी श्राद्ध पूजनोपरान्त प्रधान देव
पूजन-विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य आदि देवों की यथाविधि पूजन की जानी चाहिए।
व्रतोद्यापन एवं
विशेष अनुष्ठान के समय यज्ञपीठ की स्थापना का विशेष महत्त्व होता है, अतः प्रधान देवता की पीठ रचना पूर्वाभिमुख पूर्व दिशा के मध्य में की जाय।
ईशान कोण में ग्रह, मातृका, घृतमातृका, योगिनी अग्निकोण में वास्तु नैऋत्य में क्षेत्रपाल, वायव्य कोण में ग्रह आदि देवों की कलश स्थापन पूर्वक पीठ रचना अपेक्षित
है।
उपर्युक्त पीठ
रचना के प्रकार विभिन्न रंगों के अक्षत या विविध रंग के अन्न के दानों से की जाती
है। सभी व्रतोद्यापन-अनुष्ठान में-सर्वतोभद्रपीठ विशेष रूप से शिवपूजन में
चतुर्लिङ्तोभद्रपीठ की रचना की जाती है। चक्र के रेखाचित्रों से उसका अभ्यास करना
चाहिए।
प्रधान देवों की
मूर्तियां यथाशक्ति स्वर्ण-रजत-ताम्र आदि धातुओं की बननी चाहिए और विधिपूर्वक उनकी
प्रतिष्ठा करके उनका अर्चन किया जाय।
अर्चना और पूजोपकरण-पूजन
के अनेक प्रकार प्रचलित हैं और शास्त्रों में पञ्चोपचार, षोडशोपचार शतोपचार आदि विविध वस्तुओं से अर्चना के विधि विधान की विस्तार
से चर्चा है। श्रद्धा-भक्ति-शक्ति के अनुसार उनका संग्रह करना चाहिए। देव पूजन में
भावशुद्धि अपेक्षित है और पितृकार्य में वाक्य शुद्धि अपेक्षित होती है-‘‘पितरः वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवताः’’ अतः
संकल्प मंत्र की शुद्धि संस्कृत भाषा के अभ्यास से ही प्राप्त हो सकती है।
महर्षि पतञ्जलि
ने महाभाष्य में बताया है ‘जैसे लकड़ी के भीतर रहने वाली आग बिना अग्नि के
संपर्क के बाहर नहीं आती वैसे मंत्र की शक्ति अर्थज्ञान के बिना प्रभावी नहीं होती’’ उसी प्रकार शुद्ध वाक्य की रचना के बिना अभीष्ट फल की प्राप्ति भी नहीं हो
सकती। इसलिए मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनका अर्थज्ञान अवश्य कर लेना चाहिए।
बहुत से वैदिक मंत्र सन्दर्भ सूचक होकर भी तत्-तत् देवताओं के आवाहन अर्चन के लिए
प्रयुक्त होते हैं जिसका मीमांसाशास्त्रा के ऋषियों ने उनका समर्थन किया है।
मीमांसा शास्त्र के मनीषियों ने तर्क सम्मत विचारों के बाद सिद्ध किया है कि मंत्र
ही देवता हैं। यदि मंत्र नहीं तो देवता भी उपस्थित नहीं होंगे इसलिए मंत्रों की ही
महिमा सर्वोपरि है। यज्ञ करने वाला यजमान और पौरोहित्य कर्म में संलग्न आचार्य को
तद्रूप होकर ही अर्चना से सिद्धि प्राप्त होती है -
‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ ऐसा
निर्देश लक्षित करता है कि तन्मयता और भावशुचिता से ही अभीष्ट सिद्धि होती है।
देवार्चन के लिए संग्रहणीय द्रव्य-
पञ्चगव्य- गोबर, गोमूत्रा, गोघृत-गोदुग्ध, गोदधि यथाविधि।
पञ्चामृत- गोदुग्ध-गोघृत-गोदधि-मधु-शर्करा।
पञ्चमेवा- दाख-छुहाड़ा-बादाम-नारियल-अखरोट आदि।
नवग्रह समिधा- अर्क, पलास, खैर, अपामार्ग, गूलर-पीपल-शमी-कुश-दूर्वा।
पूजा के उपकरण-
गन्ध
(चन्दन) पुष्प, पुष्पमाला, तुलसी, विल्वपत्र, परिमल
द्रव्य-सिन्दूर-अबीर-इत्र-अष्टगन्ध आदि।
ऋतुफल- ऋतु के अनुसार फलों का संग्रह करना चाहिए। कुछ फल सभी ऋतुओं में प्राप्त
हैं किन्तु कुछ फल ऋतु विशेष में मिलते हैं। पान-सुपारी-इलाचयी-लवंग-मिष्टान्न
वस्त्र उपवस्त्र-रक्षा सूत्र-धोती-साड़ी-गमछा अन्य सौभाग्य द्रव्य आभूषण आदि
यथाशक्ति।
उपर्युक्त वस्तुओं का यथाशक्ति संचय
करना चाहिए किन्तु हम देवार्चन कर रहे हैं अतः सुन्दर; उत्तमोत्तम संक्षिप्त किन्तु उपयोगी हो, इसका
सतत् ध्यान रखना अपेक्षित है।
उपयोगी सप्तधान्यादि तथा पूजा में बार
बार आने वाले शब्दों के विवरण-
पूजोपकरण में सप्तधान्य, सप्तमृत्तिका आदि का प्रयोग किया जाता है, निम्नांकित
कारिकाओं में उनका संग्रह है -
1. अंगन्यास – ह्रदय , शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं ।
2. अष्टधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा , कांसा और पारा ।
3. आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह
में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं ।
4. अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है ।घड़ा या कलश में
पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं । अर्घ्य पात्र में दूध , तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला
जाता है
5. अष्टगंध – (क) अगर , तगर , गोरोचन, केसर , कस्तूरी , ,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर ( देवता की पूजा हेतु )
(ख) अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम ,गोरोचन , जटामासी , शिलाजीत और कपूर (देवी की पूजा
हेतु )
6. करन्यास – अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने
को ‘करन्यास’ कहा जाता है
7. गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम ।
8. ताबीज – यह तांबे के बने हुए बाजार
में बहुतायत से मिलते हैं । ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं । सोना , चांदी , त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के
ताबीज बनवाये जा सकते हैं ।
9. तर्पण – नदी , सरोवर ,आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े
होकर, हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है । जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो ,वहां किसी पात्र में पानी भरकर
भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न
कर ली जाती है ।
10. दशोपचार – पाद्य , अर्घ्य , आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने
की विधि को ‘दशोपचार’ कहते
हैं ।
11. दशांश – दसवां भाग ।
12. त्रिधातु – सोना , चांदी और लोहा । कुछ आचार्य सोना , चांदी, तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं ।
13. नैवैध्य – खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुयें ।
14. नवग्रह – सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध, गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु ।
15. नवरत्न – माणिक्य , मोती , मूंगा , पन्ना , पुखराज , हीरा , नीलम , गोमेद , और वैदूर्य ।
16. पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा, तांबा
और जस्ता ।
17. पञ्चपल्लव- अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षाः
न्यग्रोधश्चूत एव च।
पञ्चपल्लवानां स्यात् सर्वकर्मसु शोभनम्।
पीपल, गूलर, पाकड़, बरगद
और आम के पल्लव पञ्चपल्लव कहे जाते हैं।
18. पञ्चरत्न- सुवर्णं रजतं मुक्ता लाजवर्तः
प्रबालकम्।
अभावे सर्वरत्नानां हेम सर्वत्र योजयेत्।।
सोना, चांदी, मोती, लाजावर्त
और मूंगा ये पञ्चरत्न कहे जाते हैं।
19. पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं ।
20. पंचामृत – दूध , दही , घृत , मधु ( शहद ) तथा शक्कर इनके मिश्रण
को ‘पंचामृत’ कहते हैं ।
21. पंचगव्य – गाय के दूध , घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं ।
22. पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़ ।
23. भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल । मन्त्र
प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए , जो
कटा-फटा नहीं हो ।
24. मन्त्र धारण – किसी भी मन्त्र को
स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु
यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं
भुजा में धारण करना चाहिए ।
25. मधु त्रय- आज्यं क्षीरं मधु तथा
मधुरत्रयमुच्यते।
घी, दूध तथा मधु ये तीनों मधुत्राय कहते
जाते हैं।
26. मुद्राएँ – हाथों की अँगुलियों को
किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है । मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं ।
27. सप्तधान्य-
यवगोधूमधान्यानि तिलाः कंगुस्तथैव च,
श्यामकं चणकं चैव सप्तधान्यमुदाहृतम्।
जौ, धान, तिल, कंगनी, मूंग, चना और सावां ये सप्तधान्य कहलाते हैं।
28. सर्वोषधि-
मुरा मांसी बचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम्।
सठी चम्पकमुस्तं च सर्वौषधिगणः सृतः। (सर्वाभावे शतावरी)
मुरा, जटामांसी, बच, कुण्ठ, शिलाजीत, हल्दी, दारुहल्दी, सठी, चम्पक, मुस्ता
ये सर्वोषधि कहलाती हैं।
कुष्ठं मांसी या हरिद्रेद्वे मुरा शैलेयचन्दनम्
बचा कर्पूरमुस्ता च सर्वौषधयः प्रकीर्तिता।
(कूठ, जटामांसी, मुरा, चन्दन, बच, कपूर, मुस्ता। दारु हल्दी, हल्दी।)
29. सप्तमृद-
गजाश्वरथ्यावल्मीके संगमाद् गोकुलाद्दात्।
राजद्वारप्रदेशाच्च मृदमानीय निक्षिपेत्।
घुड़साल, हाथीसाल, बाँबी, नदियों
के संगम, तालाब, राज द्वार
और गोशाला- इन सात स्थानों की मिट्टी को सप्तमृत्तिका कहते हैं।
30.षोडशोपचार- आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन , स्नान , वस्त्र, अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप , नैवेद्य , ,अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं ।
31. सम्पुट – मिट्टी के दो शकोरों को
एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना ।
32. स्नान – यह दो प्रकार का होता है ।
बाह्य तथा आतंरिक ,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान
जप द्वारा होता है ।
33. हृदयन्यास – ह्रदय आदि अंगों को
स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ‘हृदयन्यास’ कहते हैं।
अर्चना सम्बन्धी ज्ञातव्य
आचार-काम्य कर्म की सफलता सपत्नीक यज्ञ करने पर ही निर्भर है। शास्त्रा में पत्नी
शब्द की रचना यज्ञ सम्बन्धी होने के कारण ही हुई है। पत्नी के उपवेशन की
शास्त्राीय विधि निम्नवत् है -
वामे सिन्दूरदाने च वामे चैव
द्विरागमे।
वामेऽशनैकशय्यायां भवेज्जाया प्रियार्थिनी।
सर्वेषु शुभ कार्येषु पत्नी दक्षिणतः
शुभा।
अभिषेके विप्रपादक्षालने चैव
वामतः। (संस्कार गणपति)
आचमन-
गोकर्णाकृतिहस्तेन माषमात्रं जलं पिबेत्।
आचमनं तु तत्प्रोक्तं सर्वकर्मसु पावनम्।
प्राणायाम- नित्यं देवार्चने होमे सन्ध्यायां श्राद्धकर्मणि।
स्नाने दाने तथा ध्याने प्राणायामास्त्रयः स्मृताः।।
तिलक- तिलकं कुंकुमेनैव सदा मंगलकर्मणि।
कारयित्वा सुमतिमान्न श्वेतचन्दनं मृदा।।
प्रणाम के प्रकार- बाहुभ्यां चैव मनसा शिरसा वचसा दृशा।
पञ्चाङ्गोऽयं प्रणामः स्यात् पूजा सु प्रवराविमौ।।
साङ्कल्पिक नान्दी श्राद्ध के नियम-
अनाग्निको यदा विप्रः उच्छिन्नाग्निरथापि वा।
तदा वृद्धिषु सर्वासु साङ्कल्पं श्राद्धमाचरेत्।।
गणेश, विष्णु, शिव, देवी पूजन के लिए विधि निषेध -
नाड्गुष्ठैर्मदयेद्देवं नाधः पुष्पैः समर्चयेत्।
कुशाग्रैर्न क्षिपेत्तोयं वज्रपातसमो
भवेत्।।
अंगूठा से देवता का मर्दन नहीं करना
चाहिए न ही अधम पुष्पों से पूजा करनी चाहिए। कुश के अग्रिम भाग से जल नहीं छींटना
चाहिए। ऐसा करना वज्रपात के समान होता है।
नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं न तुलस्या गणाधिपम्।
न दूर्वयायजेत् दुर्गां बिल्वपत्रैश्च भास्करम्।।
अक्षत से विष्णु की, तुलसी से गणेश की, दूब से दुर्गा की और बेलपत्र
से सूर्य की पूजा नहीं करनी चाहिए।
अधोवस्त्रधृतं चैव जलेऽन्तः क्षालितं च यत्।
देवास्तान्न गृह्णन्ति पुष्पं निर्माल्यतां गतम्।।
अधोवस्त्र में रखा तथा जल द्वारा
भिगोया पुष्प निर्माल्य हो जाता है, देवता
उस पुष्प को ग्रहण नहीं करते।
शिवे विवर्जयेत् कुन्दं धत्तूरं च तथा हरौ।
देवी नामर्कमन्दारौ सूर्यस्य तगरं तथा।।
शिव पर कुन्द (चमेली की जाति) हरि
पर धतूर, देवी पर अकवन तथा सूर्य पर तगर नहीं चढ़ाना
चाहिए।
पत्रं वा यदि वा पुष्पं नेष्टमधोमुखम्।
यथोत्पन्नं तथा देयं बिल्वपत्रमधोमुखम्।।
पत्र या पुष्प उलटकर नहीं चढ़ाना
चाहिए। पत्र या पुष्प जैसा ऊध्र्व मुख उत्पन्न होता है वैसे ही चढ़ाना चाहिए
विल्बपत्र उलट कर चढ़ाना चाहिए।
पर्णमूले भवेद् व्याधिः, पर्णाग्रे पापसम्भव।
जीर्णपत्रां हरत्यायुः शिराबुद्धिविनाशिनी।।
पत्ते के मूल भाग को, अग्र भाग को, जीर्ण पत्र को तथा शिरा युक्त को
चढ़ाने पर क्रमशः व्याधि, पाप, आयुष् क्षय एवं बुद्धि का विनाश होता है।
ये तु पिण्डास्तृता दर्भा यैः कृतं पितृतर्पणम्।
अमेध्याशुचिलिप्ता ये तेषां त्यागो विधीयते।।
जिन कुशों के द्वारा पिण्ड दिये गये
हों और जिनसे पितृ तर्पण किया गया हो वे अमेध्य एवं अपवित्रा होते हैं। इनका त्याग
कर देना चाहिए।
प्रतिमाभाव में पूजन-
प्रतिमाभावे पूगीफलाक्षतरजतखण्डादौ आवाहनं कुर्यात्।
कुर्याद् आवाहनं मूर्तौ मृण्मय्यां सर्वदैव हि।
प्रतिमायां जले बद्दौ नावाहनविसर्जने।।
शालग्रामार्चने चैव नावाहनविसर्जने।
गन्धार्चन- अनामिक्या च देवस्य ऋषीणां च तथैव च।
गन्धानुलेपनं कार्यं प्रयत्नेन विशेषतः।
पितृणामर्चयेत् गन्धं तर्जन्या च सदैव हि।
तथैव मध्यमाङ्गुल्या धार्यो गन्धः सदा बुधैः।
पुष्प-पत्र की पवित्रता का काल- पङ्कजं पझ्रात्रां स्याद्दशरात्रां च
बिल्वकम्।
एकादशाहे तुलसी नैव पर्युषिता भवेत्।।
दीपदान विधि- न मिश्रीकृत्य दद्यात्तु दीपं स्नेहे घृतादिकम्।
घृतेन दीपकं नित्यं तिलतैलेन वा पुनः।
ज्वालयेन्मुनिशार्दूलं सन्निधौ जगदीशितुः।
सर्वंसहा वसुमती सहते न त्विदं द्वयम्।
अकार्यपादघातं च दीपतापं तथैव च।
पञ्चगव्य निर्माणविधि- पलमात्रां तु गोमूत्रामङ्गुष्ठार्धं च गोमयम्।
क्षीरं सप्तपलं ग्राह्यं
दधित्रिपलमीरितम्।
सर्पिस्त्वेकपलं देयमुदकं पलमात्राकम्।
जपसंख्या नियम- होमकर्मण्यसक्तानां विप्राणां द्विगुणोजपः।
इतरेषां तु वर्णानां त्रिगुणादि
समीरितम्।
सम्पुटे हवनं नास्ति प्रत्यूहेऽपि तथैव
च।
नानार्थसिद्धि वैकेल्ये होमे तु विपुलं चरेत्।
आरती
प्रत्येक धार्मिक कर्मकांड के बाद
भगवान की आरती उतारने का विधान है। जानकारी के अभाव में लोग अपनी इच्छानुसार भगवान
की आरती उतारते हैं। भगवान की आरती उतारने के कुछ विशेष नियम हैं।
आरती के दो भाव है जो क्रमश: 'आरात्रिक अथवा ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से
व्यक्त हुए हैं। नीराजन (नि:शेषेण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेष रूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित हो उठे चमक उठे, अंग-प्रत्यंग
स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय, जिसमें दर्शक या उपासक भली
भाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके।
दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत के आर्तिका प्राकृत रूप
है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य- उपासना से संबंधित है। ‘आरती वारना’ का अर्थ है- आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना।
आरती के नियम- पञ्चराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीये धौतवाससा।
पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टाङ्गेन यथाविधिः।
आरती कैसे करे?
आरती में पहले मूलमन्त्र (जिस देवता
का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस
मन्त्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल
आदि महावाद्यों के तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में धृत से या कपूर से
विषम संख्या की (1,5,7,11,21,101) अनेक बत्तियाँ
जलाकर आरती करनी चाहिये-विषम संख्याओ में तीन की संख्या वर्जित है।
तत्श्च
मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्।
महानीराजनं
कुर्यान्महावाद्यजयस्वनै:।।
प्रज्वलयेत्
तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे
पात्रे विषमानेकवर्तिकम्।।
साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की
जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों
से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पद्मपुराण में आया है-
कुंकुमागुरुकर्पूरघृतचन्दननिर्मिता:
वर्तिका: सप्त
वा पंच कृत्वा वा दीपवर्त्तिकाम्।।
कुर्यात्
सप्तप्रदीपेन शंखघण्टादिवाद्यकै:।
‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ
बनाकर अथवा दिये की (रुई और घी की) बत्तियाँ बनाकर सात बत्तियों से शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिये।’
‘आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के
चरणों में उसे चार बार घुमाये, दो बार नाभि देश में, एक बार मुख मण्डल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाये’इया तरह चौदह बार आरती घुमानी चाहिये।
आदौ चतु: पादतले च विष्णो- र्द्वौ नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु
चाङ्गेषु च सप्तवारा- नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।
आरती के अंग:- आरती के पाँच अंग होते हैं अर्थात केवल आरती करना अकेला नहीं आता
बल्कि उसके साथ साथ कुछ और क्रियाए भी होती है जिसे आरती के अंग कहा जाता है -
पंच नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।
चूताश्चत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।
पंचमं प्रणिपातेन साष्टांकेन यथाविधि।।
अर्थात - ‘प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि
के पत्तों से और पाँचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करे।’
1. दीपमाला के द्वारा - साधारणत: पाँच
बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है।
2. सोदकाब्ज – जल युक्त शंख चौदह बार
प्रज्वलित ज्योतियो द्वारा आरती करने से इष्ट देव के श्री अंगों को जो ताप पहुँचता
है उसके निवारण शीतलीकरण के लिए शंख में जल भरकर बार बार घुमाया जाता है,और बीच बीच में थोडा थोडा जल भूमि पर छोड़ा जाता है शंख के अभाव में शुद्ध
पात्र द्वारा भी निर्मच्छन किया जाता है।
3. धौतवास - अर्थात धुला हुआ वस्त्र, दाये हाथ में शुद्ध स्वच्छ मुलायम और सुखा वस्त्र लेकर उसी प्रकार घुमाया
जाता है इसका भाव यह है कि जल से शीतलीकरण करते हुए जो भावमय जल बिंदु इष्ट के
श्री अंगों पर पड़ गए हो उन्हें पोछना।
4. चमर – मयूरपिच्छ का पंखा लेकर श्री
विग्रह से ऊपर हवा में लहराते हुए धीरे धीरे घुमाना इस प्रकार शीतल मंद पवन से
इष्ट को आराम पहुँचाना चमर को जोर से तीव्र गति से पंखे कि भांति नहीं चलाना
चाहिये।
5. दंडवत् – साष्टांग प्रणाम इसका भाव
स्वतः स्पष्ट है आत्म निवेदन–समर्पण और क्षमा प्रार्थना
करना।
आरती लेने का अर्थ – ऐसे कहा जाता है कि प्रज्वलित दीपक अपने इष्ट देव के चारों ओर घुमाकर उनकी
सारी विघ्र-बाधा टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है- उनकी ‘आर्ति’ (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी
भाव के द्योतक हैं यह ‘आरती’ मूलरूप में कुछ मन्त्रोंच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के भाव से उतारी
जाती रही होगी। आरती के साथ सुन्दर-सुन्दर भावपूर्ण पद्य-रचनाएँ गाये
जाते हैं।
आरती देखने का महत्व
आरती करने का ही नही, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-
नीराजनं च य: पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं
पदम्।।१
धूपं चारात्रिकं पश्येत् कराभ्यां च प्रवन्दते।
कुलकोटि समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।२
1. अर्थात् - ‘जो देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान् की आरती (सदा) देखता है, वह सात जन्मों तक ब्राह्मण होकर अन्त में परमपद को प्राप्त होता है।’
2. अर्थात् - ‘जो धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान् विष्णु के परम पद को
प्राप्त होता है।’
आरती के समय ध्यातव्य बातें –
1. - पंच नीराजन में जलते हुए दीप युक्त दीप
पात्र को आरती से पूर्व और आरती से बाद खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये ,लकड़ी या पत्थर कि चौकी या किसी पात्र में आरती पात्र को रखना चाहिये।
भूमौ प्रदीप यो र्पयति सोन्ध सप्तजन्मसु।
2. – नीराजन हेतु शंख में जल भरने के लिए शंख को जल में डुबोकर कभी नहीं भरना
चाहिये.ऊपर से जल डालकर शंख में भरना चाहिये। बजाने वाले (छिद्रयुक्त)शंख में जल
भरकर निर्मच्छन नहीं करना चाहिये .शंख चाहे रिक्त हो या जल से भरा कभी खाली भूमि
पर नहीं रखना चाहिये।
3. – नीराजन में उपयुक्त वस्त्र स्वच्छ शुद्ध कोमल हो,उसे
अन्य कार्य में ना लिया जावे यहाँ तक कि श्री विग्रह के स्नानोपरांत अंग पोछने के
कार्य में भी ना लिया जावे।
4. – आरती में बजाई जाने वाली घंटी को भी भूमि पर नहीं रखनी चाहिये।
आरती के महत्व को विज्ञानसम्मत भी
माना जाता है। आरती के द्वारा व्यक्ति की भावनाएँ तो पवित्र होती ही हैं, साथ ही आरती के दीये में जलने वाला गाय का घी तथा आरती के समय बजने वाला
शंख वातावरण के हानिकारक कीटाणुओं को निर्मूल करता है। इसे आज का विज्ञान भी सिद्ध
कर चुका है।
पूर्णाहुति के नियम- विवाहादिक्रियायाझ् शालायां वास्तुपूजने।
नित्यहोमे वृषोत्सर्गे न पूर्णाहुतिसमाचरेत्।
मंत्रजप नियम- मनः संहृत्यविषयान् मन्त्रार्थगतमानसः।
न द्रुतं न विलम्बझ् जपेन्मौक्तिकपंक्तिवत्।
उच्चरेदर्थमुद्दिश्य मानसः स जपस्मृतः
आलस्यजृम्भणं निद्रां क्षुुतन्निष्ठीवनं तथा
नीचाङ्गस्पर्शनं कोपं जपकाले विवर्जयेत्।
तर्जन्या न स्पृशेत् अक्षं जपे यन्नविधूनयेत्।
अङ्गुष्ठस्य च मध्यस्य परिवत्र्र्तं समाचरेत्।
मनसा यः स्मरेत् स्तोत्रं वचसामनुं जपेत् तु उभयं
निष्फलं देव मिन्न माण्डादेकं यथा।
प्रत्यहं
प्रत्यहं तावन्नैव न्यूनाधिकं क्वचित्।
एवं
जपं समाप्यान्ते दशाशं होममाचरेत्।
पादेन पाद्माक्रम्य जपं नैव तु कारयेत्।
शिरः
प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।
न पाणिपादचलो न नेत्राचपलो द्विजः।
न च वाक्
चपलश्चैव जपन् सिद्धिमवाप्नुयात्।।
वस्त्र शुद्धि- कार्पासं कटिनिर्मुक्तं कौशेयं भाजने धृतम्।
क्षालनात् शुद्धिमाप्नोति वातेनौर्णं हि शुद्ध्यति।।
प्रदक्षिणा के नियम- एका चण्ड्यां रवौ सप्त तिश्रोदद्यात्
विनायके।
चतश्रस्तु विष्णवे
दद्यात्; शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा।।
चरणामृत ग्रहण विधि-बाएँ हाथ पर
दोहरा वस्त्र रख कर दाहिना हाथ रख दें, पश्चात् चरणामृत लेकर पान करें। जमीन पर न गिरने दें।
तुलसी-ग्रहण-मंत्र
पूजनानन्तरं विष्णोरर्पितं तुलसीदलम्।
भक्षयेद्देहशुद्धîर्थं चान्द्रायणशताधिकम्।।
चरणामृत-ग्रहण-मन्त्र
कृष्ण! कृष्ण! महाबाहो!
भक्तानामार्तिनाशनम्।
सर्वपापप्रशमनं पादोदकं प्रयच्छ मे।।
पश्चात् नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए
चरणामृत पान करें।
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
दुःखदौर्भाग्यनाशाय सर्वपापक्षयाय च।
विष्णोः पञ्चामृतं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
नैवेद्य-ग्रहण-नियम
नैवेद्यमन्त्रां तुलसीविमिश्रितम् विशेषतः पादजलेन विष्णोः।
योऽश्नाति नित्यं पुरतो मुरारेः प्राप्नोति यज्ञायुतकोटिपुण्यम्।।
आरब्ध अनुष्ठान में अशौच व्यवस्था-
व्रत-यज्ञ विवाहेषु श्राद्ध होमार्चने जपे।
आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम्।
प्रारम्भो वरणं यज्ञे संजल्पो व्रत-सत्रायोः।
नान्दीश्राद्धं विवाहादौ श्राद्धे पाकपरिक्रिया।
अनुष्ठानों तथा संस्कारों में पति और
पत्नी के बैठने की व्यवस्था -
1.
पाणिग्रहस्य दक्षिणत उपवेशयेत्। (खादिर
गृह्यसूत्र 1/3/78)
पाणिग्रहण के समय में पत्नी पति
की दाएं ओर बैठायें।
2.
दक्षिणत एककायां भार्यामुपवेश्योत्तरतः
पतिः। पतिरुभावन्वारभेयातां स्वयमुच्चैर्जुहुयात् (जैमिनि गृह्यसूत्र 1/20)
वर
के दाएं भाग में घास आदि से निर्मित आसन पर पत्नी बाई ओर बैठे।
3.अग्निमुपसमाधाय परिधानान्तं कृत्वा---- दक्षिणतः पतिं भार्योपविशति। (हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र 5/5)
अग्नि स्थापन करके पति
के दाएं भाग में भार्या को बैठाए। तदनन्तर हवन करे।
4.
आशीर्वादेऽभिषेके च पादप्रक्षालने तथा।
शयने
भोजने चैव पत्नी तूत्तरतो भवेत्॥ (धर्मप्रवृत्तौ
म. म. स्मारके पृ. 156)
आशीर्वाद ग्रहण करते
समय, अभिषेक के समय, ब्राह्मणों
के पांव धोते समय, शयन
और भोजन के समय पत्नी वामभाग में रहे।
5.
वामे सिन्दूरदाने च वामे चैव द्विरागमे।
वामेऽशनैकशय्यायां भवेज्जाया प्रियार्थिन। (संस्कार गणपतौ म.म. स्मारके 156)
सिन्दूरदान में और
द्विरागमन के समय तथा भोजन शयन में प्रियता की इच्छुक
पत्नी वाम भाग में रहे।
6.
जातके नामके चैव ह्यन्नप्राशनकर्माणि। तथा
निष्क्रमणे चैव पत्नी पुत्राश्च दक्षिणे।
जात-कर्म, नामकरण,
अन्नप्राशन और निष्क्रमण संस्कार के समय पत्नी और बालक
दोनों दाई ओर रहें।
7.
कन्यादाने विवाहे च प्रतिष्ठा यज्ञकर्मणि।
सर्वेषु धर्मकार्येषु पत्नी दक्षिणतः स्मृता।।
दक्षिणे वसति पत्नी
हवने देवतार्चने।
शुश्रुषारतिकाले च
वामभागे प्रशस्यते।।
जातकर्मादिकार्याणां
कर्मकर्तुश्च दक्षिणे।
तिष्ठेद् वरस्य वामे च
विप्राशीर्वचने तथा।।
श्राद्धे पत्नी च
वामाने पादप्रक्षालने तथा।
नान्दी श्राद्धे च सोमे
च मधुपर्के च दक्षिणे।
(व्याघ्रपात् स्मृतौ म.स. स्मारके तंत्रोक्ते)
कन्यादान, विवाह, प्रतिष्ठा,
यज्ञकर्म तथा अन्याय धर्म-कृत्यों में भी पत्नी सदैव दक्षिण
में रहे, हवन देवपूजा में दाएं भाग में रहे। पितृश्राद्ध
में ब्राह्मणों के चरण प्रक्षालन में बाएं भाग में रहे। परन्तु आभ्युदायिक नान्दी
श्राद्ध में और मधुपर्क प्राशन
के समय दक्षिण भाग में रहे।
सारांश
यह है कि पति शब्द को नकार आदेश तथा स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय करके पत्नी बनाया जाता है। यज्ञ-संयोग होने पर ही पति से पत्नी शब्द बनता है। पत्युर्नो यज्ञसंयोगे । अभिषेक, आशीर्वाद ग्रहण, पाद-प्रक्षालन,
भोजन, शयन, रतिक्रीड़ा-
इह
लोक में फलदायक है। जो कर्म इस लोक में फवदायक हो वहाँ पत्नी को वाम भाग में बैठकर कार्य करने का आदेश दियागया
है, परन्तु पारलौकिक फल वाले अनुष्ठान में पत्नी की प्रधानता होती है।
दान तथा
उत्सर्ग जैसे कार्य यथा- कन्यादान, विवाह,
देव-प्रतिष्ठा, यज्ञानुष्ठान और जातकर्म
आदि संस्कारों में पत्नी का पति के दक्षिण भाग में बैठना का आदेश दिया गया है।
PANDIT JI AKAHND RAMAYAN PATH PUAJN KI VIDHI BATAYE
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सर जी मैं आपकी सारी टिप्पणी देखता हूं संस्कृत के विकास के लिए आपने जितना किया उसकी मां क्या तारीफ करूं क्योंकि सूरज को दिया नहीं दिखाई जा सकता है बहुत-बहुत धन्यवाद आपने संस्कृत विषय के बारे में इतना सोचा और सोच रहे हो बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंBahut bahut dhaniybad ati sunder.
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंअतिसुंदर सादर नमस्कार
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