मनुष्य
समाज से सम्पर्क स्थापित करने के पश्चात् राष्ट्र का निर्माण करता है जिसमें वह
सभी भिन्न-भिन्न मनुष्यों, जलवायु, पर्यावरण से सम्पर्क स्थापित करता है। वर्णाश्रम व्यवस्था में मनुष्य अपने
कर्मों को करता हुआ व्यापार, कृषि, उद्योग
आदि के माध्यम से एक दूसरे से सम्पर्क में आते हैं। एक दूसरे से आपस में वस्तुओं, विचारों, संस्कृति का आदान-प्रदान करके राष्ट्र को
निर्बाध रूप से स्वचालित करते हैं। अतः राष्ट्रीय आचार भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
है।
देश, काल तथा राष्ट्रीय आचार के सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य का कथन है कि जिस देश में काले
मृग स्वच्छन्द विचरण करते हैं ,उस देश में सभी आचार फलित होते हैं। इससे प्रतीत होता है कि जिस स्थान पर सुखपूर्वक
तथा शान्तिपूर्वक मनुष्य ही नहीं पशु भी निडर होकर निवास करते हैं वहां पर सभी
आचार फलित होते हैं। सरस्वती तथा दृष्द्वती इन दोनों देव नदियों के बीच के
देवनिर्मित देश को ब्रह्मावर्त देश कहते हैं। इस देश में चारों वर्ण तथा वर्णसङ्कर
जातियों के बीच जो परम्परागत आचार है, उन्हें सदाचार कहते हैं। कुरूक्षेत्र,
मत्स्य देश (जयपुर आदि), पांचाल देश (कन्नौज
आदि) तथा शूरसेन (ब्रजभूमि) को जो ब्रह्मावर्त से कुछ न्यून हैं, ब्रह्मर्षिदेश कहते हैं, इन देशों में उत्पन्न
ब्राह्मणों से पृथिवी के सब मनुष्यों को अपना-अपना आचार सीखना चाहिये। हिमालय,
विन्ध्यगिरि, विनशन तथा प्रयाग देश मध्यदेश
कहा जाता है। इस प्रकार देखते हैं कि
राष्ट्र के चारों ही दिशाओं के भी स्व आचार हैं।
पूर्व
के समुद्र से पश्चिम के समुद्र तक, दक्षिण
से पूर्व से उत्तर के देश को पण्डित लोग आर्यावर्त देश कहते हैं। जिन देशों में
काले मृग स्वभाव से ही विचरते हैं, उन देशों को यज्ञ करने
योग्य देश जानना चाहिये, इनसे इतर म्लेच्छ देश समझना चाहिये।
द्विजातियों को यत्नपूर्वक इन देशों में निवास करना चाहिये तथापि शूद्र लोग अपनी
जीविका चलाने के लिये किसी भी देश में निवास कर सकते हैं। पौंड्रक, चैड़, द्रविड़, काम्बोज, यवन,
शक, पारद, पहल्व,
चीन, किरात, दरद तथा खश
देश के रहने वाले क्षत्रिय जातियां यज्ञोपवीत तथा क्रियाओं के लोप होने से तथा
ब्राह्मण का अभाव होने से शूद्रत्व को प्राप्त किया। अर्थात् जहां भी द्विज रहें उनकी सेवा करने के
लिए शूद्रों को कहीं भी रहने की शिथिलता प्रदान की गई।
ब्रह्मचारी
अधार्मिक ग्राम में निवास न करें, बहुत्याधियुक्त
शूद्र के राज्य, अधर्मियों के देश तथा पाखण्डियों के वशवर्ती
देश अथवा अन्त्यजातियों तथा उपद्रवयुक्त
देश में निवास न करें।
महर्षि
देवल के अनुसार महानदी से उत्तर तथा कीकट (देश में गया,
राजगृह आदि हैं) से दक्षिण 12 योजन
त्रिशंकुनामक देश है उसको छोड़कर (अन्य देशों के मनुष्यों का) प्रायश्चित्त
विस्तार से कहूँगा। सिन्धु, सौवीर तथा सौराष्ट्र देश के तथा इनके निकट के निवासी कलिंग (उड़ीसा),
कोंकण तथा बंगाल में जाने पर पुनः संस्कार के योग्य होते हैं। अवन्त, अग्, मगध, सौराष्ट्र, दक्षिणापथ,
उपावृत, सिन्धु तथा सौवीर देश यह सब सङ्कीर्ण
योनि है। आरट्ट कारस्कार, पुण्ड्र, सौवीर,
वंग, कलिंग देश में जाने वालों को अपनी शुद्धि
के लिये पुनस्तोमेन अथवा सर्वपृष्ठया मन्त्र से यज्ञ करना चाहिये। जैसा कि उदाहरण
देते हैं। कलिंग अर्थात् उड़ीसा देश में जाने वाला दोनों चरणों से पाप करता है,
महर्षियों ने उसकी शुद्धि के लिये वैश्वानरेष्टी यज्ञ कहा है।
शङ्ख
के अनुसार जो मनुष्य गया, प्रभास, पुष्कर, प्रयाग, नैमिषारण्य
तीर्थ में, यमुना, गग, पयोष्णी (विन्ध्य पर्वत से निकलने वाली एक नदी, कुछ
विद्वान वर्तमान की ‘‘ताप्ती’’ मानते हैं,
किन्तु ‘‘ताप्ती’’ की एक
सहायक नदी ‘‘पूर्णा’’ है जिसकी ‘‘पयोष्णी’’ के साथ अभिन्नता अधिक संभव प्रतीत होती
है)। नदी के तीर पर, अमरकण्टक के किनारे, नर्मदा, गया
के तट पर, काशी, कुरूक्षेत्र, भृगुतुंग तथा महालय तीर्थ में तथा सप्तवेणी तथा ऋषिकूप के निकट में श्राद्ध
आदि कार्य करने से अक्षय फल की प्राप्ति होती है
अर्थात् इन स्थानों पर श्राद्ध, यज्ञ, संस्कार आदि कार्य करना चाहिये।
कार्तिक
मास में (पुष्कर तीर्थ में), ज्येष्ठ में
पुष्कर सरोवर में, कपिला गौदान करने से जो फल मिलता है
ब्राह्मण के चरण धोने से वही फल प्राप्त होता है जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश
में करके गृह में निवास करता है उसके घर में भी कुरूक्षेत्र, नैमिषारण्य, पुष्कर, हरिद्वार
तथा केदारतीर्थ हैं, वह इन तीर्थों को करके सब पापों से
छूटता है।
गया
के पास स्थित ‘‘फल्गु नदी’’ में स्नान करके ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य
महानदी में स्नान आचमन, देवता तथा पितरों को तर्पण करते हैं
वह अक्षय लोक की प्राप्ति कर वंश का उद्धार करते हैं। गग के तीर पर कन्या के सूर्य
में श्राद्ध करता है उसको सम्पूर्ण शास्त्रों के पढ़ने का, सम्पूर्ण
तीर्थों में स्नान का, सब यज्ञों का तथा विद्यादान का फल
निःसंदेह प्राप्त होता है। अर्थात्
संक्रान्ति काल में तीर्थों में स्नान करना चाहिये।
मगध
देश के निवासी, माथुर, कपट
देश का निवासी, कीकट तथा आन देश में जो उत्पन्न हुआ है,
यह पांच ब्राह्मण बृहस्पति के समान पंडित होने पर भी पूजनीय नहीं
है। गग के स्नान से असंख्य पुण्यों की प्राप्ति होती है उसकी गणना नहीं हो सकती।
गग में, गया में तथा अमावस्या के दिन अथवा क्षय तिथि में तथा
बुद्धिश्राद्ध में श्राद्ध करने, पिंडदान का मघानक्षत्र के
होने पर कोई दोष नहीं है इनके अतिरिक्त अन्य स्थल में मघानक्षत्र में श्राद्ध
वर्जित है।
मृत्यु
के पश्चात् मनुष्य की अस्थियों को गग में विसर्जित करनी चाहिये। काशी में
क्षेत्रन्यास करके वहां रहना ही श्रेष्ठकर है। जो मनुष्य गया में जाकर नामोल्लेख
करके गयाशिर पर पिंडदान करता है यदि वह नरक में हो तो स्वर्ग प्राप्त करता है यदि
स्वर्ग में है तो मुक्ति प्राप्त करता है।
तीर्थों
तथा भारत के पवित्र स्थल, गगदि नदियों की
पवित्रता, काशी तथा गया नगरी का माहात्म्य, पुरुषोत्तम माह की महत्तता आदि ऐसे समस्त विषय हैं, जिनके
पढ़ने एवं उनके अनुसार आचरण करने से मनुष्य जीवन में सर्व प्रकार के पापों से
छूटकर, सुख-ऐश्वर्य प्राप्त करके, शान्तिपूर्वक
जीवन-यापन करके अन्त में मोक्ष की प्राप्ति करता है। अतः राष्ट्रीय आचार अत्यन्त
उदात्त है।
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