1.
पुरुषगत आचार
अ.
पति
आ.
पिता
इ.
पुत्र
ई.
देवर
उ.
सेवक
2.
स्त्रीगत आचार
ऊ.
पत्नी
ए.
माता
ऐ.
पुत्री
परिवार
एक सामाजिक इकाई है। परिवार के माध्यम से ही सामाजिक मान्यताओं,
परम्पराओं को जीवित रखा जा सकता है। परिवार पति-पत्नी के पारस्परिक
सहयोग एवं सम्बन्धों, बच्चों के प्रजनन तथा पारस्परिक
सहानुभूति की भावना पर आधारित समूह है।
परिवार
शब्द ‘परि’ उपसर्ग पूर्वक ‘वृ’
धातु से निष्पन्न हैं। ‘वृ’ धातु का अर्थ घेरने से’’ है अतः परिवार वह संस्था है
जो पति, पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन आदि रिश्तों से घेरकर बना है। शिशु की प्रथम शिक्षा परिवार में
होती है। व्यक्ति का परिवार में सर्वप्रथम आगमन एक शिशु के रूप में होता है तब
उसके माता-पिता के उसके प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं जिनका पालन करना माता-पिता के
लिए अनिवार्य होता है यदि माता-पिता अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाही का व्यवहार
करते हैं तो उनकी नींव सुदृढ़ नही हो पाती तथा शिशु अपने कर्तव्यों से अनभिज्ञ
रहता है।
स्मृतियों
में इन्हीं कर्तव्यो का बोध कराते हुए मनुष्य के व्यक्तिगत उन्नति के साथ-साथ
परिवार तथा समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया गया है।
शिशु
के रूप में जन्म लेकर पहले अधिकार प्राप्त करता है तथा धीरे-2 बड़ा होकर उन्हीं कर्तव्यों कर्मों को करने के लिए तैयार होता है।
परिवार
का निर्माण स्त्री-पुरुष दोनों ही सम्मिलित रूप से करते हैं। स्त्री-पुरुष गृहस्थ
रूपी रथ के दो पहिये माने जाते हैं जिनका परिवार में अपना-अपना एक निश्चित स्थान
तथा कर्म क्षेत्र है। परिवार दो प्रकार का होता है - 1.
एकांकी 2. संयुक्त। एकाकी परिवार में
पति-पत्नी तथा बच्चे होते हैं तथा संयुक्त परिवार में पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री
भी होते हैं। स्मृतियों में वर्णित पारिवारिक संरचना संयुक्त परिवार की है।
स्मृतिकालीन समाज पितृ प्रधान समाज था इसलिए पिता को असाधारण महत्त्व दिया जाता
है।
स्त्री
परिवार की नींव है इसलिये स्त्री पर कुछ प्रतिबन्ध लगाये गये जिसस परिवार प्रेम
तथा सामंजस्य के साथ मिल-जुलकर रह सके।
1. पुरुषगत आचार
पुरुष समाज में पति,
पिता, भाई, देवर,
पुत्र आदि सम्बन्धों में विभक्त है। पुरुष जब शिशु रूप में जन्म
लेता है तब वह पुत्र, भाई, पति,
पिता, देवर की भूमिका निभाता है। हमारा समाज
पुरुष प्रधान है। पुरुष परिवार का पालन-पोषण करता है। पुरुष घर का मुखिया होता है
तथा घर के सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते हैं
अ.
पति
विवाह एक महत्त्वपूर्ण
संस्कार है। इसी के माध्यम से स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के जीवन से जुड़ते हैं। मनु
के अनुसार ‘‘विवाह सूत्र मे बंधने के पश्चात् पति-पत्नी के
बगैर धर्म, अर्थ, काम विषय कार्यों को
न करें। मनु का मत है कि धार्मिक कृत्यों
का सम्पादन करने वाली तथा पुत्रोत्पादन करने वाली प्रथम स्त्री को छोड़कर पति को
दूसरा विवाह नहीं करना चाहिए। इससे प्रतीत
होता है कि मनु बहुपत्नी विवाह के पक्षधर थे। अपितु धार्मिक पत्नी को छोड़ नहीं
सकते थे तथापि धर्म को अत्यधिक महत्त्व था।
पति
को सदैव स्वस्त्री में ही अनुरक्त रहना चाहिए।
पति को सदैव स्त्री का पालन-पोषण भली-भांति करना चाहिए तथा ऋतु के समय में
गमन करने से परम गति प्राप्त होती है।
स्त्री को सदा वस्त्राभूषण से प्रसन्न रखना चाहिए क्योंकि स्त्री प्रसन्न
रहेगी तथापि पति प्रसन्न रहेगा, परिवार
प्रसन्नतापूर्वक रहेगा तभी वह गर्भधारण करने में समर्थ होती है। इससे प्रतीत होता है कि गर्भधारण करने पर
स्त्री तथा होने वाली सन्तान पर आसपास के पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है।
पुरुष
को उत्सव,
पर्व आदि अवसरों पर स्त्रियों का वस्त्राभूषण तथा भोजनादि से विशेष
सत्कार करना चाहिये। स्त्रियों का सदैव
मान-सम्मान करना चाहिये तथापि जिस कुल में स्त्रियों का निरादर होता है वह कुल
स्त्री के शाप से नष्ट हो जाता है, लक्ष्मी का निवास नहीं
रहता है। अतः कल्याण चाहने वाले को सदा
स्त्रियों का समादर करना चाहिए।
मनु
पुरुषों की प्रवृत्ति से पूर्ण परिचित थे। वे जानते थे कि पुरुष स्त्री की अपेक्षा
अत्यधिक बलवान है अतः वह अनर्थक चेष्टा कर सकता है तथापि पुरुष को स्त्रियों की
रक्षा का दायित्व सौंपा जिससे पुरुष अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न कर
पाये। स्त्री की रक्षा से ही सन्तान आदि
की रक्षा होती है।
पति
का कर्तव्य है कि विदेश यात्रा पर जाने से पहले पत्नी की जीविका का प्रबन्ध करना
चाहिए अन्यथा वह कुमार्गगामिनी बन जाती है।
याज्ञवल्क्य ने व्यभिचारी स्त्री का भी पालन-पोषण करने की व्यवस्था की है।
याज्ञवल्क्य मतानुसार व्यभिचारिणी स्त्री को सभी अधिकारों से वंचित कर,
मलिन बनाकर जीवनयापन भर भोजन देकर, तिरस्कृत
कर, मलिन बनाकर जीवन-यापन भर भोजन देकर, तिरस्कृत कर, भूमिशयन कराकर (अपने घर में ही)
रखें। इससे प्रतीत होता है कि व्यभिचारी
स्त्री को घर में ही रखने का आदेश दिया है जिससे वह पुनः पाप न करें तथा वातावरण
को दूषित न करे। बृहस्पति नीचवर्ण के साथ व्यभिचार करने पर त्यागने अथवा मारने का
विधान करते हैं। फलतः याज्ञवल्क्य की यह व्यवस्था उच्चवर्ण या समान वर्ण के साथ
व्यभिचार की हो।
पति
को पत्नी के परित्याग का भी अधिकार था। याज्ञवल्क्य मतानुसार ‘‘यदि स्त्री व्यभिचारी है तो वह ऋतुकाल में शुद्ध होती है, तथा व्यभिचार से गर्भ धारण करने पर उसका त्याग विहित है तथा गर्भ एवं पति
के वध आदि करने में तथा महापातक में पत्नी को त्याग देना चाहिए।’’ मदिरापान करने वाली, दीर्घरोगिणी, धूर्ता, वन्ध्या,
धननाश करने वाली, कटु वचन कहने वाली, कन्याओं को उत्पन्न करने वाली तथा पति से द्वेष करने वाली पत्नी का त्याग
सर्वथा उचित है।
आ. पिता
पिता शब्द ‘‘पाति रक्षति इति पिता’’ निर्वचन से निष्पन्न है तथा ‘पा’ रक्षणे धातु के अर्थ में पिता का अर्थ रक्षा
करने वाला है।
शिशु
के जन्म लेने के पश्चात् जन्म देने वाले पिता के अपने शिशु के प्रति कुछ कर्तव्य
होते हैं जो आचार के रूप में परिलक्षित है। सन्तान चाहे पुत्र हो या पुत्री दोनों
के ही प्रति पिता के कर्तव्यों को निभाने की व्यवस्था वैदिक काल से ही चली आ रही
है।
पिता
का कर्तव्य है कि वह अपने पुत्र की रक्षा करे।
पालन-पोषण करना भी पिता का कर्तव्य है।
पुत्र यदि अपराध करे तो उसे रस्सी से या बांस की छड़ी से ताड़न करना
चाहिये।
पुत्र
को पीठ पर मारे, मस्तक पर नहीं। पुत्र के साथ पुत्री के प्रति भी पिता के
कर्तव्य होते हैं। मनु के अनुसार पुत्री अत्यन्त कृपापात्र है अतः ये विवाद के
योग्य नहीं है। पिता का कर्तव्य है कि वह
कुल में श्रेष्ठ तथा सुयोग्य वर से पुत्री का विवाह करे। पुत्री को जीवन पर्यन्त पिता के घर में रहना
पड़े किन्तु गुणहीन पुरुष से उसका विवाह कदापि नहीं करना चाहिये। कुमारी की रक्षा पिता को करनी चाहिए।
कन्या
के विवाह के समय वर-पक्ष से धन लेना निन्दापूर्ण कार्य है। कन्या के स्नेह के कारण वर पक्ष से मिलने वाले
धन को कन्या के पिता वह धन कन्या को ही दे दें।
पिता सम्पत्ति का विभाजन स्वेच्छानुसार करे। ज्येष्ठ पुत्र को श्रेष्ठ भाग
देकर विभाजन करे अथवा सभी को बराबर हिस्सा दे।
मनु के अनुसार बड़े भाई को बीसवां भाग, छोटे
भाई को अस्सीवां भाग तथा मंझले भाई को चालीसवां भाग देना चाहिए।
मेधातिथि
ने पिता को शिक्षक के रूप में स्वीकार किया है।
अतः तत्युगीन समाज में पिता की भूमिका गरिमापूर्ण थी।
इ. पुत्र
माता-पिता द्वारा जन्म
पाकर ललित पालित होने के पश्चात् शिशु जब बड़ा हो जाता है तब माता-पिता के प्रति
उसके कुछ कर्तव्य होते हैं जिनका पालन उसे करना चाहिए।
पुत्र
का कर्तव्य है कि माता-पिता की आज्ञा का पालन करें। आचार्य,
पिता, माता सहोदर भाईयों का कभी अपमान न
करें क्योंकि आचार्य परमात्मा की, पिता प्रजापति की, माता पृथ्वी की तथा सहोदर भाई
अपनी ही मूर्ति है। जो पुत्र माता-पिता
तथा आचार्य का अनादर करता है उसकी सब क्रियायें निष्फल होती है क्योंकि माता-पिता के ऋण से मुक्त होना असम्भव
है। अतः माता-पिता तथा आचार्य की सेवा
शुश्रूषा ही श्रेष्ठ तप है।
माता-पिता
के पश्चात् बड़े भाई होने के कारण अन्य भाईयों के प्रति कुछ कर्तव्यों का पालन
करना पड़ता है। परिवार में सबसे बड़े पुत्र की स्थिति अन्य पुत्रों की अपेक्षा अधिक
सुदृढ़ थी क्योंकि ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न होने से पिता पितृ ऋण से मुक्त हो जाता
है तथा अमृत्तत्व को प्राप्त करता है अतएव ज्येष्ठ पुत्र पिता की सम्पूर्ण सम्पत्ति का अधिकारी होता है। पिता की
मृत्यु के पश्चात् ज्येष्ठ भाई को सब धन प्राप्त होता था तथा अन्य छोटे भाईयों का
भरण पोषण का दायित्व बड़े भाई का होता था।
बड़ा भाई छोटे भाइयों को पिता के समान पालन करें तथा छोटे भाई को पिता
मानें।
भाई
अपनी अविवाहित बहनों को अपने-अपने भाग का चतुर्थांश भाग दें अन्यथा वे पाप के
भागीदार होंगे। याज्ञवल्क्य के अनुसार - ‘‘पिता की मृत्यु के पश्चात् जिन भाईयों का संस्कार न हुआ हो तथा जिन भाइयों
का विवाह न हुआ हो उनका संस्कार सबके सम्मिलित धन द्वारा होना चाहिए।
ई. देवर
पति के छोटे भाई को देवर
कहते हैं। देवर का तात्पर्य द्वितीय वर से किया गया है। मनु ने वाग्दत्ता स्त्री
के पति के मर जाने पर देवर से विवाह करने का विधान किया गया है। अपितु वह विवाह संस्कार द्वारा नहीं कहा गया
है। देवर विधिपूर्वक इसे स्वीकार कर (कायिक, वाचिक, मानसिक) शुद्धिवाली उस वाग्दत्ता कन्या के साथ ऋतुकाल में एक-एक बार गर्भ
धारण होने तक सम्भोग करे।
सन्तान
के अभाव में भी पति या गुरु की आज्ञा से नियुक्त देवर या सपिण्ड के नियोग विधि
द्वारा सन्तान उत्पन्न करती है।
विधवा
स्त्री भी नियोग विधि द्वारा देवर या सपिण्ड पुरुष से गुरु द्वारा नियुक्त करने पर
पुत्र उत्पन्न करे।
अतः
इससे प्रतीत होता है कि देवर का भी परिवार में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। बड़े
भाई के निःसन्तान होने पर या मृत होने पर वह ही वंशवृद्धि करता है। स्मृतिकारों ने
स्त्री को पुनर्विवाह का अधिकार तो नहीं दिया क्योंकि एक बार दान में दी गई वस्तु
दोबारा दान में नहीं दी जाती है किन्तु स्त्री के जीवन को दिशा देने के लिए नियोग
प्रथा का प्रतिपादन किया गया।
उ. सेवक
सेवक भी परिवार का एक
अभिन्न अग् हैं। जिनके माध्यम से अपने कार्य साधक करते हैं। मिताक्षरा ने नारद को
उद्धृत करते हुए कहा है कि मनीषियों ने शास्त्र में शुश्रूषकों के पांच प्रकार,
कर्मकारों को चार प्रकार तथा दासों के पन्द्रह प्रकार के भेद बताये
हैं।
शिष्य,
अन्तेवासी, मृतक तथा अधिकर्मकृत कर्मकर हैं।
गृह में उत्पन्न शेष सेवक हैं।
कर्म
का दो प्रकार हैं - शुभ तथा अशुभ। उनमें दास का कर्म अशुभ तथा कर्मकर का कर्म शुभ
है।
गृहद्वार,
अशुचि स्थान तथा मार्ग का शोधन, गृहस्वामी का
गुह्य अग् स्पर्श, उच्छिष्ट, मल तथा
मूत्र को बाहर फेंकना तथा स्वामी के इच्छानुसार अपने अगें द्वारा उपस्थादि स्थान
में किया गया कार्य अशुभ है। इसके अतिरिक्त शुभ है।
घर
से जन्म जन्म लिया हुआ, खरीदा हुआ, दाय के रूप में प्राप्त, अकाल में पालित, बन्धक रूप में प्राप्त, युद्ध में प्राप्त आदि दास
के भेद हैं।
दास
का कार्य है स्वामी की प्राण रक्षा करे।
मनु ने दास के सात भेद माने हैं।
इससे प्रतीत होता है सेवक को स्वामी सेवा करनी चाहिये जिसके बदले स्वामी
सेवक को वेतन देता था।
2. स्त्रीगत आचार
पुरुष
के समान स्त्री भी परिवार का महत्त्वपूर्ण अग् है। स्त्री ही परिवार की धूरी मानी
जाती है। स्त्री परिवार के सभी कार्यों का प्रतिपादन करती है। स्त्री एक ऐसी
परमाणु शक्ति है जिसके सदुपयोग से परिवार स्वर्ग तथा दुरूपयोग से परिवार नरक बन
जाता है। इसलिये मनु ने स्त्री के लिये अनेक बन्धन तथा संरक्षण का उल्लेख किया है।
स्त्री परिवार में पत्नी माता, पुत्री बहन
अन्य रूपों में पूजनीय है।
ऊ. पत्नी
पत्नी का कर्तव्य है कि
वह पति वशवर्तिनी होकर रहे तथा सदैव पति की सेवा करे।
पत्नी
को गुणहीन पति को भी देवता के समान पूजना चाहिये।
स्त्री को पति के बिना यज्ञ नहीं करना चाहिये तथा पति की आज्ञा के बिना
व्रत तथा उपवास नहीं करना चाहिये। पत्नी
को पति के हित की चिंता करनी चाहिये। इस
बात की पुष्टि शङख ने भी की है।
मनु
का कथन है कि स्त्रियों के लिए विवाह, उपनयन
संस्कार के समान, पति की सेवा करना ब्रह्मचर्यव्रत के समान,
गृहकार करना अग्निहोत्र के समान है। स्त्री का धर्म है कि सदा प्रसन्न रहकर घर का
कार्य करे, बर्तन आदि घर की सामग्रियों को स्वच्छ रखें तथा
मितव्ययी रहे। इससे प्रतीत है कि स्त्री
को गृहकार्य से ही अवकाश प्राप्त नहीं होता है इसलिए स्त्री को सभी धार्मिक
कार्यों, व्रतों का निषेध किया गया जिससे वह अपने कार्य का
प्रतिपादन भलीभांति कर सके।
पिता
अथवा भाई द्वारा जिस भी पुरुष से स्त्री का विवाह कराया जाये मृत्युपर्यन्त उसकी
सेवा करनी चाहिये क्योंकि पति, स्त्री को
ऋतुकाल में तथा भिन्नकाल में इहलोक तथा परलोक दोनों में सुख प्रदान करने वाला
है। पति को जो रुचिकर हो वही कार्य करे।
स्त्री
को स्वयं रक्षा की शिक्षा दी गई है क्योंकि जो स्त्री स्वयं रक्षा नहीं करती है,
स्वजन लोग घर में भी बन्द करके स्त्री उसकी रक्षा नहीं कर सकते
हैं। मद्यपान, दुष्ट
लोगों की सङ्गति, पति का वियोग, व्यर्थ
इधर-उधर घूमना, कुसमय में शयन करना तथा पर के घर में रहना ये
छः स्त्रियों को व्यभिचार दोष के कारण है।
जो स्त्री मन, वचन तथा देह से कभी परपुरुष के संग
व्यभिचार नहीं करती है वह मरने पर स्वर्ग में पति के साथ निवास करती है। यदि पति-पत्नी की आजीविका की व्यवस्था करके
विदेश गया हो तो स्त्री पातिव्रत्य धर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह करे। धर्म के लिए विदेश गया हुआ पति की विवाहिता
स्त्री आठ वर्ष तथा विद्या अथवा यश के लिए गया छः वर्ष तक, जबकि
धनादि की कामना से गया हुआ तीन वर्ष तक प्रतीक्षा के योग्य होता है। इसके पश्चात्
स्वयं पति के पास चली जाये।
स्त्री
किसी से लड़ाई झगड़ा न करे, अनर्थकारी तथा वृथा
न बोले, खर्च में अपना मन लगाये रखे, धर्म
तथा अर्थ का विरोध न करे। असावधानी,
उन्माद, क्रोध, ईष्र्या,
ठगाई, अत्यन्त मान, चुगलपन,
हिंसा, वैर, मद, अहंकार, धूर्तपन, नास्तिकपन,
साहाद चोरी, दंभ इन सबका त्याग कर दे ये स्त्रियों के नित्य कर्म है जिसके द्वारा
स्त्री परलोक में पति के लोक को प्राप्त करती है।
ऋतुमती
होने पर दोष के भय से सबको त्याग दे, जहां
कोई न देख सके लज्जापूर्वक होकर निर्जन घर में निवास करे। एक वस्त्र को पहनकर स्नान तथा आभूषणों को
त्यागकर दीन के समान मौन धारण कर नेत्र तथा पैर पर संयम रखे। स्मृतियों में सती प्रथा का प्रचलन
प्रतिबिम्बित होता है।
कुछ
विशेष परिस्थितियों में स्त्री को अन्य वर प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। जिस
कन्या का वाग्दान हो गया हो तथापि विवाह न हुआ हो यदि इसी समय में उसका पति मर जाय
या नष्ट हो जाय, सन्यासी या नपुंसक हो जाय तो उस
कन्या का विवाह दूसरे पुरुष के साथ करा देना चाहिये।
मनु,
याज्ञवल्क्य, पराशर, वसिष्ठ
आदि स्मृतिकार स्त्रियों के पुनर्विवाह के पक्षधर नहीं है किन्तु नारद विशेष
परिस्थितियोें पुनर्विवाह के पक्ष प्रस्तुत करते हैं। पति का सन्तानोत्पादन में
असमर्थ होना, असमय पति का परलोक सिधारना, सन्यासी बन जाना, पति का नपुंसक सिद्ध होना, निन्दित कर्मों द्वारा समाज द्वारा अपनों से बहिष्कृत किया गया। परदेश गये हुए ब्राह्मण की स्त्री 8 वर्ष तक तथा यदि सन्तान नहीं हो तो चार वर्ष तक पति की प्रतीक्षा करे
तत्पश्चात दूसरा विवाह करने के लिए स्वतंत्र है।
परदेश गये हुये क्षत्रिय की स्त्री 8 वर्ष तक तथा
सन्तान न हो तो 3 वर्ष तक तथा वैश्य की स्त्री 4 वर्ष तक, सन्तान न हो तो 2
वर्ष तक पति की प्रतीक्षा करे। इस अवधि के पश्चात स्त्री दूसरा विवाह करने के लिए
स्वतंत्र है। इन स्त्रियों को यदि पति के
जीवित रहने का समाचार मिलता है तब दुगुनी अवस्था तक प्रतीक्षा करे। सन्तान के होने
पर आधे समय तक विदेश गये पति की प्रतीक्षा का औचित्य का आधार-सन्तान के लिए ही
विवाह किया जाता है। जब सन्तान नहीं है तथा विदेश गया पति का कोई समाचार नहीं है
फिर विवाह कैसा, सम्बन्ध कैसा। इसी आधार पर निर्धारित समय तक
प्रतीक्षा करने के पश्चात दूसरे पुरुष से सम्बन्ध जोड़ने में कोई दोष नहीं है।
सामाजिक
परिस्थितियों का अवलोकन करते हुए मनु एक तरफ स्त्री की स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं
है वहीं दूसरी तरफ वह स्त्रियों को पूजनीय मानते हैं।
इस
प्रकार प्रतीत होता है कि समय के अनुसार स्त्रियों की अवस्था में उत्तरोत्तर विकास
हुआ है।
नारद
विधवा स्त्री के पुनर्विवाह के भी पक्षधर है। नारद का कथन है कि कोई विधवा
पुत्रवती पुत्र को छोड़कर अगर दूसरा विवाह कर लेती है तो उसका स्त्रीधन वह पुरुष
ले लेता है।
ए. माता
‘‘जननी जन्मभूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी’’ कहकर ऋषियों ने माता की महत्ता को
परिभाषित किया है। मनु के मतानुसार ‘‘दस उपाध्यायों की
अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता तथा सहस्र
पिताओं की अपेक्षा माता सर्वश्रेष्ठ है।
याज्ञवल्क्य ने भी गुरु, आचार्य, उपाध्याय, ऋत्विक् से भी माता सर्वश्रेष्ठ है। माता पुत्रियों को अपना स्त्रीधन देती थी।
वेदों
में माता के स्वरूप का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। माता का प्रमुख कर्तव्य
शिशु का लालन-पालन था। इन्द्र सूक्त के एक मन्त्र में कहा गया है कि ‘‘इन्द्र ने माता के समीप जाकर अन्न प्राप्त किया।’’ इससे प्रतीत होता है कि माता
बच्चों को आवश्यकतानुसार भोजन प्रदान करती थी। माता बच्चों के खानपान की ही ध्यान
नहीं रखती थी अपितु शिशु के वस्त्रादि का भी ध्यान रखती थी।
इस
प्रकार जन्म देने से लेकर युवावस्था तक माता ही शिशु के सारे कार्य सम्पादित करती
है। जिस प्रकार का वर्णन माता के विषय में वेदों से प्राप्त होता है वैसा वर्णन स्मृतियों
में प्राप्त नहीं होता है अतः स्मृतियां वेदों से अभिमत हैं क्योंकि स्मृतियों
वेदों का अनुसरण करती है।
मनु
के अनुसार माता पुत्र उत्पन्न करने में जो कष्ट सहन करती है,
उसका बदला सौ वर्षों में भी उनकी सन्तान नहीं दे सकती। इस प्रकार पारवारिक जीवन में माता की महिमा
अपार है।
ऐ. पुत्री
स्त्री ही बाल्यकाल में
पुत्री के रूप में परिलक्षित होती है। पुत्री का कर्तव्य है कि वह बाल्यकाल में
पिता के अधीन होकर रहे। मनु ने कन्या को स्वयं विवाह करने की छूट प्रदान की है। जब
कन्या ऋतुमती होने पर, तीन वर्ष तक पिता आदि उसका विवाह न
करे तो अपने योग्य पति का वरण कर ले। यदि
पुत्री स्वयं वरण कर लेती है तो पिता, भाई, माता आदि अभिभावक द्वारा दिये गये अलंकारों, उपहारों
को नहीं लेना चाहिये। मनु यहां पर वर्तमान
समय के ‘‘प्रेम विवाह’’ का उल्लेख कर
रहे हैं तथा उस विवाह में कन्या पक्ष से किसी भी प्रकार का उपहार लेना पाप है।
माता के निजी धन में पुत्री का भी अधिकार होता है।
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