नामानुक्रमणिका 4 (
प से म तक )
पटृाभिराम
शास्त्री, परमानन्द शास्त्री, पेरी सूर्यनारायण शास्त्री, पुल्लेल श्री
रामचन्द्रुडु, प्रशस्यमित्र शास्त्री, प्रमोद बाला मिश्रा, प्रभुनाथ द्विवेदी, प्रेमा अवस्थी, फूलचंद जैन, बनमाली
विश्वास, बृजेश कुमार शुक्ल, ब्रज बल्लभ द्विवेदी, बलदेव उपाध्याय, ब्रजबिहारी चैबे, बलजिन्नाथ पण्डित, भगवत्शरण शुक्ल, भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी, भोला शंकर व्यास, मनसाराम शास्त्री, मण्डन मिश्र, मानसिंह, मुरलीधर
मिश्र, पं. मोहन
लाल शर्मा
पटृाभिराम शास्त्री
पण्डित प्रवर पद्मभूषण आचार्य पट्टाभिराम शास्त्री जी का जन्म दक्षिण भारत
के आत्रोड जनपद के वैदिक स्वाध्याय परम्परागत श्रोत्रीय कुल में 1908 ई0 में हुआ था। आपके पिता श्री पी0 एन0 कृष्णाराव थे जो वैदिक परम्पराओं के
परमभक्त थे।
शास्त्री जी ने अपनी शिक्षा का प्रारम्भ सन् 1924 में तिरुपति संस्कृत महाविद्यालय से किया। साहित्य व्याकरणादि विषयों का
विधिवत् अध्ययन करके राजकीय परीक्षा से सम्बन्धित एन्टेन्स परीक्षा भी उत्तीर्ण
किया।
सन् 1933 ई0 में
आप गौरी शंकर संस्कृत महाविद्यालय में मीमांसा विषय के अध्यापक हुए। एक वर्ष तक आप
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन करके 1946 के
फरवरी महीने में महाराज संस्कृत कालेज जयपुर में प्राचार्य पद को आलंकृत किया।
शास्त्री जी के सदाचार एवं वैदुष्य से प्रभावित होकर महामना मदन मोहन मालवीय ने भी
प्राचार्य पद पर नियोजित होने के लिए अपनी सम्मति प्रकट की थी। कलकत्ता
विश्वविद्यालय में अध्यापन हेतु आहूत किये जाने पर आपने 1952 से 1967 तक प्राध्यापक एवं रीडर पद पर
कार्य किया। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यलय में आप साहित्य विभाग में
विभागाध्यक्ष पद पर आहूत होने पर सफलतापूर्वक अध्यापन करते हुए वहीं से
सेवानिवृत्त हुए।
आप द्वारा लिखे गये मौलिक, सम्पादित एवं अनूदित
ग्रन्थो की सूची विस्तृत है जिनमे मीमांसा कौस्तुभ, ताण्ड्यब्राहमण, आपस्तम्ब धर्मसूत्र, वेदप्रकाशन्यायमाला, ध्वन्यालोक आदि प्रमुख हैं।
आपका सम्मान देश के उच्च शिक्षा संस्थाओ में सर्वदा होता रहा है। आप भारत
के राष्ट्रपति द्वारा पदम्भूषण उपाधि से सम्मानित किये गये है। इस समय आप वाराणसी
में वेद मीमांसा अनुसंधान केन्द्र स्थापित करके उसका संचालन करते हुए सुरभारती की
सेवा में संलग्न हैं।
आचार्य श्रीपट्टाभिराम शास्त्री को लोकोत्तर संस्कृत सेवा के प्रभावित
होकर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी एक लाख रुपये के 1984 वर्षीय संस्कृत भारती नामक पुरस्कार से सम्मानित करती हुई गौरवान्वित हो
रही है।
पद्मा मिश्रा
सुश्री पद्मा
मिश्रा का जन्म 1917 ई0 में मुरादाबाद में हुआ था। आप 1933 ई0 में पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के
पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत विषय में एम0ए0 की परीक्षा तथा 1955 ई0 में वहीं से आचार्य की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आपने डाॅ0 डी0 आर0 भण्डारकर के
साथ कलकत्ते में 1941 ई0 तक इतिहास में अन्वेषण कार्य किया। इसी समय उनकी सहायता से प्रकाशित ‘‘प्राचीन भारत‘‘ मुख पत्र का सम्पादन भी किया।
आप अक्टूबर, 1944 ई0 में
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वीमेन्स कालेज में कार्यरत हुई।
डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के लिये लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल आफ
ओरियण्टल कालेज में जुलाई 1965 में कार्यरत होकर डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। लंदन से लौटने के अनन्तर
अवकाश प्राप्ति तक संस्कृत विभाग में भी कार्यरत रहीं। वहीं से 1967 ई0 में अवकाश
प्राप्ति तक नव क्षात्राओं को अपने निर्देशन में पी.एच0डी0 उपाधि प्रदान कराई।
परमानन्द शास्त्री
आचार्य परमानन्द शास्त्री का जन्म उत्तर प्रदेश के मेरठ मण्डल के अन्तर्गत ‘‘अनवरपुर’’ ग्राम में 31.1.1926 ईस्वी को वशिष्ठ गोत्रिय गौड़ ब्राह्ण परिवार में हुआ। आपके पिता
आयुर्वेदज्ञ श्रीमन्त हरवंश लाल शर्मा त्रिवेदी तथा माता श्रीमती चमेली देवी थी।
आचार्य शास्त्री महोदय ने 1932 ईस्वी के
जुलाई मास में प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश लेकर अपने अध्ययन का शुभारम्भ किया।
आपकी शिक्षा संस्कृत, अंग्रेजी एवं उर्दू भाषा में
समसामयिक रूप में हुई। आपने सन् 1940 में प्रथमा’’ परीक्षा, सन् 1946 में ‘‘शास्त्री’’ परीक्षा
प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। आपने सन् 1949 में
बी.ए. की परीक्षा एवं 1954 में एम.एम. संस्कृत‘‘ परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। आपने सन् 1959 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से संस्कृत विषय में पी,एच.डी की उपाधि अर्जित की।
अध्ययनकाल में मेधावी रहे शास्त्री महोदय ने परिस्थियों के अनुकूल होने पर
शिक्षण कार्य प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम आपने सन् 1945 के जुलाई मास से लेकर सन् 1946 तक 66 श्री भगीरथी संस्कृत महाविद्यालय’’ गढ़
मुक्तेश्वर में अंग्रेजी शिक्षण का कार्य किया। उसके बाद विभिन्न संस्थाओं में
हिन्दी एवं संस्कृत के प्रवक्ता पद पर अध्यापन किया। श्री शास्त्री महोदय ने सन् 1954 से लेकर 1986 तक ‘‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’’ में संस्कृत
प्रवाचक पद पर सेवा की। सन् 1983 से सन् 1986 तक आप संस्कृत विभागाध्यक्ष के पद को अलंकृत करते हुए सेवानिवृत हुए। आपकी
शिष्य परम्परा अन्यत विशाल है। आपके अनेक शिष्य विभिन्न संस्थाओं में विशिष्ट पद
पर विराजमान हैं।
प्रतिभावान् श्री शास्त्री की संस्कृत एवं हिन्दी में लेखन कला अत्यन्त
विशिष्ट है। आपने राष्ट्रभाषा में आलोचनात्मक मौलिक ग्रन्थों की रचना की है। आपकी
रचनाएं गद्यपरक एवं गीतिपरक है। श्री शास्त्री जी की संस्कृत की तेरह (13) रचनाएँ हैं। आपकी ‘‘गन्ध-दूतम्‘‘ नामक ग्रन्थ ‘‘ उत्तर प्रदेश संस्कृत
संस्थान‘‘ से पुरस्कृत हैं। आपके ‘‘चीरहरण’’ नामक काव्य को सन् 1985 में ‘‘मध्य प्रदेश साहित्य परिषद्‘‘ द्वारा ‘‘कालिदास पुरस्कार’’ से सम्मानित किया जा चुका है। संस्कृत में रचित यह काव्य उर्दू एवं पारसी
काव्य के समान ही रस की अनुभूति देगा, ऐसा कवि का विचार
है। इसके अतिरिक्त ‘‘सन्तोषकल्पतरू‘‘ ‘‘स्वरभारती’’ नामक रचनाएँ भी प्रशंसनीय हैं।
इसके अतिरिक्त ‘‘दूर्वा’’ ‘‘स्वरमंगला’’ आदि बहुत सी संस्कृत पत्रिकाओं में शास्त्रीजी की विविध कविताएँ प्रायः
प्रकाशित होती रहती है।
आचार्य परमानन्द शास्त्री का जीवन ‘‘ऋषि-तुल्य’’ है। आपका समग्र जीवन संस्कृत की
सेवा में स्वलेखन, संस्कृत वाड्मय के पोषण एवं संवधर्न
में, और काव्य ग्रन्थों की रचना करने में संलग्न है।
आपकी समग्र सेवा को ध्यान में रखते हुए ‘‘उत्तर प्रदेश
संस्कृत संस्थान’’ आपको इक्यावन हजार रूपये के ‘‘विशिष्ट पुरस्कार‘‘ से सम्मानित करते हुए हर्ष
प्रकट करता है तथा गौरव का अनुभव करता है।
पेरी सूर्यनारायण शास्त्री
शास्त्री जी का जन्म 1910 ई0 में आन्ध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम् जनपद में स्थित चोदावरम् नामक गांव मे
हुआ था। आपके पिता का नाम पी0 सर्वेशम् तथा माता का नाम
सोमाम्मा था।
आपने आन्ध्र प्रदेश विश्वविद्यालय से 1933 ई0 में व्याकरण विद्या प्रवीण तथा 1931 ई0 में साहित्य विद्या प्रवीण की उपाधि उच्च
श्रेणी में प्राप्त की। साथ ही साथ आप अभय भाषा प्रवीण नामक उपाधि से भी अलंकृत
हुए।
आपने लगभग 35 वर्षो तक शासकीय महाराजा
संस्कृत विद्यालय विजयङगरम् में वरिष्ठ प्रवक्ता के पद पर अध्यापन किया। तिरुपति
तिरुमलाई देवस्थान में 4 वर्षो तक अध्येता पद पर
कार्य किया और अन्य शिक्षण संस्थाओं में भी सेवा की।
भण्डारकर प्राच्यशोध संस्थान से शोध बृति प्राप्त करते हुए। (स्फोटबाद)
विषय पर शोध कार्य किया। आपके शोध पत्र एवं अनूदित ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं।
तेलगू भाषा में तथा संस्कृत भाषा में आपका प्रशंसनीय कार्य रहा है। आजीवन छात्रों
एवं शोधार्थियों कों आपने अपना मार्ग दर्शन देते हुए संस्कृत का गौरव बढ़ाया। आप
राज्य सरकार भारत सरकार तथा राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत हुए हैं। देश की उच्च
शैक्षिक संस्थाओ में सदस्य होकर संस्कृत के गौरव को बढ़ाने में योगदान किया है।
आपके सार्वभौम व्यक्तिव एवं कृतित्व को देखकर एक लाख रुपये के 1985 वर्षीय विश्व संस्कृत भारती नामक सर्वेच्च पुरस्कार से सम्मानित करते हुए
उ0 प्र0 संस्कृत अकादमी
अत्यन्त गरिमा का अनुभव कर रही है।
प्रभाकर नारायण कवठेकर
प्रो0 प्रभाकर नारायण कवठेकर का जन्म
राजगुरू परिवार में जनपद इन्दौर में 19 सितम्बर,
1923 ई0 में हुआ। आपने परम्परानुसार
संस्कृत का अध्ययन 1934 से इन्दौर के शासकीय
संस्कृत महाविद्यालय प्रारम्भ किया। गुरूजनों के पास उन्होंने प्राचीन परिपाटी से
व्याकरण, साहित्य, स्मृति, पुराण, वेद, काव्यतीर्थ
परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आपने वाराणसी से मध्यमा, शास्त्री, और आचार्य की परीक्षा प्रथम श्रेणी
में उत्तीर्ण किया। 1944 में साहित्याचार्य की
उपाधि प्राप्त की। आगराविश्वविद्यालय से पी0 एच0 डी0 की डिग्री प्राप्त की। प्रयाग से
साहित्यरत्न भी किया।
श्री कवठेकर महोदय 1953 ई0 से अध्यापन कार्य प्रारम्भ किये। तीन वर्ष तक स्नातकोत्तर कक्षाओं को
पढ़ाया। इक्कीस शोधार्थी छात्रों को मार्ग निर्देश किया। इस समय भी शोध निर्देशन
कर रहे हैं। 1953 ई0 में
संस्कृत स्नातकोत्तर विभाग के अध्यक्ष एवं 1970 ई0 में शासकीय स्नातकोत्तर कालेज इन्दौर में प्राचार्य तथा 1978 ई0 में विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति रहे।
भारत सरकार के केन्द्रीय संस्कृत मण्डलाध्यक्ष के पद का निर्वाह करते हुए
श्री कवठेकर महोदय तिरूपति संस्कृत विश्वविद्यालय तथा दिल्ली संस्कृत
विश्वविद्यालयों को सम्मानित स्थान प्राप्त कराने में श्रेय प्राप्त किया। इस समय
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के अतिथि प्रोफेसर पद को सुशोभित कर रहे है।
श्री कवठेकर जी मराठी एवं हिन्दी काव्य-रचना में प्रख्यात होते हुए
संस्कृत काव्य रचना में अग्रणी हैं। आपका नया विदेश यात्रा वर्णन काव्य प्रशंशित
है। विदेशों में भी आपके संस्कृत काव्यों का प्रसारण दूरदर्शन के माध्यम से किया
जाता है। श्री गालिब के दीवान ग्रन्थ का पद्यानुवाद आपने किया है। भारत सरकार के प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य होने के कारण देश-विदेश
में नेतृत्व किया है। जिससे आप बहुत आदरणीय हुए।
प्रभात शास्त्री
डा0 प्रभात शास्त्री का जन्म जेष्ठ कृष्ण
द्वितीया 1975 विक्रमी संवत् में हुआ था। स्व0 श्री गंगाप्रसाद मिश्रजी आपके पूज्य पिता है।
श्री शास्त्री
जी सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से साहित्याचार्य एवं
विद्यावाचरूपति उपाधि प्राप्त कर चुके है। आपने श्री हर्ष सावित्री संस्कृत
पाठशाला दारागज प्रयाग में अवैतनिक रूप से अध्यापन कार्य किया।
संस्कृत साहित्य के संवर्धन में तत्पर श्री शास्त्री जी ने संस्कृत
ग्रन्थों के लिखने और उनके सम्पादन में अब भी योगदान कर रहे है। प्रमाण स्वरूप
उनके द्वारा सम्पादित ग्यारह ग्रन्थों में गीतगिरीशम्, रामगीतागोविन्दम्, गीताशंकर आदि ग्रन्थ प्रमुख है। इनके अतिरिक्त पच्चीस ग्रन्थ आपके द्वारा
सम्पादित किये जा चुके हैं। उनमें अध्यात्मरामायण, चन्द्रकलानटिका, भगवदज्जुकम्, समुद्रमंथन द्वारा सम्पादित किये जा
चुके हैं। अकबर कालिदास की कविता संस्कृत की स्त्री कवयित्रिया और उनके काव्य ये
दो ग्रन्थ अप्रकाशित हैं। आपने संस्कृत साहित्य के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य के
अनेक ग्रन्थों का सम्पादन एवं प्रकाशन किया है। श्री शास्त्री जी की कविताएँ
संस्कृत की पत्र-पत्रिकाओं मंे प्रकाशित हैं। संगमनी नामक संस्कृत पत्रिका का तेइस
वर्षों से प्रकाशन एवं सम्पादन चल रहा है। अक्टूबर 1941 के ‘‘विशाल भारत‘‘ संस्कृत
के प्रगतिशील कवि प्रभात शीषर्क से संस्कृत कविताओं पर समीक्षा लेख प्रकाशित है।
श्री शास्त्री जी को मानव संसाधन विकास मन्त्रालय द्वारा ‘‘शास्त्र चूड़ामणि‘‘ अध्येतावृत्ति प्राप्त है, और अन्य विश्वविद्यालयों से पी0एच0डी0 एवं फिल0 की
उपाधियाँ भी प्राप्त किये है। श्री शास्त्री जी ने विभिन्न विशिष्ट संस्थाओं में
सम्मानित सदस्य के रूप में संस्कृत की सेवा किये। सम्पूर्णानन्द संस्कृत
विश्वविद्यालय के शिष्ट परिषद् एवं कार्यपरिषद् के सम्मानित सदस्य रह चुके है।
श्री शास्त्री जी उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा अपनी सम्पादित पुस्तकों के
लिये तीन बार पुरस्कृत हुए। भारत के महामहित राष्ट्रपति द्वारा संस्कृत पाण्डित्य
एवं शास्त्र में विशारदता के लिये 1993 में
सम्मानित किये गये। आप अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत हैं।
पुल्लेल श्री रामचन्द्रुडु
प्रो. पुल्लेल श्री रामचन्द्रुडु का जन्म दिनांक 24.10.1927 ई0 को आन्ध्र प्रदेश के पूरब गोदावार जिले के
अन्तर्गत इन्दुपल्ली गाँव के प्रसिद्ध पण्डित परिवार में हुआ था। उन्होंने
बाल्यकाल में अपने पिता श्री सत्यनारायण शास्त्री जी और व्याकरण के पसिद्ध
विद्वान् श्री कोम्पेल्ल सुब्बराय शास्त्री जी के पास व्याकरण शास्त्र का अध्ययन
किया।
मद्रास विश्वविद्यालय से सम्बद्ध मद्रास संस्कृत विद्यालय में 1943 से 1947 तक अध्ययन करते हुये आपने ‘‘वेदान्तशिरोमणि‘‘ की परीक्षा प्रथम श्रेणी में
प्रथम स्थान प्राप्त करके उत्तीर्ण किया। आपने मद्रास विश्वविद्यालय से ही ‘‘तेलुगु विद्वान्‘‘ परीक्षा भी उत्तीर्ण किये।
संस्कृत साहित्य शास्त्र को पण्डितराज जगन्नाथ की देन, इस
विषय पर लिखे गये निबन्ध पर उस्मानिया विश्वविद्यालय से पी0एच0डी0 की उपाधि प्राप्त किया।
श्री रामचन्द्रुडु जी उस्मानिया विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के
आचार्य पद को अलंकृत करके 1977 ई0 में सेवानिवृत्त होने के बाद यू0जी0सी0 अतिथि प्रोफेसर पद को सुशोभित किया। आपने
उस्मानिया विश्वविद्यालय से सम्बद्ध संस्कृत अकादमी के निदेशक पद पर कार्य किया।
आपने पचासों ग्रन्थों का लेखन अनुवाद एवं सम्पादन किया है। आपका पाली
ग्रन्थ धम्मपद का संस्कृत में श्लोकानुवाद एवं पारसीक लोकोक्ति ग्रन्थ का भी
संस्कृत मंे अनुवाद प्रशस्य है। अंग्रेजी भाषा में भी अनेक ग्रन्थों की रचना किये
हैं।
श्री रामचन्द्रुडु महोदय 1985 में आन्ध्र
प्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा तथा 1991 में तेलुगु
विश्वविद्यालय से एवं उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भी दो बार पुरस्कृत हो चुके है। 1987 में आप राष्ट्रपति पुरस्कार द्वारा सम्मानित किये गये हैं।
आपके सार्वभौम व्यक्तित्व एवं कृतित्व को देखते हुये उत्तर प्रदेश संस्कृत
संस्थान 1913 वर्ष कके एक लाख रूपये के
विश्वविभारती नामक सर्वोच्च पुरस्कार से आपको सम्मानित करता हुआ अत्यन्त गौरव का
अनुभव करता है।
प्रशस्यमित्रः शास्त्री
डा.
प्रशस्यमित्रशास्त्रिणः जन्म बिहारप्रान्तस्थ-सीवानजनपदे 01.07.1949 ईशवीयाऽब्दे बभूव
परन्तु शैशवकालादेव ते कानपुरनगरे स्वकीयपितृभ्यां समं प्रतिष्ठिताः। तेषां जनकाः
पं. श्री जगन्नाथ प्रसाद शास्त्रिणः आर्यसमाजस्य पुरोहिताः संस्कृतज्ञाश्च आसन्।
डा.
प्रशस्यमित्रशास्त्रिणः प्रारम्भिकी संस्कृतशिक्षा फैजाबादस्थे अयोध्यागुरुकुलमहाविद्यालये
बभूव। तदनन्तरं ते वाराणस्यां दशवर्षपर्यन्तं पं. श्री
ब्रह्मदत्तजिज्ञासुमहोदयानाम् अन्तेवासित्वे व्याकरण-निरुक्तादि शास्त्रणाम्
अध्ययनं कृतवन्तः।
वाराणसेयसंस्कृतविश्वविद्यालयादेव
शास्त्री-आचार्यादिपरीक्षा प्रथमस्थानपूर्वकम् उत्तीर्य कानपुरविश्वविद्यालयतः
एम.ए. परीक्षायां चतुःस्वर्णपदकं प्राप्तवन्तः। महात्मागांधीकाशीविद्यापीठात्
पी-एच.डी. उपाधिम्प्राप्य अष्टचत्वारिंशद्वर्ष-पर्यन्त्तं
फीरोज-गांधी-स्नातकोत्तर-महाविद्यालये संस्कृतविभागे सेवारताः आसन्। 2011 तमे वर्षे ते सेवानिवृत्ताः।
डा. शास्त्रिणः निर्देशने अनेके छात्राः कानपुरविश्वविद्यालायतः शोधोपाधिं
प्राप्तवन्तः।
डा.
प्रशस्यमित्रशास्त्रिणः संस्कृतभाषायाः प्रख्यातकवयः वर्तन्ते।
हास्य-व्यंग्यक्षेत्रे तेषां व्यंग्यरचना ‘व्यंग्यार्थ-कौमुदी’’ मध्यप्रदेशस्य
कालिदाससंस्कृत अकादमी उज्जैन द्वारा अखिलभारतीयकालिदासपुरस्कारेण 2008 वर्षे पुरस्कृता। ‘‘हासविलास’’ इति ग्रन्थश्च उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा विशेषपुरस्कारेण
पुरस्कृतः।
डा. शस्त्रिणः
संस्कृतकथासंग्रहः ‘अनभीप्सितम्’ इति साहित्य अकादमी पुरस्कारेण पुरस्कृतः सम्मानितश्च। ‘‘अनाघ्रातं पुष्पम्’’ इति कथा संग्रहश्च दिल्ली
संस्कृत अकादमी द्वारा पुरस्कृतः।
तेषाम् अन्याः
रचनाश्चाऽपि तद्यथा-कोमलकण्टकावलिः, संस्कृतव्यंग्यविलासः, आषाढ़स्यप्रथमदिवसे
प्रभृतयः उत्तरप्र्रदेश संस्कृतसंस्थानस्य विविधपुरस्कारणे पुरस्कृताः। डा.
शास्त्री राजस्थान-संस्कृत-उत्तरप्रदेश अकादमी द्वाराऽपि पुरस्कृतः।
2013 वर्षस्य
स्वाधीनतादिवसाऽवसरे ते भारतवर्षस्य महामहिम राष्ट्रपति महोदयेनाऽपि सम्मानिताः
पुरस्कृताश्च।
प्रमोद बाला मिश्रा
डॉ.श्रीमती
प्रमोद बाला मिश्रा उत्तरप्रदेशस्य बलरामपुरनगरे 21 सितम्बर 1949 इशवीये
जनिं लेभे। एतस्याः पिता स्वर्गीयः श्री भार्गव प्रसाद त्रिपाठी तदानीं कृषि
विभागे राजपत्रितोऽधिकारी आसीत्।
डॉ.मिश्रायाः
प्राथमिकी शिक्षा गोरखपुरनगरस्य सरस्वती शिशुमन्दिरे जाता तथा तत एव गोरखपुर
विश्वविद्यालयात् संस्कृतविषये एम.ए. परीक्षां प्रथमश्रेण्यां समुत्तीर्य इयं
विदुषी तत एव विश्वविद्यालयानुदानायोगस्य कनिष्ठशोधच्छात्रवृत्तिम् अवाप्य
पीएच.डी. शोधेपाधिं लब्धवती। डा. मिश्रा आरम्भतः एव प्रतिभासम्पन्ना आसीत्, अतः नवमकक्षातः स्नातकोत्तरं यावदियं
योग्यता-छात्रवृत्तिं तथा स्नातकोत्तर कक्षायां सर्वतोऽधिकान् अङ्कान् च
प्राप्तवती। डा. मिश्रायाः वेदवेदाङ्गे साहित्ये दर्शने च विशेषाभिरुचिर्वर्तते।
डा.
प्रमोदबाला शोधेपाधिं प्राप्य बरेलीनगरे बरेली महाविद्यालयस्य स्नातकोत्तरविभागे
सन् 1973 तः 2012 ईशवीयं यावत् ऊनचत्वारिंशद् वर्षाणि संस्कृतविषयम् अध्यापितवती।
अस्मिन्नवधै इयं निम्नाङ्कितपुस्तकानि समपादयत्-
1. वेदसंचयनम् 2. मानव श्रौतसूत्रम्
3. मानवगृह्यसूत्रम् 4. वाराह श्रौतसूत्रम्
5. वैखानस श्रौतसूत्रम् 6. वैतान श्रौतसूत्रम्
7. पाणिनीय शिक्षा
इयं महाभागा
श्रौतयागेषु प्रयुक्तानि महत्त्वपूर्णानि पारिभाषिकपदानि विवेचितवती। डा. मिश्रा
अखिलभारतीय- प्राच्यविद्यासम्मेलनस्य अनेकेषु अध्विेशनेषु राष्ट्रियसंगोष्ठीषु च
शोधपत्रवाचनम् अकार्षीत्। किञ्च स्थानीयसंस्कृतसंगोष्ठीनाम् आयोजनम् तथा
संस्कृतसम्भाषणशिविराणां संयोजनं च अनया मिश्रामहोदयया बहुधा विहितम्।
डा.
मिश्रामहोदयायाः मार्गनिर्देशने प्रायः चत्वारिंशत शोधच्छात्रैः, पीएच.डी. शोधेपाधये शोप्रबन्ध
आरचिताः। अपि च विश्वविद्यालयनुदानायोगेन स्वीकृतासु नैकाषु वैदिकपरियोजनासु अनया
महाभागया शोधकार्यं कृतम्।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेनैषा
एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यकेन विशिष्टपुरस्कारेण सभाजिता।
डा. श्रीमती
प्रमोद बाला का जन्म उत्तरप्रदेश के बलरामपुर नगर में 21 सितम्बर 1949 को हुआ है। इनके पिता स्वर्गीय श्री भार्गव प्रसाद त्रिपाठी कृषि विभाग
में राजपत्रित अधिकारी थे।
डा. मिश्रा की
प्राथमिक शिक्षा सरस्वती शिशु मन्दिर गोरखपुर में तथा गोरखपुर विश्वविद्यालय से ही
इन्होंने संस्कृत में एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण करके वहीं से विश्वविद्यालय अनुदान
आयोग की कनिष्ठ शोध छात्रवृत्ति प्राप्त करके संस्कृत में पीएच्.डी. शोधेपाधि
प्राप्त की है। इन्होंने एम.ए. परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त किया था और
इन्हें कक्षा नवीं से एम.ए. तक योग्यता छात्रवृत्ति मिलती थी। डा. मिश्र की वेद, वेदाङ्ग और
साहित्य में विशेष अभिरुचि है।
डा. प्रमोद
बाला ने शोधेपाधि प्राप्त करने के बाद बरेली कालेज के स्नातकोत्तर विभाग में 1973 से 2012 कुल 39 वर्षों तक संस्कृत का अध्यापन
कार्य किया है। इस अवधि में इन्होंने निम्नांकित पुस्तकों का सम्पादन किया है-
1. वेद संचयनम् 2. मानव श्रौतसूत्रम्
3. मानव गृह्य सूत्रम् 4. वाराह श्रौतसूत्रम्
5. वैखानस श्रौतसूत्रम् 6. वैतान श्रौतसूत्रम्
7. पाणिनीय शिक्षा
इन्होंने
श्रौतयागों में प्रयुक्त महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों की विवेचना भी की है। इसके
अतिरिक्त डा. मिश्रा ने अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलनों के अनेक अध्विेशनों
में तथा राष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध पत्र वाचन किया है, स्थानीय संस्कृत संगोष्ठियों का आयोजन
किया है और संस्कृत सम्भाषण शिविरों का संयोजन किया है।
डा. मिश्रा के
मार्गनिर्देशन में प्रायः 40 शोधच्छात्रों ने
पीएच.डी. उपाधि हेतु अपने शोध प्रबन्धों को पूरा किया है। इसके साथ अनेक वैदिक शोध
परियोजनाओं में आपने कार्य किया है।
डॉ.श्रीमती
प्रमोद बाला मिश्रा की संस्कृत सेवा का मूल्यांकन करते हुए उत्तर प्रदेश संस्कृत
संस्थान इन्हें रूपये एक लाख एक हजार के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया।
प्रभुनाथ द्विवेदी
उत्तरप्रदेशस्य
मीरजापुरमण्डलस्यैकस्मिन् ग्रामे कृषिकर्मपरायणे सदाचारनिष्ठविप्रवंशे 1947 तमस्य
ख्रिष्टाब्दस्यागस्तमासस्य पञ्चविंशतितमे दिनांके लब्धजन्मनो डा.
प्रभुनाथद्विवेदिनोमातुर्नाम स्वञ्श्रीमती रामकुमारीद्विवेदी पितुश्चाभिख्या
स्व.
पण्डितनन्दकिशोरद्विवेदी अस्ति। अयं प्राथमिकशिक्षां ग्रामविद्यालये, माध्यमिशिक्षां मीरजापुरनगरे
उच्चशिक्षाञ्च वाराणसीनगरे लब्धवान्। आशैशवात्साहित्यिकरुचिसम्पन्नोऽयं
प्रतिभाशाली छात्रः परीक्षासु लब्धोच्चश्रेणीकः छात्रवृत्तिमर्जितवान्।
वाराणसीस्थकाशीविद्यापीठमिति विश्वविद्यालयतः संस्कृतविषयमधिकृत्य सर्वोच्चैरङ्कैः
प्रथमश्रेण्यां ‘एम.ए., इति
परीक्षामुत्तीर्य विश्वविद्यालय अनुदान-आयोगतः कनिष्ठ शोध वृत्तिं समवगाय
संस्कृतिकविभागाध्यक्षस्य विद्वद्वरेण्यस्य
प्रो.
अमरनाथपाण्डेयमहानुभावस्य सन्निर्देशने शोधकार्यं विधाय ‘पी-एच.डी.’ इत्युपरधिमधिगत्वान्।
ततो
बलरामपुरस्थ म.ला. कुँ स्नातकोत्तरमहाविद्यालये प्राध्यापकपदे नियुक्तोऽघापनं
समारभत। अथ च, वाराणस्यां
काशीविद्यापीठस्य संस्कृतविभागे प्राध्यापकारूपेणाध्यापनमारभ्य क्रमशस्तत्रैवोपा
चार्यपदे च प्रोन्नति समुपलभ्यान्ततः 2010 तमस्य
ख्रिष्टाब्दस्य जूनमासस्य 30 तमे दिनाङ्के
त्रयस्त्रिंशद्वर्षीयाऽध्यापनसेवातो निवृत्तः। सेवानिवृत्तेरनन्तरमपि प्रो.
द्विवेदी देशस्य नैकेषु विश्वविद्यालयेषु ‘विजटिंग फेलो’ अपि च ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ इति पदमलङ्कृतवान्।
विश्वविद्यालयस्य
सर्वोत्तमशिक्षकपुरस्कारेण सभाजितः सदाचारपरायणः कर्मनिष्ठः सुयोग्यः शिक्षकः
प्रो. प्रभुनाथद्विवेदी नानाप्राशासनिक पदानि महता कौशलेन निव्र्यूढवन्।
साहित्यसाधनया सदैव संस्कृतस्य प्राचरप्रसारविधिष्वपि मनोयोगपूर्वकं प्रयत्नपरोऽयं
मनीषी राष्ट्रियास्वन्ताराष्ट्रियासु च विद्वद्गोष्ठीषु सार्द्ध शतसंख्याकानि
शोधपत्राणि विशिष्टव्याख्यानि। च प्रस्तुतवान्। डा. द्विवेदी विश्वविद्यालया
अनुदान आयोगस्य वित्तीयसाहाय्येन बृहच्छोधपरियोजना अपि पूरितवान्।
प्रो.
प्रभुनाथद्विवेदिप्रणीतानां समीक्षात्मकानां स्वोपज्ञानाञ्च ग्रन्थानां संख्या
चत्वारिंशामिता (40) वर्तते। आम्रचार्य
जयरथकृतस्य-‘अलङ्कारोदारहरणम्’ इति
ग्रन्थस्य द्वे पाण्डुलिपी अन्विष्य तयोर्विमर्शपूर्वकं संस्कृतटीकानां सम्पादने
निरतोऽस्ति।
अधुना
संस्कृतजगति प्रो. प्रभुनाथद्विवेदी गद्यकाव्यप्रणयने विशिष्टते। ‘श्रीरामानन्दचरित्रमित्येकः
संस्कृतोपन्यासोऽपि च, ‘कथा कौमुदी’ ‘श्वेतदूवा’,
‘अन्तध्र्वनिः ‘कनकलोचन’श्चेति चत्वारः संस्कृतकथासङ्ग्रहाः प्रकाशिताः पुरस्कारैश्च समाजिताः
सन्ति। तत्र लक्षरुप्यकालकौ श्रीरामानन्दाचार्यपुरस्कार-साहित्य-अकादमीपुरस्कारौ, बाणभट्टपुरस्कारादयो नैके पुरस्काराः ससम्मानं विभिन्नसंस्थाभिरस्मै
प्रदत्तः।
प्रभुनाथ द्विवेदी
उत्तरप्रदेशस्य
मीरजापुरमण्डलस्यैकस्मिन् ग्रामे कृषिकर्मपरायणे सदाचारनिष्ठविप्रवंशे 1947 तमस्य ख्रिष्टाब्दस्यागस्तमासस्य पञ्चविंशतितमे दिनांके लब्धजन्मनो आचार्य
प्रभुनाथद्विवेदिनोमातुर्नाम स्व. श्रीमती रामकुमारीद्विवेदी पितुश्चाभिख्या
स्व.
पण्डितनन्दकिशोरद्विवेदी अस्ति।
एते प्राथमिकशिक्षां ग्रामविद्यालये, माध्यमिशिक्षां
मीरजापुरनगरे उच्चशिक्षाञ्च वाराणसीनगरे लब्धवन्तः।
आशैशवात्साहित्यिकरुचिसम्पन्नोऽयं प्रतिभाशाली छात्रः परीक्षासु लब्धोच्चश्रेणीकः
छात्रवृत्तिमर्जितवान्। वाराणसीस्थकाशीविद्यापीठमिति विश्वविद्यालयतः
संस्कृतविषयमधिकृत्य सर्वोच्चैरङ्कैः प्रथमश्रेण्यां ‘एम.ए., इति परीक्षामुत्तीर्य विश्वविद्यालय-अनुदान-आयोगतः कनिष्ठ शोधवृत्तिं
समवाप्य संस्कृतकविभागाध्यक्षस्य विद्वद्वरेण्यस्य प्रो. अमरनाथपाण्डेयमहानुभावस्य
सन्निर्देशने शोधकार्यं विधाय ‘पी-एच.डी.’ इत्युपाधिमधिगत्वान्।
ततो
बलरामपुरस्थ म.ला. कुँ स्नातकोत्तरमहाविद्यालये प्राध्यापकपदे नियुक्तोऽध्यापनं
समारभत। अथ च, वाराणस्यां
काशीविद्यापीठस्य संस्कृतविभागे प्राध्यापकरूपेणाध्यापनमारभ्य
क्रमशस्तत्रैवोपाचार्यपदे च प्रोन्नतिसमुपलभ्यान्ततः 2010 तमस्य ख्रिष्टाब्दस्य जूनमासस्य 30 तमे
दिनाङ्के त्रयस्त्रिंशद्वर्षीयाऽध्यापनसेवातो निवृत्तः। सेवानिवृत्तेरनन्तरमपि
आचार्य द्विवेदी देशस्य नैकेषु विश्वविद्यालयेषु ‘विजटिंग
फेलो’ अपि च ‘विजिटिंग
प्रोफेसर’ इति पदमलङ्कृतवान्।
आचार्य
प्रभुनाथद्विवेदिप्रणीतानां समीक्षात्मकानां स्वोपज्ञानाञ्च ग्रन्थानां संख्या
चत्वारिंशामिता (40) वर्तते। सम्प्रति
आचार्यः आम्रचार्य जयरथकृतस्य-‘अलङ्कारोदारहरणम्’ इति ग्रन्थस्य द्वे पाण्डुलिपी अन्विष्य तयोर्विमर्शपूर्वकं
संस्कृतटीकानां सम्पादने निरतोऽस्ति।
तत्र लक्षरुप्यकालकौ श्रीरामानन्दाचार्यपुरस्कार-साहित्य-अकादमीपुरस्कारौ, बाणभट्टपुरस्कारादयो नैके पुरस्काराः ससम्मानं विभिन्नसंस्थाभिरस्मै
प्रदत्तः। 2010 इसवीये वर्षे आचार्य द्विवेदी
महोदयः उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थानतः विशिष्टपुरस्कारेण सम्मानितः वर्तते।
हिन्दी
आचार्य प्रभुनाथ द्विवेदी का उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जनपदान्तर्गत एक
गाँव में कृषक और सदाचारनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में 25 अगस्त, 1947 ई. जन्म हुआ। डॉ. प्रभुनाथ
द्विवेदी की माता जी का नाम स्व. रामकुमारी द्विवेदी और पिताजी का नाम पण्डित
नन्दकिशोर द्विवेदी है। इन्होंने प्राथमिक शिक्षा गाँव के विद्यालय में, माध्यमिक शिक्षा मीरजापुर नगर में तथा उच्चशिक्षा वाराणसी नगर में प्राप्त
की। बाल्यकाल से ही साहित्यिक अभिरुचिसम्पन्न प्रतिभाशाली श्री द्विवेदी ने
विद्यापीठ (विश्वविद्यालय) से संस्कृत विषय में सर्वोच्च अंकांे के साथ
प्रथमश्रेणी में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से
जूनियर रिसर्च फेलोशिप प्राप्त करके विभागाध्यक्ष विद्वदुवरेण्य प्रो. अमरनाथ
पाण्डेय जी के सुचारु निर्देशन में शोधकार्य सम्पन्न करके पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त
की। तत्पश्चात् बलरामपुर स्थित म.ला. कुं. स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राध्यापक
नियुक्त होकर अध्यापन आरम्भ किया। तदन्तर काशी विद्यापीठ, वाराणसी के संस्कृत विभाग में प्राध्यापक के रुप में अध्यापन आरम्भ करके
क्रमशः उपाचार्य और आचार्य पद पर प्रोन्नत होते हुए 30 जून, 2010 ई. को 33 वर्ष की अध्यापन से सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी प्रो.
द्विवेदी ने देश के कई विश्वविद्यालयों में ‘बिजिटिंग
फेलो’ और ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के पदों को सुशोभित किया।
प्रो.
प्रभुनाथ द्विवेदी द्वारा लिखित समीक्षात्मक और मौलिक ग्रन्थों की संख्या चालीस
है। आपने आचार्य जयरथ कृत ‘अलंकारोदाहरणम्’ की दो पाण्डुलिपियाँ की खोज करके उन दोनों का तुलनात्मक पाठ विमर्श करके
सम्पादन किया है तथा ‘मेघदूत’ नामक गीतिकाव्य की छब्बीस (26) टीकाओं का
सम्पादन करने में लगे हैं।
आपको ‘श्रीरामानन्दचार्य पुरस्कार और
साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा बाणभट्ट पुरस्कारादि अनेक पुरस्कार विभिन्न संस्थाओं
द्वारा प्रदान किये गये हैं। वर्ष 2010 में इन्हें
इक्यावन हजार रुपये का विशिष्ट पुरस्कार उ.प्र. संस्कृत संस्थान द्वारा प्रदान
किया गया है।
प्रेमा अवस्थी
संस्कृतवाङ्मये
कृतभूरिपरिश्रमाः परमविदुष्यः डाँ. प्रेमाऽवस्थिमहोदयाः उत्तरप्रदेशस्य
सीतापुरजनपदस्य छरासीग्रामे मईमासस्य पञ्चदशतरिकायां
त्रिचत्वारिंशदुत्तरैकोनविशतितमे ईसवीयवर्षे (15-5-1943) जनिमलभन्त।
अवस्थिमहोदयाः
सीतापुरजनपदस्य कमलापुरे प्रारम्भिकशिक्षां सम्प्राप्य लखनऊविश्वविद्यालयतः
स्नातकोत्तरपरीक्षां प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्य स्वर्णपदकञ्चाप्य पी-एच.डी अपि
तस्माद् विश्वविद्यालयात् कृतवत्यः।
अवस्थिमहोदयाः
अगस्तमासस्य एकोनसप्तत्युत्तरनवदशतमे वर्षे कर्णपुरस्थकिदवईनगरे
महिलामहाविद्यालयस्य संस्कृतविभागे नियुक्तास्तत्रैव विभागस्याध्यक्षपदमलङ्कृत्य
जूनमासे ×यधिकद्विसहस्रतमे वर्षे
(जून 2003 ई.) सेवानिवृत्ताः सञ्जाताः।
एताः महोदयाः
विंशत्यधिकग्रन्थान् प्रणीय अखिलभारतीस्तरे अन्ताराष्ट्रियस्तरे च समायोजितासु
गोष्ठीसु भागं गृहीतवत्यश्शोधपत्रवाचनं विहितवत्यश्च। एताभिः प्रणीतेषु ग्रन्थेषु
नारायण ‘कृत मानमेयोदयम्
एकमालोचनात्मकमध्ययनम्’, भारविकृतकिरातार्जुनीयस्य
समीक्षा इत्यादि प्रमुखाः सन्ति।
एताः महोदयाः भारतसर्वकारस्य विविधाभ्यः संस्थाभ्यः अनेकपुरस्कारैः
सभाजिताः सन्ति। कर्णपुरे अखिलभारतीयसंस्कृतप्रचारिणीसमित्या, अखिलभारतीयहिन्दीप्रचारिणीसमित्या च सभाजिताः एताः राष्ट्रियस्तरे
समायोजितकालिदासव्याख्यानमालायाः प्रदेशस्तरीयवैदिकगोष्ठ्याः
राष्ट्रियस्तरेऽद्वैतवेदान्तविषयकसंगोष्ठ्याः, राष्ट्रियस्तरीयवैदिकसंगोष्ठ्याश्च
सफलतापूर्वकमायोजन´्च कृतवत्यः। अवस्थिमहोदयाः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन
विशिष्टपुरस्कारेणापि सम्मानिताः।
संस्कृतभारत्याः माध्यमेन संस्कृतस्य प्रचाराय प्रसाराय च सततनिरताः
संस्कृतसंभाषणशिविराणि निःशुल्कं पाठयन्त्यः गीतापीयूषमिति पत्रिकायाः
श्रीमद्भगवद्गीतायाः अमूल्याध्यात्मिकतत्वानि जने जने सम्प्रेषणे कृतसंकल्पाः, ज्ञानपिपासुशोधच्छात्रेभ्यः सन्मार्गदर्शनस्वच्छसलिलाः कर्णपुरे
रतनलालनगरे दिव्यधम्नि संवसन्त्यः संस्कृतसेवामहर्निशञ्चाचरत्यः शोभन्तेतराम्।
फूलचन्द जैन
प्रो.
फूलचन्दजैनः मध्यप्रदेशस्य सागरजनपदस्य दलपतपुर नामके ग्रामे 12 जुलाई 1948 तमे दिनाङ्के जनिं लेभे। अस्य माता श्रीमती उद्यैती देवी तथा पिता सिंघई
नेमीचन्दजैन आसीत्। अस्य प्राथमिकी शिक्षा पैत्रिके ग्रामे एवाभूत्। ततः
पारम्परिकशिक्षार्थं पञ्च वर्षाणि भवान् मध्यप्रदेशस्य कटनी नगरे श्रीशान्तिनिकेतन
जैनसंस्कृतविद्यालये अधीतवान्। ततो वाराणस्यां सुप्रसिद्धे स्याद्वाद संस्कृत
महाविद्यालये आचार्यपर्यन्तम् अध्ययनं कृतवान्। तदनन्तरं भवान्
काशीहिन्दूविश्वविद्यालयतः जैनदर्शनशास्त्राचार्यस्य उपाधिं तथा पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थानेऽनुसन्दधनः ‘पीएच्.डी.’ इत्युपाधिं च लब्धवान्।
प्रो. जैनः
अध्ययनात्परं जैनविश्वभारती, लाडनूं राजस्थानसंस्थायाम् आदौ अध्यापनकार्यम् आरभ्य ततः वाराणस्यां
सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयस्य जैनदर्शनविभागे दीर्घकालं विभागाध्यक्षपदम्
आचार्यपदञ्चालमकार्षीत्। तत्र सेवाकालं निर्वत्र्य भवान् दिल्लीनगरे भोगीलाल
लेहरचन्द इंस्टिट्यूट आफ इण्डोलाॅजी संस्थाया निदेशकपदं सुशोभितवान्। प्रो. जैनः
भारतशासनस्य मानवसंसाधनविकासमन्त्रालयेन घटितायाः संस्कृतपरिषदः सम्मानितः सदस्यः
अथ च भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषदः गौरवार्हः अध्यक्षश्च आसीत्।
सम्प्रति
प्रो. जैनः जैनविश्वभारती संस्थाने सम्मानिताचार्यः, स्याद्वाद महाविद्यालयस्य सक्रियोऽध्ष्ठिाता च वर्तते।
प्रो. प्रेमी मथुरातः प्रकाश्यमानस्य ‘जैनसन्देश’ पाक्षिकपत्रस्य मानदः सम्पादकः, अनेक-ग्रन्थानां
सम्पादकः, मौलिकग्रन्थानां लेखकश्चास्ति। भारतीयज्ञानपीठ, नईदिल्लीतः सद्यः प्रकाशितं भवतः ‘श्रमण
संस्कृति एवं वैदिक व्रात्य’ पुस्तकं मनीषिभिः
प्रशंसतिम्।
प्रो. जैनः
महावीरपुरस्कारेण, श्रुतसंवर्धनपुरस्कारेण, अहिंसा अन्ताराष्ट्रियपुरस्कारेण, आचार्यज्ञानसागर
पुरस्कारेण, गोम्मटेश्वरपुरस्कारेण, जैनागम-मनीषासम्मानेन, जैनरत्नेति उपाध्निा च
विभूषितोऽस्ति।
प्रो. जैनस्य
जैनधर्मदर्शनप्राकृत-संस्कृतसाहित्यविषयकाः शताधिका आलेखाः सन्ति प्रकाशिताः।
आचार्यजैनेन राष्ट्रिया अन्ताराष्ट्रियाः संगोष्ठड्ढः कार्यशालाः सम्मेलनानि
चायोजितानि। अस्य मार्गदर्शने नैके शोधच्छात्राः शोधोपाधिं लब्धवन्तः।
जैनधर्मदर्शनप्राकृतसंस्कृतापभ्रंशभाषासाहित्यक्षेत्रस्य वरिष्ठो विद्वान् प्रो.
जैनोऽद्यापि प्राचीनशास्त्राणाम् अध्ययनाध्यापने ग्रन्थानां सम्पादनलेखने च
निरन्तरं प्रवर्तते।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम्
प्रो. फूलचन्द जैन ‘प्रेमी’ महोदयस्य सुदीर्घां प्राच्यविद्यासेवां तत्र सत्यनिष्ठां च केन्द्रीकृत्य
एनम् एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यकाणां विशिष्टपुरस्कारेण पुरस्कृतवान्।
हिन्दी
प्रो. जैन जी
इतिहास, जैनधर्म-दर्शन, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश
भाषा एवं साहित्य क्षेत्र के वरिष्ठ विद्वान् हैं। आपका जन्म दिनांक 12 जुलाई 1948 को दलपतपुर, जिला सागर (म.प्र.) में माता-पिता श्रीमती
उद्यैती देवी-सिंघई नेमीचंद जैन के यहाँ हुआ। आपकी प्राथमिक शिक्षा पैतृक गाँव में
ही हुई, इसके पश्चात् पारंपरिक शिक्षा हेतु पांच वर्ष
तक आपने कटनी (म.प्र.द्ध के श्री शान्तिनिकेतन जैन
संस्कृत विद्यालय में अध्ययन किया। तत्पश्चात् आपने वाराणसी के सुप्रसि( श्री
स्याद्वाद महाविद्यालय में आचार्य पर्यंत अध्ययन किया। आपने काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय से शास्त्राचार्य (जैनदर्शनद्ध तथा
पाश्र्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में शोधकार्य करते हुए पीएच.डी. की उपाधि
प्राप्त की है।
आपने अध्यापन
कार्य का शुभारम्भ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) जैन उच्च शिक्षा संस्थान से
किया। तदनन्तर संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
में दीर्घकाल तक जैनदर्शन विभाग के प्रोपेफसर एवं विभागाध्यक्ष के रूप में
बहुमूल्य सेवाएं प्रदान कीं। इसके पश्चात् आपने दिल्ली स्थित भोगीलाल लहेरचन्द
इंस्टीट्यूट ऑफ इंडोलॉजी के निदेशक पद को भी सुशोभित किया। केंद्र सरकार के मानव
संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा गठित संस्कृत परिषद् के आप सम्मानित सदस्य तथा अखिल
भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत् परिषद् के अध्यक्ष रह चुके हैं।
वर्तमान में
आप जैन विश्वभारती संस्थान (मानद विश्वविद्यालय)
लाडनूं राजस्थान में एमेरिटस प्रोफेसर तथा श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के अध्ष्ठिाता के रूप में सक्रिय हैं, तथा
मथुरा से प्रकाशित पाक्षिक पत्र ‘जैन सन्देश’ के मानद सम्पादक भी हैं। आपने कई मौलिक ग्रंथों के सृजन के साथ-साथ अनेक
ग्रंथों का सम्पादन किया है। भारतीय ज्ञानपीठ, नई
दिल्ली से सद्यः प्रकाशित ‘श्रमण संस्कृति एवं वैदिक
व्रात्य’ नामक पुस्तक अनेक मनीषियों द्वारा प्रशंसित, आपकी सुप्रसिद्ध कृति हैं। ‘जैनरत्न’ की उपाधि से विभूषित आप महावीर पुरस्कार, श्रुत
संवधर््न पुरस्कार, अहिंसा इण्टरनेशनल पुरस्कार, आचार्य ज्ञानसागर पुरस्कार, गोम्मटेश्वर
पुरस्कार, जैन आगम मनीषा सम्मान आदि अनेक राष्ट्रीय
स्तर के पुरस्कारों से सम्मानित हैं।
विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों
में जैनधर्म-दर्शन एवं प्राकृत-संस्कृत साहित्य विषयक शताधिक शोध एवं सामयिक आलेख
प्रस्तुत करने एवं उनके प्रकाशित होने के साथ-साथ आपने अनेक राष्ट्रीय संगोष्ठियों, सम्मेलनों, प्राकृत कार्यशालाओं का सफल संयोजन
किया है। अब तक अनेक शोधर्थी आपके मार्गनिर्देशन में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर
चुके हैं एवं कर रहे हैं। आज भी आप संस्कृत और प्राकृत भाषा के प्राचीन शास्त्रों
के अध्यापन, सम्पादन एवं लेखन कार्य में निरंतर संलग्न
हैं।
उत्तरप्रदेश
संस्कृत संस्थान प्रो. पूफलचन्द जैन ‘प्रेमी’ जी की सुदीर्घ प्राच्यविद्या सेवा एवं
संस्कृत निष्ठा को देखकर उन्हें एक लाख एक हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से
सम्मानित किया।
बलदेव उपाध्याय
पद्मभूषण से सम्मानित आचार्य बलदेव उपाध्याय जी का जन्म 10 अक्टूबर 1899 ईसवी में बलिया जिले मे
स्थित सोनवरसा नामक ग्राम में पवित्र सरयूपारी ब्राहमण परिवार में हुआ था। आपने 1916 ई0 में स्कूल लिविंग परीक्षा प्रथम क्षेणी में
उत्तीर्ण करके पूरे प्रदेश में अपना स्थान सुरक्षित रखा। 1922 ई0 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत
विषय में एम0 ए0 की परीक्षा
प्रथम क्षेणी में उत्तीर्ण किया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। गर्वनमेन्ट संस्कृत
कालेज वाराणसी से साहित्याचार्य की उपाधि भी प्राप्त किया। अध्ययनोत्तर आपने काशी
हिन्दू विश्व विद्यालय में 30 वर्ष तक प्रध्यापक
रीडर, प्रोफेसर पदों पर सेवा प्रदान की। दो वर्ष तक
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में पुराणेतिहास विभागाध्यक्ष पद को आलंकृत
करके 5 वर्ष तक यहीं अनुसंधान विभाग में निदेशक पद
पर सेवा करते हुए। आपके वेद, पुराण, दर्शन, आलोचना आदि विषयों पर लिये गये चार
दर्जन से अधिक, ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं। आप इस
समय भी ग्रन्थों के सम्पादन एवं अनुवाद कार्यो में तत्पर हैं।
आचार्य उपाध्याय 1942 ई0 मंे भारतीय दर्शन ग्रन्थ पर साहित्य सम्मेलन प्रयाग से मंगलाप्रसाद
पुरस्कार और बौद्ध दर्शन मीमांसा ग्रन्थ पर 1995 में
डालमिया पुरस्कार तथा शंकर दिगविजय ग्रन्थ पर श्रवणनाथ पुरस्कार से साथ ही साथ
उत्तर प्रदेश शासन द्वारा अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए है। श्री उपाध्याय जी
राष्ट्रपति द्वारा पदम्भूषण उपाधि से भी अलंकृत किये गये हैं।
बनमाली बिश्वाल
समकालिक-संस्कृत-साहित्य-प्रसङ्गे
समर्थ-सर्जकस्य (कवेः गद्यकारस्य, नाट्यकारस्य), लब्धप्रतिष्ठ-समीक्षकस्य तथा
सुप्रसिद्धसम्पादकस्य च प्रो. बनमाली बिश्वालस्य जन्म 4.5.1961 तमे दिनांके ओडिशा-प्रान्ते पूज्य-पितुः स्व. नारायण बिश्वालस्य तथा
पूज्याया मातुः स्व. सत्यभामा देव्याश्च चतुर्थ-पुत्रारूपेण अभवत्। जन्मना
उत्कलीयस्य डॉ. बिश्वालस्य कर्मतीर्थं विगतेभ्यः 27 वर्षेभ्यः तीर्थराजः प्रयाग एवास्ति। राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थानस्य, गङ्गानाथ-झा-परिसरे आचार्य-पदे प्रतिष्ठिताः डाॅ0 बिश्वाल-महोदयाः इदानीं पुराणेतिहास-प्रसिद्धायां प्रष्ठिानपुर्यां
(झूंसी) स्थायी-रूपेण निवसन्तः सततं सारस्वत-साधनायां तत्पराः सन्ति तथा
संस्कृत-भाषा-साहित्ययोः सेवायां पूर्णतया समर्पिताः सन्ति।
तेलिआख्य-स्वग्राम-समीपस्थे
दधिवामन-संस्कृत-विद्यालये प्रथमां, पुरीस्थे जगन्नाथ-वेद-कर्मकाण्ड-महाविद्यालये मध्यमां, सदशिव-केन्द्रीय- संस्कृत-विद्यापीठे शास्त्री-परीक्षां तथा
श्रीजगन्नाथ-संस्कृत-विश्वविद्यालये आचार्य-परीक्षां च प्रथम-श्रेण्याम् उत्तीर्य
डॉ. बिश्वाल-महोदयेन पुणे-विश्वविद्यालयात् एम.ए. एम.फिल. एवं यू.जी.सी.
जे.आर.एफ.-रूपेण पी.एच.डी. उपाधयः सफलतया समधिगताः। अनेन
व्याकरण-दर्शन-वैदिक-लौकिक-साहित्य-पाण्डुलिपि-विज्ञान-शोधप्रविध्यादिषु विषयेषु
यथासम्भवं विशेषज्ञता समर्जिता। आधुनिक-संस्कृत-साहित्य-क्षेत्रो एतेषां योगदानं
महत्त्वपूर्णं वर्तते यत्रानेन स्व-कारयित्राी-प्रतिभायाः, भावयित्राी-प्रतिभायाश्च परिचयः प्रदत्तः। डॉ. बिश्वालस्य रचनादक्षता
संस्कृत-हिन्दी-अंग्रेजी-ओडिआदि-चतसृषु भाषाभिः सर्जितेषु तत्साहित्येषु
प्रतिफलिता दृश्यते।
डॉ.
बिश्वालस्य प्रकाशित-रचनासु सङ्गमेनाभिरामा, व्यथा, ऋतुपर्णा, प्रियतमा, वेलेण्टाइन्डे-सन्देशः, दारुब्रह्म, यात्रा (मौलिक-संस्कृत-कवितासंग्रहाः), नीरवस्वनः, बुभुक्षा, जगन्नाथचरितम्, जिजीविषा (मौलिक-संस्कृत-कथासंग्रहाः), तारा
अरुन्धती, विवेकलहरी (अनूदित-संस्कृत-कवितासंग्रहौ), जन्मान्धस्य स्वप्नः (अनूदित-संस्कृत-कथासंग्रहः), पत्रालयः (अनूदित-संस्कृत-नाटकम्), प्रमुखाः
सन्ति।
राष्ट्रीयस्तरे
समायोजितेषु कविसमवायेषु डॉ. बिश्वालेन नैकवारं काव्यपाठः कृतः तथा
आकाशवाणी-दूरदर्शनयोरपि एतेषां कविता-कथानां बहुधाप्रसारणमभूत्।
शैक्षणिक-विदेश-यात्रा-प्रसंगे एते 2005 तमे वर्षे
एकमासं यावत् जर्मनीदेशे (लाईप्चिक-विश्वविद्यालये तथा हाईडिलबर्ग-विश्वविद्यालये
च) यात्रा कृता।
नैकासां
पत्रा-पत्रिकाणां सफलतया सम्पादनं कृत्वा प्रो. बिश्वालेन
संस्कृत-पत्राकारिता-क्षेत्रोऽपि महत्त्वपूर्णं योगदानं कृतम्। अनेन
दृक्-नाम्न्याः संस्कृत-साहित्य-समीक्षा-पत्रिकायाः (31 अंकानां), संस्कृत-कथा-पत्रिकायाः कथासरितः (21 अंकानां), जर्नल आफ गड्गानाथ झा कैम्पस इत्याख्यायाः अन्ताराष्ट्रिय-शोधपत्रिकायाः (07 अंकानां) तथा कासाञ्िचदन्यासां पत्रा-पत्रिकाणां (पद्यबन्धा-8 अड्कानां, उशती-2 अड्कयोः, शाश्वती-5 अड्कानां, मधुछन्दा-7 अड्कानां) तथा
नैकेषामभिनन्दन/स्मृति-ग्रन्थानां सम्पादनमपि कृतम्।
स्वकीयानामेतासामुपलब्धीनां
कृते प्रो. बिश्वाल-महोदयाः इतः पूर्वमपि उत्तरप्रदेश-संस्कृत-संस्थानेन, दिल्ली-संस्कृत-अकादम्या, लखनऊस्थेन
भाउराव-देवरस-सेवान्यासेन, प्रयागस्थेन
हिन्दी-साहित्य-सम्मेलनेन, भुवनेश्वरस्थेन
उपेन्द्रभञ्जपीठेन, बालेश्वरस्थेन के.के. ओमेन्स
महाविद्यालयेन, कोलकातास्थ-भारतीयभाषापरिषदादि-प्रतिष्ठित-संस्थाभिः
पञ्चदशाधिकैः पुरस्कारैः/सम्मानैश्च सभाजिताः सन्ति।
हिन्दी
समकालिक
संस्कृत-साहित्य के समर्थ सर्जक (कवि, गद्यकार, नाट्यकार), प्रतिष्ठा-प्राप्त समीक्षक
सुप्रसिद्ध
सम्पादक प्रो. बनमाली बिश्वाल का जन्म ओडिशा के याजपुर जिला में दिनांक 04.05.1961 को पूज्य पिता स्व.
नारायण बिश्वाल एवं पूज्या माता स्व. सत्यभामा देवी के चतुर्थ पुत्र के रूप में
हुआ। जन्मना उत्कलीय डा. बिश्वाल का कर्मतीर्थ विगत 27 वर्षो से तीर्थराज प्रयाग ही रहा है। राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, गङ्गानाथ झा परिसर, प्रयाग में आचार्य पद पर
प्रतिष्ठित डा. बिश्वाल इस समय पुराणेतिहास-प्रसिद्ध प्रतिष्ठानपुरी (झूंसी) में
स्थायी रूप से वास करते हुए सतत सारस्वत साधना में तत्पर हैं और संस्कृत भाषा एवं
साहित्य की सेवा में अपने को पूर्ण समर्पित किये हुए हैं।
अपने गाँव तेलिआ के समीपस्थ दधिवामन संस्कृत विद्यालय से प्रथमा, पुरीस्थ जगन्नाथ वेद कर्मकाण्ड महाविद्यालय से मध्यमा, सदाशिव केन्दीय संस्कृत विद्यापीठ से शास्त्री एवं जगन्नाथ संस्कृत
विश्वविद्यालय से आचार्य परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर डा. बिश्वाल ने
पुणे विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.फिल. एवं यू.जी.सी.
जे.आर.एफ. के रूप में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने व्याकरण, दर्शन, वैदिक व लौकिक साहित्य, पाण्डुलिपिविज्ञान, शोधप्रविधि आदि विषयों में
यथासम्भव विशेषज्ञता अर्जित की। आधुनिक संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में भी उनका
योगदान महत्त्वपूर्ण है जहाँ उन्होंने अपनी कारयित्री एवं भावयित्री दोनों ही
प्रतिभाओं का परिचय दिया है। डा. बिश्वाल की रचना-दक्षता संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी एवं ओडिआ जैसी चार भाषाओं में
सर्जित उनके साहित्य में प्रतिफलित है।
प्रो. बिश्वाल की रचना-धर्मिता के अनेक पक्ष हैं। मौलिक शोध के साथ-साथ
कविता, कथा, ललितनिबन्ध, उपन्यास, नाटक, बालसाहित्य
आदि तमाम नवीन सर्जनात्मक विधाओं में उन्होने अपना रचना-सामर्थ्य सिद्ध किया है।
अब तक उनके 50 से अधिक पुस्तकें (मौलिक, अनूदित, सम्पादित) प्रकाशित हैं और कई अन्य
प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। साथ ही डा. बिश्वाल के 120 शोधपत्र, 50 पुस्तक-समीक्षाएं, 15 साक्षात्कार तथा कई स्मृतिलेख विविध राष्ट्रिय/अन्ताराष्ट्रिय पत्र-पत्रिकाओं
एवं अभिनन्दन/स्मृति-ग्रन्थों में प्रकाशित हैं। उन्होंने दशाधिक पुस्तकों का
पुरोवाक्/अग्रलेख भी लिखा है। उनकी प्रकाशित रचनाओं में सङ्गमेनाभिरामा, व्यथा, ऋतुपर्णा, प्रियतमा, वेलेण्टाइन्डे-सन्देशः, दारुब्रह्म, यात्रा (संस्कृत-कवितासंग्रह), नीरवस्वनः, बुभुक्षा, जगन्नाथचरितम्, जिजीविषा (संस्कृत-कथासंग्रह), तारा अरुन्धती, विवेकलहरी (अनूदित संस्कृत-कवितासंग्रह), जन्मान्धस्य
स्वप्नः (अनूदित संस्कृत-कथासंग्रह), पत्रालयः (अनूदित
संस्कृत-नाटक), वञ्च तुमे मो आयुष नेइ, कश्चित्कान्ता....(ओडिआ कवितासंग्रह), सकालर मुहँ
(ओडिआ कथासंग्रह), The समासशक्तिनिर्णय of कौण्डभट्ट, The concept of उपदेश in
Sanskrit Grammar, पतञ्जलि as a Philosopher and
Grammarian, भर्तृहरि as a Philosopher and
Grammarian, व्याकरणतत्त्वालोचनम्, Studies on Sanskrit
Grammar and grammatical concepts, A new approach to Philosophy of Sanskrit
Grammar, Orissan Contributions to Sanskrit Grammar (शोधपरक
ग्रन्थ), योगरत्नावली, वाक्यवाद, लिङ्गप्रकाश, लिङ्गनिर्णय (हिन्दी एवं अंग्रेजी में अनूदित शास्त्रीय ग्रन्थ), वाक्यदीपिका, मनसिजसूत्रम्, कविरहस्य, प्रतिध्वनिः, जगन्नाथ-सुभाषितम् (दो भाग), सूक्तिमुक्तावली
आदि (सम्पादित ग्रन्थ) उल्लेखनीय हैं। इस के अतिरिक्त डा. बिश्वाल ने राष्ट्रिय
संस्कृत संस्थान के विविध परियोजना के अन्तर्गत संस्कृत-स्वाध्याय-सामग्री (10 पुस्तकों), ई-टेक्स्ट (2 पुस्तकों) तथा दूरस्थ-शिक्षण-सामग्री (10 पुस्तकों)
के लेखन एवं सम्पादन में अपना योगदान सुनिश्चित किया है।
प्रो. बिश्वाल ने अब तक 120 राष्ट्रीय, अन्ताराष्ट्रीय सम्मेलन/संगोष्ठी/ कार्यशालाओं में न केवल शोधपत्र
प्रस्तुत किया, किन्तु उनमें से अनेकों में सारस्वत
अतिथि, मुख्यातिथि, विशिष्टातिथि
या फिर सत्राध्यक्ष के रूप में विचार व्यक्त किये। आधारपुरुष के रूप में आमन्त्रित
होकर वे अनेक संस्थाओं में विशिष्ट व्याख्यान भी दिये हैं। डा. बिश्वाल के
निर्देशन में अब तक 30 शोधछात्र शोधकार्य सम्पन्न
करके विद्यावारिधि (पीएच.डी.) उपाधि प्राप्त कर चुके हैं और 10 अन्य शोधछात्र सम्प्रति कार्यरत हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कविसमवायों में डा. बिश्वाल ने अनेक वार
काव्यपाठ किया तथा आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी उनके काव्य/कथा आदि बहुधा प्रसारित
हुए। शैक्षणिक विदेश-यात्रा के प्रसंग में उन्होंने 2005 में एक मास के लिए जर्मनी (लाईप्चिक यूनिवर्सिटी एवं हाईडिलबर्ग
यूनिवर्सिटी) की यात्रा की। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विभिन्न
विश्वविद्यालयों में एम. फील एवं पी. एच. डी. हेतु कई शोधप्रबन्ध/लघुशोधविनिबन्ध
लिखे गये हैं और कई अन्य लिखे जा रहे हैं।
अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सफल सम्पादन कर डा. बिश्वाल ने संस्कृत-पत्रकारिता
को भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने संस्कृत साहित्य-समीक्षा-पत्रिका
दृक् (31 अंक), संस्कृत-कथा-पत्रिका
कथासरित् (21 अंक), अन्ताराष्ट्रिय
शोधपत्रिका जर्नल आफ गङ्गानाथ झा कैम्पस (07 अंक) तथा
कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं (पद्यबन्धा - 8 अंक, उशती – 2 अंक, शाश्वती –
5 अंक, मधुछन्दा –
7 अंक, कई अन्य सोवेनियर) एवं
अभिनन्दन ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है।
प्रो.
बिश्वाल को इस से पहले उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, दिल्ली
संस्कृत अकादमी, भाउराव देवरस सेवान्यास, लखनऊ (युवापुरस्कार), हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद, उपेन्द्रभञ्जपीठ, भुबनेश्वर, के. के. ओमेन्स कालेज, बालेश्वर, भारतीय भाषापरिषद्, कोलकाता जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं से 15 से
अधिक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।
बृजेश कुमार शुक्ल
अखिलदेववाणीवाङ्मये
विश्रुतकीर्तयः यः सर्वशास्त्रेष्वप्रतिहतगतयो
वेदसाहित्यपुराणज्योतिष-तन्त्रव्याकरणदर्शनकाव्यशास्त्रादिविषयेषु
कृतभूरिपरिश्रमाः पद्मश्रीः प्रो. बृजेशकुमारशुक्लमहोदयाः अक्टूबरमासस्यैकतारिकायां
द्वाषष्ट्युत्तरैकोनविंशतिशततमे ख्रिस्ताब्दे (01.10.1962) उत्तरप्रदेशान्तर्गते बाराबंकी च जनपदस्थे
त्रिलोकपुरग्रामे पूज्यपादयोः श्रीचन्द्रकलाप्यारेलालशुक्लयोः मातापित्रोः शोभने
गृहे जन्म लेभिरे।
संस्कृतव्याकरणसाहित्ययोः
प्रारम्भिकं ज्ञानं तत्र भवद्भिः स्वपितृसकाशादेवाऽधिगतम्। ततो भवन्तः प्रारम्भिकीं
माध्यमिकी´्च शिक्षां स्वग्रामे
एवाऽलभन्त। तत एते महानुभावा उच्चशिक्षायै लक्ष्मणपुरमागत्य
लखनऊविश्वविद्यालयात्स्नातकस्नातकोत्तरादिपरीक्षाः सर्वोच्चाङ्कैः समुत्तीर्य
स्वर्णपदकान् प्राप्य विश्वविद्यालयानुदानाऽऽयोगविहितां कनिष्ठानुसन्धानाऽध्येतृवृत्तिपरीक्षां
चोत्तीर्य संस्कृते विद्यावारिध्युपाधिं (पी-एच.डी.) समाधिजग्मुः।
प्रो.
शुक्लमहाभागाः लखनऊविश्वविद्यालयस्य संस्कृतप्राकृतभाषाविभागे
नवाशीत्युवत्तरैकोनविंशति-शततमे (1989) ख्रिस्ताब्दे प्रवक्तृपदे, एकोत्तरद्विसहस्रतमे
(2001) ख्रिष्टाब्दे उपाचार्यपदेऽथ च
चतुरुत्तरद्विसहस्रतमे (2004) ख्रिष्टाब्दे
परमाचार्यपदे नियुक्ताः सन्तः पठनन्पाठनाभ्यां विविधसाहित्य-सर्जनकर्मणा च
संस्कृतस्य श्रीवृद्धिं कृतवन्तः। अनन्तरमेभिः संस्कृते विद्यावाचस्पत्युपाधिः
(डी. लिट्.) ज्योतिर्विज्ञानं च विद्यावाचस्पत्पाधिश्च (डी.लिट्) लखनऊ
विश्वविद्यालयतोऽलमकारिषाताम्। तत्र भवन्तोदशोत्तरद्विसहस्रतमे (2010) ख्रिष्टाब्देऽसंस्कृतप्राकृतभाषाविभागस्याऽध्यपदमल´चक्रुः।
इदानीमपि
भवन्तो लखनऊ विश्वविद्यालयस्य, ज्योेतिर्विज्ञानविभागस्य संयोजध्यक्षत्वेन
सौन्दर्यशास्त्रीयशैवदार्शनिकयोरभिनवगुप्त संरचनास्य च निदेशकत्वेन कार्यं
कुर्वन्तो विराजन्तेतराम्।
प्रो.
शुक्लमहोदयैः पञ्चविंशत्यधिकाः ग्रन्थाः मौलिकरूपेण
पाण्डुलिपिसम्पादनरूपेणाऽनुवादत्वेन काव्यादिरचनारूपेण च व्यलेखिषत्। एतेषां
ग्रन्थद्वयं ‘पुराणेषु नैमिषारण्यम्’ श्रीमद्भागवतमहापुराणतत्वविमर्शश्च सहलेखनसम्पादनमाध्यमेन प्रकाशितम्।
एतेषां
शैक्षिकं साहित्यिकञ्च महदवदानं वीक्ष्य नैकाभिरेभ्यः पुरस्काराः सम्मानाश्च
प्रदत्ताः। तेषु मुख्यतमाः सन्ति-उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थानत अनेके
संस्कृतसहित्यपुरस्काराः दैवज्ञश्री सम्मानः, प्रतापनारायण मिश्र स्मृतिपुरस्कारः, आचार्य
शंकर पुरस्कारः, रामकृष्णान्ताराष्ट्रियसंस्कृतपुरस्कारः
(कनाडादेशतः), विक्रम कालिदास पुरस्कारः
(कालिदासाऽकादमीतः म.प्र.), शिक्षक श्री पुरस्कारः
सरस्वती-सम्मानः (उत्तरप्रदेशसर्वकारस्य सर्वोच्च शिक्षक पुरस्कारद्वयम्), सुभद्रा कुमारी चैहान जन्मशतीसम्मानश्चेत्यादयः।
प्रो. शुक्ल
महाभागैर्विविधराष्ट्रियान्ताराष्ट्रियशोधसङ्गोष्ठीषु शताधिकानि पत्राणि
प्रवाचितानि। अपि च पत्रपत्रिकाषु शताधिकानि शोधपत्राणि, संस्कृतकविता, कथासमीक्षाश्चैतेषां प्राकाश्यमुपनीताः। विभिन्नसंस्कृतशोधगोष्ठीषु
सम्मेलनेषु च सभाध्यक्षत्वेन, अखिलभारतीय
प्राच्यविद्यासम्मेलनेषु कार्यंपरिषदः सदस्यत्वेन तत्रैव
वेदसाहित्यप्राविधिक-विज्ञानदर्शनादिसत्रेषु चैत आध्यक्षं निर्व्यूढवन्तः। षष्ट्यधिकाश्छात्रच्छात्रा एतेषां निर्देशने
एम.फिल्.पी-एच.डी., डी.लिट् इत्याख्योपाधिं लब्धवन्तः।
एभिः ‘संस्कृतवाङ्मयी’ इति
नाम्नी शोधपत्रिकाऽपि सृष्ठु सम्पादि नैकवारं च संस्कृतशोधसंगोष्ठीनां
समायोजनमप्यकारि।
ब्रज बल्लभ द्विवेदी
ब्रजबल्लभ द्विवेदी महोदय ई0 में दर्शन विषय में आचार्य की परीक्षा पास करके संस्कृत में एम0 ए0 की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
वाराणसेय सरस्वती भवन में से तक पाण्डु लिपि संपादन का कार्य योग्यता पूर्वक किये।
आप से तक राजकीय संस्कृत कालेज तत्पश्चात् परिवर्तित वाराणसेय संस्कृत
विश्वविद्यालय में सरस्वती सुषमा के प्रकाशनाधिकारी रहे। सम्पूर्णानन्द संस्कृत
विश्वविद्यालय में से तक योगतंत्र विभाग में प्राध्यापक रहते हुए उसी वर्ष में सांख्ययोग
तंत्रागम विभाग में आचार्य पद पर नियुक्त हुए और वहीं से आपने अपनी सेवा समाप्त
की।
नित्य र्षोडषिकार्णव ग्रन्थ पर उत्तर प्रदेश शासन द्वारा आप ई0 में कालिदास पुरस्कार से पुरस्कृत हुए। श्री
द्विवेदी जी के द्वारा संपादित अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें महार्थ
मंजरो, शक्तिसंगमतंत्रम, विज्ञान
भैरव, तंत्रयात्रा आदि ग्रन्थ मुख्य हैं। ई0 में हालैण्ड देश में आवोजित विश्व-संस्कृत
सम्मेलन में आपने भारतवर्ष का प्रतिनिधित्व किया।
ब्रजबिहारी चौबे
प्रो. चौबे जी का जन्म 1.1.1940 ई. को
जबहीं ग्राम बलिया (उ.प्र.) में हुआ था। आपके पिता स्व. श्री नारायण चैबे और माता
अंजोरिया देवी थी। श्री चैबे जी माता पिता के चतुर्थ पुत्र हैं।
प्रो0 चौबे की प्रारम्भिक शिक्षा गाॅव के
विद्यालय में हुई थी। माध्यमिक एवं उत्तरमाध्यमिक की शिक्षा रामसिंहासन उच्चतर
माध्यमिक विद्यालय दुबहर, बलिया में हुई थी। बी.ए. तथा
एम0ए0 तथा एम.ए. (संस्कृत वेद
गु्रप से) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से क्रमशः 1959 तथ्रर 1961 में उत्तीर्ण किये। वहीं से 1964 में ‘‘ट्रीटमेंट आॅव नेचर इन दि ऋग्वेद’’ विषय पर डा0 सिद्धेश्वर भट्टाचार्य के निर्देशन
में पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त की।
प्रो. चौबे इन्स्टीट्यूट आॅव ओरियन्टल फिलासोफी वृन्दावन में 11.8.1965 वर्ष से 10.1.1967 तक प्राध्यापक पद पर कार्य करने के पश्चात् 12.1.1967 से विश्वेश्वरानन्द विश्वबन्धु संस्कृत तथा भारत भारती अनुशीलन संस्थान, पंजाब विश्वविद्यालय होशियारपुर में व्याख्याता पद, प्रवाचक पद, आचार्य पद एवं निदेशक पद पर कार्य
करते हुए 30.6.2002 में सेवानिवृत्त हुए। सेवाकाल
में ही आप स्वामी दयानन्द सरस्वती विश्व विद्यालय, अजमेर
में दयानन्द वैदिक पीठ विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य किये। आप के निर्देशन
में बहुत से छात्र शोध कार्य किये हैं।
प्रो. चौबे ने इकतालिस ग्रन्थों का प्रणयन किया है और एक सौ पाँच शोध
पत्रों को भी लिखा है। होशियारपुर शोध केन्द्र में आदरी निदेशक के रूप में, प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन, वैदिक ग्रन्थों
के अनुवाद तथा जन सामान्य के लिये उपयोगी वेद सम्बन्धी लघु पुस्तिकाओं के लेखन में
प्रवृत्त हैं।
प्रो. चौबे अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के सत्ताइसवें अधिवेशन
कुरूक्षेत्र में 1974 वर्ष में वी. राघवन्
पुरस्कार से तथा 1955 वर्ष में हिन्दी साहित्य अकादमी होशियारपुर द्वारा सम्मानित हुए तथा उसी वर्ष उत्तर प्रदेश
संस्कृत संस्थान द्वारा संस्कृत साहित्य पुरस्कार से एवं 2004 ई. में महामहिम रााष्ट्रपति सम्मान से पुरस्कृत हुए। इसके अलावा आप
विभिन्न संस्थानों से भी सम्मानित हैं।
प्रो. चौबे विश्वविद्यालयों, शिक्षा संस्थाओं
तथा शोध संस्थानों द्वारा आयोजित संस्कृत एवं वेदविषयक संगोष्ठियों (112) सम्मेलनों (43) तथा पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों एवं
कार्यशालाओं (42) में अध्यक्षता एवं पत्रवाचक किये है।
आप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा पूना विश्वविद्यालय में उच्च संस्कृत शिक्षा
पाठ्य निर्धारण समिति का सदस्य, जयनारायण व्यास
विश्वविद्यालय, जोधपुर की परामर्शदात्री समिति का सदस्य, इसके अलावा देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों की शोध संस्थानों की शोध
संस्थानों की शोध समिति की सदस्यता विभूषित की।
बलजिन्नाथ पण्डित
डाॅ0 बलजिन्नाथ पण्डित मूलतः काश्मीरी है।
सम्प्रति श्री पण्डित जम्मू में निवास करते है। इनकी अवस्था 81 वर्ष की है। अनुमानतः आपका जन्मकाल 1915 ई0 है।
डाॅ0 बलजिन्नाथ पण्डित ने शास्त्री, एम0ए0 (संस्कृत) और पी0एच0डी0 (शैवदर्शन) उपाधियाँ
प्राप्त की। आपने पंजाब विश्वविद्यालय की प्राज्ञ परीक्षा में और शास्त्री में
सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया।
डाॅ0 पण्डित का अध्यापन कार्य संस्कृत पाठशाला
के प्रधानाध्यापक के रूप में प्रारम्भ हुआ। आपने 22 वर्षों तक आटर््स कालेजों में संस्कृत का अध्यापन किया। डाॅ0 पण्डित ने हिमाचल विश्वविद्यालय में 5 वर्षों
तक सफलतापूर्वक संस्कृत पढ़ाया। आप 10 वर्षों तक
श्री रणवीर विद्यापीठ जम्मू की काश्मीर शैव दर्शन योजना के शोधनिदेशक भी रहे।
डाॅ0 पण्डित कुशल अध्यापक होने के साथ ही एक
सफल लेखक भी है। आपने संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी
तीनों भाषाओं में ग्रन्थ लिखे हैं। आपके द्वारा लिखित प्रमुख ग्रन्थ निम्न हैं-1. स्वातन्त्रयदर्पण 2.विंशतिकाशास्त्रविमर्शिनी,
3. शैवाचार्यों नागार्जुनः, 4. आत्मविलासविमर्शिनी 5.ललितास्तवरत्नटीका, 6. काश्मीरशैवदर्शनस्य
बृहत् कोशः, 7. काश्मीर शैवदर्शन, 8. वैष्णवागम रहस्य, 9. अमृतवाग्भवाचार्य चरित,
10. एप्रोच आफ काश्मीर शैविज्म, 11. हिस्ट्री आफ काश्मीर शैविज्म, 12. एन
इण्ट्रोडक्सन टु काश्मीर शैविज्म, 13. काश्मीर शैवदर्शन
का परिचय आदि।
डाॅ0 बलजिन्नाथ पण्डित संस्कृत के विशिष्ट
विद्वान् हैं। आप दर्शनशास्त्र के, विशेषकर काश्मीर
शैवदर्शन के मर्मज्ञ मनीषी हैं। आपकी कृतियों में शैवदर्शन का गूढ़ विवेचन आपके
गम्भीर वैदुष्य का परिचायक है।
भगवत्शरण शुक्ल
आचार्यभगवत्शरणशुक्लः
वैशाखकृष्णपक्षाष्टम्यां 2013 वैक्रमाब्दे 2 मई 1956 ख्रीष्टाब्दे
मध्यप्रदेशान्तर्गतजबलपुरमण्डलस्थ कटनी जनपदसम्बद्धकोठियामोहगवाग्रामे
ब्राह्मणानां शुक्लास्पदगर्गगोत्रीयब्राह्मणकुले जनिम् अलभत्। अस्य पितुर्नाम
स्व.पं0 रामकृष्णशुक्लः मातुर्नाम च श्रीमती मूलादेवी
इति विद्यते।
आचार्यशुक्लः
प्रारम्भिकीं शिक्षां स्वकीये ग्रामे प्राथमिकपाठशालायां लब्धवान्।
एकसप्तत्युत्तरैकोनविशतितमे ख्री्रष्टाब्दे सौभाग्यात्
प्रयागनगरस्थश्रीरामदेशिकसंस्कृतमहाविद्यालये प्रवेशं प्राप्य प्रथमाकक्षातः
आचार्यपर्यन्तमेकाशीत्युत्तरैकोनविशंतितमखी्रष्टाब्दं यावत् शिक्षां लब्धवान् । एतस्य पूज्याः
गुरवः आचार्याः स्व.रामवदनशुक्लाः, आचार्याः स्व. डा0 मधुकरफाटकमहोदयाः, आचार्याः स्व.
शिवनाथद्विवेदिनः, आचार्याःरामकिशोरपाण्डेयाः, आचार्याः स्व.हीरालालपाण्डेयाः आसन्। एतेभ्यःशुक्लमहाभागः व्याकरणस्य, नव्यन्यायस्य, साहित्यस्य, ज्योतिषस्य च शिक्षां लब्धवान्। पराम्परातः एतस्य वेदस्य गुरवः आचार्याः
हरिनाथसखारामदीक्षितमहाभागाः आसन् । संगीतस्य च
गुरवः स्व. पं0 भोलानाथप्रसन्नामहाभागाः आसन् ।
शोधकार्यं शुक्लमहाभागेन आचार्यगयाचरणत्रिपाठिनिर्देशने राष्ट्रिसंस्कृतसंस्थानं गङ्गानाथझापरिसरतः सम्पादितम् । शुक्लमहाभागः
शास्त्रिकक्षां 1978 ख्रीष्टाब्दे, आचार्यकक्षां 1981 ख्रीष्टाब्दे कृतवान्।
तेन विद्यावारिधि इति उपाधिश्च 1988 ख्रीष्टाब्दे
लब्धः। अयं व्याकरणाचार्यं नव्यन्यायशास्त्रिणंसंगीतप्रवीणंचोपाधिं लब्धवान्।
शुक्लमहाभागस्य योग्यतां विलोक्य विद्यालयप्राचार्याः डा0 सनत् कुमारत्रिपाठिनः जुलाई 1980 ख्रीष्टाब्द
एव प्रथमातः शास्त्रिपर्यन्तमध्यापनाय अतिथ्यध्यापकत्वेन नियुक्तवन्तः। पश्चात्
विधिवच्चयनेन 1 जुलाई 1982 ख्रीष्टाब्दे श्री रामदेशिकसंस्कृतमहाविद्यालये व्याकरणविभागे प्रवक्तृपदे
शुक्लमहाभागो नियुक्तिमलभत्। यत्र प्रथमाकक्षातः आचार्यकक्षापर्यन्तं कुशलतया
अध्यापनकार्यंमनेन सम्पादितम् । तस्मिन्
विद्यालये छात्राणां कृते अनेके सांस्कृतिकशास्त्रार्थादिकार्यक्रमाः
शुक्लमहाभागेन सञ्चालिताः।
अनन्तरम् 22.11.1985 ख्रीष्टाब्दे
व्याकरणविभागाध्यक्षपदे सौदामिनीसंस्कृतमहाविद्यालये प्रयागे नियुक्तिरभवत्। यत्र
व्याकरणविभागाध्यक्षपदेन सहैव 1989 ख्रीष्टाब्दात्
जून 2000 ख्रीष्टाब्दं यावत् उपाचार्यपदस्यापि
कार्यभारं निरवहत् । पुनश्च 2000 ख्रीष्टाब्दे जुलाई मासे प्राचार्यपदस्य कार्यभारं निरवहत्। यत्रानेके सम्मेलनादिकार्यक्रमाः अनेन सञ्चालिताः । ततः
सौदामिनीशोधपत्रिकापि सञ्चाल्यते । अधुनापि पत्रिकायाः सम्पादनं शुक्लमहाभागेनैव
क्रियते । सम्प्रति 9 नवम्बर 2006 ख्रीष्टाब्दात् 8 नवम्बर 2012 ख्रीष्टाब्दं यावत् सह
आचार्यपदे (एसोसिएट प्रोफेसर) काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्थ-
संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकायान्तर्गतव्याकरण विभागे कार्यं विधाय 9 नवम्बर 2012 ख्रीष्टाब्दे
आचार्यपदमलङ्कृत्याध्यापन-लेखनशोधादिकार्यं करोति । सम्प्रति फरवरी 2015 ख्रीष्टाब्दात् व्याकरणविभागाध्यक्षपदे विद्यते। अनेन सिद्धान्तकौमुद्याः
कारकप्रकरणं, वाच्यत्रयविचारः, परिभाषार्थचन्द्रिका, महाभाष्यतत्त्वविमर्शः, शाब्दिकसिद्धान्तविमर्शः, रागार्णवम् , सम्बन्धविच्छित्तिरित्यादयो द्वादशग्रन्थाः विरचिताः। शुक्लमहाभागः ‘आकाशवाणी’ इलाहाबाद इति संस्थायां मार्च 1989 ख्रीष्टाब्दात् ‘बी’ ग्रेड कलाकारत्वेनानुबन्धितकलाकारोऽस्ति। यत्र वेणुवादनस्य प्रस्तुतिः
अनेकधा सञ्जाता। वेणुवादनस्य स्वतन्त्रप्रस्तुतिः प्रयागे, वाराणस्यामुज्जयिन्यामनेकवारं सञ्जाता।
अनेन
विश्वविद्यालयानुदानयोगतः फरवरी 2009 ख्रीष्टाब्दात् 2012 ख्रीष्टाब्दं यावत् एकां बृहत्शोधपरियोजनां स्वीकृत्य पूरितवान्। यस्य
शीर्षकं ‘शुक्लयजुर्वेद संहिताओं में
क्रियापदविवेक’ इति आसीत्। विविधेषु
अन्ताराष्ट्रियराष्ट्रियसम्मेलनेषु शोधपत्राणां प्रस्तुतिः या सञ्जाता तेषां
संख्या शताधिका वर्तते। विविधासु अन्ताराष्ट्रियराष्ट्रिपत्रिकासु अभिनन्दनग्रन्थेषु
स्मृतिग्रन्थेषु च प्रकाशितानां शोधपत्राणां संख्या नवनवतिः (99) वर्तते। शुक्लमहाभागस्य निर्देशने चत्वारः छात्राः स्वीयं शोधकार्यं
पूरितवन्तः। सप्त छात्राः साम्प्रतं शोधरताः सन्ति । विविधेषु विश्वविद्यालयेषु महाविद्यालयेषु चैतस्य वैदुष्यपूर्णव्याख्यानानि सञ्जातानि।
2005 ख्रीष्टाब्दे
हिंदीसाहित्यसम्मेलनं प्रयागः
संस्कृतमहामहोपाधिना एनमलङ्कृतवान्।
शुक्लमहाभागेन
प्राप्तानां सम्मानां पुरस्काराणां च विवरणमित्थमस्ति-
1. मध्यप्रदेश
संस्कृत अकादमी, भोपाल ‘‘व्याकरणशास्त्रार्थ पुरस्कार 1984 2. अन्तर्विद्यापीठीय
युवसमारोहः राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली ‘‘न्यायशास्त्र भाषण पुरस्कार’’ 1985 3. ‘‘वेद पण्डित
पुरस्कार’’ उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ, 1998 4. ‘‘ज्योतिष महर्षि सम्मान’’ भारतीय ज्योतिष परिषद, कानपुर, 1997 5.
‘‘संस्कृतमहोपाध्याय सम्मान’’ हिन्दी
साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 2005 6. ‘‘संस्कृत साहित्य पुरस्कार’’ उत्तरप्रदेश
संस्कृत संस्थान द्वारा पुरस्कार 2005 7. ‘‘पतञ्जलिपुरस्कार’’ मध्यप्रदेश संस्कृत बोर्ड, २2006 8. ‘‘शिक्षा प्रवीण सम्मान’’ रामायण मेला समिति, प्रयाग, 2007 9. वैदिक भूषण सम्मान- पद्मेष
इंस्टीट्यूट आॅफ वैदिक सांइसेज, कानपुर 10. ज्योतिष सम्राट्,-विश्व कल्याण एवं ज्योतिष शोध
संस्थान 11. महामुनिपाणिनिपुरस्कार,-अखिल भारतीय विद्वत् परिषद्, वाराणसी।
भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी
‘डाॅ. वागीश शास्त्री’ इत्युनाम्ना प्रशितयशसां बहुभाषाविदां वैयाकरणानां पण्डितप्रवराणां डाॅ.
भागीरथप्रसादत्रिपाठिनामन्यतमं स्थानं संस्कृतक्षेत्रे विभ्राजते। परम्परादृशा
शास्त्रालोचने काश्यामेभिव्र्याकरणमधीतं शुकदेवझामहोदयेभ्यो
रघुनाथशर्ममहोदयेभ्यश्च। न्यायशास्त्रं समधीतं
ढुण्ढिराजशास्त्रिभ्य उग्रानन्दझामहोदयेभ्यश्च।
जर्मनप्रभृति-भाषाणामाधुनिकगवेषणाविधेज्ञानं च समर्जितं
पण्डितक्षेत्रेशचन्द्रचट्टोपाध्यायमहाभागेभ्यः। इमे पाणिनीयधातूनां स्वरूपस्य
अर्थप्रसारस्य, लोकप्रसारस्यच विषये गंभीरचिन्तका
वैयाकरणा वर्तन्ते। एते मध्यप्रदेशस्यसागरमण्डलान्तर्गते विलइया’ इत्यभिधे ग्रामे 1991 तमे वैक्रमाब्दे
आषाढ़शुक्लत्रयोदश्यां जातेन स्वजनुषा भुवं समभूषयन्। पितृचरणानां
पण्डितयमुनाप्रसादत्रिपाठिनामायुर्वेदतन्त्रज्योतिषवैदुप्याय प्रसिद्धिरासीत्।
सर्वोच्च
कालिदास पुरस्कार 1966-67 डिस्टिंविश्ड
सर्विस टु कम्युनिटि आॅनरेरी सर्टिफिकेट आॅव मेरिट कैब्रिज, इंग्लैंड 1976, श्री काशीपण्डितपरिषद्
द्वारा ‘महामहोपाध्याय’ सम्मान 1982, षड्वारम् उ.प्र. शासनेन, उत्तरप्रदेश संस्कृत
संस्थान द्वारा च पुरस्कारा अखिलभारतीयवेदवेदाङ्गपुरस्कारो राजस्थान संस्कृत
अकादमी द्वारा 1993-94, अनुसंधान पुरस्कार, भीमसेनपाटीदातव्यन्यास उत्कल द्वारा 1995 स्वामी
विष्णुतीर्थ सम्मान पुरस्कार, 2002, राष्ट्रपति सम्मान
(2013), उत्तर प्रदेशस्य सर्वोच्च यशभारती सम्मान (2014) प्रमुखाः सन्ति। 70 वारम् इंटरनेशनल हूज
हू जीवनी कोशेस्य जीवनीप्रकाशनम् जातम्।
1954 तमात्
ख्रीस्ताब्दादारभ्य वागीशमहोदयानां संस्कृतरचना-प्रकाशनमारब्धम्। एभिः सर्जनात्मके
गवेषणात्मकलेखनक्षेत्रे चानतिसाधरणी समर्जिता कीर्तिः। टीकमणि-संस्कृतकालेजे च
पञ्चवर्षाणि (1959-64) अध्यापनोत्तर त्रिंशद्वषाणि
यावत् सम्पूर्णानन्द-संस्कृत-विश्वविद्यालये समर्पिता स्वकीया सेवा। तत्र
गवेषणालयनिदेशकपदमलङ्कुर्वाणैरनुसन्धानप्रधानां ‘सारस्वती
सुषमा’ इत्याख्या त्रैमासिकी संस्कृतपत्रिका वर्षाणां
सप्तविंशति यावत् सम्पादिता, सम्पादिताश्च
विस्तृतभूमिकासमलङ्कृता विश्वप्रसिद्धा अनेके ग्रन्थमाला। साम्प्रतं सम्पाद्यते
देवराजकृतम् अनिरुद्धचम्पूकाव्यम्। प्रवर्तिता च भारतीयसंस्कृतेर्विश्वकोशानां
पुराणानां विषयानुक्रमकोशयोजना।
एभिर्व्याकरणे
प्राचीनेतिहासे भाषाशास्त्रे च तावद् बहूनि नूतनमतानि स्थापितानि सन्ति। वाग्योग
(निमानिक) विधितया प्रसिद्धमभिनवं शीघ्रबोधकरं व्याकरणं प्रणीतम्।
एषामन्ताराष्ट्रियख्यातिप्राप्ता
बहुविधानि व्याकरणानि इण्डोयूरोपीया भाषाश्च समाश्रित्य तुलनात्मकविधिना विरचिता
एतेषां।
1. पाणिनीयधातुपाठसमीक्षा 1965,
2. तद्धितान्ताः केचन शब्दाः 1967 3. धात्वर्थविज्ञानम् प्रभृतयोग्रन्थाः सन्ति। अल्पीसा कालेन संस्कृतप्रशिक्षणाय
विरचितं वाग्योग (निमानिक) विधिना नैसर्गिकं व्याकरणाम्। एतदाश्रित्य हिन्द्यां
प्रकाशितं ‘संस्कृत भाषा सीखने की सरल और वैज्ञानिक
विधि’ (1992) इति पुस्तकम्। काश्यां लक्ष्मणपुर्यां
बेंग्लूरनगर्यां राजस्थानस्य लाडनूनगरे, पेरिसनगर्यां
शार्मयदेशानां स्विट्रजलैंडदेशानां चानेकेषु नगरेषु विधिमेनमाश्रित्य बहुनि
शिविराणि योजितान्यभूवन्। एभिः प्रशिक्षिता बहवः शिष्या सम्प्रति विदेशेषु
प्रोफेसरपदमधिरुढ़ा अध्यापन्ति।
भोला शंकर व्यास
प्रो0 भोलाशंकर व्यास का जन्म
बूंदी (राजस्थान) में बूंदी नरेशों के संस्कृत वैदुष्य के लिये प्रसिद्ध राजगुरू
परिवार में फाल्गुन कृष्ण द्वादशी संवत् 1981 को
हुआ।
प्रो0 व्यास जी ने अपने ग्रामस्थ संस्कृत
विद्यालय में प्राचीन पद्धति से साहित्य तथा व्याकरण के प्रमुख ग्रन्थों का, पितामह, पितृव्य तथा पिता के सानिध्य में
विधिवत् अध्ययन किया। आपने 1947 ई0 में आगरा विश्वविद्यालय से एम0ए0 ( संस्कृत परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया) प्रो0 व्यास ने 1948 ई0 में काशीस्थ राजकीय संस्कृत कालेज से प्रथम श्रेेणी में साहित्य शास्त्री
और आगरा विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एल0एल0बी0 उपाधि भी प्राप्त की। 1950 ई0 में राजस्थान विश्वविद्यालय से हिन्दी
साहित्य में एम0ए0 परीक्षा में
प्रथम स्थान प्राप्त कर प्रो0 व्यास विश्वविद्यालयीय
स्वर्णपदक में विभूषित हुए। आपने राजस्थान विश्वविद्यालय से ही क्रमशः 1952 में पी0एच0डी0 लन्दन विश्वविद्यालय के स्कूल आफ ओरियण्टल स्टडीज से भाषा विज्ञान का
आधुनिक पद्धति से अध्ययन तथा शोधकार्य भी किया।
1953 ई0 में काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक के रूप में प्रो0 व्यास की नियुक्ति हुई और यहीं क्रमशः पदोन्नत होते हुए आपने हिन्दी विभाग
के आचार्य तथा अध्यक्ष के पद को सुशोभित कर अवकाश ग्रहण किया। अवकाश ग्रहण के
पश्चात् व्यास जी तीन वर्षों तक लबधावकाण प्रोफेसर के रूप में काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग से भी सम्बद्ध रहे हैं। वाराणसी में संस्कृत तथा
हिन्दी के वद्वत्समाज में प्रो0 व्यास का वैदुष्य
समादृत है, और आपकी परिगणना संस्कृत काव्य समीक्षा, काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र, भाषाशास्त्र और हिन्दी साहित्य के राष्ट्रीय ख्याति के विद्वानों में की
जाती है।
प्रो0 व्यास हिन्दी-संस्कृत संस्थानों, विश्वविद्यालयीय परीक्षण-समितियों तथा लोकसेवा आयोगों के सम्मानित सदस्य
रह चुके हैं। आप राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यिक पुरस्कार से भी
पुरस्कृत हो चुके हैं। आप राजस्थान संस्कृत अकादमी द्वारा विशिष्ट संस्कृत पण्डित
के रूप में भी समादृत हुए है।
प्रो0 व्यास ने संस्कृत काव्य समीक्षा, काव्यशास्त्र, भाषाशस्त्र तथा छन्दः शास्त्र से
सम्बद्ध अनेक ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन तथा संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी में शताधिक लेखों की रचना की है। आप एक सफल संस्कृत
कवि भी है। आप द्वारा विरचित ‘विजयम् महाकाव्य निकट
भविष्य में ही प्रकाश्यमान है।ं
प्रो0 व्यास जी उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान
द्वारा प्रकाश्यमान संस्कृत वाड्मय का वृहद् इतिहास के तृतीय खण्ड ‘आर्ष महाकाव्य‘ के सम्पादक है। सम्प्रति आप
अपने बृद्ध प्रपितामह के ऐतिहासिक संस्कृत महाकाव्य ‘रामविलाकाव्यम्‘ के सम्पादन-प्रकाशन में प्रवृत्त हैं।
मनसाराम शास्त्री
पण्डित
मनसाराम शास्त्री का जन्म उत्तर प्रदेश के देवल गढ़ के विडोल नामक ग्राम में 15.9.1922 ई0 में हुआ था। आपके पिताश्री गीता राम जी थे।
आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में हुई थी। राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी से नव्यव्याकरणाचार्य तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से
शाड्करवेदान्त एवं साहित्याचार्य तथा आगरा विश्विद्यालय से संस्कृत में एम0ए0 की परीक्षाउत्तीर्ण की। बंगाल संस्कृत
एशोसियन कलकत्ता से काव्यतीर्थ परीक्षा उत्तीर्ण की है।
श्री निम्बार्क संस्कृत महाविद्यालय वृन्दावन में 1955 ई0 से 1963 तक
प्राचार्य पद पर तथा 1963 से 1969 तक ऋषि कुल संस्कृत विद्यापीठ हरिद्वार में विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य पद
पर कार्य किये। 1969 से 1983 तक हरिद्वार स्थिति भगवानदास आदर्श संस्कृत महाविद्यालय में अध्यक्ष एवं
प्राचार्य पद पर सेवा किया।
श्री शास्त्री जी के अनेक लेख संस्कृत पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए है।
वेदान्त आदि विषयों में प्राचीन परम्परानुसार दिल्ली हैदराबाद आदि स्थानों में
आपने सफलतापूर्वक शास्त्रार्थ किया तथा शोधार्थियों का मार्ग निर्देशन भी करते
रहे।
मण्डन मिश्र
संस्कृत सेवा में संलग्न विलक्षण प्रतिभा डा0 मण्डन
मिश्र का जन्म राजस्थान प्रान्त के जयपुर जिले में हनूतिया नामक ग्राम में 7 जून 1921 ई0 में
हुआ था।
श्री मिश्र जी ने राजकीय संस्कृत कालेज वाराणसी से मध्यमा एवं शास्त्री
परीक्षा पास करके पंजाब विश्वविद्यालय से भी साहित्यशास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण
की। आपने राजस्थान विश्वविद्यालय एवं दरभंगा विश्वविद्यालय से मीमांसा एवं साहित्य
विषय में उपाधि प्राप्त की और जयपुर विश्वविद्यालय से एम0 ए0 एवं पी-एच0डी0 की उपाधियों से विभूषित हुये।
आप जगद्गुरुशंकराचार्य द्वारा प्रदत्त विद्याभास्कर उपाधि से एवं
राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किये गये हैं तथा अन्य सम्मानित उपाधियों एवं
स्वर्णपदको से भी सम्मानित है।
विश्व संस्कृत शतसब्दी के अन्तर्गत ग्रन्थ प्रकाशन योजना में श्री मिश्र
जी ने प्रधान संपादक के रुप में ग्रन्थ का तीन भागों में संवादन किया। सामग्री
संकलन हेतु बिहार, आसाम, केरल
आदि प्रदेशों में तथा इंग्लैण्ड, अमेरिका रुस आदि देशों
में जाकर आपने सामग्री संकलित करके 5000 पृष्ठो के
संग्रह का संपादन किया। आपकी यह सेवा अतिप्रशंसनीय है।
आप देश की गणमान्य उच्च शिक्षा संस्थाओं में सदस्य के रुप मे तथा जयपुर
अकादमी में अध्यक्ष पद को अलंकृत करते हुए संस्कृत की सेवा कर रहे हैं।
राजकीय संस्कृत कालेज जयपुर में सन् 1948 से
सेवा प्रारम्भ करके 1962 तक आपने क्रमशः
प्राध्यापक एवं प्रोफेसर के रुप में पद की गरिमा बढ़ायी। इस समय आप राष्ट्रीय
संस्कृत संस्थान, दिल्ली में निदेशक के पद पर तथा श्री
लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ में प्रचार्य पद पर कार्य कर रहे
हैं। राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के निदेशक पद पर विराजमान रह कर भारतवर्ष में आठ
केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ स्थापित की और अतिरिक्त के लिये आपका प्रयास चल रहा
है। आपकी संस्कृति सेवा संस्कृत विद्वानों के लिये अविस्मरणीय रहेगी।
विद्वदवरेण्य डा0 मिश्र की विशिष्ट संस्कृत
सेवा तथा सुर भारती के प्रति जागरुकता को एवं आपके विशिष्ट व्यक्तित्व एवं कृतित्व
को देखकर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी 1986 वर्षीय
एक लाख रुपये के विश्व संस्कृत-भारती नामक पुरस्कार से सभाजित करती हुई अपने को
कृतकृत्य समझ रही है।
Mahavir Agrawal Prof. (Dr.)
Professor & Head , Deptt. of Sanskrit
Acharya & Pro Vice
Chancellor
Gurukula Kangri Vishwavidyalaya, Haridwar
(Uttarakhand)
Vice President, UttaraKhand Sanskrit
Acadamy, Haridwar
Educational Qualification
M.A. (Sanskrit, Veda, Hindi) (All First
Div.), Vyakranacharya
Ph. D. in Sanskrit Topic
Valmiki Ramayan me Rasa Vimarsha
D.Litt. in Sanskrit Topic Vedic
Artha Vyavastha (Vedic Economics)
Merit
Achievement Always
hold first position in all examination
Teaching Experience
UG/PG
39 years
Research
experience
27 years
(i)
55 students have been awarded Ph. D. degree on
different streams of Sanskrit
and Vedic literature.
(ii)
10 students are registered for Ph. D. degree.
Administrative
Experience
(i) 3 years 6 months as Registrar of Gurukula
Kangri Vishwavidyalaya, Haridwar
(ii) 6 years as Head of the Department
(iii) 2 year as Dean of the Faculty
(iv) Presently Working as Acharya & Pro
Vice Chancellor of Gurukula Kangri Vishwavidyalaya, Haridwar since July 1, 2010
(v) Hon’ble Chief Minister ,
Uttarakhand appointed Vice President of Uttarakhand Sanskrit Academy since
2007.
Publication
(i) Valmiki Ramayan mein rasa vimarsha
(ii) Vedic artha vyavastha
(iii) Sanskrit Gadya Latika
(iv)
Explanation of 1,2,5th chapters of Raghuvansha Mahakavya with detailed
commentary.
(v)
Ric Sukta sangrah
(vi)
Maha Kavi Kalidas
Edition
Chief Editor of Research Journal “Gurukula
Patrika” of Gurukula Kangri Vishwavidyalaya, Haridwar since last 13 years.
Research papers and Articles
Many research papers on different aspects of
Sanskrit literature especially Vedic literature have been published in many
research journals of country.
Member of Academic Bodies
(i)
Resource person for Refresher courses organized by Academic Staff Colleges
of different universities under UGC, New Delhi.
(ii)
Expert Member for various developmental activities of UGC, New Delhi.
(iii) Expert
Member for various examinations conducted by UPSC, New Delhi.
(iv)
Expert Member to PSC, Uttaranchal.
(v)
Expert Member to PSCs of Uttar Pradesh, Madhya Pradesh, Rajasthan for their
various examinations.
(vi)
Nominee of Hon’ble VCs for Research Development Committees and Board of
Studies of CCS University, Meerut, SCJM
University, Kanpur, MD University, Rohtak, DR. BRA University, Agra, RML Avadh
University, Faizabad, Kurukshetra University, Kurukshetra.
(vii)
Examiner of MA, Ph.D. and D.litt. in different universities.
Member of Administrative/ Professional Bodies
(i)
Vice President of All India Oriental Conference during 2008-10.
(ii)
Presently Section President, Vedic Studies , All India Oriental Conference
(iii)
Presently President of Haridwar Chapter of Interational Goodwill Society of
India.
(iv) Founder Manager of Saraswati Vidya
Mandir Inter College, Mayapur, Haridwar
since last 20 years.
(v) Expert
Member of X and XI Plan team of UGC, New Delhi to visit various
universities.
(vi) Expert Member of Panel for Career
Advancement Scheme of various universities.
(vii) Senator of Gurukula Kangri
Vishwavidyalaya, Haridwar.
Participation in Seminars and Conferences
Participated and chaired various sessions on
Vedic literature in National and International conferences held in different
universities. Some of the important are
(i)
IX and X World Sanskrit Conference at New Delhi and Bangalore respectively.
(ii)
Akhil Bhartiya three days Sanskrit Seminar by Delhi Sanskrit Academy, New
Delhi.
(iii)
All India Oriental conferences at Vishakhapattnam, Haridwar, Rohtak, Pune,
Baroda, Varanasi.
(iv)
Kalidas Samaroh, Ujjain
Seminar/ Conference Organization
(i)
Co OS for All India Oriental Conference at Gurukula Kangri Vishwavidyalaya,
Haridwar
(ii)
Director of National Seminar at Uttaranchal Sanskrit Academy, Haridwar
(iii)
Organizing Secretary for National Seminar on Veda and Valmiki Ramayana at
Gurukula Kangri Vishwavidyalaya, Haridwar.
(iv)
Organizing Secretary for International Veda Conference at Gurukula Kangri
Vishwavidyalaya, Haridwar.
Foreign
Tours
Visited USA (University of Texas) to
attend and chair a conference organized by
WAVES
Visited UK (London) to deliver lectures on
Indian Value system.
Awards and
Honours
Veda Vedanga Award- from Arya Samaj
Santacruz, Mumbai in January 2011.
Arya Vibhushan Award- from Rao Harishchandra
Charitable Trust, Nagpur in October 2008.
Samanvaya Award- from Swami Satyamitranand
ji, founder Bharat Mata Mandir, Haridwar on occasion of MahaKumbh 2010 at
Haridwar
Special Honour by Arya Samaj Bara Bazar, Panipat
in year 2007
Special Honour by Nirdhan Niketan Ashram,
Haridwar
2007
Honored by different Arya Samaj, Social
organizations like Lions Club, Rotary Club and Bharat Vikas Parishad, different
Universities on different occasions.
Special Mention
·
A program titled “Upanishad Sudha” was telecasted on Astha Channel for 1.5
years. It was a weekly programme and each episode was of 30 minutes.
·
More than 2 dozen small talks on various subjects of Sanskrit were aired from All
India Radio.
·
DD telecasted a special programme “Ek Mulakat” which was one to one interview
on
personal achievements and role of Sanskrit in
modern society.
·
Widely invited by different religious gatherings on topics of Indian Values,
Vedic Philosophies, Sanskrit literature etc.
मान सिंहः
प्रो.
मानसिंहैः 1937 तमे ख्रीष्टीये
संवत्सरे जनवरीमास्य तारिकायां रुढ़कीनाम्न्युपजनपदे स्थितस्य
टोड़ाकल्याणपुराभिधस्य ग्रामस्य वास्तव्यानां श्रीमतीमनसादेवीति धर्मवदार्याणां
श्रीनन्तासिंह इति पुण्यनामाक्षराणां सुविमलयशसां पितृपादानां ज्येष्ठतनयत्वेन
जानिर्लब्धा। प्राथमिकी शिक्षा प्रथमन्तु स्वग्रामस्य एव विद्यालये, देशविभाजनान्तरञ्च खंजरपुरनाम्न्युपनगरे विद्यमाने एकस्मिन् विद्यालये
सम्प्राता। तदनन्तरञ्च षष्ठ्याः कक्षाया आरम्भ द्वादशीकक्षापर्यन्तं रुड़कीनगरस्थ
ब्राह्मणसंस्कृतमहाविद्यालयेऽधीतवान्-स्नातक- स्नातकोत्तरञ्च
सनातनधर्ममहाविद्यालये मुज़फ्फ़रनगस्स्थेऽधीत्योत्तीणे। तदनन्तरं पी-एच.डी. इति
शोधोपाधिः लब्धान्ताराष्ट्रियप्रख्यातीनां प्रो. सूर्यकान्तशास्त्रिणां
प्रो. सिद्धेश्वरभट्टाचार्यणाञ्च निर्देशकत्वे वाराणसीनगरस्थे
काशीहिन्दूविश्वविद्यालये शोधकार्यं विधाय प्राप्तः डिप्लोमापरीक्षा
(शर्मण्यभाषासाहित्यविषये) वेदाचार्यपरीक्षा च
हिमाचलप्रदेशविश्वविद्यालयाच्छिमलानगरस्थात् समुत्तीर्णे।
अलीगढ़विश्वविद्यालये
प्रवक्तृत्वेन बड़ौतस्थे दिगम्बरजैन स्नातकोत्तरमहाविद्यालये
हिमाचलप्रदेशविश्वविद्यालये एतेषां निर्देशने 24 अनुसन्धातारः पी-एच.डी. इति शोधोपाधिं 45 च
एम.फिल्-इति शोधोपाधिं प्राप्तवन्तः। नैकेषु विश्वविद्यालयेषु विषयेषु
विशिष्टव्याख्यानानि प्रदत्तानि।
एतेऽनेकेषु
प्राशसनिकेष्नपि पदेषु कार्यं कृतवान्। यथा हिमाचलप्रदेशविश्वविद्यालये, गुरुकुलकाँगड़ीविश्वविद्यालये
कुरुक्षेत्रविश्वविद्यालये च संस्कृतविभागाध्यक्षं कुरुक्षेत्रमविश्वविद्यालयस्य
प्राच्यविद्यासङ्कायस्याधिष्ठातृत्वं, संस्कृतप्राच्यविद्यासंस्थानस्य
महर्षिदयानन्दवैदिकाध्यनकेन्द्रस्य च निदेशकत्वं, मात्रकल्याणविभागस्याधिष्ठातृत्वं, शैक्षणिकीपरिषदः कार्यकारिणीपरिषदश्च सदस्यमपि निर्व्यूढम्। विविधानां
विश्वविद्यालयानां शिक्षाचयनादिसम्बद्धानां समितीनां सम्मानितः सदस्यः अपि एते
आसन्।
एतेषां
प्रकाशिताः प्रमुखग्रन्थाः विद्यन्ते-‘सुबन्धु एण्ड दण्डिन्’ ‘सुबन्धु’ ‘द उपनिपदिक एटीमाॅलाॅजी’ ‘अमृतसन्दोह ’(लेखसङ्ग्रहः, दिल्ली, 1995); ‘हिन्दू धर्म’ (दिल्ली, 1984); च। एतदतिरिक्तं, ‘‘वैदिक-वाङ्मये-विप्रा’, ‘साहित्य तथा साहित्यालोचन’, ‘निरुक्तपरिशीलन’ चेति त्रयो ग्रन्थाः प्रकाशिताः। विविधासु शोधपत्रिकासु च अनया प्रायः 70 शोधलेखाः, 20 ग्रन्थसमीक्षाश्च प्रकाश्यं नीताः, आकाशवाणीतश्च 35 वार्ताः प्रसारिताः।
एभिः
राष्ट्रपति-सम्मानः (सम्मानप्रमाणपत्रम्, दिल्ली, 1997); विशिष्ट-संस्कृत-विद्वान्
(कुरुक्षेत्र-विश्वविद्यालयः कुरुक्षेत्रम्, 1999); विशिष्ट-वेदवेदाङ्ग-विद्वान्
(श्रीसान्दीपनि-वेद्वविद्या-प्रतिष्ठानम् उज्जयिनी, 2003); वाग्विदांवर-सम्मानः (हिन्दी-साहित्यसम्मेलनम्, प्रयागः, 2009); विशिष्ट-संस्कृत-विद्वान्
(हरियाणा-संस्कृत-अकादमी, चण्डीगढम्, 2013); ‘साहित्यशिरोमणिः’ (भारतीय-वाङ्मय पीठम्’ कोलकाता, 2014); विशिष्टपुरस्कारः
(उत्तरप्रदेश-संस्कृत-संस्थानम्, लखनऊ,
2009) च। ) च प्राप्ताः।
मीरा द्विवेदी
डॉ. श्रीमती
मीरा द्विवेदी उत्तरप्रदेशस्य जालौनजनपदे हुसेपुरासमीपस्थिते टीहर नामके ग्रामे
चतुःषष्ट्यधिकै- कोनविंशतिशततमे वर्षे अक्टूबर मासस्य पञ्चदशदिनाøे (15.10.1964 ई.) अजायत। अस्याः पिता वैद्य
श्री प्रयाग नारायणदीक्षितः माता च श्रीमती चन्द्रप्रभा। वृन्दावने
मानवसेवासंघ-बालमन्दिरे अस्याः प्रारम्भिकी शिक्षा, ततः
तत्रौव बालिका माध्यमिकविद्यालये अधीत्य इयं माध्यमिक शिक्षापरिषदः हाईस्कूल
परीक्षां प्रथमश्रेण्यां समुदतरत्। तदनन्तरं राजस्थानस्य वनस्थलीविद्यापीठे
अन्तेवासिनी भूत्वा श्रीमती द्विवेदी संस्कृते स्नातकोत्तरोपाधिं पीएच.डी. इति
शोधोपाधिं च लब्धवती। अथच इयं तत्रौव प्राचीनपद्धत्या अधीत्य
शास्त्रिा-आचार्योपाधिमपि अलभत।
अध्ययनं
परिसमाप्य डॉ. मीरा द्विवेदी तत्रौव वनस्थली विद्यापीठे द्वाविंशतिवर्षाणि
अध्यापितवती। तस्मिन्नवधौ च तत्रा व्याख्याता-प्रवाचक-विभागाध्यक्षपदानि
अलंकृतवती। सम्प्रति दशाधिकद्विसहस्रतमाब्दात् दिल्ली विश्वविद्यालयस्य संस्कृत
विभागे सहाचार्यपदे नियुक्ता सती संस्कृतमध्यापयति।
डॉ. श्रीमती
द्विवेदी समये-समये विविधपुरस्कारैः सम्मानैश्च सभाजिता। यथा-उत्तर प्रदेश संस्कृत
संस्थानस्य संस्कृत साहित्य विशेष पुरस्कारम्, दिल्ली संस्कृत अकादमी प्रदत्तं नाट्यलेखन पुरस्कारम्, विक्रम कालिदास पुरस्कारं चेयं प्राप्तवती।
डा.
श्रीमती मीरा द्विवेदी द्वारा प्रणीतानि, सम्पादितानि
नैकानि पुस्तकानि सन्ति प्रकाशितानि यथा-आधुनिक संस्कृत महिला नाटककार, शब्द संवाद, चिन्तनालोक, चन्द्रापीड कथा, संस्कृतनाट्यनिर्झरम्, अभिनवचिन्तनम्, काश्मीरक्रन्दनम्। अस्याः बहूनि
शोधपत्राणि प्रकाशितानि। एवञ्चेयं द्विवेदी विभिन्नसंस्थासु संस्कृत साहित्यविषये
व्याख्यान द्वारा आकाशवाणीदूरदर्शनमाध्यमेन च सततं संस्कृतसाहित्यस्य संवर्धने
तस्य प्रचारे प्रसारे निरता सती सारस्वत साधनां करोति।
हिन्दी
डॉ. (श्रीमती)
मीरा द्विवेदी का जन्म उत्तरप्रदेश के जालौन जिले में हुसेपुरा के समीप स्थित टीहर
नामक ग्राम में वैद्य प्रयागनारायण दीक्षित एवं उनकी सहधर्मचारिणी श्रीमती
चन्द्रप्रभा दीक्षित के घर 15-10-1964 ई. को
हुआ। डॉ. मीरा ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा वृन्दावन स्थित मानवसेवासंघ के बालमन्दिर
(बालिकाछात्रावास) में रह करके प्राप्त की। नगरपालिका बालिका माध्यमिक विद्यालय
वृन्दावन से माध्यमिकशिक्षापरिषद् उत्तरप्रदेश की हाईस्कूल परीक्षा तीन विषयों में
विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् उच्चशिक्षा के
लिये राजस्थान में स्थित महिला शिक्षा के लिये अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति
प्राप्त वनस्थलीविद्यापीठ के अन्तेवासी छात्रा के रूप में संस्कृत विषय से ‘मास्टर्स आॅफ आर्टस् की उपाधि प्राप्त की। अनन्तर साहित्य शास्त्रा में ‘डाॅक्टर आॅफ फिलाॅसफी’ की उपाधि ग्रहण की। डॉ.
मीरा द्विवेदी ने इसी अवधि में पारम्परिक पद्धति से उपाध्याय, शास्त्राी और आचार्य परीक्षाएं भी प्रथम श्रेणी में समुत्तीर्ण कीं।
वनस्थलीविद्यापीठ से उच्चशिक्षा प्राप्ति के बाद आपने वहीं संस्कृत विभाग
में 22 वर्ष तक अध्यापन कार्य किया। इस दौरान आप
वहां व्याख्याता, रीडर और विभागाध्यक्ष जैसे पदों को
सुशोभित करती रहीं। सम्प्रति अक्टूबर 2010 ई. से
दिल्ली-विश्वविद्यालय के संस्कृतविभाग में सह-आचार्य पद पर अध्ययन-अध्यापन और
शोधादिकर्म में संलग्न रहकर संस्कृत सेवा कर रहीं हैं।
समय-समय पर आप को विविध पुरस्कारों और सम्मानों से समलंकृत किया गया। 1996 ई. में प्राप्त उत्तर-प्रदेश संस्कृतसंस्थान का संस्कृत-साहित्य-पुरस्कार,
2007 ई. में मौलिक एकांकी की रचना के लिये
दिल्ली-संस्कृत-अकादमी द्वारा प्रदत्त नाट्यलेखन पुरस्कार तथा 2009 ई0 में विक्रमविश्वविद्यालय-कालिदाससमिति
द्वारा प्रदत्त विक्रम-कालिदासपुरस्कार विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
डॉ. द्विवेदी
द्वारा लिखित ‘आधुनिक संस्कृत महिला
नाटककार’ ‘शब्दसंवाद’ ‘चिन्तनालोक’ नामक शोधात्मक उत्कृष्ट ग्रन्थ प्रकाशित हैं। ‘चन्द्रापीडकथा’,
‘संस्कृतनाट्यनिर्झरम्’, ‘अभिनवचिन्तनम्’ ग्रन्थों का आपने सम्पादन किया है। आप द्वारा रचित ‘काश्मीरक्रन्दनम्’ काश्मीरसमस्या को बनाकर रचित
मौलिक एकांकियों का संग्रह है। आपके पचास से अधिक उत्कृष्ट शोधलेख विविध
पत्रा-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय
शोधसंगोष्ठिओं में आपने लगभग 50 शोधपत्रा और
व्याख्यान प्रस्तुत किये हैं। आप राजस्थान माध्यमिक शिक्षापरिषद् अजमेर और
एन.सी.ई.आर.टी. दिल्ली के द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के निर्माण में भी अपना योगदान
करती रहीं हैं। मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की ई-पीजीसंस्कृतपाठशाला परियोजना में
संस्कृत-ई-पाठों के निर्माण में भी आपने सहयोग किया है। विविध विश्वविद्यालयों की
अकादमिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की सदस्यता के
साथ-साथ आप आकाशवाणी जैसे माध्यमों से संस्कृत भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार
में विशेष भूमिका निभा रहीं हैं। इस समय दिल्लीविश्वविद्यालय के दक्षिणपरिसर के
संस्कृतविभाग में प्रभारी पद को अलंकृत करती हुई डॉ. मीरा द्विवेदी संस्कृत की सतत
सारस्वत साधना में संलग्न है।
मुरलीधर मिश्र
आचार्य मुरलीधर मिश्र का जन्म 1905 ई0 में कार्तिक मास की प्रतिप्रदा में हुआ था। आप गोरखनुर जिले के बरबलदीगार
नामक गाँव के निवासी हैं और आपके पिता स्व0 श्री
शिवपूजन शर्मा थे।
श्री मिश्र प्रथमा परीक्षा के सभी ग्रन्थों का अध्ययन घर पर ही किया। यदि
मूर्ख बनना चाहते हो तो घर पर ही रहो। इस लोकोक्ति से प्रभावित होकर घर में पठन
पाठन का व्यवधान देखकर काशी में आकर राजकीय संस्कृत पाठशाला में अध्ययन शुरु किया।
वहाँ गणपतिशास्त्री मोकाटेके आन्तेवासित्व में अध्ययन करते हुये आचार्य की परीक्षा
प्रथम क्षेणी में उत्तीर्ण किया। सन् 1930 ईसवी
में ‘रियन‘ नामक स्वर्ण पदक
प्राप्त किया। कलकत्ता एसोसिएशन संस्था से काव्यतीर्थ की उपाधि से विभूषित हुये।
अन्य बहुत सी उपाधियों से श्री मिश्र विभूषित हुये हैं।
17 फरवरी 1938 ई0 में राजकीय संस्कृत महाविद्यालय काशी के व्याकरण सहायकाध्यापक पद पर
नियुक्त हुये और वहाँ व्याकरण के विभागाध्यक्ष पद के रिक्त होने पर व्याकरण
विभागाध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित हुये। 1971 ईसवी
में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से अवकाश प्राप्त करके घर पर ही छात्रों को
संस्कृत की शिक्षा दे रहे हैं।
विश्वविद्यालय से सेवामुक्त होने के बाद केन्द्रीय सरकार की योजनानुसार आप
पाँच वर्ष तक विशिष्ट अध्यापक के रुप में अनुसंधाता छात्रों को मार्ग दर्शन करते
रहे। चूडामणि योजना के अन्तर्गत आपने बहुत से छात्रों का मार्ग निर्देशन किया।
आपने प्रक्रिया कौमुदी की उत्तम टीका और अष्टादशपुराण व्यसवस्था नामक
ग्रन्थ पर भी काम किया जो किसी अन्य विद्वान के द्वारा लिखा गया था, उसका सरस्वती सुषमा पत्रिका में भूमिका सहित प्रकाशन कराया। आपके बहुत से
महत्वपूर्ण निबन्ध शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
विद्वद्मूर्धन्य आचार्य मिश्र के पौढ़ पाण्डित्य, शास्त्र निष्ठा, लम्बी संस्कृत सेवा को देखकर
अकादमी पच्चीस हजार के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित करती हुई अपने में गौरवान्वित
है।
पं. मोहनलाल शर्मा पाण्डेय
प्रतिनव
बाणभट्ट मोहनलाल शर्मा पाण्डेय (23 सितम्बर 1934 - 29 अक्टूबर 2015
) संस्कृत भाषा के प्रौढ साहित्यकार ,अपने समय के संस्कृत गद्य-पद्य के मूर्धन्य रचनाकार तथा पौरोहित्य कर्म
विशेषज्ञ रहे हैं । आपका जन्म 23 सितम्बर 1934 को अपरा काशी तथा पिंक सिटी नाम से विख्यात जयपुर (राजस्थान,भारत) के प्रसिद्ध गलता तीर्थ के महन्तों के पुरोहित परिवार में हुआ। आपके
पिता का नाम श्री दुर्गालाल जोशी तथा माता का नाम सूरज देवी था।
पौरोहित्य
कर्म करने वालों की परम्परा में आपके पिता एवं पितामह श्योदत्त जोशी तथा प्रपितामह
गंगाबक्ष जोशी अग्रणी रहे। वंश परम्परा से पौरोहित्य / कर्मकाण्ड में पारङ्गत आपने
लगभग पचास यज्ञ करवाये जिनमें दो अष्टोत्तरशत कुण्डीय यज्ञों का आचार्य होना
उल्लेखनीय है। पाण्डेय ने संस्कृत के क्षेत्र में
उपन्यास, गद्यकाव्य, खण्डकाव्य
आदि विधाओं में बीसियों रचनाएं की हैं। आपने पौरोहित्य-कर्म से सम्बन्धित दशाधिक
ग्रन्थों की भी रचना की ।
पाण्डेय का
देहावसान 82 वर्ष की आयु में 29 अक्टूबर 2015 तदनुसार कार्तिकमास के
कृष्णपक्ष की द्वितीया तिथि को गुरुवार के दिन हुआ।
शिक्षा---
पाण्डेय
ने 1946 में जयपुर की शिक्षाविभागीय प्रवेशिका तथा वाराणसी के राजकीय संस्कृत कॉलेज से 1950 में प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण की। संस्कृत साहित्य में सन् 1952 में उपाध्याय परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आपने गौड़ विप्र विद्यालय में
अध्यापन कार्य कराते हुए ही स्वयंपाठी छात्र के रूप में संस्कृत साहित्यमें
शास्त्री परीक्षा सन् 1962 में प्राचीन
राजनीतिशास्त्र विषय में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की तत्पश्चात् आपने अपरा
काशी के रूप विख्यात जयपुर के महाराज संस्कृत कालेज से 1964 में संस्कृत साहित्य विषय में आचार्य उपाधि प्राप्त की। कालेज में आपने
पं.जगदीश शर्मा साहित्याचार्य, पं.गंगाधर द्विवेदी तथा
आशुकवि हरि शास्त्री से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया। यहीं पर आपने विशेष रूप से
व्याकरणशास्त्र का ज्ञान पं.सूर्यनारायण शास्त्री, पं.रामेश्वरप्रसाद
दाधीच तथा प्रोफेसर दुर्गादत्त मैथिल के सान्निध्य में और पं.पट्टाभिराम शास्त्री
जी एवं पं.नन्दकिशोर दाधिमथ से न्यायशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया।
आशुकवि हरि
शास्त्री ने आपको काव्य रचना की प्रेरणा दी, फलस्वरूप छात्रजीवन के दौरान ही आपने काव्य रचना प्रारम्भ कर दी और
प्राचीन राजनीतिशास्त्र के पाठ्यक्रम को श्लोकबद्ध कर कण्ठस्थ किया। आपकी अनेक
मौलिक रचनाएं की। वंश परम्परागत पौरोहित्य-विद्या संस्कार से आपने पं.ग्यारसीलाल वेदाचार्य से विधिवत् वेद का अध्ययन किया
तथा श्रौत-स्मार्त यज्ञों के पारंगत विद्वान् राजब्रह्मा पं. रामकृष्ण चतुर्वेदी
से कर्मकाण्ड के कार्य में दक्षता प्राप्त की। पौरोहित्य कर्म के लिए भी आपने
सैंकडों श्लोकों की रचना की जो आपके ग्रन्थों में यथास्थान प्रकाशित हैं।
संस्कृत
में रचित प्रमुख ग्रन्थ एवं सम्पादन :-
मौलिक
रचनाएं--
पद्मिनी
(उपन्यास)1999, पाण्डेय प्रकाशन, जयपुर,राजस्थान। यह ऐतिहासिक संस्कृत
उपन्यास/गद्यकाव्य चित्तौड़गढ़ की राजमहिषी पद्मिनी,जो
मेवाड़ के राजा रत्नसिंह (1302ई.में गद्दीनसीन)की विवाहिता
रही, के चरित्र पर अम्बिकादत्त व्यास शैली में रचा गया
है। इस उपन्यास पर राष्ट्रपति-सम्मानित मनीषी डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी ने पढ़ने के
बाद अपने पत्र में यों उद्गार प्रकट किये :- 'पद्मिनीकवीश्वराय
प्रतिनवबाणभट्टाय पं. श्रीमोहनलालशर्मणे पाण्डेयाय प्रणति:। भवतामुत्तमोत्तमा
गद्यकृति: 'पद्मिनी' जनेनाद्य
यत्र तत्रान्वशीलि प्रापि च प्रसत्त्यतिशीति:।'
विद्वान् डॉ
हरिराम आचार्य (राष्ट्रपति-सम्मानित) ने इस उपन्यास की शैली को नवीन मारवणी शैली
कहा है :- '
---- न प्राचीना
काव्यशास्त्रोक्ता अपितु नवीना प्रसादगुणभूषिता मरुधरोत्था 'मारवणी' शैलीति कथयितुं शक्यते।'
‘पत्रदूतम् ( ऐतिहासिक
खण्डकाव्य)1999, विश्वप्रसिद्ध ईराक के खाड़ी युद्ध की
घटना पर आधारित। अमेरीकी सेनाध्यक्ष द्वारा अपनी पत्नी को लिखे पत्र में युद्ध का
विवरण। इस काव्य में आज की युद्ध प्रणाली तथा शस्त्रास्त्र टैंक,राडार,बम, बुलडोजर आदि
शब्दों के लिए संस्कृत भाषिक नवीन शब्दों की संरचना की गई है।
‘नतितति(चित्र खण्डकाव्य) 2007, वर्णैक प्रधान मुक्तक चित्रकाव्य। स्तोत्र-साहित्य में नतिपरक भाव प्रधान
मुक्तक, इसका प्रत्येक पद्य नागरी वर्णमाला के एक एक
वर्ण को नायक बनाकर लिखा गया है, उस पद्य का प्रत्येक
शब्द उस वर्ण से ही प्रारम्भ होता है, इस प्रकार एक
पद्य एक ही अक्षर में पूरा गुम्फित होने से 'एकाक्षरचित्रम्' भी कहा जाता है। इस दृष्टि से इस कृति का प्रत्येक श्लोक अपने आप में एक
लघुकाव्य है। यह काव्य इस दृष्टि से चित्रकाव्य भी है, स्तोत्रकाव्य
भी है और मुक्तककाव्य भी। विभिन्न आराध्यों के प्रति प्रणति समर्पित करने से इसका 'नतितति' नाम सार्थक है।
संस्कृतकाव्यकौमुदी (2010), विषयगत छ: खण्डों में विभाजित इस खण्डकाव्य में प्रणतिततय:, प्रशस्तिका, समस्यासौहित्यम्, राष्ट्रियम् ,वैदुषीवैभवम्, लोकनायका: शीर्षक के अन्तर्गत अनेक उपशीर्षकों में लगभग 500 पद्यों को समाहित किया गया है।
'समस्यासौहित्यम् (खण्डकाव्य) 2012, इस खण्डकाव्य में काव्यकार ने स्वोपज्ञ समस्या-पूर्ति का निर्धारण करते
हुए लगभग 500 श्लोकों की रचना कर अनेक शीर्षक एवं
उपशीर्षकों में ग्रथित किया है। रचनाकार ने उदार दृष्टिकोण से ओंकार जैसे दार्शनिक
सन्दर्भों को लेते हुए देव, गण, देवयोनि, लोकदेवता, लोकतन्त्र, नारीचेतना और विज्ञान प्रौद्योगिकी तक के आधुनिक विषयों का समावेश इस
काव्य में किया है।
अनूदित
ग्रन्थ -
'रसकपूरम् (उपन्यास) 1993, अनूदित ऐतिहासिक संस्कृत उपन्यास/गद्यकाव्य । इस उपन्यास की नायिका 'रसकपूर' के नाम विख्यात नृत्यांगना है, जिसने जयपुर के महाराजा जगत् सिंह की प्रेयसी बन रानियों में प्रमुख स्थान
प्राप्त किया और इतिहास प्रसिद्ध नूरजहां के समान ही शासन की बागडोर संभाली।
अंग्रेजी, गुजराती आदि आठ भाषाओं में अनूदित एवं मूलरूप
में हिन्दी भाषा में लिखित इस उपन्यास के लेखक संस्कृतमनीषी आचार्य उमेश शास्त्री
ने संस्कृत अनुवाद के सन्दर्भ में भूमिका लिखते हुए लिखा है :- 'रसकपूर के अनुवाद में मौलिकता है। ऐसा अनुवाद देखने में नहीं आया है। संस्कृत
साहित्य के गद्य क्षेत्र की अनूदित कृतियों में सहज रूप से शीर्ष स्थान को प्राप्त
करना ही इस शैली की विशेषता और अनुवादक की मौलिकता कही जायेगी।
'रामचरिताब्धिरत्नम्
(महाचित्रकाव्य) 2003, व्याकरण की प्रौढ शैली में, भट्टिकाव्य के सदृश चौदह सर्गों में रचित इस महाचित्रकाव्य का पाण्डेय
द्वारा हिन्दी अनुवाद /व्याख्या 'रत्नप्रभा' नाम से किया गया है। जोधपुर के रहने वाले आशुकवि पं.नित्यानन्द शास्त्री
द्वारा रचित इस महाकाव्य के श्लोकों के प्रत्येक चरण के आदि में वाल्मीकीय मूल
रामायण के एक एक अक्षर को संयोजित किया गया है , जिसके
पुन:संयोजन से यह मूल रामायण का स्वरूप प्राप्त कर लेता है। इस महाकाव्य में
व्याकरण शास्त्र के दुरूह प्रयोग तथा उनकी उपमाएं देने के साथ ही अन्यान्य शब्दों
का गुम्फन, जिनका अवगम प्रचलित अप्रचलित कोशों की
सहायता से ही सम्भव है। राष्ट्रपति-सम्मानित विद्वान् देवर्षि कलानाथ शास्त्री ने
महाकाव्य की भूमिका में लिखा है :- '----- इस
काव्य के व्याख्या कार्य को जिस श्रम,लगन और वैदुष्य के साथ
जयपुर के जाने माने कवि,विद्वान् राष्ट्रपति-सम्मान प्राप्त
पं. मोहनलाल शर्मा पाण्डेय ने किया है, --- जिस
स्पष्टता और विशदता के साथ हिन्दी व्याख्या कर इसे संस्कृज्ञेतर पाठकों के लिए
सुग्राह्य बनाया है, साथ ही उसकी विशेषताओं का विवरण भी
दिया है उसके लिए वे संस्कृतजगत् की श्लाघा और कृतज्ञता के सर्वात्मना पात्र बन
गये हैं।
सम्पादित
ग्रन्थ -
स्वातन्त्र्यसहयोगिन: , 1998( स्वतन्त्रता आन्दोलन में
संस्कृतज्ञों, संस्केकृतानुरागियों के योगदान एवं उनसे
सन्दर्भित साहित्य से सम्बद्ध) प्रकाशक- राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर।
राजस्थानगौरवम् , 2001 ( राजस्थान के संस्कृत
विद्वानों का योगदान) प्रकाशक- राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर।
धार्मिक
तथा पूजा ग्रन्थ प्रणयन -
चतुर्वेदोक्तग्रहशान्ति-पद्धति:, 2013 (ऋक्,यजु:,साम,अथर्व चारों वेदों के मन्त्रों के साथ स्वरचित
पद्यों सहित।)
विशिष्टव्रतोद्यापनविधि:,
2014 (मन्त्रों के साथ स्वरचित पद्यों सहित।)
विभिन्न
देवताओं के पूजा-विधान के सम्बन्ध में प्रणीत इन ग्रन्थों में वेद मन्त्रों के साथ
साथ पाण्डेय ने स्वरचित पद्यों का संयोजन किया है:-
श्रीहनुमत्पूजा-पद्धति:, 2007 श्रीरामपूजा-पद्धति:,
2007 श्रीगणेशपूजा-पद्धति:, 2007 श्रीकृष्णपूजा-पद्धति:,
2008 श्रीशिवपूजा-पद्धति:, 2009 श्रीदुर्गापूजा-पद्धति:,
2010 श्रीसप्तर्षिपूजा-पद्धति:, 2011 श्रीभैरवपूजा-पद्धति:, 2012
प्रमुख
सम्मान-पुरस्कार एवं मानद उपाधि:-
इन्हें मिले
अनेकानेक सम्मानों और अलंकरणों की पूरी सूची दी जानी सम्भव नहीं है, परन्तु इन्हें प्राप्त कुछ उल्लेखनीय
उपाधियाँ व सम्मान अधोलिखित है :-
'राष्ट्रपतिसम्मान-पत्र, सन् 2000' महामहिम राष्ट्रपति, भारत द्वारा संस्कृत वैदुष्य के लिए अलंकृत एवं पुरस्कृत।
'श्रीवाणी अलंकरण, सन् 2009' रामकृष्ण जयदयाल डालमिया श्री
वाणी अलंकरण न्यास, नई दिल्ली द्वारा 'पद्मिनी' उपन्यास पर लोकसभाध्यक्ष श्रीमती मीरा
कुमार के करकमलों से।
'वाचस्पति पुरस्कार,सन् 2002' के. के.बिडला फाउण्डेशन, नई दिल्ली द्वारा 'पद्मिनी' उपन्यास पर।
'अखिल भारतीय पुरस्कार, सन् 2000' राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर द्वारा 'पद्मिनी' उपन्यास पर।
'संस्कृत साधना शिखर सम्मान ( Life
Time achievement award),सन् 2013' राजस्थान
सरकार का संस्कृत-क्षेत्र में राज्यस्तरीय सर्वोच्च सम्मान संस्कृत दिवस पर ।
'माघ-पुरस्कार, वर्ष 1992-93' राजस्थान संस्कृत अकादमी,जयपुर द्वारा 'पत्रदूतम्' खण्डकाव्य पर।
'राज्यस्तरीय विद्वत्सम्मान एवं
पुरस्कार,सन् 1995' राजस्थान
सरकार द्वारा संस्कृत क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान पर।)
'हारीत ऋषि सम्मान, वर्ष 2000-01' महाराणा मेवाड़
फाउण्डेशन, उदयपुर (राज.)द्वारा।
'भट्ट मथुरानाथ शास्त्री साहित्य
सम्मान, वर्ष 2004-05'राजस्थान
संस्कृत अकादमी,जयपुर द्वारा विशिष्ट वैदुष्य के लिए।
श्रीवाणी
अलंकरण, सन् 2009' रामकृष्ण जयदयाल डालमिया श्री वाणी अलंकरण न्यास, नई दिल्ली द्वारा 'पद्मिनी' उपन्यास पर लोकसभाध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार के करकमलों से।
'विद्यासागर' उपाधि, सन् 2006' ज्योतिर्मठ-बद्रिकाश्रम एवं शारदा पीठ, द्वारका
के जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वरूपानन्द सरस्वती द्वारा जयपुर में चातुर्मास के
अवसर पर।
'शिक्षक-शिरोमणि:, सन् 2012' जगद्गुरु रामानन्दाचार्य
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय,जयपुर( राज.) द्वारा संस्कृत
अध्यापन के क्षेत्र में शिक्षक दिवस पर।
'प्रथम पुरस्कार,अखिल भारतीय समस्यापूर्ति स्पर्धा, सन् 2001'
राष्ट्रीय
संस्कृत सम्मेलन के अवसर पर राजस्थान संस्कृत साहित्य सम्मेलन, जयपुर द्वारा।
'शास्त्र-महोदधि', उपाधि, सन् 1995' महामहोपाध्याय पं. श्री गिरिधर चतुर्वेदी की स्मृति में श्री वैदिक
संस्कृति प्रचारक संघ, जयपुर द्वारा।
इनके अतिरिक्त
अनेक विभिन्न संस्थाओं से सम्मानित किया गया, जिनमें से कुछ ये हैं :- 'योग्यता-पारितोषिक',संस्कृत शिक्षा विभाग, राजस्थान सरकार(1998-99 तथा 2009), 'महर्षि-पुरस्कार', व्यास बालाबक्ष शोध संस्थान,जयपुर(2007), राजगंगा चैरिटेबल ट्रस्ट,जयपुर(2004-05), जगद्गुरु रामानन्दाचार्य सप्त शताब्दी समारोह समिति,जयपुर(2000) आदि से प्राप्त सम्मान।
राजकीय
सेवा :-
मोहनलाल
पाण्डेय ने सर्वप्रथम वरिष्ठाध्यापक के रूप में 22 जुलाई 1957 से 04 अक्टूबर 1967 तक जयपुर के गौड़विप्र हायर सैकण्डरी स्कूल में अध्यापन कराया। तत्पश्चात्
राजस्थान लोक सेवा आयोग से चयनोपरान्त राजस्थान
सरकार के संस्कृत शिक्षा विभाग के विभिन्न संस्कृत महाविद्यालयों में 1967 से 1982 तक संस्कृत साहित्य के व्याख्याता
के रूप में अध्यापन कराया । तदनन्तर पदोन्नति प्राप्त कर राजकीय संस्कृत कॉलेज
अजमेर( राजस्थान) के प्राचार्य के रूप में 1982 से
कार्य करते हुए 30 सितम्बर 1992 तक सेवानिवृत्त हुए।
सेवा में रहते
हुए आपने राजस्थान विश्वविद्यालय,जयपुर, राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड,अजमेर तथा महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, अजमेर
की विभिन्न पाठ्यक्रम समितियों के संयोजक/ सदस्य के रूप में कार्य किया।
पौरोहित्य
कर्म :-
पाण्डेय ने
पं.ग्यारसीलाल वेदाचार्य से विधिवत् वेद का अध्ययन किया। कुण्डमण्डपाचार्य तथा
श्रौत-स्मार्त यज्ञों के पारंगत पण्डित राजब्रह्मा रामकृष्ण चतुर्वेदी से
कर्मकाण्ड के कार्य में दक्षता प्राप्त की। पाण्डेय ने सन् 1956 में गंगानगर में भारत-पाक के
समीपस्थ बकायन वाला में यज्ञ सम्पन्न करवाया, पूर्णाहूति
के साथ ही प्रचुर मात्रा में वृष्टि होने से अकालग्रस्त ग्रामवासी अत्यन्त प्रसन्न
हुए। इसके अतरिक्त आपने राज्य से बाहर चित्रकूट, आसाम, इन्दौर आदि स्थानो पर विभिन्न यज्ञ और देवप्रतिष्ठा जैसे कार्य करवाये।
अनेक अनुष्ठानों के साथ ही आपने सन् 1979 जयपुर के
चौमूं क्षेत्र के रामपुरा-डाबड़ी ग्राम में तथा 1993 में धाणोता ग्राम में अष्टोत्तरशत कुण्डीय दो यज्ञ अपने आचार्यत्व में
सम्पन्न करवाये।
पाण्डेय
द्वारा अन्य संस्थाओं में धारित पद :-
उपाध्यक्ष राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर के उपाध्यक्ष पद पर षष्ठ महासमिति में 24.03.1998 से तीन वर्ष तथा सप्तम महासमिति में 24.04.2001 से तीन वर्ष रहे।
उपाध्यक्ष, श्री वैदिक संस्कृति प्रचारक
संघ, जयपुर सन् 2004 तथा 2005 तक।
अध्यक्ष, (सन् 2005 से
आजीवन) श्री वैदिक संस्कृति प्रचारक संघ, जयपुर।
अध्यक्ष , अखिल भारतीय वेदवेदांग ज्योतिष
स्वाध्याय संस्थान,जयपुर सन् 2004 से 2015 तक आजीवन।
मित्र
परम्परा
पाण्डेय जी के
मित्रों में संस्कृत के क्षेत्र में विशेष योगदान करने वाले 'भारती' संस्कृत पत्रिका के प्रधान संपादक राष्ट्रपति सम्मानित देवर्षि कलानाथ
शास्त्री तथा संपादक पं. प्यारेमोहन शर्मा, संस्कृत
भाषा में बड़े पर्दे की फिल्म 'मुद्राराक्षसम्' के निर्माता आचार्य उमेश शास्त्री, इसी फिल्म
के संस्कृत गीतकार डॉ हरिराम आचार्य एवं गिरिजाप्रसाद 'गिरीश' ,राष्ट्रपति सम्मानित डॉ नारायण शास्त्री कांकर तथा आशुकवि पं. सत्यनारायण
शास्त्री,पद्म शास्त्री आदि अनेक संस्कृत के साहित्यकार हैं।
शिष्य
परम्परा
आपकी शिष्य परम्परा में
विश्व हिन्दू परिषद् के केन्द्रीय मार्गदर्शक मंडल के सदस्य तथा राजस्थान
क्षेत्रीय संत-प्रमुख अमृतराम रामस्नेही, प्रोफेसर
रामेश्वर शर्मा, संस्कृत शिक्षा राजस्थान में सहायक
निदेशक डॉ विश्वभर दयाल जोशी तथा डॉ अशोक योगी, संस्कृत
के व्याख्याता डॉ बाबूलाल शर्मा, प्रो. ताराशंकर शर्मा
पाण्डेय आदि प्रमुख हैं।
पारिवारिक
जीवन
मोहनलाल
पाण्डेय का विवाह कम उम्र में ही जयपुर के जौहरी बाजार निवासी, सिताबी गोत्रीय रूपनारायण शर्मा की
ज्येष्ठ पुत्री मुन्नी देवी से हुआ। विवाह के समय पण्डित जी की मन्त्रोच्चारण में
शिथिलता देख आपने स्वयं की कर्मकाण्ड में प्रवीणता होने से अपना विवाह संस्कार
स्वयं ही करवा दिया। विवाह के बाद भी आपने अध्ययन जारी रखा। आपको सर्वप्रथम आश्विन
नवरात्र की षष्ठी को कन्यारत्न सरोजबाला की और लगभग तीन वर्ष पश्चात् ऋषिपंचमी के
दिन 17 सितम्बर 1958 अपराह्ण में पुत्र की प्राप्ति हुई। इस समय परिवार का पुरुषवर्ग गलता
तीर्थ के यज्ञकुण्ड नामक स्नानकुण्ड में ऋषितर्पण कर्म में व्यस्त था। पुत्र
प्राप्ति का समाचार मिलने पर शिशु के पितामह पं. दुर्गाप्रसाद के मुख से वाक्य
निकला कि हमारे यहां ऋषि ने जन्म लिया है और बालक का नाम ऋषिराज रख दिया जो आगे
चलकर प्रो.{डॉ} ताराशंकर शर्मा
पाण्डेय हुए, जो जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान
संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में संस्कृत साहित्य
विभाग में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के पद पर कार्यरत रहे हैं। बहुत लम्बे अन्तराल के
बाद मोहनलाल पाण्डेय के 12 मई 1976 को नृसिंह चतुर्दशी के दिन एक और कन्यारत्न मधुबाला नामक हुआ, वर्तमान में डॉ मधुबाला शर्मा जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत
विश्वविद्यालय, जयपुर में संस्कृत साहित्य विभाग में
सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत है।
मोहनलाल शर्मा
पाण्डेय के एक पौत्र सौरभ शर्मा रैवासा इंटरनेशनल इन्फोटेक प्राईवेट लिमिटेड के
संस्थापक एवं निदेशक हैं। पाण्डेय के चार दोहित्र - प्रद्युम्न, जनार्दन, माधव
एवं राघव तथा दो दोहित्रियां - मणिभूषण और गौरीभूषण हैं।
उत्तम प्रस्तुति। पं. मोहनलाल शर्मा पाण्डेय द्वारा रचित 'पद्मिनी' संस्कृत उपन्यास प्रौढ संस्कृत भाषा का निदर्शन है, जिसे अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। यह उपन्यास देश के लगभग तेरह विश्वविद्यालयों में एम.ए.(संस्कृत) के पाठ्यक्रम में निर्धारित किया गया है।
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