धातुओं (क्रियाओं) से परिचय पाठ 11
पूर्व के पाठ में आपने क्रिया के बारे में संक्षेप में जाना था। इस पाठ में हम उसके विविध स्वरूपों पर चर्चा तथा प्रयोग करेंगें।लिखना, जाना, करना, पढ़ना, देखना, बोलना आदि जो भी क्रियाएँ हैं, उन क्रियाओं के वाचक जो लिख्, गम्, कृ, पठ्, दृष् आदि शब्द हैं, संस्कृत में इसे धातु कहते हैं। धातुपाठ में पाणिनि ने इन धातुओं का उपदेश दिया है। अतः इसे औपदेशिक धातु भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त सन्, क्यच् ,काम्यच्, क्यष्, क्यङ्, क्विप्, णिङ्, ईयङ्, णिच्, यक्, आय, यङ्, ये 12 प्रत्यय जिसके भी अन्त में लगते हैं, उससे भी ‘धातु’ हो जाता है। ये आतिदेशिक धातु कहे जाते हैं। इन्हें आप प्रत्ययान्त धातु भी कह सकते हैं। इस प्रकार ये धातु दो तरह के होते हैं।
संस्कृत में मूल धातुओं की संख्या पर मतभेद हैं। अनेक गणों में कह गये एक ही धातु को कोई अलग-अलग स्वीकार करते हैं तो कोई एक। इसी प्रकार कुछ ऐसे धातु जिनका पुरुष में रूप तथा अर्थ एक समान होते हुए मूल धातु के स्वरूप में थोड़ा अंतर होता है। कुछ लोग उन्हें एक ही मानते हैं,जबकि कुछ लोग अलग। इस प्रकार इसकी कुल संख्या 1930 से 1970 के बीच मानी जाती है। इनमें से व्यवहार में लगभग 600 धातुओं का ही प्रयोग होता है।
इन धातुओं का संकलित कर मैंने अपने इस ब्लॉग के एक पोस्ट में लिखा है। यहाँ सभी धातुओं के हिन्दी अर्थ, धातु नाम, गण नाम, परस्मैपद/ आत्मनेपद तथा लट् लकार के प्रथमा एकवचन का रूप भी दिया है। विशेष यह कि यहाँ धातुओं को अकारादि क्रम में नहीं रखते हुए हिन्दी अर्थ को अकादि क्रम में रखते हुए उसके सम्मुख धातु का नाम तथा अन्य विवरण दिया गया है। जैसे-
अच्छा लगना रुच दीप्तावभिप्रीतौ
च भ्वादि आत्मनेपद रोचते
अच्छा लगना लस्
श्लेषणक्रीडनयो: भ्वादि परस्मैपद लसति
अध्ययन करना इङ् अध्ययने
नित्यमधिपूर्वः अदादि आत्मनेपद
अधीते
अभिनय करना नट् नृत्तौ चुरादि परस्मैपदी नाटयति
विभिन्न कालवाचक क्रिया के काल, पुरुष, वचन आदि परिवर्तन अभ्यास के लिए क्रियापद पर चटका लगाकर एक दूसरे लिंक पर जायें।
संस्कृत धातुओं के स्वरूप तथा प्रयोग
धातु से लगने वाला प्रत्यय जब आर्धधातुक होता है, तब धातुओं से कोई विकरण नहीं जोड़ा जाता।
चुरादिगण के धातुओं से लगने वाला णिच् प्रत्यय स्वार्थिक प्रत्यय है, यह विकरण नहीं है, विकरण तो शप् ही है। जैसे - चुर् + णिच् = चोरि। यह ‘चोरि’ बन जाने के बाद ही अब इससे शप् विकरण लगाकर चोरि + शप् + ति = चोरयति बनाया जाता है।
संस्कृत में सकर्मक / अकर्मक धातु
धातुओं में सेट्, अनिट् और वेट् व्यवस्था
यदि आप यह समझ जायें कि कौन- कौन धातु सेट्, अनिट् और वेट् होता है तब रूप सिद्धि में काफी सहायता मिलेगी। जिस धातु में इट् का आगम होता है वह सेट् कहा जाता है, जिसमें इट् का आगम / प्रयोग नहीं होता वह 'अनिट्' कहा जाता है ।
निम्नलिखित अजन्त धातुओं को छोड़कर शेष सभी अजन्त धातु अनिट् कहे जाते हैं-
ऊदन्त, ऋदन्त, यु, रु, क्ष्णु, शीड्., स्नु, नु, क्षु, श्वि, डीड्., श्री, वृड्., वृञ् ।
अधिक जानकारी देने के लिए एक पृथक् प्रकरण में इडागम व्यवस्था, सेट्, अनिट् धातु के बारे में बताया जाएगा।अभ्यास कार्य-
निम्नलिखित में से किन्हीं पाँच के धातु रूप लिखें –
[क] जि - लट् मध्यम पुरुष
[ख] गम् - लट् उत्तम पुरुष
[ग] ज्ञा– लट् मध्यम पुरुष
[घ] श्रु - लङ् प्रथम पुरुष
[ङ] गम् - लोट् - लट् उत्तम पुरुष
[च] अस्– लोट् मध्यम पुरुष
[छ] दृश् - लङ् उत्तम पुरुष ।
[ज] भू - विधिलिङ् मध्यम पुरुष
[झ] सेव- लोट् मध्यम पुरुष
[ञ] पठ्- लट् प्रथम पुरुष
अधोलिखित धातु के लकार, पुरुष तथा वचन का रूप लिखें।
[क] अस् - लट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन |
[ख] सेव् - लङ् लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन ।
[ग] ब्रू - लोट् लकार, मध्यम पुरुष एकवचन ।
[घ] दृश् - लट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन ।
[ङ] पठ्– विधिलिङ, मध्यम पुरुष द्विवचन ।
[च] श्रु- लङ् लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन ।
[छ] स्था— लोट् लकार, मध्यम पुरुष एकवचन
[ज] भू-विधिलिङ् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन
[झ] स्था - लङ् लकार, मध्यम पुरुष एकवचन ।
[ञ] सेव् - लट् लकार, उत्तम पुरुष बहुवचन
निम्नलिखित धातुओं के लोट् लकार मध्यम पुरुष का रूप लिखें-
गम्,
स्था, भू, अस् , सेव्, कृ, खाद् और राजृ
निम्नलिखित धातुओं के लङ् लकार, प्रथम पुरुष का रूप लिखें-
दृश्, गम्, ज्ञा, भु, स्था, कृ, सेव्, अस्, भू और पठ् ।
अधोलिखित क्रियापदों के धातु निर्दिष्ट करें –
अवाप्यते, समीक्ष्यते, मन्यते, अतिष्ठत् और भव ।
उत्तर- आप्, ईक्ष्, मन्,
स्था और भू ।
निम्नलिखित क्रियापदों के लकार का निर्देश करें –
ऐक्षत, इयेष,
सहेत, अयाचत, अपाकरिष्यति, समीक्ष्यते, अवैमि, अरोदयत् और लभस्व ।
उत्तर-- ऐक्षत-लङ्, इयेष-लिट्, सहेत-विधिलिङ्, अयाचत-लङ्, अपाकरिष्यति लृट्, समीक्ष्यते-लट्, अवैमि-लट्, अरोदयत्-लङ्, लभस्व-लोट् ।
पाठ 12अभ्यास कार्य-
निम्नलिखित में से किन्हीं पाँच के धातु रूप लिखें –
[क] जि - लट् मध्यम पुरुष
[ख] गम् - लट् उत्तम पुरुष
[ग] ज्ञा– लट् मध्यम पुरुष
[घ] श्रु - लङ् प्रथम पुरुष
[ङ] गम् - लोट् - लट् उत्तम पुरुष
[च] अस्– लोट् मध्यम पुरुष
[छ] दृश् - लङ् उत्तम पुरुष ।
[ज] भू - विधिलिङ् मध्यम पुरुष
[झ] सेव- लोट् मध्यम पुरुष
[ञ] पठ्- लट् प्रथम पुरुष
अधोलिखित धातु के लकार, पुरुष तथा वचन का रूप लिखें।
[क] अस् - लट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन |
[ख] सेव् - लङ् लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन ।
[ग] ब्रू - लोट् लकार, मध्यम पुरुष एकवचन ।
[घ] दृश् - लट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन ।
[ङ] पठ्– विधिलिङ, मध्यम पुरुष द्विवचन ।
[च] श्रु- लङ् लकार, प्रथम पुरुष, बहुवचन ।
[छ] स्था— लोट् लकार, मध्यम पुरुष एकवचन
[ज] भू-विधिलिङ् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन
[झ] स्था - लङ् लकार, मध्यम पुरुष एकवचन ।
[ञ] सेव् - लट् लकार, उत्तम पुरुष बहुवचन
निम्नलिखित धातुओं के लोट् लकार मध्यम पुरुष का रूप लिखें-
गम्,
स्था, भू, अस् , सेव्, कृ, खाद् और राजृ
निम्नलिखित धातुओं के लङ् लकार, प्रथम पुरुष का रूप लिखें-
दृश्, गम्, ज्ञा, भु, स्था, कृ, सेव्, अस्, भू और पठ् ।
अधोलिखित क्रियापदों के धातु निर्दिष्ट करें –
अवाप्यते, समीक्ष्यते, मन्यते, अतिष्ठत् और भव ।
उत्तर- आप्, ईक्ष्, मन्,
स्था और भू ।
निम्नलिखित क्रियापदों के लकार का निर्देश करें –
ऐक्षत, इयेष,
सहेत, अयाचत, अपाकरिष्यति, समीक्ष्यते, अवैमि, अरोदयत् और लभस्व ।
उत्तर-- ऐक्षत-लङ्, इयेष-लिट्, सहेत-विधिलिङ्, अयाचत-लङ्, अपाकरिष्यति लृट्, समीक्ष्यते-लट्, अवैमि-लट्, अरोदयत्-लङ्, लभस्व-लोट् ।
वाच्य
पाठ 13
अभि+लष्- to wish, चाहना ।
आ+काङ्क्ष्— to desire, चाहना ।
आ+लप् - to talk, to converse with, बातें करना ।
आ+नन्द्— to be glad, प्रसन्न होना ।
परि+अट्- to wander about, घूमना ।
प्र+ शंस्- to praise, प्रशंसा करना ।
वि + लस् to shine, चमकना ।
अप + हृ (
अपहर) – to take away, अपहरण करना।
आ-क्रुश्
(आक्रोश) – to cry out
loudly, to curse, चिल्लाना, कोसना
।
आ + नी
(आनय) – to bring, लाना।
आ+श्रि
(आश्रय ) – to resort to, आश्रय लेना।
अव + बुध्
(अवबोध) – to understand, समझना ।
ली (लय) to melt, to dissolve, पिघलना,
लय होना ।
आ + रुह्
(आरोह) – to ascend, चढ़ना ।
अव + रुह, (अवरोह)
— to descend, उतरना ।
आ + ह्वे
(आह्वय) —to call, बुलाना ।
आ + हृ
(आहर) - to bring, to
fetch, लाना, ले
आना ।
उप + हृ (
उपहर) – to offer, उपहार देना।
प्र + हृ (
प्रहर) – to strike, to
attack, पीटना, प्रहार
करना ।
वि + हृ (
विहर) – to amuse
oneself, to play, मनोरंजन
करना, विहार करना,
खेलना
सम् + हृ
(संहर) – to collect, to
destroy, समेटना, एकत्र
करना, संहार करना ।
परि + हृ
(परिहर) – to avoid, to
remove, बचना, दूर
करना।
वि + अव +
हृ (व्यवहर) – to behave, व्यवहार करना ।
वि + आ +
हृ (व्याहर) – to speak, बोलना ।
उद् + आ + हृ (उदाहर) —to cite as an instance, सोदाहरण निरूपण करना ।
वि + स्मृ (विस्मर) – to forget, भूल जाना ।
अनु + सृ
(अनुसर) – to follow (in
all senses), अनुसरण
करना ।
उप + सृ (उपसर) –
to approach, पास जाना।
अप + सृ -to go away, दूर हटना।
उप + सृ (उपसर) – to approach, पास जाना।
अनु + गम्
(अनुगच्छ) – to follow, पीछे चलना, अनुगमन
करना
अनु + सृ
(अनुसर) – to follow (in
all senses), अनुसरण
करना ।
अनु + स्था
(अनुतिष्ठ) - to perform, संपन्न करना।
अप + गम्
(अपगच्छ) - to go away, हटना दूर चले जाना।
अप + सृ -to go away, दूर हटना।
अप + हृ (
अपहर) – to take away, अपहरण करना।
अभि+लष्- to wish, चाहना ।
अव + गम् (
अवगच्छ) – to understand, समझना।
अव + तृ
(अवतर) - to descend, उतरना ।
अव + बुध्
(अवबोध) – to understand, समझना ।
अव + रुह, (अवरोह)
— to descend, उतरना ।
आ + क्रम् (आक्रम) to attack, हमला करना, आक्रमण करना।
आ + गम्
(आगच्छ ) – to come, आना।
आ + चम्
(आचाम) - to sip, आचमन करना ।
आ + नी
(आनय) – to bring, लाना।
आ + रुह्
(आरोह) – to ascend, चढ़ना ।
आ + हृ
(आहर) - to bring, to
fetch, लाना, ले
आना ।
आ + ह्वे
(आह्वय) —to call, बुलाना ।
आ+काङ्क्ष्— to desire, चाहना ।
आ+नन्द्— to be glad, प्रसन्न होना ।
आ+लप् - to talk, to converse with, बातें करना ।
आ+श्रि
(आश्रय ) – to resort to, आश्रय लेना।
आ-क्रुश् (आक्रोश) – to cry out loudly, to curse, चिल्लाना, कोसना ।
उद् + आ +
हृ (उदाहर) —to cite as an
instance, सोदाहरण निरूपण
करना ।
उद् + तृ
(उत्तर) – to answer, उत्तर देना ।
उद् + स्था
(उत्तिष्ठ) - to stand up, बड़े होना, उठना।
उप + गम्
(उपगच्छ) to go near, पास जाना ।
उप + स्था to stand near, to be present, उपस्थित होना।
उप + हृ ( उपहर) – to offer, उपहार देना।
निर् + गम्
(निर्गच्छ ) – to go out, बाहर जाना ।
आ + नी (नय) – to carry, ले आना।
परि + हृ
(परिहर) – to avoid, to
remove, बचना, दूर
करना।
परि+अट्- to wander about, घूमना ।
प्र + हृ (
प्रहर) – to strike, to
attack, पीटना, प्रहार
करना ।
प्र + शंस्-
to praise, प्रशंसा करना ।
प्रति + गम् (प्रतिगच्छ ) – to return, वापिस जाना।
वि + अव +
हृ (व्यवहर) – to behave, व्यवहार करना ।
वि + आ +
हृ (व्याहर) – to speak, बोलना
वि + तृ, (वितर)
– to give, to distribute, देना,
वितरित करना।
वि + स्मृ
(विस्मर) – to forget, भूल जाना ।
वि + हृ (
विहर) – to amuse
oneself, to play, मनोरंजन
करना, विहार करना,
खेलना
वि+लस् to shine, चमकना ।
सम् + वृ (संवर) to shut, बन्द करना ।
सम् + हृ (संहर) – to collect, to destroy, समेटना, एकत्र करना, संहार करना ।
अधोलिखित धातुओं में उपसर्ग लगाकर वाक्य बनायें।
अर्च - to worship, पूजा करना ।
अर्ज् - to earn, कमाना, अर्जित करना ।
अर्ह् - to deserve, योग्य होना ।
ईर्ष्य् - to be jealous, ईर्ष्या करना ।
क्रुश् (कोश) – to cry, रोना, to call out, पुकारना ।
क्षर्- to flow, बहना ।
क्षि (क्षय) – to decay, क्षीण होना।
खञ्ज -to limp, लंगड़ाना।
खन्— to dig, खोदना।
गद् - to say, कहना।
गम् (गच्छ ) – to go जाना।
गम् (गच्छ) – जाना।
गर्ज् - to roar, गरजना ।
गर्व् - to be proud, गर्व करना ।
गर्ह- to censure, निन्दा करना।
गल् - to drop, टपकना ।
गै (गाय) – to sing, गाना।
ग्लै (ग्लाय) – to fade, to be wearied, मुर्झाना, उदास होना, विषण्ण होना ।
घ्रा (जिघ्र) - to smell, सूंघना।
चर्व- to chew, चबाना।
चुम्ब् - to kiss, चुम्बन करना, चूमना ।
जि (जय ) – to conquer, जीतना।
जृ ( जर) – to grow old, बूढ़ा होना।
ज्वल् - to burn, जलना।
तप् – to shine, चमकना।
तर्ज् -to 1 threaten, धमकाना।
तृ- (तर) – to cross over, (अपसर) - पार करना, तैरना, तरना।
त्रस्–1o fear, डरना।
दंश (दश)- to bite, डसना, डंक मारना।
दह् – to burn, जलाना ।
दा (यच्छ) to give, देना ।
दृ (दर) – to be afraid of, डरना ।
दृश् (पश्य) - to see, देखना ।
द्रु (द्रव) - to melt, पिघलना ।
धृ (धर) – to catch, to seize, to hold, धरना, धारण करना ।
धृष् (घर्ष) – to offend, अपमान करना, धृष्टता करना, नाराज करना ।
ध्मा (धम) - to blow (as pipe, conch), फूँकना, बजाना।
ध्यै (ध्याय) – to meditate upon, ध्यान करना ।
पा (पिब) – to drink, पीना
फल्— to bear fruit, फल आना, to result, फल निकलना।
फुल्ल् -to blossom, विकसित होना, खिलना।
बुक्क् – to bark, भौकना।
बुध् (बोध) – to know, जानना ।
भण्– to speak, कहना।
भष्–to bark, भौकना ।
भू (भव) - to be, होना ।
मन्थ्, मथ्- to churn, मथना।
मुर्च्छ् (मुर्च्छ) to faint, मूर्छित होना ।
म्लै (म्लाय) – to fade, मुर्झाना ।
राज् - to shine, चमकना ।
रिङ्ग् - to crawl, to creep, रेंगना, सरकना।
रुह्, (रोह)– to grow, उगना ।
लग्- to adhere or stick to, सक्त होना, चिपकना
ली (लय) to melt, to dissolve, पिघलना, लय होना ।
लुण्ठ -to plunder, लूटना ।
वप् - to SOW, बीज बोना।
वृष्
(वर्ष) – to rain, बरसना ।
वे (वय) – to weave, बुनना ।
शुच् (शोच)
– to grieve, शोक करना ।
श्रि (श्रय
) – to resort to, आश्रय लेना ।
ष्ठिव् (ष्ठीव) – to spit, थूकना
सृ- (सर) – to go to move, सरकना,
हिलना-जुलना ।
स्खल् -to stumble, लड़खड़ाना।
स्मृ (स्मर) - to remember, स्मरण करना ।
सृ- (सर) – to go to move, सरकना, हिलना-जुलना ।
स्था
(तिष्ठ) – to stay, to
stand, ठहरना, खड़े
होना, रुकना
स्फुट्
(स्फोट ) – to burst open, फूटना, फट
जाना ।
स्मृ
(स्मर) - to remember, स्मरण करना ।
हृ (हर) – to steal, चुराना,
हरना, हरण
करना ।
हृष्
(हर्ष) – to be
delighted, खुश होना।
ह्वे
(ह्वय) to call, बुलाना ।
नोट - 👉 प्र + अचलत् जैसे स्थान पर उपसर्ग के साथ क्रियापद जुड़ने पर दोनों के बीच सन्धि हो जाती है।
प्रेरणार्थक णिच् प्रत्यय
णिच् प्रत्यय का प्रयोग दो अर्थों में होता है।
1. स्वार्थ में (धातु के अपने अर्थ में)
2. प्रेरणा देने के अर्थ में।
मैंने संस्कृत शिक्षण पाठशाला 2 में चुरादि गण
में होने वाले णिच् प्रत्यय के बारे में चर्चा की है। उसका उदाहरण- चोरयति, क्षालयति, प्रेषयति,
कथयति आदि है। इस णिच् प्रत्यय का वही अर्थ है, जो धातु का होता है।
अर्थात् यह स्वार्थ में णिच् प्रत्यय किया गया है। इस णिच् का धातु से अलग कोई भी
अर्थ नही है।
दूरसा णिच् प्रेरणार्थक है। जब कर्ता किसी क्रिया को करने
के लिए अन्य को प्रेरित करता है तब उस क्रिया को प्रेरणार्थक क्रिया कहते है।
प्रेरणार्थक क्रिया का उदाहरण – रामः अध्यापेन बालकं पाठयति। यहाँ राम बालक को
पढ़ाने के लिए अध्यापक को प्रेरित कर रहा है। याद ऱखें- प्रेरणार्थक वाक्यों में दो
कर्ता होते हैं। एक प्रेरणा देने वाला (प्रयोजक), दूसरा क्रिया करने वाला (प्रयोज्य) । जब सकर्मक क्रिया होती
है तब प्रयोज्य में तृतीया विभक्ति होती है और प्रयोजक में प्रथमा विभक्ति जैसे - रामः
अध्यापेन बालकं पाठयति । यहाँ राम प्रेरित कर रहा है अतः यह प्रयोजक है। इसमें
प्रथमा विभक्ति हुई तथा जिसे काम करने के लिए प्रेरणा दी जा रही हो वह प्रयोज्य
होता है। इसमें तृतीया विभक्ति होती है। इसके लिए पाणिनि का एक सूत्र है- तत्प्रयोजको
हेतुश्च - प्रेरणार्थक में धातु के आगे णिच् प्रत्यय का प्रयोग होता है। अधिक
जानकारी के लिए ण्यन्त प्रक्रिया के लिंक पर क्लिक करें।
गम् - गमयति । दम् - दमयति । नम् - नमयति । व्यथ् – व्यथयति
व्यथ्
- व्यथयति । त्वर् - त्वरयति । रम् - रमयति । शम् - शमयति । घट - घटयति
आपने अबतक यह जान चुके हैं कि धातुओं को कुल 10 गणों में विभाजित किया गया है। इन गणों में शप्, श्यन् आदि अलग-अलग विकरण लगते हैं। धातु में ही णिच् प्रत्यय लगते हैं। लेकिन धातु से णिच् प्रत्यय लगने के बाद धातु किसी भी गण का हो, इस ण्यन्त रूप का गण से सम्बन्ध नहीं रहता। जैसे भ्वादिगण के म्ना अभ्यासे से मनति, तुदादि गण के लिख से लिखति, दिवादि गण के भ्रमु अवस्थाने से भ्राम्यति, चुरादिगण के क्षालयति, स्वादिगण के प्राप्नोति में अलग- अलग गण होने के कारण अलग-अलग स्वरूप दिखते हैं परन्तु णिच् प्रत्यय लगने के बाद मानयति, लेखयति, भ्रामयति, क्षालयति, प्रापयति रूपों की सिद्धि के लिए गण की आवश्यकता नहीं रहती। ये सभी धातु णिजन्त धातु हो जाते हैं । इन धातुओं का गण नहीं रह जाता।
णिजन्त शब्दों को समझने के लिए पुनः एक बार क्रियावाची धातु
को समझते हैं। आप धातुओं के बारे में संस्कृत शिक्षण पाठशाला 1 तथा 2 में पढ़ भी चुके
होंगे। पाणिनीयधातुपाठ में पढ़े गये (उपदेश दिये गये) धातुओं को औपदेशिक धातु कहते
हैं। आपको धातुसूत्रगणोनादि...यह कारिका याद होगी। धातु को उपदेश कहा गया अतः ये
औपदेशिक धातु कहे जाते हैं। इन धातुओं की धातु-संज्ञा भूवादयो धातवः सूत्र से होती
है। इसके अतिरिक्त कुछ आतिदेशिक धातुएँ
होती हैं। ये धातु धातुपाठ में नहीं है, अपितु इनका निर्माण किया जाता है। जैसे- पठ् + णिच् →
पाठि + शप् + ति → पाठयति । यहाँ
"पाठि" नवीन धातु बना है। इसीलिए इसका गणों में विभाजन भी नहीं होता। इन
सभी का सनाद्यन्ता धातवः से धातुसंज्ञा होती है।
धातुओं के स्वरूप को देखा जाय तो धातुएँ तीन प्रकार की होती है।
1. जिन धातुओं के अंत में अच् प्रत्याहार के वर्ण हों ऐसे अजन्त धातुएँ।
2. जिन धातुओं के अंत में हल् प्रत्याहार के वर्ण हों ऐसे हलन्त धातुएँ।
3. हलन्त धातुओं में जिनके उपधा में अकारः, लघु इक्-वर्ण (इ, उ, ऋ ) हो।
धातु के अन्तिम वर्ण से पूर्व वर्ण को "उपधा" कहा जाता है।
अजन्त धातुएँ |
हलन्त धातुएँ |
||
|
एजन्त धातु |
उपधा अकार वाली धातु |
उपधा लघु इक् वाली धातु |
भू, नी,
शी, कृ |
ग्लै, म्लै, ध्यै, शो वे, छो |
पठ्, वद्,
नट् |
लिख्, बुध्,
वृध् |
अब हम प्रेरणार्थक
णिच् प्रत्यय के निर्माण के बारे में चर्चा करेंगें।
हेतुमति च सूत्र से प्रयोजक व्यापार में प्रेषण (भेजना) जहाँ कहा जाना हो एसे अर्थ में धातु से णिच् होता है।
णिजन्त धातु प्राय: उभयपदी होते है।
अजन्त धातुओं का उदाहरण -
अचो ञ्णिति से अजन्त धातु के अन्त्य वर्ण की वृद्धि होती
है। जैसे- प्लु + णिच् = प्लौ + इ
प्लौ के औकार को अयादेश होने पर प्लावि बनेगा।
प्लावि को सनाद्यन्ता धातवः से धातु-संज्ञा । लट्, प्रथम पुरुष एकवचन में "ति"
प्रत्यय प्लावि + ति
प्लावि + शप् + ति (कर्तरि शप् से शप्)
प्लावि + शप् + ति ( शप् में शकार पकार का अनुबन्धलोप
(लशक्वतद्धिते, हलन्त्यम्,
तस्य लोपः)
प्लावि + अ + ति (सार्वधातुकार्धधातुकयोः से अन्त्यस्य इक
को गुण ए हुआ)
प्लाव् + अय् + अ + ति ( वर्ण सम्मेलन करने पर प्लावयति यह
रूप बन जाता है।
इसी प्रकार
भू + णिच् → भौ + इ → भाव् + इ → भावि → धातुसंज्ञा, भावि + शप् + ति → भावयति
लू + णिच् → लौ + इ → लाव् + इ → लावि → धातुसंज्ञा, लावि + शप् + ति → लावयति
पू + णिच् → पौ + इ → पाव् + इ → पावि → धातुसंज्ञा, पावि + शप् + ति → पावयति
द्रु + णिच् → द्रौ + इ → द्राव् + इ → द्रावि → धातुसंज्ञा, द्रावि + शप् + ति → द्रावयति
कृ + णिच् → कार् + इ → कारि → धातुसंज्ञा, कारि + शप् + ति →
कारयति
हृ + णिच् → हार् + इ → हारि → धातुसंज्ञा, हारि + शप् + ति →
हारयति
तॄ + णिच् → तार् + इ → तारि → धातुसंज्ञा, तारि + शप् + ति →
तारयति
अभ्यास कार्य-
श्रु + णिच् → श्रौ + इ = श्रावि को
श्रावयति
कृ + णिच् → कार् + इ = कारि से
कारयति
नी + णिच् → नै + इ → नायि → नाययति
बनाकर देखें।
इस प्रकार बमने जाना कि प्लावि, श्रावि, कारि, नायि आदि ण्यन्त
रूप बन जाने के बाद धातु अजन्त हो या हलन्त सभी की सनाद्यन्ता धातवः से धातु
संज्ञा तथा उसके अनन्तर तिप्, शप्, गुण, अयादेश के कार्य एक समान होते होते हैं।
हलन्त धातुओं (उपधा अकार वाली) का उदाहरण-
पठ् + णिच् = पाठि । वद् + णिच् = वादि । नट् + णिच् = नाटि
। चल् + णिच् = चालि । वह् + णिच् = वाहि । पच् + णिच् = पाचि।
विशेष नियम –
णिच् प्रत्यय होने पर 'अमन्त' और 'घटादि'
धातुओ के उपधा अकार की वृध्दि नहीं होती है। जैसे :
गम् + णिच् → गम् + इ → गमि →
धातुसंज्ञा, गमि + शप् + ति → गमयति
दम् + णिच् → दम् + इ → दमि → धातुसंज्ञा,
दमि + शप् + ति → दमयति
व्यथ् – व्यथयति, त्वर् - त्वरयति , रम् - रमयति , शम् -
शमयति , घट - घटयति
ज्चल् - ज्वलयति
हमने देखा कि
णिच् प्रत्यय होने के बाद इस अकार उपधा वाली धातुओं का अकार में परिवर्तन होकर आकर
हो गया है। यहाँ अत उपधायाः से उपधा के
अकार को वृद्धि हो जाती है।
हलन्त धातुओं (उपधा लघु इक् वाली) का उदाहरण-
णिच् प्रत्यय होने से धातु के उपधा लघु स्वर का गुण हो जाता
है। जैसे :
> लिप् + णिच् = लेपि > मुच् + णिच् = मोचि > म्रष् + णिच् = मर्षि >
दुह् + णिच् = दोहि > सिच् + णिच् = सेचि
यहाँ पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से सार्वधातुक आर्धधातुक
प्रत्यये बाद में रहने पर पुगन्त अङ्ग तथा लघु इ, इ,ऋ उपधा में होने पर गुण हो
जाता है।
इस प्रकार हमलोगों ने देखा कि
1.
णिच् प्रत्यय होने के बाद तथा धातु संज्ञा होने के पूर्व धातु के स्वरूप में असमान
परिवर्तन देखने को मिलता है।
2.
णित् प्रत्यय होने के बाद सभी इकारान्त धातु हो जाते हैं।
विशेष नियम-
आ) जिस धातु के अंत में एच् प्रत्याहार के वर्ण हों उसे आकार
हो जाता है। अर्थात् वह आकारान्त धातु बन जाते हैं। इसके लिए आदेच उपदेशेऽशिति सूत्र
है। यह सूत्र उपदेश में एजन्त धातु को आत्व करता है, जहाँ शकार की इत्संज्ञा हुई
हो वहाँ आत्व नहीं करेगा। ध्यातव्य है कि यह सूत्र औपदेशिक धातूओं के एच् को ही आत्व
करेगा। सनाद्यन्त आदि आतिदेशिक धातुओं के एच् को आकार नहीं करेगा। णिच् प्रत्यय
शित् नहीं है, अतः णिच्
प्रकरण में एजन्त धातु आकारान्त धातु के रूप में बदल जाते हैं। यथा—
ग्लै → ग्ला, म्लै → म्ला, ध्यै → ध्या,
शो → शा, सो → सा, वे → वा, छो → छा
जब धातु आकारान्त हो जाता है तब अर्तिह्रीव्लीरीक्नूयीक्ष्माय्यातां
पुङ्णौ से पुक् का आगम हो जाता है।
ग्लै + णिच् → ग्ला + इ → ग्ला + पुक् + इ → ग्ला + प् + इ → ग्लापि → सनाद्यन्ता
धातवः से धातु-संज्ञा → ग्लापि + शप् + ति → ग्लापयति। इसी प्रकार म्लै → म्लापयति, ध्यै → ध्यापयति, गै → गापयति, रै → रापयति, खै → खापयति
कुछ एजन्त तथा आकारान्त धातु से पुक् न होकर च युक् होता है। जैसे-
शो तनूकरणे ( श्यति) → शा + युक् + णिच् → शायि → शाययति
छो छेदने (छ्यति) → छा + युक् + णिच् → छायि → छाययति
षो अन्तकर्मणि ( स्यति) → सा + युक् + णिच् → सायि → साययति
ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च (आह्वयति) → ह्वा + युक् + णिच् → ह्वायि → ह्वाययति
व्येञ् संवरणे (आच्छादयति, व्ययति) → व्या + युक् + णिच् →
व्यायि → व्याययति
वेञ् तन्तुसन्ताने ( वयति) → वा + युक् +
णिच् → वायि → वाययति
पै शोषणे ( पायति) → पा + युक् + णिच् → पायि → पाययति
पा पाने → पा + युक् + णिच् → पायि → पाययति
यहाँ पर आदेच उपदेशेऽशिति से आत्व हुआ है।
पा रक्षणे से लुक्-आगम होता है। पा + लुक् + णिच् → पालि → पालयति
सामान्य
क्रिया धातु
+ णिच् परस्मैपद (प्रेरणार्थंक) आत्मनेपद
ब्रवीति
(बोलता है) ब्रू + णिच् वाचयति (बुलवाता है) वाचयते
वक्ति (बोलता
है) वच् + णिच् वाचयति (बुलवाता है) वाचयते
आस्ते (बैठता
है) आस्+णिच् आसयति
(बिठाता है) आसयते
हन्ति (मारता
है) हन् णिच घातयति (मरवाता है) घातयते
रमते (खेलता
है) रम् + णिच् रमयति (रमाता है) रमयते
भवति (होता
है) भू+णिच् भावयति (बनाता है) भावयते
पिबति (पीता
है) पा+णिच् पाययति (पिलाता है) पाययते
जानाति (जानता
है) ज्ञा + णिच् ज्ञापयति (जनवाता है) ज्ञापयते
प्राप्नोति
(पाता है) प्र-आप् + णिच् प्रापयति (पहुँचाता है) प्रापयते
क्रीणाति
(खरीदता है) क्री+णिच् क्रायति (खरीदवाता है) क्राययते
जायते (पैदा
होता है) जन + णिच् जनयति (पैदा करता है) जनयते
ददाति (देता
है) दा+णिच्
दापयति (दिलवाता है) दापयते
करोति (करता
है) कृ + णिच् कारयति (कराता है) कारयते
गच्छति (जाता
है) गम + णिच् गमयति (भेजता है) गमयते
आपने अबतक पाणिनि द्वारा उपदिष्ट तथा 10 गणों में विभाजित धातुओं के बारे में जानकारी प्राप्त की है। इसकी धातुसंज्ञा भूवादयो धातवः से होती है। इसके साथ ही कुछ आतिदेशिक धातुएँ भी होती है। ये धातुपाठ से अतिरिक्त धातुएँ हैं, जैसे- पठ् + णिच् → पाठि + शप् + ति → पाठयति । यहाँ णिच् प्रत्यय लगाकर "पाठि" नवीन धातु बना है, इनके बारे में भी जानकारी प्राप्त की है। इनकी धातुसंज्ञा सनाद्यन्ता धातवः से होती है। इस प्रकार अबतक आप औपदेशिक तथा आतिदेशिक इन दोनों प्रकार की धातुओं के बारे में सामान्य जानकारी पा चुके हैं। जिसकी धातुसंज्ञा सनाद्यन्ता धातवः से होती है, ऐसे आतिदेशिक धातु पर आगे चर्चा की जा रही है-
नामधातु
नाम अर्थात् संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया में प्रत्यय जोड़ने से जो धातु बनते हैं,
उन्हें नामधातु कहते हैं । जैसे- आत्मनः पुत्रम् इच्छति -
पुत्रीयति (पुत्रीयति आचार्य: अन्तेवासिनम्) । यहाँ पुत्रम् इस नाम के साथ इच्छति क्रिया
को जोड़कर पुत्रीयति क्रिया बनाया गया। अन्य उदाहरण देखे- तपस्यति महात्मा । शब्दं
करोति-शब्दायते । कलहं करोति कलहायते । कविः इव आचरति-कवीयति । इस प्रकार आप अनन्त
धातुओं का निर्माण कर सकते हैं।
यङन्त धातु –
क्रिया के बार-बार होने अथवा अतिशयता दिखाने के लिए कुछ धातुओं में यङ् (त)
प्रत्यय लगाया जाता है। यथा-पुनः पुनः पठ्यते-पापठ्यते । पुनः पुनः भवति - बोभूयते
। पुनः पुनः नृत्यति-नरीनृत्यते आदि ।
सन्नन्त धातु–
'इच्छा' अर्थ में धातु से परे 'सन्' (स) प्रत्यय लगाया जाता है। जैसे कर्तुमिच्छति-चिकीर्षति ।
पठितुम् इच्छति-पिपठिपति । गन्तुम् इच्छति-जिगमिषति |
भवितुम् इच्छति- बुभूषति । श्रोतुम इच्छति शुश्रूषति आदि ।
व्याकरण में इनका नाम उपदेश है-
इस पाठ के आगे अध्ययन करने के लिए संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4 पर क्लिक करें।
कृपया व्यवहार में प्रचलित धातुओं की सूची का लिंक प्रदान करें ।
जवाब देंहटाएंसंस्कृत की महत्वपूर्ण धातुओं के अर्थ, गण तथा रूप का लिंक इस पोस्ट में दिया गया है। लिंक पर क्लिक कर प्रचलित धातुओं की सूची देख लें।
हटाएंबहुत ही सुन्दर प्रयास
जवाब देंहटाएंकृपया तनादि गण की दसों धातु एवं उनके अर्थ बताएँ ।
जवाब देंहटाएंलघुसिद्धान्तकौमुदी के तनादि प्रकरण की धातुओं के बारे में इस जानने के लिए https://sanskritbhasi.blogspot.com/2019/03/blog-post_69.html इस लिंक को लिखकर खोजें। अथवा गूगल पर संस्कृतभाषी तनादि प्रकरण लिखकर खोज लें। मैंने धातुओं तथा उसके अर्थ पर एक लेख भी लिखा है, जिसका लिंक इसी लेख में उपलब्ध है, वहाँ क्लिक करके भी तनादि धातुओं के अर्थ जाने जा सकते हैं।
हटाएंबहुत सुंदर सिम्पल स्पष्ट समझाया है
जवाब देंहटाएंमहोदय कृपया अवश्य और अनन्त धातुओं को बताने का कष्ट करें
जवाब देंहटाएंअवश्य शब्द अदादि गण पर० सक० सेट वशँ स्पृहायाम् धातु से बना है। क्षीरतरंगिणी, धातुप्रदीप, माधवीयधातुवृत्ति में वश् धातु कान्ति अर्थ में है। वश- यत् अथवा वश से भाव में अप्, अथवा कर्त्ता में अच् करके वश्य शब्द बनता है। इसका अर्थ होता है- आयत्तत्व, प्रभुत्व तथा आयत्त। न वश्यः= अनायत्ते १ अनधीने २ दुर्दान्ते ।
हटाएंइसके रूप इस प्रकार हैं-
वष्टि, उष्टः, उशन्ति,
वक्षि, उष्ठः, उष्ठ, वश्मि, उश्वः, ) व्रश्चादिना झलिपदान्ते च षत्वम् ग्रहिज्यादिना क्ङितोः प्रसारणम् (उवाश, ऊशतुः, उवशिथ, उवशिव,) क्ङिति ग्रहिज्यादिना कृते प्रसारणे द्विर्वचनम् अन्यत्र तु कृतेद्विर्वचने "लिट्यभ्यासस्य'' इति प्रसारणम् ( वशिता वशिष्यति वष्टु, उष्टात् उष्टाम्, उड्ढि, वशानि) ( वहेर्धित्वष्टुत्वजश्त्वानि ( अवट्, औष्टाम्, औशन्, अवट्, औष्टम्, औष्ट, अवशम्, औश्व ) क्ङिति प्रसारणे आडागमः अन्यत्र तु हल्ङ्यादिना तिस्योर्लोपः ( उश्यात्, उश्याताम् ) आशिषि ( उश्यास्ताम् अवशीत्, अवाशीत्, ) "अतो हलादेः'' इति वा वृद्धिः ( विवशिषति वावश्यते ) "न वशः'' इति यङि प्रसारणनिषेधः ( वावष्टि, वावष्ट) इत्यादौ श्तिपा निर्देशात् ग्रहिज्यादिना प्रसारणं न भवति (वाशयति अवीवशत् वशित्वा ) "न क्त्वा सेट्'' इत्यकित्त्वम् ( वशा, ) करिण्यादिः पचाद्यचि टाप् ( गोवशा ) "पोटायुवती'' इत्यादिना समासः वन्ध्या गौरित्यर्थः ( वशः ) "वशिरण्योरुपसङ्ख्यानम्'' इति भावेऽप् वशं गतो ( वश्यः ) "वशं गत'' इति द्वितीयान्तात्( 1 ) ( 1 ) द्विर्तायासमुर्थादिति पुस्तकान्तरे पाठः गत इत्यर्थे यत् ( उशिक् ) अग्न्यादिः "वशः किच्च'' इतीजिप्रत्ययः कित्त्वात्प्रसारणम् उशिगेव ( औशिजः ) प्रज्ञादिः ( उशीरम् ) "वशेः कित्'' इतीरन्नौणादिकः ( उशना ) "वशेः कनसिः'' इति कनसिः "ऋदुशनस्पुरुदंसोऽनेहसां च'' इत्यसम्बुद्धौ सावनङादेशः सम्बुद्धावपि पक्षे अनङिष्यते "न ङिसम्बुद्ध्योः'' इति नलोपनिषेधस्य पाक्षिकत्वं च तेन त्रीणि रूपाणि भवन्ति ( उशनः, उशनन्, उशन ) इति तथा चव श्लोकवात्तिकम् "सम्बोधेन तूशनसः त्रिरूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम्' इति
everything explained well.. and understood
जवाब देंहटाएंआपके लेख से संस्कृत व्याकरण एकदम सहजबोध्य हो जाता है।
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