पौरोहित्यम्

    प्रथमा प्रथम वर्ष

1.    सन्ध्योपासनविधि:

2.    पुरुषसूक्तम्

3.    श्रीसूक्तम् / वाक्सूक्तम्

4.    शौचाचार: (नित्यकर्म-पूजाप्रकाश)

5.    श्रीमद्भगवद्गीता 1-6 अध्यायाः

प्रथमा द्वितीय वर्ष

1.    स्वस्तिवाचनम्

2.    विष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् / पृथिवीसूक्तम् (15 मन्त्रा:)

3.    शान्तिसूक्तम् / शान्तिकरणम्

4.    श्रीमद्भगवद्गीता 7-12 अध्यायाः

5.    अथवा

1-    स्वस्तिवाचनम् (शाखानुसारम्)

2-    भोजनसूक्तम् (शाखानुसारम्)

3-    संकल्पसूक्तम्

4-    अप्रतिस्थसूक्तम् (रुद्राष्टाध्याय्याः तृतीयोऽध्यायः)

प्रथमा तृतीय वर्ष

1-    गणपति अथर्वशीर्षम् / स्वराज्यसूक्तम् (ऋग्वेदः)

2-    रुद्राष्टाध्यायी (सम्पूर्णा)

3-    देवयज्ञविधिः

4-    श्रीमद्भगवद्गीता (13-18 अध्यायाः)

अथवा

1-    रुद्राष्टाध्यायी (सम्पूर्णा)

2-    बलिवैश्वदेव

3-    ब्रह्मकर्म

पूर्वमध्यमा प्रथम वर्ष

पंचांगपूजनम् (गौरी-गणेशपूजन विधिः

कलशस्थापनविधिः

पुण्याहवाचनविधिः

षोडशमातृकापूजनविधिः

सप्तघृतमातृकापूजनविधिः

आयुष्मन्त्रपाठविधिः, नान्दी-श्राद्धविधिः

मधुपर्कविधिः

रुद्रसूक्तम् (देवता-ऋषि-छन्द-सहितम्)

पूर्वमध्यमा द्वितीय वर्ष

क)    सर्वतोभद्रपूजनविधिः समन्त्रकः (कारिकासहितः)

ख)     लिंगतोभद्रपूजनविधिः समन्त्रकः (कारिकासहितः)

ग)     पीठपूजनविधिः, यन्त्रपूजनविधिः, अग्न्युतारणविधिः, प्राणप्रतिष्ठाविधिः

घ)      ग्रहस्थापनविधिः

उत्तर मध्यमा प्रथम वर्ष

क)    कुशकण्डिकाप्रयोगविधिः

ख)    विवाहसंस्कारविधिः

ग)     गर्भाधानसंस्कारविधिः

घ)     पुंसवन-सीमन्तोन्नयनसंस्कारविधिः

उत्तर मध्यमा द्वितीय वर्ष

1.    यज्ञप्रायश्चित्तविधि:

2.    यज्ञमण्डपपूजन विधि:

3.    अन्नप्राशन- चौलसंस्कारविधि:

4.    उपनयन-वेदारम्भ-समावर्तनसंस्कारविधि:

5.    पार्वणश्राद्धविधिः 

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व्याकरण महाभाष्य

 व्याकरण महाभाष्य पाणिनिकृत "अष्टाध्यायी" और कात्यायनीय वार्तिकों की व्याख्या है। अतः इसकी सारी योजना "अष्टाध्यायी" पर आधारित है। इसमें कुल 85 आह्निक (अध्याय) है। भर्तृहरि के अनुसार "महाभाष्य" केवल व्याकरण-शास्त्र का ही ग्रंथ न होकर समस्त विद्याओं का आगर है। (वाक्यपदीय, 2-486) । पतंजलि ने समस्त वैदिक व लौकिक प्रयोगों का अनुशीलन करते हुए तथा पूर्ववर्ती सभी व्याकरणों का अध्ययन कर, समग्र व्याकरणिक विषयों का प्रतिपादन किया है। इसमें व्याकरण विषयक कोई भी प्रश्न अछूता नहीं रहा है। इसकी निरूपण-शैली तर्कपूर्ण व सर्वथा मौलिक है। इसकी रचना में पाणिनि-व्याकरण के समस्त रहस्य स्पष्ट हो गए और उसी का पठन-पाठन होने लगा। "अष्टाध्यायी" के 14 प्रत्याहार सूत्र को मिलाकर 3995 सूत्र हैं, किंतु इस महाभाष्य में 1689 सूत्रों पर ही भाष्य लिखा गया है। शेष सूत्रों को उसी रूप ग्रहण कर लिया है। पतंजलि ने अपने कतिपय सूत्रों में वार्तिककार के मत को भ्रांत ठहराते हुए पाणिनि के ही मत को प्रामाणिक माना व 16 सूत्रों को अनावश्यक सिद्ध कर दिया। इन्होंने वार्तिककार कात्यायन के अनेक आक्षेपों का उत्तर देते हुए पाणिनि के प्रति उनकी अतिशय भक्ति व्यक्त की है। उनके अनुसार पाणिनि का एक भी कथन अशुद्ध नहीं है। "महाभाष्य" में संभाषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है तथा विवेचन के मध्य संवादात्मक वाक्यों का समावेश कर विषय को रोचक बनाते हुए पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया है। उसकी व्याख्यानपद्धति के 3 तत्त्व हैं - सूत्र का प्रयोजन निर्देश, पदों का अर्थ करते हुए सूत्रार्थ निश्चित करना और "सूत्र की व्याप्ति बढाकर, सूत्र का नियंत्रण करना" । "महाभाष्य" का उद्देश्य ऐसा अर्थ करना था, जो पाणिनि के अनुकूल या इष्टसाधक हो। अतः जहां कहीं भी सूत्र के द्वारा यह कार्य संपन्न होता न दिखाई पड़ा, वहां पर या तो सूत्र का "योग-विभाग" किया गया है या पूर्व प्रतिषेध को ही स्वीकार कर लिया गया है। उन्होंने केवल दो ही स्थलों पर पाणिनि के दोष दर्शाये हैं। "महावाक्य" में स्थान-स्थान पर सहज, चटुल, तिक्त व कडवी शैली का भी प्रयोग है। व्यंग्यमयी कटाक्षपूर्ण शैली के उदाहरण तो उसमें भरे पडे है। "महाभाष्य" में व्याकरण के मौलिक व महनीय सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसमें लोक-विज्ञान व लोक व्यवहार के आधार पर मौलिक सिद्धांत की स्थापना की गई है, तथा व्याकरण को "दर्शन" का स्वरूप प्रदान किया गया है। इसमें स्फोटवाद की मीमांसा करते हुए शब्द को ब्रह्म का रूप माना गया है। इसके प्रारंभ में ही यह विचार व्यक्त किया गया है कि शब्द उस ध्वनि को कहते हैं, जिसके व्यवहार करने से पदार्थ का ज्ञान हो। लोक में ध्वनि करने वाला बालक "शब्दकारी" कहा जाता है। अतः ध्वनि ही शब्द है। यह ध्वनि स्फोट का दर्शक होती है। शब्द नित्य है, और उस नित्य शब्द का ही अर्थ होता है। नित्य शब्द को ही "स्फोट" कहते हैं। स्फोट की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश होता है। शब्द के दो भेद है- नित्य और कार्य । स्फोट-स्वरूप शब्द नित्य होता है तथा ध्वनिस्वरूप शब्द कार्य। स्फोट-वर्ण नित्य होते हैं, वे उत्पन्न नहीं होते। उनकी अभिव्यक्ति व्यंजक ध्वनि के द्वारा ही होती है। इस ग्रंथ के पठन-पाठन की परंपरा तीन बार खण्डित हुई।

चन्द्रगोमिन् ने प्रथम बार एक पाण्डुलिपि बड़े परिश्रम से प्राप्त कर तथा उसे परिष्कृत कर उस परंपरा की पुनः स्थापना की। दूसरी बार खण्डित परम्परा क्षीरस्वामी ने स्थापित की। तीसरी बार स्वामी विरजानन्द तथा शिष्य दयानन्द स्वामी ने की। वर्तमान प्रति में अनेक प्रक्षेपक हैं, कुछ मूल पाठ भ्रष्ट या लुप्त हो गए हैं। 

महाभाष्य के टीकाकार- "महाभाष्य" की अनेक टीकाएं हुई हैं। अनेक टीकाएं हस्तलेख के रूप में वर्तमान हैं। उपलब्ध टीकाओं में भर्तृहरि की टीका सर्वाधिक प्राचीन है। इसका नाम है "महाभाष्यदीपिका" । ज्येष्ठकलक व मैत्रेयरक्षित की टीकाएं अनुपलब्ध हैं। कैयट, पुरुषोत्तम देव, शेषनारायण, नीलकंठ वाजपेयी, यज्वा व नारायण, विष्णु कृत महाभाष्यप्रकाशिका, नागेश भट्ट कृत महाभाष्यप्रत्याख्यानसंग्रह, कैयट कृत महाभाष्यप्रदीप  की टीकाएं उपलब्ध हैं।

महाभाष्यदीपिका - यह आचार्य भर्तृहरि की महाभाष्य पर विस्तृत तथा प्रौढ व्याख्या है। अनेक ग्रंथों में इसे उद्धृत किया गया है। उन अनेक उद्धरणों से अनुमान होता है कि उन्होंने पूरे महाभाष्य पर दीपिका रची थी। कालान्तर से वह तीन पादों तक शेष रहने से बाद के वैयाकरणों ने केवल तीन पादों की भाष्यरचना का निर्देश किया है। वर्तमान में समूचे एक पाद की भी दीपिका उपलब्ध नहीं है। केवल 5700 श्लोक तथा 434 पृष्ठों का एक हस्तलेख बर्लिन में उपलब्ध होने की सूचना सर्वप्रथम डा. कीलहान ने दी। अभी तक अन्य प्रति अप्राप्त। ईत्सिंग के समय दीपिका में 25000 श्लोक थे, संभवतः मूल दीपिका इससे बहुत अधिक थी। (वर्तमान प्रति का प्रकाशन पुणे तथा काशी में हो रहा है) । महाभाष्यप्रकाशिका - बीकानेर के अनूप - संस्कृत पुस्तकालय में उपलब्ध पाण्डुलिपि में प्रारंभ के दो आह्निकों की टीका उपलब्ध है।

महाभाष्यप्रत्याख्यानसंग्रह - वाराणसी की सारस्वती सुषमा में क्रमशः प्रकाशित। यह पातंजल महाभाष्य की टीका है।

महाभाष्यप्रदीप - भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय तथा प्रकीर्ण काण्ड पर आधारित पातंजल महाभाष्य की प्रौढ तथा पाण्डित्यपूर्ण टीका है। महाभाष्य को समझने के लिये यह एकमात्र सहारा है। यह पाणिनीय संप्रदाय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। प्रस्तुत प्रदीप पर 15 टीकाकारों ने टीकाओं की रचना की है। महाभाष्यप्रदीप टिप्पणी ले. मल्लययज्वा इसकी पाण्डुलिपि उपलब्ध है। लेखक के पुत्र तिरुमल की प्रदीप व्याख्या अप्राप्त है।

महाभाष्यप्रदीप प्रकाशिका (प्रकाश) - ले. प्रवर्तकोपाध्याय मद्रास, अड्यार, मैसूर और त्रिवेन्द्रम में इसकी पाण्डुलिपि विद्यमान है।

महाभाष्यप्रदीप विवरणम् - ले. नारायण मद्रास और - कलकत्ता में अनेक पाण्डुलिपियां उपलब्ध है।

(2) ले. रामचंद्रसरस्वती । महाभाष्यकैयप्रकाश ले. चिन्तामणि । महाभाष्यप्रदीपव्याख्या ले. हरिराम (ऑफ्रेट बृहत्सूची में निर्दिष्ट) ।

(2) ले- रामसेवक । महाभाष्यप्रदीपस्फूर्ति ले. सर्वेश्वर सोमयाजी। अड्यार - ग्रंथालय में पाण्डुलिपि उपलब्ध।

महाभाष्यरत्नाकर - ले. शिवरामेन्द्र सरस्वती। (एक पाण्डुलिपि सरस्वतीभवन काशी में है) ।

महाभाष्यलघुवृत्ति - ले. पुरुषोत्तम देव। ई. 12-13 वीं शती । -

महाभाष्यविवरणम् - ले. नारायण । महाभाष्यस्फूर्ति - ले. सर्वेश्वर दीक्षित।

महाभाष्यप्रदीपोद्योत - ले. नागोजी भट्ट । ई. 18 वीं शती। पिता-शिवभट्ट। माता- सती पातंजल महाभाष्य पर कैयटकृत प्रदीप नामक टीका की यह व्याख्या है।

 महाभाष्यप्रदीपोद्योतनम् - ले. अनंभट्ट। कैयटकृत महाभाष्य प्रदीप की यह व्याख्या है। इस पर वैद्यनाथ पायगुडे (नागोजी के शिष्य) ने छाया नामक टीका लिखी। (2) ले नागनाथ। ई. 16 वीं शती।

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योगवासिष्ठ (अपरनाम- आर्षरामायण, वसिष्ठ महारामायण, और मोक्षोपायसंहिता)

 

इस ग्रंथ के रचयिता के संबंध में मतभेद है। परंपरानुसार आदि कवि वाल्मीकि इसके रचयिता माने जाते हैं परंतु इसमें बौद्धों के विज्ञानवादी, शून्यवादी, माध्यमिक इत्यादि मतों का तथा काश्मीरी शैव, त्रिक, प्रत्यभिज्ञा तथा स्पंद इत्यादि तत्त्वज्ञानों का निर्देश होने के कारण इसके रचयिता उसी (वाल्मीकि) नाम के अन्य कवि माने जाते हैं। योगवासिष्ठ की श्लोकसंख्या 32 हजार है। विद्वानों के मतानुसार महाभारत के समान इसका भी तीन अवस्थाओं में विकास हुआ (1) वसिष्ठकवच, (2) मोक्षोपाय (अथवा वसिष्ठ-रामसंवाद) (3) वसिष्ठरामायण (या बृहद्योगवासिष्ठ) । यह तीसरी पूर्णावस्था ई. 11-12 वीं शती में पूर्ण मानी जाती है। गौड अभिनंद नामक पंडित ने ई. 9 वीं शती में किया हुआ इसका "लघुयोगवसिष्ठ" नामक संक्षेप छह हजार श्लोकों का है। योगवसिष्ठसार नामक दूसरा संक्षेप 225 श्लोकों का है। योगवसिष्ठ ग्रंथ छह प्रकरणों में पूर्ण है। प्रथम प्रकरण का नाम वैराग्य प्रकरण है। इसमें उपनयन संस्कार के बाद प्रभु रामचंद्र अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में अध्ययनार्थ गए। अध्ययन समाप्ति के बाद तीर्थयात्रा से वापस लौटने पर रामचंद्रजी विरक्त हुए। महाराजा दशरथ की सभा में वे कहते हैं।

किं श्रिया, किं च राज्येन किं कायेन, किमीहया

दिनैः कतिपयैरेव कालः सर्वं निकृन्तति ।।

अर्थात् वैभव, राज्य, देह और आकांक्षा का क्या उपयोग है। कुछ ही दिनों में काल इन सब का नाश करने वाला है। अपनी मनोव्यथा का निवारण करने की प्रार्थना उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ और विश्वामित्र को की। दूसरे मुमुक्षुव्यवहार प्रकरण में विश्वामित्र की सूचना के अनुसार वसिष्ठ ऋषि ने उपदेश दिया है। 3-4 और 5 वें प्रकरणों में संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय की उपपत्ति वर्णन की है। इन प्रकरणों में अनेक दृष्टान्तात्मक आख्यान और उपाख्यान निवेदन किये हैं। छठे प्रकरण का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजन किया है। इसमें संसारचक्र में फंसे हुए जीवात्मा को निर्वाण अर्थात् निरतिशय आनंद की प्राप्ति का उपाय निवेदन किया है। इस महान् ग्रंथ में विषयों एवं विचारों की पुनरुक्ति के कारण रोचकता कम हुई है। परंतु अध्यात्मज्ञान सुबोध, तथा काव्यात्मक शैली में सर्वत्र प्रतिपादन किया है।

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