व्याकरण महाभाष्य पाणिनिकृत "अष्टाध्यायी" और कात्यायनीय वार्तिकों की व्याख्या है। अतः इसकी सारी योजना "अष्टाध्यायी" पर आधारित है। इसमें कुल 85 आह्निक (अध्याय) है। भर्तृहरि के अनुसार "महाभाष्य" केवल व्याकरण-शास्त्र का ही ग्रंथ न होकर समस्त विद्याओं का आगर है। (वाक्यपदीय, 2-486) । पतंजलि ने समस्त वैदिक व लौकिक प्रयोगों का अनुशीलन करते हुए तथा पूर्ववर्ती सभी व्याकरणों का अध्ययन कर, समग्र व्याकरणिक विषयों का प्रतिपादन किया है। इसमें व्याकरण विषयक कोई भी प्रश्न अछूता नहीं रहा है। इसकी निरूपण-शैली तर्कपूर्ण व सर्वथा मौलिक है। इसकी रचना में पाणिनि-व्याकरण के समस्त रहस्य स्पष्ट हो गए और उसी का पठन-पाठन होने लगा। "अष्टाध्यायी" के 14 प्रत्याहार सूत्र को मिलाकर 3995 सूत्र हैं, किंतु इस महाभाष्य में 1689 सूत्रों पर ही भाष्य लिखा गया है। शेष सूत्रों को उसी रूप ग्रहण कर लिया है। पतंजलि ने अपने कतिपय सूत्रों में वार्तिककार के मत को भ्रांत ठहराते हुए पाणिनि के ही मत को प्रामाणिक माना व 16 सूत्रों को अनावश्यक सिद्ध कर दिया। इन्होंने वार्तिककार कात्यायन के अनेक आक्षेपों का उत्तर देते हुए पाणिनि के प्रति उनकी अतिशय भक्ति व्यक्त की है। उनके अनुसार पाणिनि का एक भी कथन अशुद्ध नहीं है। "महाभाष्य" में संभाषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है तथा विवेचन के मध्य संवादात्मक वाक्यों का समावेश कर विषय को रोचक बनाते हुए पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया है। उसकी व्याख्यानपद्धति के 3 तत्त्व हैं - सूत्र का प्रयोजन निर्देश, पदों का अर्थ करते हुए सूत्रार्थ निश्चित करना और "सूत्र की व्याप्ति बढाकर, सूत्र का नियंत्रण करना" । "महाभाष्य" का उद्देश्य ऐसा अर्थ करना था, जो पाणिनि के अनुकूल या इष्टसाधक हो। अतः जहां कहीं भी सूत्र के द्वारा यह कार्य संपन्न होता न दिखाई पड़ा, वहां पर या तो सूत्र का "योग-विभाग" किया गया है या पूर्व प्रतिषेध को ही स्वीकार कर लिया गया है। उन्होंने केवल दो ही स्थलों पर पाणिनि के दोष दर्शाये हैं। "महावाक्य" में स्थान-स्थान पर सहज, चटुल, तिक्त व कडवी शैली का भी प्रयोग है। व्यंग्यमयी कटाक्षपूर्ण शैली के उदाहरण तो उसमें भरे पडे है। "महाभाष्य" में व्याकरण के मौलिक व महनीय सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसमें लोक-विज्ञान व लोक व्यवहार के आधार पर मौलिक सिद्धांत की स्थापना की गई है, तथा व्याकरण को "दर्शन" का स्वरूप प्रदान किया गया है। इसमें स्फोटवाद की मीमांसा करते हुए शब्द को ब्रह्म का रूप माना गया है। इसके प्रारंभ में ही यह विचार व्यक्त किया गया है कि शब्द उस ध्वनि को कहते हैं, जिसके व्यवहार करने से पदार्थ का ज्ञान हो। लोक में ध्वनि करने वाला बालक "शब्दकारी" कहा जाता है। अतः ध्वनि ही शब्द है। यह ध्वनि स्फोट का दर्शक होती है। शब्द नित्य है, और उस नित्य शब्द का ही अर्थ होता है। नित्य शब्द को ही "स्फोट" कहते हैं। स्फोट की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश होता है। शब्द के दो भेद है- नित्य और कार्य । स्फोट-स्वरूप शब्द नित्य होता है तथा ध्वनिस्वरूप शब्द कार्य। स्फोट-वर्ण नित्य होते हैं, वे उत्पन्न नहीं होते। उनकी अभिव्यक्ति व्यंजक ध्वनि के द्वारा ही होती है। इस ग्रंथ के पठन-पाठन की परंपरा तीन बार खण्डित हुई।
चन्द्रगोमिन् ने प्रथम बार एक पाण्डुलिपि बड़े परिश्रम से प्राप्त कर तथा उसे परिष्कृत कर उस परंपरा की पुनः स्थापना की। दूसरी बार खण्डित परम्परा क्षीरस्वामी ने स्थापित की। तीसरी बार स्वामी विरजानन्द तथा शिष्य दयानन्द स्वामी ने की। वर्तमान प्रति में अनेक प्रक्षेपक हैं, कुछ मूल पाठ भ्रष्ट या लुप्त हो गए हैं।
महाभाष्य के टीकाकार- "महाभाष्य" की अनेक टीकाएं हुई हैं।
अनेक टीकाएं हस्तलेख के रूप में वर्तमान हैं। उपलब्ध टीकाओं में भर्तृहरि की टीका
सर्वाधिक प्राचीन है। इसका नाम है "महाभाष्यदीपिका" । ज्येष्ठकलक व
मैत्रेयरक्षित की टीकाएं अनुपलब्ध हैं। कैयट, पुरुषोत्तम देव, शेषनारायण, नीलकंठ
वाजपेयी, यज्वा व नारायण, विष्णु कृत महाभाष्यप्रकाशिका, नागेश भट्ट कृत महाभाष्यप्रत्याख्यानसंग्रह,
कैयट कृत महाभाष्यप्रदीप की टीकाएं उपलब्ध
हैं।
महाभाष्यदीपिका
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यह आचार्य भर्तृहरि की महाभाष्य पर विस्तृत तथा प्रौढ व्याख्या है।
अनेक ग्रंथों में इसे उद्धृत किया गया है। उन अनेक उद्धरणों से अनुमान होता है कि
उन्होंने पूरे महाभाष्य पर दीपिका रची थी। कालान्तर से वह तीन पादों तक शेष रहने
से बाद के वैयाकरणों ने केवल तीन पादों की भाष्यरचना का निर्देश किया है। वर्तमान
में समूचे एक पाद की भी दीपिका उपलब्ध नहीं है। केवल 5700 श्लोक तथा 434 पृष्ठों
का एक हस्तलेख बर्लिन में उपलब्ध होने की सूचना सर्वप्रथम डा. कीलहान ने दी। अभी
तक अन्य प्रति अप्राप्त। ईत्सिंग के समय दीपिका में 25000 श्लोक थे, संभवतः मूल दीपिका इससे बहुत अधिक थी। (वर्तमान प्रति का प्रकाशन पुणे तथा
काशी में हो रहा है) । महाभाष्यप्रकाशिका - बीकानेर के अनूप - संस्कृत
पुस्तकालय में उपलब्ध पाण्डुलिपि में प्रारंभ के दो आह्निकों की टीका उपलब्ध है।
महाभाष्यप्रत्याख्यानसंग्रह -
वाराणसी की सारस्वती सुषमा में क्रमशः प्रकाशित। यह पातंजल महाभाष्य की टीका है।
महाभाष्यप्रदीप -
भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय तथा प्रकीर्ण काण्ड पर आधारित पातंजल महाभाष्य की प्रौढ तथा
पाण्डित्यपूर्ण टीका है। महाभाष्य को समझने के लिये यह एकमात्र सहारा है। यह
पाणिनीय संप्रदाय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। प्रस्तुत प्रदीप पर 15 टीकाकारों ने
टीकाओं की रचना की है। महाभाष्यप्रदीप टिप्पणी ले. मल्लययज्वा इसकी पाण्डुलिपि
उपलब्ध है। लेखक के पुत्र तिरुमल की प्रदीप व्याख्या अप्राप्त है।
महाभाष्यप्रदीप प्रकाशिका (प्रकाश)
- ले. प्रवर्तकोपाध्याय मद्रास, अड्यार,
मैसूर और त्रिवेन्द्रम में इसकी पाण्डुलिपि विद्यमान है।
महाभाष्यप्रदीप विवरणम्
- ले. नारायण मद्रास और - कलकत्ता में अनेक पाण्डुलिपियां उपलब्ध है।
(2) ले. रामचंद्रसरस्वती ।
महाभाष्यकैयप्रकाश ले. चिन्तामणि । महाभाष्यप्रदीपव्याख्या ले. हरिराम (ऑफ्रेट
बृहत्सूची में निर्दिष्ट) ।
(2) ले- रामसेवक
। महाभाष्यप्रदीपस्फूर्ति ले. सर्वेश्वर सोमयाजी। अड्यार - ग्रंथालय में
पाण्डुलिपि उपलब्ध।
महाभाष्यरत्नाकर -
ले. शिवरामेन्द्र सरस्वती। (एक पाण्डुलिपि सरस्वतीभवन काशी में है) ।
महाभाष्यलघुवृत्ति -
ले. पुरुषोत्तम देव। ई. 12-13 वीं शती । -
महाभाष्यविवरणम् -
ले. नारायण । महाभाष्यस्फूर्ति - ले. सर्वेश्वर दीक्षित।
महाभाष्यप्रदीपोद्योत -
ले. नागोजी भट्ट । ई. 18 वीं शती। पिता-शिवभट्ट। माता- सती पातंजल महाभाष्य पर
कैयटकृत प्रदीप नामक टीका की यह व्याख्या है।
महाभाष्यप्रदीपोद्योतनम् - ले. अनंभट्ट।
कैयटकृत महाभाष्य प्रदीप की यह व्याख्या है। इस पर वैद्यनाथ पायगुडे (नागोजी के
शिष्य) ने छाया नामक टीका लिखी। (2) ले नागनाथ। ई. 16 वीं शती।
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंमहाभाष्य किं लक्षणं का उत्तर
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