16 वर्ष की अवस्था में पहली बार मैं योग से परिचित हुआ। तब मैं हुलासगंज में पढ़ता था। स्कूल की कक्षा के बाद नित्य शाम को फल्गू की सहायक नदी के सूनसान जगह पर जाकर व्यायाम करता था। हुलासगंज के आश्रम परिसर में ही एक दातव्य आयुर्वैदिक औषधालय था। वहाँ का एक कर्मचारी मुझे योग की पुस्तक देते हुए कहा था, इसमें अनेक सचित्र योगासन दिये गये हैं। इसे पढ़कर योगासन कीजिये। उस पुस्तक में 80-85 योगासनों को करने की विधि एवं उससे लाभ का वर्णन था। हलासन, कुक्कुटासन, उत्तान पादासन, शवसन, शीर्षासन, धनुरासन आदि-आदि। किस आसन के बाद कौन आसन करना है, यह भी स्पष्ट उल्लेख था। प्राणायाम तो मैं नित्य प्रातः सन्ध्या वन्दन के समय करता ही था। अब प्रत्येक शाम को उन आसनों को करने का अभ्यास शुरू किया। सभी आसनों में मेरा प्रिय आसन था शीर्षासन क्योंकि इससे बुद्धि तेज होती हैं। एकाग्रता आती हैं। शीर्षासन करने के बाद शवासन।
मैं धीरे-धीरे बखूबी शीर्षासन,मयूरासन आदि करने की विधि सीख लिया। जब तक मैं मयूरासन और कुक्कुटासन करता रहा पेट सम्बन्धी समस्या कभी नहीं हुई। सांयकालीन यह योगासन तब तक चलता रहा जब तक मैं हुलासगंज में रहा। बाद में मैं वाराणसी आ गया। योग छुट गया। कभी-कभी शीर्षासन कर लेता था। यहां ओशो साहित्य से परिचय हुआ। योग के दार्शनिक पक्ष को समझने-बूझने का पहला मौका था। अब तक मैं बस योग के बारे में इतना ही जान समझ पाया कि इसके प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। एक श्लोक जो बताता है कि चित्त को स्वस्थ रखने के लिये जिन्होंने योग शास्त्र की रचना की ऐसे पतंजलि को प्रणाम।
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां
मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योsपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां
पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोsस्मि।
बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड की मध्यमा कक्षा में एक आयुर्वेद विषयक पुस्तक मेरे पाठ्यक्रम में था। ‘‘स्वस्थवृत्तम्’’ इसमें स्वस्थ की परिभाषा दी गयी थी। जिसका तन और मन स्वस्थ हो उसे स्वस्थ कहते हैं। तन का स्वास्थ्य तो समझ में आता था पर मानसिक स्वास्थ्य के बारे में उलझन थी। दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार- विहार आदि विषयों पर आयुर्वेद सम्मत विषयों का इसमें प्रतिपादन किया गया था। अब जाकर समझ पाया हूँ मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में योग का कितना बड़ा योगदान है। अब समझ पाया हूँ योग के उन रहस्यों को। आजकल योग की अनेक शाखाएँ, प्रशाखाएँ मिल जायेगी। ध्यान योग, क्रिया योग, हठ योग, भावातीत ध्यान,इस्सयोग, संहिता ग्रन्थों में वर्णित योग आदि।
चित्त की चंचलता को दूर कर मोक्ष प्राप्ति ही योग का परम लक्ष्य है। योग का अर्थ है जुडना। ब्रह्म सायुज्य प्राप्त करना। समस्त भारतीय ज्ञान शाखाओं का चरम लक्ष्य है जीव को ब्रह्म के स्वरूप का बोध कराना। उनसे जोडना। हठयोग में चित्त की एकाग्रता के लिए अनेक उपाय बताये गये हैं। आचार्य शंकर ने योग तारावली में,गोरखनाथ के कृपापात्र स्वात्माराम योगीन्द्र ने हठयोग प्रदीपिका में योग शास्त्र का वर्णन किया है।
हठविद्यां हि मत्स्येन्द्रगोरक्षाद्या विजानते ।
स्वात्मारामोऽथवा योगी जानीते तत्प्रसादतः ॥ हठयोग प्रदीपिका, उपदेश 1 श्लोक 4
योग के आदि उपदेष्टा शिव हैं।
काशी में हरिद्वार के एक योगी से पहली बार मुलाकात हुई। पंजाब की यात्रा में हम साथ-साथ थे। हम उनसे कुछ सीख नहीं सके। हाँ, उनका आहार-विहार अत्यन्त पवित्र था। दूध में चीनी की मात्रा हो या भोजन की मात्रा सब कुछ नियत और नपा तुला। योग में आहार का अत्यधिक महत्व है-
अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः ।
जनसङ्गश्च लौल्यं च षड्भिर्योगो विनश्यति ॥ ह. प्र., उप.1 श्लोक 15
भूख से अधिक भोजन,बहुत अधिक बोलना,प्रातः शीतल जल से स्नान जैसे नियम, अधिक लोगों के साथ रहना,चपलता इनसे योग नष्ट होता है।
वाराणसी में एक और योगी से परिचय हुआ। व्याकरण की कक्षा में वे भी पढ़ने आया करते थे। बहुत दूर से। चार पाँच घंटे इकठ्ठे पढ़ लिया करते थे, फिर सप्ताह भर की छुट्टी। लोग उन्हें ऊँट बाबा कहते थे। उनमें गजब की धारणा शक्ति थी। उन्होंने बताया कि वे नेति धौती क्रिया करना जानते हैं। नाक के छिद्र के रास्ते पानी लेकर मुंह से निकालते हैं, नाक में सूती वस्त्र डालकर मुंह से निकालते हैं। गुनगुने पानी मे भिंगोकर लम्बा सूती वस्त्र धीरे-धीरे निगल लेते हैं। इस प्रकार वे अपने उदर की सफाई करते हैं। एक बार मैं उनसे मिलने उनके आश्रम तक गया था। दुबले पतले कद काठी के थे। मेरी अबतक धारणा थी कि योगी पहलवानों की तरह मोटे तगड़े होते होंगे, परन्तु अबतक जिन-जिन योगियों से मेरी मुलाकात हो चुकी थी और वे सभी संत परम्परा से थे और दुबले पतले कद काठी के थे। गृहस्थों में योग का चलन नहीं के बराबर था। तंत्र आदि की तरह ही इसे गुह्य विद्या मानी गयी । ग्रन्थों में अपात्रों को देने का निषेध वर्णित है। दुःख की बात यह है कि मैं किन्हीं से कुछ सीख नहीं सका। योग को समग्र रूप से जान-समझ नहीं सका।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ते समय एक गृहस्थ योगी वहाँ आये। वे मुंगेर जिले से योग की शिक्षा पाये थे। उन्होंने तमाम प्रकार के आसनों का प्रदर्शन कर बताया कि किस आसन को करने से क्या-क्या फायदे हैं। काशी के राजघाट पर एक संस्था है सर्व सेवा संघ। वहां पर आयोजित एक आवासीय शिविर में भाग लेने का मुझे सुअवसर मिला। वहाँ नित्य प्रातः योगासन सिखाया जाता था। शायद सिखाने वाले अमरनाथ भाई थे। योगासन के बाद हमलोग सामूहिक प्रार्थना करते थे- हे ज्योतिर्मय आओ।
बचपन की अच्छी शुरूआत लखनऊ आते आते कमजोर पडने लगी। लखनऊ में एक बार डा0 रवि शंकर बाजपेयी जी ने सूर्य नमस्कार करने की विधि बतायी। योग में विधि निषेध भी हैं। कौन आसन किसे करना चाहिए किसे नहीं।उस समय मैं कमर दर्द से पीडि़त था अतः उस अवस्था में यह आसन करना मेरे लिए हानिकारक था। धीरे-धीरे मुझमें योग को सीखने और अपनाने की लालसा शायद खत्म हो चुकी थी या मैं शारीरिक रूप से अक्षम था अतः यह आसन नहीं किया।
योग और योगियों से मैं दूर होता गया। योग के प्रायोगिक पक्ष के स्थान पर दार्शनिक पक्ष प्रबल होता गया। लखनऊ में रहते हुए मैंने पातंजलयोगदर्शन का अध्ययन किया। इसके रहस्य को जाना। इसके क्रमिक सोपान को जाना। योग का एक सुनिश्चित क्रम है। यम नियम पालन के पश्चात् 1-आसन 2-प्राणायाम 3- कुंडलिनी 4- मुद्रा और समाधि। भारत में ज्ञान प्राप्त किये योगियों के बारे में परिचय प्राप्त किया।
मैंने जाना कि अष्टांग योग क्या है, जिसकी चर्चा हम अपने अगले आलेख अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस में करेंगें। धौति(वमन, दंड, वस्त्र), बस्ति, नेति(जल, सूत्र)त्राटक, नौलिक, कपालभाति क्रिया पर चर्चा करेंगें।
धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा ।
कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते ॥ ह. प्र., उपदेश 2 श्लोक 22
योग बौद्धिक नहीं व्यावहारिक सत्य है, जिससे मैं पास होकर भी दूर हूँ।
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