संस्कृत के क्षेत्र में रोजगार

   संस्कृत के क्षेत्र में रोजगार के पारम्परिक तथा आधुनिक अवसर- सम्भावनाऍ और नई दिशाऍ

            संस्कृत के क्षेत्र में पारम्परिक एवं आधुनिक दोनों ही दृष्टियों से रोजगार की सम्भावानाऍ उपलब्ध है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैजहाँ के लिए संस्कृत की औपचारिक डिग्री का होना अनिवार्य है। जबकि कुछ अन्य क्षेत्र ऐसे है जहाँ पर संस्कृत न जानने वालों की तुलना में संस्कृत जानने वाले व्यक्ति को उकृष्टता प्रदान करती है।  मानविकी के विषयों के सन्दर्भ में, संगठित एवं सरकारी क्षेत्र में संस्कृत अन्य किसी भी विषय की तुलना में रोजगार की अधिक सम्भावनाऍ उपलब्ध कराती है। हिन्दीप्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिभाषा विज्ञानदर्शन, धार्मिक पर्यटन आदि क्षेत्र विशेषज्ञता के लिए संस्कृत की अपेक्षा रखते है।

संस्कृत के रोजगार के क्षेत्रों में योगआयुर्वेदपौरोहित्यज्योतिषआर्कियोलॉजीपाण्डुलिपि विज्ञानप्राचीन इतिहास एवं संस्कृति, प्रकाशन एवं अनुवादमशीनी ट्रान्सलेशनकम्पूटेशनल लिंग्वस्टीक्सकम्प्यूटर अनुप्रयोग सम्बन्धी कनेक्टिव और बिहेवीयर साईन्सेजइत्यादि क्षेत्रों में संस्कृत अध्येताओं के लिए साक्षात् अवसर है।

इसके अलावा इतिहासहिन्दीविधि शास्त्रभाषा  विज्ञानदर्शनआयुर्वेदिक फॉर्मेसीमनोविज्ञानकम्प्यूटर सांइस  आदि क्षेत्रों में संस्कृत के ज्ञान व सहयोग से उत्कृष्टता प्राप्त की जा सकती है। विश्व में भारत का महत्व दो रूपों में है। एक गुरू के रूप में और दूसरा सस्ता श्रम उपलब्ध करवाने वाले देश के रूप में । निश्चय ही गुरू के रूप में भारत की प्रतिष्ठा का आधार संस्कृत भाषा एवं भारतीय विद्यायें है।   संस्कृत के क्षेत्र में अनन्त सम्भावनाऐं हैं। योग्यता होने पर संस्कृत के माध्यम से कोई भी उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है।-

 ''एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ ,आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख ।''    
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वा न वा

यस्य रागादिना नो मनो दूषितं ,

         तेन काशी-अयोध्या गता वा न वा।

     येन माता-पिता सेवया पूजितौ,

         मन्दिरे तेन पूजा कृता वा न वा॥

दीन-हीना अनाथा अशक्ता जना

ये पिपासा क्षुधा-व्याधिभिः पीडिताः।

अन्न-पानौषधैस्तर्पितास्ते यदि

यज्ञ-दानादयोऽनुष्ठिता वा न वा॥ यस्य ..॥

भूतले केवलं नाम एकं मनो

मानवानां महावैरि दुर्निग्रहम्।

येन वीरेण एतन्मनो निर्जितं

वैरिणस्तेन अन्ये जिता वा न वा॥ यस्य ..॥

 

लेखक- पं. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री
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विवाहदिनमिदं भवतु हर्षदम्

विवाहदिनमिदं भवतु हर्षदम्। 

मंगलं तथा वां च क्षेमदम्।।

प्रतिदिनं नवं प्रेम वर्धताम्।

शतगुणं कुलं सदा हि मोदताम्।।

लोकसेवया देवपूजनम्।

गृहस्थजीवनं भवतु मोक्षदम्।।

    लेखक- स्वामी तेजोमयानन्द


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सर्वेषां नो जननी

 सर्वेषां नो जननी

भारतधरणी कल्पलतेयं

जननी-वत्सल-तनय-गणैस्तत्

सम्यक् शर्म विधेयम् ॥ ध्रु॥

 

हिमगिरि-सीमन्तित-मस्तकमिदं

अम्बुधि-परिगत-पार्श्वं

अस्मज्जन्मदमन्नदमनिशं

श्रौतपुरातनमार्षम् ॥ १॥

 

विजनितहर्षं भारतवर्षं

विश्वोत्कर्षनिदानं

भारतशर्मणि कृतमस्माभिः

नवमिदमैक्यविधानम् ॥ २॥

 

भारतहितसम्पादनमेव हि

कार्यं त्विष्टविपाकं

भारतवर्जं न किमपि कार्यं

निश्चितमित्यस्माकम् ॥ ३॥

 

भारतमेका गतिरस्माकं

नापरास्ति भुवि नाम ।

सर्वादौ हृदयेन च मनसा

भारतमेव नमाम ॥ ४॥

 

       लेखक- राधानाथराय
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स्वागतं शुभवन्दनम्

 प्रणतिभावैर्व्याहरामः स्वागतं शुभवन्दनम् ।

शब्दपुष्पैराचरामः श्रीमतामभिनन्दनम् ॥ ध्रुवपदम्॥

 

भवन्तो निरतः सदा सुरभारती समुपासने ।

अमृतकामारतावाङ्मय-पयः सागरमन्थने ।

दर्शनं भवताङ्किमपि पुण्योदयस्य निदर्शनम् ॥1॥

 

अतिथि देवा वयं हृदयं सभाजनपात्रं विधाय ।

प्रीतिकुङ्कुममक्षतैर्भावैः समं तस्मिन्निधाय ।

नयनदीपैर्वयं कुर्मो मति मतां नीराजनम् ॥2॥

 

यथाज्योतिष्मती जाता निशा शशिना शोभते ।

भवद्भिर्विहिता तथा धन्यासभेयं मोदते ।

उपकृता कुरुते सतां भवतां हि गुणगणकीर्तनम् ॥3॥
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कालिदासो जने जने

 कालिदासो जने जने

कण्ठे कण्ठे संस्कृतम्

ग्रामे ग्रामे नगरे नगरे

गेहे गेहे संस्कृतम् ॥

 

मुनिजनवाणी कविजनवाणी

प्रियजनवाणी संस्कृतम् ॥

सरला भाषा मधुरा भाषा

दिव्या भाषा संस्कृतम् ॥

 

मुनिजनवाञ्छा कविजनवाञ्छा

बुधजनवाञ्छा संस्कृतम् ॥

गमनागमने कार्यक्षेत्रे

वार्तालापे संस्कृतम् ॥

 

जने जने रामायणचरितम्

प्रियजनभाषा संस्कृतम् ॥

स्थाने स्थाने भारतदेशे

सदने सदने संस्कृतम् ॥

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चटक चटक रे चटक

 चटक, चटक, रे चटक

चिँव्, चिँव् कूजसि त्वं विहग।।ध्रु।।

 

नीडे निवससि सुखेन डयसे

खादसि फलानि मधुराणि ।

विहरसि विमले विपुले गगने

नास्ति जनः खलु वारयिता।।1।।

 

मातापिरौ इह मम न स्तः

एकाकी खलु खिन्नोऽहम् ।

एहि समीपं चिँव् चिँव् मित्र

ददामि तुभ्यं बहुधान्यम्।।2।।

 

चणकं स्वीकुरु पिब रे नीरं

त्वं पुनरपि रट चिँव् चिँव् चिँव् ।

तोषय मां कुरु मधुरालापं

पाठय मामपि तव भाषाम्।।3।।

    लेखकः- विश्वासः 
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हस्ती हस्ती हस्ती

 हस्ती हस्ती हस्ती

दिव्या दैवी सृष्टिः !

कदलीसदृशी शुण्डा

स्तम्भसमानाः पादाः ।

शूर्पाकारौ कर्णौ

धवलौ दीपौ दन्तौ ॥

 

उदरं भाण्डाकारम्

उन्नतबृहच्छरीरम् ।

अल्पं तुच्छं पुच्छम्

अहो अहो विचित्रम् ॥

 

पर्वतसदृशे गात्रे

सर्षप-सन्निभ-नेत्रे ।

कथमतिबलवान् एषः

कुशमात्राद् भीतः ॥

   लेखक- जनार्दन हेगडे
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मेघो वर्षति

 मेघो वर्षति

प्रवहति नीरम् ।

तुष्यति कृषिकः

गच्छति गोष्ठम् ॥

 

नयति च वृषभं

हलमपि वहति ।

कर्षति क्षेत्रं

वपति च बीजम् ।।

 

रोहति सस्यं

फलति प्रकामम् ।

भवति समृद्धिः

मनुकुलवृद्धिः ॥

  लेखक- जि . महाबलेश्वरभट्ट
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जन्मदिनमिदम् अयि प्रिय सखे

 जन्मदिनमिदम् अयि प्रिय सखे

शन्तनोतु ते सर्वदा मुदम् ।।

 

प्रार्थयामहे भव शतायुशी

ईश्वरस्सदा त्वां च रक्षतु ।।

 

पुण्य-कर्मणा कीर्तिमार्जय

जीवनं तव भवतु सार्थकम्

    लेखक- स्वामी तेजोमयानन्द
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तेन किम्

दीने न चेद् दयालुता हृदयेन तेन किम् ?

मधुरं न यस्य भाषितं वदनेन तेन किम् ?

विहिता न भक्तिरीश्वरे न च साधु-सङ्गतिः

भूभार-तुल्य-मूर्तिना मनुजेन तेन किम् ?

वचनोपदेश-पालनैर् विनयेन सेवया

पितरौ न येन तोषितौ तनयेन तेन किम् ?

गृहमागतस्य दुःखिनो नितरां बुभुक्षया

उदरो न जातु पूरितो धनिकेन तेन किम्?

निगमाऽगमानधीत्य तथा नाऽचरेद् यदि

अपरोपदेश-दायिना विबुधेन तेन किम् ?

कटुता न चेत् समुज्झिता जातो न 'विनीतः"

जड-जीवनोपयोगिना पठितेन तेन किम् ?

आचार्य वासुदेव द्विवेदी शास्त्री

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एहि एहि चन्दिर !

 एहि एहि चन्दिर !

श्वेतकिरण ! सुन्दर ! ध्रुव

नीलगगनमन्दिर ! 

सकलजनमनोहर !


तारकेश ! गिरिगुहासु

किरणजालमातनु

वितर सस्य-तरु-लतासु

किरणजालमातनु

वितर सस्य-तरु-लालसु

रसविशेषमादरात् ॥


मातरः प्रदर्शनेन

नन्दयन्ति बालकान् ।

पक्षिणश्च तव करेण

तोषयन्ति शावकान् ।।

    लेखक- गु . गणपय्यहोळळ
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एहि सुधीर ! एहि सुविक्रम !

 एहि सुधीर ! एहि सुविक्रम !

खेलनाङ्गणं गच्छाम।

धावन-कूर्दन-चलनैः खेलैः

वज्रकायतां विन्दाम।।

 

एहि सुशीले ! एहि मृणालिनि !

पुष्पवाटिकां गच्छाम ।

विविधैः कुसुमैर्विधाय मालां

विघ्नविनाशकमर्चाम ।

 

एहि दिनेश ! प्रणव ! गणेश !

ज्ञाननिधिं सञ्चिनुयाम।

एहि शारदे ! गिरिजे ! वरदे

ज्ञानवारिधौ विहराम।।

 

तन्वा मनसा हितं चरन्तः

सदा गुरून् अनुगच्छाम।

भारतमातुः सेवासत्कारः

देशहितार्थं जीवाम।।

   लेखक- जनार्दन हेगडे
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विस्तीर्ण-प्रतीरे

विस्तीर्णप्रतीरे

असङ्ख्यनृकृते

हाहाःकारेऽपि, निःशब्दन् निःस्पृहम् -

भो गङ्गे कथं नु गङ्गे वहस्यनिशम् ?

 

नैतिकतां प्रस्खलिताम्

मानवतां च अधोगताम् -

प्रेक्ष्यापि निर्लज्जम्

वहसे कथम् ?

 

ज्ञानहीने अक्षररहिते,

लक्ष्यमाणेऽपि निरन्नजने

मौनञ्च कुतस्तन्- नेतृहीने?

 

सहस्रवर्षैः ऐतिह्योदीरितैः च

मन्त्रैः पुनः नव्यभारतम् -

सुसाङ्ग्रामिकं, सर्वाग्रगमं

करोषि न किमर्थम् ?

 

व्यक्तौ यदि स्याद् व्यक्तिवादः

समाजो भूयः व्यक्तितत्त्वहीनः -

कस्मात् न प्रध्वंससे स्रस्तजनान् ?

 

त्वं हि यदि जह्नुनन्दिनी,

तत् पितृत्वम् किल नाममात्रम्,

नो चेत् न प्राणेषु

प्रेरणा कथम् ?

 

उन्मत्तधरां कुरुक्षेत्ररूपाम्

आलिङ्ग्य हि घोरं

न निद्रायमाणम् -

भीष्मसमं भारतप्रसूतम्

जागरयसि कथम्?

 ......

मूल-असमीया-रचना/स्वरश्च- डा: भूपेन हजारिका

संस्कृतानुवाद:/ कण्ठस्वरश्च- श्रीरंजन बेजबरुवा (असमत:)

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घनागमन- गीतम्

 सखि! श्यामला जने जने मुदावहा

घनावली समागताऽधुना। सखि ...


पादपेषु पल्लवेषु कुञ्जवल्लरीवनेषु

भूतलेsखिलेऽभिरामतां वितन्वती,

घनवाली समागताsधुना।। सखि! श्यामला......


मन्दमन्दमारुतेन कुञ्जकोकिलारुतेन,

शीतशीकरेण सर्वलोक-हर्षदा,

घनावली समागताsधुना।। सखि! श्यामला.......


मत्तबर्हिणो वनेषु मत्तपक्षिणो द्रुमेषु,

मुग्धबालकाः प्रफुल्लिता गृहे गृहे,

घनावली समागताsधुना।। सखि! श्यामला.....


नो तमो भुवं जहाति नो दिनं दिनं विभाति,

भानुभानवो दिवङ्गता पलायिता,

घनावली समागताsधुना।।

सखि! श्यामला जने जने मुदावहा,

घनावली समागताऽधुना।

       लेखक- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री

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