आलवन्दारस्तोत्रम्, एक प्रसिद्ध श्रीवैष्णव परम्परा का
स्तोत्र है, जिसमें ध्वनि (ऑडियो) के साथ इसका पाठ शामिल है। स्तोत्र में भगवान विष्णु और उनके अवतारों
की स्तुति की गई है, जो आलवन्दार (यामुनाचार्य) द्वारा
रचित है। स्तोत्र में इसके श्लोकों का संक्षिप्त वर्णन, धार्मिक महत्व, और ऑडियो लिंक के माध्यम से श्रवण का अवसर दिया गया है। यह संस्कृत
प्रेमियों, धार्मिक उत्साही, और श्रीवैष्णव परम्परा के अनुयायियों के लिए उपयोगी
है।
तया सहासीनमनन्तभोगिनि प्रकृष्टविज्ञानबलैकधामनि ।
स्वादयन्निह
सर्वेषां त्रयन्तार्थं सुदुर्ग्रहम्। 
स्तोत्रयामास
योगीन्द्रस्तं वन्दे यामुनाह्वयम्।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जो यहाँ (इस संसार
में) सभी के लिए त्रयी (वेदों) के गूढ़ अर्थ को सरलता से समझाते हैं, 
उन योगियों में
श्रेष्ठ यामुनाचार्य की मैं स्तुति करता हूँ और उन्हें नमन करता हूँ।
 
व्याख्या: 
यहाँ यामुनाचार्य
की प्रशंसा की गई है, जो वेदों के जटिल अर्थ को सरल
बनाकर लोगों को समझाते हैं। 'यामुनाह्वयम्' से यामुनाचार्य का उल्लेख है, जो श्रीवैष्णव
परंपरा के महान आचार्य थे।
 
नमोऽचिन्त्याद्भुताक्लिष्टज्ञानवैराग्यराशये। 
नाथाय
मुनयेऽगाधभगवद्भक्तिसिन्धवे।।1।।
 
हिंदी अनुवाद: 
अचिन्त्य और अद्भुत
ज्ञान-वैराग्य के भंडार, भगवान की असीम भक्ति के सागर, 
उन मुनिवर नाथमुनि
को मैं नमन करता हूँ।
 
व्याख्या: 
यह श्लोक नाथमुनि
की स्तुति करता है, जो श्रीवैष्णव परंपरा के प्रथम
आचार्य माने जाते हैं। उनके ज्ञान, वैराग्य और
भगवद्भक्ति की गहराई को 'अगाध' (अथाह)
और 'सिन्धु' (सागर) जैसे शब्दों
से व्यक्त किया गया है।
 
तस्मै नमो
मधुजिदङ्घ्रिसरोजतत्त्व- 
ज्ञानानुरागमहिमातिशयान्तसीम्ने। 
नाथाय नाथमुनयेऽत्र
परत्र चापि 
नित्यं यदीयचरणौ
शरणं मदीयम्।।2।।
 
हिंदी अनुवाद: 
मधुजित (भगवान
विष्णु) के चरणकमलों के तत्त्व-ज्ञान और प्रेम की महिमा की पराकाष्ठा को प्राप्त, 
इस लोक और परलोक
में मेरे शरणस्थल, नाथमुनि को मैं नमन करता हूँ।
 
व्याख्या: 
यह श्लोक नाथमुनि
को भगवान विष्णु के प्रति उनके गहन ज्ञान और भक्ति के लिए नमन करता है। उनके चरणों
को इस लोक और परलोक में शरण बताया गया है, जो उनकी आध्यात्मिक महानता को दर्शाता है।
 
भूयो
नमोऽपरिमिताच्युतभक्तितत्त्व- 
ज्ञानामृताब्धिपरिवाहशुभैर्वचोभिः। 
लोकेऽवतीर्णपरमार्थसमग्रभक्ति- 
योगाय नाथमुनये
यमिनां वराय।।3।।
 
हिंदी अनुवाद: 
असीम भगवद्भक्ति और
ज्ञान के अमृत-सागर को अपने शुभ वचनों से प्रवाहित करने वाले, 
लोक में परमार्थ और
पूर्ण भक्ति-योग के लिए अवतरित, यमियों
(संयमियों) में श्रेष्ठ नाथमुनि को बार-बार नमन।
 
व्याख्या: 
नाथमुनि की भक्ति
और ज्ञान को अमृत के सागर के समान बताया गया है, जो उनके वचनों से फैलता है। वे संसार में भक्ति-योग को स्थापित करने के
लिए अवतरित हुए, और उनकी संयमशीलता उन्हें श्रेष्ठ
बनाती है।
 
तत्त्वेन
यश्चिदचिदीश्वरतत्स्वभाव- 
भोगापवर्गतदुपायगतीरुदारः। 
संदर्शयन्निरमिमीत
पुराणरत्नं 
तस्मै नमो मुनिवराय
पराशराय।।4।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जो चित् (जीव), अचित् (जड़) और ईश्वर के स्वभाव, भोग, मोक्ष और उनके साधनों को उदारता से समझाते हैं, 
और पुराणरत्न
(विष्णु पुराण) की रचना करते हैं, उन
श्रेष्ठ मुनि पराशर को मैं नमन करता हूँ।
 
व्याख्या: 
यह श्लोक पराशर
मुनि की स्तुति करता है, जिन्होंने विष्णु पुराण की रचना
की। वे जीव, जड़, ईश्वर, भोग और मोक्ष के तत्त्वों को स्पष्ट करते हैं, और
उनके साधनों को उदारता से दर्शाते हैं।
 
माता पिता
युवतयस्तनया विभूतिः 
सर्वं यदेव नियमेन
मदन्वयानाम्। 
आद्यस्य नः
कुलपतेर्वकुलाभिरामं 
श्रीमत्तदङ्घ्रियुगलं
प्रणमामि मूर्ध्ना।।5।।
 
हिंदी अनुवाद: 
माता, पिता, पत्नी, पुत्र, संपत्ति—सब कुछ मेरे वंश के लिए नियमपूर्वक केवल उनके हैं, 
हमारे कुल के आदि
पुरुष, वकुल के फूलों से सुशोभित, श्रीमान (विष्णु) के चरणकमलों को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु को कुलपति (कुल के मूल) मानकर उनकी स्तुति करता है। सब कुछ (परिवार, संपत्ति) उनके अधीन है, और उनके सुंदर चरणों को
वकुल पुष्पों से सजा बताया गया है। यह भक्ति और समर्पण का भाव दर्शाता है।
 
टिप्पणी:
ये श्लोक
श्रीवैष्णव परंपरा के महान आचार्यों—यामुनाचार्य, नाथमुनि, पराशर मुनि—और भगवान विष्णु की स्तुति
करते हैं। इनमें ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और सांस्कृतिक मूल्यों की महिमा का वर्णन है।
 
यन्मूर्ध्नि मे
श्रुतिशिरस्सु च भाति यस्मिन् 
नस्मन्मनोरथपथः
सकलः समेति। 
स्तोष्यामि नः
कुलधनं कुलदैवतं तत् 
पादारविन्दमरविन्दविलोचनस्य।।6।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जो मेरे मस्तक पर
और वेदों के शीर्ष में (श्रेष्ठ रूप में) प्रकाशित होता है, 
जिसमें मेरे मन की
सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं, 
उस कमलनयन (विष्णु)
के चरणकमलों को, जो हमारे कुल का धन और दैवत हैं, मैं स्तुति करता हूँ। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु के चरणकमलों की स्तुति करता है, जो वेदों में सर्वोच्च हैं और भक्त के मन की सभी कामनाओं को पूर्ण करते
हैं। 'कुलधनं' और 'कुलदैवतं' से यह संकेत है कि विष्णु भक्तों के
कुल के लिए सबसे मूल्यवान और पूजनीय हैं। 'अरविन्दविलोचन'
(कमलनयन) विष्णु की सुंदरता और दयालुता को दर्शाता है।
 
तत्त्वेन यस्य
महिमार्णवशीकराणुः 
शक्यो न मातुमपि
शर्वपितामहाद्यैः। 
कर्तुं
तदीयमहिमस्तुतिमुद्यताय 
मह्यं नमोऽस्तु
कवये निरपत्रपाय।।7।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जिनकी (विष्णु की)
महिमा के सागर का एक कण भी शिव, ब्रह्मा
आदि द्वारा नहीं मापा जा सकता, 
उनकी महिमा की
स्तुति करने के लिए उत्साहित, निर्लज्ज
(निरपत्रप) कवि को मैं नमन करता हूँ। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु की अनंत महिमा को दर्शाता है, जिसे ब्रह्मा और शिव जैसे देवता भी नहीं नाप सकते। कवि स्वयं को 'निरपत्रप' (निर्लज्ज) कहता है, क्योंकि वह अपनी सीमित बुद्धि के बावजूद उनकी स्तुति करने का साहस करता
है। यह भक्ति में विनम्रता और साहस का संयोजन दर्शाता है।
 
 
यद्वा श्रमावधि
यथामति वाप्यशक्तः 
स्तौम्येवमेव खलु
तेऽपि सदा स्तुवन्तः। 
वेदाश्चतुर्मुखमुखाश्च
महार्णवान्तः 
को
मज्जतोरणुकुलाचलयोर्विशेषः।।8।।
 
हिंदी अनुवाद: 
अथवा मैं अपनी
बुद्धि और शक्ति के अनुसार, थकने तक स्तुति करता हूँ, जैसे अन्य भी करते हैं। 
वेद और ब्रह्मा आदि
जो (तेरी महिमा के) सागर में डूबे हैं, 
उनमें और मुझमें
(जो एक कण और पर्वत की तरह हैं) क्या अंतर है? 
 
व्याख्या: 
कवि कहता है कि वह
अपनी सीमित क्षमता से भगवान की स्तुति करता है, जैसे वेद और ब्रह्मा करते हैं। सभी उनकी महिमा के सागर में डूबे हैं, फिर चाहे वह कण (सामान्य भक्त) हो या पर्वत (वेद-ब्रह्मा)। यह श्लोक भक्ति
की समानता को दर्शाता है—सब भगवान के सामने समान हैं।
 
किञ्चैष
शक्त्यतिशयेन न तेऽनुकम्प्यः 
स्तोतापि तु
स्तुतिकृतेन परिश्रमेण। 
तत्र श्रमस्तु
सुलभो मम मन्दबुद्धे- 
रित्युद्यमोऽयमुचितो
मम चाब्जनेत्र।।9।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हालांकि मैं
(कमलनयन) तेरी कृपा का पात्र अपनी शक्ति के कारण नहीं हूँ,  परंतु स्तुति करने के परिश्रम से हूँ। 
मेरी मंद बुद्धि के
लिए यह परिश्रम आसान है,  इसलिए, हे कमलनयन, यह मेरा प्रयास (स्तुति) उचित है। 
 
व्याख्या: 
कवि स्वीकार करता
है कि उसकी शक्ति सीमित है, लेकिन वह अपनी स्तुति के
परिश्रम से भगवान की कृपा चाहता है। 'मंदबुद्धि' कहकर वह अपनी विनम्रता दिखाता है, और कहता है
कि यह प्रयास उसके लिए उपयुक्त है। यह भक्ति में परिश्रम और समर्पण के महत्व को
रेखांकित करता है।
 
नावेक्षसे यदि ततो
भुवनान्यमूनि 
नालं प्रभो
भवितुमेव कुतः प्रवृत्तिः। 
एवं निसर्गसुहृदि
त्वयि सर्वजन्तोः 
स्वामिन्विचित्रमिदमाश्रितवत्सलत्वम्।।10।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हे प्रभु, यदि तू इन संसारों पर दृष्टि न डाले, तो ये
अस्तित्व में भी न रहें,  फिर उनकी गति कैसे हो? 
सभी प्राणियों के
स्वाभाविक मित्र, हे स्वामी,  तेरा यह आश्रितवत्सल (भक्तों पर स्नेह) स्वभाव अद्भुत है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु को सभी प्राणियों का स्वाभाविक मित्र बताता है, जिनकी कृपा के बिना संसार का अस्तित्व और गति संभव नहीं। 'आश्रितवत्सलत्वम्' से उनकी भक्तों के प्रति
विशेष प्रेम और दया को दर्शाया गया है, जो उनकी विचित्र
(अद्भुत) प्रकृति का हिस्सा है।
 
टिप्पणी:
ये श्लोक
श्रीवैष्णव परंपरा में भगवान विष्णु की महिमा और भक्ति की गहराई को व्यक्त करते
हैं। कवि अपनी सीमाओं को स्वीकार करते हुए भी भगवान की स्तुति में तल्लीन है, जो भक्ति की विनम्रता और उत्साह को दर्शाता है।
 
स्वाभाविकानवधिकातिशयेशितृत्वं 
नारायण त्वयि न
मृष्यति वैदिकः कः। 
ब्रह्मा शिवः शतमखः
परमस्वराडि- 
त्येतेऽपि यस्य
महिमार्णवविप्रुषस्ते।।11।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हे नारायण, तुममें स्वाभाविक, असीम और अतुलनीय प्रभुत्व
(ईशितृत्व) को कौन वैदिक विद्वान अस्वीकार कर सकता है? 
ब्रह्मा, शिव, इंद्र और परम स्वतंत्र देवता भी तुम्हारी
महिमा के सागर की एक बूंद मात्र हैं। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
नारायण की सर्वोच्चता को स्थापित करता है। उनकी ईश्वरीय शक्ति स्वाभाविक और असीम
है, जिसे कोई वैदिक विद्वान नकार
नहीं सकता। ब्रह्मा, शिव और इंद्र जैसे देवता भी उनकी
महिमा के सागर की तुलना में एक बूंद हैं, जो उनकी
अनंतता को दर्शाता है।
 
कः श्रीः श्रियः
परमसत्त्वसमाश्रयः कः 
कः पुण्डरीकनयनः
पुरुषोत्तमः कः। 
कस्यायुतायुतशतैककलांशकांशे 
विश्वं
विचित्रचिदचित्प्रविभागवृत्तम्।।12।।
 
हिंदी अनुवाद: 
श्री (लक्ष्मी) कौन
हैं? परम सात्त्विक गुणों का आश्रय
कौन है? 
कमलनयन और
पुरुषोत्तम कौन है? 
किसके दस हजार गुना
सौवें हिस्से के एक अंश में यह विचित्र चित् (जीव) और अचित् (जड़) से युक्त विश्व
संचालित है? 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु की अनन्यता पर प्रश्न उठाकर उनकी सर्वोच्चता को रेखांकित करता है। लक्ष्मी, सात्त्विक गुण, कमलनयन और पुरुषोत्तम जैसे गुण
केवल नारायण में हैं। विश्व का संचालन उनके एक सूक्ष्म अंश से होता है, जो उनकी असीम शक्ति को दर्शाता है।
 
वेदापहारगुरुपातकदैत्यपीडा- 
द्यापद्विमोचनमहिष्ठफलप्रदानैः। 
कोऽन्यः
प्रजापशुपती परिपाति कस्य 
पादोदकेन स शिवः
स्वशिरोधृतेन।।13।।
 
हिंदी अनुवाद: 
वेदों का अपहरण, गुरु का अपमान, दैत्यों की पीड़ा आदि आपदाओं से
मुक्ति और महान फल देने वाला कौन है? 
प्रजापति और शिव
जैसे देवता किसके द्वारा संरक्षित हैं? 
शिव अपने सिर पर
जिसके चरणोदक (पवित्र जल) को धारण करते हैं, वह कौन है? 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु को सभी आपदाओं से मुक्त करने वाला और सर्वोच्च रक्षक बताता है। शिव द्वारा
गंगा (विष्णु के चरणोदक) को सिर पर धारण करना उनकी श्रेष्ठता को दर्शाता है। यह वैष्णव
दर्शन में नारायण की सर्वोच्चता को स्थापित करता है।
 
 कस्योदरे हरविरिञ्चिमुखः प्रपञ्चः 
को रक्षतीममजनिष्ट
च कस्य नाभेः। 
क्रान्त्वा निगीर्य
पुनरुद्गिरति त्वदन्यः 
कः केन वैष
परवानिति शक्यशङ्कः।।14।।
 
हिंदी अनुवाद: 
किसके उदर में शिव, ब्रह्मा आदि सहित यह विश्व समाया है?  कौन इसे
रक्षता और उत्पन्न करता है? किसकी नाभि से (यह विश्व)
उत्पन्न हुआ? इसे मापने, निगलने
और पुनः उगलने वाला तुझसे भिन्न कौन है? कौन ऐसा है
जिसके बारे में यह संदेह हो कि वह किसी और के अधीन है? 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु को विश्व का सृष्टिकर्ता, पालक और
संहारक बताता है। उनकी नाभि से ब्रह्मा (विश्व की उत्पत्ति), उनके उदर में विश्व का समावेश, और निगलने-उगलने
(संहार और सृजन) की शक्ति उनकी सर्वोच्चता को दर्शाती है। कोई भी उनके अधीन होने
का संदेह नहीं कर सकता।
 
त्वां शीलरूपचरितैः
परमप्रकृष्ट- 
सत्त्वेन
सात्त्विकतया प्रबलैश्च शास्त्रैः। 
प्रख्यातदैवपरमार्थविदां
मतैश्च 
नैवासुरप्रकृतयः
प्रभवन्ति बोद्धुम्।।15।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरे उत्तम चरित्र, रूप, सात्त्विक गुणों और शक्तिशाली शास्त्रों
के द्वारा, तथा परमार्थ के विद्वानों के मतों से, असुर प्रकृति वाले लोग तुझे कभी समझ नहीं सकते। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक कहता है
कि भगवान विष्णु के सात्त्विक गुण, उनके चरित्र और शास्त्रों में उनकी महिमा इतनी उच्च है कि असुर प्रकृति
(अज्ञानी या नकारात्मक प्रवृत्ति) वाले लोग उन्हें समझने में असमर्थ हैं। केवल
सात्त्विक भक्त और विद्वान ही उनकी महिमा को जान सकते हैं।
 
टिप्पणी:
ये श्लोक
श्रीवैष्णव परंपरा में भगवान नारायण की सर्वोच्चता, उनकी असीम शक्ति और सात्त्विक गुणों को रेखांकित करते हैं। प्रत्येक श्लोक
में प्रश्नात्मक शैली का उपयोग कर उनकी अनन्यता स्थापित की गई है, जो भक्ति और तत्त्वज्ञान को गहराई देता है।
 
 उल्लङ्घितत्रिविधसीमसमातिशायि- 
संभावनं तव
परिब्रढिमस्वभावम्। 
मायाबलेन भवतापि
निगुह्यमानं 
पश्यन्ति केचिदनिशं
त्वदनन्यभावाः।।16।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरा स्वाभाविक और
असीम प्रभुत्व तीनों सीमाओं (काल, स्थान, वस्तु) को लाँघता है। 
माया के बल से
छिपाए जाने पर भी, केवल तुझमें एकनिष्ठ भक्ति वाले
ही इसे निरंतर देख पाते हैं। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु की महिमा को त्रिविध सीमाओं (काल, स्थान, वस्तु) से परे बताता है। उनकी माया
(प्रकृति) उनकी महिमा को छिपाती है, लेकिन एकनिष्ठ भक्त
ही उनकी सच्ची महानता को समझ सकते हैं। यह भक्ति की शक्ति और भगवान की अनंतता को
दर्शाता है।
 
 यदण्डमण्डान्तरगोचरं च यद् 
दशोत्तराण्यावरणानि
यानि च। 
गुणाः प्रधानं
पुरुषः परं पदं 
परात्परं ब्रह्म च
ते विभूतयः।।17।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जो अंड (ब्रह्मांड)
और उसके भीतर की वस्तुएँ, दस आवरण (प्रकृति के स्तर), 
गुण, प्रधान, पुरुष, परम
पद और परात्पर ब्रह्म—ये सभी तेरी विभूतियाँ हैं। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान की
सर्वव्यापी विभूतियों को दर्शाता है। ब्रह्मांड, प्रकृति के स्तर, गुण, जीव, और परम ब्रह्म सभी उनकी शक्ति के अधीन
हैं। यह उनकी सर्वोच्चता और विश्व के सृजन में उनकी भूमिका को रेखांकित करता है।
 
वशी वदान्यो
गुणवानृजुः शुचिः 
मृदुर्दयालुर्मधुरः
स्थिरः समः। 
कृती
कृतज्ञस्त्वमपि स्वभावतः 
समस्तकल्याणगुणामृतोदधिः।।18।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तू स्वभाव से वशी
(नियंत्रक), उदार, गुणवान, सरल, पवित्र, 
कोमल, दयालु, मधुर, स्थिर, सम और कृतज्ञ है। 
तू सभी कल्याणकारी
गुणों का अमृत-सागर है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु के स्वाभाविक गुणों की प्रशंसा करता है। उनके नियंत्रण, उदारता, पवित्रता, दया
और समता जैसे गुण उन्हें सभी कल्याणकारी गुणों का सागर बनाते हैं। यह भक्तों के
लिए उनकी प्रियता और महानता को दर्शाता है।
  
उपर्युपर्यब्जभुवोऽपि
पूरुषान् प्रकल्प्य ते ये शतमित्यनुक्रमात्। 
गिरस्त्वदेकैकगुणावधीप्सया
सदा स्थिता नोद्यमतोऽतिशेरते।।19।।
 
हिंदी अनुवाद: 
ब्रह्मा और अन्य
पुरुषों (देवताओं) को नियुक्त कर, जो सौ के
क्रम में हैं, तेरे प्रत्येक गुण की सीमा बताने वाली
वाणियाँ सदा स्थिर हैं, पर वे (तेरी महिमा के) प्रयास
में कभी पूर्ण नहीं हो पातीं। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक कहता है
कि ब्रह्मा जैसे देवता भी भगवान के एक-एक गुण की महिमा का वर्णन नहीं कर सकते।
उनकी वाणियाँ स्थिर हैं, लेकिन उनकी महिमा इतनी विशाल है
कि कोई भी उसे पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं कर सकता।
 
त्वदाश्रितानां
जगदुद्भवस्थितप्रणाशसंसारविमोचनादयः। 
भवन्ति लीलाविधयश्च
वैदिकाः त्वदीयगम्भीरमनोऽनुसारिणः।।20।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरे आश्रितों के
लिए विश्व की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और संसार से मुक्ति आदि, 
तेरी लीला और वैदिक
विधियाँ हैं, जो तेरे गंभीर मन के अनुसार
होती हैं। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान की
लीला को विश्व के सृजन, पालन, संहार और भक्तों की मुक्ति से जोड़ता है। ये सभी उनकी इच्छा और वैदिक
विधियों के अनुरूप हैं, जो उनके गहन मन को दर्शाती हैं।
 
नमो नमो
वाङ्मनसातिभूमये नमो नमो वाङ्मनसैकभूमये। 
नमो
नमोऽनन्तमहाविभूतये नमो नमोऽनन्तदयैकसन्धिवे।।21।।
 
हिंदी अनुवाद: 
वाणी और मन से परे, वाणी और मन के आधार,  अनंत महान विभूतियों
और अनंत दया के एकमात्र स्रोत को बार-बार नमस्कार, बार-बार नमस्कार। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान को
वाणी-मन से परे, उनके आधार, अनंत शक्ति और दया के स्रोत के रूप में नमन करता है। यह उनकी असीमता और
भक्तों के प्रति प्रेम को दर्शाता है।
 
न धर्मनिष्ठोऽस्मि
न चात्मवेदी न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविन्दे। 
अकिञ्चनोऽनन्यगतिः
शरण्य त्वत्पादमूलं शरणं प्रपद्ये।।22।।
 
हिंदी अनुवाद: 
मैं न धर्मनिष्ठ
हूँ, न आत्मज्ञानी, न ही तेरे चरणकमलों में भक्ति रखता हूँ। 
हे शरण्य (शरण देने
वाले), मैं निर्धन और जिसका कोई और
सहारा नहीं,  तेरे चरणों की शरण लेता हूँ। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक शरणागति
का भाव दर्शाता है। भक्त अपनी कमियों को स्वीकार करते हुए, बिना किसी अन्य सहारे के, भगवान के चरणों में
पूर्ण समर्पण करता है। यह श्रीवैष्णव दर्शन में शरणागति की महत्ता को रेखांकित
करता है।
 
न निन्दितं कर्म
तदस्ति लोके सहस्रशो यन्न मया व्यधायि। 
सोऽहं विपाकावसरे
मुकुन्द क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे।।23।।
 
हिंदी अनुवाद: 
इस संसार में कोई
निंदनीय कर्म ऐसा नहीं, जो मैंने हजारों बार न किया हो। 
हे मुकुंद, अब कर्मफल भोगने के समय मैं बिना किसी सहारे के तेरे सामने रोता हूँ। 
 
व्याख्या: 
भक्त अपनी गलतियों
और पापों को स्वीकार करता है और कर्मफल के समय भगवान मुकुंद के सामने विनम्रता से
कृपा की याचना करता है। यह भक्ति में पश्चाताप और शरणागति को दर्शाता है।
 
निमज्जतोऽनन्तभवार्णवान्तश्चिराय
मे कूलमिवासि लब्धः। 
त्वयापि लब्धं
भगवन्निदानीमनुत्तमं पात्रमिदं दयायाः।।24।।
 
हिंदी अनुवाद: 
अनंत संसार सागर
में डूबे मुझको लंबे समय बाद तू किनारे की तरह मिला। 
हे भगवान, अब तुझे भी मेरे रूप में दया का एक उत्तम पात्र मिला है। 
 
व्याख्या: 
भक्त संसार को सागर
और भगवान को किनारे के रूप में देखता है, जो उसे बचाता है। वह कहता है कि भगवान को भी उसमें दया का पात्र मिला है, जो उनकी कृपा की गहराई को दर्शाता है।
 
अभूतपूर्वं मम भावि
किं वा सर्वं सहे मे सहजं हि दुःखम्। 
किं तु त्वदग्रे
शरणागतानां पराभवो नाथ न तेऽनुरूपः।।25।।
 
हिंदी अनुवाद: 
मेरे लिए भविष्य
में क्या अभूतपूर्व होगा? दुख तो मेरा स्वभाव है। 
परंतु, हे नाथ, तेरे सामने शरणागतों की हार (पराभव)
तेरे स्वभाव के अनुरूप नहीं। 
 
व्याख्या: 
भक्त कहता है कि
दुख उसके जीवन का हिस्सा है, लेकिन
शरणागतों की हार भगवान की दयालुता के विपरीत है। यह भगवान के आश्रितवत्सल स्वभाव
पर विश्वास व्यक्त करता है।
 
निरासकस्यापि न
तावदुत्सहे महेश हातुं तव पादपङ्कजम्। 
रुषा निरस्तोऽपि
शिशुः स्तनन्धयो न जातु मातुश्चरणौ जिहासति।।26।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हे महेश, भले ही तू मुझे अस्वीकार करे, मैं तेरे
चरणकमलों को छोड़ने का साहस नहीं करता। 
जैसे क्रोध में
ठुकराया गया शिशु भी माँ के चरणों को कभी नहीं छोड़ता। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भक्त की
पूर्ण शरणागति और भगवान के प्रति अटूट विश्वास को दर्शाता है। भक्त कहता है कि भले
ही भगवान उसे ठुकराएँ, वह उनकी शरण नहीं छोड़ेगा, जैसे शिशु अपनी माँ को नहीं छोड़ता।
 
टिप्पणी:
ये श्लोक
श्रीवैष्णव परंपरा में भगवान नारायण की अनंत महिमा, उनके कल्याणकारी गुणों, और शरणागति के महत्व को
रेखांकित करते हैं। भक्त अपनी विनम्रता, पापों का
स्वीकार, और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण को व्यक्त
करता है।
 
तवामृतस्यन्दिनि
पादकङ्कजे निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति। 
स्थितेऽरविन्दे
मकरन्दनिर्भरे मधुव्रतो नेक्षुरकं हि वीक्षते।।27।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरे अमृत-रस बहाने
वाले चरणकमलों में मन लगाने वाला भक्त भला दूसरा क्या चाहेगा? 
जब कमल में मकरंद
(मधु) भरा हो, तो भँवरा इक्षु (गन्ने) की ओर
क्यों देखेगा? 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
चरणकमलों को अमृत-रस का स्रोत बताता है। जो भक्त इनमें लीन है, वह अन्य सांसारिक सुखों की इच्छा नहीं करता, जैसे
भँवरा मधुर कमल को छोड़ गन्ने की ओर नहीं जाता। यह एकनिष्ठ भक्ति का सुंदर चित्रण
है।
 
त्वदङ्घ्रिमुद्दिश्य
कदापि केनचिद् यथा तथा वापि सकृत् कृतोऽञ्जलिः। 
तदैव
मुष्णात्यशुभाब्यशेषतः शुभानि पुष्णाति न जातु हीयते।।28।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरे चरणों के लिए
किसी ने भी कभी, किसी भी तरह एक बार भी अंजलि
(प्रणाम) किया, 
तो वह तुरंत सारे
अशुभ को नष्ट करता है, शुभ को बढ़ाता है, और कभी नष्ट नहीं होता। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
चरणों में एक बार भी श्रद्धापूर्वक प्रणाम करने की महत्ता दर्शाता है। ऐसा करने से
पाप नष्ट होते हैं, पुण्य बढ़ता है, और यह फल कभी कम नहीं होता। यह शरणागति की शक्ति को रेखांकित करता है।
 
उदीर्णसंसारदवाशुशुक्षणिं
क्षणेन निर्वाप्य परां च निर्वृतिम्। 
प्रयच्छति
त्वच्चरणारुणाम्बुजद्वयानुरागामृतसिन्धुशीकरः।।29।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरे अरुण कमल जैसे
चरणों के प्रति प्रेम का अमृत-सागर का एक कण 
संसार के दावानल
(आग) को तुरंत शांत कर परम शांति प्रदान करता है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
चरणों में भक्ति को अमृत-सागर का कण बताता है, जो संसार के दुखों (दावानल) को शांत कर परम आनंद देता है। यह भक्ति की
शक्ति और शांति को दर्शाता है।
 
विलासविक्रान्तपरावरालयं
नमस्यदार्तिक्षपणे कृतक्षणम्। 
धनं मदीयं तव
पादपङ्कजं कदा नु साक्षात्करवाणि चक्षुषा।।30।।
 
हिंदी अनुवाद: 
विलास और प्रभुत्व
में सभी का आधार, भक्तों के दुख नष्ट करने में
तत्पर, 
तेरे चरणकमल मेरे
लिए धन हैं; मैं उन्हें कब अपनी आँखों से
देख पाऊँगा? 
 
व्याख्या: 
भक्त भगवान के
चरणकमलों को अपना सबसे बड़ा धन मानता है और उनके दर्शन की उत्कट इच्छा व्यक्त करता
है। यह उनकी सर्वोच्चता और भक्तों के प्रति दया को दर्शाता है।
 
कदा पुनः
शङ्खरथाङ्गकल्पकध्वजारविन्दाङ्कुशवज्रलाञ्छनम्। 
त्रिविक्रम
त्वच्चरणाम्बुजद्वयं मदीयमूर्धानमलङ्करिष्यति।।31।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हे त्रिविक्रम, शंख, चक्र, कल्पक, ध्वज, कमल, अंकुश और
वज्र चिह्नों से युक्त 
तेरे चरणकमलों का
स्पर्श मेरे मस्तक को कब सुशोभित करेगा? 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु के त्रिविक्रम स्वरूप की स्तुति करता है। भक्त उनके चरणों के दर्शन और
स्पर्श की कामना करता है, जो उनके मस्तक को अलंकृत
करेंगे। चिह्न उनकी दिव्यता को दर्शाते हैं।
 
विराजमानोज्ज्वलपीतवाससं
स्मितातसीसूनसमामलच्छविम्। 
निमग्ननाभिं
तनुमध्यमुन्नतं विशालवक्षस्स्थलशोभिलक्षणम्।।32।।
 
हिंदी अनुवाद: 
चमकते पीले वस्त्र, फूलों जैसे स्मित और निर्मल रंग,  गहरी
नाभि, सुंदर मध्य, उन्नत और
विशाल वक्षस्थल से सुशोभित,  ऐसे तेरे स्वरूप को
मैं निहारता हूँ। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान
विष्णु के दिव्य स्वरूप का वर्णन करता है। उनके पीले वस्त्र, स्मित, और शारीरिक सौंदर्य (नाभि, वक्षस्थल) की प्रशंसा की गई है, जो उनकी अलौकिक
शोभा को दर्शाता है।
 
चकासतं
ज्याकिणकर्कशैः शुभैश्चतुर्भिराजानुविलम्बिभिर्भुजैः। 
प्रियावतंसोत्पलकर्णभूषणश्लथालकाबन्धविमर्दशंसिभिः।।33।।
 
हिंदी अनुवाद: 
चार शुभ, धनुष-जैसे कठोर और घुटनों तक लंबी भुजाओं से सुशोभित,  प्रिया के कुसुमों जैसे कर्णभूषण और बिखरे केशों से युक्त,  तू चमकता है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
शारीरिक सौंदर्य को और गहराई से वर्णित करता है। उनकी चार भुजाएँ, कर्णभूषण और केश उनकी शोभा बढ़ाते हैं। यह उनके अलौकिक स्वरूप को चित्रित
करता है।
 
उदग्रपीनांसविलम्बिकुण्डलालकावलीबन्धुरकम्बुकन्धरम्। 
मुखश्रिया
न्यक्कृतपूर्णनिर्मलामृतांशुबिम्बाम्बुरुहोज्ज्वलश्रियम्।।34।।
 
हिंदी अनुवाद: 
ऊँचे कंधों, लटकते कुण्डलों और घने केशों से युक्त शंख जैसे गले,  तेरे मुख की शोभा पूर्ण चंद्रमा और कमल की निर्मल शोभा को भी मात देती है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
गले, कंधों और मुख की शोभा को
चंद्रमा और कमल से श्रेष्ठ बताता है। उनके कुण्डल और केश उनकी सुंदरता को और
बढ़ाते हैं।
 
प्रबुद्धमुग्धाम्बुजचारुलोचनं
सविभ्रमभ्रूलतमुज्ज्वलाधरम्। 
शुचिस्मितं
कोमलगण्डमुन्नसं ललाटपर्यन्तविलम्बितालकम्।।35।।
 
हिंदी अनुवाद: 
खुले कमल जैसे
सुंदर नेत्र, भौंहों की रमणीय लट, चमकते अधर, पवित्र स्मित, कोमल गाल, उन्नत नासिका और ललाट तक लटकते केशों
से युक्त तुझे निहारता हूँ। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
मुखमंडल की शोभा का वर्णन करता है। उनके नेत्र, भौंहें, अधर, स्मित
और केश उनकी अलौकिक सुंदरता को दर्शाते हैं।
 
स्फुरत्किरीटाङ्गदहारकण्ठिकामणीन्द्रकाञ्चीगुणनूपुरादिभिः। 
रथाङ्गशङ्खासिगदाधनुर्वरैर्लसत्तुलस्या
वनमालयोज्ज्वलम्।।36।।
 
हिंदी अनुवाद: 
चमकते मुकुट, बाजूबंद, हार, कण्ठिका, रत्नमय कंचुकी, नूपुर, चक्र, शंख, तलवार, गदा, धनुष और तुलसी की माला से सुशोभित तू
उज्ज्वल है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
अलंकारों और आयुधों का वर्णन करता है। उनके आभूषण और तुलसी माला उनकी शोभा को और
बढ़ाते हैं, जो उनके दिव्य स्वरूप को
दर्शाता है।
 
चकर्थ यस्या भवनं
भुजान्तरं तव प्रियं धाम यदीयजन्मभूः। 
जगत्समस्तं
यदपाङ्गसंश्रयं यदर्थमम्भोधिरमन्थ्यबन्धि च।।37।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जिनके (लक्ष्मी)
लिए तूने अपनी बाहों को भवन बनाया, जो तेरा प्रिय धाम और जन्मभूमि है, 
जिनके दृष्टिपात से
सारा विश्व संनादति, जिनके लिए समुद्र मंथन हुआ। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक लक्ष्मी
और विष्णु के संबंध को दर्शाता है। लक्ष्मी विष्णु के हृदय में निवास करती हैं, और उनके लिए समुद्र मंथन हुआ। यह उनकी एकता और विश्व के लिए उनकी कृपा को
दर्शाता है।
 
स्ववैश्वरूप्येण
सदानुभूतयाप्यपूर्ववद्विस्मयमादधानया। 
गुणेन रूपेण
विलासचेष्टितैः सदा तवैवोचितया तव श्रिया।।38।।
 
हिंदी अनुवाद: 
अपने वैभवपूर्ण स्वरूप
से सदा अनुभूत होने पर भी नित्य नवीन और विस्मयकारी, 
गुणों, रूप और लीलाओं से युक्त, तेरी श्री (लक्ष्मी)
सदा तुझी के योग्य है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक लक्ष्मी
की महिमा और उनके वैभव को वर्णित करता है, जो भगवान के साथ सदा नवीन और विस्मयकारी हैं। उनकी लीलाएँ और गुण उनकी
अनन्यता को दर्शाते हैं।
 
 
तया
सहासीनमनन्तभोगिनि प्रकृष्टविज्ञानबलैकधामनि।  
फणामणिव्रातमयूखमण्डलप्रकाशमानोदरदिव्यधामनि।।39।।
 
हिंदी अनुवाद: 
लक्ष्मी के साथ
अनंत शेष पर विराजमान, जो श्रेष्ठ ज्ञान और बल का
एकमात्र धाम है, 
फणों के मणियों की
किरणों से प्रकाशित, तेरे दिव्य धाम में तू सुशोभित
है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान को
लक्ष्मी के साथ अनंत शेष पर विराजमान बताता है। उनके धाम की शोभा फणों के मणियों
की किरणों से बढ़ती है, जो उनकी अलौकिक महिमा को
दर्शाता है।
 
निवासशय्यासनपादुकांशुकोपधानवर्षातपवारणादिभिः। 
शरीरभेदैस्तव
शेषतां गतैर्यथोचितं शेष इतीर्यते जनैः।।40।।
 
हिंदी अनुवाद: 
निवास, शय्या, आसन, पादुका, वस्त्र, तकिया, और
वर्षा-ताप से रक्षा आदि रूपों में, 
तेरी सेवा में
विभिन्न रूप धारण करने वाला शेष (अनंत) लोगों द्वारा शेष कहलाता है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक अनंत शेष
की भगवान की सेवा में विभिन्न रूपों (निवास, शय्या आदि) को दर्शाता है। शेष की यह सेवा उनकी भक्ति और भगवान की महिमा
को रेखांकित करती है।
 
टिप्पणी:
ये श्लोक
श्रीवैष्णव परंपरा में भगवान विष्णु और लक्ष्मी की महिमा, उनके दिव्य स्वरूप, अलंकारों, और भक्तों के प्रति कृपा को चित्रित करते हैं। भक्त की शरणागति, उनकी शोभा और लीलाओं की प्रशंसा प्रमुख है।
 
दासस्सखा वाहनमासनं
ध्वजो यस्ते वितानं व्यजनं त्रयीमयः। 
उपस्थितं तेन पुरो
गरुत्मता त्वदङ्घ्रिसम्मर्दकिणाङ्कशोभिना।।41।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जो तेरा दास, सखा, वाहन, आसन, ध्वज, छत्र, और
वेदमय पंखा है, 
वह गरुड़, जो तेरे चरणों के कठोर चिह्नों से सुशोभित है, तेरे
सामने उपस्थित है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक गरुड़ की
भगवान विष्णु के प्रति विभिन्न भूमिकाओं (दास, सखा, वाहन आदि) का वर्णन करता है। गरुड़ के पंख
वेदमय हैं, और उनके शरीर पर भगवान के चरणों के चिह्न
शोभा बढ़ाते हैं, जो उनकी भक्ति और सेवा को दर्शाता है।
 
 
त्वदीयभुक्तोज्जिझितशेषभोजिना
त्वया निसृष्टात्मभरेण यद्यथा। 
प्रियेण सेनापतिना
न्यवेदि तत् तथाऽनुजानन्तमुदारवीक्षणैः।।42।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरे द्वारा भुक्त
शेष भोजन को ग्रहण करने वाला, तुझसे
आत्म-समर्पण प्राप्त, 
प्रिय सेनापति
(गरुड़) ने जो कुछ निवेदन किया, उसे तू
उदार दृष्टि से स्वीकार करता है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक गरुड़ की
भक्ति और भगवान के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है। गरुड़ भगवान का शेष भोजन
ग्रहण करता है और उनकी आज्ञा का पालन करता है। भगवान उनकी सेवा को उदारतापूर्वक
स्वीकार करते हैं।
 
हताखिलक्लेशमलैः
स्वभावतस्त्वदानुकूल्यैकरसैस्तवोचितैः। 
गृहीततत्तत्परिचारसाधनैर्निषेव्यमाणं
सचिवैर्यथोचितं।।43।।
 
हिंदी अनुवाद: 
सभी क्लेश और दोषों
से मुक्त, स्वभाव से तुझ पर अनुकूल, उचित साधनों से सेवा करने वाले सचिवों (सेवकों) द्वारा तू यथोचित रूप से
सेवित है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
सेवकों (जैसे गरुड़, शेष आदि) की निष्काम भक्ति को
दर्शाता है। वे दोषों से मुक्त हैं और केवल भगवान की सेवा में तत्पर रहते हैं, जो उनके स्वभाव और भगवान के प्रति प्रेम को दर्शाता है।
 
अपूर्वनानारसभावनिर्भरप्रबद्धया
मुग्धविदग्धलीलया। 
क्षणाणुवत्क्षिप्तपरादिकालया
प्रहर्षयन्तं महिषीं महाभुजम्।।44।।
 
हिंदी अनुवाद: 
अपूर्व और विविध
रसों से भरी, मोहक और विदग्ध लीलाओं से युक्त, क्षण में परलोक आदि समय को समाप्त करने वाला, तू
अपनी महिषी (लक्ष्मी) को आनंदित करता है। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान की
लीलाओं को अपूर्व और रसपूर्ण बताता है। उनकी लीलाएँ लक्ष्मी को आनंदित करती हैं और
समय की सीमाओं को लाँघती हैं। यह उनकी अलौकिक शक्ति और प्रेम को दर्शाता है।
 
अचिन्त्यदिव्याद्भुतनित्ययौवनस्वभावलावण्यमयामृतोदधिम्। 
श्रियः श्रियं
भक्तजनैकजीवितं समर्थमापत्सखमर्थिकल्पकम्।।45।।
 
हिंदी अनुवाद: 
अचिन्त्य, दिव्य, और नित्य यौवन से युक्त, लावण्यमय अमृत-सागर, लक्ष्मी की शोभा, भक्तों का एकमात्र जीवन, संकट में सखा और
कामनाओं को पूर्ण करने वाला। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान के
दिव्य स्वरूप और गुणों का वर्णन करता है। वे लक्ष्मी की शोभा, भक्तों का आधार, और संकट में सहायक हैं। उनकी
सुंदरता और कृपा अमृत-सागर की तरह है।
 
भगवन्तमेवानुचरन्निरन्तरं
प्रशान्तनिश्शेषमनोरथान्तरः। 
कदाहमैकान्तिकनित्यकिङ्करः
प्रहर्षयिष्यामि सनाथजीवितः।।46।।
 
हिंदी अनुवाद: 
निरंतर तेरा अनुसरण करते हुए, सभी मनोरथों से शांत, मैं कब एकनिष्ठ और नित्य सेवक बनकर, सनाथ जीवन के साथ तुझे प्रसन्न करूँगा?
 
व्याख्या:  
भक्त अपनी एकनिष्ठ
और नित्य सेवा की इच्छा व्यक्त करता है। वह सभी इच्छाओं से मुक्त होकर भगवान को
प्रसन्न करने की कामना करता है, जो
शरणागति और भक्ति की गहराई को दर्शाता है।
 
धिगशुचिमविनीतं
निर्भयं मामलज्जं 
परमपुरुष योऽहं
योगिवर्याग्रगण्यैः। 
विधिशिवसनकाद्यैर्ध्यातुमत्यन्तदूरं 
तव परिजनभावं कामये
कामवृत्तः।।47।।
 
हिंदी अनुवाद: 
धिक्कार है मुझ
अशुद्ध, अविनीत, निर्भय और लज्जाहीन को, 
जो परमपुरुष, योगियों, ब्रह्मा, शिव, सनक आदि के लिए भी ध्यान करने में दूर है, 
फिर भी मैं कामनाओं
से भरा हुआ तेरा परिजन (सेवक) बनने की इच्छा करता हूँ। 
 
व्याख्या: 
भक्त अपनी कमियों
(अशुद्धता, अभिमान) को स्वीकार करता है और
भगवान की सेवा की इच्छा व्यक्त करता है, भले ही वह उनकी
महिमा से दूर हो। यह विनम्रता और शरणागति का भाव है।
 
 
अपराधसहस्रभाजनं
पतितं भीमभवार्णवोदरे। 
अगतिं शरणागतं हरे
कृपया केवलमात्मसात्कुरु।।48।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हजारों अपराधों का
भागी, भीषण संसार-सागर में डूबा, बिना सहारे का मैं, हे हरि, शरण में आया हूँ; केवल अपनी कृपा से मुझे अपना
बना ले। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक शरणागति
का भाव दर्शाता है। भक्त अपने पापों और संसार में डूबने की स्थिति को स्वीकार कर
भगवान की कृपा माँगता है। यह श्रीवैष्णव दर्शन में शरणागति की महत्ता को रेखांकित
करता है।
 
अविवेकघनान्धदिङ्मुखे
बहुधा सन्ततदुःखवर्षिणि। 
भगवन् भवदुर्दिने
पथः स्खलितं मामवलोकयाच्युत।।49।।
 
हिंदी अनुवाद: 
अविवेक के घने
अंधेरे में, दुखों की वर्षा करने वाले संसार
में, 
हे भगवन्, हे अच्युत, मार्ग से भटके मुझ पर दया की दृष्टि
डाल। 
 
व्याख्या: 
भक्त संसार को
अंधकारमय और दुखदायी बताता है और भगवान अच्युत से कृपा की याचना करता है। यह भक्त
की असहायता और भगवान की दया पर निर्भरता को दर्शाता है।
 
न मृषा परमार्थमेव
मे श्रृणु विज्ञापनमेकमग्रतः। 
यदि मे न दयिष्यसे
ततो दयनीयस्तव नाथ दुर्लभः।।50।।
 
हिंदी अनुवाद: 
मेरा यह निवेदन
सत्य और परमार्थ है, सुन; 
हे नाथ, यदि तू मुझ पर दया नहीं करेगा, तो तेरे लिए दया
का पात्र मिलना दुर्लभ होगा। 
 
व्याख्या: 
भक्त अपनी शरणागति
को सत्य बताता है और कहता है कि यदि भगवान उस पर दया नहीं करेंगे, तो उनकी दया का पात्र कोई और नहीं होगा। यह भगवान के आश्रितवत्सल स्वभाव
पर विश्वास को दर्शाता है।
  
 टिप्पणी:
ये श्लोक
श्रीवैष्णव परंपरा में भगवान विष्णु की महिमा, उनके सेवकों (गरुड़, शेष आदि) की भक्ति, और शरणागति के भाव को दर्शाते हैं। भक्त अपनी कमियों को स्वीकार करते हुए
भी भगवान की कृपा और सेवा की कामना करता है।  
 
तदहं त्वदृते न
नाथवान् मदृते त्वं दयनीयवान् न च। 
विधिनिर्मितमेतमन्वयं
भगवान् पलय मा स्म जीहपः।।51।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हे भगवान, तेरे बिना मेरा कोई नाथ नहीं, और मेरे बिना तू
दया का पात्र नहीं पाएगा। 
विधि (ब्रह्मा)
द्वारा निर्मित यह संबंध है; कृपया इसे
त्याग न कर। 
 
व्याख्या: 
भक्त भगवान के साथ
अपने अनन्य संबंध को व्यक्त करता है, कहता है कि वह बिना भगवान के अधूरा है और भगवान को भी उस जैसे भक्त की
आवश्यकता है। यह शरणागति और परस्पर निर्भरता का भाव दर्शाता है।
 
वपुरादिषु योऽपि
कोऽपि वा गुणतोऽसानि यथातथाविधः। 
तदयं तव
पादपद्मयोरहमद्यैव मया समर्पितः।।52।।
 
हिंदी अनुवाद: 
मेरा शरीर आदि जो
कुछ भी है, और जैसे भी गुणों वाला मैं हूँ, वह सब मैं आज ही तेरे चरणकमलों में समर्पित करता हूँ। 
 
व्याख्या: 
भक्त अपने शरीर, मन और गुणों को पूर्ण रूप से भगवान के चरणों में समर्पित करता है। यह
शरणागति का भाव है, जहाँ वह स्वयं को पूरी तरह भगवान को
अर्पित करता है।
 
मम नाथ यदस्ति
योऽस्म्यहं सकलं तद्धि तवैव माधव। 
नियतस्वमिति
प्रबुद्धधीरथवा किं नु समर्पयामि ते।।53।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हे नाथ, जो कुछ मेरा है और मैं जो हूँ, वह सब तेरा ही
है, हे माधव। 
जब मैं समझ गया कि
सब तेरा है, तो फिर मैं तुझे क्या समर्पित
करूँ? 
 
व्याख्या: 
भक्त कहता है कि
उसका सब कुछ भगवान का है। यह पूर्ण समर्पण और तत्त्वज्ञान का भाव है, जहाँ भक्त को आत्मज्ञान हो जाता है कि वह और उसका सब कुछ भगवान का ही है।
 
अवबोधितवानिमां यथा
मयि नित्यां भवदीयतां स्वयम्। 
कृपयैवमनन्यभोग्यतां
भगवन् भक्तिमपि प्रयच्छ मे।।54।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जैसे तूने मुझे
मेरी नित्य भवदीयता (तेरा होना) का बोध कराया, 
वैसे ही, हे भगवान, अपनी कृपा से मुझे एकनिष्ठ भक्ति
प्रदान कर, जो केवल तुझ में रमे। 
 
व्याख्या: 
भक्त भगवान से
प्रार्थना करता है कि जिस तरह उन्होंने उसे तत्त्वज्ञान दिया, उसी तरह एकनिष्ठ भक्ति भी दें, जो केवल भगवान
के लिए हो। यह भक्ति और ज्ञान की एकता को दर्शाता है।
 
तव
दास्यसुखैकसङ्गिनां भवनेष्वस्त्वपि कीटजन्म मे। 
इतरावसथेषु मा स्म
भूदपि मे जन्म चतुर्मुखात्मना।।55।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरे दासों के सुख
में संलग्न भवनों में मेरा जन्म कीट के रूप में भी हो, 
पर अन्यत्र, यहाँ तक कि ब्रह्मा के रूप में भी, मेरा जन्म न
हो। 
 
व्याख्या: 
भक्त कहता है कि वह
भगवान के भक्तों के बीच कीट के रूप में भी जन्म लेना चाहता है, लेकिन बिना भगवान की भक्ति के ब्रह्मा जैसे उच्च पद पर भी जन्म नहीं
चाहता। यह भक्ति की श्रेष्ठता को दर्शाता है।
 
सकृत्त्वदाकारविलोकनाशया
तृणीकृतानुत्तमभुक्तिमुक्तिभिः। 
महात्मभिर्मामवलोक्यतां
नय क्षणेऽपि ते यद्विरहोऽतिदुस्सहः।।56।।
 
हिंदी अनुवाद: 
जो महात्मा एक बार
तेरे स्वरूप के दर्शन की आशा से सांसारिक सुख और मोक्ष को तृणवत् मानते हैं, 
उनके साथ मुझे ले
चल, क्योंकि तेरा विरह एक क्षण भी
असहनीय है। 
 
व्याख्या: 
भक्त भगवान के
दर्शन की इच्छा रखता है और कहता है कि उनका विरह असहनीय है। वह उन भक्तों के साथ
रहना चाहता है जो सांसारिक सुख और मोक्ष को तुच्छ मानते हैं।
 
 
 
न देहं न प्राणान्न
च सुखमशेषाभिलषितं 
न चात्मानं
नान्यत्किमपि तव शेषत्वविभवात्। 
बहिर्भूतं नाथ
क्षणमपि सहे यातु शतधा 
विनाशं तत्सत्यं
मधुमथन विज्ञापनमिदम्।।57।।
 
हिंदी अनुवाद: 
न देह, न प्राण, न सुख, न
आत्मा, न कुछ और—तेरे शेषत्व (सेवा) के सिवा। 
हे नाथ, मैं एक क्षण भी इससे बाहर कुछ सहन नहीं कर सकता; यह मेरा सत्य निवेदन है, हे मधुमथन। 
 
व्याख्या: 
भक्त कहता है कि वह
केवल भगवान की सेवा चाहता है, और इसके
बिना वह कुछ भी सहन नहीं कर सकता। यह पूर्ण समर्पण और भक्ति का भाव है।
 
दुरन्तस्यानादेरपरिहरणीयस्य
महतो 
निहीनाचारोऽहं
नृपशुरशुभस्यास्पदमपि। 
दयासिन्धो बन्धो
निरवधिकवात्सल्यजलधे 
तव स्मारं स्मारं
गुणगणमितीच्छामि गतभीः।।58।।
 
हिंदी अनुवाद: 
अनंत, अनादि और अपरिहार्य संसार में मैं नीच आचरण वाला, पशु जैसा और अशुभ का आश्रय हूँ। 
हे दयासागर, हे बंधु, हे असीम प्रेम के सागर, मैं निर्भय होकर तेरे गुणों का स्मरण करना चाहता हूँ। 
 
व्याख्या: 
भक्त अपनी कमियों
को स्वीकार करता है और भगवान की दया और प्रेम पर भरोसा करते हुए उनके गुणों का
स्मरण करना चाहता है। यह शरणागति और भक्ति का भाव है।
अनिच्छन्नप्येवं
यदि पुनरितीच्छन्निव रज- 
स्तमश्छन्नच्छद्मस्तुतिवचनभङ्गीमरचयम्। 
तथापीत्थंरूपं
वचनमवलम्ब्यापि कृपया 
त्वमेवैवम्भूतं
धरणिधर मे शिक्षय मनः।।59।।
 
हिंदी अनुवाद: 
यदि मैं अनिच्छा से
भी, रजस्-तमस् से ढँकी चाटुकारिता
से यह स्तुति रचता हूँ, 
फिर भी, हे धरणिधर, इस वचन को आधार बनाकर अपनी कृपा से
मेरे मन को शिक्षित कर। 
 
व्याख्या: 
भक्त अपनी कमियों
(रजस्-तमस्) को स्वीकार करता है और कहता है कि यदि उसकी स्तुति भी अपूर्ण है, तो भगवान उसकी कृपा से उसके मन को सुधारें। यह विनम्रता और कृपा की याचना
है।
पिता त्वं माता
त्वं दयित तनयस्त्वं प्रियसुहृत् 
त्वमेव त्वं मित्रं
गुरुरसि गतिश्चासि जगताम्। 
त्वदीयस्त्वद्भृत्यस्तव
परिजनस्त्वद्गतिरहं 
प्रपन्नश्चैवं
सत्यहमपि तवैवास्मि हि भरः।।60।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तू ही पिता, माता, प्रिय पुत्र, सखा, मित्र, गुरु और जगत की गति है। 
मैं तेरा, तेरा सेवक, तेरा परिजन, तुझमें गति वाला हूँ; 
शरणागत हूँ और सत्य
है कि मैं तेरा ही बोझ हूँ। 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान को
सभी संबंधों का आधार बताता है। भक्त स्वयं को उनका सेवक, परिजन और शरणागत कहता है, और स्वीकार करता है कि
वह उनका बोझ है। यह पूर्ण शरणागति और भक्ति का भाव है।
टिप्पणी:
ये श्लोक
श्रीवैष्णव परंपरा में भगवान विष्णु के प्रति पूर्ण शरणागति, उनकी सर्वोच्चता, और भक्त की नित्य सेवा की
इच्छा को दर्शाते हैं। भक्त अपनी कमियों को स्वीकार करते हुए भगवान की कृपा और
समर्पण की याचना करता है। 
जनित्वाहं वंशे
महति जगति ख्यातयशसां 
शुचीनां युक्तानां
गुणपुरुषतत्त्वस्थितिविदाम्। 
निसर्गादेव
त्वच्चरणकमलैकान्तमनसां 
अधोऽधः पापात्मा
शरणद निमज्जामि तमसि।।61।।
 
हिंदी अनुवाद: 
मैं उस महान वंश
में जन्मा, जो जगत में यशस्वी, पवित्र, युक्त, और गुण, पुरुष, और
तत्त्वों की स्थिति को जानने वाला है, जो स्वभाव से ही
तेरे चरणकमलों में एकनिष्ठ है; फिर भी, हे शरणदाता, मैं पापात्मा नीचे-नीचे अंधकार में
डूब रहा हूँ। 
 
व्याख्या: 
भक्त अपने यशस्वी
और पवित्र वंश की महिमा बताता है, जो भगवान
के प्रति एकनिष्ठ है। लेकिन वह अपनी पापी प्रकृति के कारण अंधकार में डूब रहा है
और शरण माँगता है। यह विनम्रता और शरणागति का भाव दर्शाता है।
 
अमर्यादः
क्षुद्रश्चलमतिरसूयप्रसवभूः 
कृतघ्नो दुर्मानी
स्मरपरवशो वञ्चनपरः। 
नृशंसः पापिष्ठः
कथमहमितो दुःखजलधेर् 
अपारादुत्तीर्णस्तव
परिचरेयं चरणयोः।।62।।
 
हिंदी अनुवाद: 
मैं मर्यादाहीन, तुच्छ, चंचल बुद्धि, ईर्ष्या का स्रोत, कृतघ्न, अभिमानी, कामवासना में डूबा, और छल करने वाला हूँ। नृशंस और महापापी मैं इस
दुखों के अपार सागर से कैसे पार होकर 
तेरे चरणों की सेवा
करूँ? 
 
व्याख्या: 
भक्त अपनी कमियों
(मर्यादाहीनता, अभिमान, पाप आदि) को स्वीकार करता है और दुखों के सागर से पार होने की असमर्थता
व्यक्त करता है। वह भगवान के चरणों की सेवा की कामना करता है, जो शरणागति की गहराई को दर्शाता है।
 
रघुवर यदभूस्त्वं
तादृशो वायसस्य 
प्रणत इति
दयालुर्यच्च चैद्यस्य कृष्णः। 
प्रतिभवमपराद्धुर्मुग्धसायुज्यदोऽभूः 
वद किमपदमागस्तस्य
तेऽस्ति क्षमायाः।।63।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हे रघुवर, तूने प्रणत कौवे (जटायु) के प्रति दया दिखाई, 
और हे कृष्ण, चैद्य (शिशुपाल) जैसे अपराधी को भी सायुज्य मुक्ति दी। 
हर जन्म में अपराध
करने वाले को मुक्ति देने वाला तू, 
बता, तेरी क्षमा का कौन-सा अपराध ऐसा है जो पार न हो? 
 
व्याख्या: 
यह श्लोक भगवान की
असीम दया को दर्शाता है। जटायु और शिशुपाल जैसे भिन्न पात्रों को भी उन्होंने कृपा
दी। भक्त पूछता है कि उनकी क्षमा से कौन-सा अपराध बचा है, जो उनकी कृपा की सीमा को दर्शाता है।
ननु
प्रपन्नस्सकृदेव नाथ तवाहमस्मीति च याचमानः। 
तवानुकम्प्यस्स्मर्तः
प्रतिज्ञां मदेकवर्जं किमिदं व्रतं ते।।64।।
 
हिंदी अनुवाद: 
हे नाथ, जो एक बार भी कहता है, “मैं तेरा हूँ” और शरण माँगता
है, 
वह तेरी कृपा का
पात्र है, ऐसा तेरी प्रतिज्ञा है। 
फिर मेरे सिवा यह
नियम क्यों, यह तेरा कैसा व्रत है? 
 
व्याख्या: 
भक्त भगवान की
प्रतिज्ञा का उल्लेख करता है कि जो भी उनकी शरण लेता है, वह कृपा का पात्र है। वह विनम्रता से पूछता है कि फिर उसे छोड़कर यह नियम
क्यों, जो उनकी दया पर विश्वास को दर्शाता है।
 
अकृत्रिमत्वच्चरणारविन्दप्रेमप्रकर्षावधिमात्मवन्तम्। 
पितामहं नाथमुनिं
विलोक्य प्रसीद मद्वृत्तमचिन्तयित्वा।।65।।
 
हिंदी अनुवाद: 
तेरे चरणकमलों में
स्वाभाविक और परम प्रेम की सीमा को प्राप्त, 
आत्मनिष्ठ मेरे
पितामह नाथमुनि को देखकर, मेरे कुकर्मों को न सोचकर मुझ
पर प्रसन्न हो। 
 
व्याख्या: 
भक्त नाथमुनि
(श्रीवैष्णव परंपरा के प्रथम आचार्य) की भक्ति का उल्लेख करता है और प्रार्थना
करता है कि भगवान उनके कुकर्मों को न देखकर, नाथमुनि की भक्ति के कारण उस पर कृपा करें।
इति
यामुनमुनिविरचितं स्तोत्ररत्नं सम्पूर्णम्। 
हिंदी अनुवाद:
यामुनाचार्य द्वारा रचित यह स्तोत्ररत्न पूर्ण हुआ। 
स्तोत्ररत्न यामुनाचार्य द्वारा रचित एक भक्ति-प्रधान कृति है, जो श्रीवैष्णव परंपरा में भगवान विष्णु की महिमा, उनकी कृपा, और शरणागति के भाव को गहराई से व्यक्त करती है। ये अंतिम श्लोक (61-65) भक्त की विनम्रता, अपनी कमियों का स्वीकार, और भगवान की असीम दया पर पूर्ण विश्वास को दर्शाते हैं। भक्त अपनी पापी प्रकृति को स्वीकार करते हुए भी भगवान के चरणों में शरण माँगता है और उनकी सेवा की कामना करता है। उदाहरणों जैसे जटायु और शिशुपाल के माध्यम से भगवान की क्षमा और कृपा की व्यापकता को रेखांकित किया गया है। यह कृति भक्ति, तत्त्वज्ञान, और शरणागति का सुंदर संगम है।
स्तोत्ररत्न, यामुनाचार्य (आलवन्दार) द्वारा रचित श्रीवैष्णव परंपरा का एक अमूल्य भक्ति
ग्रंथ है। यह 65 श्लोकों का संग्रह भगवान नारायण (विष्णु) की महिमा, उनके दिव्य स्वरूप, और भक्तों के प्रति उनकी
असीम कृपा को गहनता से चित्रित करता है। यामुनाचार्य, श्रीवैष्णव
परंपरा के महान आचार्य, ने इस रचना में शरणागति (पूर्ण
समर्पण) के दर्शन को केंद्र में रखा है, जो भक्त की
विनम्रता, पापों का स्वीकार, और भगवान की दया पर विश्वास को दर्शाता है। यह आलेख स्तोत्ररत्न की रचना, इसके काव्यात्मक और दार्शनिक महत्व, और आधुनिक
युग में इसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है।
 
यामुनाचार्य और
स्तोत्ररत्न की पृष्ठभूमि
यामुनाचार्य (10वीं
शताब्दी) श्रीवैष्णव परंपरा के एक प्रमुख आचार्य थे, जिन्हें नाथमुनि के पौत्र और रामानुजाचार्य के गुरु के रूप में जाना जाता
है। उनकी विद्वता, भक्ति, और
वेदांत दर्शन की गहरी समझ ने उन्हें 'आलवन्दार'
(विजेता) का उपनाम दिलाया। स्तोत्ररत्न उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है, जिसमें वे भगवान विष्णु, उनके सेवकों (जैसे
गरुड़, शेष), और लक्ष्मी की
महिमा का वर्णन करते हैं। यह ग्रंथ न केवल भक्ति का गीत है, बल्कि श्रीवैष्णव दर्शन में शरणागति का आधार-स्तंभ भी है।
इस रचना का प्रारंभ
यामुनाचार्य, नाथमुनि, और पराशर मुनि जैसे आचार्यों की स्तुति से होता है, और फिर यह भगवान विष्णु के स्वरूप, गुणों, और लीलाओं की प्रशंसा में प्रवाहित होता है। अंतिम श्लोक भक्त की पूर्ण
शरणागति और भगवान की दया पर विश्वास को व्यक्त करते हैं।
 
स्तोत्ररत्न का
काव्यात्मक और दार्शनिक महत्व
स्तोत्ररत्न
संस्कृत साहित्य का एक रत्न है, जो अपनी
काव्यात्मक शैली और गहन दार्शनिक अर्थों के लिए प्रसिद्ध है। इसके प्रमुख तत्त्व
निम्नलिखित हैं:
  
शरणागति का दर्शन:
श्रीवैष्णव परंपरा
में शरणागति (पूर्ण समर्पण) भक्ति का सर्वोच्च रूप है। स्तोत्ररत्न में
यामुनाचार्य बार-बार अपनी कमियों (पाप, अभिमान, अज्ञान) को स्वीकार करते हैं और भगवान
की कृपा की याचना करते हैं। उदाहरण के लिए, श्लोक 62
में वे कहते हैं:
“अमर्यादः
क्षुद्रश्चलमतिरसूयप्रसवभूः... नृशंसः पापिष्ठः कथमहमितो दुःखजलधेर्
अपारादुत्तीर्णस्तव परिचरेयं चरणयोः।”
अर्थात्, मैं मर्यादाहीन, तुच्छ, और पापी हूँ; फिर भी, मैं तेरे चरणों की सेवा कैसे करूँ? यह शरणागति
की विनम्रता और भगवान की दया पर विश्वास को दर्शाता है।
  
भगवान की
सर्वोच्चता:
श्लोकों में भगवान
नारायण को विश्व का सृष्टिकर्ता, पालक, और संहारक बताया गया है। उनकी महिमा को ब्रह्मा, शिव, और इंद्र जैसे देवता भी नहीं नाप सकते
(श्लोक 11: “ब्रह्मा शिवः शतमखः परमस्वराडि त्येतेऽपि यस्य
महिमार्णवविप्रुषस्ते”)। उनके चरणकमल, दिव्य स्वरूप, और लक्ष्मी के साथ संबंध (श्लोक 37-39) उनकी अनन्यता को रेखांकित करते
हैं।
 
दिव्य स्वरूप का
वर्णन:
श्लोक 32-36 में
भगवान के स्वरूप का काव्यात्मक वर्णन है—पीले वस्त्र, कमलनयन, चमकते अधर, तुलसी
माला, और शंख-चक्र जैसे आयुध। यह वर्णन भक्त के मन में
उनके प्रति प्रेम और श्रद्धा को जागृत करता है। उदाहरण:
 “विराजमानोज्ज्वलपीतवाससं स्मितातसीसूनसमामलच्छविम्” (श्लोक 32)।
अर्थात्, चमकते पीले वस्त्र और फूलों जैसे स्मित से युक्त तेरा स्वरूप।
 
 भक्त और सेवकों की भूमिका:
श्लोकों में गरुड़, शेष, और अन्य सेवकों की भक्ति का वर्णन है
(श्लोक 40-43), जो भगवान की सेवा में विभिन्न रूप धारण
करते हैं। भक्त भी स्वयं को उनका दास मानता है (श्लोक 55: “तव दास्यसुखैकसङ्गिनां
भवनेष्वस्त्वपि कीटजन्म मे”)।
 कृपा और क्षमा की व्यापकता:
श्लोक 63 में जटायु और शिशुपाल के उदाहरण से भगवान की असीम क्षमा को दर्शाया गया है। भक्त पूछता है: “वद किमपदमागस्तस्य तेऽस्ति क्षमायाः” (तेरी क्षमा का कौन-सा अपराध पार नहीं कर सकता?)। यह उनकी दयालुता को रेखांकित करता है।
आधुनिक संदर्भ में
प्रासंगिकता
स्तोत्ररत्न केवल एक प्राचीन ग्रंथ नहीं, बल्कि आधुनिक युग में भी प्रासंगिक है। इसके कुछ प्रमुख संदेश और अनुप्रयोग निम्नलिखित हैं:
आध्यात्मिक शांति
और शरणागति:
आज के तनावपूर्ण
जीवन में, शरणागति का भाव मन को शांति
देता है। स्तोत्ररत्न हमें सिखाता है कि अपनी कमियों को स्वीकार कर और उच्च शक्ति
(भगवान) पर विश्वास रखकर हम दुखों से पार पा सकते हैं। श्लोक 48 में भक्त कहता है:
“अपराधसहस्रभाजनं पतितं भीमभवार्णवोदरे... कृपया केवलमात्मसात्कुरु” (हزارों
अपराधों का भागी मैं, कृपया मुझे अपना बना ले)। यह
आधुनिक जीवन में आत्म-स्वीकृति और विश्वास का संदेश देता है।
नैतिक और सामाजिक
मूल्य:
स्तोत्ररत्न में
विनम्रता, कृतज्ञता, और समर्पण जैसे मूल्य हैं, जो आज के समाज में
व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के लिए आवश्यक हैं। श्लोक 60 में भक्त कहता है: “पिता
त्वं माता त्वं... त्वदीयस्त्वद्भृत्यस्तव परिजनस्त्वद्गतिरहं” (तू ही पिता, माता, और मेरा सब कुछ है)। यह सभी को एक परिवार
के रूप में देखने का संदेश देता है।
 
प्रमुख श्लोकों का
सार
 स्तोत्ररत्न के 65 श्लोकों में से कुछ प्रमुख थीम्स और उनके उदाहरण
निम्नलिखित हैं:
 श्लोक 1-5: यामुनाचार्य, नाथमुनि, और पराशर मुनि की स्तुति, जो परंपरा और
गुरु-शिष्य संबंध को दर्शाते हैं।
उदाहरण:
“स्वादयन्निह सर्वेषां त्रयन्तार्थं सुदुर्ग्रहम्” (श्लोक 1) – यामुनाचार्य वेदों
के गूढ़ अर्थ को सरल करते हैं।
श्लोक 11-15: भगवान
की सर्वोच्चता और उनके गुणों की प्रशंसा।
उदाहरण: “स्वाभाविकानवधिकातिशयेशितृत्वं” (श्लोक 11) – नारायण का प्रभुत्व असीम है।
 
श्लोक 27-30: भगवान
के चरणकमलों की महिमा और शरणागति।
उदाहरण:
“तवामृतस्यन्दिनि पादकङ्कजे” (श्लोक 27) – चरणकमल अमृत-रस बहाते हैं।
 
श्लोक 32-36: भगवान
के दिव्य स्वरूप का काव्यात्मक वर्णन।
उदाहरण:
“विराजमानोज्ज्वलपीतवाससं” (श्लोक 32) – पीले वस्त्रों से युक्त स्वरूप।
 
श्लोक 48-65:
शरणागति, भक्त की विनम्रता, और भगवान की कृपा की याचना।
उदाहरण:
“अपराधसहस्रभाजनं पतितं भीमभवार्णवोदरे” (श्लोक 48) – मैं पापी हूँ, कृपया मुझे अपना बना ले। 
निष्कर्ष
स्तोत्ररत्न एक
कालजयी रचना है, जो भक्ति, दर्शन, और काव्य का सुंदर संगम है। यामुनाचार्य
ने इसमें शरणागति के दर्शन को इतनी गहराई से प्रस्तुत किया है कि यह आज भी
प्रासंगिक है। यह हमें सिखाता है कि अपनी कमियों को स्वीकार कर, उच्च शक्ति पर विश्वास रखकर, और विनम्रता से
जीवन जीकर हम आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति कर सकते हैं। 
 





 
 
 
 
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