पूजा में प्रयोग होने वाले पारिभाषिक शब्दों के अर्थ

अष्टधातु – सोना, चांदी, लोहा, तांबा , जस्ता, रांगा, कांसा और पारा ।
अष्टगंध – [देवपूजन हेतु] अगर , तगर, गोरोचन, केसर, कस्तूरी , श्वेत चन्दन, लाल चन्दन और सिन्दूर
अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है । घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं । अर्घ्य पात्र में दूध , तिल, कुशा के टुकड़े, सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है ।
अयाचित व्रत - बिना माँगे जो मिल जाये उसे उचित समय अथवा रात्रि में भोजन करें। परन्तु इसमें भी खाद्याखाद्य का विचार आवश्यक है।
अंगन्यास – ह्रदय , शिर , शिखा , कवच, नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं |
आचमन – हथेली पर कलाई के पास का हिस्सा ब्रह्मतीर्थ कहलाता है। ब्रह्मतीर्थ के द्वारा जल के कुछ बूंद को पीने की क्रिया को आचमन कहते हैं । गोकर्णाकृतिवत् करं कृत्वा तिष्ठन् न प्रणतो न हसन्न जल्पन् न व्रजन् नोष्णाभिर्न विवर्णाभिर्न बुद्बुदाभिः न चलो जलं माषमग्नमात्रं पिबेत् । ब्राह्मणस्य दक्षिणे हस्ते पञ्च तीर्थानि पञ्च दैवतानि भवन्ति । गाय के कान के समान हथेली को करके विना हंसे, बोले, चले ब्रह्मतीर्थ से एक उड़द के बराबर जल पीना चाहिए।
उपवास - आदि से अन्त तक अन्न ग्रहण न करते हुए भगवद्भक्ति करना उपवास कहा जाता है।
एकभुक्त - दिन में एक बार भोजन करना एकभुक्त व्रत है।
करन्यास – अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है।
गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम ।
तर्पण – नदी , सरोवर , आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर, हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है । जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो ,वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है ।
त्रिधातु – सोना , चांदी और लोहा |कुछ आचार्य सोना , चांदी, तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं |
दशोपचार पूजन - पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य समर्पित करना पूजन है।
दशांश – दसवां भाग ।
दिन विभाग - दिन को पाँच भागों में विभक्त करने पर क्रमशः प्रातः, पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न और सायाह्न होते हैं।
निर्जला व्रत - आरम्भ से अन्त तक एक बूंद भी जल न ग्रहण करें।
निशीथ काल - अर्धरात्रि को निशीथ काल कहा जाता है।
नैवेध्य – खीर, मिष्ठान आदि वस्तुएं |
नक्तव्रत - दिन भर उपवास करके रात्रि में तारे निकलने पर एक बार भोजन करना नक्तव्रत है।
नवग्रह – सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुर , शुक्र, शनि, राहु और केतु ।
नवरत्न – माणिक्य, मोती, मूंगा , पन्ना, पुखराज , हीरा , नीलम, गोमेद, और वैदूर्य |
पंचोपचार पूजन - इष्टदेव को गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य निवेदित करना पंचोपचार पूजन है।
पंचदेव - इनमें शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य एवं शक्ति की गणना की जाती है।
पंचपल्लव - इनमें पीपल, गूलर, पाकर, आम और बरगद के पल्लव आते हैं।
पंचगव्य - गोमूत्र एक पल, गोमय आधा अँगूठा के बराबर, गोदुग्ध सात पल, गोदधि तीन पल, गोघृत एक पल और कुशोदक एक पल मंत्रों द्वारा मिलाना चाहिये।
पंचामृत - गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, मधु और चीनी मिलाने से पंचामृत बनता है।
पंचरत्न - सोना, हीरा, नीलमणि, पद्मराग और मोती।
पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प, पत्र, फल, छाल,और जड़ । ज्योतिष शास्त्र में - तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण को पंचांग कहा जाता है।
पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा, तांबा और जस्ता ।
प्रदोष काल - सूर्यास्त के बाद की दो घटी (४८ मिनट) का समय प्रदोषकाल कहलाता है।
फलाहार - व्रत में एक बार खाद्य फलों का आहार करना फलाहार है।
भोजपत्र – भोज वृक्ष की छाल ।
मंत्र - मंत्रों में वैदिक अथवा पौराणिक लेना चाहिये। यदि असमर्थ हों तो नाम- मंत्र से ही पूजन करें।
मुद्राएँ – हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है | मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं
षोडशोपचार पूजन – पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान , वस्त्र, अलंकार, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवैध्य, अक्षत, ताम्बूल, स्तवपाठ, तर्पण तथा नमस्कार इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं |
सम्पुट – मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना |
स्नान – यह दो प्रकार का होता है | बाह्य तथा आतंरिक , बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है |
सप्तधान्य - इसमें जौ, धान, तिल, ककुनी, मूग, चना और साँवा की गणना की जाती है।
अंगन्यास – ह्रदय ,शिर, शिखा, कवच, नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों को मन्त्र पाठ पूर्वक स्पर्श करने की क्रिया को 'अंगन्यास' कहते हैं।
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