अलंकार परिचय

 'अलङ्करोतीति अलङ्कार' या अलङ्क्रियतेऽनेनेति अलङ्कारः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सुशोभित करने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं।

अलङ्कार शब्द का अर्थ - आभूषणवाची अलम्' अव्यय पूर्वक 'कृ' धातु से घञ् प्रत्यय लगाने पर अलङ्कार शब्द बनता है। अलङ्कार शब्द का सामान्य अर्थ सजावट या आभूषण है। इसकी चार प्रकार से व्युत्पत्ति की जाती है अतः इसके चार अर्थ होते है -

 (1) 'अलङ्करोति इत्यलङ्कारः' - जो सुशोभित करता है, वह अलंकार है।

(2) 'अलङ्क्रियतेऽनेन इत्यलकारः' - जिसके द्वारा अलंकृत (सुशोभित) किया जाये वह अलंकार है।

(3) अलङ्कृतिः अलङ्कारः' - जो भूषण रूप हो, वह अलंकार है।

(4) 'अलङ्करणं अलंकारः' - अलङ्करण (आभूषण) को अलङ्कार कहा जाता है।

इस प्रकार जिन शब्दों एवं अर्थों से काव्य को सुन्दर, आकर्षक एवं आह्लादक बनाया जाता है, उस धर्म को अलंकार कहा है। काव्यों में अलंकार की महत्ता को बताने के लिए अनेक आचार्यों ने अलंकार के स्वरूप को स्पष्ट किया है।

अग्निपुराण में अलंकार का स्वरूप -

'अलंकाररहित विधवेव सरस्वती। अग्निपुराण, 343-12

अर्थ- अलंकार से रहित वाणी विधवा स्त्री के समान दुर्भगा होती है।

दण्डी के अनुसार अलंकार का स्वरूप -

'काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते"। काव्यादर्श 2/11

अर्थ- काव्य के शोभाकारक धर्म को अलंकार कहते हैं।

भामह के अनुसार अलंकार का स्वरूप -

'न कान्तमपि निर्भूष विभाति वनितामुखम्'। काव्यालंकार, भामह, 1/131

अर्थ- भामिनी का मुख सुन्दर होने पर भी अलङ्कार से रहित होने पर सुन्दर नहीं होता।

वामन के अनुसार अलंकार का स्वरूप -

'सौन्दर्यमलङ्कारः''। काव्यालंकारसूत्र, 1/21

अर्थ- काव्य सौन्दर्य के आधानतत्व अलंकार है।

मम्मट के अनुसार अलंकार का स्वरूप –

'उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित्।

हारादिवदलङ्कारास्ते अनुप्रासोपमादयः।।' काव्यप्रकाश, प्र. 8/871

अर्थ- जो काव्यगत अङ्गी रस को, शब्द एवं अर्थरूप अङ्गों के द्वारा कभी-कभी उपकृत करते हैं। वे हार आदि अलङ्करणों के समान अनुप्रास, उपमा आदि है।

जयदेव के अनुसार अलंकार का स्वरूप

'शब्दार्थयो प्रसिद्धया या कवेः प्रौढिवशेन वा।

हारादिवदलङ्कारः सत्रिवेशो मनोहरः।।'' चन्द्रालोक, 5/11

अर्थ - जिस तरह पुरुष अथवा स्त्री के शरीर पर उचित स्थान पर धारण किये गये हार कुण्डल आदि अलङ्करण उसे शोभित करते हैं, उसी तरह कवि की प्रगल्भ कल्पना से शब्द और अर्थ का सुन्दर विन्यास काव्यशरीर को अलंकृत करता हुआ अलंकार कहलाता है।

विश्वनाथ के अनुसार अलंकार का स्वरूप  

'शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः।

रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारा स्तेऽङ्गदादिवत्।।' साहित्य दर्पण, 10/11

अर्थ - जैसे मानव शरीर की शोभा आभूषण बढ़ाते हैं, वैसे ही शब्द एवं अर्थ में जो शोभाबर्द्धक अस्थिर धर्म, वह काव्य के अङ्गीतत्व रसादि के उपकारक अलंकार है।

आनन्दवर्धन के अनुसार अलंकार का स्वरूप

अङ्गाश्रितास्त्वलङ्कारा मन्तव्याः कटकादिवत्।' ध्वन्यालोक, 6/11

अर्थ- काव्य के अङ्गरूप शब्द और अर्थ के आश्रित रहने वाले हैं, वे कटकादि आभूषणों की तरह अलंकार है।

अलंकार के भेद-

1.    शब्दालंकार

2.    अर्थालंकार

3.    उभयालंकार

इस पाठ में आपको शब्दालंकार तथा अर्थालंकार के महत्वपूर्ण भेद का लक्षण एवं उदाहरण बताया जा रहा है।

शब्दालंकार

1.   अनुप्रास

अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत् । 

स्वरमात्रसादृश्यं तु वैचित्र्याभावान्नगणितम् । रसानुगतत्वेन प्रकर्षेण न्यासोऽनुप्रासः ।

'अनुप्रास' वह अलङ्कार है जिसे स्वर के साम्य के न होने पर भी (व्यञ्जन का सादृश्य) कहा करते हैं । केवल स्वर का भी सादृश्य हो सकता है किन्तु इसमें कोई चमत्कार नहीं हुआ करता । इसीलिये स्वर-सादृश्य की यहाँ कोई गिनती नहीं । रस-भाव की अनुकूलता अथवा अनुरूपता की दृष्टि से, व्यञ्जनों का एक प्रकृष्ट न्यास वस्तुतः 'अनुप्रास' अलङ्कार है ।

वृत्त्यनुप्रास

अनेकस्यैकधा साम्यमसकृद्धाऽप्यनेकथा ।

एकस्य सकृदप्येष वृत्त्यनुप्रास उच्यते ॥

एकधा स्वरूपत एव न तु क्रमतोऽपि । अनेकधा स्वरूपतः क्रमतश्च । सकृदपीत्यपि शब्दादसकृदपि । उदाहरणम्

'उन्मीलन्मधुगन्धलुब्धमधुपव्याधूतचूताङ्कुर

क्रीडत्कोकिलकाकलीकलकलैरुद्गीर्णकर्णज्वराः

नीयन्ते पथिकैः कथं कथमपि ध्यानावधानक्षण

प्राप्तप्राणसमासमागमरसोल्लासैरमी वासराः ।।

अत्र 'रसोल्लासैरमी' इति रसयोरेकचैव साम्यम्, न तु तेनैव क्रमेणापि । द्वितीये पादे, कलयोरसकृत्तेनैव क्रमेण । प्रथमे एकस्य यकारस्य सकृत्, धकारस्य चासकृत् । रसविषयव्यापारवती वर्णरचना वृत्तिः, सदनुगतत्वेन प्रकर्षेण न्यसनाद्वृत्त्यनुप्रासः ।

वृत्यनुप्रास' वह अनुप्रास है जिसमें अनेक व्यञ्जनों का एक प्रकार से (केवल स्वरूपतः न कि क्रमतः) साम्य, अथवा अनेक व्यञ्जनों का अनेक बार, अनेक प्रकार से (स्वरूपतः तथा क्रमतः) साम्य अथवा एक व्यञ्जन का एक बार या अनेक बार साम्य रहा करता है। 'यहाँ 'एकधा' (एक प्रकार से) का अर्थ केवल स्वरूप से न कि क्रम से भी व्यञ्जनों की समानता का अर्थ है । अनेकधा' (अनेक प्रकार से) का अभिप्राय स्वरूप और क्रम-दोनों प्रकारों से व्यञ्जन साम्य का अभिप्राय है। 'सकृदपि' में अपि कहने से यह तात्पर्य समझना चाहिये कि 'अनेक बार भी' व्यजनों के साम्य होने से 'वृत्त्यनुप्रास' अलंकार होता है। उदाहरण- बाहर निकली सुगन्ध से लुभाये हुये मधुकरों से कम्पित आम-मञ्जरियों पर क्रीडा करने में लगी कोयलों की कूक सुन-सुन कर जिनके कान पक गये हैं ऐसे विरही जन अपनी प्रेमिकाओं की स्मृति में ही अनेक मिलन के सुख का आनन्द मनाते हुये, बड़े दुःख से, इन दिनों को, किसी प्रकार काट रहे हैं। यहाँ 'रसोल्लासैरमी' में '' और '' व्यञ्जनों की, एक प्रकार से ही अर्थात् स्वरूप से ही, न कि क्रम से समानता है। दूसरे चरण में, '' और '' व्यजनों की, अनेक बार, उसी क्रम से समानता है। पहले चरण में '' व्यञ्जन की एक बार और '' व्यञ्जन की अनेक बार समानता है। इसलिये यह 'वृत्त्यनुप्रास' है। 'वृत्ति' ऐसी-वर्ण-रचना को कहते हैं जिसमें रस भाव को अभिव्यक्त करने की शक्ति हुआ करती है। ऐसी वृत्ति से अनुगत, व्यञ्जनों का प्रकृष्ट न्यास ही 'वृत्त्यनुप्रास' अलङ्कार कहा जाता है।

यमक

सत्यर्थे पृथगर्थायाः स्वरव्यञ्जनसंहतेः

क्रमेण तेनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते ।।

अत्र द्वयोरपि पदयोः क्वचित्सार्थकत्वं क्वचित्रिरर्थकत्वम् । क्वचिदेकस्य सार्थकत्वमपरस्य निरर्थकत्वम्, अत उक्तम् 'सत्यर्थे', इति । 'तेनैव क्रमेण' इति दमो मद इत्यादेर्विविक्तविषयत्वं सूचितम् । एतच्च प्रभूततमभेदम् । दिङ्मात्रमुदाह्रियते नवपलाशपलाशवनं पुरः स्फुटपरागपरागतपङ्कजम् । मृदुलतान्तलतान्तमलोकयत् स सुरभि सुरभि सुमनोभरैः ॥ अत्र पदावृत्ति । 'पलाश पलाश' इति, 'सुरभि सुरभि इत्यत्र च द्वयोः सार्थकत्वम् । 'लतान्तलतान्त' इत्यत्र प्रथमस्य निरर्थकत्वम्, 'पराग पराग' इत्यत्र द्वितीयस्य ।

 ‘श्लेष' वह अलङ्कार है जिस में श्लिष्ट पद के द्वारा अनेक अर्थ का प्रतिपादन हुआ करता है। वर्ण', 'प्रत्यय', 'लिङ्ग', 'प्रकृति, 'पद', विभक्ति' 'वचन', और 'भाषा'-- इनके श्लिष्ट होने के कारण, इसके आठ प्रकार होते हैं विधौ (भाग्य के अथवा चन्द्रमा के) 'प्रतिकूलतामुपगते' (प्रतिकूल हो जाने पर), बहुसाधनता विफलत्वमेति (सभी साधन निष्फल हो जाते हैं) । तभी तो, पतिष्यतः दिनभर्तुः करसहस्रमपि (अस्त होते अथवा नीचे गिरते सूर्य के) कर सहस्र (हजारों किरण अथवा हजारों हाथ भी), अवलम्बनाय न अभूत् ( उसे सहारा देने में असमर्थ रहा करते हैं) ।' यहाँ 'विधी' इन पद में वर्ण- श्लेष है क्योंकि (सप्तमी विभक्ति के एकवचन में) 'विधि' और विधु' शब्द के इकार' और 'उंकार' दोनों का '' हो जाने से एकरूपत्व हुआ है । 'यह राजपुत्र सभी शास्त्रों को, हृदय में और विद्वानों के बीच, धारण करेगा तथा प्रतिपादन करेगा (वक्ष्यति = वह, प्रापणे' के लृट् लकार के एकवचन का रूप, जिसका अर्थ 'धारण करेगा' है तथा 'वच् परिभाषणे' के लुटूलकार के एक वचन का रूप, जिस का अर्थ 'प्रतिपादन करेगा' है। साथ ही साथ, यह अपने शत्रुओं और मित्रों का 'सामर्थ्यकृत्' (सामर्थ्य कृन्तीति सामर्थ्यवृत् = सामर्थ्य नष्ट करने वाला तथा सामर्थ्य करोतीति सामर्थ्यकृत् = सामर्थ्य उत्पन्न करने वाला अर्थात्) शक्तिनाशक और शक्तिवर्द्धक भी होगा ।" यहाँ 'प्रकृतिश्लेष' है क्योंकि 'वक्ष्यति' में 'वह' (प्रापणार्थक) और 'वच्' (भाषणार्थक) तथा 'सामर्थ्यकृत्' में 'कृती' (छेदनार्थक) और 'कृञ्' (उत्पादनार्थक ये प्रकृतियाँ श्लिष्ट हैं। 

श्लेष

श्लिष्टै: पदैरनेकार्थाभिधाने श्लेष इष्यते ।

वर्णप्रत्ययलिङ्गानां प्रकृत्योः पदयोरपि ॥५॥

श्लेषाद्विभक्तिवचनभाषाणामष्टधा च सः ।

दिङ्मात्रमुदाह्रियते-

प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता ।

अवलम्बनाय दिनभर्तुरभू-

न्न पतिष्यतः करसहस्त्रमपि

अत्र 'वक्ष्यती' ति विधु-विधि-शब्दयोरुकारेकारयोरौकाररूपत्वाच्छ्रलेषः ।

अयं सर्वाणि शास्त्राणि हृदि ज्ञेषु च वक्ष्यति ।

सामर्थ्यकृदमित्राणां मित्राणा च नृपात्मजः ॥

अत्र 'वक्ष्यती'ति वहि-वच्योः, 'सामर्थ्यकृद्' इति कृन्ततिकरोत्याः प्रकृत्योः ।

'श्लेष' वह अलङ्कार है जिस में श्लिष्ट पद के द्वारा अनेक अर्थ का प्रतिपादन हुआ करता है। 'वर्ण', 'प्रत्यय', 'लिङ्ग', 'प्रकृति, 'पद', विभक्ति' 'वचन', और 'भाषा'- इनके श्लिष्ट होने के कारण, इसके आठ प्रकार होते हैं- विधी (भाग्य के अथवा चन्द्रमा के) 'प्रतिकूलतामुपगते' (प्रतिकूल हो जाने पर), बहुसाधनता विफलत्वमेति (सभी साधन निष्फल हो जाते हैं) । तभी तो, पतिष्यतः दिनभर्तुः करसहस्रमपि (अस्त होते अथवा नीचे गिरते सूर्य के) कर सहस्र (हजारों किरण अथवा हजारों हाथ भी), अवलम्बनाय न अभूत् (उसे सहारा देने में असमर्थ रहा करते हैं) ।' यहाँ 'विधी' इन पद में वर्ण- श्लेष है क्योंकि (सप्तमी विभक्ति के एकवचन में) 'विधि' और 'विधु' शब्द के 'इकार' और 'उंकार' दोनों का '' हो जाने से एकरूपत्व हुआ है। 'यह राजपुत्र सभी शास्त्रों को, हृदय में और विद्वानों के बीच, धारण करेगा तथा प्रतिपादन करेगा (वक्ष्यति = वह, प्रापणे' के लृट् लकार के एकवचन का रूप, जिसका अर्थ 'धारण करेगा' है तथा 'वच् परिभाषणे' के लुट्लकार के एकवचन का रूप, जिस का अर्थ 'प्रतिपादन करेगा' । साथ ही साथ, यह अपने शत्रुओं और मित्रों का 'सामर्थ्यकृत्' (सामर्थ्य कृन्तीति सामर्थ्यकृत् सामर्थ्य नष्ट करने वाला तथा सामर्थ्य करोतीति सामर्थ्यकृत् = सामर्थ्य उत्पन्न करने वाला = अर्थात्) शक्तिनाशक और शक्तिवर्द्धक भी होगा।" यहाँ 'प्रकृतिश्लेष' है क्योंकि 'वक्ष्यति' में 'वह्' (प्रापणार्थक) और 'वच्' (भाषणार्थक) तथा 'सामर्थ्यकृत्' में 'कृती' (छेदनार्थक) और 'कृञ्' (उत्पादनार्थक ये प्रकृतियाँ श्लिष्ट हैं।

अर्थालङ्कार में उपमा अलंकार

साम्यं वाच्यमवैधम्यं वाक्यैक्य उपमा द्वयोः ॥

रूपकादिषु साम्यस्य व्यङ्ग्यत्वम्, व्यतिरेके च वैधर्म्यस्याप्युक्तिः, उपमेयोपमायां वाक्यद्वयम्, अनन्वये त्वेकस्यैव साम्योक्तिरित्यस्या भेदः । सा पूर्णा यदि सामान्यधर्म औपम्यवाचि च । उपमेयं चोपमानं भवेद्वाच्यम् सा उपमा । साधारणधर्मो द्वयोः सादृश्यहेतू गुणक्रिये मनोज्ञत्वादि । औपम्यवाचकमिवादि । उपमेयं मुखादि । उपमानं चन्द्रादि । 'श्रौती यथेन वाशब्दा इवार्थी वा बतिर्यदि । आर्थी तुल्यसमानाद्यास्तुल्यार्थी यत्र वावतिः

यहाँ एक वस्तु में अनेक प्रकार का उल्लेख है। किन्तु इसका कारण (रुचि आदि नहीं अपितु) गम्भीरता आदि के विषयों का भेद है।

रूपक

रूपकं रूपितारोपो विषये निरपह्नवे ।

रूपित' इति परिणामाद्व्यवच्छेदः । 'निरपह्नव' इत्यपह्नुतिव्यवच्छेदार्थम् ।

यथा-

'आहवे जगदुद्दण्डराजमण्डलराहवे ।

श्रीनृसिंहमहीपाल स्वस्त्यस्तु तव बाहवे ।।"

'रूपक' वह है जिसमें 'निरपह्नव विषय' पर अर्थात् ऐसे उपमेय पर, जिसका अपह्नव या निषेध न किया जाय, 'रूपित' अथवा भेदरहित उपमान का आरोप दिखाया जाया करता है। यहाँ रूपित' इस लिये कहा गया जिससे परिणाम' अलङ्कार से रूपक का भेद पता चले । 'परिणाम' अलङ्कार के प्रसङ्ग में इसका स्पष्टीकरण किया जायगा । 'निरपह्नवे' इस लिये कहा गया जिसमें 'रूपक' को 'अपह्नुति' से भिन्न समझा जाय । हे महाराज नृसिंह देव ! संग्राम में, संसार के उद्दण्ड राजमण्डल (चन्द्रमण्डल रूप राजमण्डल) के लिये राहु रूप आपके भुजदण्ड मंगलमय हो ।

उत्प्रेक्षा

भवेत्संभावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना ।। 15।।

'तन्वङ्ग्याः स्तनयुग्मेन मुखं न प्रकटीकृतम् ।

हाराय गुणिने स्थानं म दत्तमिति लज्जया ॥

'उत्प्रेक्षा' वह अलङ्कार है जिसमें प्रकृत अथवा उपमेय की उपमान के रूप में कल्पना की जाती है । इस सुन्दरी के स्तनयुगल ने अपना मुख इसलिये नहीं दिखाया क्योंकि गुणी (सूत में गुंथे) हार के लिये स्थान न देने से उसे लज्जा लगी ।' यहाँ 'प्रतीयमानोत्प्रेक्षा' इसलिये है क्योंकि यहाँ 'लज्जा' के हेतु की जो संभावना की गयी है उसके साथ उत्प्रेक्षावाचक 'इव' आदि का प्रयोग नहीं किया गया ।

अतिशयोक्ति

सिद्धत्वेऽध्यवसायस्यातिशयोक्तिर्निगद्यते ।

विषयनिगरणेनाभेदप्रतिपत्तिर्विषयिणोऽध्यवसाय: ।।

यथा -

'कथमुपरि कलापिनः कलापो 

विलसति तस्य तलेऽष्टमीन्दुखण्डम् । 

कुवलययुगलं ततो विलोलं 

तिलकुसुमं तदधः प्रवालमस्मात् ॥

अत्र कान्ताकेशपाशादेर्मयूरकलापादिभिरभेदेनाध्यवसायः । 

अतिशयोक्तिवह है जिसमें 'अध्यवसाय; अर्थात् विषय (उपमेय) के निवारणपूर्वक विषयी (उपमान) के साथ अभेद-ज्ञान सिद्ध रूप में रहा करता है (उत्प्रेक्षा की भाँति साध्यरूप में नहीं) । जैसे 'कैसा आश्चर्य है। सबसे ऊपर मोर की पूंछ दिखायी दे रही है, उसके 'नीचे अष्टमी का चन्द्रमा सुशोभित हो रहा है, उसके नीचे चञ्चल दो नीले कमल झांक रहे हैं, उनके नीचे तिल का फूल दिखायी दे रहा है और उसके नीचे मूंगा झलक रहा है।' यहाँ रमणी के केशपाश आदि (विषयी अथवा उपमेय) का मयूरपिच्छ आदि (विषय अथवा उपमान) के रूप में अध्यवसान स्पष्ट है ।

भ्रान्तिमान्

साम्यादतस्मिंस्तद्बुद्धिर्भ्रान्तिमान् प्रतिभोत्थितः ।।13।। 

यथा-

'मुग्धा दुग्धधिया गवां विदधते कुम्मानधो वल्लवाः 

कर्णे कैरवशङ्कया कुवलयं कुर्वन्ति कान्ता अपि । 

कर्कन्धूफलमुच्चिनोति शवरी मुक्ताफलाशङ्कया

सान्द्रा चन्द्रमसो न कस्य कुरुते चित्तभ्रमं चन्द्रिका । 

'अस्वरसोत्थापिता भ्रान्तिर्नायमलङ्कारः । 

यथा- 'शुक्तिकायां रजतम्' इति । 

‘भ्रान्तिमान्, वह अलङ्कार है जिसे साम्य अथवा सादृश्य के कारण किसी वस्तु में किसी अन्य । वस्तु का ऐसा ज्ञान कहा जाता है जिसमें कवि की प्रतिभा का हाथ दिखायी दिया करता है । जैसे वे- चन्द्रमा की यह छिटकती घनी चांदनी किस के मन में भ्रम नहीं उत्पन्न कर सकती । मुग्धबुद्धि गोप जब दूध बहने के भ्रम से गाँवों के नीचे घड़े लगा रहे हैं; कामिनियाँ, श्वेत कमलों के धोखे में, नील कमलों को कानों में लगा रही हैं और भीलों की स्त्रियां मोती के भ्रम में पड़कर कर्कन्यू (बेर) के फल बटोर रही हैं। 'भ्रान्तिमान्' अलङ्कार, उस प्रकार के भ्रम में जो कि 'सीप में चांदी' आदि के अनुभवों में रहा करता है और जिसमें कोई चमत्कार नहीं होता है वहाँ, नहीं माना जाता है।

सन्देह

सन्देहः प्रकृतेऽन्यस्य संशयः प्रतिभोत्थितः ।।१२।। 

'किं तारुण्यतरोरियं रसभरेद्भिन्ना नवा वल्लरी 

वेलाप्रोच्छलितस्य किं लहरिका लावण्यवारांनिधेः । 

उद्गाढोत्कलिकावतां स्वसमयोपन्यासविश्रभिणः 

किं साक्षादुपदेशयष्टिरथवा देवस्य श्रृंगारिणः ।।

'संदेह' वह अलङ्कार है जिसमें प्रकृत (उपमेय) में, अप्रकृत (उपमान) का ऐसा संशय रहा करता है जिसमें कवि की प्रतिभा का हाथ दिखायी दिया करता है। 'क्या यह तरुणी', रसभार से खिली, नव यौवन-पादप की नयी मंजरी है ? अथवा क्या यह तट पर उछलती, लावण्य-सार की कोई लहर है ? अथवा कहीं ऐसा तो नहीं कि यह, अत्यधिक उत्कण्ठित प्रेमी जनों को कामशास्त्र की शिक्षा देने वाले शृंगार के अधिपति कामदेव की 'उपदेश-यष्टि' (छड़ी) है ?

दृष्टान्त

दृष्टान्तस्तु सधर्मस्य वस्तुनः प्रतिबिम्बनम् । 

सधर्मस्येति प्रतिवस्तूपमाव्यवच्छेदः । 

उदाहरणम्-

'अविदितगुणापि सत्कविभणितिः कर्णेषु वमति मधुधाराम् । 

अनधिगतपरिमलापि हि हरति दृशं मालतीमाला ॥" 

'दृष्टान्त' वह अलङ्कार है जिसमें दो वाक्यों में, धर्म सहित 'वस्तु' (उपमान और उपमेय रूप धर्मों) का बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव झलका करता है । यहां 'सधर्मस्य इसलिये कहा गया जिसमें 'दृष्टान्त' से 'प्रतिवस्तूपमा' को पृथक् समझा जाय।

उदाहरण -

'अच्छे कवियों की सूक्तियाँ, चाहे उनके गुणों का पता हो न हो, कानों में मधुधार उड़ेल देती है। मालती की माला भी, भले ही उसकी सुगन्ध पहचानी न गयी हो, दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है ।'

अपह्नुतिः

प्रकृतं प्रतिषिध्यान्यस्थापनं स्यादपह्नुतिः

यथा

'नेदं नभोमण्डलमम्बुराशि नैताश्च तारा नवफेनभङ्गाः ।

नायं शशी कुण्डलितः फणीन्द्रो नासौ कलङ्कः शयितो मुरारिः ॥' ‘

अपह्नुति' अलङ्कार वह है जिसमें प्रकृत अथवा उपमेय का निषेध करके अन्य अथवा उपमान का स्थापन किया जाता है। जैसे 'यह आकाश नहीं यह समुद्र है; ये तारे नहीं नये-नये फेन के बुलबुले हैं; यह चन्द्रमा नहीं, यह कुण्डली मार कर बैठा शेषनाग है और यह कलङ्क नहीं अपितु शेषशायी विष्णु हैं।' १६- उत्प्रेक्षा भवेत्संभावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना 'तन्वङ्ग्ग्याः स्तनयुग्मेन मुखं न प्रकटीकृतम् । ।।१५।। हाराय गुणिने स्थानं म दत्तमिति लज्जया |" ‘उत्प्रेक्षा' वह अलङ्कार है जिसमें प्रकृत अथवा उपमेय की उपमान के रूप में कल्पना की जाती है । इस सुन्दरी के स्तनयुगल ने अपना मुख इसलिये नहीं दिखाया क्योंकि गुणी (सूत में गुंथे) हार के लिये स्थान न देने से उसे लज्जा लगी ।" यहाँ 'प्रतीयमानोत्प्रेक्षा' इसलिये है क्योंकि यहाँ 'लज्जा' के हेतु की जो संभावना की गयी है। उसके साथ उत्प्रेक्षावाचक 'इव' आदि का प्रयोग नहीं किया गया ।

दीपकम्

अप्रस्तुतप्रस्तुतयोर्दीपकं तु निगद्यते ।

अथ कारकमेकं स्यादनेकासु क्रियासु चेत् ।।

क्रमेणोदाहरणम् 'बलावलेपादधुनापि पूर्ववत् प्रबाध्यते तेन जगजिगीषुणा सतीव योषित् प्रकृतिश्च निश्चला पुमांसमभ्येति भवान्तरेष्वपि अत्र प्रस्तुतायाः निश्चलायाः प्रकृतेः प्रस्तुतायाश्च योषित एकानुगमनक्रियासंबन्धः । 'दूरं समागतवति त्वयि जीवनाथे भित्रा मनोभवशरेण तपस्विनी सा । उत्तिष्ठति स्वपिति वासगृहं त्वदीय मायाति याति हसति श्वसिति क्षणेन ॥ अत्र कस्या नायिकाया उत्थानाद्यनेकक्रियासंबन्धः ।

'दीपक' वह है जिसमें अप्रस्तुत और अप्रस्तुत पदार्थों में एक धर्म का संबन्ध बताया रहता है अथवा अनेक क्रियाओं में एक कारक निर्दिष्ट रहता है। क्रमशः उदाहरण 'विजयाभिलाषी वह शिशुपाल, पहले की तरह, अब भी सारे संसार को कष्ट पहुंचा रहा है । सती-साध्वी स्त्री और कभी न बदलने वाली प्रकृति, वस्तुतः, जन्मान्तर में भी मनुष्य का साथ दिया करती हैं । 'यहाँ 'निश्चल प्रकृति' प्रस्तुत पदार्थ है और 'सती-साध्वी स्त्री' अप्रस्तुत पदार्थ और दोनों में अनुगमन रूप एक क्रिया का संबन्ध निर्दिष्ट है । 'जब तुम' जो उसके प्राणनाथ रहे, उससे दूर चले आये, तब काम-बाणों से पीड़ित वह बेचारी कभी उठती है, कभी सोती है, कभी तुम्हारे निवास पर जाती है, कभी वहाँ से लौट पड़ती है, कभी हंसने लगती है और तुरंत ही आह भरने लगती है।' यहाँ उठने, सोने आदि की अनेक क्रियाओं के साथ एक 'नायिका' रूप कर्तृकारक का संबन्ध स्पष्ट दिखायी दे रहा है ।

अप्रस्तुतप्रशंसा

क्वचिद्विशेषः सामान्यात् सामान्यं वा विशेषतः ।।

कार्यान्निमितं कार्यं च हेतोरथ समात्समम् ।

अप्रस्तुतात् प्रस्तुतं चेद्गम्यते पञ्चधा ततः ॥

अप्रस्तुतप्रशंसा स्याद् यथा स्रगियं यदि जीवितापहा हृदये किं निहिता न हन्ति माम् । विषमप्यमृतं क्वचिद्भवे दमृतं वा विषमीश्वरेच्छया ।' अत्रेश्वरेच्छया क्वचिदहितकारिणोऽपि हितकारित्वं हितकारिणोऽप्याहितकारित्वमिति सामान्ये प्रस्तुते विशेषोऽ भिहितः ।

अप्रस्तुतप्रंसावह अलङ्कार है जिसमें १. प्रस्तुत 'सामान्य' से प्रस्तुत 'विशेष'; २. अप्रस्तुत से 'विशेष' से प्रस्तुत सामान्य', ३. अप्रस्तुत 'कार्य' से प्रस्तुत 'कारण', ४. अप्रस्तुत 'कारण' से से प्रस्तुत 'कार्य और ५. अप्रस्तुत 'समान वस्तु' से प्रस्तुत 'समान वस्तु' का अभिव्यंजन हुआ करता है। जैसे- 'यह माला यदि प्राण ले सकती है तब मेरे हृदय पर पड़ी, यह, मेरा प्राण क्यों नहीं ले लेती। ठीक ही है- ईश्वर की इच्छा से कहीं विष भी अमृत हो जाता है और कहीं अमृत भी विष बन जाता है ।" यहाँ अप्रस्तुत 'विशेष' (विष और अमृत) का अभिधान है और उससे प्रस्तुत 'सामान्य' की


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