इस लेख को मैंने 26 फरवरी 2019 को फेसबुक एकाउन्ट पर पोस्ट किया था। उसी का विस्तृत व संशोधित रूप यहाँ प्रस्तुत है।
विद्यालयों
में परीक्षा का दौर आरंभ हो चुका है। थोड़े ही दिनों के बाद 'स्कूल चलो अभियान' भी आरंभ होगा। निजी विद्यालयों के
बैनर, पोस्टर से शहर, गांव मोहल्ला पट
जाएंगे। इसमें तमाम लालच भरे संदेश तथा दावे लिखे होंगे। इस शोर के बीच हमारा
संस्कृत विद्यालय किसी परी लोक से विद्यार्थियों के आगमन की प्रतीक्षा में कहीं
चुपचाप बैठा होगा। आज की स्थिति यह है कि दूरबीन लेकर ढूंढने पर इक्के दुक्के
विद्यालयों के बोर्ड दिखेंगे। तुर्रा यह कि संस्कृत के उत्थान के लिए योजना बनाने
तथा उसके संचालन का जिम्मा उन लोगों के हाथों में है, जिसने
संस्कृत विद्यालयों में कभी अपने पाँव तक नहीं रखे। अब जब चुनाव सन्निकट है,
उन विद्यालयों में सिर्फ स्वस्थ प्रजातंत्र के चुनावी मुद्दे का शोर
सुनने को मिलेगा। ईश्वरीय संस्कृत विद्या पर विमर्श नहीं होगा। चुनाव भी बीत
जाएगा। खैर छोड़िए इन बातों को। अपने संस्कृत विद्यालय में शिक्षकों का अभाव
जगजाहिर है। जब शिक्षक ही नहीं है तो इसे चुनावी मुद्दा बनाएगा भी तो कौन? यहां इतिहास के अध्यापक भी नहीं होते, जो ऐतिहासिक
आलोक में अपना विचार यहां रख सकें। वे बता सकें कि आज जिस विदेशी भाषा का भूत
हमारे सिर चढ़कर बोल रहा है, उसे फैलाने में मुट्ठी भर लोगों
ने अदम्य साहस का परिचय दिया था। इसने स्वयं को प्रचार एवं शिक्षण इन दो धरों में
बांटकर किस प्रकार नगरीय संस्कृति से लेकर बनवासी संस्कृति तक स्वयं को फैलाया।
मुट्ठी भर लोगों द्वारा किए गए सतत् प्रयास का प्रतिफल आज लाखों लोगों को मिलने
लगा है। कभी इसका व्यवस्थित रोड मैप तैयार किया गया होगा कि किस प्रकार शिक्षा के
साथ नागरिकों में मानसिकता का भी निर्माण करना है। इसने दो रूपों में खुद को
व्यक्त किया। मिशनरी के रूप में मानसिकता निर्माण तथा शिक्षक के रूप में स्कूलों
में भाषाई शिक्षण। प्रजातांत्रिक भारत में जैसे किसी जाति विशेष के मुख्यमंत्री
बनने पर उस जाति के लोग ऐसा प्रदर्शित करते हैं जैसे कि वह स्वयं मुख्यमंत्री हों।
हालांकि उसे इससे टके भर का भी लाभ नहीं मिलता। इसी प्रकार का एहसास मशीनरी लोगों
द्वारा भी करा दिया जाता है। उसे रात में सपने आने लगते हैं। आज उसी व्यापक भगीरथ
प्रयास का परिणाम है कि ठेले पर सब्जी बेचने वाला हो, कपड़े
प्रेस कर आजीविका चलाने वाला, सड़क किनारे दाढ़ी बनाने वाला
या जूते सिलने वाला सभी अपने बच्चे को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय को ही विद्यालय
समझने लगे, जबकि यह एक भ्रम मात्र है। लेकिन उसे सामाजिक
मान्यता मिलने लगी है। ठीक वैसे ही जैसे डॉ का अर्थ एलोपैथिक दवाई देने वाला
चिकित्सक हो गया है।
चलिए अब
संस्कृत के लिए करने योग्य काम पर विचार करें।
आगामी
शैक्षिक सत्र आरंभ होने के पहले हमें तीन काम करने होंगें।
पहला -
संस्कृत के लिए सामाजिक वातावरण निर्माण करना, लोगों
में संस्कृत के प्रति रुचि और विश्वास पैदा करना।
दूसरा-
विद्यालयों में शैक्षिक वातावरण का निर्माण करना।
तीसरा काम –
संस्कृत के महत्वपूर्ण पदों पर काबिज असंस्कृतज्ञों को निकाल बाहर करना।
पहले
काम के लिए ठीक उसी मार्ग का अनुसरण करने की
आवश्यकता है जिस मार्ग का अनुसरण अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय तथा मिशिनरी के लोग
करने लगे हैं। हमें भी अपनी उपलब्धि नागरिकों के बीच रखनी होगी। स्कूल चलो अभियान
चलाना होगा। अपनी बात पहुंचाने के लिए व्यापक साहित्य का निर्माण करना होगा।
जिसमें संस्कृत क्यों पढ़ें से लेकर इससे होने वाले लाभ का जिक्र हो। आज हमारे पास
इस प्रकार के साहित्य का नितांत अभाव है, जिसे
पढ़कर प्रचारक नागरिकों को समझा सकें कि देश में संस्कृत शिक्षा ग्रहण करने वाले
लोगों में रोजगार का प्रतिशत क्या है? संस्कृत का सामाजिक
योगदान क्या है? कौन-कौन प्रतिष्ठित संस्थायें हैं। वहां
आवेदन की प्रक्रिया क्या है। वहां उपलब्ध संसाधनों तथा फैकेल्टी का व्यापक विवरण
भी दिया गया हो। छात्रवृत्ति कैसे मिलती है? संस्कृत पर
कौन-कौन से व्यावसायिक पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया जा सकता है। विषयों के चुनाव में
किन किन बातों का ध्यान रखना होता है। दीवालों पर अपनी उपलब्धि प्रदर्शित करनी
होगी। आदि आदि। प्रचारक साहित्य की सूची
और उसमें लिखे जाने वाले मुद्दे को भी संकलित करने की आवश्यकता है। इस काम को
बुद्धिजीवी करें। साहित्य का वितरण कार्यकर्ताओं को करना चाहिए।
दूसरा काम -
शैक्षणिक गुणवत्ता में सुधार लाने से संबंधित है।
संस्कृत विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाले विषयों को तर्कसंगत एवं जीवन को स्पर्श
करने योग्य बनाना चाहिए। एक ऐसा पाठ्यक्रम जो रोजगार सृजन तथा शास्त्र संरक्षण
दोनों में अग्रणी हो। संसाधन के स्तर पर भी व्यापक सुधार लाने की आवश्यकता है।
शैक्षिक उपकरण में जितनी विविधता की आवश्यकता है, उसका समेकित विकास नहीं हो पा रहा है। अभी भी हम कागजों पर छपे काले अक्षर
तक ही सीमित हैं, जबकि शैक्षिक प्रविधि में काफी परिवर्तन हो
चुका है।
तीसरा काम -
उन लोगों
को निकाल बाहर करना है, जो संस्कृत के लिए
दीमक हैं। जो केवल लाभ के लिए विभिन्न पदों पर विराजित हैं। यहाँ संस्कृत पढ़े
लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना होगा। ये अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए किसी भी हद
तक पहुँच जाते हैं। संस्कृत पढ़े भोले लोग इसका शिकार बनते हैं। ये वही लोग हैं,
जो अपने बच्चों को तो योग्य अध्यापक से पढ़वाते हैं परन्तु संस्कृत
पढ़ने के इच्छुक लोगों के लिए अयोग्य लोगों की नियुक्ति कर पैसे कमाते हैं। इसने
ही संस्कृत की कमर तोड़ रखी है।
अन्य
छिटपुट मुद्दों में छात्र कल्याण जैसे मुद्दे पर भी ध्यान देना चाहिए । सामाजिक
संस्थाओं , सफल व्यक्तियों से छोटा-छोटा
सहयोग प्राप्त कर छात्र कल्याण के काम जैसे - छात्रों के लिए प्रोत्साहन राशि की
व्यवस्था, पत्रिकाओं की आपूर्ति, पुस्तकालयों
की स्थापना में आंशिक योगदान जैसे काम कराए जा सकते हैं।
ऐसा नहीं
है कि यह काम असंभव है। मेरा यह फेसबुक प्रवचन मात्र भी नहीं है। इस दिशा में
मैंने कतिपय कार्य किये है। कई अवसरों पर मुँह की खायी है। उन कार्यों को गिनाना
लेख का मूल प्रयोजन भी नहीं है।
संस्कृत
विषय लेकर परीक्षा दे रहे तथा देने जा रहे छात्रों को शुभकामनाएं। आपका परिश्रम
उत्तम परीक्षा फल में परिणत हो। मेरे द्वारा कल्पित योजना आपकी प्रतीक्षा में है।
इससे
मिलते जुलते कुछ अन्य विचार मैंने फेसबुक पर पोस्ट किया था। इसे भी पढ़ें।
मैंने 25 फरवरी 2019 को
अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखा था-
हमारे कठमुल्लापन के कारण भी
सरकारें संस्कृत भाषा से कन्नी काटती है।
हम रोज सुबह उठते ही सुनते हैं,
अमुक राज्य सरकार संस्कृत को वैकल्पिक विषय बना दी। फिर हाय-तौबा का
दौर शुरू होता है। जैसा कि अभी उड़ीसा के लिए हो रहा है। क्या हमने कभी गम्भीरता
से सोचा कि सरकार के सामने क्या चुनौती है? हमने कितना
विकल्प छोड़ रखा है? भाषा को आज के परिवेश में कितना समृद्ध
किया? आज हमें जिस ज्ञान की आवश्यकता है वह संस्कृत में नहीं
है। हम दूरदर्शन के केवल तथा डी टी एच प्रसारण का लाभ उठा रहे हैं। इसके बारे में
कितनी जानकारी संस्कृत में उपलब्ध है। यदि सामग्री और जानकारी नहीं है तो रोजगार
भी नहीं है। हम सामान्य रूप से यह भी नहीं जानते कि डी टी एच में LMB की क्या भूमिका है? डी डी डायरेक्ट में कितनी
फ्रिक्वेंसी पर LMB सेट किया जाता है। कम्पास क्या है?
इसकी सहायता से छतरी को कितनी डिग्री पर सेट किया जाएगा?
आज केवल और केवल संस्कृत में कविता
लिखी जा रही है। पुस्तक प्रकाशन का राजकोषीय अनुदान और पुरस्कार कविता को समर्पित
है। इससे रोजगार सृजन में कोई सहायता नहीं मिलती। हमारा जीवन सरल नहीं होता। हमें
जीवन के दैनिक उपयोग में आने वाली चुनौतियों /चीजों पर संस्कृत में सामग्री चाहिए।
अब हम सागर, नदी, तालाब,
कुआँ से आगे बढ़ बोतल बंद पानी पर पहुंच चुके हैं। मुझे पता हो गया
गंगा घाटी में आर्सेनिक की मात्रा अधिक होती है। इससे कैन्सर होता है। हमें अब
संस्कृत में सिर्फ कविता नहीं विज्ञान भी चाहिए, ताकि हम आज
के जीवन से कदमताल कर सकें।
ईश्वर करे वह दिन शीघ्र आये जब लोग
गुरुकुलों के बच्चों को तेरही का भोज खाने वाले मात्र की मानसिकता से आगे बढ़ें।
उन्हें जल शोधन यंत्र लगाने के लिए याद करें।
26 जनवरी 2019 को फेसबुक
पर लिखा गया पोस्ट
संस्कृत क्षेत्र में रोजगार का भारी
संकट है । आखिर क्यों? पढ़ें इस लेख में -
-
संस्कृत पढ़ने वाले आज मारे मारे
फिर रहे हैं । यहां एक अनार सौ बीमार की स्थिति पैदा हो गई है। आखिर क्यों?
इसके मुख्यतः दो कारण हैं । पहला कारण सांस्कृतिक है जबकि दूसरा
उपभोक्ता और सेवा प्रदाता का अभाव। जो लोग यह राग अलापते हैं कि संस्कृत पढ़ने
वाला बेरोजगार नहीं होता, वह या तो ब्राह्मण है या आत्म
मुग्ध है। यदि संस्कृत पढ़ने वाले को रोजगार उपलब्ध होता आज संस्कृत विद्यालयों
में नामांकन के लिए भारी भीड़ उमड़ती । उसके दीवारों पर उपलब्धियों की गाथा लिखी
रहती। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं दिखता । आज के दौर में जो कुछ संस्कृत दिखता है,
वह कुछ धर्मभीरुओं तथा कुछेक सरकारी संस्थाओं द्वारा बोतल द्वारा
दूध पिलाकर जिन्दा रखने के कारण है।
संस्कृत के एक अध्यापक कहते हैं जिस
विद्यालय में निशुल्क खाना, कपड़ा, आवास, शिक्षा, परीक्षा की फीस
आदि की सुविधा होती है, वहीं कुछ छात्र पढ़ने के लिए आते
हैं। जाहिर सी बात है, ऐसे छात्र विपन्न घर के होते हैं।
मैंने स्वयं कई अवसरों पर संस्कृत विद्यालयों में जाकर सैंपल सर्वे किया है तथा
पाया कि यहाँ अति निर्धन घर के बच्चे पढ़ने आते है। यहाँ अष्टाध्यायी, सिद्धांत कौमुदी, अमरकोश तथा रघुवंशम जैसी पुस्तकें
पढ़ाई जाती है, जिसकी रचना सैकड़ों साल पहले हुई। इस किताब
को पढ़ने के बाद आप क्या काम कर सकते हैं खुद ही समझ सकते हैं। उसी पुस्तक को उसके
दादाजी ने पढ़ा। पिता के बाद अब पोते पढ़ रहे हैं। पुस्तक विक्रेता पुस्तक बेचे तो
आखिर किसे? इसीलिए प्रकाशकों का रूख गाइड छापने की ओर गया है,
क्योंकि वह हर साल नष्ट हो जाती है। इस उपक्रम के द्वारा वे स्वयं
को जिंदा रखे हुए हैं।
यदि आप लौंड्री का काम जानते हैं
यदि आप बाल बनाने, वाहन मरम्मत करने
अथवा साइंस या मैथ के ज्ञाता है तो आपको हजारों जगह नौकरी उपलब्ध हो सकती है। इसका
विशाल उपभोक्ता बाजार है इसीलिए हर गली में यह धंधा फल-फूल रहा है। एक स्थान पर
काम छूटा तो दूसरे जगह काम मिलने की संभावना रहती है। आप कभी भी रोजगार विहीन नहीं
हो पाते। चूंकि संस्कृत शिक्षा फ्री में उपलब्ध है, इसीलिए
इसका उपभोक्ता बाजार नहीं है। यही हमारी परंपरा रही है। आज हम बाजारबाद का लाभ
लेना चाहते हैं, परंतु बाजार में उतरना नहीं चाहते। यही
सांस्कृतिक टकराव है। आज सब के लिए संस्कृत शिक्षण का द्वार खोल दिया गया परंतु
उपभोक्ता बाजार अपनी परंपरा पर कायम है। वह केवल ब्राह्मणों से पूजा पाठ कराता है।
गुप्ता श्रीवास्तव सड़क पर टहलें । महिलाएं भी। मान लीजिए आपने संस्कृत बोलना सीख
लिया। बोलना सिखाने भी आता है । परंतु सीखना कौन चाहता है? सिखाने
के लिए रोजगार देने वाली कितनी संस्था है? इसके लिए देश में
यदि उपभोक्ता नहीं है तो सेवा प्रदाता भी नहीं है । अंग्रेजी ठीक इसके उलट है।
वहां सब कुछ पैसे का खेल है । बाजार सजा है। सब कुछ एक चक्र में चल रहा है। वहां
खुला खेल है । तू भी जी ले मैं भी जी लूँ । तू ट्यूशन पढ़ा मैं किताब बेचकर कमा
लूं । वहां अपने हित के लिए किसी की बलि नहीं दी जाती। सब के सम्मान का ख्याल रखा
जाता है। यहां किसी के कारण किसी का रोजगार नहीं चलता, जबकि
वहां एक के कारण दूसरे का रोजगार चलता है अतः यदि चक्र टूटा तो धंधा बन्द ।
संस्कृत आत्म संयम की भाषा है ।
उपभोग का निषेध करती है । जब तक उपभोग नहीं होगा, पैसा पैदा नहीं होगा । पैसा पैदा नहीं होगा, रोजगार
पैदा नहीं होगा। संस्कृत में यदि रोजगार चाहिए तो बेचो जो कुछ बेच सको। यह मैकाले
पद्धति है। ( मैं बस इतना ही कहूंगा। किसी गरीब का हाय और संस्कृत पढ़ी असवर्ण
महिला की नौकरी को मत बेचो, बस)
एक बार मेरा शिष्य 'सोनी' ने पूछा था, संस्कृत के
क्षेत्र में कितने ब्राह्मणेतर लोग पुरस्कार पाते हैं? अर्थात
आपका कितना बड़ा बाजार है? आज फिर पूछा होता तो मेरा सपाट सा
जवाब होगा। यहां सबके लिए संस्कृत शिक्षा कह धोखा दिया जाता है, क्योंकि मैंने एक गुप्त को बलि देते देखा है। आप पुरस्कार की बात करते हो?
06 मार्च 2019 को फेसबुक
पर लिखा गया पोस्ट
मैं संस्कृत शिक्षा में सुधार के
लिए बहुधा लिखते रहता हूँ। मुझे एक संत ने एक बार कहा था। हर मोर्चे पर सबसे आगे
रहो। दुर्भाग्य से संस्कृत भाषा इसमें काफी पीछे हो गई है। हम धार्मिक शिक्षा और
रोजगारपरक शिक्षा में अंतर नहीं कर पा रहे हैं। आप शिक्षा के बदलते आयाम को देखें।
किसी समय कला वर्ग के महाविद्यालय आधुनिक विद्यालय थे। फिर तकनीकी विद्यालय खुलने
लगे। तकनीकी शिक्षा आधुनिक शिक्षा हुई। कला वर्ग के महाविद्यालय धीरे धीरे बंद
होने लगे आज प्रधानमंत्री ने कौशल विकास पाठ्यक्रम को आगे बढ़ाया ताकि अधिकाधिक
लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जा सके। इससे देश का आर्थिक विकास भी होता है। पहले
आवासीय संस्कृत विद्यालयों में लोग बच्चे को भेजना पसंद करते थे ताकि उन्हें
निशुल्क भोजन व शिक्षा मिल सके। आज सरकारें शिक्षा क्षेत्र में भारी निवेश कर रही
है। भोजन पुस्तक कपड़े साइकिल आदि निशुल्क वितरित किए जा रहे हैं। बालिकाओं के लिए
तो और अधिक व्यवस्था की गई है।
जोर समुदाय स्वावलंबी है वह अपनी
शर्तों पर जीता है। सरकारी नियमों में बंधकर जीवन यापन करने वाले अपनी शर्तों पर
नहीं जी सकते। दुर्भाग्य से संस्कृत का पाठ्यक्रम ऐसा नहीं है जिससे लोग स्वरोजगार
कर सके और अपनी शर्तों पर जी सकें।
हमें ऐसे संस्कृत विद्यालय की
कल्पना करनी होगी जो तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में औरों से अग्रणी हो। उदाहरण देने
योग्य हो। जिसका अनुसरण अन्य तकनीकी संस्थान कर सके। तभी संस्कृत भाषा को बचाने
में सफलता मिल सकेगी। इसके लिए हमें अतिरिक्त श्रम करने की आवश्यकता होगी। अर्थात्
हर मोर्चे पर अग्रणी रहना होगा।
सोचिए आज जो संस्कृत शिक्षा
विद्यालयों में दी जा रही है उसके सहारे कौन सा रोजगार उपलब्ध है?
क्या कोई स्वरोजगार कर सकता है? सरकारें यही
विवश हो जाती है और उसे विकल्प में वोकेशनल कोर्स देना पड़ता है।
जगदीश डाभी का प्रश्न- सूचना, सुझाव
लिखने से संस्कृत में सुधार नहीं होगा जगदानन्द झा जी । लोगों को संस्कृत में क्या
चाहिए वो दीजिये । रोजगार के अवसर कहाँ है वो बताए । आम जनता के बीच सरल रुप से
संस्कृत को कैसे लाया जा सकता है उनपर विचार करें । बडे बडे ग्रंथ लिख देने या
उनकी जानकारी या विद्वत्ता से भरी भाषा से कुछ नहीं होगा....
मेरा उत्तर-
जगदीश डाभी जो चाहिए वह देने और
दिलाने के लिए भी आपके पास विचार हो। रोडमैप हो। योजना हो,
उसे लागू करने का तजुर्बा हो तभी परिणाम मिलता है। मूल समस्या को
समझे विना किया गया हर प्रयास असफलता की ओर ले जाता है। समसामयिक घटनाक्रम,
वैश्वीकरण, अपनी तथा प्रतिस्पर्धी की स्थिति
की समझ ही जीत दिलाती है। कुछ भाषायी तथा शैक्षणिक संस्थायें हमें उखाड़ फेंका।
उसकी रणनीति समझें।
वैचारिक क्रान्ति ही आपको जीत दिला
सकती है।
जगदीश डाभी जब आपके दिमाग में विचार
का तूफान उठने लगता है तब वह आपको सोने नहीं देता। तभी किसी काम का जन्म होता है ।
संकल्प से सिद्धि। जिसके पास कोई सोच नहीं हो वह सिर्फ नौकर बन सकता है। वह
परिवर्तन नहीं ला सकता। मैंने सोचा, योजना
बनायी क्रियान्वयन हो रहा है। कई लोगों के पास सोच ही नहीं होता किया जाय तो क्या।
एक उदाहरण - फेसबुक पहले भी था। मैंने सोचा यहां श्लोकान्त्याक्षरी तथा कवि
सम्मेलन हो सकता है। यहाँ कालिदास जयन्ती पर सर्व प्रथम आयोजन किया। आज की स्थिति
देखें।
एक प्रशंसनीय लेख
जवाब देंहटाएंThank you Sir! Aapne bahot Sundar Likha h, maine bhi Sanskrit se b.ed kiya h.
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