गङ्गानाथ झा
संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् तथा प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री
डॉ. गंगानाथ झा का जन्म सितम्बर सन् 1871 को बिहार राज्य के दरभंगा जिले में हुआ था। उनकी
प्रारम्भिक शिक्षा उनके ग्रामीण घर में हुई थी। सन् 1880 में उन्होंने दरभंगा राज स्कूल में प्रवेश लिया तथा सन् 1886 में 14 वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। दशम कक्षा
के पश्चात् उन्होंने उत्तर प्रदेश में वाराणसी के प्रसिद्ध क्वीन्स कॉलेज में
प्रवेश लिया। सन् 1888 में इण्टर की परीक्षा प्रथम श्रेणी,
ग्यारहवें स्थान से कलकत्ता विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की।
उत्तम परीक्षाफल के उपलक्ष्य में उन्होंने विजयनगरम पदक,
सरकारी छात्रवृत्ति और संस्कृत विषय में सर्वाधिक अंक
अर्जित करने के कारण मित्रपदक पुरस्कार प्राप्त किए। सन् 1890 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी. ए.
(दर्शनशास्त्र ऑनर्स) तथा मात्र 21 वर्ष की आयु में मेधावी छात्र के रूप में एम. ए. परीक्षा
उत्तीर्ण कर ली।
सन् 1893 में डॉ. गंगानाथ झा दरभंगाराज पुस्तकालय में
पुस्तकालयाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। महाराजा सर लक्ष्मेश्वर सिंह,
तत्कालीन पुस्तकालय स्वामी की हार्दिक इच्छा थी कि उनका
पुस्तकालय राष्ट्र का समृद्धतम पुस्तकालय हो। डॉ. झा को इस दृष्टि से पुस्तकालय को
व्यवस्थित करने का काम सौंपा गया। उन्होंने अति उत्साहपूर्वक महाराजा द्वारा
प्रदत्त धनराशि में मूल्यवान् पाण्डुलिपियों तथा पुस्तकों का संग्रह कर पुस्तकालय
को प्रख्यात कर दिया। कार्य से अवशिष्ट समय में वे हिन्दू संस्कृति तथा
दर्शनग्रन्थों का गहन अध्ययन करते थे। संस्कृत की मौलिक पुस्तकों का अध्ययन कर
उन्होंने कुछ मूल संस्कृत दर्शनग्रन्थों का अंग्रेज़ी में अनुवाद भी किया। सन् 1902 तक उन्होंने पुस्तकालय का कार्यभार संभाला। सन् 1902 में डॉ. झा पुस्तकालयाध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर
इलाहाबाद आए तथा म्योर सेन्ट्रल कॉलेज, इलाहाबाद में संस्कृत विभाग में प्रोफेसर पद स्वीकृत कर
लिया। म्योर सेन्ट्रल कॉलेज के प्राचार्य डा. थिबाउत संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान्
डॉ. झा की योग्यता से प्रभावित थे। उनकी प्रेरणा से डॉ. झा ने प्रादेशिक शिक्षा
सेवा की परीक्षा नवम्बर सन् 1902 में उत्तीर्ण कर ली। संस्कृत अध्यापक के रूप डॉ. झा
विद्यार्थियों में तथा सहाध्यापकों में विशेष लोकप्रिय थे।।
सन् 1902 में डॉ. झा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के फेलो पद पर मनोनीत
किए गए तथा कलासंकाय की सदस्यता भी उन्हें प्राप्त हुई। सन् 1907 में डॉ. थिबाउत की सहायता से उन्होंने इण्डियन थॉट (भारतीय
विचारधारा) नाम से एक शोधपत्रक का प्रकाशन आरम्भ किया। इस जर्नल में प्रमुखतः
संस्कृत के मूल ग्रन्थों का अंग्रेज़ी अनुवाद मुद्रित होता था।
सन् 1918 में प्रो. झा का स्थानान्तरण वाराणसी में होने से
शोधपत्रिका प्रकाशन का कार्य अवरुद्ध हो गया। सन् 1909 में डॉ. झा ने डॉक्टर ऑव लैटर्स उपाधि के लिए अंग्रेज़ी
तथा संस्कृत दोनों भाषाओं में भारतीय दर्शन की विशिष्ट शाखा-प्रभाकर भट्ट मान्य
पूर्वमीमांसा पर पाण्डित्यपूर्ण शोधनिबन्ध लिखा। उन्हें नवम्बर 1909 के विश्वविद्यालय दीक्षान्त समारोह में डी. लिट् की उपाधि
से विभूषित किया गया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास में यह प्रथम अवसर था। सन्
1910 में प्राच्य अध्ययन के क्षेत्र में उल्लखेनीय योगदान के
लिए सरकार ने उन्हें महामहोपाध्याय की पदवी प्रदान की।
सन् 1918 में डॉ. गंगानाथ झा को वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में
प्राचार्य पद पर नियुक्त कर दिया गया। प्रथम हिन्दू डॉ. झा को अंग्रेज़ों की
अपेक्षा यह गौरव हस्तगत हुआ। सन् 1921 में वे प्रोन्नत होकर भारतीय शैक्षिक सेवा के सर्वोच्च पद
भारतीय राज्य काउन्सिल के गवर्नर जनरल बन गए। सन् 1925 में संस्कृत विषय में डॉ. झा की अद्भुत विद्वत्ता का आकलन
करके इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर आँव लॉ की सम्मान्य उपाधि से तथा ।
सन् 1936 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा सम्मान्य डॉक्टर ऑव
लिटरेचर उपाधि से सम्मानित किया गया। सन् 1923 तक बनारस में कार्य करते हुए उन्होंने कुशलतापूर्वक
प्रशासन दायित्व भी सम्भाला।
सन् 1941 में प्रो. झा विशेष योग्यता से ब्रिटिश अकादमी के दूरस्थ
चयनित हुए। यह गौरव हस्तगत करने वाले वे प्रथम भारतीय तथा राष्ट्रिय स्तर पर
ख्याति प्राप्त सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन, प्रोफेसर, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वितीय भारतीय थे। वे रॉयल एशियाटिक
सोसाइटी,
कलकत्ता के सम्मान्य सदस्य भी रहे।
प्रो. झा नितान्त सदाचारी, अध्ययनसमर्पित, उदारमना पुरुष थे। उनके इन्हीं गणों ने उन्हें शिक्षा के
सर्वोच्च शिखर-कुलपति के पद पर निरन्तर नौ वर्षों तक स्थापित रखा। इस पद का
निर्वाह उन्होंने पूर्ण निष्ठा, आत्मविश्वास और विश्वविद्यालय परिवार की भाँति किया। सन् 1932 में इस दायित्व से मुक्त होने पर विश्वविद्यालय ने उनके
नाम से छात्रावास का नामकरण कर स्वयं को। गौरवान्वित किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय
न्यायालय ने उन्हें आजीवन सदस्यता प्रदान की।
प्रो. झा ने अपनी विस्तृत विद्वत्ता से सर्वत्र ख्याति
अर्जित की। सन् 1926 में उनके द्वारा 'कलकत्ता विश्वविद्यालय कमला व्याख्यान'
दार्शनिक विषयों पर प्रस्तुत किए गए। जैमिनीय मीमांसा
सूत्रों के अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए सन् 1937 में उन्हें रॉयल एशियाटिक सोसाइटी की मुम्बई शाखा ने
कैम्पबेल स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। सन् 1939 में बड़ौदा में 'शंकराचार्य का व्यक्तित्व और कृतित्व'
विषय पर प्रदत्त उनके विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान मुद्रित
हुए। सन् 1940 में उन्होंने महाराजा रामेश्वर सिंह, दरभंगा के आग्रह पर 'वेदान्त दर्शन' सम्बन्धी सारगर्भित व्याख्यान दिए। आजीवन अध्ययन साधना में
रत प्रो. झा ने दशाधिक विद्वत्तापूर्ण शोधपत्रों, छः उच्चस्तरीय ग्रन्थों का लेखन,
25 ग्रन्थों का सम्पादन तथा
अनुवाद तथा सात अन्यान्य विद्वानों के ग्रन्थों की पाण्डित्यपूर्ण भूमिका लिखी है।
उनके द्वारा किए गए आंग्लभाषानुवादों, शोधपत्रों, व्याख्यानों, संगोष्ठियों आदि से विश्व ने भारतीय दर्शन के उच्चस्तरीय
विचारों को ग्रहण किया। भारतीय दर्शन की गहनता से परिचित विश्व की दृष्टि में भारत
का मानवर्धन हुआ। इसका श्रेय डॉ. गंगानाथ झा को साक्षात् है।
डॉ झा सन् 1924 में द्वितीय दार्शनिक कॉन्फ्रेन्स तथा तृतीय प्राच्य।
कान्फ्रेन्स, मद्रास के अध्यक्ष चयनित हुए। सन् 1932 में डॉ. झा के मित्रों, प्रशसको, शिष्यों की सहमति से भारत की प्राच्यसंस्कृति विषयक
निबन्धों से समृद्ध एक स्मृत्यभिन्नदन ग्रन्थ उन्हें उनकी षष्टिपूर्ति (60वें जन्मदिन) पर भेंट किया गया। इस उच्चस्तरीय ग्रन्थ में
डॉ. कीथ,
डॉ. विन्टरनिट्ज़, डॉ. कोनो, जात थाएम, डॉ. ओटो स्ट्राउस सदृश विद्वानों के लेख समाहित थे। 'सादा जीवन उच्च विचार' की साक्षात् प्रतिमूर्ति डॉ. झा नवम्बर 1941 में दिवंगत हुए। यह उनका सौभग्य था कि सन् 1938 में उनके द्वितीय पुत्र प्रो. अमरनाथ झा उनके। जीवनकाल में
ही उपकुलपति, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पद पर प्रतिष्ठित हुए। थे।
सन् 1941 में डॉ. झा के देहावसान के शीघ्र पश्चात् विद्वज्जगत् ने
यह अनुभव किया कि उनके नाम से शोध अध्ययन केन्द्र की स्थापना हो। उनकी द्वितीय
पुण्यतिथि नवम्बर सन् 1943 को सर तेजबहादुर सप्रू की अध्यक्षता में पण्डित महामना मदन
मोहन मालवीय के करकमलों से सर गंगा नाथ झा स्मारक का विधिवत् उद्घाटन हुआ। इस भवन
में गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना की गई। पीठ में विद्वानों
के निर्देश में निरन्तर शोधकार्य होता है। विद्यार्थियों की शोध सम्बन्धी अध्ययन
सुविधा के लिए यहाँ लगभग 50 हजार पुस्तकों, दुर्लभ पाण्डुलिपियों तथा ताड़पत्रग्रन्थों का संकलन है।
विद्यापीठ सन् 1943 नवम्बर मास से गंगानाथझा रिसर्च जर्नल का प्रकाशन भी कर रहा है । जो शोध के
क्षेत्र में एक उच्चस्तरीय आयाम है।
1. आर्यन इन्भेजन ऑफ इण्डिया: इज इट ए मिथ ?
भंडारकर पुष्पांजलि,कलकत्ता।
2. भागवतम् कुप्पुस्वामी शास्त्री स्मृति ग्रन्थ,
मद्रास ।
3. न्याय प्रकाश, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी।
4. कवि-रहस्य, हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग।
5. हिन्दू लॉ इन इट्स सोर्सेज, पटना विश्वविद्यालय, रामदीन भाषण-माला, पटना ।
6. कुमारिल एण्ड वेदान्त, थियोसॉफिकल सोसाइटी, बम्बई ।
7. मैगनेटिज्म ऐज एक्सप्लेन्ड बाइ शान्ति रक्षित इस्टर्च एण्ड
इण्डियन स्टडीज, बम्बई।
8.ए नोट ऑन दि शाबर भाष्य, डा. मोदी स्मृति ग्रन्थ, बम्बई। दि फिलासाफिकल डिसिप्लिन कमला भाषण-माला,
कलकत्ता विश्वविद्यालय, कलकत्ता।
9.प्रभाकर ए थ्योरी ऑफ एरर भंडारकर पुष्पांजलि, कलकत्ता ।
10. 'प्रभाकर स्कूल ऑफ पूर्व मीमांसा'
इण्डियन थाँट, इलाहाबाद ।
11. पूर्व मीमांसा इन इट्स सोर्सेज, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस ।
12. रेलिजन, दि नीड ऑफ दि प्रेजेन्ट जेनरेशन रंगस्वामी आयंगर स्मृति ग्रंथ,
मद्रास ।
13. शंकर वेदान्त, महाराज सर रमेश्वर सिंह भाषण माला,
इलाहाबाद, लॉ जर्नल प्रेस ।
15. न्याय फिलासफी ऑफ गौतम, इण्डियन थॉट, प्रयाग।
16. सम रेयर वर्क्स ऑन वैद्यक कृष्णास्वामी आयंगर स्मृति ग्रन्थ,
मद्रास ।।
17. सोर्सेज ऑफ प्रापर्टी अंडर हिन्दू लॉ मालवीय स्मृति ग्रंथ,बनारस ।।
18. दि टीचिङ्ग ऑफ लॉइन इण्डियन युनिभर्सिटीज, वाल्टेयर।।
19. वैशेषिक दर्शन, नागरी प्रचारिणी सभा,काशी।
20. योग दर्शन: । क्लासिक एक्सपोजिशन ऑफ योग थियोसाफिकल पब्लिशिंग हाउस,आड्यार।
21. वेदान्त दीपक, मैथिली साहित्य परिषद, दरभंगा।
22. मीमांसा न्याय प्रकाश, आपदेव कृत, पंडित, अंक (२६-२७) बनारस ।
23. वाणभट्ट कृत कादम्बरी (संक्षिप्त) इण्डियन प्रेस,
इलाहाबाद ।
24. गौतम न्याय सूत्र वात्स्यायन भाष्य तथा स्वरचित खद्योत टीका में यथाग्रहीत
मूल मात्र, ओरियण्टल बुक एजेन्सी, पूना।
25. न्याय दर्शन: सूत्र तथा वात्स्यायन भाष्य रघुत्तम भाष्यचन्द्र टीका तथा
अम्वादासीय टिप्पणी सहित, काशी।
26. न्यायसूत्र ऑफ गौतम: ए सिस्टम आंफ इण्डियन लाजिक,
ओरियन्टल बुक एजेन्सी,
पूना।
27.गौतम न्याय सूत्र, वात्स्यायन भाष्य, उद्योतकर वार्तिक, वाचस्पति मिश्र विरचित न्यायवार्तिक टिप्पणी तथा उदयनाचार्य
की तात्पर्य परिशुद्ध टीका सहित (अंग्रेजी अनुवाद) इण्डियन थॉट-प्रयाग।
28.हिन्दू एथिक्सः प्रिन्सिपुल्स ऑफ हिन्दू रेलिजियोसोशल-रीजेनरेशन जी.ए.
नटेशन एण्ड कम्पनी, मद्रास।
29.पूर्व मीमांसा सूत्र, जैमिनि कृत स्वरचित टीका सहित अंग्रेजी अनुवाद ।
30. प्रसन्नराघव, जयदेव कृत संस्कृत भाववोधिनी टीका सहित,
मेडिकल हाल प्रेस,
इलाहाबाद।
31.न्यायकलिका, जयन्तभट्ट कृत स्वभूमिका सहित सम्पादित,सरस्वती-भवन,काशी।
32. चतुग्निविधानेन जलाशयोत्सर्ग पद्धति: पं. हर्षनाथ झा विरचित,
इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद।
33. कविकुलगुरु कालिदास विरचित मेघदूतम् टिप्पणी सहित,
इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद।
34. तर्कभाषा पं. केशव मिश्र कृत अंग्रेजी अनुवाद,
पूना ओरियन्टल सिरीज, पूना ।।
35. गीत गोपीपति काव्य पं. हर्षनाथ झा कृत भावदीपक व्याख्या सहित निर्णय सागर
प्रेस,
बम्बई।
36. कृष्णदीक्षित कृत परिभाषा, पण्डित, काशी।
37. मीमांसापरिभाषा-संपादित, मेडिकल हॉल प्रेस, काशी।
38.कुमारिल भद्र कृत श्लोक वार्तिक सचरित मिश्र कृत टीका काशिका तथा
पार्थसारथि उद्धरण सहित अंगरेजी अनुवाद ।
39. तन्त्रवार्तिक अंगरेजी अनुवाद बंगाल एसियाटिक सोसाइटी,
कलकत्ता।।
40. अद्वैत सिद्धि मधुसूदन सरस्वतीकृत स्वविरचित अंगरेजी अनुवाद तथा टिप्पणी इण्डियन
थॉट,
इलाहाबाद। 41.मण्डनमिश्र कृत 'भावना विवेक' भट्ट उम्बेक कृत टीका तथा निज भूमिका सहित। सम्पादित,
सरस्वती-भवन, इलाहाबाद ।
42. मीमांसानुक्रमणिका स्वकृत मीमांसामण्डन टीका सहित सम्पादक-ढूंढिराज
शास्त्री. चौखम्बा।
43. मनुस्मृति. मेधातिथि भाष्य सहित अंगरेजी अनुवाद,
कलकत्ता विश्वविद्यालय, कलकत्ता।
44. तन्त्ररत्न, पार्थसारथि मिश्रकृत भूमिका सहित सम्पादित सरस्वती-भवन
टेक्स्टस. काशी।
45. योगदर्शन पतंजलि विरचित योगसूत्र तथा व्यासकृत भाष्य वाचस्पति मिश्र कृत
तत्व वैशारदी, विज्ञान भिक्षुक,योगवार्तिक तथा भोजराजकृत राजमार्तण्ड से उद्धृत टिप्पणी के
साथ अंगरेजी में अनुवाद बम्बई थियोसॉफिकल पब्लिकेशन्स,बम्बई ।
46. पदार्थ धर्म संग्रह प्रशस्तपादकृत श्रीधर कृत न्यायकन्दली टीका सहित
अंगरेजी अनुवाद, पण्डित, काशी। 47. शाबर भाष्य अंगरेजी अनुवाद, ओरियंटल इन्स्टीच्यूट, बड़ोदा।।
48. पं. शंकर मिश्र कृत 'वादि विनोद' सम्पादित, इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद ।
49. तत्व संग्रह शान्तरक्षित कृत कमलशील कृत टीका सहित अंगरेजी अनुवाद
ओरियन्टल इन्स्टिच्यूट, बड़ोदा। 50.श्री हर्ष कृत खण्डन खण्ड खाद्य,
डा. थीबो के साथ अंगरेजी अनुवाद,
इण्डियन थॉट, इलाहाबाद। 51.आनन्दपूर्णकृत खण्डनखण्ड खाद्य खण्डन फक्किका
विभाजन तथा चित्सुख, शंकर मिश्र तथा पं. रघुनाथ की टीका उद्धरण सहित सम्पादित
सहयोगी सम्पादक-पं. लक्ष्मण शास्त्री, चौखम्बा-काशी।
52. छान्दोग्योपनिषद, शांकर भाष्य सहित अंगरेजी अनुवाद,जी.ए. नटेशन एण्ड कम्पनी, मद्रास।
53. पुरुष परीक्षा, महाकवि विद्यापति संपादित वेलवेडियर प्रिन्टिंग प्रेस,
इलाहाबाद ।।
54. योगसार संग्रह, विज्ञान भिक्षु कृत अंगरेजी अनुवाद,
थियोसाफिकल पब्लिकेशन्स, बम्बई।
55. गोवर्द्धनाचार्य विरचित आर्यासप्तशती महामहोपाध्याय पं. सचल
मिश्र रचित रस प्रदीपिका टीका सहित, प्रकाशक - पं.केशीनाथ मिश्र भूमिका-डा.सर गंगानाथ झा
विद्यापति प्रेस,लहेरियासराय।।
56. छान्दोग्यमन्त्र भाष्य, गुण्विष्णु कृत कलकत्ता संस्कृत साहित्य परिषद् कलकत्ता ।
57. तत्त्व कौमुदी, वाचस्पति मिश्र कृत मूल सहित अंगरेजी अनुवाद । बम्बई थियोसा
फिकल पब्लिकेशन्स, बम्बई ।।
58. विवाद चिन्तामणि, वाचस्पति मिश्र कृत अंगरेजी अनुवाद सहित टिप्पणी ।
59. तत्त्व कौमुदी, वाचस्पति मिश्र कृत अंगरेजी अनुवाद,
मूलभूत सिद्धान्तसार ऐतिहासिक भूमिका सहित समीक्षात्मक
टिप्पणी,
सम्पादक - पं. हरदत्त शर्मा ओरियण्टल बुक एजेन्सी पूना।
60. वामन विरचित काव्यालंकार सूत्र अंगरेजी अनुवाद इण्डियन थॉट,
इलाहाबाद।
61. कवीन्द्राचार्य सूची पत्र, अनंतकृष्ण शास्त्री, ऐतिहासिक टिप्पणी गायकवाड ओरियंटल सिरीज,
बड़ोदा।
62. ए हिस्ट्री ऑफ वैदिक लिटरेचर, आर्थर एन्थनी मैकडोनल संस्कृत में रूपान्तरण ।।
63. कन्सेप्शन ऑफ मैटर एकार्डिंग टु न्याय वैशेषिक भूमिका लेखन ।
64. इन्टेलिजेन्ट मैन्स गाइड टु इण्डियन फिलासाफी ले. मनुभाई चन्द्र विद्यानंद
डी.बी. तारापुरवाला एण्ड सन्स, बम्बई ।
डॉ. शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी
पिता : म०म० स्वर्गीय पं० श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी
जन्मभूमि : ८८६, गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी मार्ग,
पानों का दरीबा,जयपुर, राजस्थान।
जन्मतिथि : १६ अप्रैल, १९३४
शैक्षणिक योग्यता :
पारम्परिक क्रम से व्याकरणाचार्य (राजस्थान), साहित्याचार्य सम्पूर्णानन्द सं० वि० वि०,
वाराणसी, बी० ए०, एम० ए० (संस्कृत), पी० एच० डी० (का० हि० वि० वि०,
वाराणसी)
अध्यापन :
संस्कृत विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़, (१९६० से १९६३), रीडर एवं पूर्व विभागाध्यक्ष साहित्य विभाग (संस्कृतविद्या
धर्मविज्ञान संकाय, का० हि० वि० वि०, वाराणसी) सम्प्रति : १५ अप्रैल,
१९९९ पर्यन्त अध्यापन कार्य।
प्रकाशित रचनाएँ: (संस्कृत)
१. गोस्वामीतुलसीदासशतकम्,
२. स्फूर्तिसप्तशती, ३. राष्ट्रगुरुसहस्रनामस्तोत्रम्,
४. चर्चा महाकाव्यम्, ५. सत्यं शिवं सुन्दरम् (महाकाव्यम्), ६. शैवी (गीतिः)।
हिन्दी रचनाएँ :
१. चतुर्दिक्, २. चरणरेणु गुरुदेव की (दोहा सतसई) ३. वाल्मीकि रामायण में
राजनीति (शोधप्रबन्ध), ४. गद्यगंगाधर (निबन्ध), मौर्वी (गीत, गजल, कविताएं।
अनुवाद (संस्कृत से हिन्दी)-
१. भारतीय दर्शनों में आत्मा (लेखक म० म०पं० श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी),
२. गुरुनक्षत्रमाला (लेखक परमगुरु भास्कर राय),
३. शारीरकविज्ञानम, ४. दो भागों में (लेखक विद्यावाचस्पति स्व. मधुसूदन ओझा),
५. विज्ञानविद्युत् (लेखक पूर्ववत्),
६. वर्णसमीक्षा (पूर्ववत्)।
अनुवाद (हिन्दी से संस्कृत)-
१. सिद्धान्तरहस्यम् (लेखक राष्ट्रगुरु स्वामीजी दतिया)। सम्पादित एवं
(संस्कृत)-१.चतुर्वेदिसंस्कृतरचनावलिः (लेखक म० म०पं० श्री गिरिधर शर्मा
चतुर्वेदी), २. निबन्धादर्शः, (लेखक पूर्ववत्), ३. प्रमेयपारिजात (लेखक पूर्ववत्),
४. पुराणपारिजातः (लेखक पूर्ववत्),
५. रेखा (कवि आचार्य श्री रतिनाथ झा). ६. अभिनवकथानिकुञ्जः
(लेखक अनेककथाकाराः), ७. सहस्रनामसंग्रहः, ८. देवी सहस्रनामसंग्रह ९.दो भागों में मुद्रित,
१०. अश्वधाटी घटा (लेखक अनेक पुरातन तथा नवीन कवि),
११. कल्लोलिनी (कवि आचार्य पं० बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते),
१२. कविभारती कुसुमाञ्जलिः, (अनेक कवि और कवयित्रियां)।
हिन्दी ग्रन्थ मुद्रित एवं सम्पादित
१. साहित्य निबन्ध (लेखक म० म० पं० श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी),
२. आत्मकथा और संस्मरण (लेखक पूर्ववत्),
३. छवि की किरणें (कवि पूर्ववत्),
४. भगवान् श्री कृष्ण और शिवतत्व (लेखक पूर्ववत्),
५. उपनिषद् परिशिलन (लेखक पूर्ववत्),
६. प्रत्यालोचन (लेखक पूर्ववत्),
७. वैदिक वर्णव्यवस्था और श्राद्ध (लेखक पूर्वोक्त तथा स्व०
प्रो० इन्द्रविद्यावाचस्पति), ८. गीता व्याख्यानमाला (लेखक पूर्ववत),
९. - अलंकारों का क्रमिक विकास (लेखक स्व०पं० पुरषोत्तम
शर्मा चतुर्वेदी), १०. संस्कृत वाङ्मय में त्रैगुण्य (लेखक डॉ० ईश्वर प्रसाद
चतुर्वेदी), ११. त्रिभाषाकोष (लेखक पं० रामस्वरूप शुक्ल)।
संस्थापक
: गिरिधरशोधसंस्थान (वाराणसी-जयपुर), गीर्वाण वाग्वर्धिनीपरिषद् (जयपुर), वाराणसेयसंस्कृतसंसद् (वाराणसी), कविभारती (वाराणसी), आन्वीक्षिकी (वाराणसी), संस्कृतमासिकपत्रिका-ललिता।
यन्त्रस्थ रचनाएँ : १. कथाप्रथा
(हिन्दी कहानियां), २. अभिवादन (लेख संहिता), ३. शतक संहिता, ४. आत्मकथा। संस्कृत तथा हिन्दी पत्रिकाओं में दो सौ से
अधिक लेख और कविताएँ तथा कहानियाँ मुद्रित। जयपुर, देहली, चण्डीगढ़, लखनऊ, उज्जैन, गोरखपुर, पटना आदि नगरों में संस्कृत हिन्दी कवि सम्मेलन आयोजनों में
सम्मिलित और भाग ग्रहण। दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से संस्कृत काव्यपाठ तथा वाताएं
प्रसारित।
पदक-पुरस्कार :
शास्त्री-परीक्षा में सर्वप्रथम आने पर लार्डरिपन स्वर्णपदक-सं० सं० वि० वि०,
वाराणसी। आचार्य में सर्वप्रथम होने पर स्वर्ण तथा रजतपदक
सं० सं० वि० वि०, वाराणसी। एम० ए० परीक्षा में सर्वप्रथम आने पर स्वर्ण पदक
का० हि० वि० वि०, वाराणसी। 'गोस्वामितुलसीदासशतकम्'-रचना पर उ० प्र० तथा राजस्थान अकादमियों से पुरस्कार। 'स्फूर्तिसप्तशती' पुस्तक पर उ० प्र० संस्कृत अकादमी पुरस्कार। 'चर्चामहाकाव्यम्' पुस्तक पर राजस्थान संस्कृत अकादमी से माघ पुरस्कार एवं
उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी से कालिदास पुरस्कार। 'गद्यगंगाधर' निबन्धसंग्रह पर उ० प्र० सं० अकादमी से पुरस्कार।
अन्य :
आकाशवाणी से अब तक २२ बार संस्कृत पाठ तथा आठ वार्ताएँ। अनेक नगरों में
संस्कृत कवि सम्मेलनों की अध्यक्षता। अनेक औपचारिक तथा अनौपचारिक संस्थाओं से
सम्बन्ध। शताधिक शोध प्रबन्धों का परीक्षण।
डॉ. रामशरण त्रिपाठी शास्त्री
त्रिपाठिनः
शास्त्रिणो रामशरणस्य जन्म उत्तरप्रदेश राज्यस्य बांदाजनपदान्तर्गते, अनुयमुनम्
अवस्थिते, मरका नाम्नि ग्रामे १६०८ तमे खीष्टाब्देऽभवत्
। अस्य महानुभावस्य पूर्वपुरुषाः कान्यकुब्ज (कन्नौज) देशात् परमारवश्याना
क्षत्रियाणां भक्तिं पुरस्कृत्य तैः सह यमुनाकूलवर्तिनि असोथर नाम्नि राज्ये आगत्य
तत्रैव चिरं न्युषितवन्तः । इमे कश्यपगोत्रजा विद्वांसः परमारक्षत्रियाणामेषां
कुलगुरव आसन् । पश्चात्तु कैश्चित् परमारराजकुलै: इमे यमुनायाः दक्षिणे भागे
आनाय्य, द्वादशक्षत्रियग्रामाणां पौरोहित्यं
च तेभ्यः प्रदाय ते मरका ग्रामे वासिताः । अस्य पितामहो ज्योतिर्विद्याचणो
भूमिष्ठद्रव्यज्ञाने लब्धप्रतिष्ठोऽभूत् । तस्यात्मजस्तदनुरूपगुणः
पितुरेवाधीतसमस्तविद्यः सदाशयस्त्रिपाठी गिरिधारीप्रसादः पञ्च पुत्रान् लेभे, तेष्वयं
चतुर्थोऽभूत् । अस्याग्रजो व्याकरण साहित्य दर्शनादि विविध शास्त्रेष्वकुण्ठितमतिः
सरस्वतीदत्तवरो मुक्तादत्तस्त्रिपाठी एतदीयः आद्यो गुरुरासीत् । स्वकीयमिमग्रजं
श्रीशास्त्रिमहोदयः विविधासु रचनासु सश्रद्धं प्रणमति - नन्नमेह भ्रात्रे
ममाद्यगुरवे श्रीमुक्तादत्तविदुषे स्तात् । श्रोमुक्त दत्तस्त्रिपाठी मध्यप्रदेशीय
रायपुरमण्डलान्त वर्तनि राजीवलोचनाख्ये (राजिम) पुण्यक्षेत्रे संस्कृत
महाविद्यालयस्य प्रधानाध्यापक आसीत् । तत्रैव उषित्वा बालेन रामशरणेनापि
साहित्यव्याकरणयोः प्रारम्भिकं ज्ञानमवाप्तम् ।
तदनन्तरं
चास्याग्रजः इमं जौनपुरमण्डलान्तर्गत 'उकनी'
ग्रामे स्थिते
श्रोभोलानाथ- संस्कृत महाविद्यालये प्राचार्यपदमलंकुर्वाणस्य महापण्डित श्री
तात्या शास्त्रितोऽधीत विद्यस्य श्रीजयदेवमणित्रिपाठिनः सविधेऽन्तेवासित्वेन
प्रेषयामास । तत्रायं पञ्चवर्षे: कौमुद्यादिमहाभाष्यान्तान् व्याकरणग्रन्थान्
अन्यांश्च न्याय वेदान्त साहित्यादीनि शास्त्राणि सम्यकृतयाधीतवान् । एषां
गुरुचरणानां शिष्यत्वं प्रथयतानेन बहुशस्ते प्रणामाञ्जलिना संतर्पिताः । व्याकृतिवत्सराजे
गुरुपुत्रेण सह तेभ्यो नमस्कारो विहितो वर्तते'
। 'सरलज्योतिर्विज्ञानं
तु तेन तेभ्य एव उत्सृष्टम् । सिद्धान्तादर्श,
वेदान्तसारेऽपि च
ते सश्रद्धं नमस्कृताः । एतदनन्तरं चित्रकूटस्थे श्रीरामनाम संस्कृतमहाविद्यालये
(अक्षयवटस्थे) स सेवावृत्ति स्वीचकार । त्रीणि वर्षाणि तत्राध्यापनं विदधता तेन 'सरलज्योति
विज्ञानं' नाम हिन्दी भाषात्मकं छन्दोबद्धं
ग्रन्थरत्नं व्यरचि यस्य क्रमश: प्रकाशन तत्रत्याम् आश्रमपत्रिकायामभूत् । अस्य
विद्यालयस्य प्रबन्धकः, तस्य तदानं तनः शिष्यः, इदानीमपि
स्वकीयोपाध्यायस्य दिव्यस्य गौरवपुषः,
माधुर्यविनयादिगुणोपे
तस्य चरितस्य, तस्य वैदुष्याः, शास्त्रार्थचातुर्याश्च
स्मरति । निरन्तरं विद्याभिगृहनुरयं तदनन्तरं स्वेच्छया सेवावृत्ति परित्यज्य
काव्य तीर्थोपाधि प्राप्तये नागपुरं नाम नगरं गतवान् । तत्र वर्षद्वयम् उषित्वा, साहित्यशास्त्रस्य
गभीरमध्ययनं च विधाय तेनायम् उपाधि प्रथमश्रेण्यां समासादितः । तत आगत्य स्वकीयेन
नात्रा सार्द्धं श्रीराजीवलोचनसंकृतविद्यालयेऽध्यानेन न्यायमुक्तावल्या: 'बालबोधिनी'तिनाम्नी
टीका, कौमुद्या: परिष्कारभागं तद्गत
शस्त्रार्थादिविषयं च परिगृह्य सिद्धान्तादर्श नामा ग्रन्थो विरचितः । प्राच्य
पाश्चात्य शिक्षानुरोधी महानुभावोऽयं तदनन्तरं पञ्जाबविश्वविद्यालयेन सञ्चालितां
शास्त्रि परीक्षामुत्तरीतुं लाहौर-नगरं प्रतस्थे । द्वाभ्यां वर्षाभ्यां समापनीयं
शास्त्रिपरीक्षापाठ्यक्रमं वर्षेणैकेनैव परिसमाप्य स १६३३ तमे ईशवीये वर्षे शास्त्रि
परीक्षायां सर्वप्रथमं स्थानमवाप । तत्रव्ये 'सनातनधर्म कालेज' नाम्नि
महाविद्यालये कञ्चित्कालमध्याप्य स राधास्वामीसम्प्रदायस्य धर्मगुरूणां श्री
साहबजीमहाराजमहाभागानां प्रार्थनामूरोकृत्य आगरामण्डलस्थे दयालबाग-नाम्नि नगरे 'राधास्वामी-शिक्षासंस्थान' इत्यत्र
हिन्दी संस्कृतविषययोः प्राध्यापकत्वेन नियुक्तिमङ्गीचकार । १६३८ तमे लीष्टान्दे स
बदाजनपदस्थ 'गिरवाँ' ग्रामस्य
ग्रामण्यः श्रीरामप्रसादमिश्रस्य अष्टादशहायतों मुढवान् । रामदासीतिनाम्नी कन्या
आगरानगरे निवसता तेन दैवदुविपाकान् महत् पारिवारिकं कष्टमनुभूतम् । अष्टवार्षिकमेव
गार्हस्थ्यसुखं प्रदाय तस्मै पुत्रद्वयं कन्यकां चैकां समर्प्य तस्य प्रिया पत्नी
क्षयरोगेण १६४६ तमे वर्षे स्वगंता |
सुहृद्भिः
पुनर्विवाहार्य मनुरुध्य मानोऽपि स तेषां निर्बन्धमनङ्गीकृत्य मातृविरहितान्
त्रीन् शिशून्, पाकादिक सर्वमपि गृहकार्य स्वयमेव
सम्पादयन् पालयामास, तांश्च न केवलं पितृस्नेहेन अपितु
मातृस्नेहेनापि समयूयुजत् । तस्य गुरुकल्पस्थ ज्येष्ठभ्रातुः
श्रीमुक्तादत्तत्रिपाठिनः, अन्यस्य चापि भ्रातृदयस्य निधनमपि
एतस्मिन्नेव कालांशे बभूव । किन्तु एतत्सर्वमपि धैर्यधनं तं कर्मयोगिनं स्वकीयात्
कर्तव्यमार्गात् प्रच्यावयितुं न शशाक । १६४८ तमे ख्रीष्टान्दे तेन हिन्दी
साहित्यमवलम्ब्य, १३५२ तमे च वर्षे संस्कृतमवलम्ब्य
आगरा विश्वविद्यालयतः प्रथमश्रेण्याम् एम० ए० परोक्षे उत्तीर्णे । एतादृश्याव
विषमायां परिस्थिती स १६५१ ५२ वर्षयोः 'संस्कृत रचनानुवादरत्नाकर' नामानं
ग्रन्थमपि प्रणीतवान् । एकोनविंशतिवर्षपर्यन्तं दयालबाग नगरेऽध्याप्य, ज्ञानगरिमगरिष्ठान्
विपुलांश्च शिष्यान् समुत्पाद्य स १६५३ तमे ईशवीये वर्षे मुरादाबादनगरवर्तिनि के०
जी० के० स्नातकोत्तरमहाविद्यालये संस्कृतप्रवक्तृपदे नियुक्तोऽभूत् । महाविद्यालयस्य
संचालकमहोदयात् श्रीशम्भुनायखन्नामहोदयात् कुलगुरुगौरवमावहन्, महाविद्यालये
संस्कृतमध्यापयन्, बहूनि वैदुष्यमण्डितानि
ग्रन्थरत्नानि च प्रणयन् सा प्रायो विशतिवर्षपर्यन्तं तत्र ससुखं कालं निनाय ।
सदानन्दविरचितस्य वेदान्तसारस्य भावबोधिनीतिनाम्न्यौ संस्कृत - हिन्दीटीके, 'कौमुदोकथाकल्लोलिनी' नामा
पाणिनीपप्रयोगदर्शकः प्रबन्धश्व तेनास्मिन्नेव काले निरमायि। उभयमपि क्रमशः १६५४, १९६१
स्रीष्टाब्दयो: 'चौखम्बा विद्याभवन इतिनाम्न्या
वाराणसी स्थया प्रकाशनसंस्था प्राकाश्यं नीतं वर्तते । सुतद्वयं कन्यका चेदानीं कैशोर्यं
प्राप्तवन्तः आसन् अतः स स्वकीयायाः सारस्वतसाधनायाः कृतेऽधिकतरं समयमवाप्तवान्, समयस्यास्य
सदुपयोगश्च तेन बहुविधशोधनिबन्धरचनायां काव्यनिर्माणे च कृतः एतस्मिन्नेव समये स
शोधोपाधिकृते "ब्रह्मसूत्रप्रमुखभाष्यपञ्चकसमीक्षणम्” इति
विषयमधिकृत्य १६६२ तमे स्त्रीष्टाब्दे आगरा विश्वविद्यालयतः पी-एच० डी०
पदवीमप्यवाप्तवान् । शोध प्रबन्धस्तु अनेन गीर्वाणिगिराऽगुम्फि आगरा
विश्वविद्यालयोयेषु शोधप्रबन्धेषु ऐदंप्राथम्येन प्रस्तुतोऽयं गीर्वाणवाणो ग्रथितः
शोधप्रबन्धः । अयमपि प्रबन्धः 'चौखम्बा संस्कृत सिरीज ऑफिस' इत्यतः
१६७२ तमे वर्षे प्रकाशितो वर्तते । १९६२ तमे ख्रीष्टाब्दे तस्य ज्येष्ठः पुत्रः
शर्मण्यदेशीयां शोधछात्रवृत्तिमवाप्य विदेशं गतवान् । पुत्रस्तु प्रथममेव
मुरादाबादनगरादन्यत्र (सागरे, खड्गपुरे वा) अधोयान आसीत् । एवं
तनूजा मात्र सहायः स प्रायशः एकाको एव भगवद्भक्तो स्वीयं कालं यापयामास विविधानि
ललितानि स्तोत्राणि, स्वकोयज्येष्ठपुत्र. वियोगदुःखपरं 'पितुः
परिदेवितम्' नामकं खण्डकाव्यं च तेनास्मिन्
कालावधी निरमीयन्त । 'मोतियाबिन्दु' नामक
चक्षुरोगपीडितः सन् स किमप्यधिकं रचयितुं नैव शशाक । अस्मिन्नेव काले (१६६३ तमे
वर्षे) तस्य द्वितीय पुत्रः प्रयागविश्व विद्यालये मनोविज्ञान विभागे प्रवक्तपदे
नियुक्तोऽभूत् येनास्य महान् प्रहर्षः समजनि। "व्याकृतिवत्सराजम्" इति
नाम्नः प्रकृतग्रन्थस्य प्रणयनं तेन कदाचिच्छनैः शनैः १९६५-६६ तमयोः
श्रोष्टाब्दयोः कृतम् । अयं ग्रन्थस्तु तस्य 'कौमुदीकथा कल्लोलिनी' नाम्नो
गद्यकाव्यस्य सोपानतया विरचितः । सुकुमारमतीनां कृते कौमुदीकथाकल्लोलिनी सुतरां
दुरधिगमा इति कृत्वा तेन बालानां कृते यमपर: सरलतरो ग्रन्थो विरचितः, यमघीत्य
जनाः निर्बाधं कल्लोलिन्यामवगाहनक्षमाः स्युः । मुख्यतस्त्वयं ग्रन्य:
आंग्लविद्यालयेषु संस्कृतमधीयानानां छात्राणां कृते निर्मितोऽस्ति । आंग्लपढत्या
प्रवर्तितेषु विश्वविद्यालयेषु स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमे प्रायः सिद्धान्तकौमुदीतः
कारक समास कृदन्त तद्धित प्रकरणानि निर्धारितानि भवन्ति । एतत्प्रकरण
चतुष्टयान्तर्भुक्तानामेव सिद्धान्तकौमुदीसूत्राणां स्त्रीप्रत्यय प्रकरणस्य च
केषाश्वित् सूत्राणां, प्रयोगान् एतद्ग्रन्थरत्नं
प्रदर्शयति ।१६७१ तमे वर्षे स्वकीयायाः कन्यकायाः विवाहविधि निर्वाह्य, एवं
गार्ह स्थिको मितिकर्तव्यतां च समवाव्य,
अस्यामेव समायां
जूनमासे के. जी. के. स्नात कोत्तरमहाविद्यालयालब्धावकाशः सन् स स्वकीयजीवनस्य
सांध्यवेलां तीर्थराजे प्रयागे व्यतियापयामास यत्र तस्य द्वितीयः पुत्रः
संयुक्तराज्येभ्यः शोधोपाधि गृहीत्वा प्रतिनिवृत्तः सन् विश्वविद्यालये प्रवाचकपदे
नियुक्त आसीत् । अत्रंब निवसता तेनास्य व्याकृतिवत्सराजस्य हिन्दीभाषयानुवादोऽपि
विहितो येन बालानां कृतेऽयं ग्रन्थः सुखावबोध: स्यात् । सार्द्धपश्च (र्षाणि यावत्
ससुखं प्रयागवासं कृत्वा सदाशय, उदारचेताः, धैर्यशाली, कृपालुश्च
अयं महानुभावः १९७७ तमवर्षस्य दिसम्बरमा सि शिवसायुज्य मवाप । अयं संस्कृतसेवी
विपश्चिन्न केवलं पाण्डित्येन अपि तु स्वकीयैः स्वभाव जन्यमनवीयैर्गुणैरपि
अन्याननिशेते स्म । मनसापि तेन कदापि कस्याप्यहितचिन्तनं नैव कृतम् । सर्वदैव
यथाशक्ति अन्येषां साहाय्यमाचरितम् । विधुरेऽपि काले तेन धैर्यं न परित्यक्तम् ।
आशाभिलाषरहितः, स्वल्पमेव बहु मन्यमानः स्वकीय जीवन
निर्वहणमात्रवृत्तिः, सन्तोषधनोऽयं
साधुब्रह्मणस्यापरिग्रहत्वं, तितिक्षां, वैदुष्यभास्व
रत्वं च सुस्पष्टं स्वीयेन चरितेन निदर्शयामास । इयत्कालावधौ
गुरुवर्षेणानेनाध्याप्य कृतसंस्कारा अनेके कृतविद्याः शिष्याः
स्वविद्यागुरोवंशवृक्षं फलितं कुर्वाणाः दीपाद प्रवर्तिता दीपा इव प्रकाशन्ते, प्रकाश
यन्ति चार्थान् । तेषु त्रयो भारतवर्षीयेषु विश्वविद्यालयेषु
संस्कृतविभागाध्यक्षपदानि समलंकुर्वन्ति । अध्ययनाध्यापनाभ्यां ब्राह्मणवृत्तिं
निर्वहता महाविदुषानेन रचिताः, टीकिता: शोधविषयीकृताश्चेमे ग्रन्था
अत्याक्षण्णामक्षय्याश्व कीर्तिमावहन्ति । ग्रन्थप्रणयन क्रमप्रदर्शनाय कोष्ठके
तेषां प्रथमप्रकाशनखोष्टाब्दोऽपि लिख्यते
१.
सरलज्योतिर्विज्ञानम्, पद्यमयी रचना (१९३६)
२.
रचनानुवादरत्नाकरः, छात्राणां व्याकरणज्ञानवर्धको
ग्रन्थः (१९५२)
३
वेदान्तसारस्य भावबोधिनीहिन्दी-संस्कृत टीका (१६५२)
४. कौमुदीकथाकल्लोलिनी, कौमुदीपद्धत्या
व्याकरणज्ञानार्थं गद्यकाव्यम् । (१९६१)
५.
ब्रह्मसूत्रप्रमुख भाष्यपश्चकसमोक्षणम् (१९७२)
६.
व्याकृतिवत्सराजम्, पाणिनीय योगानुविद्धवत्सराजकथा, (प्रकृतग्रन्थः)
षयोऽप्रकाशिताः सन्ति –
१.
न्यायमुक्तावल्या बालबोधिनी व्याख्या ।
२.
सिद्धान्तकौमुद्या: राजीवलोचनी व्याख्या अपूर्णा
३.
सिद्धान्तादर्शः, सिद्धान्तकौमुद्याः
शास्त्रार्थप्रक्रिया विवेचनम् । पत्र-पत्रिकासु प्रकाशिता अनेके प्रकीर्णश्लोकाः, गम्भीरविषयेषु
शोधपूर्णा: लेखाः, व्रजभाषायां हिन्दीभाषायां चानेकानि
पद्यानि अस्य कीर्ति विशदां कुर्वन्ति । संस्कृत श्लोकरचनापदुरयं प्रायः स्वीयं
संस्कृतज्ञं मित्रवर्ग प्रति संस्कृतमयमेव पत्रम लिखत् । कविशिरोमणिनानेन रचितः
श्लोकोऽयं बांदा जनपदे गिरवां ग्राम निकषावस्थिते खत्रोपर्वते विराजमानाया
विन्ध्यवासिनीदेव्याः मन्दिरे सम्प्रत्यपि उत्कीर्णो वर्तते शिवदास्यपि या कमला
विभव्यपि खत्त्र्यद्रिविन्ध्यनगनिष्ठा । अवतु सदा वसुहस्ता सापर्णा अस्य
पश्वत्रिशदर्थाः स्वोपज्ञा: एकस्मिन् लघुपुस्तके प्रकाशिता वर्तन्ते । एवं
व्याकृतिवत्सराजस्य मङ्गलाचरणात्मकोऽयं श्लोकोऽपि मननीयोऽस्ति मान्दीतमोऽपनयना
नयनाभिरामा रामा रमारमणनाभिसरोजभूतेः । भूतगिरां वितरणे तरणे सहाया हायाणवे च
भवताद् भवतापनुत्तौ ॥ भगवत्परायणस्य विद्याचणस्य श्रीरामशरणस्प
रामदासीत्यन्वर्याख्या धर्मपत्नी दाम्पत्यजीवनस्याष्टवर्षाण्येवानेन सह चरित्वा
परमेश्वरेच्छया स्वस्नेहस्य सौभाग्यस्य,
श्रद्धायाश्च मूर्तिरूपास्तिस्रः
सन्तती: (द्वो पुत्रो, एकां कन्याञ्च) एतस्मै समर्प्य
भूयोऽप्येनम् प्राप्तुमन्तककानने तपश्चरितुमगच्छत् । तस्याः वियोगे शात्रिणः
करुणवेत्थं काव्यत्वमागता।
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