लघुसिद्धान्तकौमुदी (हलन्‍तपुँल्‍लिङ्ग-प्रकरणम्)

                                                        अथ हलन्‍त पुँल्‍लिङ्गाः

👉 अजन्त अर्थात् स्वर वर्ण अंत वाले शब्दों की रूप सिद्धि की प्रक्रिया हमलोग पढ़ चुके हैं। इस प्रकरण में हल् अर्थात् व्यंजन वर्ण जिस शब्द के अंत में आते हैं, ऐसे शब्दों की रूपसिद्धि इसमें पढ़ेंगे। व्यंजनान्त वर्ण होने के कारण अजादि विभक्तियों के रूप में अधिक परिवर्तन नहीं होता। अजादि विभक्तियों में वर्णसम्मेलन करने पर रूप बनता चला जाता है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संस्कृत व्याकरण में बहुशः प्रातिपदिक शब्द के आधार पर रूपों की प्रक्रिया नियत होती है। हमने जिस प्रकार अजन्त प्रकरण में माहेश्वर सूत्र में पठित स्वर वर्णों के क्रम के अनुसार शब्दों की रूप सिद्धि को प्रक्रिया  देखी है, वैसे ही हलन्त (जैसा कि हल् अंत से स्पष्ट है) में भी माहेश्वर सूत्र में पठित वर्णों के क्रम से रूप सिद्धि की प्रक्रिया बतायी गयी है। यहाँ ह य व रट् के प्रथम व्यंजन अक्षर ह् से रूप सिद्धि आरम्भ किया जा रहा है।

👉 इस प्रकरण में बार- बार प्रयोग में आने वाले निम्नलिखित सूत्रों का अभ्यास कर आगे पाठ पढ़ना चाहिए।

1. झलां जशोऽन्ते 2. वाऽवसाने 3. ड: सि धुट् 4. खरि च 5. संयोगान्तस्य लोपः 6. हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् ।

सर्वनामस्थान संज्ञा

7. सुडनपुंसकस्य सूत्र नपुंसक लिंग से भिन्न  सु, , जस्, अम् और औट् प्रत्यय की सर्वनामस्थान संज्ञा करता है।

पदसंज्ञा

8. स्वादिष्वसर्वनामस्थाने सूत्र स्वौजस् अर्थात् चतुर्थ अध्याय के प्रथम प्रत्यय से लेकर उरः प्रभृतिभ्यः कप् तक अर्थात् पांचवें अध्याय के चतुर्थ पाद के कप् प्रत्यय पर्यन्त सर्वनामस्थान भिन्न (सु, , जस् ,अम्, औट् प्रत्ययों को छोड़कर) शेष प्रत्ययों के परे रहने पर पूर्व की पद संज्ञा करता है। सारांशतः यह असर्वनामस्थानसंज्ञक हलादि प्रत्ययों की पद संज्ञा करता है।

भसंज्ञा

9. यचि भम् सूत्र स्वौजस् सूत्र से उरः प्रभृतिभ्यः कप् तक अर्थात् सु प्रत्यय से कप् प्रत्यय पर्यंत तक असर्वनामस्थान संज्ञक जो यकार आदि तथा अजादि प्रत्यय है, उनके परे रहने पर पूर्व की भ संज्ञा करता है।

२५२ हो ढः

हस्‍य ढः स्‍याज्‍झलि पदान्‍ते च । लिट्, लिड् । लिहौ । लिहः । लिड्भ्‍याम् । लिट्त्‍सु, लिट्सु ।।

सूत्रार्थ - हकार को ढकार हो, पदान्त में तथा झल् परे रहने पर।

लिट्, लिड् । लिह् +  सु' में सु के उकार का अनुबन्धलोप 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्' से अपृक्त सकार का लोप होकर लिह् हुआ। पदान्त होने से हो ढः से हकार को ढकार आदेश हुआ लिढ बना । 'झलां जशोऽन्तेसे पदान्त ढकार को डकार हुआ। 'वाऽवसानेसे पदान्त डकार को विकल्प से चर् हो गया।  लिड्, लिट् रूप सिद्ध हुआ।

लिह् + औ = लिहौ। लिह् + जस् में जकार का अनुबन्धलोप  लिह् + अस् = लिहः। इसी प्रकार अजादि विभक्तियों में वर्ण सम्मेलन कर 'लिहः' आदि रूप बनेगें।

लिड्भ्याम् । 'लिह् + भ्याम्' में 'हो ढःसे झल् परे रहते हकार को ढकार हो गया। 'झलां जशोऽन्ते' से ढकार को डकार हो गया। लिड्भ्याम् रूप बना।

लिट्त्सु, लिट्सु । लिह् + सुप् में 'हो ढः' से हकार को ढकार हुआ। लिढ+  सु बना। यहाँ 'झलां जशोऽन्तेसे ढकार को डकार हुआ। लिड् + सु बना। यहाँ 'ड: सि धुट्' से सकार को धुट् का आगम हुआ। धुट् में उट् का अनुबन्ध लोप लिड् ध् + सु हुआ। 'खरि च से धकार को तकार होकर लिड् त् + सु  हुआ। इसमें तकार परे रहते 'खरि च' से लिड् के डकार को टकार होकर लिट् त् + सु = लिट्त्सु बना।  धुट् अभाव पक्ष में लिड् + सु' इस स्थिति में 'खरि च' से जकार को टकार होकर 'लिट्सु' बन गया।

 

२५३ दादेर्धातोर्घः

झलि पदान्‍ते चोपदेशे दादेर्धातेर्हस्‍य घः ।।

सूत्रार्थ - पदान्त में तथा झल् परे रहते उपदेश में दकारादि धातु के हकार को घकार हो ।

२५४ एकाचो बशो भष् झषन्‍तस्‍य स्‍ध्‍वोः

धात्‍ववयवस्‍यैकाचो झषन्‍तस्‍य बशो भष् से ध्‍वे पदान्‍ते च । धुक्, धुग् । दुहौ । दुहः । धुग्‍भ्‍याम् । धुक्षु ।।

सूत्रार्थ - धातु के अवयव स्वरूप झषन्त एकाच् के बश् को भष् आदेश हो, सकार और ध्व परे रहते अथवा पदान्त में ।

दुह् धातु है अतः यह उपदेश में दकारादि है।

धुक्, धुग् । दुह् + सु में  अपृक्त सकार का लोप होने पर दुह् इस अवस्था में 'दादेर्धातोर्घः' सूत्र से हकार को घकार होकर दुघ् बना।

'दुघ्' यह एकाच है, झषन्त भी है तथा पदान्त में घकार है। यह धातु का अवयव भी है। अत: इसके बश् दकार को अत्यन्त सादृश्य के कारण एकाचो बशो भष् झषन्‍तस्‍य स्‍ध्‍वोः से भष् (धकार) हुआ। 'झलां जशोऽन्ते' से धुघ् के घकार को गकार होकर धुग् बना। 'वाऽवसानेधुग् के गकार को विकल्प से ककार होकर धुक्, धुग्  रूप बने।

धुग्भ्याम् । दुह् + भ्याम् में  'दादेर्धातोर्घः' सूत्र से हकार को घकार होकर दुघ् + भ्याम् बना। भकार झल् परे है। अतः दकार के स्थान में धकार और घकार के स्थान में गकार हो जाने से 'धुग्भ्याम्' बना।

धुक्षु । दुह् + सुप् में सकार परे है। अत: 'दादेर्धातोर्घः' सूत्र से भष्भाव हुआ। अर्थात् दुह् के दकार को धकार और हकार को घकार हुआ। धुघ् + सु बना। अब घकार को जश्त्व होकर गकार हुआ। धुग् + सु बना। यहां 'खरि च' से सकार परे होने से गकार को चर् (ककार) होकर धुक् + सु बना। तदनन्तर कवर्ग से पर सकार को 'आदेशप्रत्यययो: ' सूत्र से षकार तथा वर्णसम्मेलन होकर 'धुक्षु' रूप सिद्ध हुआ।


२५५ वा द्रुहमुहष्‍णुहष्‍णिहाम्
एषां हस्‍य वा घो झलि पदान्‍ते च । ध्रुक्ध्रुग्ध्रुट्ध्रुड् । द्रुहौ । द्रुहः । ध्रुग्‍भ्‍याम्ध्रुड्भ्‍याम् । ध्रुक्षुध्रुट्त्‍सुध्रुट्सु ।। एवं मुक्मुग् इत्‍यादि ।।

सूत्रार्थ - पदान्त तथा झल् परे रहते द्रुह्, मुह्, ष्णुह्, तथा ष्णिह् शब्दों के हकार को विकल्प से धकार हो।
विशेष
'द्रूह् शब्द दकारादि धातु से निष्पन्न है। अतः दकारादि धातु होने के कारण 'दाऽदेर्धातो:० सूत्र द्रुह् के हकार को 'घ' प्राप्त होता है। उसे बाधकर वा द्रुहमुहष्‍णुहष्‍णिहाम् से हकार को विकल्प से घकार आदेश होता है। 
ध्रुट्, ध्रुड् । द्रुह् + सु में सु के उकार का अनुबन्धलोप, 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्' से अपृक्त सकार का लोप हो जाता है। वा द्रुहमुहष्‍णुहष्‍णिहाम् से विकल्प से हकार को घकार तथा एकाचो बशो भष् झषन्‍तस्‍य स्‍ध्‍वोः से दकार को धकार (भष्भाव) हुआ। ध्रुघ् बना। पुनः पदान्त घकार को  'झलां जशोऽन्ते' से जश्त्व गकार होकर ध्रुग् बना। यहां वाऽवसाने से गकार को चर् ककार होगा। ध्रुक् बना। चर् विकल्प पक्ष में ध्रुग् रूप बना।  
हकार को घकार विकल्प पक्ष में हल्ङ्यादि  लोप होने पर द्रुह् का हकार पदान्त में होने से हो ढः से हकार को ढकार आदेश, एकाचः से भष्भाव, 'झलां जशोऽन्ते' के द्वारा पदान्त ढकार को डकार तथा 'वाऽवसाने' से पदान्त डकार को विकल्प से चर् हो गया।  ध्रुट्, ध्रुड् ये दो रूप सिद्ध होंगे। 
ध्रुग्भ्याम् । यहां वा द्रुहमुहष्‍णुहष्‍णिहाम्  विकल्प से हकार को घकार करेगा। इस पक्ष में 'ध्रुग्भ्याम्' बनेगा। घकार अभाव पक्ष में होढः' से ढकार, जश्त्व आदि होकर 'ध्रुड्भ्याम्' बना। 
ध्रुक्षु । द्रुह, + सुप् यहां वा दुह० से पदान्त हकार को वैकल्पिक घकार हो कर एकाचो बशो० सूत्र से दकार को धकार हुआ। ध्रुघ् + सु बना। घकार को जश्त्व गकार, सु के सकार को षत्व षकार हुआ। ध्रुग् + षु बना। गकार को चर्त्व ककार करने से 'ध्रुक्षु' रूप सिद्ध होता है । घत्वाभाव में पदान्त हकार को हो ढः से ढकार, भष्त्व से दकार को धकार, जश्त्व से ढकार को डकार, डः सि धुट् से वैकल्पिक धुट् का आगम, अनुबन्धलोप तथा खरि च (७४) से चर्त्व करने पर ध्रुट्त्सु रूप बनता है। घत्वाभाव तथा धुट् विकल्प पक्ष में ध्रुट्सु रूप बनता है। इस प्रकार सुप् में कुल मिला कर ध्रुक्षु,  ध्रुटत्सु, तथा ध्रुट्सु ये तीन रूप सिद्ध होते हैं ।
इसी प्रकार 'मुह्' आदि हकारान्त शब्द के रूप बनेंगे। मुह् शब्द के सु में मुक्, मुग्, भ्याम् में मुग्भ्याम्, मुड्भ्याम् तथा सुप् में मुक्षु, मुट्त्सु, मुट्सु रूप बनेंगे। 

२५६ धात्‍वादेः षः सः
धातोरादेः परस्य षस्य सः स्यात् । 
स्‍नुक्स्‍नुग्स्‍नुट्स्‍नुड् । एवं स्‍निक्स्‍निग्स्‍निट्स्‍निड् ।। विश्ववाट्विश्ववाड् । विश्ववाहौ । विश्ववाहः । विश्ववाहम् । विश्ववाहौ ।।

सूत्रार्थ - धातु के आदि षकार को सकार आदेश हो।
👉 'ष्णुह्' उद्गिरणे धातु है। ष्णुह् + सु में स् शेष रहता है। इसके आदि मूर्धन्य षकार को धात्‍वादेः षः सः से सकार हो गया। यहाँ षकार के बाद नकार को रषाभ्यां णो नः समानपदे से णकार हुआ था अर्थात् नकार को णकार होने का निमित्त षकार था। उस निमित्त के समाप्त होने पर। णकार भी नकार बन गया क्योंकि 'निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपाय:' इस परिभाषा के बल से निमित्त के न रहने पर नैमित्तिक भी नहीं रहता। 
स्नुक् । स्नुह् + स् में अपृक्त सकार का लोप हो गया। 'वा दुह०' के द्वारा स्नुह् के हकार को विकल्प से घकार पुनः घकार को जश्त्व तथा विकल्प से चर्त्व हुआ। घकार पक्ष में 'स्नुग्' तथा 'स्नुक्' रूप होंगे। घकार अभाव पक्ष में 'हो ढः' से ढकार होकर 'स्नुड्' तथा 'स्नुट्' रूप होंगे। 
'स्नुह् + भ्याम्'- यहां पर दो रूप होंगे। एक घकार पक्ष में 'स्नुग्भ्याम्' तथा दूसरा ढकार पक्ष में स्नुड्भ्याम्'। 
स्नुक्षु । स्नुह् + सुप्- यहाँ 'वा द्रुह' के द्वारा विकल्प से घकार हुआ। घकार पक्ष में स्नुघ् सु। घकार का गकार तथा ककार हुआ। अब 'सु' को मूर्द्धन्य आदेश होकर 'स्नुक्षु' रूप बन गया। घकार अभाव पक्ष में धुट् आगम को वैकल्पिक प्राप्ति होगी। धुट् पक्ष में 'स्नुट्त्सु' तथा अभाव पक्ष में 'स्नुट्सु' रूप बनेगा। 
इसी प्रकार स्निह् शब्द (स्नेह करने वाला) के भी रूप बनेंगे। 
सु विभक्ति के वैकल्पिक घकार पक्ष में 'वा द्रुह' से हकार को घकार आदि होकर स्निक्, स्निग् रूप बनेगा। विकल्प पक्ष में हो ढः से ढत्व होकर स्निट् स्निड् बनेगा।
भ्याम् में पूर्वोक्त प्रक्रिया के अनुसार - स्निग्भ्याम् तथा स्निड्भ्याम् रूप बनेगा। सुप् में  स्निक्षु, स्निट्त्सु, स्निट्सु।
विश्ववाह् शब्द विश्वं वहति इति विश्ववाहः अर्थात् संसार को चलाने वाला ।
विश्ववाट्, विश्ववाड् । 'विश्ववाह् + सु में अनुबन्धलोप होने पर स् बचा। अपृक्त सकार का 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्' से लोप हो गया।  'हो ढः' से हकार को ढकार तथा जश्त्व डकार हो गया। 'वाऽवसाने' के नाम विकल्प से चर्त्व होकर विश्ववाट् बना। चर्त्व विकल्प पक्ष में विश्ववाड् बना।
अजादि विभक्तियों में वर्णसम्मेलन करने पर  विश्ववाहौ । विश्ववाहः । विश्ववाहम् आदि रूप बनते हैं।
२५७ इग्‍यणः संप्रसारणम्
यणः स्‍थाने प्रयुज्‍यमानो य इक् स संप्रसारणसंज्ञः स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ - यण् के स्थान में होने वाले इक् की सम्प्रसारण संज्ञा हो।

२५८ वाह ऊठ्
भस्‍य वाहः संप्रसारणम् ऊठ् स्यात् ।।

सूत्रार्थ - भसंज्ञक वाह् शब्द को सम्प्रसारण संज्ञक ऊठ् आदेश हो। 
 'ऊठ्' के ठकार की इत्संज्ञा 'हलन्त्यम्' के द्वारा तथा तस्य लोपः से लोप हो जाता है, ऊ शेष रहता है। 

२५९ संप्रसारणाच्‍च
संप्रसारणादचि पूर्वरूपमेकादेशः स्यात् । एत्‍येधत्‍यूिठ्स्‍वति वृद्धिः । विश्वौहःइत्‍यादि ।।
सूत्रार्थ - सम्प्रसारण का अच् परे रहते पूर्व तथा पर के स्थान में पूर्वरूप एकादेश हो।
विश्वौहः । "विश्ववाह् + शस्' इस अवस्था में विश्ववाह् की यचि भम् से भसंज्ञा तथा इसके अवयव 'वाह्' को सम्प्रसारण ऊठ् हुआ। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ सम्पूर्ण वाह् के स्थान पर उठ् न होकर केवल वकार को उठ् होता है। इस प्रकार विश्व ऊ आह् अस् बना। यहां इग्‍यणः संप्रसारणम् से  'ऊ'  की सम्प्रसारण संज्ञा होती है। इस सम्प्रसारण 'ऊ'  से परे 'आ' यह अच् है; अतः पूर्व (ऊ) और पर (आ) के स्थान पर सम्प्रसारणाच्च से  पूर्वरूप 'ऊ' एकादेश होकर 'विश्व ऊह् + अस्' हुआ। एत्येधत्यूठसु सूत्र से वकारोत्तर अकार और ऊठ् के ऊकार के स्थान पर 'औ' वृद्धि हुआ। विश्वौह् + अस् बना। सकार को रुत्व और रेफ को विसर्ग करने से 'विश्वौहः' रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार आगे सर्वत्र भसज्ञकों में प्रक्रिया होती है। 

हलादि विभक्ति परे रहते 'विश्ववाह्' के हकार को 'हो ढः' से ढकार होकर विश्ववाड्भिः, विश्ववाड्भ्यः आदि रूप बनेंगे। अजादि विभक्ति परे रहते वर्ण सम्मेलन रुत्व विसर्ग आदि कार्य कर 'विश्वाहौ',  'विश्वाहः'  रूप बनते चले जाते हैं। 
इसी प्रकार वाह् अंत वाले भारवाह् (कुली) तथा प्रष्ठवाह् (बछड़ा) आदि शब्दों के रूप होंगे। 

अब अनडुह् (बैल) शब्द की रूप सिद्धि प्रक्रिया बता रहे हैं-
२६० चतुरनडुहोरामुदात्तः
अनयोराम् स्‍यात्‍सर्वनामस्‍थाने परे ।।
सूत्रार्थ - सर्वनाम स्थानिक प्रत्यय परे रहते चतुर् और अनडुह् शब्द को आम् का आगम हो।
आम् का मकार इत्संज्ञक है। मित् होने के कारण 'मिदचोऽन्त्यात् परः' परिभाषा के बल पर आम् का आगम अन्त्य अच् का अवयव होगा। 

२६१ सावनडुहः
अस्‍य नुम् स्‍यात् सौ परे । अनड्वान् ।।
सूत्रार्थ - सु परे रहते अनडुह् शब्द को नुम् आगम हो। 
नुम् के मकार की इत्संज्ञा है और उकार उच्चारण की सुविधा के लिए है। 
अनड्वान् । अनडुह् + सु में स् शेष बचा। सुडनपुंसकस्य से नपुंसक लिंग से भिन्न सु प्रत्यय की सर्वनामस्थान संज्ञा हुई। चतुरनडुहोरामुदात्त: से 'आम्' का आगम हुआ। अनडु आम् ह् + स्  हुआ। 'अनडु आम् ह् स्' को प्रकृत सूत्र के द्वारा नुम् आगम हुआ। मित् होने के कारण अन्त्य अच् का अवयव बन गया। अनडु आम् नुम् ह् + स्। आम् के मकार तथा नुम के मकार की इत्संज्ञा लोप 'इको यणचि' के द्वारा अनडु के उकार को  'यण्' होकर अनड्वान् ह् + स् बना। 'हल्ड्या.' से अपृक्त सकार का लोप हो गया। 'अनड्वान् ह् में 'संयोगान्तस्य लोपः' से हकार का लोप होकर अनड्वान् रूप सिद्ध हो गया। 
२६२ अम् संबुद्धौ

चतुरनडुहोरम् स्यात् सम्बुद्धौ।
हे अनड्वन् । हे अनड्वाहौ । हे अनड्वाहः । अनडुहः । अनडुहा ।।

सूत्रार्थ - सम्बुद्धि परे रहते चतुर् और अनडुह् को अम् आगम हो।

अम् का मकार इत्संज्ञक है। 

हे अनड्वन् । 'हे अनडुह् + सु'- यहाँ 'अम् सम्बुद्धौ' सूत्र से सम्बुद्धि परे रहते 'अम्' का आगम तथा 'सावनडुहः से 'नुम्' का आगम हो गया। नुम् में मकार का अनुबन्धलोप, अनडु अम् न् ह् स्। अब 'इको यणचि' के द्वारा यण्, 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्' से सकार का लोप तथा 'संयोगान्तस्य लोपः' के द्वारा हकार का लोप होकर हे अनड्वन् रूप सिद्ध हुआ।

हे अनड्वाहौ। 'अनडुह् + औ'- यहाँ 'चतुरनहो०'- के द्वारा आम् आगम हुआ। 'यण्' आदेश होकर अनडु आम् ह् औ, मकार का लोप, अनड्वाह् औ =  हे अनड्वाहौ।

इसी प्रकार 'जस्' प्रत्यय परे रहते 'अनड्वाहः रूप बनेगा।। 'अनडुह शस्' में शस् सर्वनाम स्थानसंज्ञक नहीं है, अतः 'आम्' आगम नहीं होगा। यहाँ अस् के सकार को रुत्व आदि होकर अनडुहः' बनेगा। 

२६३ वसुस्रंसुध्‍वंस्‍वनडुहां दः
सान्‍तवस्‍वन्‍तस्‍य स्रंसादेश्‍च दः स्‍यात्‍पदान्‍ते । अनडुद्भ्‍यामित्‍यादि ।। सान्‍तेति किम् ? विद्वान् । पदान्‍ते किम् ? स्रस्‍तम् ।
ध्‍वस्‍तम् ।।
सूत्रार्थ -   सकारान्त वसु प्रत्ययान्त, स्रंसु, ध्वंसु, और अनडुह् शब्दों को दकार आदेश हो, पदान्त में। 
अनडुद्भ्याम् । 'अनडुह् + भ्याम्' में 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' से 'अनडुह् ' की पद संज्ञा होती है। 'अनडुह् ' की पद संज्ञा होने के कारण  पदान्त में हकार को दकार होकर अनडुद्भ्याम् रूप सिद्ध हुआ। 

'अनडुह् सुप्' में  'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' के द्वारा 'अनडुह् ' की पदसंज्ञा होकर वसुस्रंसुध्‍वंस्‍वनडुहां दः से हकार के स्थान पर दकार हुआ । अनडुद् + सु बना। यहाँ 'खरि च' सूत्र के द्वारा दकार को चर् तकार हो कर अनडुत्सु रूप सिद्ध हुआ।
सान्त इति- सकारान्त वसु प्रत्ययान्त को ही हो'- ऐसा क्यों कहा? 'विद्वस् शब्द से सु विभक्ति में विद्वान् रूप बनता है। विद्वस् शब्द वसु प्रत्ययान्त है, परन्तु विद्वान् बन जाने पर सान्तता यह सकारान्त नहीं है। यदि प्रकृत सूत्र में 'सान्त' शब्द का न्यास नहीं होता तो इसे दकार आदेश होकर 'विद्वाद् ऐसा अनिष्ट रूप बनेगा। 'सान्त' ऐसा पाठ करने से विद्वान् जैसे स्थलों पर दकार आदेश का निवारण हो जाता है। 
पदान्त इति-पदान्त में हो-ऐसा क्यों कहा? 'स्रस्तम्' तथा 'ध्वस्तम् में दकार आदेश न हो। स्रंसु तथा ध्वंसु धातु से क्त प्रत्यय हुआ । स्रस् + तम् तथा ध्वस् + तम् में सकार पद के अंत में नहीं है। पदान्त में सकार नहीं होने के कारण स्रस्तम् तथा 'ध्वस्तम्' में दकार नहीं हुआ।

 
तुरासाह् (इन्द्र) शब्द
२६४ सहेः साडः सः
साड् रूपस्‍य सहेः सस्‍य मूर्धन्‍यादेशः । तुराषाट्तुराषाड् । तुरासाहौ । तुरासाहः । तुराषाड्भ्‍यामित्‍यादि ।।
सूत्रार्थ - साड् रूपी सह धातु के सकार को मूर्द्धन्य आदेश हो।

तुराषाड्, तुराषाट् । 'तुरासाह् + सु > स्' सकार का हल्ङ्यादि लोप हो गया। तुरासाह् बचा। पदान्त होने से ह् को 'हो ढः' से ढकार और 'झलां जशोऽन्ते से डकार होकर तुरासाड् हुआ। अब सकार को मूर्धन्य आदेश तथा 'वाऽवसाने' के द्वारा विकल्प से चर्त्व होकर तुराषाड्, तुराषाट् रूप बना। 

"तुरासाह् + औ' यहाँ पदान्त न होने से 'हो ढः' से ढत्व नहीं होता। अत: 'साड्' रूप नहीं बनता। तुरासाहौ। इसी प्रकार जस् में सकार को रुत्व विसर्ग करके तुरासाहः रूप बनेगा।
हलादि विभक्तियों में हकार को ढकार और 'साड्' के सकार को मूर्धन्य आदेश होकर तुराषाड्भ्‍याम् इत्यादि रूप बनते हैं। 
२६५ दिव औत्
दिविति प्रातिपदिकस्‍यौत्‍स्‍यात्‍सौ । सुद्यौः । सुदिवौ ।।
सूत्रार्थ - दिव प्रातिपदिक को औत् आदेश हो सु परे रहते। 
👉 'औत्' का तकार उच्चारणार्थ है। जिनका उच्चारण के प्रयोजन से पाठ किया है, उनकी इत्संज्ञा करने तथा लोप करने की आवश्यकता नहीं होती, अपितु उनकी स्वत: निवृत्ति हो जाती है।  उच्चारणार्थानामित्संज्ञालोपाभ्याम् विना एव निवृत्तिः । यह सूत्र अङ्गाधिकार का है। अत: 'पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदन्तस्य च' परिभाषा से तदन्त का ग्रहण होता है। अतः दिव शब्दान्त 'सुदिव्' शब्द में भी सूत्र की प्रवृत्ति होती  है। अर्थात् दिव् और दिव् शब्दान्त दोनों को औकार आदेश होगा। अलोऽन्त्यपरिभाषा से दिव् के वकार को ही औकार आदेश होगा।
सुद्यौः । 'सुदिव् + स्' में 'सु' परे है अतः दिव औत् से वकार को औकार करने पर सुदि औ स् हुआ। अब इको यणचि से इकार को यकार हो कर सुद्यौ + स् हुआ। सकार को रुत्व विसर्ग करने से 'सुद्यौः' प्रयोग सिद्ध हुआ। 

सुदिव् + औ = सुदिवौ । सुदिव् + अस् (जस्) = सुदिवः । सुदिवम् । सुदिवौ। सुदिव + अस् (शस्) = सुदिवः । 
२६६ दिव उत्
दिवोऽन्‍तादेश उकारः स्‍यात् पदान्‍ते । सुद्युभ्‍यामित्‍यादि ।। चत्‍वारः । चतुरः । चतुर्भिः । चतुर्भ्यः ।।
सूत्रार्थ - पद के अन्त में दिव् को उकार अन्तादेश हो । 
उत् में तपर ग्रहण से ह्रस्व उकार आदेश होगा। अलोऽन्त्यपरिभाषा से दिव् के अन्त्य अल् वकार को उ ादेश होता है।
'सुदिव् + भ्याम्' में स्वादिष्वसर्वनामस्थाने से पद संज्ञा दिव उत् से वकार को उत् आदेश तथा दि के इकार को यण् यकार होने पर सुद्युभ्याम् रूप सिद्ध हुआ।

 
अब रेफान्त पुँल्लिङ्ग 'चतुर्' शब्द की रूप सिद्धि की जा रही हैं । 'चतुर्' शब्द नित्यबहुवचनान्त होता है। 
चत्वारः । 'चतुर+अस्' (जस्) यहां  चतुरनहोरामुदात्तः सूत्र से 'जस्' यह सर्वनामस्थान परे होने के कारण आम् का आगम हुआ । आम् में मकार की इत्संज्ञा लोप हो जाता है। चतु आ र् अस् बना। अब इको यणचि (१५) से चतु के उकार को यण् वकार होकर चत्व् आ र् अस् बना। अस् के सकार को रुत्व,विसर्ग करने पर 'चत्वारः' प्रयोग सिद्ध हुआ। 
चतुरः । चतुर् + अस् (शस्) = चतुरः । यहाँ शस् विभक्ति सर्वनामस्थान न होने से आम् न होगा। 
चतुर् + भिस् =  चतुर्भिः । चतुर् + भ्यस् =  चतुर्भ्यः । 
चतुर्+आम् । यहां ह्रस्वादि के न होने से ह्रस्वनद्यापो नुट् द्वारा नुट् प्राप्त नहीं हो सकता, अतः इस की सिद्धि के लिये अग्रिमसूत्र प्रवृत्त होता है -
२६७ षट्चतुर्भ्‍यश्‍च
एभ्‍य आमो नुडागमः ।।
सूत्रार्थ - षट्सज्ञकों तथा चतुर् शब्द से परे आम् को नुट् का आगम हो । 
नुट् में टकार की इत् संज्ञा होने से यह टित् है अतः नुट् आम् के पूर्व आएगा। 
चतुर् + आम् । यहां प्रकृत-सूत्र से नुट् का आगम हो कर 'चतुर् + नाम्' हुआ। 
२६८ रषाभ्‍यां नो णः समानपदे
एकपदस्थाभ्यां रेफषकाराभ्यां परस्य नस्य णः स्यात्
सूत्रार्थ - एक पद में स्थित रेफ वा षकार से परे नकार को णकार आदेश हो। 
२६९ अचो रहाभ्‍यां द्वे
अचः पराभ्‍यां रेफहकाराभ्‍यां परस्‍य यरो द्वे वा स्‍तः । चतुर्ण्‍णाम्चतुर्णाम् ।।
सूत्रार्थ - अच् से परे जो रेफ तथा हकार, उससे परे यर् को द्वित्व हो विकल्प से ।

चतुर् + आम्' ऐसी स्थिति में आम् को 'नुट्' आगम हुआ। नुट् में टकार की इत् संज्ञा हुई। टित् होने के कारण यह आम् के आदि में हो गया। 'चतुर् न् आम्' बना। यह एक पद होने के कारण रषाभ्‍यां नो णः समानपदे से नकार को णकार हुआ। चतुर्णाम् बना। अब 'अचो रहाभ्याम्० ' सूत्र के द्वारा अच् (उकार) से परवर्ती रेफ से उत्तरवर्ती यर णकार को विकल्प से द्वित्व होकर 'चतुर्ण्णाम्' बना। द्वित्व अभाव पक्ष में  'चतुर्णाम्' रूप बने। 
२७० रोः सुपि
रोरेव विसर्गः सुपि । षत्‍वम् । षस्‍य द्वित्‍वे प्राप्‍ते ।।
सूत्रार्थ -'रु' सम्बन्धी रेफ को विसर्ग हो, सुप् परे रहते ।
'चतुर् + सुप्' में 'खरवसानयोः विसर्ज०' से रेफ को विसर्ग प्राप्त था। रोः सुपि से निषेध हो जाता है। 

षत्वमिति- 'चतुर् + सु' में 'आदेशप्रत्यययोः' के द्वारा मूर्धन्य आदेश हो गया। चतुर्षु रूप बना। चतुर् + षु में अचोरहाभ्यां द्वे' के द्वारा अच् (उकार) से परवर्ती रेफ से उत्तरवर्ती षकार को द्वित्व प्राप्त हुआ।
२७१ शरोऽचि
अचि परे शरो न द्वे स्‍तः । चतुर्षु ।।
सूत्रार्थ -अच् परे रहते शर् को द्वित्व न हो।
 'चतुर्षु' में प्राप्त द्वित्व का शरोऽचि से निषेध हो गया। 
 
२७२ मो नो धातोः
धातोर्मस्‍य नः पदान्‍ते । प्रशान् ।।
सूत्रार्थ -धातु के मकार को नकार हो पदान्त में ।

प्रशान् । 'प्रशाम् + स्' इस दशा में अपृक्त सकार का हल्ड्यादि लोप हो जाने से प्रशाम् बना। तब धातु के अन्त्य मकार को नकार होने से 'प्रशान्' रूप सिद्ध हुआ। 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' (पा०८/२/७) के द्वारा नकार का लोप प्राप्त हुआ, परन्तु 'मो नो धातोः (८.२.६४)' का कार्य असिद्ध होने के कारण यहाँ नकार का लोप नहीं हुआ। 
हलादि विभक्ति परे रहते 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' के द्वारा 'प्रशाम्' शब्द की पद संज्ञा हो जायेगी। अतः 'मो नो धातोः' के द्वारा मकार को नकार होगा। 

प्रशान्सु । 'प्रशाम् सुप्'-यहाँ पदसंज्ञा होकर 'मो नो धातोः' के द्वारा मकार को नकार हो गया। अब 'नश्च' के द्वारा धुट् आगम प्राप्त है, परन्तु 'मो नो धातोः' (८/२/६४) असिद्ध है, अत: इस सूत्र के द्वारा किया गया नकार आदेश भी असिद्ध है। अतः धुट आगम नहीं होगा।
 
२७३ किमः कः
किमः कः स्‍याद्विभक्तौ । कः । कौ । के इत्‍यादि । शेषं सर्ववत् ।।
सूत्रार्थ -'किम्' शब्द को 'क' आदेश हो विभक्ति परे रहते।। 

कः । किम् शब्द को  विभक्ति परे रहते क आदेश हो जाता है। किम् + सु में 'किम्' शब्द को 'क' आदेश होगा। स्थानिवद्भाव से किम् के स्थान पर हुआ 'क' आदेश भी सर्वनाम संज्ञक हो गया। क + सु में उकार का अनुबन्ध लोप सकार को रुत्व विसर्ग करने पर कः रूप सिद्ध हुआ। 
चुंकि किम् को क आदेश होने पर यह  अजन्त बन जाता है, यह सर्वादि गण पठित भी है अतः इसके रूप 'सर्व' शब्द के समान बनेंगे।

विभक्ति एकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रथमा     कः          कौ            के
द्वितीया  कम् कौ             कान्
तृतीया    केन काभ्याम्      कैः
चतुर्थी   कस्मै काभ्याम्       केभ्यः
पञ्चमी   कस्मात् काभ्याम्      केभ्यः
षष्ठी       कस्य     कयोः          केषाम्
सप्तमी   कस्मिन् कयोः         केषु

२७४ इदमो मः

इदमो मस्य मः स्यात् सौ परे । त्‍यदाद्यत्‍वापवादः ।।
सूत्रार्थ -'इदम्' शब्द के मकार को मकार ही हो, 'सु' परे रहते ।

'इदम सु'-यहाँ 'त्यदादीनाम:' के द्वारा इदम् के मकार को अकार आदेश प्राप्त है, जिसके बाध के लिए इदमो मः सूत्र आया। अत एव ग्रन्थकार लिखते हैं- त्‍यदाद्यत्‍वापवादः । 'त्यदादीनाम:' सूत्र से प्राप्त अकार का यह अपवाद है।
७५ इदोऽय् पुंसि
इदम इदोऽय् सौ पुंसि । अयम् । त्‍यदाद्यत्‍वे ।।
सूत्रार्थ -इदम् शब्द के 'इद्' अवयव को 'अय्' आदेश हो, पुल्लिङ्ग में सु परे रहते  
अयम् । 'इदम् + सु' इस अवस्था में इदोऽय् पुंसि से 'इद्' अवयव को 'अय्' आदेश हुआ। 'अय् अम् + स्' हो गया। अब 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्' से सकार का लोप हो गया। वर्ण सम्मेलन होकर अयम् रूप सिद्ध हुआ। 

त्यदाद्यत्व इति- 'इदम् + औ' इस स्थिति में 'त्यदादीनाम:' सूत्र से मकार को अकार हो गया। 'इद अ + औ' बना। 
२७६ अतो गुणे
अपदान्‍तादतो गुणे पररूपमेकादेशः स्यात् ।।
सूत्रार्थ -पदान्तभिन्न ह्रस्व अकार से गुण परे रहते पररूप एकादेश हो।
'इद अ + औ' बनने के उपरान्त इद का अकार पदान्त भिन्न है, इसके ह्रस्व अकार  के बाद गुण अकार परे रहते पररूप एकादेश हुआ। ‘इद + औ' बना। 
विशेष
 यह सूत्र अकः सवर्णे दीर्घः तथा वृद्धिरेचि का अपवाद है।
अदेङ् गुणः सूत्र ह्रस्व अकार, ए तथा ओ की गुण संज्ञा करता है।  इद का अकार पदान्त भिन्न है तथा ह्रस्व भी है। इसके बाद गुण संज्ञक अकार परे रहते पररूप एकादेश हुआ। 
२७७ दश्‍च
इदमो दस्‍य मः स्‍याद्विभक्तौ । इमौ । इमे । त्‍यदादेः सम्‍बोधनं नास्‍तीत्‍युत्‍सर्गः ।।
सूत्रार्थ -इदम् शब्द के दकार को मकार हो विभक्ति परे रहते। 
इमौ । 'इदम् + औ' इस स्थिति में 'त्यदादीनाम:' सूत्र से मकार को अकार आदेश हुआ। 'इद अ + औ' इस स्थिति में अतो गुणे से ह्रस्व अकार  के बाद गुण संज्ञक अकार परे रहते पररूप एकादेश होकर  'इद + औ' बना। अब दश्च से इद के दकार को मकार हुआ। इम + औ हुआ। यहाँ 'वृद्धिरेचि' से वृद्धि एकादेश प्राप्त हुआ। इसे बाधकर 'प्रथमयोः पूर्व०' से पूर्व सवर्ण दीर्घ की प्राप्ति हुई । 'नादिचि' ने पूर्व सवर्णदीर्घ का निषेध किया। अब 'वृद्धिरेचि' से वृद्धि होकर 'इमौ' रूप बना।। 
इमे । 'इदम् + जस्' इस स्थिति में 'त्यदादीनाम:' सूत्र से मकार को अकार हुआ। इद अ + जस् बना। अब यहाँ अतो गुणे से पररूप एकादेश होकर इद जस् बना। दश्च से दकार को मकार हो गया। इम + जस् बना। 'इम' यह अदन्त सर्वनाम है, इससे परे 'जस्' को 'जस: शी' से शी आदेश हो गया। शकार की इत्संज्ञा होकर लोप इम + ई हो गया। आद् गुणः से अ तथा इ के स्थान पर गुण एकादेश होकर इमे रूप सिद्ध हुआ। 
त्यदादेरिति- त्यदादियों का सम्बोधन नहीं होता है। यह उत्सर्ग अर्थात् साधारण नियम है। 
इमम् । इदम् + अम् में पूर्ववत् 'त्यदादीनाम:' सूत्र से मकार को अकार तथा अतो गुणे से पररूप एकादेश होकर इद + अम् बना।  दकार को मकार होकर इमम् बना । 
इमौ । 'इदम् + औट्'  प्रथमा  द्विवचन की तरह द्वितीया  द्विवचन में भी इमौ बनेगा। 
इमान् । 'इदम् + शस्'- इसमें पूर्ववत् 'त्यदादीनाम:' सूत्र से मकार को अकार आदेश हुआ। 'इद अ + शस्' इस स्थिति में अतो गुणे से ह्रस्व अकार  के बाद गुण संज्ञक अकार परे रहते पररूप एकादेश होकर  'इद + शस्' बना। अब दश्च से दकार को मकार होकर इम + अस् बना। 'तस्माच्छसो नः पुंसि' के द्वारा सकार को नकार तथा प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्ण दीर्घ होकर इमान् रूप सिद्ध हुआ। 
२७८ अनाप्‍यकः
अककारस्‍येदम इदोऽनापि विभक्तौ । आबिति प्रत्‍याहारः । अनेन ।।
सूत्रार्थ -ककार रहित 'इदम्' शब्द के 'इद्' भाग के स्थान पर 'अन्' आदेश हो आप् (टा से लेकर सुप् तक) विभक्ति परे रहते ।
आबिति- आप् प्रत्याहार है। टा (आ) से लेकर सुप् पर्यन्त सभी प्रत्ययों को 'आप्' प्रत्याहार के द्वारा कहा जाता है।
अनेन । इदम् + टा में आ शेष बचा । यहाँ 'त्यदादीनाम:' से मकार को अकार आदेश हुआ। इद अ आ बना। 'अतो गुणे' के द्वारा पररूप आदेश हुआ। इद आ बना । 'दश्च' के द्वारा 'टा' परे रहते मकार प्राप्त हुआ परन्तु 'अनाप्यकः' सूत्र के द्वारा 'टा' परे रहते 'इद्' भाग को 'अन्' आदेश हुआ। अन् अ आ हुआ। 'टाङसिङसामि०' से 'टा' को 'इन' आदेश हो गया। 'आद् गुण:' के द्वारा गुणादेश तथा वर्णसम्मेलन करने पर अनेन रूप सिद्ध हुआ।
 
२७९ हलि लोपः
अककारस्‍येदम इदो लोप आपि हलादौ । नानर्थकेऽलोऽन्‍त्‍यविधिरनभ्‍यासविकारे ।।
सूत्रार्थ -ककार रहित 'इदम्' शब्द के 'इद्' भाग का लोप हो आप हलादि विभक्ति यदि परे हो तो ।
इद भ्याम् में हलि लोपः से प्राप्त 'इद्' भाग का लोप को  'अलोऽन्त्यस्य' के बल पर 'इद्' समुदाय के अन्त्य हल् वर्ण (द्) का लोप प्राप्त हुआ। 

नानर्थके इति । अनर्थक में अन्त्यविधि की प्रवृत्ति न हो। अभ्यास के विकार को छोड़कर ।  समुदाय सार्थक होता है और उसका एक भाग अनर्थक होता है। कहा गया है - समुदायो ह्यर्थवान्, तस्यैकदेशोऽनर्थक:'। 'इदम्' एक समुदाय है तथा इद् एक भाग है जो निरर्थक है। अत: इस के विषय में 'अलोऽन्त्यस्य' की प्रवृत्ति नहीं होगी
२८० आद्यन्‍तवदेकस्‍मिन्
एकस्‍मिन्‍क्रियमाणं कार्यमादाविवान्‍त इव स्‍यात् । सुपि चेति दीर्घः । आभ्‍याम् ।।
सूत्रार्थ -एक के विषय में किया जाने वाला कार्य आदि की तरह और अन्त की तरह होता है। 
इसे व्यपदेशिवद्भाव कहते हैं। यह एक लोकन्याय है। यथा- देवदत्त का एक पुत्र है, वही ज्येष्ठ तथा कनिष्ठ कहा जाएगा। यद्यपि ज्येष्ठत्व तथा कनिष्ठत्व सापेक्ष है, तथापि अमुख्य में भी मुख्य व्यवहार किया जाता है। 
आभ्याम् । 'इदम् + भ्याम्' इस स्थिति में 'त्यदादीनाम:' के द्वारा अकार हुआ। इद अ + भ्याम् बना। 'अतो गुणे' के द्वारा पररूप आदेश हुआ। इद भ्याम् बना ।  'दश्च' के द्वारा मकार प्राप्त था, परन्तु 'अनाप्यकः' के द्वारा 'इद्' के स्थान पर 'अन्' आदेश प्राप्त हुआ। 'अलोऽन्त्यस्य' से अन्त्य अल् को लोप प्राप्त हुआ, जिसे नानर्थकेऽलोऽन्‍त्‍यविधिरनभ्‍यासविकारे के नियम से अन्त्य हल् का लोप नहीं हुआ। यहाँ हलि लोपः से समग्र 'इद्' भाग का लोप हो जायेगा। अ + भ्याम् बना। अब इस स्थिति में 'सुपि च' से प्राप्त दीर्घ अन्त्य को होगा। तब व्यपदेशिवद्न्याय से अकार को ही अन्त्य मानकर दीर्घ हो गया। आभ्याम् रूप सिद्ध हुआ। 
२८१ नेदमदसोरकोः
अककारयोरिदमदसोर्भिस ऐस् न । एभिः । अस्‍मै । एभ्‍यः । अस्‍मात् । अस्‍य । अनयोः । एषाम् । अस्‍मिन् । अनयोः । एषु ।।
सूत्रार्थ - ककार रहित इदम् और अदस् शब्द से परे 'भिस्' को 'ऐस्' आदेश न हो। 
एभिः । 'इदम् + भिस्'–यहाँ 'त्यदादीनाम:' के द्वारा अकार आदेश तथा 'अतो गुणे' के द्वारा पररूप आदेश हो गया। इद + भिस् बना। हलादि (भिस्) विभक्ति परे रहते 'हलि लोप:' के द्वारा 'इद्' भाग का लोप हो गया। अ + भिस् हुआ । यहाँ व्यपदेशिवद्भाव से अकार को अदन्त अंग मान कर 'अतो भिस ऐस्' की प्रवृत्ति होती है, जिसका नेदमदसोरकोः से बाध हो गया है। तब 'बहुवचने झल्येत्' के द्वारा एकार आदेश हो गया। सकार को विसर्गादि होकर एभिः रूप सिद्ध हुआ। 
अस्मै । 'इदम् + ङे' में 'त्यदादीनाम:' से अकार आदेश आदि पूर्ववत् कार्य होकर इद + ङे बना। 'सर्वनाम्न: स्मै' के द्वारा 'स्मै' आदेश हुआ। इद + स्मै बना। अब स्थानिवद् भाव के बल पर 'स्मै' आदेश में विभक्ति धर्म की उत्पत्ति होकर 'हलि लोप:' से ‘इद्' का लोप होकर अस्मै रूप सिद्ध हुआ।
एभ्य:। 'इदम् भ्यस्' इस दशा में 'त्यदादीनाम:' से अकार आदेश और पररूप होने पर 'इद्' भाग का लोप हुआ। ए + भ्यस् बना। व्यपदेशिवद्भाव से अदन्त अङ्ग के अकार को 'बहुवचने झल्येत्' से एकार तथा सकार को रुत्वविसर्ग होकर 'एभ्यः' रूप सिद्ध हुआ। 
अस्य। 'इदम् + ङसि' में 'त्यदादीनाम:' से अकार आदेश, पररूप हो गया। इद + ङसि में ङसि को 'स्मात्' आदेश हुआ। इद + स्मात्। 'इद्' भाग का लोप होकर 'अस्मात्' रूप बना। 
अस्य। 'इदम् + ङस्'-यहाँ ङस् का स्य' आदेश, शेष कार्य पूर्ववत् होंगे। अस्य रूप बना। 
अनयोः । षष्ठी तथा सप्तमी द्विवचन ओस् विभक्ति में 'त्यदादीनाम:' से अकार आदेश, तथा पररूप हो गया। इद + ओस् बना। तब 'अनाप्य:०' के द्वारा 'अन्' आदेश हो गया। अन + ओस् बना। ओसि च' से अन के अकार को एकार तथा अयादेश, कार को रुत्व, विसर्ग होकर 'अनयोः' रूप बना।। 

एषाम् । इदम् + आम्'- यहाँ 'त्यदादीनाम:' से अकार आदेश और पररूप होने पर इद यह अदन्त अङ्ग बना। अब यहाँ आमि सर्वनाम्न: सुट् से सुट् का आगम हुआ। हलि लोपः से इद् भाग का लोप  हो गया। अ सुट् + आम् बना। सुट् में उट् भाग का अनुबन्ध लोप, अकार को एकार आदेश होकर ए साम् बना । साम के सकार को मूर्धन्य आदेश होकर 'एषाम्' रूप सिद्ध हो गया।
विशेष
इदम् शब्द की सिद्धि के लिए यहाँ तीन सूत्र आये हैं। दश्च सूत्र विभक्ति परे रहते इदम् शब्द के दकार को मकार करता है । अनाप्यकः सूत्र आप् (टा से लेकर सुप् तक) विभक्ति परे रहते 'इदम्' शब्द के 'इद' भाग के स्थान पर 'अन्' आदेश करता है। हलि लोपः सूत्र आप हलादि विभक्ति यदि परे 'इदम्' शब्द के 'इद' भाग का लोप करता है । दश्च की प्रवृत्ति सभी विभक्तियों में है। इससे कम व्यापक क्षेत्र अनाप्यकः का है । जबकि सबसे कम स्थान (आप हलादि विभक्ति) में हलि लोपः से प्रवृत्ति है। यहाँ तुल्य बल विरोध से पर कार्य होंगे।
अजादि विभक्ति जब आदेश के बाद हलादि बन जाता है, ऐसी स्थिति में हलि लोपः सूत्र प्रवृत्त हो जाता है।
२८२ द्वितीयाटौस्‍स्‍वेनः
इदमेतदोरन्‍वादेशे । किञ्चित्‍कार्यं विधातुमुपात्तस्‍य कार्यान्‍तरं विधातुं पुनरुपादानम् अन्‍वादेशः । यथा – अनेन व्‍याकरणमधीतम्, एनं छन्‍दोऽध्‍यापयेति । अनयोः पवित्रं कुलमे, एनयोः प्रभूतं स्‍वामिति ।। एनम् । एनौ । एनान् । एनेन । एनयोः । एनयोः ।। राजा ।।
सूत्रार्थ - द्वितीया विभक्ति, टा तथा ओस् परे रहते इदम् तथा एतद् को 'एन' आदेश हो अन्वादेश के विषय में । 
किञ्चित्‍कार्यमिति । जिसका पहले किसी कार्य के लिए ग्रहण किया गया हो तथा उसका अन्य कार्य के लिए पुन: ग्रहण करना 'अन्वादेश' कहलाता है। यथा- अनेन व्याकरणमधीतम्, एनं छन्दोऽध्यापय। 
अर्थ- इसने व्याकरण अध्ययन कर लिया। इसे वेद अध्ययन कराओ। यहाँ उत्तरवर्ती वाक्य में एनं शब्द का प्रयोग उसी के लिए किया जा रहा है,जिसके लिए अनेन का प्रयोग किया गया था, अतः वह अन्वादेश सिद्ध हुआ। तब अन्वादिष्ट 'इदम्' शब्द को द्वितीया (अम्) में 'एन' आदेश हो गया। 'एनम्' रूप सिद्ध हुआ। 
'अनयोः पवित्रं कुलम्, एनयोः प्रभूतं स्वम्'- यहाँ प्रथम वाक्य में कुल की पवित्रता के विधानार्थ ग्रहण किये हुये अनयोः का द्वितीय वाक्य में अन्य विधान के लिए प्रयोग हुआ है। अत: अन्वादेश सिद्ध हुआ। 

एनम् आदि । 'इदम् अम्'- इस स्थिति में द्वितीयाटौस्स्वेनः से अन्वादेश में 'इदम्' को 'एन' आदेश हो गया।  'अमि पूर्वः' से पूर्वरूप आदेश होकर एनम्' रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार 'इदम् औ' तथा 'इदम् शस्' को अन्वादेश में 'एन' आदेश होकर 'एनौ' तथा 'एनान्' रूप सिद्ध होते है। तृतीया में 'टा' तथा षष्ठी में 'ओस्' परे रहते "एनेन' तथा 'एनयोः' रूप सिद्ध हुए।
 
नकारान्त शब्द राजन् (राजा) 

राजा । राजन् + सु में अनुबन्ध स् बचा। यहाँ 'सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौ' से नान्त उपधा को दीर्घ आदेश तथा  'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्' से सकार का लोप होकर राजान् बना। अब 'न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य' के द्वारा नकार का लोप होकर राजा रूप सिद्ध हुआ। 
२८३ न ङिसम्‍बुद्ध्‍योः
नस्‍य लोपो न ङौ सम्‍बुद्धौ च । हे राजन् । 
सूत्रार्थ -ङि और सम्बुद्धि परे रहते नकार का लोप न हो। 
हे राजन् । हे राजन् + सु में अपृक्त सकार का लोप हो जाने पर हे राजन् का नकार पदान्त में स्थित है। इस नकार का 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य के द्वारा लोप प्राप्त हुआ। न ङिसम्‍बुद्ध्‍योः से नलोप का निषेध हो गया।  'हे राजन्' रूप सिद्ध हुआ। 
(ङावुत्तरपदे प्रतिषेधो वक्तव्‍यः) । ब्रह्‍मनिष्‍ठः । राजानौ । राजानः । राज्ञः ।। 
ङाविति- उत्तरपद है परे जिसके, उस ङि के परे रहते नकारलोप का निषेध नहीं होता अर्थात् नकारलोप हो ही जाता है। 
ब्रह्मनिष्ठः । ब्रह्मणि निष्ठा यस्य स ब्रह्मनिष्ठः। यहाँ समास होने पर सुपो धातुप्रातिपदिकयोः से विभक्ति का लोप हो गया। ब्रह्मन् निष्ठः में लुप्त ङि प्रत्यय को प्रत्ययलक्षण से लाने पर यहाँ नकार का लोप हो जाता है। यहाँ पूर्व सूत्र से निषेध प्राप्त था, उसका इस वार्तिक से निषेध होकर ब्रह्मन् निष्ठः में  नकार का लोप हो गया। यहाँ उत्तरपद निष्ठा परे है, यह समास का अन्त्य अवयव है। ब्रह्मनिष्ठः  बनता है।

राजानौ । 'राजन् + औ' यहाँ उपधा में स्थित अकार को 'सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौ' सूत्र से दीर्घ होकर राजानौ रूप सिद्ध हुआ। 
राज्ञः । 'राजन् + शस्' में यचि भम् से राजन् की भ संज्ञा हुई। 'अल्लोपोऽन:' से भसंज्ञक अकार का लोप हुआ तथा 'स्तोश्चुना श्चुः' से नकार को ञकार आदेश राज् ञ् अस् हुआ। विसर्गादि कार्य होकर 'राज्ञ:' बन गया। 
२८४ नलोपः सुप्‍स्‍वरसंज्ञातुग्‍विधिषु कृति
सुब्‍विधौ स्‍वरविधौ संज्ञाविधौ कृति तुग्‍विधौ च नलोपोऽसिद्धो नान्‍यत्र – राजाश्व इत्‍यादौ । इत्‍यसिद्धत्‍वादात्‍वमेत्त्वमैस्‍त्‍वं च न । राजभ्‍याम् । राजभिः । राज्ञिराजनि । राजसु ।। यज्‍वा । यज्‍वानौ । यज्‍वानः ।।
सूत्रार्थ -सुप् विधि, स्वरविधि, संज्ञाविधि और कृत् प्रत्यय परे रहते तुग्विधि के विषय में ही नकार का लोप असिद्ध होता है अन्यत्र नहीं। 
सुप् सम्बन्धी विधि दो प्रकार की होती है-१. सुप् निमित्तक तथा २. सुप्स्थानिक। सुप्-प्रत्यय परे मानकर की जाने वाली विधि सुप् निमित्तक विधि है। विधिः   सुप्-प्रत्ययस्य स्थाने उत 

यद्यपि नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य ( ८.२.७ ) के द्वारा किया जाने वाला नकार का लोप  'पूर्वत्रासिद्धम्' से सम्पूर्ण सपादसप्ताध्यायी के प्रति असिद्ध है। अतः 'पूर्वत्रासिद्धम्' से ही नकार लोप असिद्ध है तथा पुनः नलोपः सुप्‍स्‍वरसंज्ञातुग्‍विधिषु कृति से नकार लोप की असिद्धि का कथन नियमार्थ है। 'सिद्धे सति आरभ्यमाणो विधिः नियमाय कल्पते' अर्थात् स्वतः सिद्ध कार्य के लिए पुन: विधान करना नियमार्थ होता है। इसके अनुसार यदि नकार का लोप असिद्ध हो तो सुप् आदि में ही हो, अन्यत्र नहीं। अत: 'राज्ञः अश्व:' में राजन् अश्वः' इस अवस्था में नकार लोप असिद्ध नहीं है, क्योंकि लोपविधायक सूत्र सुबादि विधियों में नहीं है। अब असिद्ध न होने से 'अक: सवर्णे दीर्घः से दीर्घ होकर 'राजाश्वः ' ऐसा रूप सिद्ध होगा। 
इत्यसिद्धत्वादिति- इस सूत्र से नकारलोप के असिद्ध होने से आत्व, एत्व और ऐस् आदेश नहीं होते। 
राजभ्याम् । 'राजन् + भ्याम्' यहाँ 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' के द्वारा राजन् शब्द की पद संज्ञा हो गई। 'नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' से नलोप हो गया। अब 'राज + भ्याम्' इस स्थिति में 'सुपि च' से राज घटक अकार को दीर्घ आकार की प्राप्ति होती है। परन्तु न लोप के असिद्ध होने से दीर्घ नहीं होगा। राजभ्याम् रूप सिद्ध हुआ। 
राजभि: । 'राजन् + भिस्'- इस अवस्था में नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य से नकार लोप हो गया। राज + भिस्  इस अवस्था में 'अतो भिस ऐस्' से राज घटक अकार के बाद स्थित सुप् स्थानिक भिस् को 'ऐस्' आदेश प्राप्त हुआ। परन्तु नकार के लोप के असिद्ध होने के कारण ऐस् आदेश नहीं हुआ। भिस् के सकार को रुत्व विसर्ग होकर 'राजभि:' रूप सिद्ध हुआ। 
'राजनि । राजन् + ङि' यहाँ 'विभाषा ङिश्योः' से विकल्प से अकार का लोप होता है। लोप पक्ष में राज् न् इ बना। नकार को श्चुत्व होकर राज् ञ् इ = राज्ञि रूप सिद्ध हुआ। अभावपक्ष में राजनि' रूप होगा। 
राजसु । 'राजन् + सुप्' में नकार लोप होने पर 'बहुवचने झल्येत्' से प्राप्त एकार आदेश का निषेध इस सूत्र से हो जाता है। 'राजसु' रूप बना।

 
विभक्ति   एक०         द्वि०          बहु० 
प्र०       राजा       राजानौ        राजानः  
द्वि०     राजानम्    राजानौ        राज्ञः 
तृ०       राज्ञा        राजभ्याम्     राजभिः 
च०       राज्ञे         राजभ्याम्     राजभ्यः
पं०       राज्ञः        राजभ्याम्      राजभ्यः 
ष०       राज्ञः        राज्ञोः           राज्ञाम् 
स०      राज्ञि, राजनि राज्ञो:       राजसु
सं०      हे राजन्    हे राजानौ     हे राजानः

यज्वन् शब्द प्रथमा में 'राजन्' शब्द की तरह ही रूप होंगे। यथा-यज्वा, यज्वानौ, यज्वानः । 
२८५ न संयोगाद्वमन्‍तात्
वमन्‍तसंयोगादनोऽकारस्‍य लोपो न । यज्‍वनः । यज्‍वा । यज्‍वभ्‍याम् ।। ब्रह्‍मणः । ब्रह्‍मणा ।।
सूत्रार्थ - वकारान्त और मकारान्त संयोग से परे जो 'अन्' उस अन् के अकार का लोप न हो। 

यज्वनः । द्वितीया के बहुवचन में 'यज्वन् + अस्' इस स्थिति में 'अल्लोपोऽनः' से अकारलोप प्राप्त होता है। परन्तु यहाँ जकार तथा वकार का संयोग है और वह संयोग वकारान्त है। उससे परे 'अन्' के अकार के लोप का निषेध न संयोगाद्वमन्‍तात् सूत्र से  हुआ। तब 'यज्वनः' यही रूप सिद्ध हुआ।

ब्रह्मन् शब्द में हकार और मकार का संयोग है। अतः संयोग के अन्त में मकार होने से उसके आगे के 'अन्' के अकार का लोप न होकर 'यज्वन्' शब्द के समान ही रूप होंगे।

ब्रह्मन् शब्द के प्रथम पाँच रूप-ब्रह्मा, ब्रह्माणौ, ब्रह्माणः। ब्रह्माणम् ब्रह्माणौ-राजन् शब्द के समान ही सिद्ध होते हैं।

ब्रह्मण: । 'ब्रह्मन् अस्' इस स्थिति में 'अल्लोपोऽनः' सूत्र से प्राप्त नकार के लोप का मकारान्त संयोग होने में न संयोगाद्वमन्‍तात् सूत्र से निषेध हो गया। नकार को णकार होकर 'ब्रह्मण: रूप सिद्ध हुआ।

ब्रह्मणा 'ब्रह्मन् + टा' यहाँ पूर्ववत् नकार का लोप निषेध तथा णत्व होने से 'ब्रह्मणा' बन गया।

२८६ इन्‍हन्‍पूषार्यम्‍णां शौ
एषां शावेवोपधाया दीर्घो नान्‍यत्र । इति निषेधे प्राप्‍ते –

सूत्रार्थ - इन्नन्त, हन् शब्दान्त, पूषन् शब्दान्त और अर्यमन् शब्दों को उपधा दीर्घ हो शि' परे रहते । 

विशेष -

'शि' की सर्वनामस्थान संज्ञा होती है। उसके परे रहते 'सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौ' सूत्र से उपधादीर्घ होता ही है।उपधादीर्घ सिद्ध होते हुए 'शि' परे रहते इन्‍हन्‍पूषार्यम्‍णां शौ से दीर्घ विधान करना, यह नियम करता है शि' के अतिरिक्त अन्य स्थलों में दीर्घ न हो। इसलिये, दण्डिनौ, वाग्मिनौ, इत्यादि प्रयोगों में दीर्घ नहीं होता।

इति निषेध इति- 'वृत्रहन् स्' इस दशा में 'सु' परे रहते भी उक्त नियम से उपधादीर्घ का निषेध प्राप्त होता है। 

२८७ सौ च
इन्नादीनामुपधाया दीर्घोऽसंबुद्धौ सौ । वृत्रहा । हे वृत्रहन् ।।

सूत्रार्थ - इन् शब्दान्त आदि की उपधा को दीर्घ हो, सम्बुद्धि भिन्न सु परे रहते।

वृत्रहा। 'वृत्रहन् + सु'- यहाँ ' इन्‍हन्‍पूषार्यम्‍णां शौ ' से उपधादीर्घ का निषेध होता है। तब 'सौ' सूत्र से पुनः विधान हुआ। अपृक्त सकार का लोप होकर वृत्रहान् बना । नकार का लोप होकर वृत्रहा रूप सिद्ध हुआ।

हे वृत्रहन् वृत्रहन् + सु- यहां सम्बुद्धि में निषेध होने के कारण नकार लोप नहीं होगा। इसी प्रकार उपधादीर्घ भी नहीं होगा। अतः सकार का लोप होकर 'हे वृत्रहन्' हो गया। 

२८८ एकाजुत्तरपदे णः
एकाजुत्तपरदं यस्‍य तस्‍मिन्‍समासे पूर्वपदस्‍थान्निमित्तात्‍परस्‍य प्रतिपदिकान्‍तनुम्‍विभक्तिस्‍थस्‍य नस्‍य णः । वृत्रहणौ ।।

सूत्रार्थ - जिस समास का उत्तरपद एक अच् वाला हो, उस समास में यदि (णकार के) निमित्त पूर्वपद में हो, तो उससे परे प्रातिपदिक के अन्त्य नकार, नुम् के नकार और विभक्ति में स्थित नकार को णकार हो ।

वृत्रहन् + औ- इस अवस्था में ' वृत्र' शब्द में णकार का निमित्त रेफ है, इससे परवर्ती 'हन्' पद में स्थित नकार को एकाजुत्तरपदे णः से णकार हो गया। वृत्रहणौ । वृत्रहन् अम्' यहाँ पर पूर्ववत् क्रिया होकर 'वृत्रहणम्' बन गया।

विशेष-

रेफ और षकार के बाद नकार को 'अट्कुप्वाङ्नुम्०' से णत्व होता है परन्तु यह एकपद की अवस्था में ही णत्व करता है। खण्डित पद में इसकी प्रवृत्ति नहीं होती है। अतः प्रकृत सूत्र से विधान किया गया है। 

२८९ हो हन्‍तेर्ञ्णिन्नेषु
ञिति णिति प्रत्‍यये नकारे च परे हन्‍तेर्हकारस्‍य कुत्‍वम् । वृत्रघ्‍नः इत्‍यादि । एवं शार्ङि्गन्यशस्‍विन्अर्यमन्पूषन् ।।

सूत्रार्थ - ञित् या णित् प्रत्यय या नकार परे रहते 'हन्' धातु के हकार को कुत्व आदेश हो।

हकार को कवर्गीय आदेश हो। हकार के संवार, नाद, अघोष तथा महाप्राण यत्न हैं। और कवर्ग में घकार के संवार आदि यत्न हैं। अतः यत्न तथा उच्चारण स्थान की समानता के बल पर हकार के स्थान पर घकार होगा।

'वृत्रघ्नः' 'वृत्रहन् + शस्, अनुबन्धलोप, वृत्रहन् +  अस्' हुआ । एकाजुत्तरपदे णः के असिद्ध होने से 'अल्लोपोऽन: ' से अकार का लोप हो गया तथा हो हन्तेर्ष्णिन्नेषु से घकार आदेश हो गया। वृत्रघ्नस् बना। अब सकार को रुत्व, विसर्ग होकर 'वृत्रघ्नः' रूप सिद्ध हुआ।

इसी प्रकार आगे अजादि विभक्तियों में जहाँ भसंज्ञा होने से अन् के अकार का लोप हो जाता है । नकार परे होने से हकार के स्थान में घकार हो जायगा।

एवमिति- इसी प्रकार शाङ्गिन् (विष्णु), यशस्विन् (यशस्वी), अर्यमन् और पूषण् (सूर्य) आदि शब्दों के भी रूप बनेंगे।
२९० मघवा बहुलम्
मघवन्‍शब्‍दस्‍य वा तृ इत्‍यन्‍तादेशः । ऋ इत् ।।

सूत्रार्थ - 'मघवन्' शब्द को 'तृ' अन्तादेश हो विकल्प से ।

ऋ इत् इति'तृ' आदेश का अन्त्य ऋकार इत् है। इस सम्बन्ध में एक परिभाषा है- 'नानुबन्धकृतम् अनेकाल्त्वम्' अर्थात् अनुबन्ध से होने वाली में अनेकाल्ता नहीं मानी जाती। इस परिभाषा के बल पर 'तृ' अनेकाल् नहीं माना जा सकता, क्योंकि तृ का ऋकार अनुबन्ध है। अनेकाल् न होने के कारण तृ अन्तादेश सम्पूर्ण स्थानी को न होकर, अन्त्य वर्ण के स्थान पर होगा। 

२९१ उगिदचां सर्वनामस्‍थानेऽधातोः
अधातोरुगितो नलोपिनोऽञ्चतेश्‍च नुम् स्‍यात्‍सर्वनामस्‍थाने परे । मघवान् । मघवन्‍तौ । मघवन्‍तः । हे मघवन् । मघवद्भ्‍याम् । तृत्‍वाभावे मघवा । सुटि राजवत् ।।
सूत्रार्थ - धातु से भिन्न उक् की इत्संज्ञा हुए तथा जिसके नकार को लोप हुआ हो ऐसे अंग को नुम् का आगम हो, सर्वनाम स्थान परे रहते।

विशेष

उगित् का अर्थ है-जिनका उक् (उ, , लृ) इत् है। नकार लोपी का अर्थ है जिसके नकार का लोप हुआ हो।

मघवान्। 'मघवन्' शब्द को 'मघवा बहुलम्' से विकल्प से 'तृ' आदेश हुआ। ऋकार की इत्संज्ञा लोप। उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो: से 'नुम्' आगम हुआ। मघव नुम् त् + स् हुआ। नुम् में उम् भाग का अनुबन्धलोप होने पर मघवन् त् स् हुआ। अब अपृक्त सकार का लोप होकर मघवन् त् बना। संयोगान्तस्य लोपः से संयोगान्त तकार का लोप हो गया। मघवन् बना । 'सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौ ' सूत्र से उपधा को दीर्घ होकर मघवान् रूप सिद्ध हुआ।

मघवन्तौ । मघवन् + औ इस स्थिति में 'मघवन्' शब्द को 'मघवा बहुलम्' से विकल्प से 'तृ' आदेश हुआ। ऋकार की इत्संज्ञा लोप। उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो: से 'नुम्' आगम हुआ। मघव नुम् त् + औ हुआ। नुम् में उम् भाग का अनुबन्धलोप होने पर मघवन् त् औ हुआ। परस्पर वर्णसम्मेलन करने पर मघवन्तौ रूप सिद्ध हुआ।

हे मघवन् 'हे मघवन् + सु'- में 'मघवन्' शब्द को 'मघवा बहुलम्' से विकल्प से 'तृ' आदेश हुआ। ऋकार की इत्संज्ञा लोप। उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो: से 'नुम्' आगम हुआ। मघव नुम् त् + सु हुआ। नुम् में उम् भाग का अनुबन्धलोप होने पर मघवन् त् सु हुआ। सु में उकार का अनुबन्ध लोप। सर्वनाम स्थानिक नुम् के नकार को पहले 'नश्चापदान्तस्य झलि' से अनुस्वार तथा पुन: 'अनुस्वारस्य ययि०' से परसवर्ण होकर नकार हुआ। संयोगान्तस्य लोपः से संयोगान्त सकार का लोप तथा अपृक्त एकाल् प्रत्ययः से अपृक्त तकार का लोप तथा होकर 'हे मघवन्' रूप सिद्ध हुआ। अब नलोप की प्राप्ति हुई जिसका न ङिसम्बु० से निषेध हो गया।

हलादि भ्याम्, भिस् तथा भ्यस् विभक्तियों में पद संज्ञा होकर 'झलां जशोऽन्ते' से दकार होकर मघवद्भ्याम्, मघवद्भिः तथा मघवद्भ्यः रूप बनता है।

विशेष

तृजन्त मघवन् शब्द की ही तरह भगवत्, धनवत्, गुणवत्, विद्यावत्, रूपवत्, भवत् (आप), यावत्, तावत्, एतावत्, कियत्, इयत्, धीमत्, श्रीमत्, बुद्धिमत्, गोमत् आदि शब्दों के रूप होते हैं। किन्तु 'महत्' शब्द के रूप महान्, महान्तौ, महान्तः, महान्तम्, महान्तौ, महतः शेष रूप पूर्वोक्त मघवत् की तरह । 'मघवन्' शब्द के एक तरह के रूप और होते हैं ।

'मघवन्+ सु'- यहाँ तृ अन्तादेश के अभाव पक्ष में उपधादीर्घ होकर मघवान् + स्, अपृक्त लोप तथा नकार का लोप होकर मघवा रूप बनता है।

तृत्वाभावे इति-सम्बोधन में जब तृ आदेश नहीं होगा। तब 'मघवन्' ऐसा शब्द रहेगा।

सुटीति-  सु से लेकर और तक तृ आदेश के अभाव पक्ष में नकारान्त शब्द होने से राजन् शब्द के समान सुट् में रूप बनते हैं। 

२९२ श्वयुवमघोनामतद्धिते
अन्नन्‍तानां भसंज्ञकानामेषामतद्धिते संप्रसारणम् । मघोनः । मघवभ्‍याम् । एवं श्वन्युवन् ।।

सूत्रार्थ- श्वन् (कुत्ता), युवन् (युवा) और मघवन् (इन्द्र) - इन अनन्त भसंज्ञक अङ्गों को सम्प्रसारण हो तद्धितभिन्न प्रत्यय परे रहते। 

मघोनः। 'मघवन् + शस्'- इस स्थिति में श्व-युव-मघोनामतद्धिते से वकार के स्थान पर सम्प्रसारण उ होकर मघ उ अन् + अस् हुआ। सम्प्रसारणाच्च से अन् के अकार के पूर्वरूप हो गया। मघ उन् अस् बना। आद्गुणः से गुण होकर मघोनसे हुआ। सकार को रुत्व विसर्ग करने पर मघोनः रूप सिद्ध हुआ ।

अजादि विभक्तियों में भसंज्ञा होती है, अतः वहाँ सम्प्रसारण तथा पूर्वरूप आदि कार्य होकर मघोना,मघोने आदि रूपसिद्धि होगी। हलादि विभक्तियों में 'राजन्' शब्द की तरह होंगे। जैसे- मघवभ्याम्।

२९३ न संप्रसारणे संप्रसारणम्

संप्रसारणे परतः पूर्वस्‍य यणः संप्रसारणं न स्‍यात् । इति यकारस्‍य नेत्‍वम् । अत एव ज्ञापकादन्‍त्‍यस्‍य यणः पूर्वं संप्रसारणम् । यूनः । यूना । युवभ्‍याम् इत्‍यादि ।। अर्वा । हे अर्वन् ।।

सूत्रार्थ- सम्प्रसारण परे रहते पूर्व यण् को सम्प्रसारण न हो।

इति यकारस्येति- अतः यकार को इकार न हो। 'युवन् + अस्'- इस अवस्था में श्व-युव-मघोनामतद्धिते से सम्प्रसारण होकर 'यु उ अन् अस्' बना। सम्प्रसारणाच्च से अन् के अकार के पूर्वरूप हो गया। 'यु उन् अस्' सवर्णदीर्घ होकर यूनस् हुआ। इस अवस्था में यकार को सम्प्रसारण प्राप्त होता है जिसका न संप्रसारणे संप्रसारणम् से निषेध हो गया।

अतएव इति- इस ज्ञापक से अन्त्य 'यण्' को पहले सम्प्रसारण होता है। यह सूत्र ज्ञापित करता है कि पहले बाद वाले यण् वर्ण को सम्प्रसारण होता है। यदि पूर्व यण् को पहले सम्प्रसारण होता तो  'युवन्' शब्द में बाद में सम्प्रसारण नहीं मिलता। पूर्व यण् (यकार) को सम्प्रसारण किया जाय तो सूत्र का पाठ ही व्यर्थ हो जाता है।

यून: । 'युवन् + शस्' इस स्थिति में श्व-युव-मघोनामतद्धिते सूत्र से वकार को सम्प्रसारण होकर 'यु उ अन् अस्' बना। सम्प्रसारणाच्च से अन् के अकार के पूर्वरूप हो गया। 'यु उन् अस्' हुआ। यहाँ यकार को प्राप्त संप्रसारण का निषेध न संप्रसारणे संप्रसारणम् से  हो गया। 'यु उन् अस्' इस दशा में दोनों उकारों को सवर्णदीर्घ तथा सकार को रुत्व विसर्ग होने से 'यून:' रूप सिद्ध हुआ। 

यूना । 'युवन् + टा'- यहाँ इस स्थिति में अनुबन्धलोप, श्व-युव-मघोनामतद्धिते सूत्र से वकार को सम्प्रसारण होकर 'यु उ अन् आ' बना। सम्प्रसारणाच्च से अन् के अकार के पूर्वरूप हो गया। 'यु उन् आ' हुआ। यहाँ यकार को प्राप्त संप्रसारण का निषेध न संप्रसारणे संप्रसारणम् से हो गया। 'यु उन् आ' इस दशा में दोनों उकारों को सवर्णदीर्घ तथा परस्पर वर्ण सम्मेलन कर 'यूना' रूप सिद्ध हुआ।

इसी प्रकार अजादि विभक्तियों में सम्प्रसारण आदि कार्य पूर्ववत् होंगे।

युवभ्‍याम् । 'युवन् + भ्याम्' इस स्थिति में 'स्वादिष्वसर्व०' से पद संज्ञा हो जायेगी तथा  न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य से नकार का लोप होकर युवभ्याम् रूप सिद्ध हुआ। इसी तरह हलादि विभक्तियों में रूप सिद्धि होगी।

अर्वा   'अर्वन् + सु' में अनुबन्धलोप, स् बचा। यहाँ 'सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौसे उपधा को दीर्घ आदेश तथा  'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्' से सकार का लोप होकर अर्वान् बना। अब 'न लोपः प्रातिपदिकान्तस्यसे नकार का लोप हो गया। राजन् की तरह 'अर्वा 'रूप सिद्ध हुआ।

हे अर्वन् । हे अर्वन् + सु में अपृक्त सकार का लोप हो जाने पर हे अर्वन् का नकार पदान्त में स्थित है। इस नकार का नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य से लोप प्राप्त हुआ। न ङिसम्‍बुद्ध्‍योः से नलोप का निषेध हो गया। तब 'हे अर्वन्' बन गया।

२९४ अर्वणस्‍त्रसावनञः
नञा रहितस्‍यार्वन्नित्‍यस्‍याङ्गस्‍य तृ इत्‍यन्‍तादेशो न तु सौ । अर्वन्‍तौ । अर्वन्‍तः । अर्वद्भ्‍यामित्‍यादि ।।

सूत्रार्थ-  सु को छोड़कर (अन्य स्थलों में) नञ् रहित 'अर्वन्' अङ्ग को 'तृ' आदेश हो ।

अर्वन्तौ । 'अर्वन् औ' यहाँ अर्वणस्त्रसावनञ: से 'तृ' अन्त्यादेश हो गया। अर्वत् + औ हुआ । 'उगिदचाम्॰' से नुम् आदेश हो गया। अर्व नुम् त् + औ । अब 'नश्चापदान्तस्य झलि' से अनुस्वार तथा 'अनुस्वारस्य ययि०' से परसवर्ण तथा परस्पर वर्ण सम्मेलन कर अर्वन्तौ रूप सिद्ध हुआ ।

हलादि विभक्तियों में तृ के तकार के स्थान में दकार हो जायेगा। जैसे – अर्वद्भ्याम्। 

२९५ पथिमथ्‍यृभुक्षामात्
एषामाकारोऽन्‍तादेशः स्‍यात् सौ परे ।।

सूत्रार्थ- पथिन् (मार्ग), मथिन् (मथनी) ऋभुक्षिन् (इन्द्र) इन शब्दों को आकार अन्तादेश हो सु परे रहते।

२९६ इतोऽत्‍सर्वनामस्‍थाने
पथ्‍यादेरिकारस्‍याकारः स्‍यात्‍सर्वनामस्‍थाने परे ।।

सूत्रार्थ- पथिन् आदि के इकार को अकार हो, सर्वनामस्थान परे रहते। 

२९७ थो न्‍थः
पथिमथोस्‍थस्‍य न्‍थादेशः सर्वनामस्‍थाने । पन्‍थाः । पन्‍थानौ । पन्‍थानः ।।

सूत्रार्थ- पथिन् और मथिन् शब्दों के थकार को 'न्थ्' आदेश हो सर्वनामस्थान परे रहते।

पन्था: । 'पथिन् स्' इस दशा में पथिमथ्यृभुक्षामात् से नकार को आकार हो गया। 'पथि आ स्' हुआ। 'इतोऽत्' सर्वनामस्थाने से 'पथिन्' के इकार को अकार हो कर पथ आ स्' हुआ। अब थो न्थः से 'थ्' को 'न्थ्' आदेश हुआ। 'पन्थ आ स्' हुआ। थकार घटक अकार तथा आकार में सवर्णदीर्घ और सकार को रुत्व तथा विसर्ग होकर 'पन्था: ' रूप सिद्ध हुआ। 

पन्थानौ 'पथिन् + औ' में इतोऽत्' सर्वनामस्थाने से 'पथिन्' के इकार को अकार होकर पथन्+ औ हुआ। थो न्थः से 'थ्' को 'न्थ्' आदेश होकर पन्थन् औ बना।  सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ से दीर्घ करके पन्थान् औ बना, वर्णसम्मेलन होकर 'पन्थानौ' रूप सिद्ध हुआ।

पन्थानः । इसी तरह 'पथिन् + जस्' में पूर्ववत् प्रक्रिया तथा सकार को रुत्व तथा विसर्ग कार्य होकर पन्थानः रूप सिद्ध होगा । पन्थानम्, पन्थानौ बना लें। 

२९८ भस्‍य टेर्लोपः
भस्‍य पथ्‍यादेष्‍टेर्लोपः । पथः । पथा । पथिभ्‍याम् ।। एवं मथिन्ऋभुिक्षन् ।।
सूत्रार्थ - भसंज्ञक पथिन् आदि अङ्ग की टि का लोप हो। 

विशेष

यचि भम् से शस् से लेकर सुप् तक की अजादि विभक्ति के परे रहते भसंज्ञा होती है । यहाँ पथिन् आदि में अचोऽन्त्यादि टि से अन्त्य अच् और उसके अन्त में स्थित हल् अर्थात् इन् की टिसंज्ञा हो जाती है।

पथः। पथिन् + शस् में अनुबन्धलोप। पथिन् में अन्त्य अच् थि में इकार और उसके अन्त में स्थित नकार अर्थात् इन् समुदाय की अचोऽन्त्यादि टि से टिसंज्ञा हुई । भस्य टेर्लोपः से टिसंज्ञक अंग का लोप होकर पथ्+अस् बना। वर्णसम्मेलन और रुत्वविसर्ग करके पथः रूप सिद्ध हुआ।

इसी तरह आगे अजादि विभक्ति के परे होने पर टि का लोप तथा वर्णसम्मेलन करने पर पथा, पथे, पथ, पथो:, पथाम्, पथि ये रूप और हलादि विभक्ति के परे होने पर नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य से नकार का लोप करके पथिभ्याम्, एथिभिः, पथिभ्यः पथिषु ये रूप बन जाते हैं। 

एवमिति । इसी तरह मथिन् ( मथानी) और ऋभुक्षिन् (इन्द्र) शब्दों के रूप बनते हैं। ऋभुक्षिन् शब्द में थ न होने के कारण थो न्थः से न्थ आदेश नहीं होता । ऋभुक्षिन् में ष् से परे नकार को णत्व होता है। शेष पथिन् की तरह ही है। 

२९९ ष्‍णान्‍ता षट्
षान्‍ता नान्‍ता च संख्‍या षट्संज्ञा स्‍यात् । पञ्चन्‍शब्‍दो नित्‍यं बहुवचनान्‍तः । पञ्च । पञ्च । पञ्चभिः । पञ्चभ्‍यः । पञ्चभ्‍यः । नुट् ।।

सूत्रार्थ- षकारान्त और नकारान्त सङ्ख्यावाचक शब्दों की षट्-संज्ञा हो।

पञ्चन्- शब्द केवल बहुवचनान्त है। 

पञ्च। पञ्चन् + जस् में नकारान्त होने के कारण ष्णान्ता षट् से षट्संज्ञा तथा षड्भ्यो लुक् से षट् संज्ञक से परे जस् का लुक हुआ, पञ्चन् शेष रहा। न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य से पञ्चन् के नकार का लोप होकर पञ्च रूप सिद्ध हुआ।

इसी तरह शस् में ष्णान्ता षट् से षट्संज्ञा तथा षड्भ्यो लुक् से षट् संज्ञक से परे शस् का लुक, न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य से पञ्चन् के नकार का लोप होकर पञ्च रूप सिद्ध हुआ। भिस् और भ्यस् के परे रहने पर नकार का लोप करके पञ्चभिः पञ्चभ्यः ये रूप सिद्ध हो जाते हैं। 

३०० नोपधायाः
नान्‍तस्‍योपधाया दीर्घो नामि । पञ्चानाम् । पञ्चसु ।।

सूत्रार्थ-  नकारान्त उपधा को दीर्घ हो, नाम् के परे रहते।

पञ्चानाम्। पञ्चन् + आम् में ष्णान्ता षट् से पञ्चन् की षट्संज्ञा,  षट्चतुर्भ्यश्च से नुट् का आगम हुआ। नुट् में उट् भाग का अनुबन्धलोप, पञ्चन् + न् + आम्, वर्णसम्मेलन होकर पञ्चन्-नाम् बना। नोपधाया: से पञ्चन् के उपधा के अकार को दीर्घ होकर पञ्चान् नाम् बना। नुट् से कारण नाम् हलादि है, अतः स्वादिष्वसर्वनामस्थाने से पदसंज्ञा होकर नकार का न लोप: प्रातिपदिकान्तस्य से लोप होकर पञ्चानाम् रूप सिद्ध हुआ ।

पञ्चसु। पञ्चन् + सु में स्वादिष्वसर्वनामस्थाने से पदसंज्ञा होकर न लोप: प्रातिपदिकान्तस्य से न का लोप करके पञ्चसु रूप सिद्ध हुआ। 

३०१ अष्‍टन आ विभक्तौ
हलादौ वा स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ-  अष्टन् शब्द को आकार हो, हलादि विभक्ति के परे रहने पर विकल्प से ।

विशेष

यह आकारादेश अन्त्य नकार को होगा। अष्टन आ विभक्तौ सूत्र में विकल्प का निर्देश नहीं किया गया है, परन्तु वृत्ति में विकल्प लिखा है। यह आत्व हलादि के अतिरिक्त अजादि 'जस्' 'शस्' में भी होता है। इसका पता हमें 'अष्टाभ्य औश्' सूत्र से चलता है। अतः  'अष्टाभ्य औश्' की वृत्ति में लिख दिया कि कृताकारादष्टनः अर्थात् आकार आदेश किये जाने के बाद उससे परे जस् और शस् को औश् हो जाय। यदि जस् तथा शस् में आकार नहीं होता तो कृताकारादष्टनः नहीं लिखते।

३०२ अष्‍टाभ्‍य औश्
कृताकारादष्‍टनो जश्‍शसोरौश् । अष्‍टभ्‍य इति वक्तव्‍ये कृतात्‍वनिर्देशो जश्‍शसोर्विषये आत्‍वं ज्ञापयति । अष्‍टौ । अष्‍टौ । अष्‍टाभिः । अष्‍टाभ्‍यः । अष्‍टाभ्‍यः । अष्‍टानाम् । अष्‍टासु । आत्‍वाभावे अष्‍टपञ्चवत् ।।

सूत्रार्थ - आकार आदेश किये गये अष्टन् शब्द से परे 'जस्' और 'शस्' के के स्थान पर ' औश्' आदेश हो ।

औश्' में 'शकार' इत् है। शित् आदेश होने के कारण 'अनेकाल्शित् सर्वस्य' सूत्र से सम्पूर्ण स्थानी अर्थात् जस् और शस् के स्थान में होता है।

अष्टाभ्यः इतीति । अष्टन आ विभक्तौ से हलादि विभक्तियों में अष्टन् को आकार अन्तादेश होने का विधान किया गया है। जस् और शस् के अजादि होने के कारण अष्टन्' को आकार आदेश नहीं हो सकता तो पुनः उससे परे जस् और शस् के स्थान पर औश् विधान कैसे सम्भव हो सकता है? इस आशंका के समाधान में लिखते हैं- 'अष्टाभ्यः' इति वक्तव्ये कृतात्वनिर्देशो जश्शसोर्विषये आत्वं ज्ञापयति ।  यदि अष्टन् शब्द से परे केवल जस् और शस् को औश् विधान करना होता तो पाणिनि 'अष्टाभ्य औश्' सूत्र में 'अष्टभ्यः' ऐसा लिखते। ऐसा न लिखकर आत्वनिर्देश परक 'अष्टाभ्यः' लिखा है। इससे ज्ञापित होता है कि जस् और शस् परे रहते 'अष्टन्' शब्द को आत्व होता है। अत: जिस पक्ष में यह आत्व होगा उस पक्ष में 'जस्' व शस् को उक्त 'औश्' आदेश भी होगा। 

अष्टौ । 'अष्टन्' + जस् इस अवस्था में जकार का अनुबन्धलोप, अजादिविभक्ति के परे रहने पर भी अष्टन आ विभक्तौ से आकार अन्तादेश हुआ । अष्ट आ + जस् हुआ।  सवर्णदीर्घ होने पर अष्टा+अस् बना। अष्टाभ्य औश् से जस् के अस् के स्थान पर औश् आदेश हुआ। अष्टा+औ हुआ। वृद्धिरेचि से वृद्धि होकर अष्टौ रूप सिद्ध हुआ। जिस पक्ष में अष्टन आ विभक्तौ से आकार आदेश नहीं होगा, उस पक्ष में षड्भ्यो लुक् से जस् के अस् का लुक हुआ और न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य से नकार का लोप होकर अष्ट रूप बनेगा।

अष्टाभिः । 'अष्टन् भिस्'- यहाँ हलादि विभक्ति परे रहते षड्भ्यो लुक् को बाधकर 'अष्टन आ०' सूत्र से आकार अन्तादेश हुआ। अष्ट आ + भिस् हुआ।  सवर्णदीर्घ होने पर अष्टा + भिस् बना। रुत्व विसर्गादि कार्य होकर 'अष्टाभिः' रूप सिद्ध हुआ। आत्व के अभाव पक्ष में नकार लोप होकर अष्टभिः रूप बनेगा। इसी प्रकार अष्टाभ्यः, अष्टभ्यः दो रूप बनेगा।

अष्टानाम् । अष्टन् आम्'-यहाँ ष्णान्ता षट्से षट् संज्ञा तथा 'षट्चतुर्भ्यःसे 'नुट्' आगम। आत्व हुआ। नकार का लोप होकर अष्टानाम् रूप सिद्ध हुआ। 

३०३ ऋत्‍विग्‍दधृक्‍स्रग्‍दिगुष्‍णिगञ्चुयुजिक्रुञ्चां च
एभ्‍यः क्‍विन्अञ्चेः सुप्‍युपपदेयुजिक्रुञ्चोःकेवलयोःक्रुञ्चेर्नलोपाभावश्‍च निपात्‍यते । कनावितौ ।।
सूत्रार्थ - ऋतु शब्दपूर्वक यज्, धृष्, सृज्, दिश्, उत्पूर्वक स्निह्, अञ्चु, युजि और क्रुञ् धातुओं से क्विन् प्रत्यय हो ।

अञ्चेरिति । अञ्चु धातु से क्विन् प्रत्यय सुबन्त उपपद रहते होता है। इसके उदाहरण प्राङ्, प्रत्यङ् और उदङ् आदि पद हैं।

युजिक्रुञ्चोरिति। युज् और क्रुञ्च धातुओं से जब वे उपपद रहित हों तब क्विन् प्रत्यय होता है।

क्रुञ्चेरिति-क्रुञ्ञ् धातु में क्विन् विधान के साथ नकार के लोप (अनिदितां हल०) अभाव का भी निपातन होता है। कनावितौ इति । क्विन् के नकार और ककार इत्संज्ञक हैं। ये क्रमशः 'हलन्त्यम्' तथा 'लशक्वतद्धिते' सूत्र से होते हैं। इकार की इत्संज्ञा 'उपदेशेऽज० ' के है। शेष वकार की 'वेरपृक्तस्यसे इत्संज्ञा होती है। इस प्रकार क्विन् का सर्वापहार लोप होता है। 
३०४ कृदतिङ्
अत्र धात्‍वधिकारे तिङि्भन्नः प्रत्‍ययः कृत्‍संज्ञः स्‍यात् ।।
सूत्रार्थ- इस धात्वधिकार में तिङ् से अतिरिक्त प्रत्यय को कृत् संज्ञा हो।
यहाँ धातोः सूत्र का अधिकार चलता है। ऋत्‍विग्‍दधृक् तथा अन्य सूत्रों से होने वाले तिङ् से भिन्न प्रत्यय तिङ् नहीं है अतः इस सूत्र द्वारा उसे कृत् संज्ञा हो। कृत् संज्ञा का फल स्वादि प्रत्ययों की उत्पत्ति है।
३०५ वेरपृक्तस्‍य
अपृक्तस्‍य वस्‍य लोपः ।।
सूत्रार्थ- अपृक्त वकार का लोप हो।

क्विन् के वकार की 'अपृक्त एकाल् प्रत्यय:' से अपृक्त संज्ञा होती है। अपृक्त संज्ञा होने के पश्चात् अपृक्त वकार का लोप हो गया। इस प्रकार क्विन् का सर्वापहार लोप होता है। 

३०६ क्‍विन्‍प्रत्‍ययस्‍य कुः
क्‍विन्‍प्रत्‍ययो यस्‍मात्तस्‍य कवर्गोऽन्‍तादेशः पदान्‍ते । अस्‍यासिद्धत्‍वाच्‍चोः कुरिति कुत्‍वम् । ऋत्‍विक्ऋत्‍विग् । ऋत्‍विजौ । ऋत्‍विग्‍भ्‍याम् ।।
सूत्रार्थ- क्विन् प्रत्यय जिससे किया गया हो, उसको पदान्त में कवर्ग अन्तादेश हो।

अस्य इति । इस सूत्र के असिद्ध होने से 'चोः कुः' सूत्र से कुत्व होता है। यद्यपि ये दोनों सूत्र त्रिपादी के ही हैं तथापि पर होने से 'क्विन्प्रत्ययस्य कुः' असिद्ध है। कारण कि त्रिपादी में भी परशास्त्र पूर्वशास्त्र के प्रति असिद्ध होता ही है। 

ऋत्विक्, ऋत्विग् 'ऋत्विज् + सु'- इस स्थिति में उकार का अनुबन्धलोप, सकार की अपृक्त संज्ञा, अपृक्त सकार का हल्ड्याब्भ्य:० से लोप हुआ। ऋत्विज् शेष बचा। ऋत्विज् का जकार पदान्त में है अतः क्विन्प्रत्ययस्य कु:  से जकार को कुत्व (पा० ८.२.६२) प्राप्त हुआ। यह 'चो: कु:' (पा० ८/२/३०) की सूत्र दृष्टि में असिद्ध है। 'चो: कुः' से जकार का अत्यन्त सादृश्य वर्ण गकार होकर ऋत्विग् बना। वाऽवसाने से विकल्प से चर् (ककार) होकर ऋत्विक् रूप सिद्ध हुआ । अभाव पक्ष में ऋत्विग् रूप रहा। 

विशेष

ऋत्विज् शब्द 'ऋतौ यजति इस विग्रह में ऋतुपूर्वक यज् धातु से ऋत्विग्-दधृक्-स्रग्-दिग्-उष्णिग्-अञ्चु-युजि-क्रुञ्चां च से क्विन् प्रत्यय होकर बना है ।  इस क्विन् का सर्वापहार लोप हो गया है। इसकी प्रक्रिया पूर्व में बतायी जा चुकी है।

ऋत्विजौ । 'ऋत्विज् + औ' में वर्णसम्मेलन होकर 'ऋत्विजौ' रूप बना। इसी प्रकार अजादि विभक्तियों में वर्णसम्मेलन करके रूप बनाते जायें।

ऋत्विग्भ्याम् । 'ऋत्विज् + भ्याम् में 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' से 'ऋत्विज्' की पदसंज्ञा, 'चोः कुः' से कुत्व होकर 'ऋत्विग्भ्याम्' रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार हलादि विभक्तियों में रूप बना लें।

ऋत्विक्षु । ऋत्विज् + सुप्' में 'स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' से पद संज्ञा, 'चो: कुः' से कुत्व होकर ऋत्विग् + सु हुआ। अब 'खरि च' से 'चर्त्व' करके 'ऋत्विक्सु' हुआ। 'आदेशप्रत्यययोः' से सु के सकार को मूर्धन्य आदेश होकर 'ऋत्विक्षु' रूप सिद्ध हुआ। 

३०७ युजेरसमासे
युजेः सर्वनामस्‍थाने नुम् स्‍यादसमासे । सुलोपः । संयोगान्‍तलोपः । कुत्‍वेन नस्‍य ङः । युङ् । अनुस्‍वारपरसवर्णौ । युञ्जौ । युञ्जः । युग्‍भ्‍याम् ।।

सूत्रार्थ- समास की अवस्था से भिन्न युज् धातु को 'नुम्' आगम हो, सर्वनामस्थान परे रहते।

सुलोपः इति। । 'युन् ज् + स्' में अपृक्त सकार का 'हल्ड्याब्भ्यः' से अपृक्त सकार का लोप होता है।

संयोगान्तलोपः इति।  'युन् ज् ' में  संयोगान्त के अन्त्य वर्ण जकार का लोप हो गया।

कुत्वेन इति । 'युन्' इस स्थिति में नकार के स्थान में 'क्विन्प्रत्ययस्य कुः' - सूत्र से ङकार आदेश होता है । 

युङ्। 'युज् + सु'- में युजेरसमासे से नुम् आगम हुआ। 'मिदचोऽन्त्यात् परः' परिभाषा के बल पर नुम् का आगम अन्त्य अच् का अवयव होगा। अनुबन्धलोप, 'युन् ज् + स्''हल्ड्याब्भ्यः' से अपृक्त सकार का लोप होकर युन्ज् बना। अब युन्ज् एक पद हुआ अतः संयोगान्तस्य लोप: से युन्ज् के अन्त्य वर्ण जकार का लोप हो गया। युन् बना। 'क्विन् प्रत्ययस्य कुः' से नकार को कुत्व ङकार आदेश होकर युङ् रूप सिद्ध हुआ ।

विशेष

कुत्व होने से पूर्व 'युन्' के नकार का 'न लोप: प्रातिपदिकान्तस्य' से लोप प्राप्त है, परन्तु 'संयोगान्तस्य लोपः' सूत्र 'न लोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (पा० ८.२.७) की दृष्टि में असिद्ध होने से नकार का लोप नहीं होगा ।

अनुस्वार इति। 'युन् ज् + औ ' इस स्थिति  में नकार को 'नश्चापदान्तस्य झलि' से अनुस्वार तथा उसे 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः' से परसवर्ण होता है।

युञ्जौ । 'युज् + औ' में युजेरसमासे से नुम् का आगम हुआ। 'मिदचोऽन्त्यात् परः' परिभाषा के बल पर नुम् का आगम अन्त्य अच् का अवयव होगा। अनुबन्धलोप, युन्ज् + औ हुआ। अपदान्त नुम् के नकार को नश्चापदान्तस्य झलि से अनुस्वार तथा 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः' से परसवर्ण होकर 'युञ्जौ' रूप सिद्ध हुआ।

विशेष

नश्चापदान्तस्य झलि (८/३/२४) के प्रति 'स्तो: श्चुना:' (८.४.४०) असिद्ध है। अतः युन् ज् औ'- यहाँ अनुस्वार विधि से पहले नकार को श्रुत्व नहीं होता है। सर्वनामस्थान प्रत्ययों में इसी प्रकार रूप सिद्ध होंगे।

अजादि विभक्तियों में वर्ण सम्मेलन करके रूप बना लें।

 युग्भ्याम् ।  युज् + भ्याम् में 'चो: कु:' से ककार आदेश कर रूप सिद्ध हुआ। इसी तरह हलादि विभक्तियों में कुत्व होकर रूप सिद्ध होते हैं।

युक्षु । 'युज् + सुप्' में पद संज्ञा होकर 'चो: कुः' से कुत्व हुआ, युग् + सु बना। 'खरि च' से गकार को ककार होकर युक्सु बना। अब 'आदेशप्रत्यययोः' द्वारा 'सु' के सकार को मूर्धन्य आदेश षकार हुआ। युक् षु, वर्ण सम्मेलन करके युक्षु रूप सिद्ध हुआ। 

३०८ चोः कुः
चवर्गस्‍य कवर्गः स्‍याज्‍झलि पदान्‍ते च । सुयुक्सुयुग् । सुयुजौ । सुयुग्‍भ्‍याम् ।। खन् । खञ्जौ । खन्‍भ्‍याम् ।।

३०९ व्रश्‍चभ्रस्‍जसृजमृजयजराजभ्राजच्‍छशां षः
झलि पदान्‍ते च । जश्‍त्‍वचत्‍र्वे । राट्राड् । राजौ । राजः । राड्भ्‍याम् ।। एवं विभ्राट्देवेट्विश्वसृट् ।। 
(उणादि 218) (परौ व्रजेः षः पदान्‍ते) परावुपपदे व्रजेः क्‍विप् स्‍याद्दीर्घश्‍च पदान्‍ते षत्‍वमपि । परिव्राट् । परिव्राजौ ।।
३१० विश्वस्‍य वसुराटोः
विश्वशब्‍दस्‍य दीर्घोऽन्‍तादेशः स्‍याद्सौ राट्शब्‍दे च परे । विश्वराट्विश्वराड् । विश्वराजौ । विश्वराड्भ्‍याम् ।।
३११ स्‍कोः संयोगाद्योरन्‍ते च
पदान्‍ते झलि च यः संयोगस्‍तदाद्योः स्‍कोर्लोपः । भृट् । सस्‍य श्‍चुत्‍वेन सः । झलां जश् झशि इति शस्‍य जः । भृज्‍जौ । भृड्भ्‍याम् ।। त्‍यदाद्यत्‍वं पररूपत्‍वं च ।।
३१२ तदोः सः सावनन्‍त्‍ययोः
त्‍यदादीनां तकारदकारयोरनन्‍त्‍ययोः सः स्‍यात्‍सौ । स्‍यः । त्‍यौ । त्‍ये ।। सः । तौ । ते ।। यः । यौ । ये ।। एषः । एतौ । एते ।।
सूत्रार्थ - त्यद् आदियों के अनन्त्य तकार और दकार को सकार हो, सु परे रहते। 
अनन्त्य का अर्थ है जो अन्त में नहीं है। इस प्रकार ऐसे तकार तथा दकार जो अन्त्य में नहीं हो उसे सकार होगा। उदाहरण आगे प्रक्रिया में दिखाया जा रहा है।
'त्यद् + स्' इस दशा में 'त्यदादीनाम:' सूत्र से दकार को अकार हुआ। त्य अ स् हुआ। अतो गुणे' सूत्र से पूर्व अकार को पररूप एकादेश होकर 'त्य स्' बना, तदोः सः सावनन्‍त्‍ययोः से आदि तकार को सकार हुआ। स्य स् बना। प्रत्यय सकार को रु और रकार को विसर्ग होकर 'स्य:' रूप सिद्ध हुआ। 
विशेष - 
सूत्र में यदि अन्त्य तकार तथा दकार नहीं कहते तो त्यद्, तद्, यद् और एतद् शब्दों के दकार को भी सकार प्राप्त हो जाता, जिससे अनिष्ट रूप बनता अतः सूत्र में अनन्त्य दकार का विधान किया गया।
त्यद्, तद्, यद् और एतद् इन चारों शब्दों में विभक्ति आने पर 'त्यदादीनाम:' से दकार को अकार आदेश होता है। पूर्व पर दोनों अकारों के स्थान में 'अतो गुणे' से पररूप एकादेश होकर क्रमश: त्य, त, य, और एत- इस रूप में अकारान्त बन जाते हैं। तद् शब्द के तकार में सु विभक्ति लाकर सः बनता है। औ आदि विभक्ति में दकार को अकार आदेश होता है। पूर्व पर दोनों अकारों के स्थान में 'अतो गुणे' से पररूप एकादेश आदि कार्य पूर्ववत् करना चाहिए।
३१३ ङेप्रथमयोरम्
युष्‍मदस्‍मद्भ्‍यां परस्‍य ङे इत्‍येतस्‍य प्रथमाद्वितीययोश्‍चामादेशः ।।
सूत्रार्थ -'युष्मद्' और 'अस्मद्' शब्दों से परे 'ङे' और प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के स्थान पर 'अम्' आदेश होता है।
३१४ त्‍वाहौ सौ
अनयोर्मपर्यन्‍तस्‍य त्‍वाहौ आदेशौ स्‍तः ।।
सूत्रार्थ - युष्मद् और अस्मद् शब्दों के मपर्यन्त (युष्म् और अस्म्) भाग को क्रम से 'त्व' और 'अह' आदेश हों, सु परे रहते। 
३१५ शेषे लोपः
आत्वयत्वनिमित्तेतरविभक्तौ परतो युष्मदस्मदोरन्त्यस्य लोपः स्यात् । त्‍वम् । अहम् ।।
सूत्रार्थ -आत्व और यत्व की निमित्त विभक्ति से भिन्न विभक्ति परे रहते इनकी 'टि' का लोप हो। 
'युष्मद् + सु'-यहाँ 'ङे प्रथमयोरम्' सूत्र से सु को 'अम्' आदेश हो गया। युष्मद् + अम् बना। अब 'त्वाऽऽहौ सौ' से सु विभक्ति में युष्मद् के 'युष्म्' भाग को त्व आदेश हो गया। त्व अद् अम् हुआ। त्व अद् में 'अक: सवर्णे दीर्घः' से प्राप्त दीर्घादेश को बाधकर 'अतो गुणे' से पररूप हो गया। त्वद् अम् बना। 'शेषे लोप:' से टि (त्वद् के अद् भाग) का लोप होकर त्व् अम् = त्वम् रूप सिद्ध हो गया। 
इसी प्रकार 'अस्मद् सु' में  पूर्ववत् प्रक्रिया करके अहम् रूप सिद्ध होता है। 
विशेष-
शेषे लोपः में शेष किसे कहा जा रहा है? जहाँ आकार तथा यकार का विधान नहीं किया गया हो ऐसे स्थल होते हैं- पञ्चमी, चतुर्थी, षष्ठी तथा प्रथमा विभक्ति। इसको छोड़कर अन्य स्थल को शेष कहा गया है। आत्व की निमित्त विभक्तियाँ है- औ, द्वितीया और आदेश रहित हलादि। यत्व की निमित्त ये हैं- आदेश रहित अजादि विभक्तियाँ।
३१६ युवावौ द्विवचने
द्वयोरुक्तावनयोर्मपर्यन्‍तस्‍य युवावौ स्‍तो विभक्तौ ।।
सूत्रार्थ -विभक्ति परे रहते द्वित्व संख्या के वाचक युष्मद् और अस्मद् शब्दों के मपर्यन्त (युष्म्, अस्म्) भाग को क्रम से 'युव' और 'आव' आदेश हों। 

इससे सभी द्विवचनों में 'युव' और 'आव' आदेश हो जायेंगे। औ. औट तीनों 'भ्याम्' और दोनों ओस् में यह सूत्र कार्य करता है। 
३१७ प्रथमायाश्‍च द्विवचने भाषायाम्
औङ्येतयोरात्‍वं लोके । युवाम् । आवाम् ।।
सूत्रार्थ -औङ् परे रहते युष्मद् और अस्मद् शब्दों को आकार अन्तादेश हो लोक में। 

युष्मद् + औ' यहाँ 'ङेप्रथमयोरम्' से औ को 'अम्' आदेश हो गया। युष्मद् + अम् हुआ। अब 'युवाऽऽवौ द्विवचने' से युष्म् भाग को 'युव' आदेश हो गया। युव अद् अम् हुआ। 'अतो गुणे' से युव घटक अकार तथा अद् घटक अकार को पररूप हो गया। युवद् अम् हुआ। 'प्रथमायाश्च.' से  आकार अन्त्यादेश हो गया। युव आ अम्। 'अक: सवर्णे दीर्घः' से युवा अम् = युवाम् बन गया। 
'अस्मद् औ'  में भी अस्मद् अम्, आव अद् अम्, आवद् अम्, आवआ अम्, आवा अम् प्रक्रिया होकर आवाम् रूप बनता है।  
३१८ यूयवयौ जसि
अनयोर्मपर्यन्‍तस्‍य । यूयम् । वयम् ।।
सूत्रार्थ -युष्मद् व अस्मद् के जस् परे रहते मपर्यन्त भाग को 'यूय' और 'वय' आदेश हों। 

'युष्मद् + जस्' यहाँ ' ङे प्रथमयोरम्' ङे को 'अम्' आदेश होकर युष्मद् अम् बना। अब 'यूयवयौ०' से मपर्यन्त युष्म् भाग को 'यूय' आदेश हो गया। यूय अद् + अम् हुआ। पररूप होकर यूयद् अम् बना। 'शेषे लोपः' से टि (अद्) का लोप होकर 'यूय् अम्' = 'यूयम्' रूप सिद्ध हुआ। 'अस्मद् + जस्' में भी पूर्ववत् प्रक्रिया होकर वयम् रूप बनता है। 
३१९ त्‍वमावेकवचने
एकस्‍योक्तावनयोर्मपर्यन्‍तस्‍य त्‍वमौ स्‍तो विभक्तौ ।।
सूत्रार्थ -विभक्ति परे रहते युष्मद् तथा अस्मद् के मपर्यन्त भाग को 'त्व' और 'म' आदेश हों एकवचन में। 

'युष्मद् + अम्' में अम् को अमादेश हुआ। अब 'त्वमावेकवचने' से युष्म् को 'त्व' आदेश हुआ। त्व अद् अम्। पररूप होकर त्वद् अम् बना।
३२० द्वितीयायाञ्च
अनयोरात्‍स्‍यात् । त्‍वाम् । माम् ।।
सूत्रार्थ -द्वितीया विभक्ति परे रहते युष्मद् और अस्मद् शब्द को आकार अन्तादेश हो। 
त्वद् अम्- यहाँ 'द्वितीयायां च' से आकार अन्तादेश हो गया। त्व आ अम्। 'अक: सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ होकर 'त्वाम्' रूप सिद्ध हुआ। 
'अस्मद् अम्' में भी यहाँ पूर्ववत् प्रक्रिया होकर आवाम् रूप बनेगा। द्वितीया के द्विवचन औ विभक्ति में प्रथमा के समान युवाम्, आवाम् रूप बनेंगे। 
३२१ शसो नः
आभ्‍यां शसो नः स्‍यात् । अमोऽपवादः । आदेः परस्‍य । संयोगान्‍तलोपः । युष्‍मान् । अस्‍मान् ।।
सूत्रार्थ - युष्मद् और अस्मद् शब्द से परे शस् को नकार आदेश हो। 

अम इति- 'ङे प्रथमयोः' सूत्र से प्राप्त 'अम्' आदेश का यह सूत्र अपवाद है। पर को विहित होने से यह नकारादेश आदे: परस्य' सूत्र के बल पर इस के आदि को होगा। 
'युष्मद शस् में अस्' शेष बचा। यहाँ 'शसो नः' से 'शस्' के अकार को नकार हो गया। युष्मद् न् स्। 'द्वितीयायां च' से आकारादेश हो गया। युष्म आ न् स्। 'अकः सवर्णे दीर्घः' से दीर्घ हो गया। युष्मान् स्। 'संयोगान्तस्य लोपः' से सकार का लोप हो गया। युष्मान् रूप सिद्ध हुआ। 
इसी प्रकार अस्मद् शस्, अस्मद् न् स्, अस्म आ न् स्, अस्मान् स् प्रक्रिया होकर अस्मान् रूप बनेगा।
३२२ योऽचि
अनयोर्यकारादेशः स्‍यादनादेशेऽजादौ परतः । त्‍वया । मया ।।
सूत्रार्थ -अनादेश अजादि विभक्ति परे रहते युष्मद् और अस्मद् शब्दों को यकार आदेश हो। 
यह यत्व विधायक सूत्र है। अनादेश का अर्थ है जिसको कुछ आदेश न हुआ हो तथा अजादि का अर्थ है- जिस के आदि में कोई स्वर हो। ध्यान रहे कि जहाँ कोई आदेश होकर विभक्ति अजादि होगी तो वहाँ यह सूत्र प्रवृत्त नहीं होगा। यथा- युष्मत् । तथा अस्मद् आदि रूपों में 'भ्यस्' के स्थान पर अत् आदेश (पञ्चम्या अत्) होकर अजादि विभक्ति प्राप्त होती है। परन्तु आदेश होने के कारण यहाँ पर इस सूत्र की प्रवृत्ति (यकारादेश) नहीं होगी। 
'युष्मद् टा'- यहाँ 'त्वमा०' से 'त्व' आदेश हो गया। त्व अद् आ। पररूप होकर-त्वद्आ, हो गया। अब प्रकृत सूत्र से यकार आदेश हो गया। त्वय् आत्वया। 

'अस्मद् टा'- अस्मद् आ-मअद् आ-मद्आ-मय् आ-मया।
३२३ युष्‍मदस्‍मदोरनादेशे
अनयोरात्‍स्‍यादनादेशे हलादौ विभक्तौ । युवाभ्‍याम् । आवाभ्‍याम् । युष्‍माभिः । अस्‍माभिः ।।
सूत्रार्थ - अनादेश हलादि विभक्ति परे रहते युष्मद् और अस्मद् अङ्ग को आकार आदेश हो। 
युष्मद्भ्याम्- 'युवावौ०' से 'युवअद्भ्याम्'। पररूप होकर 'युवद्भ्याम्'। प्रकृत सूत्र से आकार आदेश तथा सवर्ण दीर्घ हो गया। युव आ भ्याम्- युवाभ्याम्। 

अस्मद्भ्याम्-आव अद्भ्याम्-आवद्भ्याम्- आव आ भ्याम्- आवाभ्याम् 'युष्मद् भिस्'-दकार को आकार हो गया। युष्म आ भिस्-युष्माभिस्-युष्माभिः । अस्मद् भिस्-अस्म आ भिस्- अस्माभिस्-अस्माभिः ।
३२४ तुभ्‍यमह्‍यौ ङयि
अनयोर्मपर्यन्‍तस्‍य । टिलोपः । तुभ्‍यम् । मह्‍यम् ।।
सूत्रार्थ - ङे परे रहते (युष्मद् तथा अस्मद् के) मपर्यन्त भाग को 'तुभ्य' और 'महा। आदेश हों। 
'युष्मद् डे'-'डे प्रथमयोरम्' से 'डे' को अम् आदेश। 'तुभ्यमह्यौ ङयि' से 'तुभ्य' आदेश हो गया। युष्मद् अम्। तुभ्य अद् अम्। 'अतो गुणे' से पररूप हो गया। तुभ्यद् अम्। शेषे लोप:' से टि का लोप हो गया। तुभ्य् अम्-तुभ्यम्। 

अस्मद् डे-अस्मद् अम्-माअद्अम्- मह्यद् अम्-मा अम्-मह्यम्।
३२५ भ्‍यसोऽभ्‍यम्
आभ्‍यां परस्‍य । युष्‍मभ्‍यम् । अस्‍मभ्‍यम् ।।
सूत्रार्थ - युष्मद् और अस्मद् से परे 'भ्यस्' को 'अभ्यम्' आदेश हो। 
'युष्मद् भ्यस्'- 'भ्यसोऽभ्यम्' से 'अभ्यम्' आदेश हो गया। शेषे लोप:' से टि का लोप हो गया। युष्मद् अभ्यम्-युष्म् अभ्यम्-युष्मभ्यम्। 

इसी प्रकार 'अस्मभ्यम्'।
३२६ एकवचनस्‍य च
आभ्‍यां ङसेरत् । त्‍वत् । मत् ।।
सूत्रार्थ - (युष्मद् और अस्मद्) इन दोनों से परवर्ती 'डस्' को अत् आदेश हो। 
'युष्मद् ङसि'- 'त्वमावेकवचन०' से 'त्व अद् ङसि' हो गया। पररूप होकर 'एकवचनस्य च' से 'अत्' आदेश हो गया। त्वद् ङसि। त्वद् अत्। शेषे लोप:' से टि का लोप हो गया। त्व् अत्-त्वत्। 
'अस्मद् ङसि'-पूर्ववत् प्रक्रिया समझें। म अद् डसि-मद् ङसि-मद् अत्-म् अत् मत्। 
३२७ पञ्चम्‍या अत्
आभ्‍यां पञ्चम्‍यां भ्‍यसोऽत्‍स्‍यात् । युष्‍मत् । अस्‍मत् ।।
सूत्रार्थ - युष्मद् और अस्मद् से परे पञ्चमी के 'भ्यस्' को 'अत्' आदेश हो। 
पञ्चमी के बहुवचन में 'युष्मद् भ्यस्' इस दशा में 'भ्यस्' को 'अत्' आदेश हुआ। तब 'शेषे लोप:' से टि (अद्) का लोप होकर 'युष्मत्' रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार 'अस्मत्' बनेगा 
यहाँ 'भ्यस्' को अत् आदेश हो गया। तब अनादेश विभक्ति न मिलने के कारण 'आत्व' नहीं हुआ। आत्व निमित्तक विभक्ति न होने से 'शेषे लोप:' से टि का लोप हुआ। तब रूप बना। 

। इसी प्रकार 'अस्मद् भ्यस्'-प्रकृत सूत्र से 'अत्' आदेश हो गया। पूर्ववत् प्रक्रिया होकर 'अस्मत्' रूप सिद्ध हो गया। अस्मद् अत्-अस्म् अत्-अस्मत्।।
३२८ तवममौ ङसि
अनयोर्मपर्यन्‍तस्‍य तवममौ स्‍तो ङसि ।।
सूत्रार्थ - ङस् परे रहते युष्मद् और अस्मद् के मपर्यन्त भाग को 'तव' और 'मम' आदेश हों। 

'युष्यद् + उस'-यहाँ 'तवममौ-' से 'तव' आदेश हो गया। पररूप होकर 'तव अद् डस्-तवद् डस्' हो गया। 
३२९ युष्‍मदस्‍मद्भ्‍यां ङसोऽश्
तव । मम । युवयोः । आवयोः ।।
सूत्रार्थ -युष्मद् और अस्मद् शब्दों से डस् को 'अश्' आदेश हो। 
'अश्' का शकार इत् है। 'अश्' शित् होने से 'अनेकाल् शित्-' से सम्पूर्ण के स्थान पर होगा। 'यष्मद डस्' में 'तवममौ०' से 'तव' आदेश, पररूप हो गया। 'तवद् डस्' प्रकृत सूत्र से 'अश्' आदेश। तवद् अश्-तवद् । अब 'शेषे लोप:' से 'टि' का लोप हो गया। तव् अ-तव। 
इसी प्रकार अस्मद् डस्-मम। 
'युष्मद् ओस्'- 'युवावौ०' से 'युव' आदेश, पररूप आदि होकर। युव अद् ओस्। अनादेश अजादि विभक्ति परे रहते 'योऽचि' से दकार को यकार आदेश हो गया। युवद् ओस्-युवय् ओस्-युवयोः । 

इसी प्रकार 'अस्मद् ओस्' में समग्र प्रक्रिया पूर्ववत् होकर 'आवयोः बनेगा। 
३३० साम आकम्
आभ्‍यां परस्‍य साम आकं स्‍यात् । युष्‍माकम् । अस्‍माकम् । त्‍वयि । मयि । युवयोः । आवयोः । युष्‍मासु । अस्‍मासु ।।
सूत्रार्थ - युष्मद् और अस्मद् से परे 'साम्' को 'आकम्' आदेश हो। 
'आम्' को सुट् आगम होने से 'साम्' बनता है अत: 'साम्' का तात्पर्य है-आम्। सुट् सहित 'आम्' को 'आकम्' आदेश का इसमें विधान है। चूँकि 'युष्मद्' और अस्मद्' शब्द हलन्त हैं। अत: इनसे परे 'आम्' को सुट् की प्राप्ति नहीं। अत: सूत्र में साम्' यह सकार सहित पढना व्यर्थ है। इसका समाधान यह है कि यदि 'आम्' को ही आकम्' कर दिया जाय तो शेषे लोप:' से अन्त्यलोप पक्ष में दकार का लोप होगा तथा सद अकारान्त बन जायेंगे और 'सट' की प्राप्ति होगी। उस (भावी) सुट् की निवृत्ति लिए सुट् विशिष्ट 'आम्' को 'आकम्' का विधान किया है। अत: 'आकम्' होने के 
अनन्तर सुट् नहीं होता। 

शेष लोप: ' सूत्र के अर्थ के विषय में दो पक्ष हैं। एक पक्ष के अनुसार अन्त्य का लोप होता है। इसे ही अन्त्यलोप पक्ष कहते हैं। उनके अनुसार 'आत्वयत्वनिमित्तेतर विभक्तौ एतयोरन्त्यस्य लोपः' है। दूसरा पक्ष टिलोप पक्ष कहलाता है। इसके अनसार मपर्यन्त भाग से अवशिष्ट भाग अर्थात् टि (अद्) का लोप होता है। शेषे इति षष्ठ्यर्थे सप्तमी तथा च मपर्यन्ताच्छेषस्य लोपः'। अन्त्यलोप पक्ष में ही अकारान्त बन जाने से सुट् की प्राप्ति होती है। उसी भावी सुट् के निवारण के लिए 'साम्' कहा गया है। टिलोप पक्ष में ये हलन्त ही रहते हैं। अत: वहाँ सुट् सहित निर्देश की आवश्यकता नहीं। 
'युष्मद् आम्'-यहाँ 'आम्' को 'आकम्' आदेश हुआ 'शेषे लोप:' से अन्त्य लोप हुआ। तब 'युष्म आकम्' इस स्थिति में सवर्ण दीर्घ होकर 'युष्माकम्' बना। टिलोप पक्ष में 'युष्म् आकम्-युष्माकम्' रूप बनेगा। 
इसी प्रकार 'अस्माकम्' बन गया। 
'युष्मद् ङि'- यहाँ 'त्वमावेकवच०' के द्वारा 'त्व' आदेश हुआ। त्व अद् इ। 'अतो गुणे' से पररूप हुआ। 'योऽचि' से यकार आदेश होकर 'त्वयि' रूप बना। 
'अस्मद् ङि'-यहाँ 'मयि' रूप बना। 
सुप् में 'युष्मदस्मदो-' से दकार को आकार आदेश होगा। तब सवर्ण दीर्घ होकर 'युष्मासु' तथा 'अस्मासु' रूप बनेंगे। 
३३१ युष्‍मदस्‍मदोः षष्‍ठीचतुर्थीद्वितीयास्‍थयोर्वांनावौ
पदात्‍परयोरपादादौ स्‍थितयोः षष्‍ठ्यदिविशिष्‍टयोर्वां नौ इत्‍यादेशौ स्‍तः ।।
सूत्रार्थ - किसी पद से पर षष्ठी, चतुर्थी तथा द्वितीया विभक्तियों से युक्त युष्मद् और अस्मद् शब्दों को क्रमश: 'वाम्' तथा 'नौ' आदेश होते हैं, परन्तु ये पाद के प्रारम्भ में न हों। 
३३२ बहुवचनस्‍य वस्‍नसौ
उक्तविधयोरनयोः षष्‍ठ्यदिबहुवचनान्‍तयोर्वस्‍नसौ स्‍तः ।।
सूत्रार्थ -पद से पर, जो पाद के आदि में नहीं है, ऐसे षष्ठी आदि बहुवचनान्त युष्मद् और अस्मद् शब्दों को क्रमश: 'वस्' तथा 'नस्' हों। 

सभी विभक्तियों के द्विवचन में पूर्वसूत्र से वाम् तथा नौ होते हैं तथा बहुवचन में प्रकृतसूत्र से वस् और नस् होते हैं। 
३३३ तेमयावेकवचनस्‍य
उक्तविधयोरनयोष्‍षष्‍ठीचतुथ्‍र्येकवचनान्‍तयोस्‍ते मे एतौ स्‍तः ।।
सूत्रार्थ -पद से पर, जो पाद के आदि में नहीं है, ऐसे षष्ठ्यादि के एकवचनान्त युष्मद् तथा अस्मद् को क्रमश: 'ते' तथा 'मे' आदेश हों।
३३४ त्‍वामौ द्वितीयायाः
द्वितीयैकवचनान्‍तयोस्‍त्‍वा मा इत्‍यादेशौ स्‍तः ।।
सूत्रार्थ - द्वितीया के एकवचन में युष्मद् व अस्मद् को क्रमश: 'त्वा' तथा 'मा' आदेश हों। 
श्रीशस्‍तवाऽवतु मापीह दत्तात्ते मेऽपि शर्म सः । स्‍वामी ते मेऽपि स हरिः पातु वामपि नौ विभुः ।।
सुखं वां नौ ददात्‍वीशः पतिर्वामपि नौ हरिः । सोऽव्‍याद्वो नः शिवं वो नो दद्यात् सेव्‍योऽत्र वः स नः ।।
श्रीश इति- इस संसार में लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु तुम्हें पाले (रक्षा करे) तथा मुझे भी। वह तेरे लिये तथा मेरे लिये कल्याण को देवे। वह भगवान् विष्णु तुम्हारा और मेरा भी स्वामी है। व्यापक भगवान् तुम दो की तथा हम दो की भी रक्षा करे ॥१॥ सर्वशक्तिमान् परमात्मा तुम दो के लिए तथा हम दो के लिए सुख देवे। भगवान् तुम दो का तथा हम दो का भी स्वामी है। वह भगवान् तुम सब की तथा हम सब की रक्षा करे और तुम सब के लिए तथा हम सबके लिए कल्याण देवे। इस संसार में वह भगवान् तुम सबका तथा हम सब का सेवनीय है। 
(समानवाक्‍ये युष्‍मदस्‍मदादेशा वक्तव्‍याः) । एकतिङ् वाक्‍यम् । ओदनं पच तव भविष्‍यति । 
एकेति-युष्मद् और अस्मद् शब्दों के स्थान पर होने वाले आदेश (वाम्, नौ आदि) एक वाक्य में ही होते हैं। जिसमें एक तिङन्त पद रहता है, उसे वाक्य कहते हैं अर्थात् एक मुख्य क्रिया वाले शब्द समूह को वाक्य कहते हैं। यथा- 'ओदनं पच, तव भावष्यति'-यहाँ दो वाक्य होने के कारण प्रस्तुत वार्तिक से 'तव' के स्थान पर 'ते' नहीं हुआ। एक वाक्य का उदाहरण है- 'शालीनां ते ओदनं दास्यामि।' अत: यहाँ 'तुभ्यं' के स्थान पर 'ते' आदेश हो जाता है। 
(एते वान्नावादयोऽनन्‍वादेशे वा वक्तव्‍याः) । अन्‍वादेशे तु नित्‍यं स्‍युः । धाता ते भक्तोऽस्‍तिधाता तव भक्तोऽस्‍ति वा । तस्‍मै ते नम इत्‍येव ।। सुपात्सुपाद् ।। सुपदौ ।।
अन्वादेशं न होने पर पूर्वोक्त (वाम् इत्यादि) आदेश विकल्प से होते हैं। "श के विषय में नित्य हों। यथा-'धाता ते भक्तोऽस्ति'-में अन्वादेश नहीं है, अत: पान पर 'धाता तव भक्तोऽस्ति' इस प्रकार वैकल्पिक रूप हो सकता है। इसके स्थान पर 'धाता तव अन्वादेश होने पर ये आदेश नित्य होगा। यथा- 'तस्मै ते नम:' में अन्वादेश होने के कारण 'तुभ्यम्' के स्थान पर नित्य 'ते' आदेश होगा।
३३५ पादः पत्
पाच्‍छब्‍दान्‍तं यदङ्गं भं तदवयवस्‍य पाच्‍छब्‍दस्‍य पदादेशः ।। सुपदः । सुपदा । सुपाद्भ्‍याम् ।। अग्‍निमत्अग्‍निमद् । अग्‍निमथौ । अग्‍निमथः ।।
३३६ अनिदितां हल उपधायाः क्‍ङिति
हलन्‍तानामनिदितामङ्गानामुपधाया नस्‍य लोपः किति ङिति । नुम् । संयोगान्‍तस्‍य लोपः । नस्‍य कुत्‍वेन ङः । प्राङ् । प्राञ्चौ । प्राञ्चः ।।
३३७ अचः
लुप्‍तनकारस्‍याञ्चतेर्भस्‍याकारस्‍य लोपः ।।
३३८ चौ
लुप्‍ताकारनकारेऽञ्चतौ परे पूर्वस्‍याणो दीर्गः । प्राचः । प्राचा । प्राग्‍भ्‍याम् ।। प्रत्‍यङ् । प्रत्‍यञ्चौ । प्रतीचः । प्रत्‍यग्‍भ्‍याम् ।। उदङ् । उदञ्चौ ।।
३३९ उद ईत्
उच्‍छब्‍दात्‍परस्‍य लुप्‍तनकारस्‍याञ्चतेर्भस्‍याकारस्‍य ईत् । उदीचः । उदीचा । उदग्‍भ्‍याम् ।
३४० समः समि
वप्रत्‍ययान्‍तेऽञ्चतौ । सम्‍यङ् । सम्‍यञ्चौ । समीचः । सम्‍यग्‍भ्‍याम् ।।
३४१ सहस्‍य सध्रिः
तथा । सध्र्यङ् ।।
३४२ तिरसस्‍तिर्यलोपे
अलुप्‍ताकारेऽञ्चतौ वप्रत्‍ययान्‍ते तिरसस्‍तिर्यादेशः । तिर्यङ् । तिर्यञ्चौ । तिरश्‍चः । तिर्यग्‍भ्‍याम् ।।
३४३ नाञ्चेः पूजायाम्
पूजार्थस्‍याञ्चतेरुपधाया नस्‍य लोपो न । प्राङ् । प्राञ्चौ । नलोपाभावादलोपो न । प्राञ्चः । प्राङ्भ्‍याम् । प्राङ्क्षु ।। एवं पूजार्थे प्रत्‍यङ्ङादयः ।। क्रुङ् । क्रुञ्चौ । क्रुङ्भ्‍याम् ।। पयोमुक्पयोमुग् । पयोमुचौ । पयोमुग्‍भ्‍याम् ।। उगित्त्वान्नुमि –
३४४ सान्‍तमहतः संयोगस्‍य
सान्‍तसंयोगस्‍य महतश्‍च यो नकारस्‍तस्‍योपधाया दीर्घोऽसम्‍बुद्धौ सर्वनामस्‍थाने । महान् । महान्‍तौ । महान्‍तः । हे महन् । महद्भ्‍याम् ।।
३४५ अत्‍वसन्‍तस्‍य चाधातोः
अत्‍वन्‍तस्‍योपधाया दीर्घो धातुभिन्नासन्‍तस्‍य चासम्‍बुद्धौ सौ परे । उगित्तवान्नुम् । धीमान् । धीमन्‍तौ । धीमन्‍तः । हे धीमन् शसादौ महद्वत् ।। भातेर्डवतुः । डित्त्वसामथ्‍र्यादभस्‍यापि टेर्लोपः । भवान् । भवान्‍तौ । भवन्‍तः । शत्रन्‍तस्‍य भवन् ।।
सम्बुद्धि भिन्न सु परे हो तो अतु अंत वाले अङ्ग की तथा धातु भिन्न अस् अंत वाले एंग की उपधा के स्थान पर दीर्घ होता है। अतु में मतुप्, वतुप्, डवतु आदि प्रत्ययों का ग्रहण होता है।
३४६ उभे अभ्‍यस्‍तम्
षाष्‍ठद्वित्‍वप्रकरणे ये द्वे विहिते ते उभे समुदिते अभ्‍यस्‍तसंज्ञे स्‍तः ।।
३४७ नाभ्‍यस्‍ताच्‍छतुः
अभ्‍यस्‍तात्‍परस्‍य शतुर्नुम् न । ददत्ददद् । ददतौ । ददतः ।।
३४८ जिक्षत्‍यादयः षट्
षड्धातवोऽन्‍ये जिक्षतिश्‍च सप्‍तम एते अभ्‍यस्‍तसंज्ञाः स्‍युः । जक्षत्जक्षद् । जक्षतौ । जक्षतः ।। एवं जाग्रत् । दरिद्रत् । शासत् । चकासत् ।। गुप्गुब् । गुपौ । गुपः । गुब्‍भ्‍याम् ।।
३४९ त्‍यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ्च
त्‍यदादिषूपपदेष्‍वज्ञानार्थाद्दृशेः कञ् स्‍यात् । चात् क्‍विन् ।।
३५० आ सर्वनाम्‍नः
सर्वनाम्‍न आकारोऽन्‍तादेशः स्‍याद्दृग्‍दृशवतुँषु । तादृक्तादृग् । तादृशौ । तादृशः । तादृग्‍भ्‍याम् ।। व्रश्‍चेति षः । जश्‍त्‍वचर्त्वे । विट्विड् । विशौ । विशः । विड्भ्‍याम् ।।
३५१ नशेर्वा
नशेः कवर्गोऽन्‍तादेशो वा पदान्‍ते । नक्नग्नट्नड् । नशौ । नशः । नग्‍भ्‍याम्नड्भ्‍याम् ।।
३५२ स्‍पृशोऽनुदके क्‍विन्
अनुदके सुप्‍युपपदे स्‍पृशेः क्‍विन् । घृतस्‍पृक्घृतस्‍पृग् । घृतस्‍पृशौ । घृतस्‍पृशः ।। दधृक्दधृग् । दधृषौ । दधृग्‍भ्‍याम् ।। रत्‍नमुषौ । रत्‍नमुड्भ्‍याम् ।। षट्षड् । षिड्भः । षङ्भ्‍यः । षण्‍णाम् । षट्सु ।। रुत्‍वं प्रति षत्‍वस्‍यासिद्धत्‍वससजुषो रुरिति रुत्‍वम् ।।
३५३ र्वोरुपधाया दीर्घ इकः
रेफवान्‍तयोर्धात्‍वोरुपधाया इको दीर्घः पदान्‍ते । पिपठीः । पिपठिषौ । पिपठीर्भ्याम् ।।
३५४ नुम्‍विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि
एतैः प्रत्‍येकं व्‍यवधानेऽपि इण्‍कुभ्‍यां परस्‍य सस्‍य मूर्धन्‍यादेशः । ष्‍टुत्‍वेन पूर्वस्‍य षः । पिपठीष्‍षुपिपठीःषु ।। चिकीः । चिकीर्षौ । चिकीर्भ्‍याम् । चिकीर्षु ।। विद्वान् । विद्वांसौ । हे विद्वन् ।।
३५५ वसोः सम्‍प्रसारणम्
वस्‍वन्‍तस्‍य भस्‍य सम्‍प्रसारणं स्‍यात् । विदुषः । वसुस्रंस्‍विति दः । विद्वद्भ्‍याम् ।।
३५६ पुंसोऽसुङ्
सर्वनामस्‍थाने विविक्षते पुंसोऽसुङ् स्‍यात् । पुमान् । हे पुमन् । पुमांसौ । पुंसः । पुम्‍भ्‍याम् । पुंसु ।। ऋदुशनेत्‍यनङ् । उशना । उशनसौ । 
(अस्‍य संबुद्धौ वानङ्नलोपश्‍च वा वाच्‍यः) 
हे उशनहे उशनन्हे उशनः । हे उशनसौ । उशनोभ्‍याम् । उशनस्‍सु ।। अनेहा । अनेहसौ । हे अनेहः ।। वेधाः । वेधसौ । हे वेधः । वेधोभ्‍याम् ।।
३५७ अदस औ सुलोपश्‍च
अदस औकारोऽन्‍तादेशः स्‍यात्‍सौ परे सुलोपश्‍च । तदोरिति सः । असौ । त्‍यदाद्यत्‍वम् । वृद्धिः ।।
सूत्रार्थ - सु के परे रहते अदस् शब्द को औकार अन्तादेश और सु का लोप हो।
असौ । अदस् + सु इस अवस्था त्यदादीनाम: से अकार आदेश प्राप्त हुआ, अदस औ सुलोपश्च द्वारा उसे बाधकर अदस् के सकार के स्थान पर औ आदेश और सु का लोप गया। अद औ बना।  वृद्धिरेचि से वृद्धि होकर अदौ बना। आगामी सूत्र अदसोऽसेर्दादु दो मः से दकार के स्थान पर मकार आदेश तथा औकार के स्थान पर दीर्घ ऊकार आदेश प्राप्त हुआ। तदोः सः सावनन्त्ययोः की दृष्टि में अदसोऽसेर्दादु दो मः असिद्ध है अतः वह प्रवृत्त नहीं हुआ। यहाँ प्रत्ययलक्षण से सु विभक्ति मानकर तदोः सः सावनन्त्ययोः से अदौ के दकार के स्थान पर सकार आदेश होकर असौ रूप सिद्ध हुआ। 

विशेष- अदस् शब्द की रूप सिद्धि करने के पहले आपने इदम् शब्द की रूप सिद्धि करना जान लिया होगा।  अदस् शब्द की रूप सिद्धि प्रक्रिया को समझने में इदम् शब्द की रूपसिद्धि प्रक्रिया सहायक है। दोनों शब्द त्यदादी गण में पठित हैं। अतः त्यादादि गण पठित शब्दों में रूपसिद्धि की कई प्रक्रिया एक समान है।

३५८ अदसोऽसेर्दादु दो मः
अदसोऽसान्‍तस्‍य दात्‍परस्‍य उदूतौ स्‍तो दस्‍य मश्‍च । आन्‍तरतम्‍याद्ध्‍स्‍वस्‍य उःदीर्घस्‍य ऊः । अमू । जसः शी । गुणः ।।

सूत्रार्थ - जिसके अन्त में सकार न हो, ऐसे अदस् शब्द के दकार से परवर्ती वर्ण को उकार और ऊकार आदेश और दकार को मकार आदेश हो।

आन्तरतम्यादिति। स्थानेऽन्तरतमः के अनुसार स्थानी के सादृश्य आदेश होते हैं। अतः ह्रस्व वर्ण के स्थान पर ह्रस्व उकार आदेश और दीर्घ वर्ण के स्थान पर दीर्घ ऊकार आदेश होता है। अर्थात् ओ के स्थान पर उकार तथा औ के स्थान पर ऊकार आदेश होगा।

अमू । अदस् + औ इस स्थिति में त्यदादीनामः से सकार के स्थान पर अकार आदेश हुआ। अद + अ + औ बना। अतो गुणे से दकारोत्तरवर्ती अकार तथा उसके बाद के अकार के मध्य पररूप करने पर अद + औ बना। प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्णदीर्घ प्राप्त हुआ, जिसका निषेध नादिचि द्वारा हो गया। पुनः वृद्धिरेचि से वृद्धि होकर अदौ बना। अब अदसोऽसेर्दादु दो म: से स्थानेऽन्तरतमः की सहायता से प्रमाण के सादृश्य को लेकर औकार के स्थान पर दीर्घ ऊकार आदेश और दकार के स्थान पर मकार आदेश होकर अमू रूप सिद्ध हुआ।

३५९ एत ईद्बहुवचने

अदसो दात्‍परस्‍यैत ईद्दस्‍य च मो बह्‍वर्थोक्तौ । अमी । पूर्वत्रासिद्धमिति विभक्तिकार्यं प्राक् पश्‍चादुत्‍वमत्‍वे । अमुम् । अमू । अमून् । मुत्‍वे कृते घिसंज्ञायां ना भावः ।।

सूत्रार्थ – बहुत्व की विवक्षा में  अदस् शब्द के दकार से परे एकार को ईकार तथा दकार को मकार आदेश होता है ।

अमी। अदस् + जस् इस अवस्था में जस् के जकार का अनुबन्धलोप त्यदादीनामः से अदस् के सकार को अकार आदेश हुआ। अद + अ + अस् बना। अतो गुणे से पररूप होकर अद + अस् बना। जसः शी से जस् के स्थान शी आदेश, अनुबन्धलोप करके अद + इ हुआ। आद् गुणः से गुण एकादेश करने पर अदे बना। अब एत ईद् बहुवचने से अदे के एकार के स्थान पर इकार आदेश और दकार के स्थान पर मकार आदेश होकर अमी रूप सिद्ध हुआ।

पूर्वत्रासिद्धमिति । अदस् + अम् इस स्थिति के कह रहे हैं- उत्व तथा मत्व विधायक सूत्र अदसोऽसेर्दादु दो मः 08/02/80 त्रिपादी में स्थित हैं, वे अमि पूर्वः 06/01/103 की दृष्टि में असिद्ध हैं। अतः पहले विभक्ति कार्य होंगे। तदनन्तर उत्व आदि कार्य होंगे। अदस् + अम् इस स्थिति में त्यदादीनाम: 7/2/102 से अत्व होने के पश्चात् अद + अ + अम् ऐसी स्थिति में पररूप तथा अमि पूर्वः 06/01/103 से पूर्वरूप होगा । यहाँ तक विभक्तिकार्य की प्रक्रिया है। तदनन्तर अदसोऽसेर्दादु दो मः से उत्वमत्व होगा। अदस् + अम् इस स्थिति में त्यदादीनाम: 7/2/102  तथा अदसोऽसेर्दादु दो मः 08/02/80  एक साथ प्राप्त हो रहे थे तो पूर्वत्रासिद्धम् के नियम से उत्वमत्वविधायक सूत्र के त्रिपादी होने से असिद्ध हुआ। अतः पहले विभक्तिकार्य होकर बाद में उत्वमत्व होते हैं।

अमुम्। अदस् + अम् इस स्थिति में त्यदादीनाम: से अत्व और अतो गुणे से पररूप होने पर अद + अम् तथा अमि पूर्वः से पूर्वरूप होकर अदम् बना । इसके बाद अदसोऽसेर्दादु दो मः से दकारोत्तरवर्ती अकार को उत्व और दकार को मत्व आदेश होकर अमुम् रूप सिद्ध हुआ। 

अमून्। अदस् + शस् इस स्थिति में  शस् के शकार का अनुबन्धलोप, त्यदादीनाम: से अदस् के सकार को अत्व हुआ। अद अ + अस् बना । यहाँ पदान्तभिन्न ह्रस्व अकार से गुण अकार बाद में होने के कारण अतो गुणे से पररूप होकर अद + अस् बना । पूर्वत्रासिद्धम् के नियम से उत्वमत्व के असिद्ध होने के कारण पहले विभक्तिकार्य प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्णदीर्घ होकर अदास् बना। अब तस्माच्छसो नः पुंसि से अदास् के सकार के स्थान पर नकार आदेश होकर अदान् बना। यहाँ तक विभक्ति कार्य हुआ। इसके बाद अदसोऽसेर्दादु दो मः से दीर्घ आकार के स्थान दीर्घ ऊकार और दकार के स्थान पर मकार आदेश होकर अमून् रूप सिद्ध हुआ।

 

मुत्वे कृतेति। अदस् + टा इस स्थिति में अदसोऽसेर्दादु दो मः 8/2/80 और टाङसिङसामिनात्स्याः 7/1/12 इन दोनों सूत्रों की एकसाथ प्राप्ति हुई। पूर्वत्रासिद्धम् के नियम से टाङसिङसामिनात्स्याः के प्रति उत्वमत्वविधायक सूत्र अदसोऽसेर्दादु दो मः असिद्ध है। आगामी न मुने सूत्र  ना की कर्तव्यता में उत्वमत्व को असिद्ध नहीं होने देता। अतः ग्रन्थकार लिखते हैं- मुत्‍वे कृते घिसंज्ञायां ना भावः । 

३६० न मु ने
नाभावे कर्तव्‍ये कृते च मुभावो नासिद्धः । अमुना । अमूभ्‍याम् ३ । अमीभिः । अमुष्‍मै । अमीभ्‍यः २ । अमुष्‍मात् । अमुष्‍य । अमुयोः २ । अमीषाम् । अमुष्‍मिन् । अमीषु ।।

सूत्रार्थ – ना भाव करना हो या कर लिया गया हो इन दोनों अवस्थाओं में मु-भाव असिद्ध नहीं होता।

अमुना। अदस् + टा इस स्थिति में टकार का अनुबन्धलोप, त्यदादीनाम: से अदस् के सकार को अत्व हुआ। अद अ + आ बना । यहाँ पदान्तभिन्न ह्रस्व अकार से गुण अकार बाद में होने के कारण अतो गुणे से पररूप होकर अद + आ हुआ। अब यहाँ पर अदसोऽसेर्दादु दो मः और टाङसिङसामिनात्स्याः की एकसाथ प्राप्त हुआ किन्तु न मुने के विधान से ना भाव की स्थिति में अदसोऽसेर्दादु दो मः से उत्व-मत्व ही हुआ। यहाँ पूर्वत्रासिद्धम् से उत्वमत्वविधायक सूत्र असिद्ध नहीं हुआ। उत्वमत्व होकर अमु + आ हुआ। अब आङो नास्त्रियाम् से आ को ना होकर अमुना रूप सिद्ध हुआ ।

अमुभ्याम् । अदस् + भ्याम् इस स्थिति में अत्व और पररूप करके अद + भ्याम् बना। सुपि च से दीर्घ करके अदा + भ्याम् बना। अदसोऽसेर्दादु दो मः से अदा के  आकार के स्थान पर दीर्घ ऊकार तथा दकार के स्थान पर मकार आदेश होकर अमूभ्याम् रूप सिद्ध हुआ।

अमीभिः। अदस् + भिस् के इस स्थिति में अत्व और पररूप करने पर अद + भिस् बना। अतो भिस् ऐस् से भिस् को ऐस् आदेश प्राप्त हुआ, जिसका नेदमदसोरको: से निषेध हो गया। अब बहुवचने झल्येत् से झलादि बहुचन सुप् परे रहते अद के धकारोत्तरवर्ती अकार को एकार हो गया। अदे + भिस् बना।  एत ईद् बहुवचने से अदे के एकार को ईत्व और दकार को मत्व हुआ।  अमी + भिस् रूप बना। भिस् के सकार को रुत्व विसर्ग कर अमीभिः रूप सिद्ध हुआ। इसी तरह अमीभ्यः रूप सिद्ध कर लें।

अमुष्मै । अदस् + ङे इस स्थिति में ङकार का अनुबन्धलोप, अत्व, पररूप करने पर अद + ए हुआ । सर्वनाम्नः स्मै से ए को स्मै आदेश होकर अद + स्मै हुआ । उत्व मत्व और सकार को आदेशप्रत्ययोः से षत्व करने पर अमुष्मै रूप सिद्ध हुआ ।

अमुष्यात्। अदस् + ङसि इस स्थिति में ङकार तथा इकार का अनुबन्धलोप, अत्व, पररूप करने पर अद + अस् हुआ । ङसिड्यो: स्मात्स्मिनौ से स्मात् आदेश, उत्व मत्व और सकार को आदेशप्रत्ययोः से षत्व करने पर अमुष्मात् रूप सिद्ध हुआ ।

अमुष्य । अदस् + ङस् इस स्थिति में अनुबन्धलोप, अत्व, पररूप करने पर अद + अस् हुआ । अब टाङसिङसामिनास्याः से अस् को स्य आदेश होकर उत्व मत्व और सकार को आदेशप्रत्ययोः से षत्व करने पर अमुष्य रूप सिद्ध हुआ ।

अमुयोः। अदस् + ओस्  इस स्थिति में अनुबन्धलोप, अत्व, पररूप करने पर अद + ओस् हुआ । अब ओसि च से एकार आदेश अदे + ओस् हुआ। एचोऽयवायावः से अदे के एकार को  अय् आदेश हुआ।  अदय् + ओस् बना। अदसोऽसेर्दादु दो मः से ह्रस्व अकार के स्थान पर उकार आदेश और दकार के स्थान पर मकार आदेश होकर अमुयोस्, सकार को रुत्व और विसर्ग करके अमुयोः रूप सिद्ध हुआ।

अमीषाम् । अदम् + आम् इस स्थिति में अत्व और पररूप करने पर अद + आम् बना। आमि सर्वनाम्नः सुट् से सुट् का आगम, अनुबन्धलोप करने पर अद + साम् बना। बहुवचने झल्येत् से अद घटक अकार को एत्व होकर अदे + साम् बना। एत ईद् बहुवचने से ईत्व और मत्व होने पर अमी + साम् हुआ। साम् के सकार को आदेशप्रत्ययोः से षत्व करने पर अमीषाम् रूप सिद्ध हुआ। 

अमुष्मिन् । अदस् + ङि, इस स्थिति में अनुबन्धलोप, अत्व और पररूप करने पर अद + इ बना । ङसिड्यो: स्मात्स्मिनौ से स्मिन् आदेश हुआ।  अदसोऽसेर्दादु दो मः से ह्रस्व अकार के स्थान पर उकार आदेश और दकार के स्थान पर मकार आदेश होकर अद + स्मिन् बना । आदेशप्रत्ययोः से स्मिन् के सकार को षत्व करने पर अमुष्मिन् रूप सिद्ध हुआ।

अमीषु। अदस् + सुप इस स्थिति में अनुबन्धलोप, अत्व और पररूप करने पर अद + सु बना। एत ईद् बहुवचने से ईत्व और मत्व तथा  अमीसु, आदेशप्रत्ययोः से  षत्व करने पर अमीषु रूप सिद्ध हुआ।

इति हलन्‍त पुँल्‍लिङ्गाः ।।
                                                                    ⟹   लघुसिद्धान्तकौमुदी (हलन्तस्त्रीलिङ्ग-प्रकरणम्)
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