पूर्वपाठावलोकन-
जैसा कि आप जानते होंगे कि भ्वादि दस गणों में प्रत्येक गण में अलग- अलग विकरण होते हैं। जैसे- भ्वादि में शप्, अदादि में शप् का लुक्, जुहोत्यादि में श्लु, दिवादि में श्यन् प्रत्यय। इसी प्रकार स्वादि गण में पठित धातुओं से परे श्नु प्रत्यय होता है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि धातुओं को अलग-अलग गणों में विभाजित करते हुए उनसे अलग-अलग विकरण कहे जाने का क्या प्रयोजन है? यह इसलिए कि इन्हीं विकरण के कारण हम धातुओं के रूप के बना पाते हैं। यदि ये विकरण नहीं होते तब सभी धातुओं से कर्ता अर्थ में शप् प्रत्यय हो जाता फलतः अत्ति, जुहोति, दिव्यति जैसे रूप नहीं बन पाते। इन विकरणों में भी अनुबन्ध की कल्पना की की गयी है, जिसके कारण कहीं इक् को गुण हो जाता है तो कहीं गुण का निषेध। आप भ्वादि में यह पढ़ चुके होंगें कि जहाँ शकार की इत्संज्ञा होती है, वह शित् कहलाता है। शित् होने के कारण उसकी तिङ्शित्सार्वधातुकम् से सार्वधातुक संज्ञा हो जाती है। सार्वधातुक संज्ञा हो जाने के कारण सार्वधातुकार्धधातुकयोः से गुण होता है। इस स्वादि प्रकरण में श्नु विकरण प्रत्यय के शकार की इत्संज्ञा होती है, जिससे यह शित् कहलाता है। यह सार्वधातुक संज्ञक श्नु प्रत्यय सार्वधातुकमपित् के कारण अपित् भी है। इससे इसका ङिद्वद्भाव हो जाता है। ङिद्वद्भाव हो जाने के कारण क्ङिति च से गुण का निषेध हो जाता है। इसी प्रकार तिबादि प्रत्ययों में भी समझना चाहिए। अब आप श्नु प्रत्यय विकरण के उद्देश्य को भली भांति समझ चुके होंगें।
1. लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः
सूत्रार्थ- लकार सकर्मक धातु से कर्म और कर्ता में तथा अकर्मक धातु से भाव और कर्म में
हो।
2. स्वरितञितः कर्त्रभिप्राये क्रियाफले
सूत्रार्थ- स्वरितेत् तथा ञित् धातु से आत्मनेपदसंज्ञक प्रत्यय होता है यदि क्रिया का फल
कर्ता को प्राप्त हो रहा हो तो।
3. तिङ्शित्सार्वधातुकम्
सूत्रार्थ- धातु के अधिकार में कहे गये तिङ् और शित् प्रत्यय सार्वधातुकसंज्ञक होते हैं।
4. सार्वधातुकार्धधातुकयोः
सूत्रार्थ- सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे रहते इगन्त अंग को गुण हो। इको
गुणवृद्धी तथा अलोऽन्यस्य के नियम से यह गुण
आदेश अंग के अन्त्य वर्ण (इक्) को होगा।
5.सार्वधातुकमपित्
सूत्रार्थ- अपित् सार्वधातुक ङित् के समान होता है।
परस्मैपद में तिप्, सिप् तथा ङिप् प्रत्ययों के पकार की इत्संज्ञा होती है।
अतः ये तीनों पित् प्रत्यय है। पित् प्रत्यय होने के कारण ये तीन प्रत्यय ङित् के समान नहीं होते हैं। ङित् के समान नहीं होने से क्ङिति से गुण का निषेध नहीं होता है। अर्थात् गुण हो जाता है। इससे यह भी जानकारी मिलती है कि तिङ् के 9 प्रत्ययों में ये 3 प्रत्यय ङित् के समान नहीं होते हैं तथा शेष 6 प्रत्यय ङित् के समान होते है। इसके कारण शेष 6 प्रत्ययों में अर्थात् गुण नहीं होता है। हमें इसका उदाहरण षुञ् धातु में देखने को मिलेगा।
इस सूत्र को आप भ्वादि गण, श्रु धातु के शृणुतः रूप सिद्धि प्रक्रिया के समय पढ़
चुके होंगे।
6. क्ङिति च
सूत्रार्थ- गित्, कित् तथा ङित् प्रत्ययों के परे रहते इगन्त लक्षण गुण और वृद्धि कार्य
नहीं होते हैं।
इस सूत्र को भू धातु के आशीर्लिङ् के रूप भूयात् सिद्धि के समय पढ़ चुके होंगे।
7. लशक्वतद्धिते
सूत्रार्थ- प्रत्यय के आदि ल् श् एवं कवर्ग की इत्संज्ञा हो।
8. कर्तरि शप्
सूत्रार्थ- कर्ता अर्थ को कहने वाला सार्वधातुकसंज्ञक प्रत्यय परे रहने पर
धातु से शप् प्रत्यय होता है।
सुनोति । षुञ् धातु से लट् लकार आया । षुञ् में ञकार की इत्संज्ञा, लोप तथा षकार को धात्वादेः षः सः से सकार होने पर सु हुआ। वर्तमान काल की विवक्षा में लट् के स्थान पर परस्मैपद में तिप् आया। सु+ति बना। लट् के स्थान पर तिप् की सार्वधातुकसंज्ञा करके शप् प्राप्त था, उसे बाधकर स्वादिभ्यः श्नुः से श्नु हो गया। श्नु में शकार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप करने पर सु + नु +ति बना। सार्वधातुक ति परे रहते नु के उकार को गुण ओ हुआ। सु+नो+ति बना। परस्पर वर्ण सम्मेलन करने पर सुनोति रूप सिद्ध हुआ ।
विशेष-
सु + नु +ति इस अवस्था में नु की सार्वधातुकसंज्ञा करके
सार्वधातुकार्धधातुकयोः से सु के उकार को गुण प्राप्त था किन्तु क्ङिति च से
गुणनिषेध हुआ, क्योंकि सार्वधातुकमपित् से नु को ङिद्वद्भाव हुआ है।
सुनुतः। षुञ् धातु के लट् लकार आया। षुञ् ञकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा, तस्य लोपः से लोप तथा षु के षकार को धात्वादेः षः सः से सकार होने पर सु
हुआ। लट् के स्थान पर परस्मैपद द्विवचन में तस् प्रत्यय आया। सु+तस् में
स्वादिभ्यः श्नुः से श्नु हो गया। श्नु में शकार की लशक्वतद्धिते
से इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप करने पर सु + नु +तस् बना। तस् अपित् है,
अतः ङिद्वद्भाव होकर नु को प्राप्त गुण का निषेध तथा
सकार को रुत्वविसर्ग करके सुनुतः रूप सिद्ध हुआ।
सुन्वन्ति। सु धातु से झि प्रत्यय आया। झि के स्थान पर झोऽन्तः से
अन्त् आदेश करने पर सु + अन्ति बना।
स्वादिभ्यः श्नुः से श्नु आने पर सु+नु+अन्ति बना। अचि श्नुधातुभ्रुवां
य्वोरियडुवङौ से उवङ् आदेश प्राप्त था, उसे बाधकर हुश्नुवोः सार्वधातुके से नु के उकार के स्थान पर
यण् आदेश व् हो गया, सुन्व् + अन्ति बना। वर्णसम्मेलन करके सुन्वन्ति रूप सिद्ध हुआ ।
सुनोषि। षुञ् धातु के लट् लकार आया। षुञ् ञकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा, तस्य लोपः से लोप तथा षु के षकार को धात्वादेः षः सः से सकार करने पर सु
हुआ। लट् के स्थान पर परस्मैपद एरवचन में सिप् प्रत्यय आया। सु+ सिप् हुआ। सिप्
में पकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा, तस्य लोपः से लोप । स्वादिभ्यः श्नुः से श्नु हो गया। श्नु में शकार की
लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा और तस्य लोपः से लोप करने पर
सु + नु + सि बना। सार्वधातुक सि परे रहते नु के उकार को
गुण ओ हुआ। सु+नो+सि बना। सि के सकार को
आदेशप्रत्यययोः से षत्व करने तथा परस्पर वर्ण सम्मेलन करने पर सुनोसि रूप सिद्ध
हुआ ।
सुनुथः। षुञ् धातु के वर्तमान काल में लट् लकार, षुञ् ञकार की इत्संज्ञा, लोप तथा षु के षकार को धात्वादेः षः सः से सकार करने पर सु
हुआ। लट् के स्थान थस् प्रत्यय आया। सु+ थस् हुआ। शप् को बाधकर स्वादिभ्यः श्नुः
से श्नु हो गया। श्नु में शकार की इत्संज्ञा, लोप करने पर
सु + नु + थस् बना। थस् अपित् है,
अतः ङिद्वद्भाव होकर नु को प्राप्त गुण का निषेध, थस् के
सकार को रुत्वविसर्ग तथा वर्ण सम्मेलन करने पर सुनुथः रूप सिद्ध हुआ।
सुनुथ। षुञ् धातु के वर्तमान काल, लट् लकार, मध्यमपुरुष बहुवचन में थ प्रत्यय लाकर सुनुथः
के समान ही सुनुथ रूप सिद्ध कर लें।
सुनोमि। षुञ् धातु के वर्तमान काल, लट् लकार, उत्तमपुरुष एकवचन में मिप् प्रत्यय लाकर
सु + नु + सि बना। सार्वधातुक मि परे रहते नु के उकार को गुण ओ होकर सुनोमि रूप
बना।
सुन्व: सुनुवः। सुन्म:- सुनुमः। सुनुथः से समान वस् और मस् में सुनुवः,
सुनुमः बनता है। यहाँ वस् और मस् के परे रहते
लोपश्चास्यान्यतरस्याम् म्वोः से नु के उकार का वैकल्पिक लोप होता है, जिससे
सुन्वः,
सुन्मः रूप बनेगा। इस प्रकार वस् तथा मस् में लोपाभाव में
सुनुवः एवं सुनुमः तथा लोप पक्ष में सुन्वः,
सुन्मः ऐसे दो-दो रूप बनते हैं।
सु धातु के लट् के परस्मैपद, लट् लकार का रूप-
सुनोति सुनुतः
सुन्वन्ति।
सुनोषि सुनुथः
सुनुथ
सुनोमि सुन्व: सुनुवः सुन्म:- सुनुमः
सुनुते। षुञ् धातु के वर्तमान काल, लट् लकार आत्मनेपद में त प्रत्यय
आया। 'तिङ् शित् के द्वारा 'त'
की सार्वधातुक संज्ञा हुई। शप्
को बाधकर स्वादिभ्यः श्नुः से श्नु हो गया। श्नु में शकार की इत्संज्ञा, लोप करने
पर सु + नु + त ऐसी स्थिति बनी । आत्मनेपद का त अपित् है,
अतः ङिद्वद्भाव होकर नु को प्राप्त गुण का निषेध, सुनुत में
तकारोत्तरवर्ती अन्त्य अच् अकार की अचोऽन्त्यादि टि से टिसंज्ञा हुई और टित
आत्मनेपदानां टेरे से उसके स्थान पर एकार आदेश होकर सुनुते रूप सिद्ध हुआ।
विशेष-
आत्मनेपद का कोई भी प्रत्यय पित् नहीं है, अतः सार्वधातुकमपित् से सभी प्रत्यय ङित् के समान होते हैं।
फलतः सभी प्रत्ययों में गुण का निषेध रहो जाता है। यहाँ परस्मैपद की तरह ही रूप
बनाता है, किन्तु अच् परे होने पर हुश्नुवोः सार्वधातुके से यण् और टित आत्मनेपदानां
टेरे एत्व होता है।
सु धातु के लट् के आत्मनेपद, लट् लकार का रूप-
सुनुते, सुन्वाते, सुन्वते।
सुनुषे, सुन्वाथे, सुनुध्वे।
सुन्वे, सुन्वहे- सुनुवहे, सुन्महे-सुनुमहे ।
लिट् में द्वित्वादि कार्य होकर आदेशप्रत्यययोः से द्वितीय सकार को षत्व हो
जाता है। लिट् आर्धधातुक लकार है,
अतः अजादि-प्रत्ययों के परे हुश्नुवोः सार्वधातुके से यण् न
होकर अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियङवङौ से उवङ् होता है।
सुषाव। लिट्, परस्मैपद में द्वित्व, वृद्धि तथा मूर्धन्य आदेश होकर 'सुषाव' बनता है।
लिट् में परस्मैपद के रूप- सुषाव, सुषुवतुः, सुषुवुः। सुषविथ सुषोथ, सुषुवधुः, सुषुव । सुषाव सुषव, सुषुविव, सुषुविम। आत्मनेपद में- सुषुवे। आत्मनेपद में एश् आदेश, यण् को बाध कर उवङ् आदेश हुआ। सुषुवे।
शेष रूप- सुषुवाते, सुषुविरे। सुषुविधे, सुषुवार्थ, सुषुविदवे सुषुविध्वे सुषुवे, सुषुविवहे, सुषुविमहे ।
लुट् में आर्धधातुक परे होने के कारण गुण हो जाता है। परस्मैपद के रूप सोता,
सोतारौ, सोतार सोतासि, सोतास्थः, सोतास्थ सोतास्मि, सोतास्वः, सोतास्मः। आत्मनेपद में सोता,
सोतारी, सोतारः। सोतासे, सोतासाथे, सोताध्ये सोताहे, सोतास्वहे, सोतास्महे ।
लृट् परस्मैपद में सोष्यति, सोप्यतः, सोष्यन्ति। सोष्यसि, सोष्यथः, सोष्यथ। सोप्यामि, सोष्याव:, सोप्यामः । आत्मनेपद में- सोध्यते,
सांध्येते, सोष्यन्ते। सोष्यसे, सोष्येथे, सोष्यध्वे सोष्ये, सोप्यावहे, सोध्यामहे । लोट् सुनोतु सुनुतात्,
सुनुताम् सुन्वन्तु । सुनुहि।
लोट्, मध्यमपुरुष के एकवचन में सारी प्रक्रिया पूर्ववत् रहेगी। सि को हि आदेश उतश्च प्रत्ययादसंयोगपूर्वात् से हि का लुक् करने पर सुनु रूप बनता है। हि को तातङ् होने के पक्ष में सुनुतात् ये दो रूप बन जाते हैं।
सुनवानि । उत्तम के एकवचन में सु + श्नु + मिप् हुआ। यहाँ मेर्निः से मि को 'नि' आदेश, आडुत्तमस्य पिच्च से
आट् आगम, सुनु + आट् + नि हुआ। नि पित् है अतः 'नु' के उकार को गुण, अव् आदेश होकर सुनवानि रूप बनता है।
सुनवै । आत्मनेपद में षुञ् + लोट्, एध् + इट्, अनुबन्धलोप, कर्तरि शप् से शप् को बाधकर श्नु,
अनुबन्धलोप, 'सु+ नु + इट् हुआ। अब टित आत्मनेपदानां टेरे से टिसंज्ञक इ को एत्व करके 'सु+ नु + ए' बना। अब एत ऐ से लोट् के ए की वृद्धि होकर 'सु+ नु + ऐ' बना। इस अवस्था में उकार को गुण,
सुनो + ऐ बना। आडुत्तमस्य पिच्च से आट् का आगम,
टकार का अनुबन्धलोप, सुनो + आ + ऐ बना। आटश्च से आ + ऐ के
मध्य वृद्धि होकर ऐ हुआ। अवादेश होकर सुनवै रूप सिद्ध हुआ।
विशेष- लोटो लङ्वत् सूत्र के अनुसार लोट् लकार में लङ् लकार के समान कार्य
होते हैं। अतः यहाँ आडुत्तमस्य पिच्च आडागम तथा आटश्च से वृद्धि का कार्य होता है।
इस प्रकार से लोट् के परस्मैपद में रूप बने- सुनोतु सुनुतात्, सुनुताम्, सुन्वन्तु सनु सुनुतात्, सुनुतम्, सुनुत। सुनवानि, सुनवाव, सुनवाम। आत्मनेपद में- सुनुताम्, सुन्वाताम्, सुन्वताम्। सुनुष्व, सुन्वाथाम्, सुनुध्वम्। सुनवै, सुनवावहै, सुनवामहै।
लङ्- (परस्मैपद) असुनोत्, असुनुताम् असुन्वन्। असुनोः, असुनुतम्, असुनुत । असुनवम्, असुनुव-असुन्व, असुनुम-असुन्म आत्मनेपद में- असुनुत,
असुन्वाताम्, असुन्वत। असुनुथाः, असुन्वाथाम्, असुनुध्वम्। असुन्वि, असुन्वहि-असुनुवहि, असुन्महि असुनुमहि ।
विधिलिङ्- ( परस्मैपद) सुनुयात्, सुनुयाताम्, सुनुयुः । सुनुया, सुनुयातम्, सुनुयात सुनुयाम्, सुनुयाव, सुनुयाम आत्मनेपद- सुन्वीत, सुन्वीयाताम्, सुन्वीरन् । सुन्वीथाः, सुन्वीयाथाम्, सुन्वीध्वम्। सुन्वीय, सुन्वीवहि, सुन्वीमहि ।
आशीर्लिङ्- ( परस्मैपद) अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घ से दीर्घ करके सूयात्,
सूयास्ताम्, सूयासुः। सूया, सूयास्तम्, सूयास्त। सूयासम्, सूयास्व, सूयास्म। आत्मनेपद सीयुट् और सुट् करके सोषीष्ट,
सोषीयास्ताम्, सोषीरन्। सोषीष्ठाः, सोषीयास्थाम्, सोषीदवम्। सोषीय, सोषीवहि, सोषीमहि।
सूत्रार्थ - परस्मैपद प्रत्यय के परे रहते स्तु, सु और धूञ् धातुओं से परे सिच् को इट् का आगम हो।
सु-धातु अनिट् है,
इसलिए इट् प्राप्त नहीं था, अतः इस सूत्र से सिच् में इट् विधान किया गया है।
असावीत्। सु धातु से लुङ्, अट्, तिप्, च्लि, सिच् आदि करके असु+स्+त् बना। अस्तिसिचोऽपृक्ते से ईट् आगम करके असु+स्+ ईत् बन गया। स्तुसुधूञ्भ्यः
परस्मैपदेषु से सिच् को इट् आगम हुआ, टित् होने से उसके आदि में बैठा असु+इस्+ईत् हुआ। सिचि
वृद्धिः परस्मैपदेषु से सु की वृद्धि और आव् आदेश होकर असाव्+इस्+ईत् बना। इट ईटि
से सकार का लोप, दोनों इकारों में सवर्णदीर्घ और वर्णसम्मेलन करके असावीत् सिद्ध हुआ।
लुङ परस्मैपद में - असावीत्, असाविष्टाम्, असाविषुः । असावी, असाविष्टम् असाविष्ट असाविषम्, असाविष्व, असाविष्म
असोष्ट । आत्मनेपद में सिच्, आर्धधातुक गुण, मूर्धन्य आदेश होकर 'असोष्ट' बना।
आत्मनेपद में- असोष्ट,
असोषाताम्, असोषत। असोष्ठाः, असोषाथाम् असोढ्वम्। असोषि, असोष्वहि, असोष्महि । लृङ्- परस्मैपद में- असोष्यत्,
असोप्यताम्, असोष्यन्। असोष्य:, असोध्यतम् असोष्यत। असोष्यम्, असोष्याव, असोध्याम आत्मनेपद में- असोष्यत,
असोध्येताम्, असोष्यन्त। असोष्यथाः, असोष्येथाम्, असोष्यध्वम्। असोध्ये, असोष्यावहि, असोष्यामहि।
चिञ् चयने । चिञ् धातु चयन करने, संग्रह करने, चुनने, बटोरने आदि अर्थ में है। इसमें भी ञकार की इत्संज्ञा होने
से यह उभयपदी है और तासि और स्य आदि में अनिट् है किन्तु थल् में वेट् और अन्य
लिट् में सेट् होता है। इसके रूप भी लगभग सु धातु की तरह ही चलते हैं किन्तु इस
धातु में लुङ् में इट् आगम नहीं होता है।
चिनोति । 'चि + तिप्' में 'श्नु' तथा गुण होकर 'चिनोति' रूप बना। इसी प्रकार 'चिनुते' रूप सिद्ध होगा।
लट् के परस्मैपद में - चिनोति, चिनुतः, चिन्वन्ति। चिनोषि, चिनुथः, चिनुथा चिनोमि, चिन्व:- चिनुवः, चिन्म:- चिनुमः । आत्मनेपद में- चिनुते,
चिन्वाते, चिन्वते । चिनुषे, चिन्वाथे, चिनुध्वे चिन्वे, चिन्वहे-चिनुवहे, चिन्महे चिनुमहे ।
सूत्रार्थ - सन् या लिट् के परे रहते अभ्यास से परे चिञ् धातु को विकल्प से कुत्व होता है ।
अचैषीत् । लुङ् में अट्, सिच्, तिप् होकर 'अ +चि+ सिच्+ ति' इस अवस्था में इकार लोप 'अचिस् त्', ईट् आगम, 'अचि +स् +ईत्' हुआ। सिचि वृद्धिः परस्मै० से
इगन्त लक्षणा वृद्धि तथा मूर्धन्य आदेश होकर अचैषीत् रूप बना ।
अचेष्ट। आत्मनेपद में सिच्, गुण, मूर्धन्य होकर 'अचेष्ट' रूप बना।
‘स्तृ' का अर्थ है– ढकना। यह अनिट् तथा उभयपदी धातु है।
स्तृणोति । 'स्तृ +श्नु+तिप्' इस
अवस्था में 'ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम्' के
द्वारा णत्व होकर 'स्तृणोति' बना।
सूत्रार्थ - जिस अभ्यास के पूर्व में शर् हो, उस अभ्यास के खय् का शेष होता है,
अन्य हलों का लोप हो जाता है।
यह सूत्र हलादिः शेषः सूत्र का बाधक
है। हलादिः शेषः आदि हल् का शेष करता है किन्तु यह सूत्र खय् के पहले शर् हो तो
उसका लोप करता है।
तस्तार। स्तृ से लिट्, तिप्, णल्, द्वित्व होकर स्तृ+स्तृ+अ बना। इसके बाद 'ऋतश्च संयोगादेर्गुणः' से गुण अर् होकर
स्तर्-स्तृ+अ बना। हलादिः शेष: से आदि सकार का शेष और अन्त्य शर् का लोप हो रहा था
किन्तु पूर्व में सकार शर् है और उससे परे खय् तकार है,
अतः उसे बाधकर शपूर्वाः खयः से तकार का शेष और सकार और रेफ
का लोप हो गया। त+स्तृ+ अ बना। ऋतश्च संयोगादेर्गुणः से ऋकार को गुण होकर अत
उपधायाः से वृद्धि होकर तस्तार सिद्ध हुआ।
तस्तरतुः । अतुस् आदि में भी यही प्रक्रिया होती है। गुण सभी जगह किन्तु णित् को छोड़कर अन्यत्र वृद्धि नहीं होती। तस्तरतुः, तस्तरुः आदि। आत्मनेपद में भी लगभग यही प्रक्रिया है।
तस्तरे । आत्मनेपद में एश् आदेश, द्वित्व तथा अभ्यास कार्य होकर 'तस्तरे' बना।
लिट्, परस्मैपद- तस्तार, तस्तरतुः, तस्तरु:, तस्तर्थ, तस्तरतुः, तस्तर, तस्तार-तस्तर, तस्तरिव, तस्तरिम आत्मनेपद- तस्तरे,
तस्तराते, तस्तरिरे, तस्तरिषे, तस्तराथे, तस्तरिद्वे-तस्तरिध्वे, तस्तरे, तस्तरिवहे, तस्तरिमहे ।
लुट् में गुण होता है। स्तर्ता, स्ततांरौ, स्तर, स्तर्तासि स्तर्तासे।
लृट् में ऋद्धनोः स्ये से इट् का आगम
होकर स्तरिष्यति, स्तरिष्यते। लोद्- स्तृणोतु-स्तुणुतात्,
स्तृणुताम्। लङ्- अस्तृणोत्, अस्तृणुत।
विधिलिङ्- स्तृणुयात्, स्तृण्वीत।
आशीर्लिङ के परस्मैपद में यासुट्, गुणोऽर्तिसंयोगाद्यो: से गुण होकर स्तर्यात् बनता है। आत्मनेपद में अग्रिम सूत्र की प्रवृत्ति होती है।
सूत्रार्थ - तङ् (आत्मनेपद के प्रत्यय) परे रहते ऋदन्त संयोगादि धातु से परे लिङ और सिच्
को विकल्प से इट् आगम हो।
स्तरिषीष्ट, स्तृषीष्ट। आशीर्लिङ् के आत्मनेपद में सीयुट् आदि होकर स्तृ+सी+स्+त बना है। अनिट् धातु होने के कारण इट् प्राप्त नहीं था किन्तु ऋतश्च संयोगादेः के विशेष विधान से विकल्प से इट् हो गया। स्तृ+इ+सी+स्+त बना। स्तृ को सार्वधातुकगुण, इकार से परे सकार को षत्व, ईकार से परे सकार को भी पत्व, पकार से परे तकार को ष्टुत्व करके स्तरिषीष्ट बनता है। इट् न होने के पक्ष में उश्च इस सूत्र से लिङ् को कित्त्व हो जाने के कारण क्ङिति च से गुण का निषेध हुआ। अतः स्तृषीष्ट ही बना रहा। इस तरह दो रूप बन गये।
आशीर्लिङ, आत्मनेपद, इट्पक्ष- स्तरिषीष्ट, स्तरिषीयास्ताम्, स्तरिषीरन् आदि। इट् के अभाव में उश्च से कित् होने के कारण
गुणनिषेध हो जाता है। स्तृषीष्ट, स्तृषीयास्ताम्, स्तृषीरन् आदि ।
लुङ, परस्मैपद- अस्तार्षीत्, अस्ताष्टम्, अस्तार्षुः, अस्तार्षी:, अस्ताष्टम्, अस्ताष्ट, अस्तार्षम्, अस्ताव, अस्ता आत्मनेपद में- उश्च से कित् होने के कारण गुणवृद्धि
नहीं होती है और ह्रस्वादङ्गात् से झल् के परे रहते सकार का लोप होता है। अस्तृत,
अस्तृषाताम्, अस्तृषत, अस्तृथाः, अस्तृषाथाम्, अस्तृवम्, अस्तृषि, अस्तृष्वहि, अस्तृष्महि
लृङ- अस्तरिष्यत्, अस्तरिष्यत
धूञ् कम्पने धूञ् धातु कँपाना अर्थ में है।
ञकार की इत्संज्ञा होने से उभयपदी है। स्वरतिसूतिसूयतिधूञूदितो वा से वैकल्पिक इट् होता है।
धूनोति। 'धू + श्नु +तिप्' यहाँ गुण होकर 'धूनोति' रूप बनेगा। आत्मनेपद में गुण का निषेध होकर 'धनुते' रूप सिद्ध होगा।
लट्, परस्मैपद- धूनोति, धूनुतः, धून्वन्ति, धूनोषि, धनुथः, धूनुथ, धूनोमि, धून्वः-धूनुवः, धून्म: धूनमः। धूनुते, धन्वाते, धून्वते, धूनुषे, धन्वार्थ, धनुध्वे, घुन्चे, धून्वहे-धूनुवहे, धून्महे-धूनुमहे।
दुधाव । लिट् में द्वित्व, अभ्यास कार्य तथा अजन्तलक्षणा वृद्धि होकर 'दुधाव' रूप बनेगा।
'दुधू थल्' इस स्थिति में 'स्वरतिसूति०' के द्वारा वैकल्पिक इट् होता है।
लिट्, परस्मैपद- दुधाव, दुधुवतुः, दुधुवुः। मध्यम एकवचन थल् में स्वरतिसूतिसूयतिधूनूदितो वा से वैकल्पिक इट् होता है। इट् पक्ष में गुण तथा अव् आदेश होकर 'दुधविथ' बनेगा तथा इडभाव पक्ष में गुण होकर 'दुधोथ' बनेगा।
सूत्रार्थ - श्रिञ् धातु से परे या एकाच उगन्त धातु से परे गित् या कित् प्रत्ययों के
वलादि आर्धधातुक को इट् नहीं होता है।
यहाँ स्वरतिसूतिसूयतिधूञूदितो वा यह विकल्प से तथा आर्धधातुकस्येड् वलादेः सूत्र
से इट् आगम प्राप्त होता है। आर्धधातुकस्येड् वलादेः औत्सर्गिक सूत्र है। श्रयुकः किति
सूत्र उन दोनों का निषेधक है। श्रयुकः से इट् का विधान करता है। धूञ् धातु के लिट्
के वस् में पहले तो नित्य से इट् प्राप्त था, उसे बाधकर विकल्प से प्राप्त हुआ और श्रयुकः किति निषेध भी
प्राप्त हुआ है अर्थात् एक तरफ श्रयुकः किति से इट् का निषेध प्राप्त है तो दूसरी
तरफ स्वरतिसूतिसूयतिधूञूदितो वा से वैकल्पिक इट् प्राप्त है। ये दोनों सूत्र
अपने-अपने कार्यों में चरितार्थ हो चुके हैं। जैसे भूतः,
भूतवान् में इट् का निषेध और धोता,
धविता में इट् का विकल्प। दोनों में कोई भी निरवकाश नहीं
है। ऐसी स्थिति में विप्रतिषेधे परं कार्यम् से परकार्य इट् का विकल्प होना चाहिए
था किन्तु ऐसा न होकर परमपि स्वरत्यादिनिषेधं बाधित्वा पुरस्तात्
प्रतिषेधकाण्डारम्भसामर्थ्यादनेन निषेधे प्राप्ते क्रादिनियमान्नित्यमिट्। अर्थात्
स्वरतिसूतिसूयतिधूञूदितो वा से प्राप्त विकल्प से इट् पर है, यह श्रयुकः किति से
पर भी है. तथापि विधिकाण्ड से पूर्व
निषेधकाण्ड को प्रारम्भ करने से निषेध की प्रधानता समझनी चाहिए। अतः निषेध ही
प्रवृत्त होगा, विकल्प नहीं। इस तरह यहाँ भी निषेध प्राप्त हुआ किन्तु इसमें भी क्रादिनियम की
प्रबलता से नित्य से इट् हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अष्टाध्यायी के सप्तम
अध्याय के द्वितीयपाद मे नेड् वशि कृति, एकाच् उपदेशेऽनुदात्तात्, श्रयुकः किति आदि इट् के निषेधक सूत्रों को पहले पढ़कर के
बाद में इट्विधायक या वैकल्पिक इट् विधायक सूत्र पढ़े गये हैं। नियम तो यह होना
चाहिए कि पहले विधि हो और बाद में उसका निषेध। विधान से पूर्व निषेध करना
युक्तिसंगत नहीं बैठता। फिर भी पाणिनि जी ने ऐसा किया है,
वह जरूर किसी कारणवश ही होगा। इससे यह सिद्ध होता है कि इट्
और इट् के निषेध के सम्बन्ध में यदि कहीं विकल्प और निषेध युगपत् प्राप्त हैं तो
वहाँ निषेध को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। इस तरह वस्,
मस् में क्रानिदनियम से इट् होकर दुधुविव,
दुधुविम ये रूप सिद्ध होते हैं।
लिट्- दुधाव, दुधुवतुः, दुधुवुः, दुधविथ-दुधोथ, दुधुवथुः, दुधुव, दुधाव- दुधव दुधुविव, दुधुविम।
दुधुवे। आत्मने पद में एश् आदेश, उवङ् आदेश होकर 'दुधुवे' बना।
आत्मनेपद- दुधुवे, दुधुवाते, दुधुविरे।
लुट्- इट्पक्षे धविता, धवितारौ, धवितार, धवितासि, धवितासे इडभावे- धोता, धोतारौ, धोतारः, धोतासि, धोतासे। लृट्- इट्पक्षे- धविष्यति, धविष्यते। इडभावे- धोष्यति, धोष्यते।
लोट्- धूनोतु-धूनुतात्, धूनुताम्, धन्वन्तु। धूनुताम्, धून्वाताम्, धून्वताम्।
लङ्- अधूनोत्, अधूनुताम्, अधून्वन्, अधूनोः। अधूनुत, अधून्वाताम्, अधून्व।
लुङ् में- अट्, सिच, तिप् के इकार का लोप होकर 'अ धू स् त्' इस दशा में 'स्वरतिसूति०' के द्वारा विकल्प से 'इट्' की प्राप्ति हुई। तब 'स्तुसु०' के द्वारा नित्य 'इट्' हुआ। अधावीत्।
आत्मनेपद में विकल्प से 'इट्' होकर 'अधविष्ट' तथा 'अधोष्ट' ये दो रूप बनेंगे।
लृङ् में 'अधविष्यत्' तथा 'अघोष्यत्' रूप बनेंगे। बहुवचन में 'अधविष्यत' तथा 'अधोध्यत' रूप बनेंगे।
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